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________________ अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [ ५५६ 'विशिष्ट का ग्रहण ही दिखाया गया है।' इससे जान पड़ता है कि भामह की तरह अप्पय्य दीक्षित भी केवल न्यून देकर अधिक के ग्रहण में ही चमत्कार मानकर वहीं तक परिवृत्ति का क्षेत्र मानते होंगे। इस प्रकार सम्भवतः उनके 'विनिमयः न्यूनाभ्यधिकयोमिथः' कथन का तात्पर्य न्यून से अधिक के विनिमय (न्यून देकर अधिक ग्रहण) का रहा होगा। पण्डितराज जगन्नाथ ने सम और विषम; दोनों प्रकार के विनिमय में 'परिवृत्ति मानी है। परिवृत्ति के लिए जगन्नाथ ने यह आवश्यक माना है कि एक वस्तु का समर्पण कर अन्य वस्तु के ग्रहण में ही परिवृत्ति होगी, दूसरे के ग्रहण के लिए एक का त्याग मात्र ही परिवृत्ति में पर्याप्त नहीं। इसी आधार पर जगन्नाथ ने 'अलङ्कारसर्वस्व' के परिवृत्ति-लक्षण में दोष निकालना चाहा है, जिसमें यह कहा गया है कि एक वस्तु का त्याग कर दूसरी का ग्रहण 'परिवृत्ति है। विनिमय में कुछ लेने के लिए कुछ का केवल त्याग ही नहीं, उसका अर्पण अपेक्षित होता है ।। _ निष्कर्षतः, परिवृत्ति के सम्बन्ध में दो प्रधान धारणाएँ प्रचलित रही हैं(क) न्यून वस्तु देकर विशिष्ट वस्तु का ग्रहण और (ख) सम, न्यून तथा अधिक वस्तुओं का क्रमशः सम, अधिक एवं न्यून के साथ परिवर्तन । सम का सम से न्यून का अधिक से तथा अधिक का न्यून से परिवर्तन दिखाने में परिवृत्ति मानने के पक्ष में ही अधिकांश आचार्य रहे हैं। वस्तुतः विनिमय की विवक्षा 'परिवृत्ति का प्राण है। उसके सम्भव तीनों रूपों में परिवृत्ति मानी जानी चाहिए। ___ आचार्य केशव ने भ्रमवश विषादन के स्वरूप को परिवृत्ति का लक्षण बना दिया है। उनके अनुसार जहाँ प्रयत्न कुछ और के लिए हो और फल कुछ और ही हो जाय, वहां परिवृत्ति होती है। चिन्तामणि, कुलपति आदि ने १. परिवृत्तिविनिमयो न्यूनाभ्यधिकयोमिथः । जग्राहैकं शरं मुक्त्वा कटाक्षात्स रिपुश्रियम् ॥ - अप्पय्य दी०, कुवलया० ११२ २. परकीययत्किञ्चिद्वस्त्वादानविशिष्टं परस्मै स्वकीययत्किञ्चिद्वस्तुसमर्पणं परिवृत्तिः।-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७६३ रुय्यक की परिवृत्ति-परिभाषा की समीक्षा के लिए द्रष्टव्य वही पृ० ७६५ ३. जहाँ करत कछु और ही, उपजि परति कछु और । तासों परिवृत्ति जानियो"....केशव, कविप्रिया १३-२६
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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