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________________ अलङ्कार-धारणा का विकास [ ११५ के रूपक-लक्षण के भी लक्ष्य माना जा सकता है। एक वस्तु पर अन्य का आरोप रूपक की मूल धारणा है। उद्भट भी पदों के योग को लक्षणा वृत्ति से सिद्ध करने के क्रम में आरोप का तत्त्व स्वीकार करते हैं। अतः बनहट्टी की यह उक्ति युक्ति सङ्गत नहीं जान पड़ती कि उनका (उद्भट का) रूपक अलङ्कारलक्षण तथा रूपक-भेद स्वतन्त्र उद्भावना है और उन पर भामह का कोई प्रभाव नहीं।' उद्भट ने भामह के समस्तवस्तुविषय तथा एकदेशविवर्ति रूपक भेदों को भी स्वीकार किया है। समस्तवस्तुविषय के साथ दण्डी की मालारूपकधारणा को मिला कर समस्तवस्तुविषय मालारूपक नामक एक रूपक-भेद की कल्पना उद्भट ने कर ली है। उन्होंने एकदेशवृत्ति नामक नवीन रूपक-प्रकार की कल्पना की है।३ दण्डी ने रूपक के अनेक भेदों का सोदाहरण विवेचन कर उसके असंख्य भेदों की सम्भावना की ओर इङ्गित किया था।४ स्पष्ट है कि उद्भट के द्वारा कल्पित रूपक-भेद की सम्भावना से वे अनभिज्ञ नहीं थे। रूपक अत्यन्त प्राचीन अलङ्कार है । भरत से लेकर नवीन आलङ्कारिकों तक की रचना में रूपक को अलङ्कार के रूप में निर्विवाद रूप से स्वीकृति मिलती रही है। उसका स्वरूप भी आदिकाल से ही, प्रायः अपरिवर्तित ही रहा है। रूपक-परिभाषा में स्पष्टता-मात्र का श्र य उद्भट को दिया जा सकता है। दीपक रूपक की तरह दीपक भी प्राचीन अलङ्कार है। इसका स्वरूप 'नाट्यशास्त्र' में भी विवेचित है। भामह ने दीपक के तीन भेदों का उल्लेख किया था। उद्भट ने भी उसके तीन भेद स्वीकार किये हैं। उद्भट ने दीपक के सामान्य स्वरूप के सम्बन्ध में पूर्ववर्ती आचार्यों की मान्यता को ही स्वीकार किया है। उनके अनुसार जहाँ प्रस्तुत और अप्रस्तुत के धर्म का-जिसमें दोनों के बीच साम्प का भाव अन्तर्हित रहता है-आदि, मध्य या अन्त में कथन होता है, वहाँ दीपक अलङ्कार होता है ।५ 'अन्तर्गतोपमाधर्मा' का उल्लेख कर उद्भट १. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालं० सार सं०१, २३-२४ । २. द्रष्टव्य-काव्यालंकारसारसंग्रह पर बनहट्टी की टिप्पणी, पृ० २५ ३. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालं० सार सं० १, २५ । ४. द्रष्टव्य-दण्डी, काव्यादर्श, २, ६६ ५. आदिमध्यान्तविषयाः प्राधान्येतरयोगिनः । अन्तर्गतोपमा धर्मा यत्र तद्दीपकं विदुः ॥-उद्भट, काव्यालं. सार सं० १, २८, तुलनीय भामह, काव्यालं०, २, २५
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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