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८०० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण अधिक रहता है। इस प्रकार दो वस्तुओं का ज्ञान रहने पर भी उपमेय को उपमान के रूप में ही ग्रहण करने की वृत्ति अधिक प्रबल रहती है। अन्य को (वस्तु, हेतु तथा फल को) अन्य (वस्तु, हेतु तथा फल) के रूप में सम्भावित करने में प्रमाता का उत्कृष्ट ककोटिक संशयात्मक ज्ञान चमत्कार का हेतु होता है। - सन्देह, भ्रान्ति, स्मृति-कवि-निबद्ध पात्र का उपमेय तथा उपमान में सादृश्यातिशय के कारण उत्पन्न संशय, भ्रम एवं स्मरण पाठक के मन को चमत्कृत कर देता है। स्मृति, भ्रान्ति एवं सन्देह; ज्ञान की विभिन्न दशाए हैं। ध्यातव्य है कि कवि तथा पाठक को संशयात्मक या भ्रमात्मक ज्ञान नहीं होता है। कवि की प्रतिभा काव्य में निबद्ध पात्र की तत्तत् मानसिक दशाओं का वर्णन कर उपमेय और उपमान के अतिशय सादृश्य की व्यञ्जना कराती है, जिससे पाठक के मन में चमत्कार उत्पन्न होता है।
दीपक, तुल्ययोगिता-अनेक पदार्थों का एक धर्म से सम्बन्ध-दीपक में प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत का एक धर्माभिसम्बन्ध एवं तुल्ययोगिता में अनेक प्रस्तुतों अथवा अनेक अप्रस्तुतों का एक धर्माभिसम्बन्ध–पाठक के मन का विस्तार करता है। एक धर्म से सम्बद्ध अनेक पदार्थों का ग्रहण चित्तविस्तार का द्योतक है।
समासोक्ति, अप्रस्तुतप्रशंसा-समासोक्ति में प्रस्तुत के कथन से अप्रस्तुत की व्यञ्जना होने पर तथा इसके विपरीत अप्रस्तुतप्रशंसा में अप्रस्तुत के वर्णन से प्रस्तुत की व्यञ्जना होने पर पाठक का चित्त एक अर्थ का बोध कर अन्य के ग्रहण के लिए विस्तृत हो जाता है ।
उल्लेख-एक वस्तु का प्रमाता-भेद से अथवा हेतु-भेद से अनेकधाः उल्लेख पाठक के मन को चमत्कार से भर देता है ।
अतिशयोक्ति-विषय का निगरणपूर्वक सिद्ध अध्यवसान अतिशयोक्ति का स्वरूप है। केवल अप्रस्तुत का कथन होने पर जहाँ सादृश्य के कारण प्रस्तुत का बोध होता है, वहाँ मन अप्रस्तुत का बोध करते ही प्रस्तुत के ग्रहण के लिए विस्तार पा लेता है।
प्रतिवस्तूपमा-प्रतिवस्तूपमा में वस्तुप्रतिवस्तु-सम्बन्ध से स्थित दो वस्तुओं—प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत-का बोध होने से मन में विस्तार की दशा रहती है। .. दृष्टान्त-दृष्टान्त में भी बिम्बप्रतिबिम्ब-भाव से रहने वाले दो पदार्थों का बोध करने में मन विस्तार प्राप्त करता है।