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________________ ३३२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण और उसको एक विफल वैचित्र्य-प्रदर्शन के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है ?' स्पष्ट है कि उपमा आदि के नवीन भेदों की कल्पना में नव-चिन्तन की कोई मूल्यवान उपलब्धि नहीं, चमत्कार-प्रदर्शन का लोभमात्र है। देव के द्वारा उद्भावित अलङ्कारों में से गुणवत् का प्राचीन आचार्यों के तद्गुण में अन्तर्भाव सम्भव है। उनके सङ्कीर्ण की अपूर्ण परिभाषा से उदाहरण के सहारे उस अलङ्कार के सम्बन्ध में उनकी जो धारणा स्थिर होती है, उससे वह अलङ्कार शोभाकर के तन्त्र अलङ्कार से अभिन्न सिद्ध होता है। प्रत्युक्ति नाम-मात्र से नवीन है । उसका स्वरूप प्राचीन आचार्यों के प्रश्नोत्तर से भिन्न नहीं। उनके शेष अलङ्कारों के नाम-रूप पुरातन ही हैं । स्पष्टतः देव के 'शब्दरसायन' या 'भावविलास' में किसी भी सर्वथा नवीन अलङ्कार-स्वरूप की मौलिक उद्भावना नहीं की गयी है। दूलह दूलह और रघुनाथ वन्दीजन समसामयिक थे। संवत् १८०० के आसपास दूलह ने 'कविकुलकण्ठाभरण' तथा रघुनाथ ने 'रसिकमोहन' की रचना की थी। दोनों रचनाओं में अलङ्कारों के लक्षण-निरूपण में पर्याप्त समता है। उदाहरण तो दोनों में अलग-अलग दिये गये हैं; पर लक्षण बहुलांशतः मिलतेजुलते हैं। दोनों में से किसने दूसरे को प्रभावित किया होगा, यह कहना तो कठिन है; पर इस समता का एक कारण स्पष्ट है। दोनों ही आचार्यों के अलङ्कार-विवेचन का आदर्श समान रूप से अप्पय्य का 'कुवलयानन्द' रहा है । कुवलयानन्दकार ने एक सौ अलङ्कारों का वर्णन कर लेने के उपरान्त रसवदादि तथा प्रमाणालङ्कारों का वर्णन किया था। 'कुवलयानन्द' में, यह स्पष्ट जान पड़ता है कि उपमा से हेतु तक के एक सौ अलङ्कारों से रसवत् आदि का कुछ भिन्न महत्त्व माना गया था। दूलह ने भी उसी पद्धति का अनुगमन कर हेतु-विवेचन के उपरान्त उस अध्याय को समाप्त-सा करते हुए लिखा है कि एक सौ अर्यालङ्कार जो प्राचीन आचार्यों के द्वारा विवेचित थे, १. डॉ० नगेन्द्र, देव और उनकी कविता, पृ० १५६ ।
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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