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अलङ्कार और भाषा
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कही हुई बात का प्रभाव निश्चित रूप से कम होता है । प्रकारान्तर से कही हुई बात से व्यजित अर्थ का अपना सौन्दर्य होता है। मानस में तुलसी के केवट ने राम से अटपटी वाणी में पाँव धोने की जो अनुमति मांगी, उसका सौन्दर्य पाँव धोने के प्रत्यक्ष अनुरोध में आ ही नहीं पाता। विधिमुख से निषेध तथा निषेधमुख से विधि की प्रवृत्ति के बहुल उदाहरण लोक-भाषा में भी पाये जाते हैं। काव्य में आक्षेप आदि अलङ्कारों की योजना के मूल में यही प्रवृत्ति है । अन्योक्ति या अप्रस्तुतप्रशंसा आदि में भी प्रकारान्तर से कथन की प्रवृत्ति ही अभिव्यक्त होती है।
भाषा में प्रयुक्त वाक्यों के अर्थ का युक्तिसङ्गत होना आवश्यक माना जाता है। इस दृष्टि से व्याकरण में वाक्य-योजना में योग्यता, आकांक्षा तथा आसक्ति का विचार अपेक्षित माना गया है;' पर अलङ्कार में कहीं-कहीं वाक्यार्थ की असङ्गति सायास दिखायी जाती है। आपाततः दीखने वाली असङ्गति पर तो अनेक अलङ्कारों की कल्पना की ही गयी है, यौक्तिक सङ्गति के तात्त्विक अभाव में भी पात्रौचित्य आदि के कारण अलङ्कारत्व की योजना की जा सकती है। प्रस्तुत के लिए असङ्गत अप्रस्तुत की योजना कर कवि किसी पात्र की प्रकृति को स्पष्ट रूप में प्रस्तुत कर देता है। अलङ्कार में सदोष उपमान का प्रयोग हास की सृष्टि का भी अपेक्षित प्रभाव उत्पन्न करता है। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं; 'मृच्छकटिक' का एक पात्र संस्थानक नायिका का जो उपमान देता है, वह सर्वथा असङ्गत है, फिर भी पात्रोचित होने के कारण उसे अलङ्कार माना जाता है। वह कहता है—तुम राम से भीत द्रौपदी की तरह क्यों भागी जा रही हो? जैसे हनुमान ने विश्वावसु की बहन सुभद्रा को पकड़ा, उसी तरह मैं तुम्हें पकड़ता हूँ।२ पात्रौचित्य के कारण काव्य की उक्तियाँ प्रभावोत्पादक हो जाती है। अतः, उचित सन्दर्भ में पात्र की विशेष दशा की सूचना के लिए उस पात्र की भाषा में कवि सदोष उपमान की योजना करता है। इस कथन में कि 'जिस प्रकार महाभारत युद्ध में चाणक्य ने सीता को मारा, जटायु ने द्रौपदी को मारा, उसी प्रकार मैं तुम्हें मार
१. आसत्तिर्योग्यताकांक्षातात्पयज्ञानमिष्यते ।-न्यायसिद्धान्तमुक्तावली,
शब्दखण्ड, कारिका ८२ः २. शूद्रक, मृच्छकटिक, १, २५