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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
__ ऐतिहासिक दृष्टि से उपमा की सामान्य धारणा में विशेष परिवर्तन या विकास नहीं हुआ है। इस बात में दो मत नहीं कि उपमा में प्रस्तुत वस्तु की तुलना अप्रस्तुत वस्तु के साथ की जाती है। यह • तुलना दोनों के बीच किसी साधारण धर्म के आधार पर होती है।
यदि किसी कारण वर्ण्य वस्तु अन्य वस्तु के सदृश नहीं जान पड़े तो दोनों की • तुलना का कोई अर्थ नहीं होगा। दो वस्तुओं की तुलना में दोनों के बीच
साधारण धर्म के वाचक शब्दों का प्रयोग होता है। इस प्रकार उपमा के चार "अङ्ग स्वीकृत हैं :-(१) वह वर्ण्य वस्तु, जिसकी तुलना अन्य वस्तु से की जाती है अर्थात् उपमेय, (२) जिस वस्तु के साथ वर्ण्य वस्तु की तुलना की जाती है अर्थात् उपमान, (३) दोनों के बीच साधारण रूप से रहने वाला धर्म, जिसे साधारण धर्म कहते हैं और (४) उपमेय एवं उपमान के बीच सादृश्य के वाचक शब्द । इन चार तत्त्वों-उपमेय, उपमान, साधारण धर्म तथा उपमा-वाचक शब्द-से उपमा अलङ्कार की योजना होती है। जहाँ ये चारो तत्त्व उक्त रहते हैं, वहाँ पूर्णा उपमा तथा इनमें से एक, दो तथा तीन के लुप्त — रहने पर लुप्ता उपमा होती है ।
उपमा के उक्त चार अङ्ग तथा उनके सम्पूर्णतः उक्त तथा अंशतः उक्त होने के आधार पर उपमा के पूर्णा एवं लुपा भेद सर्वसम्मत हैं। इस प्रकार आचार्य भरत से लेकर अधुनातन आचार्यों की उपमा-धारणा का सार यह है कि जहाँ कुछ साधारण धर्म या सादृश्य के आधार पर वर्ण्य वस्तु की अप्रस्तुत वस्तु के साथ तुलना की जाती हो, वहाँ उपमा अलङ्कार होता है। उदाहरण के लिए उज्ज्वल अपाङ्ग में काली कनीनिका के सौन्दर्य के लिए यदि कवि यह वर्णन करता है कि- उज्ज्वल अपाङ्ग में काली कनीनिका श्वेत पद्म में बैठे काले भ्रमर के समान सुन्दर है' तो यह उपमा अलङ्कार का उदाहरण होगा। इसमें उज्ज्वल अपाङ्ग में काली कनीनिका उपमेय, श्वेत कमल में • काला भ्रमर उपमान, सुन्दरता दोनों में साधारण धर्म तथा 'समान' उपमा • का वाचक शब्द होगा। यहाँ ध्यातव्य है कि दोनों की सुन्दरता तो उपमा
का हेतु है ही, अपाङ्ग तथा कमल के एवं कनीनिका और भ्रमर के वर्ण आदि का सादृश्य भी उसका हेतु है। इस प्रश्न को लेकर बहुत सूक्ष्म विचार किया गया है कि दो वस्तुओं के बीच साधर्म्य में उपमा मानी जाय या सादृश्य में ? उपमा के सन्दर्भ में दूसरा विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या सार्वत्रिक रूप से