________________
३१६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
अर्थालङ्कारों का अनुक्रम भी 'कुवलयानन्द' के ही आधार पर आधृत है। यही - नहीं, ‘भाषाभूषण' की अलङ्कार-परिभाषाएँ भी बहुलांशतः 'कुवलयानन्द' के अलङ्कार-लक्षणों का अविकल हिन्दीरूपान्तर-मात्र है। 'भाषाभूषण' और कुवलयानन्द के तुलनात्मक अध्ययन से ऐसा लगता है कि महाराज जसवन्त की इस स्वीकारोक्ति में-'किए प्रगट भाषा विर्षे, देखि संस्कृत पाठ ।' 'संस्कृत पाठ' से अभिप्राय 'कुवलयानन्द' का ही है। 'भाषाभूषण' में प्रमुख
अलङ्कारों के भेदोपभेदों का विवेचन भी 'कुवलयानन्द' के तत्तदलङ्कार-भेदों : के विवेचन से अभिन्न है। कुछ अलङ्कारों के प्रमुख भेदों का विवरण 'कुवलयानन्द' के आधार पर देकर उनके उपभेदों को जसवन्त सिंह ने छोड़ दिया है। सम्भव है कि ग्रन्थ-विस्तार-भय से ऐसा किया गया हो। उदाहरण के लिए उत्प्रेक्षा के तीन भेदों-वस्तूत्प्रेक्षा, हेतूत्प्रेक्षा तथा फलोत्प्रेक्षाका विवेचन तो 'कुवलयानन्द' के विवेचन से अभिन्न है; पर 'कुवलयानन्द' में विवेचित वस्तूस्प्रेक्षा के उक्तास्पद तथा अनुक्तास्पद; हेतूत्प्रेक्षा एवं फलोत्प्रेक्षा के सिद्धविषय और असिद्धविषय उपभेदों का विवेचन 'भाषाभूषण' में नहीं किया गया है।
'कुवलयानन्द' में व्याजस्तुति के दो रूप-(१) निन्दामुखेन स्तुति तथा (२) स्तुतिमुखेन निन्दा-विवेचित हैं; किन्तु 'भाषाभूषण' की व्याजस्तुतिपरिभाषा में उसके केवल प्रथम रूप को ( निन्दा के व्याज से की जाने वाली स्तुति को ) परिभाषित किया गया है। उसके दूसरे रूप की अस्वीकृति का कोई कारण नहीं।
अप्पय्य दीक्षित ने सामान्य से विशेष और विशेष से सामान्य के समर्थन में अर्थान्तरन्यास अलङ्कार का सद्भाव माना था; पर महाराज जसवन्त सिंह ने उस अलङ्कार की अपूर्ण परिभाषा की अवतारणा की है। बाबू गुलाब · राय के द्वारा सम्पादित 'भाषाभूषण' में उपलब्ध पाठ के अनुसार विशेष से . सामान्य के दृढीकरण में अर्थान्तरन्यास अलङ्कार माना गया है। यह परिभाषा
१. तुलनीय-उक्तिर्व्याजस्तुतिनिन्दास्तुतिभ्यां स्तुतिनिन्दयोः ।-कुवल
यानन्द,७०
तथा
व्याजस्तुति निन्दा मिसहि जब बड़ाई होहि ।
-भाषाभूषण, अलङ्कार-प्रकरण, १०४