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________________ अलङ्कारों का पारस्परिक भेद [ ७२७ अर्थश्लेष तथा जहाँ पर्यायपरिवर्तन सम्भव न हो, वहाँ शब्दश्लेष माना जायगा । 'पर्यायपरिवर्तनासहत्त्व' शब्दश्लेष का तथा 'पर्यायपरिवर्तन सहत्त्व' अर्थश्लेष का व्यावर्तक है । संसृष्टि और सङ्कर एकाधिक अलङ्कारों की एकत्र अवस्थिति दो रूपों में सम्भव है— परस्पर निरपेक्ष रूप में तथा परस्पर सापेक्ष या अङ्गाङ्गिभाव रूप में । प्रथम अवस्थिति को तिलतण्डुलन्याय से अवस्थिति कहते हैं और द्वितीय को नीरक्षीरन्याय से । परस्पर निरपेक्ष रूप से अर्थात् तिलतण्डुलन्याय से अलङ्कारों की एकत्र स्थिति को अलङ्कार-संसृष्टि तथा अङ्गाङ्गिभाव से अर्थात् नीरक्षीरन्याय से अलङ्कारों की स्थिति को अलङ्कार - सङ्कर कहा जाता है । इस प्रकार संसृष्टि और सङ्कर का भेद स्पष्ट है । आक्षेप और अपह्न ुति आक्षेप में अभीष्ट अर्थ का ही प्रतिषेध-सा किया जाता है । वह निषेध तात्त्विक नहीं होता । निषेधमुखेन अभीष्ट अर्थ का विधान किया जाता है । उसमें एक ही अर्थ होता है, जिसका आपाततः प्रतिषेध किया जाता है और तत्त्वतः उसीका स्थापन किया जाता है । अपह्न ुति में दो अर्थ रहते हैंएक प्रस्तुत और दूसरा अप्रस्तुत । इसमें प्रस्तुत का निषेध और अप्रस्तुत का स्थापन होता है । इसमें प्रस्तुत अर्थ का निषेध तात्त्विक होता है । संक्षेप में दोनों का भेद निम्नलिखित है '— ( १ ) आक्षेप में एक ही अर्थ का आपाततः निषेध और तत्त्वतः स्थापन होता है; पर अपह्नति में दो अर्थों में से प्रस्तुत अर्थ का निषेध और अप्रस्तुत का स्थापन होता है ! (२) आक्षेप में प्रतिषेध प्रातिभासिक होता है; पर अपह्न ुति में प्रकृत का प्रतिषेध तात्त्विक । समासोक्ति और रूपक समासोक्ति में प्रकृत अर्थ के कथन से विशेषण के महात्म्य से अप्रकृत अर्थ की प्रतीति करायी जाती है । इस प्रकार उसमें प्रकृत के व्यवहार पर अप्रकृत १. सेष्टा संसृष्टिरेतेषां भेदेन यदिह स्थितिः । तथाअविश्रान्तिजुषामात्मन्यङ्गाङ्गित्वं तु सङ्करः । - मम्मट, काव्यप्रकाश, १०, १३६ -४०
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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