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अधिक
अधिक अलङ्कार के दो प्रकार की कल्पना रुद्रट ने की है । जहाँ एक कारण से परस्पर विरुद्ध स्वभाव वाले अथवा विरुद्ध क्रिया वाले दो पदार्थों का प्रादुर्भाव वर्णित हो, वहाँ अधिक नामक अलङ्कार का सद्भाव माना गया है । ' प्रस्तुत अलङ्कार के प्रकारान्तर की कल्पना करते हुए रुद्रट ने कहा है कि जहाँ महान आधार में भी स्वल्प आधेय का नहीं समा पाना वर्णित हो, वहाँ भी अधिक अलङ्कार होता है । प्रस्तुत अलङ्कार के स्वरूप की उद्भावना का श्र ेय रुद्रट को है ।
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
विषम
विषम अलङ्कार के स्वरूप की कल्पना भी नवीन है । इसके लक्षण में यह कहा गया है कि जहाँ कार्य और कारण के गुणों में अथवा क्रियाओं में परस्पर विरोध हो, वहाँ विषम अलङ्कार होता है ।
असङ्गति
असङ्गति की धारणा भी रुद्रट की मौलिक उद्भावना है । विषम से असङ्गति का भेद केवल यह है कि विषम में कार्य और कारण के गुण एवं क्रिया का विरोध - प्रतिपादन होता है; पर असङ्गति में एक ही समय कार्य और कारण के भिन्नाधिकरणत्व का वर्णन होता है । ४ नियमतः जहाँ कारण हो, वहीं उसका कार्य भी होना चाहिए । असङ्गति में एक काल में ही कारण के एकत्र तथा कार्य के अपरत्र सद्भाव के वर्णन से जो चमत्कार उत्पन्न होता है, उसी में अलङ्कारत्व माना गया है ।
१. यत्रान्योन्यविरुद्ध विरुद्वबलवत्क्रयाप्रसिद्ध वा । वस्तु
कस्माज्जायत इति तद्भवेदधिकम् ॥ - रुद्रट, काव्यालं०, ६, २६ २. यत्राधारे सुमहत्याधेयमवस्थितं तनीयोऽपि । अतिरिच्येत कथञ्चित्तदधिकमपरं परिज्ञेयम्
- वही, ६, २८
३. कार्यस्य कारणस्य च यत्र विरोधः परस्परं गुणयोः । तद्वत्क्रिययोरथवा संजायेतेति तद्विषमम् ॥ - वही, ६, ४५ ४. विस्पष्टे समकालं कारणमन्यत्र कार्यमन्यत्र ।
यस्यामुपलभ्येते विज्ञेयासंगतिः सेयम् ॥ - वही, ६, ४८
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