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________________ अलङ्कार-धारणा का विकास [ २८१ स्पष्ट है कि वाग्भट के अन्य तथा अपर नाम्ना ही नवीन हैं। उनका अन्तर्भाव प्राचीन आचार्यों के द्वारा निरूपित अलङ्कारों में ही हो जाता है। भावदेव सूरि 'काव्यालङ्कार-सार' में जैन आचार्य भावदेव सूरि ने शब्दालङ्कारों के निरूपण के उपरान्त पचास अर्थालङ्कारों का विवेचन किया है। उन्होंने दैवकनामक एक अलङ्कार का उल्लेख किया है, जिसका नाम नवीन है। दैवक में उनके अनुसार अर्थ के अनौचित्य का तथा उसके अवश्यम्भावित्व का वर्णन किया जाता है। इस प्रकार दैवक के दो रूप हो जाते हैं। दोनों के अलगअलग उदाहरण भावदेव ने दिये हैं। एक में कहा गया है कि 'कहाँ कर्कश तप और कहाँ तुम्हारा कोमल शरीर !'' इस उदाहरण से स्पष्ट है कि अनौचित्य-वर्णन से तात्पर्य अननुरूप-घटना का है, जिसे मम्मट, रुय्यक आदि ने विषम का एक रूप माना था। भाग्य में लिखे का अवश्यम्भावित्व-वर्णनरूप दैवक का जो उदाहरण दिया गया है, उसमें कहा गया है कि 'पद्मिनी दावाग्नि के भय से लीला-सरोवर में छिपने गयी तो वहाँ हिम से मारी गयी।'२ भावदेव के दैवक अलङ्कार का अन्तर्भाव मम्मट आदि के विषम में सम्भव है। उसके स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना आवश्यक नहीं । केशव मिश्र अलङ्कारशेखरकार केशव मिश्र अनुमानतः अप्पय्यदीक्षित के समसामयिक थे। किन्तु, जहाँ अप्पय्य दीक्षित ने शताधिक अलङ्कारों का स्वरूप-निरूपण १. विषयो दैवकं यस्मिन् अनौचित्यं वर्ण्यते। क्व तपः कर्कशं क्वेदं सुकुमारं वपुस्तव ।। -काव्यालं० सार ६, २५ उद्धृत, नरेन्द्रप्रभ सूरि, अलं० महोदधि, पृ० ३५३ २. दवभीत्या वनं हित्वा लीलासरसि पद्मिमी। तत्र दग्धा हिमेनासौ सावश्यं भावि देवकम् ॥-६, २६ वही, पृ० ३५३ ३. डॉ० सुशीलकुमार डे ने केशव और अप्पय्य; दोनों का समय अनुमानतः १६वीं शताब्दी का उत्तरार्ध माना है। द्रष्टव्य-डे, History of Skt. Poetics Vol I, पृ० २१८
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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