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अलङ्कार और मनोभाव
[८०१ निदर्शना-प्रस्तुत अलङ्कार में वस्तु-सम्बन्ध के सम्भव या असम्भव होने. पर उन वस्तुओं में उपमानोपमेय-भाव की कल्पना की जाती है । उपमानोपमेयभाव से वस्तुओं की सङ्गति बैठ जाने पर पाठक का मन अन्वित हो जाता है।
सहोक्ति, विनोक्ति-एक वस्तु के साथ (सहोक्ति में) तथा एक के अभाव में (विनोक्ति में) दूसरी वस्तु की विशेष स्थिति का बोध क्रमशः इन अलङ्कारों का लक्षण है। इन में दो वस्तुओं की स्थिति का बोध करने के लिए मन विस्तृत होता है।
श्लेष—श्लेष में अभङ्ग या सभङ्ग पद से अनेक अर्थ का ग्रहण कर पाठक का मन चमत्कृत होता है।
स्वभावोक्ति-वस्तु-स्वभाव का यथार्थ वर्णन चित्त के विकास का हेतु होता है।
भाविक-भूत-भावी अर्थ का प्रत्यक्षायमाणत्व पाठक के चित्त को विकसित करता है।
उदात्त-वस्तु की समृद्धि अथवा व्यक्ति के आशय की उदात्तता का वर्णन चित्त का विस्तार करता है।
आक्षेप-आक्षेप में वक्ता के स्वयं कथित अर्थ का पुनः निषेध देख कर पाठक जो तात्पर्यार्थ ग्रहण करता है वह उसके मन को चमत्कृत कर देता है। प्रत्यक्ष कथन की अपेक्षा विधिमुखेन निषेध की व्यञ्जना अथवा निषेधमुखेन विधि की व्यञ्जना अधिक चमत्कारकारी होती है। यही आक्षेप के स्वरूप का चमत्कार है।
व्याजस्तुति-निन्दामुखेन स्तुति या स्तुतिमुखेन निन्दा की उक्तिभङ्गी पाठक के मन को चमत्कृत ही करती है। ___ व्याजोक्ति-प्रकट हो गये तथ्य को किसी बहाने छिपाने की चेष्टा भी पाठक के मन में चमस्कार उत्पन्न करती है।
अत्युक्ति-अद्भत तथा अतथ्य का वर्णन पाठक के मन में विस्मयः उत्पन्न कर देता है।
विभावना और विशेषोक्ति-कारण के अभाव में कार्योत्पत्ति अथवा इसके विपरीत समग्र कारण के रहने पर भी कार्य की अनुत्पत्ति का वर्णन विस्मयमिश्रित आनन्द उत्पन्न करता है।
विचित्र-इच्छित फल के विपरीत चेष्टा का वर्णन भी पाठक के मन में विस्मय उत्पन्न करता है।
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