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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
विवेचन के उपरान्त उसके अन्य अनेक भेदों की सम्भावना भी प्रकट की थी । 'काव्यादर्श' के टीकाकार नृसिंहदेव ने जयदेव - कल्पित उक्त अपह्न ुति-भेदों को दण्डी-सम्मत स्वीकार किया है ।" यह मान्यता उचित ही जान पड़ती है । ऐसे बहुत से अपह्न ुति प्रकार दण्डी आदि के समय ही प्रचलित रहे होंगे । उन्होंने सब को अलग-अलग परिभाषित करना आवश्यक नहीं समझा होगा । दण्डी के सङ्क ेत का सहारा लेकर ही जयदेव ने अपह्न ुति के उक्त भेदों की कल्पना की है ।
उत्प्रेक्षा की प्रकृति के सम्बन्ध में जयदेव प्राचीन आचार्यों से सहमत हैं । उन्होंने उत्प्र ेक्षा के एक गूढ़ा भेद की कल्पना की है, जिसमें उत्प्रेक्षा के वाचक इव आदि शब्दों के प्रयोग का अभाव रहता है । ' ' अलङ्कार - सर्वस्व' में इवादि के अभाव में प्रतीयमाना उत्प्रेक्षा की कल्पना की गयी थी । गूढोत्प्र ेक्षा का स्वरूप उक्त प्रतीयमाना उत्प्र ेक्षा के ही समान है ।
स्मृति भ्रान्ति, सन्देह, मीलित तथा सामान्य अलङ्कारों के लक्षण जयदेव ने मम्मट, रुय्यक आदि पूर्ववर्ती आचार्यों की मान्यता के अनुरूप दिये हैं ।
अनुमान का स्वरूप मम्मट, रुय्यक आदि के मतानुसार कल्पित है । अर्थापत्ति अलङ्कार की धारणा रुय्यक के 'अलङ्कार सूत्र' से ली गयी है । काव्यलिङ्ग तथा परिकर अलङ्कारों के स्वरूप के सम्बन्ध में जयदेव मम्मट तथा रुय्यक आदि आचार्यों से सहमत हैं ।
अतिशयोक्ति की सामान्य धारणा मम्मट आदि आचार्यों की तद्विषयक धारणा से अभिन्न है । जयदेव ने प्रस्तुत अलङ्कार के छह भेदों की कल्पना की है । वे भेद हैं: — अक्रमातिशयोक्ति, अत्यन्तातिशयोक्ति, चपलातिशयोक्ति, सम्बन्धातिशयोक्ति, भेदकातिशयोक्ति तथा रूपकातिशयोक्ति । अक्रम, अत्यन्त तथा चपल अतिशयोक्ति-भेद रुय्यक के कार्य-कारण- पौर्वापर्य - विध्वंस- रूप अतिशय के आधार पर कल्पित हैं । रूपकातिशयोक्ति मम्मट के 'निगीर्याध्य
१. ................अपह्न तेः प्रकारत्रयं निरूप्य ' इत्यपह्न ुतिभेदानां लक्ष्यो लक्ष्येषु विस्तर' इति आचार्यान्तरोक्तापह्न ुतिभेदसंग्रहीकरणायोक्तम् तेन शुद्धापह्न ुतिः, हेत्वपह्न ुतिः, पर्यस्तापह्न ुतिः, भ्रान्तापह्न ुतिः, छेकापह्न तिरित्याद्या अपि भेदा दण्डिनां सम्मता एवाभान्ति ।
- काव्यादर्श, कुसुमप्रतिमा टीका, पृ० २३६-३७ २. इवादिकपदाभावे गूढोत्प्रेक्षां प्रचक्षते । - जयदेव, चन्द्रालोक, ५, ३० ३. प्रतीयमानायां पुनरिवाद्यप्रयोगः । - रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० ५५