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________________ अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [ ५६६ में अवस्थित छोटी वस्तु के भी किसी कारण उसमें समा न सकने का वर्णन हो, वहां अधिक अलङ्कार होता है। भोज ने अतिशयोक्ति के महत्त्वातिशय आदि भेद में अधिक को अन्तर्भूत मानकर उसका पृथक् निरूपण नहीं किया है। ___ रुय्यक ने अधिक की परिभाषा में कहा है कि आश्रय तथा आश्रयी अर्थात् माधार और आधेय की अननुरूपता अधिक है !२ यह अननुरूपता दो रूपों में हो सकती है—(क) आश्रय के विपुल होने पर भी आश्रयी के परिमित होने से तथा (ख) आश्रित के विपुल होने पर भी आश्रय के परिमित होने से। विश्वनाथ ने भी आश्रय तथा आश्रयी में से एक का दूसरे की अपेक्षा अधिक होना अधिक का लक्षण माना है। जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित भी पृथुल आधार की अपेक्षा आधेय की अधिक पृथुलता का तथा पृथुल आधेय की अपेक्षा आधार की अधिक पृथुलता का वर्णन; ये दो रूप अधिक के मानते हैं। जगन्नाथ का कथन है कि आधार या आधेय में से किसी एक को अत्यन्त वृहत् बताने के लिए उसकी तुलना में दूसरे को बहुत छोटा बताना अधिक है। जो वस्तुतः छोटा नहीं हो उसे भी किसी की अपेक्षा बहुत छोटा बताने से अन्य वस्तु की अतिशय गुरुता का बोध होता है। किसी छोटी वस्तु को अन्य की तुलना में छोटी कहने से अन्य का महत्त्व नहीं बढ़ता। अतः, जगन्नाथ की मान्यता का भी सार यह है कि जहाँ आश्रय का अतिशय माधिक्य बताने के लिए आश्रित गुरु वस्तु को भी आश्रय की तुलना में बहुत १. यत्रान्योन्यविरुद्ध विरुद्धबलवक्रियाप्रसिद्ध वा। वस्तुद्वयमेकस्माज्जायत इति तद्भवेदधिकम् ॥ तथायत्राधारे सुमहत्याधेयमवस्थितं तनीयोऽपि । अतिरिच्येत कथंचित्तदधिकमपरं परिज्ञयम् ॥ -रुद्रट, काव्यालङ्कार ६,२६-२८ २. आश्रयायिणोरनानुरूप्यमधिकम् ।-रुय्यक, अलङ्कार सू० ४८ ३. आश्रयाश्रयिणोरेकस्याधिक्येऽधिकमुच्यते । -विश्वनाथ, साहित्यदर्पण १०,६४ ४. अधिकं पृथुलाधारादाधेयाधिक्येवर्णनम् । तथापृथ्वाधेयाद्यदाधाराधिक्यं तदपि तन्मतम् । ___-अप्पय्यदीक्षित, कुवलयानन्द ६५-६६ ५. आधाराधेययोरन्यतरस्यातिविस्तृतत्वसिद्धिफलकमितरस्यातिन्यूनत्वकल्प नमधिकम् ।-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर पृ० ७१६
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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