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________________ अलङ्कार-धारणा का विकास दण्डी का महायमक भरत के चतुर्व्यवसित यमक से अभिन्न है, जिसमें चारों पादों का स्वरूप समान रहता है ; अर्थात् एक ही पाद की चार बार आवृत्ति से एक द्विपंक्तिबद्ध छन्द बन जाता है। ___ 'काव्यादर्श' का प्रतिलोम यमक दण्डी की मौलिक उद्भावना है। इसमें एक पाद में विन्यस्त वर्णों को ठीक उलटे क्रम से दूसरे पाद में सजाया जाता है। स्पष्ट है कि दण्डी की यमक-सम्बन्धी धारणा भरत तथा भामह की तद्विषयक धारणा से मूलतः अभिन्न है ; फिर भी उसके नवीन भेदोपभेदों की उद्भावना की दृष्टि से दण्डी का महत्त्व असन्दिग्ध है । स्वभावोक्ति दण्डी के स्वभावोक्ति अलङ्कार का स्वरूप भामह के काव्यालङ्कार में 'निरूपित स्वभावोक्ति के स्वरूप से अभिन्न है। भामह की तरह दण्डी भी किसी वस्तु की विभिन्न अवस्याओं-अवयव संस्थान, आकृति आदि-के स्फुट वर्णन में स्वभावोक्ति अलङ्कार मानते हैं । इसका दूसरा व्यपदेश जाति भी है। प्रस्तुत अलङ्कार के स्वरूप-निर्धारण में भामह से सहमत होने पर भी दण्डी ने काव्य. में इसके स्थान-निर्धारण में सर्वया मौलिक विचार व्यक्त किये हैं। उन्होंने इसे 'आद्या अलङ कृति' अर्थात् मुख्य अलङ्कार कहा है।' वस्तुतः काव्य में वस्तुस्वभाव-वर्णन की स्फुटता का बहुत अधिक महत्त्व है। भामह ने सम्भवतः वक्रोक्ति के अभाव के कारण ही इसका अवमूल्यन करते हुए यह कह दिया था कि कुछ लोग स्वभावोक्ति को भी अलङ्कार मानते हैं। वक्रोक्तिवादी कुन्तक ने स्वभावोक्ति के अलङ्कारत्व का खण्डन कर उसका अलङ्कार्यत्व ही स्वीकार किया है। उसके अलङ्कारत्व या अलङ्कार्यत्व के सम्बन्ध में हम उपयुक्त प्रसङ्ग में विस्तार से विचार करेंगे। हमारी मान्यता है कि अलङ्कार या अलङ्कार्य किसी भी रूप में स्वभावोक्ति के महत्त्व की उपेक्षा काव्य में नहीं की जा सकती। १. नानावस्थं पदार्थानां रूपं साक्षाद् विवृण्वती। स्वभावोक्तिश्च जातिश्चेत्याद्या साल कृतिर्यथा ॥ -वही, २, ८, तुलनीय-भामह, काव्यालं० २, ६३ २. अलङ्कारकृतां येषां स्वभावोक्तिरलङ कृतिः। अलङ्कार्यतया तेषां किमन्यदवतिष्ठते ॥ -कुन्तक, वक्रोक्तिजी० १, ११
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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