________________
७७८ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
जेहि परिहरि हरि हर चरण, महिं भूतगन घोर ।
तेहि कइ गति मोहि देउ बिधि, जौं जननी मत मोर ॥' यहाँ भूत आदि की साधना करने वाले औघट साधुओं के प्रति कवि का घृणा-भाव स्पष्ट है। यह तुलसी के समय औघटों के प्रति जन-सामान्य की अश्रद्धा का भी सङ्केत देता है; क्योंकि यदि सामान्य पाठक में औघटों के प्रति घृणा-भाव न होता तो उक्त कथन का अलङ्कार अपेक्षित प्रभाव ही उत्पन्न नहीं कर पाता। जिन वामाचारी साधकों के प्रति कभी (दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में) भारतीय समाज में आदर का भाव रहा था, उनके प्रति धीरे-धीरे घृणा का भाव बढ़ता गया। इस परिवर्तित दृष्टिकोण का स्पष्ट सङ्केत उक्त उदाहरण में मिलता है। प्राचीन वाङमय में प्रयुक्त अलङ्कारों के आधार पर ऐतिहासिक तथ्यों का निर्धारण तथा प्राचीन-नवीन साहित्य के समन्वित अध्ययन से उनमें प्रयुक्त अलङ्कारों के आधार पर सांस्कृतिक विकास का अध्ययन एक स्वतन्त्र शोध का विषय हो सकता है। ___ कभी-कभी किसी जाति या वर्ग के सम्बन्ध में लोगों की कोई धारणा बन जाया करती है। यह आवश्यक नहीं कि उस वर्ग या जाति के सभी व्यक्तियों में समान गुण पाये ही जायें, फिर भी लोगों के मन में उस वर्ग के लिए कुछ विशेष धारणा बन जाती है। उस धारणा के आधार पर भी अलङ्कार की योजना हो सकती है । लोक-व्यवहार में सुन्दर और सुकुमार बालक-बालिका को राजकुमार-राजकुमारी के समान कहा जाता है। सभी राजकुमार सुन्दर और सुकुमार हों, यह आवश्यक नहीं; पर सामान्य रूप से राजकुमारों के सुन्दर एवं सुकुमार होने की धारणा लोगों ने बना ली है। इसी प्रकार शब्दशास्त्र, दर्शनशास्त्र तथा वेद आदि का अध्ययन करने वालों के सम्बन्ध में लोगों की यह धारणा बन गयी है कि वे नीरस होते हैं । साहित्य के पाठकों के सरस होने की धारणा लोगों के मन में रहती है । ऐसी धारणाओं के आधार पर काव्य में भी शाब्दिक, तार्किक और वेदपाठी को नीरस व्यक्ति का उपमान बनाया जाता है। ___ अनेक अलङ्कारों का जन्म मनुष्य की इस स्वाभाविक प्रवृत्ति से होता है कि वह बात को सीधे न कहकर प्रकारान्तर से कहना चाहता है। कभी-कभी प्रकारान्तर से कही हुई बात में सीधी बात की अपेक्षा अधिक तीव्रता आ जाती है। व्यङ ग्य-वाण हृदय में जितना चुभता है, उसकी तुलना में सीधे
१. द्रष्टव्य-रामचरितमानस, अयोध्याकाण्ड ।