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हिन्दी रीति - साहित्य में अलङ्कार - विषयक उद्भावनाएँ [ ३४५
जगत सिंह ने अन्य अलङ्कारों के स्वरूप का निरूपण भी 'चन्द्रालोक' आदि की पद्धति पर ही किया है । स्पष्ट है कि जगत सिंह की 'साहित्य-सुधा निधि' में अलङ्कार - विषयक कोई नवीन स्थापना नहीं ।
गोप कवि
गोप की दो रचनाएँ - ' रामचन्द्रभूषण' तथा ' रामचन्द्राभरण' - उपलब्ध हैं । इन ग्रन्थों में 'भाषाभूषण' की तरह 'कुवलयानन्द' के अलङ्कारों को स्वीकार किया गया है । शब्द के केवल अनुप्रास अलङ्कार का विवेचन है । गोप ने अलङ्कारों के उदाहरण, राम और सीता के चरितगान से सम्बद्ध पदों के दिये हैं । यह गोप कवि की मौलिकता है । दोनों ग्रन्थों की अलङ्कार - निरूपणशैली में थोड़ा अन्तर है । 'रामचन्द्रभूषण' के प्रथमार्ध में अलङ्कारों के लक्षण देकर उत्तरार्ध में उदाहरण दिये गये हैं; पर 'रामचन्द्राभरण' में अलङ्कार - विशेष का लक्षण देकर वहीं उसका उदाहरण दिया गया है । गोप ने स्वभावोक्ति के चार भेद – जाति, गुण, क्रिया तथा द्रव्य-वर्णन के आधार पर स्वीकार किये हैं । प्राचीन आचार्यों की स्वभावोक्ति-धारणा में जाति, गुण आदि के स्वाभाविक वर्णन की धारणा अन्तर्निहित थी ।
कुमारमणि शास्त्री
कुमारमणि शास्त्री ने 'रसिक - रसाल' की रचना में अपने ऊपर आचार्य मम्मट का ऋण स्वीकार किया है । अलङ्कारों के विवेचन में भी अंशतः वे मम्मट के ऋणी हैं । शब्दालङ्कार-निरूपण तथा अर्यालङ्कार में उपमा आदि के निरूपण में उनके ऊपर आचार्य मम्मट का प्रभाव स्पष्ट है; पर अर्थालङ्कारनिरूपण में वे अधिकांशतः अप्पय्य दीक्षित से प्रभावित हैं । 'रसिक - रसाल' के अष्टम उल्लास में सौ अलङ्कारों के विवेचन के उपरान्त ' कुवलयानन्द' की ही पद्धति पर प्रमाणालङ्कारों का निरूपण किया गया है । अतः, आशुकरण जी गोस्वामी का यह कथन उचित ही जान पड़ता है कि - ' अलङ्कारों के नाम, संख्या, क्रम, लक्षण व उदाहरण की उल्लास ) 'कुवलयानन्द' के आधार पर लिखा गया है । '२
दृष्टि से यह उल्लास ( अष्टम
१. द्रष्टव्य — कुमारमणि, रसिक रसाल, अर्थचित्र प्रकरण, ८,३३७-४५ २. रसिक रसाल की भूमिका, पृ० ४२-४३,