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________________ अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [ ५४९ किसी कार्य के एक या अनेक हेतुओं का निर्देश अलङ्कार नहीं होता; किन्तु जहाँ एक हेतु से कोई कार्य उत्पन्न हो और पुनः वह कार्य ही अन्य कार्य का कारण बन जाय, उस कारण से उत्पन्न कार्य फिर अन्य कार्य का कारण बने और इस तरह जहाँ प्रत्येक पूर्ववर्ती के अपने उत्तरवर्ती के प्रति कारण बनने से उक्ति में कारणों की एक शृङ्खला बन जाय, वहाँ चमत्कार-विशेष के कारण अलङ्कार माना जाता है। इसकी प्रकृति के अनुरूप इसे कारणमाला कहा जाता है। रुद्रट ने कारणमाला अलङ्कार की कल्पना कर उसके स्वरूप का निरूपण करते हुए कहा था कि जहाँ अर्थों में पूर्ववर्ती अर्य परवर्ती अर्थ का हेतु बन जाता है और यह क्रम समग्र रूप से चलता है, अर्थात् एक पूर्ववर्ती अर्थ अपने उत्तरवर्ती अर्थ का हेतु बनता है, फिर वह उत्तरवर्ती अर्थ भी अपने उत्तरवर्ती का हेतु बनता है और प्रत्येक पूर्ववर्ती का अपने उत्तरवर्ती के प्रति हेतु बनने का यह क्रम शृङ्खला के रूप में समग्र उक्ति तक चलता रहता है, वहां कारणमाला अलङ्कार माना जाता है।' ___ मम्मट, रुय्यक एवं विश्वनाथ ने कारणमाला का यही स्वरूप स्वीकार किया है। रुय्यक ने कहा है कि इसमें कार्य और कारण का जो क्रम रहता है, वही इसके सौन्दर्य का कारण है। इस प्रकार रुद्रट से विश्वनाथ तक कारणमाला के सम्बन्ध में यह समान धारणा प्रचलित रही कि इसमें हर पूर्ववर्ती अपने उत्तरवर्ती के प्रति कारण बनता चले और इस तरह कारणों की एक शृङ्खला बन जाय। अप्पय्य दीक्षित ने कारणमाला के इस स्वरूप को देखते हुए उसके एक और रूप की कल्पना की। प्रत्येक उत्तरवर्ती का अपने पूर्ववर्ती के प्रति हेतु बनने का क्रमबद्ध वर्णन भी कारणमाला का एक रूप माना गया। इस प्रकार उनके अनुसार उत्तर-उत्तर के प्रति पूर्व-पूर्व का तथा पूर्व-पूर्व के प्रति उत्तरउत्तर का हेतु बनने का क्रमबद्ध वर्णन कारणमाला है। वस्तुतः कारणमाला १. कारणमाला सेयं यत्र यथापूर्वमेति कारणताम् । अर्थानां पूर्वार्थाद्भवतीदं सर्वमेवेति ॥ -रुद्रट, काव्यालं. ७, ८४ २. कार्यकारणक्रम एवात्र चारुत्वहेतुः।-रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० १७३ ३. उत्तरोत्तरकारणभूतपूर्वपूर्वैः पूर्वपूर्वकारणभूतोत्तरोत्तर वस्तुभिः कृतो गुम्फः कारणमाला।-अप्पय्य दी० कुवलया० वृत्ति पृ० १२५
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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