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२७६ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
काकु तथा श्लेष पर आधृत वक्रोक्ति की स्वरूप-धारणा विश्वनाथ ने पूर्वाचार्यों से ही ली है; पर उसे उन्होंने शब्दगत अलङ्कार माना है। प्राचीन आचार्यों ने इसकी गणना अर्थालङ्कारों की पंक्ति में की थी।
विश्वनाथ ने वर्ण, प्रत्यय, लिङ्ग, वचन आदि की श्लिष्टता के आधार पर श्लेष के आठ भेद स्वीकार किये हैं। पूर्वाचार्यों के श्लेष के सामान्यलक्षण में ही इन भेदों की सम्भावना निहित थी। पूर्वाचार्यों की पद्धति पर श्लेष के सभङ्ग, अभङ्ग तथा उभयात्मक भेद भी साहित्यदर्पणकार के द्वारा स्वीकृत हैं।
अर्थालङ्कार ___ अर्थालङ्कारों के स्वरूप-निर्धारण में भा विश्वनाथ ने पूर्ववर्ती आचार्यों की मान्यताओं का ही अनुसरण किया है। उनके 'साहित्यदर्पण' में अर्थालङ्कारों के लक्षण रुय्यक तथा मम्मट के अलङ्कार-लक्षणों के आधार पर दिये गये हैं। हम यह देख चुके हैं कि मम्मट तथा रुय्यक की रचनाओं में अलङ्कारों की संख्या तथा संज्ञा में कुछ अन्तर है। रुय्यक के कुछ अलङ्कार मम्मट के 'काव्यप्रकाश' में उल्लिखित नहीं हैं; पर उसमें कुछ ऐसे अलङ्कारों का भी विवेचन है, जो रुय्यक के द्वारा स्वीकृत नहीं हैं। ऐसे अलङ्कारों के सम्बन्ध में विश्वनाथ ने समन्वयात्मक दृष्टिकोण अपनाया है । उन्होंने मम्मट तथा रुथ्यक; दोनों आचार्यों की मान्यताओं को स्वीकार किया है। उदाहरणार्थ; सम की धारणा मम्मट से तथा विचित्र की धारणा रुय्यक से ली गयी है। निश्चय अलङ्कार शोभाकर के 'अलङ्कार-रत्नाकर' से गहीत है। शोभाकर को वह धारणा दण्डी की निर्णयोपमा-धारणा पर आधृत थी। विश्वनाथ ने उसके कुछ नवीन स्वरूप की कल्पना की। विश्वनाथ के अनुसार भ्रान्ति का निवारण कर अन्य वस्तु का स्थापन भी निश्चय होगा। विश्वनाथ का यह निश्चय दण्डी के तत्त्वाख्यानोपमा से अभिन्न है ।२ अनुकूल के स्वरूप की कल्पना नवीन है, जिसमें प्रतिकूल
१. विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०, १३-१४ २. तुलनीय-विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०, ५६ तथा दण्डी, काव्या
दर्श, २, ३६