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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद [६८३ मानते हैं। स्पष्ट है कि दण्डी के हेतु रूपक से परवर्ती आचार्यों का वह उल्लेखभेद, जिसमें विषय-भेद से एक वस्तु का अनेकधा उल्लेख होता है, आविर्भूत है। 'काव्यप्रकाश' की उद्योत टीका में उल्लेख के स्वतन्त्र अलङ्कारत्व का खण्डन कर रूपक, भ्रान्तिमान्, अतिशयोक्ति तथा श्लेष आदि में ही उसे अन्तभुक्त बताया गया है ।' एक वस्तु का अनेक ज्ञाता के द्वारा अनेकधा ग्रहण-रूप उल्लेख तो दण्डी के उक्त रूपक-भेद हेतु रूपक से भिन्न है; पर जिस उल्लेख-प्रकार में एक ही ज्ञाता एक वस्तु को अनेक हेतुओं से अनेक रूप में ग्रहण करता है, उसका स्वरूप हेतुरूपक से मिलता-जुलता ही है । पण्डितराज जगन्नाथ की मान्यता है कि मालारूपक से उल्लेख का भेदक उसमें प्रमाता की अनेकता है । उल्लेख में अनेक ज्ञाता को एक वस्तु का अनेक रूप में ग्रहण होता है; पर मालारूपक में एक ही प्रमाता किसी एक वस्तु पर अनेक विषयी का आरोप करता है। रूपक और उत्प्रक्षा __उत्प्रेक्षा में उत्कट कोटि का संशय होता है अर्थात् किसी वस्तु में असत् की सम्भावना की जाती है; पर रूपक में किसी वस्तु पर अन्य के रूप का समारोप होता है। इस प्रकार रूपक में तत्त्व का अवधारण होता है; पर उत्प्रेक्षा में उत्कटकोटिक संशय होने के कारण तत्त्व के अवधारण का अभाव रहता है। वामन ने उत्प्रक्षा के लक्षण में रूपक से उसके व्यावर्तक धर्म का स्पष्ट उल्लेख किया है। उनके अनुसार उत्प्रेक्षा में वस्तु का जो रूप नहीं है, उस ( अन्यथा ) रूप की सम्भावना की जाती है। पारिभाषिक शब्दावली में उत्प्रेक्षा में अतद्रप वस्तु का अपने स्वाभाविक रूप से भिन्न रूप में अध्यवसान होता है, पर रूपक में एक वस्तु के रूप पर अन्य वस्तु के रूप का आरोप होता है। निष्कर्षतः, वामन के अनुसार किसी वस्तु के वास्तविक
१. काव्यप्रकाश की उद्योत टीका में व्यक्त यह मत वामन झलकीकर
कृत बालबोधिनी-टीका में उद्धत है।—द्रष्टव्य पृ० ६३१ २. 'धर्मस्यात्मा भागधेयं क्षमाया' इत्यादि मालारूपकेऽतिप्रसङ्गवारणायाने कैर्ग्रहातृभिरित्यविवक्षितबहुत्वकं ग्रहण-विशेषणम् ।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ४२८ ३. अतद्र पस्यातत्स्वभावस्य, अन्यथाऽतत्स्वभावतया, अध्यवसानमध्यव-- सायः । न पुनरध्यारोपो लक्षणा वा ।-वामन, काव्यालङ्कार सूत्र
__ ४-३-६ की वृत्ति पृ० २३६