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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १८७ अभाव-मात्र है, अलङ्कार नहीं। भोज ने इसमें प्रसिद्धि-क्रम से रचना पर बल दिया है। प्रसिद्ध क्रम का निर्वाह न हो तो क्रमहीन दोष होगा, क्रमगुम्फना में उस दोष का अभाव-मात्र रहता है । पद-गुम्फना को रत्नेश्वर ने पल्लव से अभिन्न माना है।' भोज ने इसके उदाहरण को स्पष्ट करते हुए कहा है कि इसमें अर्थ की पुष्टि में सहायता नहीं करने वाले पदों की भी छन्द की पूर्ति के लिए तथा अनुप्रास-विधान के लिए अर्थानुगुण रचना की गयी है; अतः यहाँ पद-गुम्फना है ।२ स्पष्ट है कि यह अपने आप में अलङ्कार नहीं है । यह अनुप्रास आदि अन्य अलङ्कार की योजना में केवल सहायक हो सकता है। छन्दपूत्ति के लिए अपुष्टार्थ-पदों का प्रयोग कवि की अशक्ति का ही परिचायक होता है। समर्थ कवि पादपूर्त्यर्थ भी किसी अपुष्टार्थ पद का प्रयोग नहीं करता । भोज को वाक्यगत गुम्फना की कल्पना की प्रेरणा वामन के ओज गुण के 'वाक्यार्थे पदाभिधा' से मिली होगी। गुम्फना में शब्दार्थ की सम्यक् रचना की जो धारणा व्यक्त की गयी है, उसे दृष्टि में रखते हुए इसे शब्दालङ्कार का एक भेद नहीं माना जा सकता। यदि शब्द और अर्थ का सुष्ठ विन्यास अलङ्कार है, तो उससे पृथक् अलङ्कार्य क्या बच रहेगा ?
शय्या
पदार्थ अर्थात् प्रस्तुताप्रस्तुत वस्तु की पारस्परिक घटना को शय्या कहा गया है। इसके इस स्वरूप की कल्पना कर शब्दालङ्कार की सीमा में इसे क्यों ढकेल दिया गया यह कहना कठिन है। इसकी गणना शब्दालङ्कार में नहीं करने से चौबीस की संख्या पूरी नहीं होती। सम्भव है, इसीलिए इसे शब्दालङ्कार कह दिया गया हो। पदार्थ की घटना को सामान्य रूप से भी अलङ्कार नहीं माना जा सकता, शब्दालङ्कार मानने का तो प्रश्न ही नहीं उठता । पदार्थ-योजना का शब्द से क्या सम्बन्ध ? यदि यह कहा जाय कि शब्द के बिना अर्थ की घटना सम्भव नहीं, शब्द और अर्थ में अविभाज्य सम्बन्ध है, तब तो अलङ्कारों के शब्दगत, अर्थगत आदि वर्गों की मूल मान्यता ही व्यर्थ हो जायगी। इस आत्मघाती युक्ति से पदार्थ-घटना-रूप शय्या का
१. सरस्वतीकण्ठाभरण, रत्नेश्वर की टीका पृ० १८४ २. भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण २, १२३ की वृत्ति ३. शय्येत्याहुः पदार्थानां घटनायां परस्परम् । -वही, २, १२५