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________________ अलङ्कार और मनोभाव [७६६ प्रतीप-उपमा की प्रक्रिया के विपरीत उपमान को उपमेय तथा उपमेय को उसका ( सामान्यतः स्वीकृत उपमान का ) उपमान बनाये जाने पर पाठक का मन उपमेय के गुणोत्कर्ष का बोध करता है। उपमान में गुण की उत्कृष्टता पूर्व-स्वीकृत रहती है। उसे उपमेय बनाकर जब वर्ण्य विषय को ही उसका उपमान बनाया जाता है तो पाठक का मन उपमान की अपेक्षा भी उपमेय में गुणाधिक्य का अनुभव करता है। प्रत्यक्षतः दो वस्तुओं में किसी के गुणोत्कर्ष का कथन न होने पर भी उपमेय के गुणोत्कर्ष का बोध कर पाठक का मन चमत्कृत हो उठता है। व्यतिरेक-उपमान की अपेक्षा उपमेय का आधिक्य-कथन (कुछ आचार्यों के मतानुसार उपमेय की अपेक्षा उपमान का आधिक्य-कथन भी) होने पर व्यतिरेक में पाठक का मन वस्तु के गुणोत्कर्ष की धारणा से चमत्कृत हो उठता है। व्यतिरेक में वस्तु का अन्य की अपेक्षा गुणाधिक्य शब्दतः कथित होता है, प्रतीप की प्रक्रिया के समान व्यजित नहीं। उपमेय के सामने उपमान की व्यर्थता, एक की अपेक्षा दूसरे के उत्कर्ष या अपकर्ष का कथन या केवल किसी का उत्कर्ष अथवा अपकर्ष-कथन-सभी प्रक्रियाएं वस्तु के गुणाधिक्य का ही बोध कराती हैं। ___अपह्न ति-प्रकृत वस्तु का निषेध कर अप्रकृत की स्थापना में—निषेध'पूर्वक आरोप में-पाठक का मन प्रकृत तथा अप्रकृत के बीच अभेद की प्रधानता का अनुभव करता है; पर इस अलङ्कार का प्रधान वैशिष्ट्य निषेध की प्रक्रिया में है। प्रकृत का निषेध पाठक के मन में एक प्रकार का कौतूहल उत्पन्न करता है और अन्य का आरोप होने पर दो वस्तुओं के अभेद-प्रधान सादृश्य के अनुभव से पाठक का मन विकसित हो उठता है। परिणाम-परिणाम को व्यवहारान्त आरोप कहा गया है। इसमें आरोपित उपमान उपमेय के रूप में परिणत होकर क्रिया की अन्विति प्राप्त करता है। उपमान की क्रिया के साथ अनन्विति का बोध होने पर उपमेयात्मना परिणत होकर उपमान का क्रिया के साथ अन्वित होने का बोध पाठक के मन को अन्वित करता है। उत्प्रेक्षा-उपमेय में उपमान की सम्भावना-असिद्ध अध्यवसायउत्प्रेक्षा का स्वरूप है। इस सम्भावना में संशयात्मक ज्ञान होने पर भी उपमान का ज्ञान उत्कृष्ट कोटि का रहता है। उपमेय और उपमान के अभेद की प्रधानता रहती है और उपमेय की अपेक्षा अमान के ग्रहण में मन का झुकाव
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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