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________________ अलङ्कार-धारणा का विकास [ ६१ मुरारिदान ने शब्द के अलङ्कार तथा चित्र-काव्य में जो भेदक तत्त्व स्वीकार किया है. वह सर्वमान्य नहीं हो सकता । उनकी मान्यता है कि शब्दालङ्कार शब्द में रह कर काव्य में सौन्दर्य का आधान करता है। वे सम्भवतः चित्रालङ्कार में शब्दनिष्ठ काव्य शोभाकर धर्म नहीं मानते । किन्तु विचार करने से यह सिद्ध है कि चित्रबन्धों में भी शब्द-प्रयोग का चमत्कार ही प्रधान है। विशेष बन्ध में वर्णों की विशेष प्रकार से आवृत्ति अपेक्षित होती है। अतः, मेरी मान्यता है कि चित्रबन्ध शब्दगत यमक अलङ्कार से तत्त्वतः भिन्न नहीं है। यह बात अवश्य है कि किसी चित्र-बन्ध में वर्गों का विन्यास करने में कवि को अधिक बौद्धिक व्यायाम करना पड़ता है, जिसके फलस्वरूप उसमें वह सौन्दर्य नहीं रह जाता, जो यमक या अनुप्रास के सरल भेदों के शब्द-प्रयोग में रहता है। यमक के ये सरल रूप, भावानुरूप वर्ण-रचना के होने पर, रस के भी सहायक सिद्ध होते हैं; किन्तु चित्रों के नियमों से आबद्ध वर्गों के सायास विचित्र गुम्फन से रस-बोध बाधित हो जाता है, उस कौशल से बुद्धि भले चमत्कृत हो जाय । इसीलिए रस-ध्वनि के काव्य की आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित हो जाने पर चित्र को अधम-काव्य माना गया; किन्तु शब्दावृत्ति-रूप यमक एवं वर्णावृत्तिरूप अनुप्रास को काव्य-शोभा के अतिशय कारक के रूप में सम्मान मिलता रहा। प्रहेलिका के सम्बन्ध में यह कथन कि 'प्रहेलिका रस-विरोधी होने के कारण अलङ्कार नहीं है ' प्रसिद्ध ही है-'रसस्य परिपन्थित्वात् नालङ्कारः प्रहेलिका'। निष्कर्ष यह है कि चित्रबन्ध मूलतः यमक के ही भेद हैं; किन्तु उससे अधिक दुरूह एवं नीरस बन गये हैं। ___आचार्य दण्डी ने यमक के असंख्य भेद स्वीकार किये हैं और यह कहा है कि विस्तार के भय से उनमें से कुछ दुष्कर यमक-प्रकार का ही विवेचन किया जाता है। किन्तु, उन प्रमुख भेदों का वर्णन ही इतना विस्तृत है कि उसकी साङ्गोपाङ्ग मीमांसा प्रस्तुत प्रबन्ध का लेखक अनावश्यक मानता है। इन सभी भेदों में स्वर-व्यञ्जन-संघात की आवृत्ति की विभिन्न प्रक्रिया का अध्ययन किया गया है। यहाँ उन भेदों का संक्षिप्त परिचय ही पर्याप्त होगा। वर्णसंहति के अभ्यास का व्यवहित, अव्यवहित तथा व्यवहिताव्यवहित होने की दृष्टि से यमक के मुख्य तीन भेद माने गये हैं। पुनः स्थान की दृष्टि से पाद के आदिगत, मध्यमत तथा अन्तगत—ये तीन भेद किये गये हैं। इन तीन भेदों के एक पादगत, द्विपादगत, त्रिपादगत तथा चतुष्पादगत भेद से निम्नलिखित बारह प्रकार हो जाते हैं :-(१) एकपाद के आदिगत,
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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