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७२४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण विवक्षित नहीं रहता। यह सहोक्ति और तुल्ययोगिता का भेद है।' मम्मट, रुय्यक आदि ने तुल्ययोगिता के सम्बन्ध में वामन आदि से भिन्न धारणा व्यक्त की है। उनके अनुसार प्राकरणिकों अथवा अप्राकरणिकों का एक गुण, क्रिया आदि से अन्वय तुल्ययोगिता है। इस तुल्ययोगिता से सहोक्ति का स्पष्ट भेद यह है कि सहोक्ति में सहार्थ-वाचक सह, सार्ध आदि का जिससे एक वस्तु का दूसरी वस्तु के साथ होना कथित हो-उल्लेख रहता है। इस प्रकार एक वस्तु प्रधान और दूसरी गौण होती है। जिस वस्तु के साथ अन्य वस्तु का होना कथित हो वह वस्तु प्रधान और उसके साथ जो वस्तु कथित हो वह गौण होगी। पर, तुल्ययोगिता में सहाथ का कथन नहीं होने से प्रधान और मोण सम्बन्ध नहीं रहता। गौण-प्रधान सम्बन्ध होने से सहोक्ति में एक ही समय दोनों वस्तुओं के साथ एक क्रिया का अन्वय होता है; पर तुल्ययोगिता में सभी वस्तुओं के प्रधान होने के कारण एक क्रिया का सभी पदों के साथ अलग-अलग अन्वय होता है। एक पद के अर्थ से विश्रान्त होकर क्रिया दूसरे पद का अर्थ-बोध करती है। सहोक्ति और समुच्चय
सहोक्ति में वर्णित दो वस्तुओं में से एक प्रधान और दूसरी गौण होती है। जिसके साथ तृतीया विभक्ति के प्रयोग से अन्य का होना कहा जाय वह प्रधान और अन्य गौण होता है। समुच्चय में सभी वस्तुएँ प्रधान ही रहती हैं। सहोक्ति शाब्द और आर्थ; दोनों हो सकती है; पर समुच्चय केवल शाब्द ही होता है। यही दोनों का भेद है। एकपदान्वय दोनों में समान रूप से होता है; पर सहोक्ति में सहार्य पद के प्रयोग से शब्दतः और अर्थतः (प्रथमा विभक्ति का प्रयोग होने पर सहार्य शाब्द तथा तृतीयान्त पद-प्रयोग होने पर आर्थ होता है) प्रधान एवं गौण पदार्थों का एकान्वय होता है और समुच्चय में शब्दतः समान रूप से प्रधान पदों का ही एकान्वय होता है। 'प्रदीप' तथा 'उद्योत'में सहोक्ति और समुच्चय के इस भेदक तत्त्व की मीमांसा की गयी है। १. तुल्ययोगितायाः सहोक्त भदमाह अत्रार्थयोन्यूनत्वविशिष्टत्वे न स्तः । इति नेयं तुल्ययोगिता।
-वामन, काव्यालङ्कार सू० ४, ३, २८ की वृत्ति प० २७४ २. एवं च यत्र गुणप्रधानभावावच्छिन्नयोः शाब्दार्थमर्यादया एकधर्मसम्बन्ध
स्तत्रायमलङ्कारः ( सहोक्ति अलङ्कारः)। वक्ष्यमारणे समुच्चये तूभयत्र प्राधान्यं शाब्द एव चैकान्वय इति ततो भेदः । इति प्रदीपोद्योतयोः स्पष्टम् ।
-काव्यप्रकाश, झलकीकरकृत टीका पृष्ठ ६७२