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________________ ५२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण कि वे उपमा के असंख्य भेदोपभेदों से परिचित थे । उन्होंने सम्भवतः ग्रन्थविस्तार के भय से ही उन भेदोपभेदों का विस्तृत विवेचन नहीं किया है । उन्होंने स्वयं काव्य में तथा लोक में प्रयुक्त होने वाले उपमा के बहुल भेदों का निर्देश करते हुए यह स्वीकार किया है कि उनके 'नाट्यशास्त्र' में संक्षेप में ही उपमा के अङ्गों का वर्णन किया गया है । इसके अन्य भेद भी लोक व्यवहार तथा काव्य की उक्तियों में पाये जा सकते हैं । १ भरत के इस कथन में उपमेयोपमा की कल्पना की सम्भावना भी पायी जा सकती है । उपमा में उपमेय तथा उपमान की कल्पना तो है ही। उन्हीं दोनों के पारस्परिक स्थानपरिवर्तन के आधार पर उपमेयोपमा की कल्पना कर ली गई है । सहोक्ति एक ही समय दो वस्तुओं से सम्बद्ध क्रिया का एक ही पद से कथन होने में सहोक्ति अलङ्कार माना गया है ।" यह भामह का स्वतन्त्र अलङ्कार है । इसकी कल्पना की प्र ेरणा भरत के दीपक अलङ्कार से मिली होगी। दीपक में अनेक पदों या वाक्यों में कहे गये साकांक्ष अर्थों का एक ही वाक्य से गुण, क्रिया, जाति आदि का दीपन होता है, अर्थात् सभी पदों या वाक्यों का एक ही गुण, क्रिया आदि से सम्बन्ध दिखाया जाता है । इस प्रकार एक साथ कई अर्थों के सम्बद्ध-वर्णन की धारणा का सूत्रपात भरत के दीपक अलङ्कार की परिभाषा में ही हुआ था, जिसका किञ्चित् परिवर्तित स्वरूप भामह के सहोक्ति अलङ्कार में उपलब्ध है । परिवृत्ति परिवृत्ति अलङ्कार में हीन वस्तु देकर उत्तम वस्तु का ग्रहण वर्णित होता है तथा अप्रस्तुत वाक्य के न्यास से इसमें अर्थान्तरन्यास का भी योग रहता है । अर्थान्तरन्यास अलङ्कार की धारणा के उद्भव और विकास पर विचार १. उपमाया बुधैरेते ज्ञेया भेदा: समासतः । ये शेषा लक्षण नक्तास्ते ग्राह्या लोककाव्यतः ॥ - भरत, ना० शा०, १६, ५३ २. तुल्यकाले क्रिये यत्र वस्तुद्वयसमाश्रये । पदेनैकेन कथ्येते सहोक्तिः सा मता यथा ।। — भामह, काव्यालं०, ३, ३६ वस्तुनः । यथा ॥ - वही, ३, ४१ ३. विशिष्टस्य यदादानमन्यापोहेन अर्थान्तरन्यासवती परिवृत्तिरसौ
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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