SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 443
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण के असहत्व तथा सहत्व के आधार पर उसे शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार माना । रुय्यक ने आश्रय के आधार पर श्लेष को न केवल शब्दगत तथा अर्थगत माना वरन् उसे उभयगत भी स्वीकार किया। इस प्रकार रुय्यक के अनुसार श्लेष शब्दगत, अर्थगत तथा उभयगत हो सकता है । रुय्यक के अनुसार शब्दश्लेष में पदभङ्ग से दो अर्थ निकलते हैं । उन शब्दों में उच्चारणप्रयत्न तथा उदात्तादि स्वर की भिन्नता रहती है; अतः वे शब्द परस्पर स्वतन्त्र होते हैं । वे तत्त्वतः अलग-अलग शब्द होने पर भी एकरूपता का आभास - मात्र उत्पन्न करते हैं । इन दोनों शब्दों का सम्बन्ध जतु-काष्ठ सम्बन्ध के समान होता है । जैसे लकड़ी में सटी हुई लाह उससे अभिन्न जान पड़ती है; पर वस्तुतः वह लकड़ी से भिन्न होती है, उसी तरह सभङ्ग पदश्लेष अर्थात् शब्दश्लेष में दो स्वतन्त्र शब्द एक से प्रतिभात होते हैं । अर्थश्लेष में एक ही शब्द, जिसका उच्चारण प्रयत्न, स्वर आदि एक ही होते हैं; दो अर्थों का वाचक होता है । इसमें एक शब्द में दो अर्थ एक वृन्त में लगे दो फल की तरह रहा करते हैं । उभयश्लेष में उक्त दोनों स्थितियाँ रहा करती हैं । २ शब्दालङ्कार - विभाग के आधार की भिन्नता के कारण दोनों आचार्यों के शब्दश्लेष और अर्थश्लेष की धारणा कुछ अलग-अलग है । मम्मट शब्दश्लेष के सभङ्ग एवं अभङ्ग दोनों भेद स्वीकार करेंगे, पर रुय्यक केवल सभङ्ग को ही शब्दश्लेष मानेंगे । मम्मट और रुय्यक के उपरान्त अलङ्कार - शास्त्र में श्लेषविषयक दोनों ही मान्यताएँ प्रचलित रही हैं । विश्वनाथ आदि आचार्यों ने मम्मट की श्लेष विषयक मान्यता का अनुमोदन किया तो विद्याधर आदि ने आचार्य are के सिद्धान्त का समर्थन किया । जयदेव आदि परवर्ती आचार्य भी प्राचीन आचार्यों के श्लेष - लक्षणको ही मान कर चले । हिन्दी - रीति-आचार्यों ने भी श्लेष के उस परम्परागत लक्षण को ही स्वीकार किया है । - श्लेष के मुख्य दो भेद दण्डी ने सभङ्ग तथा अभङ्ग पद के आधार पर किये थे । १. अर्थश्लेषस्य तु स विषयः यत्र शब्दपरिवर्त्तनेऽपि न श्लेषत्वखण्डना । मम्मट, काव्य प्र०, पृ० २१२ २. एष च शब्दार्थोभयगतत्वेन वर्तमानत्वात् त्रिविधः । तत्रोदात्तादिस्वरभेदात् प्रयत्नभेदाच्च शब्दान्यत्वे शब्दश्लेषः यत्र प्रायेण पदभङ्गो भवति । अर्थश्लेषस्तु यत्र स्वरादिभेदो नास्ति । अतएव न तत्र सभङ्गपदत्वम् । सङ्कलनया तूभयश्लेषः । - रुय्यक, अलं० सर्वस्व पृ० ११२
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy