SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 641
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६१८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण स्वरूप को छिपाने के लिए काम का चित्र बनाने का बहाना युक्ति का उदाहरण हुआ।' वस्तुतः, युक्ति व्याजोक्ति की ही विशेष स्थिति है। भेद केवल यह है कि व्याजोक्ति में बहाना वाणी से कहा जाता है, युक्ति में चेष्टा, कार्य आदि. से भी व्यक्त किया जा सकता है। पर्यायोक्ति या पर्यायोक्त पर्याय अलङ्कार के विकास-क्रम के परीक्षण-क्रम में हम यह देख चुके हैं कि पर्यायोक्ति तथा पर्याय संज्ञाओं का प्रयोग कुछ आचार्यों ने एक ही अलङ्कार के लिए किया था; पर धीरे-धीरे पर्याय तथा पर्यायोक्ति या पर्यायोक्त का अलगअलग अस्तित्व मान लिया गया। दोनों के स्वरूप भी एक दूसरे से सर्वथा अलग हो गये। पर्याय क्रम का वाचक स्वीकृत हुआ और क्रम से एक का अनेक आश्रय में सद्भाव अथवा अनेक का एक आश्रय में सद्भाव दिखाना उसका स्वरूप माना गया। पर्यायोक्ति का सम्बन्ध उक्ति की विशेष भङ्गी से माना गया। भामह ने पर्यायोक्त को परिभाषित करते हुए कहा था कि जहाँ अन्य प्रकार से (कथन के सीधे ढंग को छोड़कर प्रकारान्तर से) अभिधान अर्थात् वस्तु का कथन हो, वहां पर्यायोक्त अलङ्कार होता है ।२ वस्तु का अभिधा से कथन न होकर अन्य प्रकार से कथन, उनके अनुसार पर्याय है। दण्डी की पर्यायोक्त-धारणा भामह की धारणा से मिलती-जुलती ही है। उन्होंने कहा है कि अभीष्ट अर्थ को न कहकर साक्षात् उसी अर्थ की सिद्धि के लिए प्रकारान्तर से कथन पर्यायोक्त है। उद्भट ने भामह तथा दण्डी की पर्यायोक्तधारणा को अधिक स्पष्टता के साथ परिभाषित किया। उनके अनुसार वाक्यवृत्ति (योग्यता, आकांक्षा, सन्निधि आदि से वस्तुओं के संसर्ग-बोध की वृत्ति) तथा वाचक-वृत्ति ( अर्थात् अभिधा शक्ति ) के विना जहाँ अवगम व्यापार से अर्थात् व्यञ्जना-व्यापार से वस्तु का अभिधान किया जाय, उस प्रकारान्तर से कथन में पर्यायोक्त अलङ्कार होता है । १. युक्तिः परातिसन्धानं क्रियया मर्मगुप्तये । त्वामालिखन्ती दृष्ट्वान्यं धनुः पौष्पं करेऽलिखत् ।-कुवलयानन्द, १५६ २. पर्यायोक्त यदन्येन प्रकारेणाभिधीयते ।-भामह, काव्यालङ्कार ३,८ ३. अर्थमिष्टमनाख्याय साक्षात् तस्यैव सिद्धये । __ यत् प्रकारान्तराख्यानं पर्यायोक्त तदिष्यते ।।-दण्डी,काव्यादर्श,२,२६५ ४. पर्यायोक्त यदन्येन प्रकारेणाभिधीयते।। वाच्यवाचकवृत्तिभ्यां शून्येनावगमात्मना ।।-काव्यालं. सारसंग्रह ४,११
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy