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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १२१ है। इस शब्द-शक्ति-भेद को एक अलङ्कार मान लेना युक्तिसङ्गत नहीं जान पड़ता। शब्द-शक्तियों पर अलङ्कार की सत्ता निर्भर अवश्य रहती है; किन्तु दोनों को अभिन्न नहीं माना जा सकता। अतः, वामन की वक्रोक्ति का अलङ्कारत्व परवर्ती काल में स्वीकृत नहीं हुआ। व्याजोक्ति
व्याजोक्ति भी वामन का नवीन अलङ्कार है। इसे मायोक्ति भी कहा गया है। इसमें बहाने से कही हुई बात को सत्य के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। सत्य को छिपाने के लिए कोई झूठा बहाना बना देने में ही प्रस्तुत अलङ्कार की सार्थकता है। अलङ्कार के क्षेत्र में ऐसी उक्ति-भङ्गी की कल्पना नवीन है।
यमक
यमक अलङ्कार के स्वरूप के सम्बन्ध में वामन ने पूर्ववर्ती भामह आदि आचार्यों से मिलती-जुलती धारणा ही व्यक्त की है। उन्होंने यमक के स्थान-नियम पर विशेष बल दिया है और उसके आधार पर उक्त अलङ्कार के अनेक भेदों का विवेचन किया है। भामह भी स्थान-भेद के आधार पर यमक के अनेक भेदों की सम्भावना से अपरिचित नहीं थे; किन्तु उन्होंने सब भेदों का सोदाहरण विवेचन आवश्यक नहीं समझा। इस सम्बन्ध में काव्यालङ्कार सूत्र के भाष्यकार आचार्य विश्वेश्वर का यह कथन उचित ही जान पड़ता है कि “अन्य भामह आदि आचार्यों ने इस स्थान-नियम को स्वयं समझ लेने योग्य मान कर न उसका उल्लेख अपने लक्षण में ही किया है और न उसका अधिक विस्तार ही किया है।"
अनुप्रास
वामन के अनुप्रास का स्वरूप भी सर्वथा नवीन नहीं है। पूर्ववर्ती भामह आदि के अनुप्रास की प्रकृति से वामन के अनुप्रास की प्रकृति मिलती-जुलती ही है। वामन ने यमक का स्वरूप-विवेचन करने के उपरान्त कहा है कि यमक में कथित पद या वर्ण की आवृत्ति के प्रकार को छोड़ शेष आवृत्ति-रूपों में
१. व्याजस्य सत्यसारूप्यं व्याजोक्तिः।-वामन,काव्यालं० सू० ४, ३, २५ २. द्रष्टव्य-हिन्दी काव्यालंकार सूत्र, व्याख्या, पृ० १६२ ।