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________________ अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [ ४५७ स्थापना की है । उनके अनुसार उत्प्रेक्षा में अध्यवसान साध्य या सम्भावना के रूप में रहता है । इसमें अन्तर की वेदना की व्यञ्जना प्रधान " रहती है । अतः यह अतिशयोक्ति आदि की अपेक्षा भाव व्यञ्जना में अधिक - सहायक होती है ।' प्रस्तुत सन्दर्भ में उत्प्रेक्षा के उद्भव और विकास का अध्ययन अभीष्ट है | सर्वप्रथम आचार्य भामह ने उत्प्र ेक्षा अलङ्कार के अस्तित्व की कल्पना कर उसे परिभाषित किया। उनके मतानुसार उत्प्रेक्षा में उपमा का पुट, पर सामान्य की अविवक्षा होती है; असिद्ध गुण, क्रिया आदि का योग रहता है तथा अतिशय का भाव मिला रहता है । २ आचार्य भरत की कल्पिता उपमा के स्वरूप में, 'अतद्गुणक्रियायोग' तथा 'सातिशय' की धारणा निहित थी । भामह की उत्प्रेक्षा धारणा का बीज उसी में था । उत्प्र ेक्षा के सामान्य -स्वरूप के सम्बन्ध में एकमत होने पर भी भामह के उत्तरवर्ती आचार्यों ने उसके स्वरूप के स्पष्टीकरण के लिए नवीन-नवीन शब्दावलियों का प्रयोग किया है । आचार्य दण्डी ने उत्प्र ेक्षा के स्वरूप और क्षेत्र के निर्धारण के लिए उसके एक प्रसिद्ध उदाहरण — लिम्पतीव तमोऽङ्गानि वर्षतीवाञ्जनं नभःका सूक्ष्म विश्लेषण कर उसकी परिभाषा में नूतन शब्दावली की कल्पना का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने उत्प्र ेक्षा की परिभाषा में कहा कि जहाँ चेतन या अचेतन पदार्थ की स्वभावसिद्ध वृत्ति ( अर्थात् गुण, क्रिया आदि व्यापार और स्वतः सिद्ध स्वरूप ) के अन्यथा रहने पर अन्यथा - रूप से सम्भावना की जाती है, वहाँ उत्प्रेक्षा अलङ्कार होता है । 3 चेतन, अचेतन की स्वभावसिद्ध वृत्ति प्रस्तुत रहती है और उसकी अन्यथा अर्थात् अप्रस्तुत रूप में सम्भावना की जाती है । निष्कर्षतः, दण्डी अन्य-धर्म के सम्बन्ध के हेतु से अन्य वस्तु में अन्य के तादात्म्य की सम्भावना में उत्त्र क्षा का सद्भाव मानते थे । उद्भट ने भामह के मतानुसार, उपमानोपमेयभाव के सद्भाव में भी उसके अविवक्षित १. द्रष्टव्य, रामचन्द्र शुक्ल, जायसी ग्रन्थावली की भूमिका । २. अविवक्षितसामान्या किञ्चिच्चोपमया सह । अतद्गुणक्रियायोगादुत्प्रक्षातिशयान्विता ॥ ३. अन्यथैव स्थिता वृत्तिश्चेतनस्येतरस्य वा । अन्यथोत्प्रक्ष्यते यत्र तामुत्प्र ेक्षां विदुर्यथा ॥ - भामह, काव्यालं० २,६१ - दण्डी, काव्याद० २,२२१
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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