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________________ अलङ्कारों का पारस्परिक भेद [७१७ . ने इसी आधार पर दोनों का विषय-विभाग किया था। पण्डितराज जगन्नाथ ने विमशिनीकार के मत के खण्डन में यह युक्ति दी है कि विरोध में एक अधिकरण में दो का सम्बन्ध तथा असङ्गति में भिन्नाधिकरणत्व के आधार पर जो भेदनिरूपण किया गया है, वह युक्तिसङ्गत नहीं है; क्योंकि असङ्गति में भी विरोधी कार्य-कारण का एक ही कार्यरूप अधिकरण होता है। एक ही कार्य के कारण का वैयधिकार्य असङ्गति का अलङ्कारत्व है । यह युक्ति केवल युक्ति के लिए है। जगन्नाथ ने भी निष्कर्ष-रूप में यही स्वीकार किया है कि जिन पदार्थों का अलग-अलग अधिकरण में रहना प्रसिद्ध है उनका एक अधिकरण में होना विरोध है और इसके विपरीत जिनका समान अधिकरण में रहना प्रसिद्ध है, उनका - भिन्नाधिकरणत्व-निबन्धन असङ्गति है। विरोध और विरोधाभास इन दो अलङ्कारों के नाम में ही दोनों का भेद निर्दिष्ट है। विरोध में तत्त्वतः विरोधी पदार्थों की एकत्र घटना होती है; पर विरोधाभास में विरोध तात्त्विक नहीं होता, उसका आभास-मात्र रहता है । आपाततः जान पड़ने वाले विरोध का जहाँ विचार करने पर परिहार हो जाता है, वहीं विरोधाभास अलङ्कार होता है। विषम और विषादन विषम के एक भेद में कर्ता के अभीष्ट फल की प्राप्ति की जगह अनिष्ट की प्राप्ति का वर्णन होता है। अर्थात् कर्ता इष्ट फल तो नहीं हो पाता, उलटे . उसे अनिष्ट की प्राप्ति हो जाती है। अप्पय्य दीक्षित आदि के विषादन का विषम से थोड़ा-सा भेद यह है कि कर्ता के अभीष्ट फल के ठीक विरुद्ध फल की प्राप्ति विषादन में दिखायी जाती है। विषम में अनिष्ट की प्राप्ति तथा विषादन में इष्ट-विरुद्ध फल की प्राप्ति-दोनों का भेदक है। इन दोनों में । इतना कम भेद है कि कुछ विद्वान दोनों की अलग-अलग सत्ता की कल्पना . अनावश्यक मानते हैं। पण्डितराज जगन्नाथ ने उपरिनिर्दिष्ट आधार पर ही : दोनों में भेद माना है।' १. द्रष्टव्य-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ८०१-३
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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