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________________ अलङ्कार-धारणा का विकास . [२८३ अस्तित्व माना गया है। आचार्य दण्डी आदि की प्रहेलिका के ही व्यापक स्वरूप से गूढ़ की धारणा ली गयी है। स्पष्टतः, केशव के सभी शब्दालङ्कार' पूर्वाचार्यों की मान्यता के अनुरूप ही कल्पित हैं। अर्थालङ्कारों में भी किसी नवीन अलङ्कार की कल्पना नहीं की गयी है। उपमा के दश भेद दण्डी आदि आचार्यों के मतानुसार स्वीकृत हैं। रूपक के पाँच भेद भी प्राचीन आचार्यों की रचनाओं से ही गृहीत हैं। उत्प्रेक्षा का केवल हेतूत्प्रेक्षा-भेद परिभाषित है। समासोक्ति को अप्रस्तुतप्रशंसा के समकक्ष कर दिया गया है। इसमें केशव के अनुसार अन्य वस्तु को लक्ष्य कर अन्य का कथन होता है। केशव के अन्य अर्थालङ्कार प्राचीन आचार्यों के तत्तदलङ्कारों से नाम-रूप की दृष्टि से अभिन्न हैं। इस विवेचन से स्पष्ट है कि केशव के 'अलङ्कारशेखर' में किसी नवीन अलङ्कार की उद्भावना नहीं हुई है। केशव का उद्देश्य अलङ्कारों को संक्षेप में तथा सुबोध बना कर प्रस्तुत करना-मात्र था। अप्पय्य दीक्षित भारतीय अलङ्कार-शास्त्र के अर्वाचीन लेखकों एवं पाठकों में अप्पय्य दीक्षित की रचनाएँ सर्वाधिक जनप्रिय सिद्ध हुई हैं। हिन्दी के रीति-आचार्यों के ग्रन्थों में अधिकांशतः अप्पय्य की अलङ्कार-धारणा को ही स्वीकार किया गया है। उनकी दो रचनाओं—'कुवलयानन्द' तथा 'चित्रमीमांसा'–में से लोकप्रियता की दृष्टि से 'कुवलयानन्द' प्रथम है। उक्त पुस्तक की इतनी प्रसिद्धि का कारण चिन्तन की मौलिकता नहीं, वरन् विषय-विवेचन की स्पष्टता और शैली की सरलता है। जयदेव की अलङ्कार-धारणा के विवेचन-. क्रम में हम यह देख चुके हैं कि अप्पय्य दीक्षित ने उन्हीं की धारणा का मुख्यतः अनुसरण किया है। विद्वानों की यह मान्यता बहुलांश में सत्य है कि 'कुवलयानन्द' में 'चन्द्रालोक' की ही व्याख्या की गयी है। अप्पय्य दीक्षित ने स्वयं भी इसे स्वीकार किया है कि उनका अलङ्कार-विवेचन पूर्वाचार्यों १. अन्यदेवाभिप्रेत्यान्याभिधानं समासोक्तिः । सैव चान्यापदेश इत्युच्यते । -केशव, अलं० शे०, मरीचि-१३, पृ०.३४ ..
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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