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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण .
शब्दालङ्कारत्व सिद्ध नहीं किया जा सकता । शय्या के प्रकीर्ण-घटना-भेद में भोजराज ने मुख्या, गौणी लक्षणा-जैसी शब्दशक्ति को समेट लिया है। अतः शय्या का स्वरूप अलङ्कार से कुछ अधिक व्यापक हो गया है । पठिति
पठिति शब्दालङ्कार के स्वरूप की कल्पना प्राचीन आचार्यों की वक्रोक्ति के आधार पर की गयी है। काकु और श्लेष से वक्ता के कथन का उसके अभिप्रेत अर्थ से भिन्न अर्थ निकालने की धारणा भोज की पठिति और प्राचीन आचार्यों की वक्रोक्ति में समान है। भोज ने वक्ता के अभीष्ट अर्थ से भिन्न अर्थबोध कराने के अभिनय एवं कान्ति, दो अन्य साधनों की भी कल्पना की है।' यमक, श्लेष, अनुप्रास, चित्र
यमक, श्लेष, अनुप्रास एवं चित्र अलङ्कार प्राचीन हैं। भोज ने इन अलङ्कारों के सम्बन्ध में प्राचीन आलङ्कारिकों की सामान्य धारणा को ही स्वीकार किया है । भेदोपभेदों की कल्पना में उन्होंने कुछ नवीनता लाने का प्रयास किया है। यमक, अनुप्रास एवं चित्र अलङ्कारों की धारणा के विकास का मूल भरत के यमक में ही है । हम यह देख चुके हैं कि यमक से अनुप्रास ने धीरे-धीरे अलग अस्तित्व ग्रहण किया। फिर भी, दोनों में इतनी समता रही कि कुछ आचार्यों ने दोनों के स्थान पर केवल यमक की सत्ता स्वीकार की तो कुछ ने केवल अनुप्रास की। इसी धारणा से चित्र के अनेक रूपों का विकास हुआ। रुद्रट चित्र का अनुप्रास आदि से स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार कर चुके थे । भोज ने भी तीनों का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार किया है। इनके सामान्य स्वरूप तथा अधिकांश भेदों के स्वरूप के सम्बन्ध में भोज की धारणा रुद्रट की धारणा से मिलती-जुलती है। रुद्रट ने यमक के अनेक भेदों की कल्पना की थी। उनसे पूर्व दण्डी भी यमक-प्रपञ्च की सविस्तर विवेचना कर चुके थे। भोज ने अपने पूर्ववर्ती सभी आचार्यों के यमक-भेद विवेचन के आधार पर उसके उनसठ भेदों का विवरण दिया है तथा उसके अनन्त भेदों की सम्भावना स्वीकार की है ।२ अनुप्रास की धारणा भी दण्डी, १. काकुस्वरपदच्छेदभेदाभिनयकान्तिभिः ।
पाठो योऽर्थविशेषाय पठितिः सेह षड्विधा । वही, २, १३३ २. अत्यन्तं बहवस्तेषां भेदाः सम्भेदयोनयः ।
-भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, २,१५०