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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
पारस्परिक भेदक है । जगन्नाथ ने अपने पर्याय अलङ्कार के द्वितीय लक्षण में – एकत्र क्रम से अनेक वस्तुओं के वर्णन में— क्रम के उल्लेख का उद्देश्य समुच्चय से उसके भेद का स्पष्टीकरण ही माना है । "
पर्याय तथा विशेष
य्यक के अनुसार पर्याय में क्रम से एक वस्तु की अनेकत्र या अनेक वस्तु की एकत्र स्थिति दिखायी जाती है; पर विशेष के द्वितीय भेद में एक वस्तु की युगपत् अनेकत्र स्थिति का वर्णन होता है । अतः, वस्तु की स्थिति का क्रम पर्याय का और यौगपद्य विशेष का विशेषाधायक है । पण्डितराज ने भी पर्यायपरिभाषा में 'क्रम' शब्द के उल्लेख की सार्थकता विशेष से उसके विशेषाधान ही मानी है । पर्याय और परिवृत्ति
पर्याय के एक भेद में एक आधार में अनेक वस्तुओं के होने अथवा रखने का वर्णन होता है; पर परिवृत्ति में किसी वस्तु का त्याग कर उसके बदले अन्य वस्तु के ग्रहण का वर्णन होता है । अतः, दोनों में स्वरूप का स्पष्ट भेद है । 'अलङ्कारसर्वस्व' में विनिमय को परिवृत्ति का व्यावर्तक माना गया है ।
व्याजोक्ति और अपहनुति
व्याजोक्ति में किसी प्रकार प्रकट हो गये वस्तु रूप को किसी बहाने छिपाने का वर्णन होता है । अपह्नति में प्रकृत वस्तु का अपह्नव कर उसकी जगह अन्य (अप्रकृत) की स्थापना की जाती है । इस प्रकार दोनों में ही एक का निषेध कर अन्य वस्तु की स्थापना का प्रयास होता है । व्याजोक्ति में
(पर्यायस्य) द्वितीयलक्षणे वक्ष्यमाणसमुच्चयालङ्कारातिव्याप्तिवारणाय तदिति ( क्रमेणेति) विवेक: । - जगन्नाथ, रसगङ्गाधर पृ० ७५६ २. इह (पर्याये) चक्रमप्रतिपादनाद् अर्थात् तत्र ( विशेषालङ्कारे) यौगपद्यप्रतीतिः । - रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० १८५
३. अत्राद्यलक्षणे
क्रमेणेति ।
प्रागुक्तविशेषालङ्क रद्वितीयभेदेऽतिप्रसङ्गवारणाय
- जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७५६
४. विनिमयाभावात् (पर्यायस्य) परिवृत्तिवैलक्षण्यम् ।
—रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० १८६