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अलङ्कार और मनोभाव
[ ७९१ श्रोता के मन में अच्छी तरह, बिठाते हैं, बात को बढ़ा-चढ़ाकर उसके मन का विस्तार करते हैं, बाह्य वैषम्य आदि का नियोजन करके उसमें आश्चर्य की उद्भावना करते हैं, अनुक्रम या औचित्य की प्रतिष्ठा करके उसकी वृत्तियों को अन्वित करते हैं, बात को घुमा-फिराकर वक्रता के साथ कहकर उसकी जिज्ञासा का उद्दीपन करते हैं अथवा बुद्धि की करामात दिखाकर उसके मन में कौतूहल उत्पन्न करते है ।"
इसमें सन्देह नहीं कि सादृश्यमूलक अलङ्कार स्पष्टतया अर्थबोध में सहायक ही नहीं, कहीं-कहीं उसके लिए अनिवार्य भी हो जाते हैं । हमने अलङ्कारों के भाषाशास्त्रीय अध्ययन में इस तथ्य पर विचार किया है कि अमूर्त भाव, विचार आदि को मूर्त रूप में प्रस्तुत करने में उपमान का सहारा आवश्यक होता है । पर स्पष्टता तक ही सादृश्यमूलक अलङ्कारों का क्षेत्र सीमित नहीं । रूपकातिशयोक्ति भी सादृश्य पर आधृत अलङ्कार है, जिसमें उपमान का कथन सादृश्य के कारण उपमेय का भी बोध करा देता है, फिर भी उसमें चित्त-विस्तार का गुण पाया जा सकता है । निदर्शना में वस्तुसम्बन्ध का अभाव रहने पर उनमें उपमानोपमेय-भाव की परिकल्पना से अन्विति का तत्त्व पाया जा सकता है । अपह्नति में यथार्थ प्रकृत का निषेध और अयथार्थ अप्रकृत की स्थापना में जिज्ञासा का तत्त्व रहता है । प्रकृत वस्तु का निषेध अनिवार्यतः जिज्ञासा उत्पन्न करता है । अनेक उपमान आश्चर्य के मनोभाव को भी जाग्रत करने में सहायक होते हैं । वेग के लिए विद्य ुत् का उपमान आश्चर्य उत्पन्न कर सकता है । 'कन्दुक इव ब्राह्माण्ड उठाऊ' इस कथन में ब्रह्माण्ड के लिए कन्दुक उपमान निश्चय ही आश्चर्य की सृष्टि करता है; क्योंकि वह उपमान लक्ष्मण की असीम शक्ति की व्यञ्जना में सहायक है । पात्रौचित्य के कारण असङ्गत उपमान की योजना भी चमत्कार की सृष्टि की जाती है । 'मृच्छकटिक' में इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं । 3 अलङ्कारशास्त्र के आचार्यों ने कहा था कि जहाँ रसभाव आदि का अभाव हो, वहाँ कोई भी अलङ्कार उक्तिवैचित्र्य मात्र में पर्यवसित होता है । ऐसी स्थिति में वह चमत्कार उत्पन्न किया करता है । अभिप्राय यह कि जहाँ कवि
१. डॉ० नगेन्द्र, रीतिकाव्य की भूमिका, पृ० ८६-८७
२. प्रस्तुत ग्रन्थ, अध्याय ७
३. द्रष्टव्य - शूद्रक, मृच्छकटिक १