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________________ अलङ्कार-धारणा का विकास [ १४६ गयी है। इसके लक्षण में रुद्रट ने कहा है कि जहाँ उपमान और उपमेय में सर्वात्मना साम्य का अभिधान हो; किन्तु उपमेय का उत्कर्ष सिद्ध करने वाले कुछ वैशिष्ट्य का कवि उल्लेख करता हो, वहाँ साम्य का सद्भाव माना जाता है।' उपमेय के उत्कर्षकारक विशेष के प्रतिपादन में व्यतिरेक की धारणा स्पष्ट है। इसमें उत्कर्ष-प्रतिपादक विशेष को छोड़ अन्य सभी दृष्टियों से प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत के बीच साम्य-निरूपण होने के कारण ही इसे साम्य कहा गया है। स्पष्ट है कि साम्य के प्रथम प्रकार के साथ व्यतिरेक अलङ्कार के तत्त्व के मिश्रण से उसके प्रस्तुत स्वरूप का निर्माण हुआ है। उपमा से साम्य का स्वभाव इतना मिलता-जुलता है कि इसके पृथक् अस्तित्व की कल्पना ही अनावश्यक जान पड़ती है। उपमा की तरह इसमें भी उपमेय तथा उपमान के बीच साधारण गुण, क्रिया आदि की कल्पना की गयी है। उपमा से इसके व्यावर्तन के लिए यह कल्पना कर ली गयी है कि उपमान और उपमेय का अर्थक्रिया से साम्य-प्रतिपादन साम्य है। उनके बीच सामान्य रूप से रहने वाले गुण आदि उस अर्थक्रिया के कारण होते हैं। मेरी सम्मति में उपमेय और उपमान के बीच साम्य-प्रतिपादन में चाहे वह उभय-साधारण गुण आदि से हो या उनके कार्यभूत अर्थक्रिया से-उपमा की ही सत्ता मानी जानी चाहिए। प्राचीन आचार्यों ने उपमा के जिस व्यापक स्वरूप की कल्पना की थी, उससे स्वतन्त्र साम्य अलङ्कार की कल्पना उनके लिए आवश्यक नहीं थी। स्मरण स्मरण को सर्वप्रथम रुद्रट ने ही अलङ्कार के रूप में परिगणित किया है; किन्तु स्मृति या स्मरण की धारणा का उद्भावक उन्हें नहीं माना जा सकता। भारतीय दर्शन में प्राचीन काल से ही स्मृति के स्वरूप का विवेचन हो रहा था। स्मरण के सम्बन्ध में दार्शनिकों की मूल-धारणा को रुद्रट ने यथावत् स्वीकार किया है। उन्होंने यह माना है कि जहाँ भावक किसी वस्तु को देख कर अतीत में अनुभूत उसके सदृश किसी अन्य अर्थ को स्मरण करता है, वहाँ स्मरण अलङ्कार होता है ।२ दार्शनिकों ने भी सादृश्य को स्मरण का १. सर्वाकारं यस्मिन्नुभयोरभिधातुमन्यथा साम्यम् । ___ उपमेयोत्कर्षकरं कुर्वीत विशेषमन्यत्तत् ॥ रुद्रट, काव्यालं०, ८,१०७ २. वस्तुविशेषं दृष्ट्वा प्रतिपत्ता स्मरति यत्र तत्सदृशम् । कालान्तरानुभूतं वस्त्वन्तरमित्यदः स्मरणम् ।।-वही, ८, १०६
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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