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अलङ्कार और मनोभाव
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इस कल्पना में उपमान कैकेयी के स्वरूप की भीषणता के बोध को तीव्र कर मन को दीप्त करने में सहायक होता है। स्पष्ट है कि उत्प्रेक्षा या किसी भी अन्य सादृश्य, या विरोध आदि मूलक अलङ्कार को किसी विशेष मनोदशा के साथ नियत रूप से सम्बद्ध करना युक्तिसङ्गत नहीं। एक ही उपमान ' परस्पर विरोधी प्रभाव की वृद्धि भी कर सकता है। रमणी की काली लट के लिए नागिन उपमान उसके सौन्दर्य-बोध को तीव्र करता है; पर रमणी को नागिन के समान कहा जाय तो वही उपमान भीषणता का प्रभाव बढ़ाता है । एक ही अलङ्कार भाव-विशेष के साथ रहकर उसकी तीव्रता में सहायक हो सकता है और वही उस भाव के विरोधी भावों के साथ रह कर उनका भी पोषण कर सकता है। हाँ, भाव हीन काव्य में भी अलङ्कार उक्ति-भङ्गी का विलक्षणता से अर्थ-ग्रहग की विभिन्न मानसिक दशाओं की सृष्टि करते हैं । अलङ्कार-सामान्य को दृष्टि में रखते हुए यह कथन ठीक है कि अलङ्कार स्पष्टता, विस्तार, आश्चर्य, अन्विति, जिज्ञासा तथा कौतूहल के मनोभाव को जगाने में सहायक होते हैं। पर इनमें से किसी विशिष्ट मनोभाव के साथ विशिष्ट अलङ्कारों का नित्य सम्बन्ध नहीं जोड़ा जा सकता-इन मनोभावों के आधार पर अलङ्कारों का वर्गीकरण नहीं किया जा सकता । साहित्यशास्त्र में अलङ्कार मनोभाव से परम्परया ही सम्बद्ध माने गये हैं। रस-भाव-पूर्ण काव्य में कोई भी एक अलङ्कार विभिन्न मनोभावों का पोषण करता हुआ देखा जा सकता है। रसहीन काव्य में भी स्पष्टता, चमत्कार आदि उत्पन्न करना अलङ्कार का लक्ष्य होता है।
अलङ्कार के स्वरूप-निरूपण-क्रम में आचार्यों ने जिस मानसिक प्रक्रिया पर ध्यान रखा है, उसका आधुनिक मनोविज्ञान के सिद्धान्त के प्रकाश में अध्ययन रोचक विषय होगा। अपृथग्यत्ननिर्वत्यं अलङ्कार काव्योक्ति के अन्तरङ्ग तत्त्व होते हैं । वे भाव के सहजात होते हैं। उन अलङ्कारों से युक्त उक्ति-विशेष मनोभाव-विशेष को उत्पन्न करते हैं। अतः, विशेष सन्दर्भ में अलङ्कार-विशेष का मनोभाव-विशेष के साथ सम्बन्ध-निरूपण किया जा सकता है। सादृश्य, विरोध, अतिशय आदि के आधार पर अलङ्कारों के स्वरूप का निरूपण मनोवैज्ञानिक धारणा पर आधत है। मनोविज्ञान में साहचर्य को एक वस्तु के ज्ञान से अन्य वस्तु के ज्ञान में सहायक माना जाता है । सादृश्य और विरोध साहचर्य के ही दो भेद हैं। एक वस्तु का ज्ञान उसके सदृश अन्य वस्तु का ज्ञान कराने में सहायक होता है । इसीलिए मीमांसा दर्शन के ज्ञान