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________________ हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएँ [३१५.. की संख्या छह हो तो अर्थालङ्कारों की संख्या एक सौ दो होनी चाहिए। एक सौ एक अलङ्कारों के लक्षण उपलब्ध हैं; अतः एक अर्थालङ्कार की परिभाषा लुप्त जान पड़ती है। डॉ० रामशङ्कर शुक्ल 'रसाल' ने 'भाषाभूषण' के प्राप्त शब्दालङ्कार-लक्षण में यमकानुप्रास को स्वतन्त्र यमक अलङ्कार माना है। उनके अनुसार शेषः ( छेक, लाट, वृत्ति ) अनुप्रास के तीन प्रकार हैं।' यदि यमकानुप्रास को अनुप्रास से स्वतन्त्र यमक मान लिया जाय तब 'भाषाभूषण' के रचयिता के अनुसार इससे भिन्न छह अनुप्रास का स्वरूप-निरूपण किये जाने का अनुमान किया जायगा; और यह मान लिया जायगा कि तीन अनुप्रास-भेदों के लक्षणपरक पद अप्राप्य हैं। किन्तु, हमारा अनुमान है कि जसवन्त सिंह ने यमकानुप्रास सहित छह अनुप्रास-प्रकारों का विवेचन किया होगा। यदि वे यमक को अनुप्रास से स्वतन्त्र मानते तो यमक को यमकानुप्रास नहीं कहते । यमक को अनुप्रास के अन्तर्गत मानना असङ्गत भी नहीं कहा जा सकता। संस्कृतअलङ्कार-शास्त्र में भी कई आचार्यों ने अनुप्रास और यमक के स्वरूप का एक ही व्यपदेश से विवेचन किया है। अतः, डॉ० रसाल की मान्यता तर्कपुष्ट नहीं जान पड़ती। दो शब्दालङ्कार तथा एक अर्थालङ्कार के लक्षण ही लुप्त जान पड़ते हैं। सेठ कन्हैयालाल पोद्दार के अनुसार 'इसमें ( भाषाभूषण में ) चार शब्दालङ्कार और एक सौ अर्थालङ्कार निरूपण किये गये हैं ।'२ हम ऊपर 'भाषाभूषण के एक सौ एक अर्थालङ्कारों की गणना कर चुके हैं । सम्भव है कि पोद्दार जी ने गूढोत्तर और चित्र को एक अलङ्कार मान कर दोनों की गणना एक कर ली हो। अप्पय्य दीक्षित ने उत्तर तथा चित्र को एक ही अलङ्कार के दो भेद स्वीकार किये थे। पर, महाराज जसवन्त सिंह ने दोनों की पृथक्-पृथक् सत्ता स्वीकार कर दोनों को अलग-अलग परिभाषित किया है। 'भाषाभूषण' में अर्थालङ्कारों की संख्या एक सौ एक ही है, एक सौ नहीं। अप्पय्य दीक्षित का 'कुवलयानन्द' महाराज जसवन्त के 'भाषाभूषण' का उपजीव्य है। एक साथ लक्षण और. उदाहरण देने की 'कुवलयानन्द' की शैली तो 'भाषाभूषण' में अपनायी गयी ही है, उपमा से लेकर हेतु तक सभी १. द्रष्टव्य-रामशंकर शुक्ल 'रसाल' अलङ्कार पीयूष, खण्ड १, पृ० १०१ २. द्रष्टव्य-कन्हैयालाल पोद्दार, काव्यकल्पद्र म, खण्ड २, प्राक्कथन पृ० ४१.
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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