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हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएँ [ ३२९ है।' किन्तु, उससे भी समस्या का समाधान नहीं हो पाता। देव का गौण अर्थालङ्कार-विवेचन अनवधान-पूर्ण जान पड़ता है। ... स्वभावोक्ति को मुख्य अलङ्कारों में प्रथम स्थान दिया गया है और उसे गौण अलङ्कार-वर्ग में भी परिगणित कर लिया गया है। संशय को मुख्य तथा सन्देह को गौण अलङ्कार मानने में भी कोई युक्ति नहीं। अस्तु, प्रस्तुत सन्दर्भ में हमारा उद्देश्य देव के द्वारा कल्पित नवीन अलङ्कारों के स्रोत का परीक्षण है।
देव ने मुख्य अर्थालङ्कार-वर्ग में अप्रस्तुतस्तुति नाम के अलङ्कार का उल्लेख किया है। यह अप्रस्तुतप्रशंसा का अपर पर्याय है। संस्कृत-अलङ्कारशास्त्र में भी प्रस्तुत अलङ्कार के दो रूप मिलते हैं। एक में प्रशंसा का अर्थ केवल वर्णन माना गया है तथा दूसरे में प्रशंसा का अर्थ 'गुणगान' लिया गया है। इस प्रकार कुछ आचार्यों के मत से इसमें अप्रस्तुत के वर्णन से प्रस्तुत का बोध कराया जाता है और अन्य आचार्यों के मतानुसार इसमें अप्रस्तुत के गुणोत्कर्ष का वर्णन किया जाता है। देव ने दूसरे रूप को ग्रहण कर प्राचीनों की अप्रस्तुतप्रशंसा का नया नामकरण अप्रस्तुतस्तुति कर दिया। ___ निन्दास्तुति और स्तुतिनिन्दा का अलग-अलग विवेचन किया गया है। ये व्याजस्तुति के दो रूपों ( निन्दामुखेन स्तुति तथा स्तुतिमुखेन निन्दा ) के दो नाम हैं। उनकी पृथक्-पृथक् सत्ता की कल्पना आवश्यक नहीं।
देव के मुख्य अर्थालङ्कारों का स्वरूप-निरूपण अधिकतर दण्डी के आधार पर तथा गौण अर्थालङ्कारों का निरूपण 'चन्द्रालोक' तथा उसपर आधृत 'कुवलयानन्द' के आधार पर हुआ है।
देव के 'शब्दरसायन' में नवकल्पित अलङ्कार हैं-गुणवत्, सङ्कीर्ण प्रत्युक्ति और सहोक्तिमाला। डॉ० ओमप्रकाश शर्मा ने लेख को भी देव का नवीन अलङ्कार मान लिया है। 3 वस्तुतः लेख का नाम और रूप देव ने पूर्ववर्ती आचार्यों से ही लिया है। हम यह देख चुके हैं कि महाराज
१. डॉ० ओमप्रकाश शर्मा ने अपने शोध-प्रबन्ध में देव के गौण अलङ्कारों को
संख्या उनचालीस मान कर यह सुझाव दिया है कि देव के दोहे में 'सुतीस' की जगह 'नौतीस' पाठ माना जाना चाहिए। किन्तु, शब्द
रसायन में वस्तुतः अलङ्कारों की संख्या उनचालीस से भी अधिक है। २. देव, शब्दरसायन, पृ० १७३ ३. ओमप्रकाश शर्मा, रीतिकालीन अलङ्कार-साहित्य, पृ० ६७