SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 640
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [ ६१७ के रूप में प्रस्तुत उक्ति का समावेश प्राचीन आचार्यों की अप्रस्तुतप्रशंसा के क्षेत्र में ही माना जा सकता है। विवृतोक्ति भी जयदेव की प्रथम कल्पना थी। इसमें गूढोक्ति की ही एक विशेष स्थिति की कल्पना की गयी है। गूढोक्ति में वक्ता किसी गूढ अभिप्राय से अन्य को लक्ष्य कर अन्य के प्रति कुछ कहता है। यदि वक्ता के उस कथन के पीछे छिपे हुए उद्देश्य को कवि प्रकट कर देता है तो वहाँ विवृतोक्ति अलङ्कार होता है । इसमें एक तो गूढोक्ति की तरह वक्ता के अन्य के उद्देश्य से अन्य के प्रति कथन का निबन्धन होता है; दूसरे, कवि वक्ता के उस कथन के गूढ आशय का भी उद्घाटन कर देता है। अप्पय्य दीक्षित ने एक ही कथन की दो स्थितियों का उदाहरण उपरिलिखित दो अलङ्कारों के लिए प्रस्तुत किया है । परकीया के साथ रङ्गरभस में लीन नायक का मित्र नायिका के पति को आता देख, उसे सूचित करने के उद्देश्य से वृषभ को सम्बोधित कर कहता है कि 'ऐ वृषभ ! क्षेत्र-रक्षक आ रहा है, अब तू दूर भाग जा।' यह कथन गूढोक्ति का उदाहरण है । जब कवि यह स्पष्ट कर देता है कि नायक को सूचना देने के लिए वक्ता यह कह रहा है कि 'ऐ वृषभ ! दूसरे के क्षेत्र से भाग जाओ, तब यह कथन विवृतोक्ति का उदाहरण बन जाता है।' अतः विवृतोक्ति को गूढोक्ति ( अन्योक्ति या अप्रस्तुतप्रशंसा ) की ही एक स्थिति मानकर उसका विशिष्ट भेद माना जा सकता है। युक्ति के स्वरूप की कल्पना जयदेव ने प्राचीन आचार्यों की व्याजोक्ति के आधार पर की है। व्याजोक्ति में किसी बहाने प्रकट हो गये वस्तु-रूप को 'छिपाने का वर्णन प्राचीन आचार्यों को अभीष्ट था। जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित ने व्याजोक्ति का क्षेत्र केवल आकार-गोपन तक सीमित कर दिया तथा आकार के अतिरिक्त अन्य वस्तु के स्वरूप को छल से छिपाने के वर्णन में युक्ति अलङ्कार का सद्भाव माना । इस प्रकार काम-जन्य लोमहर्ष आदि के प्रकट हो जाने पर 'शीतल वायु के स्पर्श' आदि का बहाना बनाकर उसे छिपाने के प्रयास में तो वे व्याजोक्ति मानेगे; पर अन्य वस्तु-रूप को छिपाने के आयास का वर्णन उनके अनुसार युक्ति अलङ्कार होगा । नायिका अपने प्रिय का चित्र बना रही थी, किसी को आते देख उसने उस चित्र में पुष्प-चाप बना दिया। अपने प्रिय के १. विवृतोक्तिः श्लिष्टगुप्तं कविनाविष्कृतं यदि । वृषापेहि परक्षेत्रादिति वक्ति ससूचनम् । -कुवलयानन्द, १५५
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy