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अलङ्कार-धारणा का विकास
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अवज्ञा, भाविकच्छवि, अत्युक्ति, प्रस्तुताङ्कर, व्याजनिन्दा, अल्प, मिथ्या--- ध्यवसिति, ललित, अनुज्ञा, मुद्रा, रत्नावली, विशेषक, गूढोक्ति, विवृतोक्ति, युक्ति, लोकोक्ति, छेकोक्ति, निरुक्ति, प्रतिषेध, विधि, असम, उदाहरण, तिरस्कार संसृष्टि और सङ्कर । शोभाकर मित्र ने अनेक नवीन व्यपदेश वाले अलङ्कारों" की कल्पना की, जिनमें से असम, उदाहरण आदि कुछ अलङ्कार ही पीछे स्वीकृति पा सके।
उपरिलिखित अलङ्कारों में कुछ के एकाधिक स्वरूप विवेचित हैं। इस प्रकार समान संज्ञा होने पर भी उनका पृथक-पृथक् अस्तित्व स्वीकार किया. गया है। उदाहरणार्थ; रुद्रट के वास्तव-वर्गगत समुच्चय से उनके औपम्य- . वर्गगत समुच्चय का स्वरूप भिन्न है। उनके उत्तर के भी दो रूप हैं-वास्तव. तथा औपम्य, और वे दोनों एक दूसरे से सर्वथा स्वतन्त्र हैं। औपम्यमूलक पूर्व के स्वरूप को रुद्रट ने अतिशय-मूलक पूर्व से भिन्न माना है। इस प्रकार उक्त समुच्चय, उत्तर और पूर्व अलङ्कार नाम्ना तीन हैं किन्तु स्वरूप-दृष्ट्या वस्तुतः उनकी संख्या छह हो जाती है।
ऊपर जितने शब्दालङ्कारों एवं अर्थालङ्कारों के नाम गिनाये गये हैं, उन्हें समग्रतः संस्कृत अलङ्कार-शास्त्र के किसी भी एक आचार्य ने स्वीकार नहीं किया है। 'कुवलयानन्द' में अलङ्कारों की बहुत अधिक संख्या स्वीकृत है; फिर भी लगभग सवा सौ अलङ्कारों का ही अस्तित्व उसमें स्वीकृत है। भोज तथा अग्निपुराणकार के द्वारा कल्पित अनेक अलङ्कार आचार्यों की स्वीकृति नहीं पा सके। उपमा, रूपक, दीपक, यमक आदि अलङ्कार काव्यशास्त्र के आरम्भ से लेकर अन्त तक निर्विवाद रूप से सभी आचार्यों के द्वारा स्वीकृत हुए हैं। उपमारूपक, उपमेयोपमा आदि का स्वतन्त्र अस्तित्व मानने में आचार्यों में मतैक्य का अभाव रहा है। कुछ आचार्य उपमेयोपमा को उपमा-भेद मानते हैं तो कुछ उसकी स्वतन्त्र सत्ता के पक्षपाती हैं।
अलङ्कारों की संख्या का प्रसार हो जाने पर आचार्यों ने उनके वर्गीकरण का प्रयास किया है। विभिन्न आचार्यों ने भिन्न-भिन्न आधार पर उनका वर्गीकरण किया है। इस प्रकार सादृश्य, विरोध एवं शृङ्खला आदि के