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हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएं [ ३०७ उल्लेख हुआ है । प्राचीन आचार्य विरोध और विरोधाभास को एक ही अलङ्कार के दो नाम मानते थे। इसलिए कुछ आचार्यों ने विरोध नाम से तथा कुछ आचार्यों ने विरोधाभास नाम से उसका लक्षण प्रस्तुत किया था। दोनों को अलग-अलग स्वीकार करने वाले आचार्यों ने परस्पर विरुद्ध पदार्थों की घटना को विरोध कहा, तथा विरोध के आभास के स्थल में विरोधाभास माना । केशव दास ने प्रस्तुत अलङ्कार के दो लक्षण दिये हैं। एक में इस अलङ्कार को विरोधाभास और दूसरे में विरोध कहा गया है। केशव का विरोध-लक्षण भामह तथा दण्डी के विरोध-लक्षण के समान है।' उनका विरोधाभास-लक्षण वामन के विरोध-लक्षण के आधार पर कल्पित है ।२ वामन ने ही सर्वप्रथम विरोध को स्पष्ट शब्दों में विरोध का आभास कहा था। उनका विरोधाभास-लक्षण विरुद्ध गुण, क्रिया आदि के संयोजन-रूप विरोध से किञ्चित् भिन्न था। केशव दास ने भामह तथा वामन की विरोध-धारणाओं को स्वीकार कर एक लक्षण भामह आदि के मतानुसार तथा दूसरा लक्षण वामन के मतानुसार दिया है।
विकल साधन से साध्य की पूत्ति में विशेष अलङ्कार के सद्भाव की कल्पना केशव ने कर ली है। यह एक विलक्षण कल्पना है। संस्कृत के आचार्यों ने विकल साधन से साध्य की सिद्धि को विभावना का एक प्रकार माना था। केशव ने पूर्ववर्ती आचार्यों की विशेषालङ्कार-विषयक मान्यता को छोड़ कर इस विभावना-भेद को विशेष मान लिया है। इस कल्पना में कोई नवीनता नहीं।
हेतु अलङ्कार की सामान्य धारणा भी संस्कृत-आचार्यों से ही ली गयी है। उसके सभाव, अभाव तथा सभाव-अभाव-भेदों की कल्पना का बीज प्राचीनों के द्वारा कल्पित हेतु अलङ्कार के सामान्य लक्षण में ही निहित था। १. केशव दास विरोधमय, रचियत बचन विचारि । तासों कहत विरोध सब.........॥-केशव, कविप्रिया, ६, १६
तुलनीय-दण्डी, काव्यादर्श, २, ३३३ २. बरनत लगै विरोध सो, अर्थ सवै अविरोध ।
प्रगट विरोधाभास यह........।-केशव, कविप्रिया, ६, २२ तुलनीय–विरुद्धाभासत्वं विरोधः । -वामन, काव्यालङ्कार, ४, ३, १२ ३. साधक कारण विकल जहँ, होय साध्य की सिद्धि ।
केशवदास बखानिये, सो विशेष परसिद्धि ॥-केशव, कविप्रिया, ६, २४