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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
"विस्तार, विकास, चमत्कार आदि विभिन्न वृत्तियों, में सहायक हो सकती है। उपमा के विभिन्न वाचक शब्दों 'इव', 'यथा', 'सदृश', 'तुल्य' 'वत्' आदि के आधार पर न केवल वाक्य-योजना में भेद हुआ करता है; वरन् उनके अर्थबोध में भी सूक्ष्म भेद रहा करता है। मानसिक वृत्तियों के अध्ययन में उपमा के वाचक-भेद पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए । मम्मट, विश्वनाथ, जगन्नाथ आदि आचार्यों ने उपमा के विभिन्न भेदों पर इस दृष्टि से व्यापक विचार किया है। उन्होंने उपमा के त त् भेदों के अर्थबोध की परस्पर विलक्षणता का सङ्कत दिया है। डॉ० गोंडा ने वाचक शब्दों के आधार पर उपमा के विभिन्न भेदों के अर्थबोध में होने वाले अन्तर का उल्लेख किया है। इस एक अलङ्कार के अनेक भेदों पर विचार किये बिना समग्र रूप से उपमा को मन की एक वृत्ति से जोड़ देना युक्तिसङ्गत नहीं।
अनन्वय :-अनन्वय में वर्ण्य वस्तु की उसी के साथ तुलना की जाती है। इस प्रक्रिया में पाठक को वर्ण्य वस्तु की अनन्यसाधारणता का बोध होता है। ऐसा जान पड़ता है कि कवि का मन वर्ण्य वस्तु के लिए अन्य उपमान ढूढ कर थक गया हो और उस वर्ण्य के समान अन्य वस्तु न पाकर उसने उपमेय को ही उसका उपमान भी बना दिया हो। इस प्रकार अनन्वय में वर्ण्य की असाधारणता के बोध से पाठक का मन चमत्कृत होता है। इस असाधारणता के बोध के क्रम में पाठक का मन वर्ण्य के सम्भावित उपमानों की वर्ण्य की तुलना में हीनता का भी बोध ग्रहण करता है ।
उपमेयोपमा :-वर्ण्य तथा अवर्ण्य की परस्पर उपमा में दो ही वस्तुओं का पारस्परिक सादृश्य नियन्त्रित हो जाता है। इससे पाठक का मन किसी भी तीसरी वस्तु के साथ वर्ण्य के सादृश्य की सम्भावना का निषेध करता हुआ दो वस्तुओं के सादृश्य का बोध ग्रहण करता है। अन्य-सादृश्य-व्यवच्छेद की इस प्रक्रिया में भी पाठक का मन एक उपमान को छोड़ वर्ण्य के अन्य सम्भावित उपमानों के साथ वर्ण्य के सादृश्य का निषेध करता हुआ दो वस्तुओं के सादृश्य का बोध करता है ।
रूपक :-उपमेय पर उपमान का आरोप होने पर पाठक का मन प्रधानतः दोनों के अभेद का बोध करता है। यद्यपि रूपक में भी उपमेय और उपमान में कुछ भेद और कुछ अभेद अवश्य रहता है; पर प्रधानता अभेद की हो जाती है। इस अलङ्कार में दो वस्तुओं के गुणों का अभेद-बोध होता है।