________________
अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[ ६६६ : दृष्टान्त और अर्थान्तरन्यास
दृष्टान्त में दो वस्तुओं में बिम्बप्रतिबिम्ब-भाव रहता है और अर्थान्तरन्यास में समर्थ्य-समर्थक-भाव। उद्भट ने दृष्टान्त से अर्थान्तरन्यास का भेद बताते हुए कहा था कि अर्थान्तरन्यास में प्रकृत अर्थ का अन्य अर्थ से समर्थन होता है। अतः, यह दृष्टान्त से भिन्न है। दृष्टान्त में बिम्बप्रतिबिम्ब रूप में । ही एक वस्तु के समीप अन्य वस्तु का उपन्यास होता है ।' रुद्रट की मान्यता है कि अर्थान्तरन्यास में प्रकृत अर्थ (सामान्य या विशेष) उपमेय होता है और उसके समर्थन के लिए उपन्यस्त अप्रकृत अर्थ ( प्रकृत सामान्य के समर्थन के लिए उपन्यस्त विशेष अथवा प्रकृत विशेष के समर्थन के लिए उपन्यस्त सामान्य) उपमान होता है। इन दोनों में से एक आवश्यक रूप से सामान्य और दूसरा विशेष रहता है। यदि समर्थ्य प्रकृत विशेष हो तो समर्थक अप्रकृत सामान्य ही हो सकता है, और इसके विपरीत यदि समर्थ्य प्रकृत सामान्य हो, तो समर्थक अप्रकृत विशेष ही हो सकता है, पर दृष्टान्त अलङ्कार में बिम्बप्रतिबिम्बभाव से दोनों विशेष अर्थों का ही उपस्थापन । होता है । इसलिए दृष्टान्त की परिभाषा में रुद्रट ने 'अर्थ विशेष:' पद का उल्लेख किया है। संक्षेपतः, रुद्रट के अनुसार उक्त दो अलङ्कारों का भेद यह है कि अर्थान्तरन्यास में समर्थ्य-समर्थक रूप में सदा एक विशेष तथा दूसरे सामान्य अर्थ का उपन्यास होता है, पर दृष्टान्त में बिम्बप्रतिबिम्ब रूप में सदा दो विशेष अर्थों का ही उपन्यास होता है, सामान्य अर्थ का नहीं।२ मम्मट आदि परवर्ती आचार्यों ने सामान्य अर्थों के बिम्बप्रतिबिम्ब-भाव में भी दृष्टान्त माना है। इस मत को दृष्टि में रखते हुए 'काव्यप्रकाश' की 'नागेश्वरी' टीका में यह मन्तव्य प्रकट किया गया है कि समान्य का विशेष से तथा विशेष का सामान्य से समर्थन अर्थान्तरन्यास का क्षेत्र है और विशेष का विशेष से समर्थन तथा सामान्य का सामान्य से समर्थन दृष्टान्त का । उद्योतकार ने भी इसी आधार पर दोनों का भेद-निरूपण किया है।४
१. उद्भट-काव्यालं० सार सं०, २,७ तथा उसकी विवृति प० २४ २. द्रष्टव्य-रुद्रट, काव्यालं० ८, ६४ तथा उसकी नमिसाधुकृत टीका
पृ० २५५.. ३. द्रष्टव्य-काव्य प्र० नागेश्वरी टीका पृ० २६१ ।। ४. काव्य प्र० उद्योत से झलकीकर द्वारा बालबोधिनी में उद्धृत प० ६६१