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________________ अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [ ४५३ वामन ने अनन्वय के इसी प्राचीन स्वरूप को स्वीकार किया; पर भामह और उद्भट की अनन्वय-परिभाषाओं को कुछ संशोधन के साथ ग्राह्य माना । उन्होंने अनन्वय की परिभाषा में केवल इतना कहा कि एक ही वस्तु में उपमानोपमेयत्व की जहाँ कल्पना की जाय, वहाँ अनन्वय अलङ्कार होता है।' परिभाषा में सम्भवतः उन्होंने 'असादृश्यविवक्षा' का उल्लेख अनावश्यक समझा । किसी वस्तु को उसके अपने ही समान कहने मात्र से अन्य वस्तु का उससे असादृश्य व्यजित हो जाता है। अतः, अनन्वय-लक्षण में 'असादृश्यविवक्षा' शब्द अपेक्षातिरिक्त माना गया । सम्भव है कि भामह, उद्भट आदि आचार्यों ने भी केवल विषय के स्पष्टीकरण के लिए उक्त शब्द का उल्लेख परिभाषा में किया हो। परवर्ती आचार्यों में रुद्रट, पण्डितराज जगन्नाथ आदि ने भामह की परिभाषा को ही स्वीकार किया है; पर मम्मट, रुय्यक, विद्यानाथ विश्वनाथ, जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित आदि अधिकांश आचार्यों ने वामन की परिभाषा का ही अनुमोदन किया है। हिन्दी के भिखारी दास आदि आचार्यों ने वामन के मतानुसार अनन्वय को परिभाषित किया है। अनन्वय के स्वरूप के सम्बन्ध में एक समस्या मीमांसकों ने उठायी है, जिसपर इस सन्दर्भ में विचार कर लेना अपेक्षित है। उनकी मान्यता है कि एक ही वस्तु में उपमानोपमेय-भाव सम्भव नहीं। कोई वस्तु स्वयं अपना उपमान कैसे बनेगी ? अतः, मीमांसकों का तर्क यह है कि जब ऐसी उक्तियों का प्रयोग होता है कि 'राम-रावण का युद्ध राम-रावण के युद्ध के ही समान था' या 'आकाश आकाश के ही समान है' तब उनके अर्थ की सङ्गति के लिए यह कल्पना आवश्यक होती है कि 'राम और रावण के बीच जो युद्ध हुआ वह कल्पान्तर में हुए राम और रावण के युद्ध के समान था', 'यह आकाश पूर्वकल्प के ऐसे ही आकाश के समान है' आदि ।२ निष्कर्ष यह कि मीमांसक किसी वस्तु का उसी वस्तु के साथ उपमानोपमेय-भाव तभी सम्भव मानेंगे, जब उस वस्तु को सविशेषण कर उसके अपने ही रूप से कुछ भेद कल्पित कर १. एकस्योपमेयोपमानत्वेऽनन्वयः । -वामन, काव्यालं०सू० ४, ३-१४ २. अप्पय्य दीक्षित, चित्रमीमांसा, सुधा-टीका, पृ० १५०
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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