SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 314
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अलङ्कार-धारणा का विकास पण्डितराज जगन्नाथ पण्डितराज जगन्नाथ के 'रसगङ्गाधर' में काव्य के अलङ्कारों का स्वरूप - विवेचन मौलिक रूप में हुआ है । जिस समय हिन्दी रीति-साहित्य के आचार्य संस्कृत आचार्यों की अलङ्कारविषयक मान्यता का सफल-असफल अनुकरण कर रहे थे, उस समय पण्डितराज अपने गहन चिन्तन और प्रखर मेधा से प्राचीन मान्यताओं का परिष्कार कर अलङ्कार के स्वरूप का निर्धारण कर रहे थे। जगन्नाथ की मौलिक आलोचक प्रज्ञा सर्वविदित है । विषय के ऊहापोह में, खण्डन - मण्डन की पद्धति पर अपने मत की स्थापना में, उनका दार्शनिक चिन्तन सहायक सिद्ध हुआ है । हम इस तथ्य पर विचार कर चुके हैं कि भारतीय अलङ्कार - शास्त्र में कुछ समय तक नवीन-नवीन व्यपदेश से अलङ्कारों के विभिन्न प्रकारों की कल्पना की प्रवृत्ति रही; पर उत्तर काल में अलङ्कारों के स्वरूप का स्पष्टीकरण ही आलङ्कारिकों का उद्देश्य रहा । पण्डितराज जगन्नाथ ने काव्य के अलङ्कारों के सम्बन्ध में पूर्ववर्ती आचार्यों की मान्यता का परीक्षण कर स्वतन्त्र रूप से उनके स्वरूप का स्पष्टीकरण किया है । यह इतिहास का एक विलक्षण संयोग था कि अलङ्कार विषयक मान्यताओं का मूल्याङ्कन संस्कृत अलङ्कार - शास्त्र के अन्तिम आचार्य के द्वारा हुआ — जैसे वे अलङ्कार - शास्त्रीय मीमांसा का समापन करने के पूर्व उसका पुनः परीक्षण कर लेना चाहते हों । उन्होंने नवीन अलङ्कारों की कल्पना नहीं कर पूर्व प्रतिपादित अलङ्कारों का ही स्वरूपनिरूपण किया है । [ २६१ जगन्नाथ के द्वारा अप्पय्य दीक्षित की 'चित्रमीमांसा' का किया हुआ खण्डन प्रसिद्ध है । विभिन्न अलङ्कारों के विषय में पूर्ववर्ती आचार्यों की मान्यता के खण्डन तथा उनके विषय में अपनी मान्यता की पुष्टि में उनके दिये हुए तर्क पर हमने विशेष अलङ्कारों के स्वरूप - विकास के अध्ययन के सन्दर्भ में विचार किया है । प्रस्तुत अध्याय में हमारा उद्देश्य रसगङ्गाधरकार के द्वारा निरूपित अलङ्कारों के स्वरूप का स्रोत -सन्धान-मात्र है । 'रसगङ्गाधर' में शब्दशक्तिमूलक ध्वनि के सन्दर्भ में काव्य के अलङ्कारों की स्वरूप-मीमांसा की गयी है । उसमें निम्नलिखित अलङ्कारों के स्वरूप का विवेचन किया गया है: ( १ ) उपमा, (२) उपमेयोपमा, (३) अनन्वय, (४) असम, (५) उदाहरण, (६) स्मरण, (७) रूपक, ( 5 ) परिणाम, ( 8 ) ससन्देह,
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy