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अलङ्कार- धारणा : विकास और विश्लेषण
का अलङ्कारत्व कार्यकारण की शृङ्खला में निहित है । कार्य - वाक्य या कारणवाक्य का पूर्ववर्ती या परवर्ती होना विशेष महत्त्व नहीं रखता । यदि प्रत्येक पूर्ववर्ती का अपने से उत्तरवर्ती के प्रति हेतु बनने का क्रमबद्ध वर्णन कारणमाला अलङ्कार है तो प्रत्येक उत्तरवर्ती का पूर्ववर्ती के प्रति हेतुत्व वर्णन भी कारणमाला का ही उदाहरण माना जाना चाहिए। दोनों में कार्यकारण की माला समान रूप से रहती है, भेद केवल कार्य तथा कारण के पूर्व भाव तथा परभाव का है । पण्डितराज जगन्नाथ ने भी शृङ्खलामूलक इस अलङ्कार के दोनों भेद स्वीकार किये हैं । प्रत्येक पूर्ववर्ती कारण हो और प्रत्येक उत्तरवर्ती कार्य, यह एक प्रकार की कारणमाला है । प्रत्येक पूर्ववर्ती कार्य और प्रत्येक उत्तरवर्ती कारण हो, यह दूसरी कारणमाला है । ' अप्पय्य दीक्षित और जगन्नाथ के बाद कारणमाला के ये दोनों रूप स्वीकृत हुए हैं । निष्कर्षतः, कारणमाला अलङ्कार के निम्नलिखित दो रूप मान्य हैं
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(१) जिस उक्ति में आरम्भ से अन्त तक प्रत्येक पूर्ववर्ती का अपने उत्तरवर्ती के प्रति हेतु बनने का क्रमबद्ध वर्णन हो और (२) जहाँ प्रत्येक उत्तरवर्ती का अपने-अपने पूर्ववर्ती के प्रति हेतु बनने का क्रमबद्ध वर्णन हो । कारणों का क्रमबद्ध वर्णन या उनकी शृङ्खला ही इस अलङ्कार का प्राण है ।
एकावली
करणमाला की तरह एकावली भी माला या शृङ्खला की धारणा पर आधृत अलङ्कार है । इसकी उद्भावना भी सर्वप्रथम रुद्रट के 'काव्यालङ्कार' में हुई है । रुद्र की धारणा है कि जहाँ उत्तरोत्तर उत्कर्षशाली अर्थों की परम्परा इस रूप में रखी जाती है कि प्रत्येक उत्तरवर्ती अर्थ पूर्ववर्ती अर्थ का विशेषण बन जाय, वहाँ एकावली मानी जाती है । इसमें कहीं विधि रूप से तथा कहीं अपोह अर्थात् अन्यव्यवच्छेद (या निषेध) रूप से वर्णन होता है । इसमें अर्थों के विशेषण - विशेष्य-भाव के क्रम का सौन्दर्य निहित रहता है । भोज ने इसे परिकर अलङ्कार अन्तर्भुक्त मान लिया है । इसीलिए उन्होंने इसका पृथक् निरूपण नहीं किया । 3 १. तत्र पूर्वं पूर्वं कारणं परं परं कार्यमित्येका ( कारणमाला)। पूर्वं पूर्वं कार्यं परं परं कारणमित्यपरा । - जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७३१
२. एकावलीति सेयं यत्रार्थपरम्परा यथालाभम् ।
आधीयते यथोत्तरविशेषणा स्थित्यपोहाभ्याम् ॥ — रुद्रट,
३. द्रष्टव्य, भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण ४, ७६
काव्यालं ० ७,
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