Book Title: Jain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Shasan Sangh Calcutta
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश लेखक जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिर दिल्ली 3209 ४ क्रम संख्या . 281.2:22. खण्ड Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरशासनसंघ-ग्रन्थमाला जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश प्रथम खण्ड लेखक श्री जुगलकिशोर मुख़्तार 'युगवीर' संस्थापक 'वीर-सेवा-मन्दिर' सरसावा, जिला सहारनपुर [ 'ग्रन्थ-परीक्षा' आदिके लेखक; स्वयम्भूम्तोत्र युक्त्यनुशासन, समीचीनधर्मशास्त्रादि ग्रन्थोंके विशिष्ट अनुवादक,टीकाकार एवं भाष्यकार; अनेकान्तादि-पत्रों और समाधितन्त्रादि ग्रन्थोंके सम्पादक ] प्रकाशक श्रीवीर-शासन-संघ, कलकत्ता आषाढ, वीर-निर्वाण सं०२४८२, विक्रम सं०२०१३ प्रथम संस्करण] जुलाई १६५६ [एक हजार प्रति Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक छोटेलाल जैन मंत्री 'श्रीवीर-शासम-संघ' २६, इन्द्र विश्वास रोड, कलकत्ता ३७ प्राप्ति स्थान (१) वीर-सेवा-मन्दिर २१, दरियागंज, देहली (२) वीर-शासन-संघ २६, इन्द्रविश्वास रोड, कलकत्ता ३७ मुद्रक सन्मति प्रेस २३०. गली कुञ्जस, दरीबा कलां देहली Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय 'जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश' नामक ग्रन्थका यह प्रथम खण्ड पाठकोंके समक्ष उपस्थित किया जा रहा है । इसमें प्राच्य विद्यामहार्णव प्राचार्यश्री जुगलकिशोरजी मुख्तारके उन लेखोंका संग्रह है, जो समय समय पर अनेकान्तादि पत्रोंमें और अनेक स्व-पर-सम्पादित ग्रंथों की प्रस्तावनामोंमें प्रगट होते रहे है । लेखोंकी संख्या इतनी अधिक है, कि यह संग्रह कई खण्डोंमें प्रकाशित करना होगा । इस प्रथम खण्डमें ही ७५० के लगभग पृष्ठ हो गये हैं । दूसरे खण्डोंमे भी प्राय: इतने इतने ही पृष्ठोंकी संभावना है । ___इतिहास-अनुसंधाताओं और साहित्यिकोंके लिए नई नई खोजों एवं गवेषणाओंको लिए हुए ये लेख बहुत ही उपयोगी है, और नित्य के उपयोगमें पानेकी चीज हैं अर्थात् एक अच्छी Reference book के रूपमें स्थित हैं अतएव इन सब लेखोंको एकत्रित कर पुस्तकके रूपमें निकालनेकी प्रतीक आवश्यकता थी । पं० नाथूरामजी प्रेमीके जैन साहित्य और इतिहास विषयक लेखोंका एक संग्रह कुछ वर्ष पहिले प्रकाशित हुना था । वह कितना उपयोगी सिद्ध हया, इसे उपयोग मे लाने वाले विद्वान् जानते हैं। इस संग्रहमें उस संग्रह के कुछ लेखों पर भी कितना ही नया तथा विशद प्रकाश डाला गया है। जैनोंके प्रामाणिक इतिहासके निर्माणमें इस प्रकारकी पुगतत्त्व सामग्रीकी अतीव आवश्यकता है। जैनसमाजमें इस प्रकारके युग-प्रवर्तक विद्वानोंमें पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार और पं० नाथूरामजी प्रेमी के नाम ही अग्रगण्य हैं। अत: इन दोनों प्राक्तनविमर्श-विचक्षण विद्वानोंका भारतीय समाज सामान्यत: और जैन समाज विशेषत: ऋणी हैं। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन लेखोंको पढ़ते हुए पाठकोंको ज्ञात होगा, कि इनके निर्माण में लेखक को कितने अधिक श्रम, गम्भीर चिन्तन, अनुभवन, मनन, एवं शोध-खोज से काम लेना पड़ा है । यद्यपि श्री मुख्तार सा० की लेखनशैली कुछ लम्बी होती है पर वह बहुत जंची-तुली, पुनरावृत्तियों से रहित और विषयको स्पष्ट करने वाली होनेसे अनुसंधान-शिक्षार्थियोंके लिए अतीव उपयोगी पड़ती है और सदा मार्ग-दर्शकके रूपमें बनी रहती है। इन लेखोंसे अब हमारे इतिहासकी कितनी ही उलझने सुलझ गई है। साथ ही अनेक नये विषयोंके अनुसंधान का क्षेत्र भी प्रशस्त हो गया है। कितने ही ऐसे ग्रथोंके नाम भी उपलब्ध हुए हैं, जिनके कुछ उद्धरण तो प्राप्त हैं, पर उन ग्रंथोंके अस्तित्वका अभी तक पता नहीं चला । नाम-साम्य को लेकर जो कितनी ही भ्रान्तियां उपस्थित की जा रही थीं या प्रचलित हो रही थीं, उन सबका निरसन भी इन सब लेखोंसे हो जाता है। यद्यपि हमारा विशाल प्राचीन साहित्य कई कारणोंसे बहुत कुछ नष्टभ्रष्ट हो चुका है, फिर भी जो कुछ अवशिष्ट और उपलब्ध है, उसमे भी साहित्य इतिहास और तत्त्वज्ञानकी अनुसन्धान-योग्य बहुत कुछ सामग्री सन्निहित है, अत: उस परसे हमे प्राचीन साहित्यादिके अनुसंधान करनेकी बहुत बड़ी प्रावश्यकता है। यह कार्य तभी संभव हो सकता है, जबकि हम सर्व प्रथम अपने प्राचार्योका समय निर्धारित कर लेवें । तत्पश्चात् हम उनके साहित्यसे आने इतिहास, संस्कृति और भाषा-विज्ञानके सम्बन्ध में प्रनेक अमूल्य विषयोंका यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे। अतः हमें उन विलुप्त ग्रंथोंकी खोजका भी पूरा यत्न करना होगा, तभी सफलता मिल सकेगी। ___ भारतके प्रधानमन्त्री पंडित जवाहरलालजी नेहरूने अपने एक व्याख्यान में कहा था कि 'अगर कोई जानि अपने साहित्य उन्नयनकी उपेक्षा करती है तो बड़ी से बड़ी धन-राशि भी उस जाति ( Nation ) के उत्कर्षमें सहायक नहीं हो सकती है । साहित्य मनुष्यकी उन्नतिका सबसे बड़ा साधन है । कोई राष्ट्र, कोई धर्म अथवा कोई समाज साहित्य के बिना जीवित नहीं रह सकता, या यों कहिये कि साहित्यके बिना राष्ट्र धर्म एवं समाजकी कल्पना ही असंभव है। सुप्रसिद्ध विद्वान् कार्लाइलने कहा है, कि 'ईसाई Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ धर्मके जीनेका कारण 'बाइबिल' है, यदि बाईबिल न होती तो ईसाई धर्म कभी भी जीवित न रह पाता' । भाषा किसी देश के निवासियोंके मनोविचारोंको प्रगट करने का साधन मात्र ही नहीं होनी, किन्तु उन देशवासियोंकी संस्कृति का संरक्षण करने वाली भी होती है । साहित्य के अन्दर प्रादुर्भूत हो कर कोई भी भाषा ज्ञानका संचित कोष एवं संस्कृतिका निर्मल दर्पण बन जाती है । राष्ट्रको महान् बनाने के लिये हमें अपनी गौरवमय अतीत संस्कृतिका ज्ञान होना अत्यावश्यक है । साहित्यकी तरह इतिहास भी कम महत्वको वस्तु नहीं । हम लोगों में इतिहास-मूलक ज्ञानका एक प्रकारसे प्रभाव सा हो गया है । हमारी कितनी ही महत्वकी साहित्यिक रचनाओं में समय और कर्ताका नाम तक भी उपलब्ध नहीं है । सामाजिक सस्कृतिको रक्षाके लिये ऐतिहासिक ज्ञान और भी आवश्यक है । पुरातत्वके अध्ययनके लिये मानव विकासका ज्ञान अनिवार्य है, और यह तभी संभव है जब कि हम अपने साहित्यका समयानुक्रम दृष्टिसे अध्ययन करने में प्रवृत्त हों । इतिहास से ही हम अपने पूर्वजों उत्थान और पतनके साथ साथ उनके कारणों को भी ज्ञात कर उनमे यथेष्ट लाभ उठा सकते हैं । हमें अपने पूर्व महापुरुषों की स्मृतिको अक्षुण्ण बनाये रखना होगा जिससे हमारी संतान के समक्ष ग्रनुसरण करनेके लिये समुचित प्रादर्श रहे। साथ हो अपने पूर्वजों में श्रद्धा बढ़ानेके लिये यह भी आवश्यक है कि हम उनके साहित्य एवं अन्य कृतियों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करें । किसी भी देशका धर्मका और जातिका भूतकालीन इतिहास उसके वर्तमान और भविष्यको सुगठित करनेके लिये एक समर्थ साधन है । इतिहास, ज्ञानकी अन्य शाखाओं की भांति, सत्यको और तथ्यपूर्ण घटनाओं को प्रकाशित करता है, जो साधारणत: आँखों ग्रोमल होती हैं । इस संग्रहको प्रगट करनेके लिये में कई वर्षोंसे चेष्टा कर रहा था, श्रीर श्री मुख्तार सा० से कई बार निवेदन भी किया गया कि वे अपने लेखों की पुनरावृत्ति के लिये एक बार उन्हें सरसरी नजरसे देख जायं, और जहां कहीं संशोधनादिकी जरूरत हो उसे कर देवें । पर उन्हें श्रनवकाशकी बराबर Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ शिकायत बनी रहनेके कारण यह काम इससे पहिले सम्पन्न नहीं हो सका, प्रस्तु । प्राज इस चिरप्रतीक्षित लेखसंग्रहके प्रथम खण्डको पाठकोंके समक्ष रखते हुए मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही है । आशा है पाठक इस महत्त्वपूर्ण लेखसंग्रहसे यथोचित लाभ उठाने में समर्थ होगे । अन्तमें मैं इतना और भी प्रगट कर देना चाहता हूं, कि इस संग्रहमें ३२ लेखों - निबन्धोंका संग्रह है जैसा कि लेख सूची मे प्रगट है । अन्तका 'समन्तभद्रका समयनिर्णय' नामका २२वां लेख मुख्तारसा०की हालकी नई रचना है, वह उस समय से पहिले नहीं लिखा जा सका जो उसपर दिया हुआ है, और इसीसे उसे समन्तभद्र-सम्बन्धी लेखोंके सिलसिले में नहीं दिया जा सका। उसके पूर्ववर्ती लेखपर भी जो नम्बर ३२ पडा है वह छपने की गलतीका परिणाम है, "छपने में २६के बाद लेखों पर २८ आदि नम्बर पड़ गये हैं, जबकि वे २७ प्रादि होने चाहिये और तदनुसार सुधार किये जानेके योग्य हैं । कलकत्ता ज्येष्ठ सुदी ५ ( श्रुतपञ्चमी ) वीर नि० सम्वत् २४८२ छोटेलाल जैन मंत्री - श्रीवीरशासन संघ कलकत्ता * इस सूची में यह भी सूचित कर दिया गया है कि कौन लेख प्रथमत: कबकहां प्रकाशित हुआ है और जिन लेखोंका निर्माण-काल मालूम हो सका है उनका वह समय भी लेखके अनन्तर दे दिया गया है । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेख-सूची १ भगवान् महावीर और उनका समय १ ( अनेकान्त वर्ष ९ मंगसिर वीर सं०२४५६ ) २ वीर - निर्वाण - सम्वतकी समालोचना पर विचार ( अनेकान्त वर्ष ४ नवम्बर १९४७ ) ३ वीर-शासनकी उत्पत्तिका समय और स्थान ( अने० १९४३ ) ५७ ४ जैन तीर्थंकरांका शासन-भेद (जैनहितैषी वर्ष १२ अगस्त १६१६ ) ६७ ५ श्रुतावतार कथा (वीर अक्टूबर १९३६) το τε १०२ ६ श्री कुन्दकुन्दाचाय और उनके ग्रन्थ, दिसम्बर १९४८ ( पुरातन जैनवाक्य सूची - प्रस्तावना सन् १९५०) ७ तत्वार्थ सूत्र के कर्त्ता कुन्दकुन्द (भने० वर्ष १ वीरसम्वत् २४५६ ) ८ उमास्वाति या उमास्वामी ( अने० वर्ष १ वीरसं० २४५६ ) ६ तत्त्वाथसूत्रकी उत्पत्ति ( अने० वर्ष १ वीर सम्वत् २४५६ ) १० तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी एक टिप्पण प्रांत, ११ नवम्बर १९३६ १९२ ( अने० वर्ष ३ वीर सं० २४६६ ) १०६ १०६ G ११ श्वं तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जांच, १८ जुलाई १६४२ ( अने० वर्ष ५ सन् १९४२ ) १२ स्वामी समन्तभद्र, वैशाख शुक्ल २ सम्वत् १६८२ ( रत्नक० प्रस्तावना - स्वामी समन्तभद्र ) १३ समन्तभद्रका मुनि-जीवन और श्रापत्काल १४ समन्तभद्रका एक और परिचय पद्य, २ दिसम्बर १९४४ ( अने० वर्ष ७ सन् १६४४ ) १५ स्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री, तार्किक और योगी तीनों थे २४५ २७ दिसम्बर १६४४ (प्रने० वर्ष ७ सन् १९४४ ) १६ समन्तभद्रके ग्रंथोंका संक्षिप्त परिचय ( रत्नक० प्रस्ता० ) १७ गंधहस्ति महाभाष्य की खोज, बैशाख सुदि २ सं० १९८२ ( जैनहितैषी १९२० रत्न० प्रस्तावना सन् १९२५ ) १८ समन्तभद्रका समय और डाक्टर के० बी० पाठक (जैनजगत वर्ष ९ जुलाई सन् १९३४) ४५ १२५ १४६ २०७ २४१ २५८ २७१ २६७ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८७ १६ सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्रका प्रभाव (अनं० दिसम्बर १६४२) ३२३ २० समन्तभद्रकी स्तुति विद्या (स्तुतिविद्या प्रस्तावना जुलाई १६५०) ३४० २१ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र(स्वयम्भूस्तोत्र-प्रस्तावना जुलाई ५१) ३५८ २२ समन्तभद्रका युक्त्यनुशासन (युक्त्यनु० प्र० जुलाई १९५१) ४२१ २३ रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषय में मेरा विचार और निर्णय ४३१ २१ अप्रैल १९४८ ( अने० वर्ष ६ सन् १९४८) २४ भगवती आराधना, दिसम्बर १९४८ ४८४ (पुरा० जैन वाक्यसूची-प्रस्तावना ) २५ भगवती आराधनाकी दूसरी प्राचीन टीका-टिप्पणियाँ १० अगस्त १९३८ ( अने० वर्ष २ वीर सं० २४६५) २६ कार्तिकेयानुप्रेक्षा और स्वामिकुमार, दिसम्बर १९४८ ४६२ (पुरा० जैन वाक्यसूची-प्रस्तावना ) २७ सन्मतिसुत्र और सिद्धसेन, ३१ दिसम्बर १९४८ (अने० वर्ष ६, दिसम्बर १६४८) २८ तिलायपएणत्ती और यतिवृषभ,दिसम्बर १९४८ (पुरा८ जनवाक्यसूची प्रस्तावना ) . २६ स्वामी पात्रकसरी और विद्यानन्द, १६ दिसम्बर १६२६६३७ (अने० वर्ष १ वीर सं० २४५६ ) " द्वितीय लेख, १७ जुलाई १६३६ (अने० वर्ष २) ६५८ ३० कदम्बवंशीय राजाओंके तीन ताम्रपत्र (जनहि० जून १९२०) ६६८ ३१ आर्य और म्लेच्छ, १७ दिसम्बर १९३८ (अने० वर्ष २) ६७८ ३२ समन्तभद्रका समय-निर्णय, मगसिर सुदि ५ सं० २०१२ ६८६ परिशिष्ट १ काव्य-चित्रोंका सोदाहरण परिचय ६६८ ३ अर्हत्सम्बोधन-पदावली ७०९ २ स्वयम्भू-स्तवन-छन्द-सूची ७८७ ४ नामाऽनुक्रमणी ७१३ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर और उनका समय शुद्धिशक्लयोः परां काष्ठां योऽवाप्य शान्तिमुत्तमाम् । देशयामास सद्धर्म महावीरं नमामि तम् ॥ महावीर-परिचय जैनियोंके अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर विदेह (विहार ) देशस्थ कुण्डपुर के राजा 'सिद्धार्थ के पुत्र थे और माता 'प्रियकारिणी के गर्भसे उत्पन्न, हए थे, जिसका दूसरा नाम 'त्रिशला' भी था और जो वैशालीके राजा 'चेटक' की सुपुत्री थी। आपके शुभ जन्मसे चैत्र शुक्ला त्रयोदशीकी तिथि पवित्र हई और उसे महान् उत्सवोंके लिये पर्वका-सा गौरव प्राप्त हुआ । इस तिथिको जन्मसमय उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र था, जिसे कहीं कहीं 'हस्तोतरा' (हस्त नक्षत्र है * श्वेताम्बर सम्प्रदायके कुछ ग्रन्थोंमें 'क्षत्रियकुण्ड' ऐसा नामोल्लेख भी मिलता है जो संभवतः कुण्डपुरका एक मुहल्ला जान पड़ता है। अन्यथा, उसी सम्प्रदायके दूसरे ग्रन्थोंमें कुण्डग्रामादि-रूपसे कुण्डपुरका साफ़ उल्लेख पाया जाता है। यथा: "हत्युत्तराहिं जामो कुडग्गामे महावीरो।" प्रा०नि० भाग यह कुण्डपुर ही आजकल कुण्डलपुर कहा जाता है,जो कि वास्तवमें वैशालीका उपनगर था। कुछ श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में 'बहन' लिखा है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश उत्तरमें-अनन्तर-जिसके) इस नामसे भी उल्लेखित किया गया है, और सौम्य ग्रह अपने उच्चस्थान पर स्थित थे; जैसा कि श्रीपूज्यपादाचार्यके निम्न वाक्यसे प्रकट है : चैत्र-सितपक्ष-फाल्गुनि शशांकयोगे दिने त्रयोदश्याम् । जज्ञे स्वोच्चस्थेषु ग्रहेषु सौम्येषु शुभलग्ने ॥५॥ -निर्वाणभक्ति तेजःपुञ्ज भगवान्के गर्भमें आते ही सिद्धार्थ राजा तथा अन्य कुटुम्बीजनोंकी श्रीवृद्धि हुई-उनका यश, तेज, पराक्रम और वैभव बढ़ा-माताकी प्रतिभा चमक उठी, वह सहज ही में अनेक गूढ प्रश्नोंका उत्तर देने लगी, और प्रजाजन भी उत्तरोत्तर सुख-शान्तिका अधिक अनुभव करने लगे। इससे जन्मकालमें आपका सार्थक नाम 'वर्द्धमान' रक्खा गया। साथ ही, वीर महावीर और सन्मति जैसे नामोंकी भी क्रमशः सष्टि हुई, जो सब आपके उस समय प्रस्फुटित तथा उच्छलित होनेवाले गुरणों पर ही एक आधार रखते है । ____ महावीरके पिता 'णात' वंशके क्षत्रिय थे। 'णात' यह प्राकृत भाषाका शब्द है और 'नात' ऐसा दन्त्य नकारसे भी लिखा जाता है। संस्कृतमें इसका पर्यायरूप होता है 'ज्ञात'। इसीसे 'चारित्रभक्ति' में श्री पूज्यपादाचार्यने "श्रीमज्ञातकुलेन्दना" पदके द्वारा महावीर भगवान्को 'ज्ञात' वंशका चन्द्रमा लिखा है, और इसीसे महावीर 'रणातपुत' अथवा 'ज्ञातपुत्र' भी कहलाते थे, जिसका बौद्धादि ग्रन्थों में भी उल्लेख पाया जाता है। इस प्रकार वंशके ऊपर नामोंका उस समय चलन था-बुद्धदेव भी अपने वंश परसे 'शाक्यपुत्र' कहे जाते थे। प्रस्तु; इस 'नात' का ही बिगड़ कर अथवा लेखकों या पाठकोंकी नासमझीकी वजहसे बादको 'नाथ' रूप हुअा जान पड़ता है। और इसीसे कुछ ग्रन्थोंमें महावीरको नाथवंशी लिखा हुआ मिलता है, जो ठीक नहीं है। महावीरके बाल्यकालकी घटनाओंमेसे दो घटनाएँ खास तौरसे उल्लेखयोग्य है-एक यह कि, संजय और विजय नामके दो चारण-मुनियोंको तत्त्वार्थ-विष्यक कोई भारी संदेह उत्पन्न हो गया था, जन्मके कुछ दिन बाद ही जब उन्होंने प्रापको देखा तो आपके दर्शनमात्रसे उनका वह सब सन्देह तत्काल दूर हो गया और इस • देखो, गुणभद्राचार्यकृत महापुराणका ७४वा पर्व । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. भ. महावीर और उनका समय लिए उन्होंने बड़ी भक्तिसे प्रापका नाम 'सन्मति' रक्खा । दूसरी यह कि, एक दिन भाप बहुतसे राजकुमारोंके साथ वनमें वृक्षक्रीड़ा कर रहे थे, इतनेमें वहाँ पर एक महाभयंकर और विशालकाय सर्प प्रा निकला और उस वृक्षको ही मूलसे लेकर स्कंध पर्यन्त बेढ़कर स्थित हो गया जिस पर आप चढ़े हुए थे। उसके विकराल रूपको देखकर दूसरे राजकुमार भयविह्वल हो गये और उसी दशामें वृक्षों परसे गिरकर अथवा कूद कर अपने अपने घरको भाग गये। परन्तु आपके हृदयमें जरा भी भयका संचार नहीं हुआ-आप बिलकुल निर्भयचित्त होकर उस काले नागसे ही क्रीड़ा करने लगे और आपने उस पर सवार होकर अपने बल तथा पराक्रमसे उसे खूब ही घुमाया, फिराया तथा निर्मद कर दिया। उसी वक्तसे आप लोकमें 'महावीर' नामसे प्रसिद्ध हुए । इन दोनों घटनाओंसे. यह स्पष्ट जाना जाता है कि महावीरमें बाल्यकालसे ही बुद्धि और शक्तिका असाधारण विकास हो रहा था और इस प्रकारकी घटनाएं उनके भावी असाधारण व्यक्तित्वको सूचित करती थीं। सो ठीक ही है “होनहार बिरवानके होत चीकने पात ।" प्रायः तीस वर्षकी अवस्था हो जाने पर महावीर संसार-देहभोगोंसे पूर्णतया विरक्त हो गये, उन्हें अपने आत्मोत्कर्षको साधने और अपना अन्तिम छल्य प्राप्त करनेकी ही नहीं किन्तु संसारके जीवोंको सन्मार्गमें लगाने अथवा उनकी सच्ची सेवा बजानेकी एक विशेष लगन लगी-दीन दुखियोंकी पुकार उनके हृदयमें घर कर गई-और इसलिये उन्होंने, अब और अधिक समय तक गृहवासको उचित न .. समझकर, जंगल का रास्ता लिया, संपूर्ण राज्यवैभवको ठुकरा दिया और इन्द्रिय ® संजयस्यार्थसंदेहे संजाते विजयस्य च । जन्मानन्तरमेवैनमभ्येत्यालोकमात्रतः ॥ तत्संदेहगते ताभ्यां चारणाभ्यां स्वभक्तितः । अस्त्वेष सन्मतिर्देवो भावीति समुदाहृतः ।। -महापुराण, पर्व ७४वाँ + इनमेंसे पहली घटनाका उल्लेख प्राय: दिगम्बर ग्रन्थोंमें और दूसरीका दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायके ग्रन्थोंमें बहुलतासे पाया जाता है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश सुखोंसे मुख मोड़कर मंगसिरव दि १० मीको 'ज्ञातखंड' नामक वनमें जिनदीक्षा धारण करली । दीक्षाके समय आपने संपूर्ण परिग्रहका त्याग करके ग्राकिंचन्य (अपरिग्रह) व्रत ग्रहणकिया, अपने शरीर परसे वस्त्राभूषणोंको उतार कर फेंक दिया श्रौर केशोंको क्लेशसमान समझते हुए उनका भी लौंच कर डाला । अब आप देहसे भी निर्ममत्व होकर नग्न रहते थे, सिंहकी तरह निर्भय होकर जंगलपहाड़ों में विचरते थे और दिन रात तपश्चरण ही तपश्चरण किया करते थे । विशेष सिद्धि और विशेष लोकसेवाके लिये विशेष ही तपश्चररणकी जरूरत होती है - तपश्चरण ही रोम-रोममें रमे हुए आन्तरिक मलको छाँट कर आत्माको शुद्ध, साफ़, समर्थ और कार्यक्षम बनाता है । इसीलिये महावीरको बारह वर्ष तक घोर तपश्चरण करना पड़ा - खूब कड़ा योग साधना पड़ा - तब कहीं जाकर आपकी शक्तियोंका पूपं विकास हुआ। इस दुर्द्धर तपश्वरणको कुछ घटनाओं को मालूम करके रोंगटे खड़े हो जाते हैं । परन्तु साथ ही आपके साधारण धैर्य, अटल निश्वय, सुदृढ़ आत्मविश्वास, अनुपम साहस मोर लोकोत्तर क्षमाशीलताको देखकर हृदय भक्तिसे भर याता है और खुद बखुद ( स्वयमेव ) स्तुति करनेमें प्रवृत्त हो जाता है । प्रस्तु; मन:पर्ययज्ञानकी प्राप्ति तो आपको दीक्षा लेनेके बाद ही होगई थी परन्तु केवलज्ञान - ज्योतिका उदय बारह वर्षके उग्र तपचरणके बाद वैशाख सुदि १० मी को तीसरे पहरके समय उस वक्त हुआ जब कि श्राप जृम्भका ग्रामके निकट ऋजुकूला नदीके किनारे, शाल वृक्षके नीचे एक शिला पर, पण्ठोपवाससे युक्त हुए, क्षपकश्रेणि पर आरूढ थे - प्रापने शुक्लध्यान लगा रक्खा था--- - श्रौर चन्द्रमा हस्तोत्तर नक्षत्रके मध्य में स्थित था । + कुछ श्वेताम्बरीय ग्रन्थोंमें इतना विशेष कथन पाया जाता है और वह संभवतः साम्प्रदायिक जान पड़ता है कि, वस्त्राभूषरणोंको उतार डालनेके बाद इन्द्रने 'देवदृश्य' नामका एक बहुमूल्य वस्त्र भगवान्के कन्धे पर डाल दिया था, जो १३ महीने तक पड़ा रहा। बादको महावीरने उसे भी त्याग दिया और वे पूर्णरूपसे नग्न- दिगम्बर अथवा जिनकल्पी हो रहे । * केवलज्ञानोत्पत्ति के समय और क्षेत्रादिका प्राय: यह सब वर्णन 'घबल' और 'जयथवल' नामके दोनों सिद्धान्तग्रन्थोंमें उद्धृत तीन प्राचीन गावाबोंमें भी पाया जाता है, जो इस प्रकार हैं : ... Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० महावीर और उनका समय जैसा कि श्रीपूज्यपादाचार्यके निम्न वाक्योंसे प्रकट है : माम-पुर-खेट-कर्वट-मटम्ब-घोषाकरान् प्रविजहार । उप्रैस्तपोविधानादशवर्षाण्यमरपूज्यः ॥१०॥ ऋजकूलायास्तीरे शालद्रुमसंश्रिते शिलापट्टे । अपराह्न षष्ठेनास्थितस्य खलु जम्भकाग्रामे ॥११॥ वैशाखसितदशम्यां हस्तोत्तरमध्यमाश्रिते चन्द्रे । क्षपकश्रेण्यारूढस्योत्पन्न केवलज्ञानम् ॥ १२ ॥ -निर्वाणभक्ति इस तरह घोर तपश्चरण तथा ध्यानाग्नि-द्वारा, ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय मोहनीय और अन्तराय नामके घातिकर्म-मलको दग्ध करके, महावीर भगवान्ने जब अपने प्रात्मामें ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य नामके स्वाभाविक गुणोंका पूरा विकास अथवा उनका पूर्ण रूपसे प्राविर्भाव कर लिया और आप अनुपम शुद्धि, शक्ति तथा शान्तिकी पराकाष्ठाको पहुँच गये, अथवा यों कहिये कि आपको स्वात्मोपलब्धिरूप 'सिद्धि' की प्राप्ति हो गई, तब आपने सब प्रकारसे समर्थ होकर ब्रह्मपथका नेतृत्व ग्रहण किया और संसारी जीवोंको सन्मार्गका उपदेश देनेके लिये उन्हें उनकी भूल सुझाने, बन्धनमुक्त करने, ऊपर उठाने और उनके दुःस मिटानेके लिये-अपना विहार प्रारम्भ किया । दूसरे शब्दोंमें कहना चाहिये कि लोकहित-साधनाका जो असाधारण विचार आपका वर्षोंसे चल रहा था और जिसका गहरा संस्कार जन्मजन्मान्तरोंसे आपके प्रात्मामें पड़ा हुआ था वह मव संपूर्ण रुकावटोंके दूर हो जाने पर स्वत: कार्यमें परिणत हो गया। विहार करते हुए माप जिस स्थान पर पहुँचते थे और वहाँ अापके उपदेशके लिए जो महती सभा जुड़ती थी और जिसे जैनसाहित्यमें 'समवसरण' नामसे गमइय छदुमत्वत्तं वारसवासारिण पंचमासे य । पण्णारसागि दिणारिण य तिरयरणसुद्धो महावीरो ॥१॥ उजुकूलणदीतीरे जंभियगामे वहिं सिलावटे। छ?णादावेंतो प्रवरण्हे पायछायाए ॥२॥ वइसाहजोण्हपक्खे दसमीए खवगसेढिमारुढ्ढो । हंतूरण घाइकम्मं केवलणाणं समावण्णो ॥३॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश उल्लेखित किया गया है उसकी एक खास विशेषता यह होती थी कि उसका हार सबके लिये मुक्त रहता था, कोई किसीके प्रवेशमें बाधक नहीं होता था-पशुपक्षी तक भी आकृष्ट होकर वहाँ पहुँच जाते थे, जाति-पांति, छूताछूत और ऊँचनीचका उसमें कोई भेद नहीं था, सब मनुष्य एक ही मनुष्यजातिमें परिगणित होते थे, मोर उक्त प्रकारके भेदभावको भुलाकर आपसमें प्रेमके साथ रल-मिलकर बैठते और धर्मश्रवण करते थे.-मानों सब एक ही पिताकी संतान हों। इस मादर्शसे समवसरणमें भगवान् महावीरकी समता और उदारता मूर्तिमती नजर आती थी और वे लोग तो उसमें प्रवेश पाकर बेहद संतुष्ट होते थे जो समाजके अत्याचारोंसे पीड़ित थे, जिन्हें कभी धर्मश्रवणका, शास्त्रोंके अध्ययनका, अपने विकासका और उच्चसंस्कृतिको प्राप्त करनेका अवसर ही नहीं मिलता था अथवा जो उसके अधिकारी ही नहीं समझे जाते थे। इसके सिवाय, समवसरणकी भूमिमें प्रवेश करते ही भगवान् महावीरके सामीप्यसे जीवोंका वैरभाव दूर हो जाता था, क्रूर जन्तु भी सौम्य बन जाते थे और उनका जाति-विरोध तक मिट जाता था। इसीसे सर्पको नकुल या मयूरके पास बैठनेमें कोई भय नहीं होता था, चूहा बिना किमी संकोचके बिल्लीका आलिंगन करता था, गौ और सिंही मिलकर एक ही नाँदमें जल पीती थी और मृग-शावक खुशीसे सिंह-शावकके साथ खेलता था। यह सब महावीरके योगबलका माहात्म्य था। उनके पात्मामें अहिंसाको पूर्ण प्रतिष्ठा हो चुकी थी, इसलिये उनके संनिकट अथवा उनकी उपस्थितिमें किसीका वैर स्थिर नही रह सकता था । पतंजलि ऋषिने भी, अपने योगदर्शन में, योगके इस माहात्म्यको स्वीकार किया है; जैसा कि उसके निम्न सूत्रसे प्रकट है: अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः ॥३५॥ जैनशास्त्रोंमें महावीरके विहारसमयादिककी कितनी ही विभूतियोंका-प्रतिशयोंका-वर्णन किया गया है । परन्तु उन्हें यहाँ पर छोड़ा जाता है। क्योंकि स्वामी समन्तभद्रने लिखा है: देवागम-नभोयान-चामरादि-विभूतयः । मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान् ॥१॥ -प्रातमीमांसा Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० महावीर और उनका समय MIT अर्थात् - देवोंका भागमन, श्राकाशमें गमन और चामरादिक (दिव्य चमर, छत्र, सिंहासन, भामंडलादिक ) विभूतियोंका अस्तित्व तो मायावियोंमें इन्द्रजालियोंमें — भी पाया जाता है, इनके कारण हम आपको महान् नहीं मानते और न इनकी वजहसे आपकी कोई खास महत्ता या बड़ाई ही है । भगवान् महावीरकी महत्ता और बड़ाई तो उनके मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय नामक कर्मोका नाश करके परमशान्तिको लिये हुए शुद्धि तथा शक्तिकी पराकाष्ठाको पहुँचने और ब्रह्मपथका - प्रहिंसात्मक मोक्षमार्गका — नेतृत्व ग्रहण करनेमें है— अथवा यों कहिये कि श्रात्मोद्धारके साथसाथ लोककी सच्ची सेवा बजाने में है । जैसा कि स्वामी समन्तभद्रके निम्न वाक्यसे भी प्रकट है : 1 त्वं शुद्धिशक्त्योरुदस्य काष्ठां तुलाव्यतीतां जिन शान्तिरूपाम् । वापि ब्रह्मपथस्य नेता महानितीयत् प्रतिवक्तुमीशाः ॥ ४ ॥ ——युक्त्यनुशासन महावीर भगवान्ने प्रायः तीस वर्ष तक लगातार अनेक देश-देशान्तरोंमें विहार करके सन्मार्गका उपदेश दिया, असंख्य प्राणियों के अज्ञानान्धकारको दूर करके उन्हें यथार्थ वस्तु-स्थितिका बोध कराया, तत्त्वार्थको समझाया, भूलें दूर कीं, भ्रम मिटाए, कमजोरियाँ हटाई, भय भगाया, आत्मविश्वास बढ़ाया, कदाग्रह दूर किया, पाखण्डबल घटाया, मिथ्यात्व छुड़ाया, पतितोंको उठाया, अन्यायअत्याचारको रोका, हिंसाका विरोध किया, साम्यवादको फैलाया और लोगोंको स्वावलम्बन तथा संयमकी शिक्षा दे कर उन्हें आत्मोत्कर्ष के मार्ग पर लगाया । इस तरह आपने लोकका अनन्त उपकार किया है और आपका यह विहार बड़ा ही उदार, प्रतापी एवं यशस्वी हुआ है । इसीसे स्वामी समन्तभद्रके स्वयंभूस्तोत्र में 'गिरिमित्यवदानवतः' इत्यादि पद्यके द्वारा इस विहारका यत्किचित् उल्लेख करते हुए, उसे “ऊर्जितं गतं " लिखा है । * ज्ञानावरण-दर्शनावरणके प्रभावसे निर्मल ज्ञान दर्शनकी प्राविभूतिका नाम 'शुद्धि' और अन्तराय कर्मके नाशसे वीर्यलब्धिका होना 'शक्ति' है और मानीय कर्मके प्रभावसे प्रतुलित सुखकी प्राप्तिका होना 'परमशान्ति' है । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश भगवान्का यह विहार-काल ही प्राय: उनका तीर्थ-प्रवर्तनकाल है, और इस तीर्थ-प्रवर्तनकी वजहसे ही वे 'तीर्थंकर' कहलाते हैं । मापके विहारका पहला स्टेशन राजगृहीके निकट विपुलाचल तथा वैभार पर्वतादि पंच पहाड़ियोंका प्रदेश जान पड़ता है जिसे धवल और जयधवल नामके सिद्धान्त ग्रन्थोंमें क्षेत्ररूपसे महावीरका अर्थकर्तृत्व प्ररूपण करते हुए, 'पंचशैलपुर' नामसे उल्लेखित किया है & । यहीं पर आपका प्रथम उपदेश हुमा है-केवलज्ञानोत्पत्तिके पश्चात् आपकी दिव्य वाणी खिरी है—और उस उपदेशके समयसे ही आपके तीर्थकी उत्पत्ति हुई है । राजगृहीमें उस वक्त राजा * 'जयधवल' मे, महावीरके इस तीर्थप्रवर्तन और उनके आगमकी प्रमाणताका उल्लेख करते हुए, एक प्राचीन गाथाके आधार पर उन्हें 'निःसशयकर' (जगतके जीवोंके सन्देहको दूर करने वाले ), 'वीर' (ज्ञान-वचनादिकी सातिशय शक्तिसे सम्पन्न ), 'जिनोत्तम' ( जितेन्द्रियों तथा कर्मजेताओंमें श्रेष्ठ ), 'राग-द्वेषभयसे रहित' और 'धर्मतीर्थ-प्रवर्तक' लिखा है। यथा रिणस्संसयकरो वीरो महावीरो जिणुत्तमो । राग-दोस-भयादीदो धम्मतित्थस्स कारपो ! + आप जृम्भका ग्रामके ऋजुकूला-तटमे चलकर पहले इसी प्रदेशमें आए हैं । इसीसे श्रीपूज्यपादाचार्यने आपकी केवलज्ञानोत्पत्तिके उस कथनके अनन्तर जो ऊपर दिया गया है आपके वैभार पर्वत पर पानेकी बात कही है और तभीसे आपके तीस वर्षके विहारकी गणना की है । यथा “अथ भगवान्सम्प्रापद्दिव्यं वैभारपर्वतं रम्यं । चातुर्वर्ण्य सुसंघस्तत्राभूद् गौतमप्रभृति ॥१३॥ "दशविधमनगाराणामेकादशधोत्तरं तथा धर्म । देशयमानो व्यहरत् त्रिशद्वर्षाण्यथ जिनेन्द्रः ॥१५॥ -निर्वाणभक्ति । 88 पंचसेलपुरे रम्मे विउले पव्वदुत्तमे। गाणादुमसमाइण्णे देवदाणववंदिदे ॥ महावीरेण (अ) त्यो कहियो भवियलोअस्स । यह तीर्थोत्पत्ति श्रावण-कृष्ण-प्रतिपदाको पूर्वाह ( सूर्योदय) के समय Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~~~ भ० महावीर और उनका समय श्रेणिक राज्य करता था, जिसे बिम्बसार भी कहते हैं । उसने भगवान्की परिषदोंमें-समवशरण सभागोंमें प्रधान भाग लिया है और उसके प्रश्नों पर बहुतसे रहस्योंका उद्घाटन हुअा है । श्रोणिककी रानी चेलना भी राजा चेटककी पुत्री थी और इसलिये वह रिश्तेमें महावीरकी मातृस्वसा (मावसी) होती थी। इस तरह महावीरका अनेक राज्योंके साथमें शारीरिक सम्बन्ध भी था। उनमें आपके धर्मका बहुत प्रचार हुआ और उसे अच्छा राजाश्रय मिला है। विहारके समय महावीरके साथ कितने ही मुनि-पायिकाओं तथा श्रावकश्राविकाओंका संघ रहता था । आपने चतुर्विध संघकी अच्छी योजना और बड़ी ही सुन्दर व्यवस्था की थी। इस संघके गणधरोंकी संख्या ग्यारह तक पहुँच गई थी और उनमें सबसे प्रधान गौतम स्वामी थे, जो 'इन्द्रभूति' नामसे भी प्रसिद्ध हैं और समवसरणमें मुख्य गणधरका कार्य करते थे। ये गौतम-गोत्री और सकल वेद-वेदांगके पारगामी एक बहुत बड़े ब्राह्मण विद्वान् थे, जो महावीरको केवलज्ञानकी संप्राप्ति होनेके पश्चान् उनके पास अपने जीवाऽजीवविषयक सन्देहके निवारणार्थ गये थे, सन्देहकी निवृत्तिपर उनके शिष्य बन गये थे और जिन्होंने अपने बहुतसे शिष्योंके साथ भगवान्से जिनदीक्षा लेली थी । अस्तु । तीस वर्षके लम्बे विहारको समाप्त करते और कृतकृत्य होते हुए, भगवान् अभिजित नक्षत्र में हुई है; जैसा कि धवल सिद्धान्तके निम्न वाक्यसे प्रकट है वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्मि सावरणे. बहुले । पाडिवदपुत्रदिवसे तित्युप्पत्ती दु अभिजिम्हि ॥२॥ 1 कुछ श्वेताम्बरीय ग्रन्थानुसार 'मातुलजा'~-मामूज़ाद बहन । * धवल सिद्धान्तमें---और जयधवलमें भी कुछ प्राचार्योंके मतानुसार एक प्राचीन गाथाके आधार पर विहारकालकी संख्या २६ वर्ष ५ महीने २० दिन भी दी है, जो केवलोत्पत्ति और निर्वाणकी तिथियोंको देखते हुए ठीक जान पड़ती है। और इसलिये ३० वर्षकी यह संख्या स्थूलरूपसे समझनी चाहिये । वह गाथा इस प्रकार है: वासाणूणत्तीसं पंच य मासे य वीसदिवसे य । चउविहमरणगारेहिं बारहहि गणेहि विहरतो ॥१॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश महावीर जब पावापुरके एक सुन्दर उद्यानमें पहुँचे, जो अनेक पद्म-सरोवरों तथा नाना प्रकारके वृक्षसमूहोंसे मंडित था, तब आप वहाँ कायोत्सर्गसे स्थित हो गये और आपने परम शुक्लध्यानके द्वारा योगनिरोध करके दग्धरग्जु-समान अवशिष्ट रहे कर्म-रजको-प्रघातिचतुष्टयको-भी अपने आत्मासे पृथक् कर डाला, और इस तरह कार्तिक वदि अमावस्याके दिनस, स्वाति नक्षत्रके समय, निर्वाण-पदको ___ धवल सिद्धान्तमें, "पच्छा पावारणयरे कत्तियमासे य किण्हचोद्दसिए । सादीए रत्तीए सेसरयं छेत्त रिणवायो॥" इस प्राचीन गाथाको प्रमाणमें उद्धृत करते हुए, कार्तिक बदि चतुर्दशीकी रात्रिको (पच्छिमभाए = पिछले पहरमे ) निर्वाणका होना लिखा है। साथ ही, केवलोत्पत्तिसे निर्वाण तकके समय २६ वर्ष ५ महीने २० दिनकी संगति ठीक बिठलाते हुए, यह भी प्रतिपादन किया है कि अमावस्याके दिन देवेद्रोंके द्वारा परिनिर्वाणपूजा की गई है वह दिन भी इस कालमें शामिल करने पर कार्तिकके १५ दिन होते है । यथा:-- ___"अमावसीए परिणिब्बाणपूजा सयलदेविदेहि कया ति तंपि दिवसमेत्थेव पक्खित्ते पण्णारस दिवमा होति ।" ___ इससे यह मालूम होता है कि निर्वाण अमावस्याको दिनके ममय तथा दिनके बाद रात्रिको नहीं हुआ, बल्कि चतुर्दशीकी रात्रिके अन्तिम भागमें हुमा है जब कि अमावस्या आ गई थी और उसका सारा कृत्य---निरिणपूजा और देहसंस्कारादि---अमावस्याको ही प्रातःकाल प्रादिके समय भुगता है। इससे कार्तिककी अमावस्या आम तौर पर निर्वाणकी तिथि कहलाती है। और चकि वह रात्रि चतुर्दशीकी थी इसमे चतुर्दशीको निर्वाण कहना भी कुछ असंगत मालूम नहीं होता । महापुराणमें गुणभद्राचार्यने भी “कार्तिककृष्णपक्षस्य चतुर्दश्यां निशात्यये" इस वाक्यके द्वारा कृष्ण चतुर्दशीकी रात्रिको उस समय निर्वाणका होना बतलाया है जबकि रात्रि समाप्तिके करीब थी। उसी रात्रिके अंधेरे में, जिसे जिनसेनने हरिवंशपुराणमें "कृष्णभूतसुप्रभातसन्ध्यासमये" पदके द्वारा उल्लेखित किया है, देवेन्द्रों द्वारा दीपावली प्रज्वलित करके निर्वाणपूजा किये जानेका उल्लेख है और वह पूजा धवलके उक्त वाक्यानुसार अमावस्याको की गई है। इससे चतुर्दशीकी रात्रिके अन्तिम भागमें अमावस्या आ गई थी यह स्पष्ट जाना Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० महावीर और उनका समय ११ प्राप्त करके आप सदा के लिये अजर, अमर तथा अक्षय सौख्यको प्राप्त हो गये# | इसीका नाम विदेहमुक्ति, प्रात्यन्तिक- स्वात्मस्थिति, परिपूर्णसिद्धावस्था अथवा निष्कल - परमात्मपदकी प्राप्ति है । भगवान् महावीर प्रायः ७२ वर्षकी अवस्था f में अपने इस अन्तिम ध्येयको प्राप्त करके लोकाग्रवासी हुए । और आज उन्हींका तीर्थ प्रवर्त रहा है । इस प्रकार भगवान् महावीरका यह संक्षेपमें सामान्य परिचय है, जिसमें प्रायः किसीको भी कोई खास विवाद नही है । भगवज्जीवनीकी उभय सम्प्रदायसम्बन्धी कुछ विवादग्रस्त अथवा मतभेदवाली बातोंको मैंने पहलेसे ही छोड़ दिया है । उनके लिये इस छोटेसे निबन्धमें स्थान भी कहाँ हो सकता है ? वे तो गहरे जाता है । और इसलिये अमावस्याको निर्वारण बतलाना बहुत युक्तियुक्त है, Her श्री पूज्यपादाचार्यने "कार्तिककृष्णस्यान्ते" पदके द्वारा उल्लेख किया है । * जैसा कि श्री पूज्यपादके निम्न वाक्यसे भी प्रकट है:“पद्मवनदीर्घिका कुलविविधद्रुमखण्डमण्डिते रम्ये । पावानगरोद्याने व्युत्सर्गेण स्थितः स मुनिः ॥ १६ ॥ कार्तिक कृष्णस्यान्ते स्वातावृक्षे निहत्य कर्मरजः । अवशेषं संत्रापद् व्यजरामरमक्षयं सौख्यम् ॥ १७॥” – निर्वारणभक्ति । + धवल और जयधवल नामके सिद्धान्त ग्रन्थोंमें महावीरकी आयु, कुछ प्राचार्यों के मतानुसार, ७१ वर्ष ३ महीने २५ दिनकी भी बतलाई है और उसका लेखा इस प्रकार दिया है. गर्भकाल = मास ८ दिन कुमारकाल = २८ वर्ष ७ मास १२ दिन; छद्मस्थ ( तपश्चरण )काल = १२ वर्ष ५ मास १५ दिन) केवल (विहार) काल : २६ वर्ष ५ मास २० दिन । इस लेखेके कुमारकालमें एक वर्षकी कमी जान पड़ती है; क्योंकि वह आम तौर पर प्रायः ३० वर्षका माना जाता है । दूसरे, इस प्रयुमेंसे यदि गर्भकालको निकाल दिया जाय, जिसका लोक व्यवहारमें ग्रहण नहीं होता तो वह ७० वर्ष कुछ महीनेकी ही रह जाती है और इतनी आयुके लिये ७२ वर्षका व्यवहार नहीं बनता । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश अनुसंधानको लिये हुए एक विस्तृत आलोचनात्मक निबन्धमें अच्छे ऊहापोह अथवा विवेचनके साथ ही दिखलाई जानेके योग्य हैं । 1 देशकालकी परिस्थिति देश-कालकी जिस परिस्थितिने महावीर भगवानको उत्पन्न किया उसके सम्बन्धमें भी दो शब्द कह देना यहाँ पर उचित जान पड़ता है । महावीर भगवान् के अवतारसे पहले देशका वातावरण बहुत ही क्षुब्ध, पीड़ित तथा संत्रस्त हो रहा था, दीन-दुर्बल खूब सताए जाते थे; ऊँच-नीचकी भावनाएं जोरों पर थीं; शूद्रोंसे पशुओं जैसा व्यवहार होता था, उन्हें कोई सम्मान या अधिकार प्राप्त नहीं था, वे शिक्षा-दीक्षा और उच्चसंस्कृतिके अधिकारी ही नहीं माने जाते थे और उनके विषय में बहुत ही निर्दय तथा घातक नियम प्रचलित थे; स्त्रियाँ भी काफी तौर पर सताई जाती थीं, उच्चशिक्षासे वंचित रक्खी जाती थीं, उनके विषय में "न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति " ( स्त्री स्वतन्त्रताकी अधिकारिणी नहीं ) जैसी कठोर आज्ञाएं जारी थीं और उन्हें यथेष्ट मानवी अधिकार प्राप्त नही थेबहुतों की दृष्टि तो वे केवल भोगकी वस्तु, विलास की चीज़, पुरुषकी सम्पत्ति अथवा बच्चा जनने की मशीनमात्र रह गई थीं; ब्राह्मणोंने धर्मानुष्ठान आदिके सब ऊँचे ऊँचे अधिकार अपने लिए रिजर्व रख छोड़े थे- दूसरे लोगों को वे उनका पात्र ही नहीं समझते थे - सर्वत्र उन्हीकी तूती बोलती थी, शासनविभागमें भी उन्होंने अपने लिए खास रिश्रायतें प्राप्त कर रक्खी थीं- घोरसे घोर पाप और बड़ेसे बड़ा अपराध कर लेने पर भी उन्हें प्रारणदण्ड नहीं दिया जाता था, जब कि दूसरोको एक साधारणसे अपराधपर भी सूली - फॉसीपर चढ़ा दिया जाता था; ब्राह्मणोंके बिगड़े तथा सड़े हुए जाति-भेदकी दुर्गन्धसे देशका प्रारण घुट रहा था श्रीर उसका विकास रुक रहा था, खुद उनके अभिमान तथा जाति-मदने उन्हें पतित कर दिया था और उनमें लोभ-लालच, दंभ, अज्ञानता, अकर्मण्यता, क्रूरता तथा घूर्ततादि दुर्गुणों का निवास हो गया था; वे रिश्वतें अथवा दक्षिणाएँ लेकर परलोक के लिए सर्टिफ़िकेट श्रौर पर्वाने तक देने लगे थे; धर्म की असली भावनाएं प्रायः लुप्त हो गई थीं और उनका स्थान अर्थ-हीन क्रियाकाण्डों तथा थोथे विधि-विधानोंने ले लिया था; बहुतसे देवी-देवताओंकी कल्पना प्रबल हो उठी • Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० महावीर और उनका समय थी, उनके सन्तुष्ट करनेमें ही सारा समय चला जाता था और उन्हें पशुप्रोंकी बलियाँ तक चढ़ाई जाती थीं; धर्मके नाम पर सर्वत्र यज्ञ-यागादिक कर्म होते थे और उनमें असंख्य पशुओंको होमा जाता था-जीवित प्राणी धधकती हुई आगमें डाल दिये जाते थे और उनका स्वर्ग जाना बतलाकर अथवा 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' कहकर लोगोंको भुलावे में डाला जाता था और उन्हें ऐसे क्रूर कर्मोंके लिये उत्तेजित किया जाता था । साथ ही, बलि तथा यज्ञके बहाने लोग मांस खाते थे। इस तरह देशमें चहुँ ओर अन्याय-अत्याचारका साम्राज्य था-बड़ा ही बीभत्स तथा करुण दृश्य उपस्थित था--सत्य कुचला जाता था, धर्म अपमानित हो रहा था, पीड़ितोंकी आहोंके धुएंसे आकाश व्याप्त था और सर्वत्र असन्तोष ही असन्तोष फैला हुआ था। यह सब देखकर सज्जनोंका हृदय बलमला उठा था, धार्मिकोंको रात दिन चन नहीं पड़ता था और पीडित व्यक्ति अत्याचारों से ऊबकर त्राहि त्राहि कर रहे थे। सबोंकी हृदय-तन्त्रियोंसे 'हो कोई अवतार नया' की एक ही ध्वनि निकल रही थी और सबोंकी दृष्टि एक ऐसे असाधारण महात्माकी अोर बगी हुई थी जो उन्हें हस्तावलम्बन देकर इस घोर विपत्ति से निकाले । ठीक इसी समय-माजसे कोई ढाई हजार वर्षसे भी पहले-प्राची दिशामें भगवान महावीर भास्करका उदय हुना, दिशाएं प्रसन्न हो उठीं, स्वास्थ्यकर मन्द-सुगन्ध पवन वहने लगा, सजन धर्मात्माओं तथा पीड़ितोंके मुखमंडल पर आशाकी रेखाएँ दीख पड़ी, उनके हृदयकमल खिल गये और उनकी नस-नाड़ियोंमें ऋतुराज ( वसत ) के आगमनकाल-जैसा नवरसका संचार होने लगा। महावीरका उद्धारकार्य महावीरने लोक-स्थितिका अनुभव किया, लोगोंकी अज्ञानता, स्वार्थपरता, उनके वहम, उनका अन्धविश्वास और उनके कुत्सित विचार एवं दुर्व्यवहारको देखकर उन्हें भारी दुःख तथा खेद हुमा । साथ ही, पीड़ितोंकी करुण पुकारको सुनकर उनके हृदयसे दयाका प्रखंड स्रोत बह निकला । उन्होंने लोकोदारका संकल्प किया; लोकोद्वारका सम्पूर्ण भार उठानेके लिये अपनी सामर्थ्यको तोला Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश और उसमें जो त्रुटि थी उसे बारह वर्षके उस घोर तपश्चरणके द्वारा पूरा किया जिसका अभी उल्लेख किया जा चुका है। इसके बाद सब प्रकारसे शक्तिसम्पन्न होकर महावीरने लोकोद्धारका सिंहनाद किया--लोकमें प्रचलित सभी अन्याय-अत्याचारों, कुविचारों तथा दुराचा के विरुद्ध आवाज उठाई--और अपना प्रभाव सबसे पहले ब्राह्मण विद्वानों पर डाला, जो उस वक्त देशके 'सर्वे सर्वाः' बने हुए थे और जिनके सुधरने पर देशका सुधरना बहुत कुछ सुखसाध्य हो सकता था। आपके इस पटु सिंहनादको सुनकर, जो एकान्तका निरसन करने वाले स्याद्वादकी विचार-पद्धतिको लिए हुये था, लोगोंका तत्त्वज्ञानविषयक भ्रम दूर हुमा, उन्हें अपनी भूलें मालूम पड़ी, धर्मअधर्मके यथार्थ स्वरूपका परिचय मिला, मात्मा-अनात्माका भेद स्पष्ट हुमा और बन्ध-मोक्षका सारा रहस्य जान पड़ा । साथ ही, झूठे देवी-देवतानों तथा हिंसक यज्ञादिकों परसे उनकी श्रद्धा हटी और उन्हें यह बात साफ़, जंच गई कि हमारा उत्थान और पतन हमारे ही हाथमें है, उसके लिये किसी गुप्त शक्तिकी कल्पना करके उसीके भरोसे बैठ रहना अथवा उसको दोष देना अनुचित और मिथ्या है । इसके सिवाय, जातिभेदकी कट्टरता मिटी, उदारता प्रकटी, लोगोंके हृदयमें साम्यवादकी भावनाएँ दृढ हुई और उन्हें अपने प्रात्मोत्कर्षका मार्ग सूझ पड़ा । साथ ही, ब्राह्मण गुरुपोंका आसन डोल गया, उनमेंसे इन्द्रभूति-गौतम जैसे कितने ही दिग्गज विद्वानोंने भगवान्के प्रभावसे प्रभावित होकर उनकी समीचीन धर्मदेशनाको स्वीकार किया और वे सब प्रकारसे उनके पूरे अनुयायी बन गये । भगवान्ने उन्हें 'गणधर' के पद पर नियुक्त किया और अपने संबका भार सौंपा। उनके साथ उनका बहुत बड़ा शिष्यसमुदाय तथा दूसरे ब्राह्मण और अन्य धर्मानुयायी भी जैनधर्ममें दीक्षित होगये । इस भारी विजयमे क्षत्रिय गुरुत्रों और जैनधर्मकी प्रभाव-वृद्धिके साथ साय तत्कालीन ( क्रियाकाण्डी ) ब्राह्मणधर्मकी प्रभा क्षीण हुई, ग्राह्मणोंकी शक्ति घटी, उनके अत्याचारों में रोक हुई, यज्ञ-यागादिक कर्म मन्द पड़ गये--उनमें पशुपोंके प्रतिनिधियों की भी कल्पना होने लगी और ब्राह्मणोंके लौकिक स्वार्थ तथा जाति-पांतिके भेदको वहुत बड़ा धक्का पहुंचा। परन्तु निरंकुशताके कारण उनका पतन जिस तेजीसे हो रहा था वह रुक गया और उन्हें सोचने-विचारनेका अथवा अपने धर्म तथा Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० महावीर और उनका समय १५ परिणतिमें फेरफार करनेका अवसर मिला । महावीरकी इस धर्मदेशना और विजयके सम्बन्धमें कविसम्राट् डा० रवीन्द्रनाथ टागोरने जो दो शब्द कहे हैं वे इस प्रकार हैं : Mahavira proclaimed in India the message of Salvation that religion is a reality and not a mere social convention, that salvation comes from taking refuge in that true religion, and not from observing the external ceremonies of the community, that religion can not regard any barrier between man and man as an eternal verity. Wondrous to relate, this teaching rapidly overtopped the barriers of the race's abiding instinct and conquered the whole country. For a long period now the influence of Kshatriya teachers completely suppressed the Brahmin power. अर्थात् - महावीरने डंकेकी चोट भारतमें मुक्तिका ऐसा सन्देश घोषित किया कि, धर्म कोई महज़ सामाजिक रूढि नहीं बल्कि वास्तविक सत्य है-वस्तुस्त्रभाव है, -- और मुक्ति उस धर्ममें आश्रय लेनेमे ही मिल सकती है, न कि समाजके बाह्य आचारोंका - विधिविधानों अथवा क्रियाकाण्डोंका - पालन करनेसे, और यह कि धर्म की दृष्टिमें मनुष्य मनुष्यके बीच कोई भेद स्थायी नहीं रह सकता । कहते श्राश्चर्य होता है कि इस शिक्षरणने बद्धमूल हुई जातिकी हदafrat शीघ्र ही तोड़ डाला और सम्पूर्ण देश पर विजय प्राप्त किया । इस वक्त क्षत्रिय गुरुनोंके प्रभावने बहुत समय के लिये ब्राह्मणोंकी सत्ताको पूरी तौर से दबा दिया था । इसी तरह लोकमान्य तिलक आदि देशके दूसरे भी कितनेही प्रसिद्ध हिन्दू विद्वानों, अहिंसादिकके विषयमें, महावीर भगवान् अथवा उनके धर्मकी ब्राह्मणधर्म पर गहरी छापका होना स्वीकार किया है, जिनके वाक्योंको यहाँ पर उवृत करने की जरूरत नहीं है— प्रनेक पत्रों तथा पुस्तकोंमें वे छप चुके हैं । महत्मा गांधी तो जीवन भर भगवान् महावीरके मुक्तकण्ठसे प्रशंसक बने रहे । विदेशी विद्वानोंके भी बहुतसे वाक्य महावीरकी योग्यता, उनके प्रभाव और उनके Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश शासनकी महिमा सम्बन्धमें उद्धृत किये जा सकते हैं; परन्तु उन्हें भी यहाँ छोड़ा जाता है। वीर-शासनकी विशेषता भगवान् महावीरने संसारमें सुख-शान्ति स्थिर रखने और जनताका विकास सिद्ध करनेके लिये चार महासिद्धान्तोंकी--१ अहिंसावाद, २ साम्यवाद, ३ अनेकान्तवाद ( स्याद्वाद) और ४ कर्मवाद नामक महासत्योंकी-घोषणा की है और इनके द्वारा जनताको निम्न बातोंकी शिक्षा दी है : १ निर्भय-निर्वैर रह कर शान्तिके साथ जीना तथा दूसरोंको जीने देना। २ राग-द्वेष-अहंकार तथा अन्याय पर विजय प्राप्त करना और अनुचित भेद-भावको त्यागना। ३ सर्वतोमुखी विशाल दृष्टि प्राप्त करके अथवा नय-प्रमाणका सहारा लेकर सत्यका निर्णय तथा विरोधका परिहार करना । ___४ 'अपना उत्थान और पतन अपने हाथमें है' ऐसा समझते हुए, स्वावलम्बी बनकर अपना हित और उत्कर्ष साधना तथा दूसरोंके हित-साधनमें मदद करना। साथ ही, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको--तीनोंके समुच्चयको--मोक्षकी प्राप्तिका एक उपाय अथवा मार्ग बतलाया है । ये सब सिद्धान्त इतने गहन, विशाल तथा महान् है और इनकी विस्तृत व्याख्याओं तथा गम्भीर विवेचनाओंसे इतने जैन ग्रन्य भरे हुए हैं कि इनके स्वरूपादि-विषयमें यहाँ कोई चलतीसी बात कहना इनके गौरवको घटाने अथवा इनके प्रति कुछ अन्याय करते-जैसा होगा । और इसलिये इस छोटेसे निबन्ध में इनके स्वरूपादिका न लिखा जाना क्षमा किये जाने के योग्य है । इन पर तो अलग ही विस्तृत निबन्धों के लिखे जातेकी ज़रूरत है । हाँ, स्वामी समन्तभद्रके निम्न वाक्यानुसार इतना जरूर बतलाना होगा कि महावीर भगवान्का शासन नय-प्रमाणके द्वारा वस्तुतत्त्वको बिल्कुल स्पष्ट करने वाला और सम्पूर्ण प्रवादियोंके द्वारा अबाध्य होने के साथ साथ दया (अहिंसा ), दम ( संयम ), त्याग (परिग्रहत्यजन) और समाधि (प्रशस्त ध्यान) इन चारोंकी तत्परताको लिये हुए है, और यही सब उसकी विशेषता है अथवा इसी लिये वह अद्वितीय है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० महावीर और उनका समय १७ दया-दम-त्याग-समाधिनिष्ठं नय-प्रमाण-प्रकृतांजसार्थम् । अधृष्यमन्यैरखिलैः प्रवादैर्जिन त्वदीयं मतमद्वितीयम् ॥६॥ –युक्त्यनुशासन इस वाक्यमें 'दया' को सबसे पहला स्थान दिया गया है और वह ठीक ही : है। जब तक दया अथवा अहिंसाकी भावना नहीं तब तक संयममें प्रवृत्ति नहीं होती, जब तक संयममें प्रवृत्ति नहीं तब तक त्याग नहीं बनता और जब तक त्याग नहीं तब तक समाधि नहीं बनती। पूर्व पूर्व धर्म उत्तरोतर धर्मका निमित्त कारण है । इसलिये धर्ममें दयाको पहला स्थान प्राप्त है । और इसीसे 'धर्मस्य मूलं दया' आदि वाक्योंके द्वारा दयाको धर्मका मूल कहा गया है। अहिंसाको 'परम धर्म' कहनेकी भी यही वजह है । और उसे परम धर्म ही नहीं किन्तु 'परम ब्रह्म' भी कहा गया है; जैसा कि स्वामी समन्तभद्रके निम्न वाक्यसे प्रकट है-- "अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं ।" --स्वयम्भूस्तोत्र और इसलिये जो परमब्रह्मकी आराधना करना चाहता है उसे अहिंसाकी उपासना करनी चाहिये-राग-द्वेषकी निवृत्ति, दया, परोपकार अथवा लोकमेवाके कामोंमें लगना चाहिये । मनुष्योंमे जब तक हिसकवृत्ति बनी रहती है तब तक प्रात्मगुणोंका घात होनेके साथ साथ "पापाः सर्वत्र शंकिताः" की नीतिके अनुसार उसमें भयका या प्रतिहिंसाकी आशंकाका सद्भाव बना रहता है। जहाँ भयका सद्भाव वहाँ वीरत्व नहीं-सम्यक्त्व नहीं * और जहाँ वीरत्व नहींसम्यक्त्व नहीं वहाँ आत्मोद्धारका नाम नहीं। अथवा यों कहिये कि भयमें मंकोच होता है और संकोव विकासको रोकनेवाला है। इसलिये आत्मोद्धार * इसीसे सम्यग्दृष्टिको सस प्रकारके भयोंसे रहित बतलाया है और भयको मिथ्यात्वका चिह्न तथा स्वानुभवकी क्षतिका परिणाम सूचित किया हैं। यथा "नापि स्पृष्टो सुदृष्टियः स सप्तभिर्भयर्मनाक् ॥" "ततो भीत्यानुमेयोऽस्ति मिथ्याभावो जिनागमात् । सा च भीतिरवश्यं स्यादेतोः स्वानुभवक्षतेः ॥” -पंचाध्यायी Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश ' अथवा आत्मविकासके लिये अहिंसाकी बहुत बड़ी जरूरत है और वह वीरताका चिह्न है -- कायरताका नहीं । कायरताका आधार प्राय: भय होता है, इसलिये कायर मनुष्य अहिंसा धर्मका पात्र नहीं -- उसमें श्रहिंसा ठहर नहीं सकती । वह वीरोंके ही योग्य है और इसीलिये महावीरके धर्ममें उसको प्रधान स्थान प्राप्त हैं । जो लोग अहिंसा पर कायरताका कलंक लगाते हैं उन्होंने वास्तव में अहिंसाके रहस्यको समझा ही नहीं । वे अपनी निर्बलता और प्रात्म विस्मृतिके कारण कषायों से अभिभूत हुए कायरताको वीरता और आत्माके क्रोधादिक रूप पतनको ही उसका उत्थान समझ बैठे हैं ! ऐसे लोगोंकी स्थिति, निःसन्देह बड़ी ही करुणाजनक है । सर्वोदय तीर्थ स्वामी समन्तभद्रने भगवान् महावीर और उनके शासनके सम्बन्धमें और भी कितने ही बहुमूल्य वाक्य कहे हैं जिनमेसे एक सुन्दर वाक्य मैं यहाँ पर और उदवृत कर देना चाहता हूँ और वह इस प्रकार है: सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्पं, सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं, सर्वोदयं तीर्थमिदं तचैव ॥ ६१|| -युवत्यनुशासन इसमें भगवान् महावीरके शासन अथवा उनके परमागमलक्षरण रूप वाक्यका स्वरूप बतलाते हुए जो उसे ही सम्पूर्ण आपदाओंका अन्त करने वाला और सबोंके अभ्युदयका काररण तथा पूर्ण अभ्युदयका - विकासका - हेतु ऐसा 'सर्वोदय तीर्थ' बतलाया है वह बिल्कुल ठीक है । महावीर भगवान्‌को शासन अनेकान्त के प्रभाव से सकल दुर्नयो तथा मिथ्यादर्शनोंका अन्त ( निरसन) करनेवाला है और ये दुर्नय तथा मिथ्यादर्शन ही संसार में अनेक शारीरिक तथा मानसिक दुःखरूप आपदा के कारण होते हैं । इसलिये जो लोग भगवान् महावीरके शासनका उनके धर्मका - प्राश्रय लेते हैं—बसे पूर्णतया अपनाते हैं— उनके मिथ्यादर्शनादिक दूर होकर समस्त दुःख मिट जाते है । और वे इस धर्मके, प्रसादसे अपना पूर्ण trयुदय सिद्ध कर सकते हैं। महावीरकी ओरये इस धर्मका द्वार सबके लिये खुला हुआ है । जैसा कि जैनग्रत्योंके निम्न वाक्योंसे ध्वनित है : Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० महावीर और उनका समय (१) "दीक्षायोग्यास्त्रयो वर्णाश्चतुर्थश्च विधोचितः । मनोवाकायधर्माय मताः सर्वेऽपि जन्तवः ॥" "उबावचजनप्रायः समयोऽयं जिनेशिनां । नैकस्मिन्पुरुष तिष्ठेदेकस्तम्भ इवालयः॥" -यशस्तिलके,सोमदेव: (२) आचाराऽनवद्यत्वं शुचिरुपस्कारः शरीरशुद्धिश्च करोति शूद्रानपि देवद्विजातितपस्विपरिकर्मसु योग्यान् ।" -नीतिवाक्यामृते, सोमदेव: (३) “शूद्रोऽप्युपस्कराचारवपुः शुद्ध्याऽस्तु तादृशः । __ जात्या हीनोऽपि कालादिलब्धी ह्यात्मास्ति धर्मभाव।।"२-२२।। -सागारधर्मामृते, प्राशाधरः । इन सब वाक्योंका प्राशय क्रमशः इस प्रकार है (१) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ये तीनों वर्ण (प्राम तौर पर) मुनिदीशाके योग्य है और चौथा शूद्र वर्ण विधिके द्वारा दीक्षाके योग्य है । ( वास्तवमें) मन-वचन-कायसे किये जाने वाले धर्मका अनुष्ठान करनेके लिये सभी जीर अधिकारी हैं। 'जिनेन्द्रका यह धर्म प्रायः ऊँव और नीव दोनों ही प्रकारके मनुष्यों आश्रित है; एक स्तम्भके आधार पर जैसे मकान नहीं ठहरता उसी प्रकार ऊंच-नीचमें से किसी एक ही प्रकारके मनुनसमूहके आधार पर धनं ठहरा हुमा नहीं है।' __-प्रशस्तिलक (२) मद्य-मांसादिकके त्यागरूर माचारकी निर्दोरता, गृह-पात्रादिक की पवित्रता और नित्य-सानादिके द्वारा शरीरशुद्धि ये तीनों प्रवृत्तियां (विधियां ) शूद्रों को भी देव, द्विजाति और तास्त्रियों के परिकर्मो के योग्य बना देती है। -नीतिवाक्यामृत (३) मासन और बर्तन प्रादि उपकरण जिसके शुद्ध हों, मद्य-मांसादिके त्यागसे जिसका प्राचरण पवित्र हो और नित्य स्नानादिके द्वारा जिसका शरीर शुद्ध रहता हो, ऐसा शूद्र भी ब्राह्मणादिक वर्णों के सदृश धर्म का पालन करने के योग्य है; क्योंकि जातिसे हीन मात्मा भी कालादिक-लब्धिको पाकर जैनधर्म का अधिकारी होता है। ..जागारधर्मामृत . नोबसे नीच कहा जानेवाला मनुष्य भी इस धर्मको धारण करके इसी Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश लोकमें अति उच्च बन सकता है । इसकी दृष्टि में कोई जाति गहित नहींतिरस्कार किये जानेके योग्य नहीं-सर्वत्र गुणोंकी पूज्यता है, वे ही कल्याणकारी है, और इसीसे इस धर्ममें एक चाण्डालको भी व्रतसे युक्त होने पर 'ब्राह्मण' तथा सम्यग्दर्शनसे युक्त होने पर 'देव' माना गया है ।। यह धर्म इन ब्राह्मणादिक जातिभेदों को तथा दूसरे चाण्डालादि विशेषोंको वास्तविक ही नहीं मानता किन्तु वृत्ति अथवा प्राचारभेदके प्राधारपर कल्पित एवं परिवर्तनशील जानता है और यह स्वीकार करता है कि अपने योग्य गुणोंकी उत्तत्ति पर जाति उत्पन्न होती है और उनके नाम पर नष्ट हो जाती है x । इन जातियोंका आकृति आदिके भेदको लिए हुए कोई शाश्वत लक्षण भी गो-प्रश्वादि जातियोंकी तरह मनुष्य गरीरमें नहीं पाया जाता, प्रत्युत इसके शूद्रादिके योगसे ब्राह्मणी आदिकमें गर्भाधानकी प्रवृत्ति देखी जाती है,जो वास्तविक जातिभेदके विरुद्ध है। यो लोके त्वा नत: सोऽतिहीनोऽयतिगुरुयंत: । बालोऽपि त्वा श्रितं नौति को नो नीतिपुरु: कुतः ॥८२॥ -जिनशतके, समन्तभद्रः । + " न जातिगंहिता काचिद् गुणा: कल्याणकारणं । व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ।। ११-२०३ ।।" ----पद्मचरिते, रविषेणः । "सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातंगदेह । देवा देवं विदुर्भस्मगूढांगारान्तरोजसम्" ॥२८॥-रत्नकरण्डे, ममन्तभद्रः । x "चातुर्वर्ण्य यथान्यच्च चाण्डालादिविशेषणं । सर्वमाचारभेदेन प्रसिद्धि भुवने गतं" ॥११-२०५।।- चरिते,रविवंगः । "प्राचारमात्रभेदेन जातीनां भेदकल्पनं । न जातिव॑ह्मरणीयास्ति नियता क्वापि तात्विकी" ॥१७-२॥ "गुणः सम्पद्यते जातिगुणध्वंसविपद्यते ।"॥३२॥ -धर्मपरीक्षायां, अमितमतिः । * "वर्णाकृत्यादिभेदानां देहेऽस्मिन्न च दर्शनात् । ब्राह्मण्यादिषु शूद्राद्य गर्भाधानप्रवर्तनात् ।। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० महावीर और उनका समय २१ इसी तरह जारजका भी कोई चिन्ह शरीरमें दिखाई नहीं देता, जिससे उसकी कोई जुदी जाति कल्पित की जाय, और न महज्र व्यभिचारजात होनेकी वजहसे ही कोई मनुष्य नीच कहा जा सकता है-नीचताका कारण इस धर्ममें 'अनार्य श्राचरण' अथवा 'म्लेच्छाचार' माना गया है । वस्तुतः सब मनुष्योंकी एक ही मनुष्य जाति इस धर्मको प्रमीष्ट है, जो 'मनुष्यजाति' नामक नाम कर्मके उदयसे होती है, और इस दृष्टिसे सब मनुष्य समान हैं— श्रापसमे भाई भाई हैं - प्रौर उन्हें इस धर्मके द्वारा अपने विकासका पूरा पूरा अधिकार प्राप्त है । इसके सिवाय, किसीके कुलमें कभी कोई दोष लग गया हो उसकी शुद्धिकी, और तककी कुलशुद्धि करके उन्हें अपनेमें मिला लेने तथा मुनि दीक्षा श्रादिके द्वारा ऊपर उठानेकी स्पष्ट श्राज्ञाएं भी इस शासनमें पाई जाती हैं X 1 और नास्तिजातिकृतो भेदो मनुष्यारणां गवाश्ववत् । प्राकृतिग्रहणात्तस्मादन्यथा परिकल्पते ॥ - महापुराणे, गुग्गणभद्रः । * चिह्नानि विजातस्य मन्नि नाङ्गषु कानिचित् । अनार्यमाचरन् किचिज्जायते नीचगोचर ॥ पद्मचरिते, रविषेण । 4 "मनुष्यजा तिरेकैव जातिकर्मोदयोद्भवा । वृत्तिभेद) हिताद्भेदाच्चातुविघ्यमिहास्नुते ।। ३८-४५ ।। - प्रादिपुराणे, जिनसेनः । "विप्रक्षत्रियविट्शूद्राः प्रोक्ताः क्रियाविशेषतः । जनधर्मे पराः शक्तास्ते सर्वे बान्धवोपमाः ॥ - धर्म र सिके, मोममेनोद्धृतः । x जैसा कि निम्न वाक्योंमे प्रकट है: १. कुतश्चित्कारणाद्यस्य कुलं सम्प्राप्तदूषरण । सोपि राजादिसम्मत्या शोधयेत्स्वं यदा कुलम् ।। ४०-१६८ ।। तदाऽस्योपनयार्हत्वं पुत्रपौत्रादिसन्ततौ । न निषिद्धं हि दीक्षा कुले चेदस्य पूर्वजाः ॥ - - १६६ ॥ २. स्वदेशेऽनक्षरम्लेच्छान् प्रजाबाधाविधायिनः । कुलशुद्धिप्रदानाद्यः स्वसात्कुर्यादुपक्रमैः ।। ४२-१७६ ॥ - प्रादिपुराणे, जिनसेनः । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश इसलिये यह शासन सचमुच ही 'सर्वोदय-तीर्थ' के पदको प्राप्त है - इस पदके योग्य इसमें सारी ही योग्यताएँ मौजूद हैं- हर कोई भव्य जीव इसका सम्यक् आश्रय लेकर संसार समुद्रसे पार उतर सकता है। परन्तु यह समाजका औौर देशका दुर्भाग्य है जो प्राज हमने - जिनके हाथों दैवयोग से यह तीर्थं पड़ा है- इस महान् तीर्थकी महिमा तथा उपयोगिताको भुला दिया है; इसे अपना घरेलू, क्षुद्र या प्रसर्वोदय तीर्थका-सा रूप देकर इसके चारों तरफ ऊँची ऊँची दीवारें खड़ी कर दी हैं और इसके फाटकमें ताला डाल दिया है। हम लोग न तो खुद ही इससे ठीक लाभ उठाते हैं और न दूसरों को लाभ उठाने देते हैं - महज अपने थोड़ेसे विनोद अथवा क्रीडाके स्थल रूपमें ही हमने इसे रख छोड़ा है और उसीका यह परिणाम है कि जिस 'सर्वोदय - तीर्थ' पर दिन रात उपासकोंकी भीड़ और यात्रियोंका मेलासा लगा F ३. “ मलेच्छभूमिजमनुप्यारणां सकलसंयमग्रहणं कथं भवतीति नाशंकितव्यं । दिग्विजयकाले चक्रवर्तिना सह प्रार्यखण्डमागतानां म्लेच्छराजानां चक्रवत्र्यादिभिः मह जातवैवाहिकसम्बन्धानां संयमप्रतिपत्तेरविरोधात् । अथवा तत्कन्यानां चक्रवर्त्यादिपरिणीतानां गर्भेषूत्पन्नस्य मातृपक्षापेक्षया म्लेच्छव्यपदेशभाजः संयमसंभवान् नथाजातीयकानां दीक्षाहंत्वे प्रतिषेधाभावात् ॥ " - लब्धिसारटीका ( गाथा १६३वी ) नोट - म्लेच्छोंकी दीक्षा - योग्यता, सकल संयम-प्रहरणकी पात्रता और उनके साथ वैवाहिक सम्बन्धादिका यह सब विघान जयधवल सिद्धान्तमें भी इसी क्रम प्राकृत और संस्कृत भाषामें दिया है। वहींसे भाषादिरूप थोड़ासा शब्द-परिवर्तन करके लब्धिसारटीकामें लिया गया मालूम होता है। जैसा कि जयघवलके निम्न शब्दोंसे प्रकट है: "जइ एवं कुदो तत्थ संजमग्गहरंगसंभवो त्ति णासंकरिणज्जं । दिसा विजयपयट्टचक्कवद्विखंधावारेण सह मज्झिमखंडमागयाणं मिलेच्छरायारणं तत्य चक्कवट्टिप्रदीहि सह जादवेवाहियसंबंधारणं संजमपडिवत्तीए विरोहाभावादो । ग्रहवा तत्तत्कन्यकानां चक्रवर्त्यादिपरिणीतानां गर्भेषूत्पन्ना मातृपक्षापेक्षया स्वयमकर्मभूमिजा इतीह विवक्षिताः ततो न किचिद्विप्रतिषिद्धं । तथाजातीयकानां दीक्षाहं त्वे प्रतिषेधाभावादिति ।" - जयधवल, धारा प्रति, पत्र ८२७-२८ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० महावीर और उनका समय २३ रहना चाहिये था वहाँ प्राज सन्नाटासा छाया हुआ है, जैनियोंकी संख्या भी अंगुलियों पर गिनने लायक रह गई है और जो जैन कहे जाते हैं उनमें भी जैनत्वका प्राय: कोई स्पष्ट लक्षण दिखलाई नहीं पड़ता-कहीं भी दया, दम, त्याग और समाधिकी तत्परता नज़र नहीं आती -- लोगोंको महावीरके मंदेशकी ही खबर नहीं, और इसीसे संसारमें सर्वत्र दुःख ही दुःख फैला हुआ है । ऐसी हालत में अब खास जरूरत है कि इस तीर्थका उद्धार किया जाय. इसकी सब रुकावटों को दूर कर दिया जाय, इस पर खुले प्रकाश तथा खुली arat oraस्था की जाय, इसका फाटक सबके लिये हरवक्त खुला रहे, सबोंके लिये इस तीर्थ तक पहुँचनेका मार्ग सुगम किया जाय, इसके नटों तथा घाटोंकी मरम्मत कराई जाय, बन्द रहने तथा अ तक यथेष्ट व्यवहारमें न आनेके कारण तीर्थ- जल पर जो कुछ काई जम गई है अथवा उसमें कही कही शैवाल उत्पन्न हो गया है उसे निकाल कर दूर किया जाय और सर्वसाधारणको इस तीर्थ के महात्म्यका पूरा पूरा परिचय कराया जाय। ऐसा होने पर ग्रथवा इस रूपमें इस तीर्थका उद्धार किया जाने पर आप देखेंगे कि देश-देशान्तरके कितने बेशुमार यात्रियोंकी इस पर भीड़ रहती है, कितने विद्वान इस पर मुग्ध होते हैं, कितने असख्य प्राणी इसका प्राश्रय पाकर और इसमें अवगाहन करके अपने दुःख मनापोंमे छुटकारा पाते है और मंसार में कैसी मुख-शान्तिकी लहर व्याप्त होती है । स्वामी समन्तभद्रने अपने समयमे, जिसे आज १७०० वर्षसे भी ऊपर हो गये हैं, ऐसा ही किया है, और इसीसे कनडी भाषाके एक प्राचीन शिलालेख में यह उल्लेख मिलता है कि स्वामी समन्तभद्र भगवान महावीरके तीर्थकी हजारगुनी वृद्धि करते हुएउदयको प्राप्त हुए - प्रर्थात्, उन्होंने उसके प्रभावको सारे देश-देशान्तरों में व्याप्त कर दिया था । आज भी वैसा ही होना चाहिये । यही भगवान् महावीरकी सच्ची उपासना, सच्ची भक्ति और उनकी सवी जयन्ती मनाना होगा । * यह शिलालेख बेलूर ताल्लुकेका शिलालेख नम्बर १७ है, जो रामानुजाचार्य - मन्दिरके महाते के अन्दर मौम्यनाथकी- मन्दिरकी छतके एक पत्थर पर उत्कीर्ण है और शक संवत् १०५६ का लिखा हुआ है । देखो, एपिग्रेफिका कर्णाfarst free पाँचवीं, प्रथवा 'स्वामी समन्तभद्र' (इतिहास) पृष्ठ ४६ वाँ । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश महावीर के इस अनेकान्त - शासन - रूप तीर्थ में यह खूबी खुद मौजूद है कि इससे भरपेट अथवा यथेष्ट द्वेष रखनेवाला मनुष्य भी यद्रि समदृष्टि ( मध्यस्थवृत्ति) हुना उपपत्ति चक्षुर्मे ( मात्सर्य के त्यागपूर्वक युक्तिसंगत समाधानकी दृष्टिसे ) इसका अवलोकन और परीक्षण करता है तो अवश्य ही उसका मान-शृङ्ग स्खण्डित हो जाता है— सर्वथा एकान्तरूप मिथ्यामतका प्राग्रह छूट जाता हैऔर वह अभद्र अथवा मिथ्यादृष्टि होता हुआ भी सब घोरसे भद्ररूप एवं सम्यग्दृष्टि बन जाता है । अथवा यों कहिये कि भगवान् महावीर के शासन - तीर्थका उपासक और अनुयायी हो जाता है। इसी बात को स्वामी समन्तभद्रने अपने निम्न वाक्य-द्वारा व्यक्त किया है- २४ कामं द्विषन्नप्युपपतिचक्षुः समीक्षतां ते समदृष्टिरिष्टम् । त्वयि ध्रुवं खण्डितमानशृङ्गो भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः ॥ -- युक्त्यनुशासन अतः इस तीर्थ के प्रचार-विषयमे जरा भी संकोचकी ज़रूरत नही है, पूर्ण उदारता के साथ इसका उपर्युक्त रीतिसे योग्य प्रचारकोंके द्वारा खुला प्रचार होना चाहिये और सत्रोंकी इस तीर्थकी परीक्षाका तथा इसके गुग्गोको मालूम करके इसमे यथेष्ट लाभ उठानका पूरा अवसर दिया जाना चाहिये | योग्य प्रचारकों का यह काम है कि वे जैसे तने जनतामें मध्यस्थभावको जाग्रत करें, ईर्षा - पादि-रूप मत्सर भावको हटाए, हृदयों को युक्तियों संस्कारित कर उदार बनाएँ, उनमें सत्यकी जिज्ञासा उत्पन्न करें और उस मत्यकी दर्शनप्राप्ति के लिये लोगोंकी समाधान दृष्टिको खोलें । 9 महावीर - सन्देश xx हमारा इस बक यह खास कर्तव्य है कि हम भगवान् महावीरके संदेशकोउनके शिक्षासमूहको मालूम करें, उसपर खुद अमल करें और दूसरों अमल करानेके लिये उसका घर घरमें प्रचार करें। बहुतसे जैनशास्त्रों का अध्ययन, मनन और मन्थन करने पर मुझे भगवान् महावीरका जो सन्देश मालूम हुआ है उसे मैंने एक छोटीसी कवितामें निबद्ध कर दिया है। यहाँ पर उसका दे दिया जाना भी कुछ अनुचित न होगा । उससे थोड़ेमें ही — सूत्ररूपमे महावीर Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० महावीर और उनका समय भगवान्की बहुतसी शिक्षामोंका अनुभव हो सकेगा और उन पर चलकर उन्हें अपने जीवनमें उतारकर--हम अपना तया दूसरोंका बहुत कुछ हित साधन कर सकेंगे। वह संदेश इस प्रकार है:-- यही है महावीर-संदेश । विपुलाचल पर दिया गया जो प्रमुख धर्म-उपदेश । यही० ॥ "सब जीवोंको तुम अपनाओ, हर उनके दुख-क्लेश । असद्भाव रक्खो न किसीसे, हो अरि क्यों न विशेष ॥ १ ॥ वैरीका उद्धार श्रेष्ठ है, कीजे सविधि-विशेष । वैर छुटे, उपजे मति जिससे, वही यत्न यत्नेश ॥ २ ॥ घणा पापसे हो, पापीसे नहीं कभी लव-लेश । भूल सुझा कर प्रेम मार्गसे, करो उसे पुण्येश ॥ ३ ॥ तज एकान्त-कदाग्रह-दगुण, बनो उदार विशेष । रह प्रसन्नचित सदा, करो तुम मनन तत्त्व-उपदेश ॥ ४ ॥ जीतो राग-द्वेष-भय-इन्द्रिय-मोह-कपाय अशेप । धरो धैर्य, समचित्त रहो, औ' सुख-दुख में सविशेष ॥ अहंकार-ममकार तजो, जो अवनतिकार विशेष तप-संयममें रत हो, त्यागो तृष्णा-भाव अशेष ॥६॥ 'वीर' उपासक बना सत्यके, तज मिथ्याऽभिनिवेश विपदाओंसे मत घबराओ, धरो न कोपावेश ॥ संज्ञानी-संदृष्टि बनो, और जो भाव संक्लेश। सदाचार पालो दृढ होकर, रहे प्रमाद न लेश ॥८॥ मादा रहन-सहन-भोजन हो, सादा भूषा-वेष । विश्व-प्रेम जाग्रत कर उर में, करो कर्म निःशेष ।। ६. || हो सबका कल्याण, भावना ऐसी रहे हमेश । दया-लोक-सेवा-रत चित हो, और न कुछ आदेश ॥ १० ॥ इस पर चलनेसे ही होगा, विकसित स्वात्म-प्रदेश । आत्म-ज्योति जगेगी ऐसे, जैसे उदित दिनेश ॥ ११ ॥" यही है महावीर-सन्देश, विपुला० । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश महावीरका समय अब देखना यह है कि भगवान् महावीरको अवतार लिये ठीक कितने वर्ष हुए हैं । महावीरकी प्रायु कुछ कम ७२ वर्षकी - ७१ वर्ष, ६ मास, १८ दिनकीथी । यदि महावीरका निर्वारण-समय ठीक मालूम हो तो उनके अवतार - समयको अथवा जयन्तीके अवसरों पर उनकी वर्षगाँठ संख्याको सूचित करने में कुछ भी देर न लगे । परन्तु निर्वारण-समय अर्से से विवादग्रस्त चल रहा है— प्रचलित वीरनिर्वाण -संवत् पर आपत्ति की जाती हैं- कितने ही देशी विदेशी विद्वानोंका उसके विषय में मतभेद है; और उसका कारण साहित्यकी कुछ पुरानी गड़बड़, अर्थ समझने की गलती अथवा कालगणनाकी भूलजान पड़ती है । यदि इस गड़बड़, गलती अथवा भूलका ठीक पता चल जाय तो समयका निर्णय सहजमें ही हो सकता है और उससे बहुत काम निकल सकता है; क्योंकि महावीर के समयका प्रश्न जैन इतिहासके लिये ही नहीं किन्तु भारतके इतिहासके लिये भी एक बड़े ही महत्वका प्रश्न है। इसीसे अनेक विद्वानोंने उसको हल करनेके लिये बहुत परिश्रम किया है और उससे कितनी ही नई नई बातें प्रकाश में आई हैं। परन्तु फिर भी, इस विषय में, उन्हें जैसी चाहिये वैसी सफलता नही मिली - बल्कि कुछ नई उलझनें भी पैदा हो गई हैं— श्रौर इस लिये यह प्रश्न अभी तक बराबर विचारके लिये चला ही जाता है । मेरी इच्छा थी कि मै इस विषय में कुछ गहरा उतर कर पूरी तफ़सील के साथ एक विस्तृत लेख लिखू परन्तु समयकी कमी आादिके कारण वैसा न करके, संक्षेपमें ही, अपनी खोजका एक सार भाग पाठकोंके सामने रखता हूँ । आशा है कि सहृदय पाठक इस परसे ही, उस गड़बड़, गलती अथवा भूलको मालूम करके, समयका ठीक निर्णय करनेमें समर्थ हो सकेंगे । २६ आजकल जो वीर - निर्वारण-संवत् प्रचलित है और कार्तिक शुक्ला प्रतिपदामे प्रारम्भ होता है वह २४६० है । इस संवत्का एक आधार 'त्रिलोकसार' की निम्न गाथा है, जो श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीका बनाया हुआ है: परणछस्सयवस्सं पणमासजुदं गमिय वीरणिव्वुझ्दो | सगराजी तो ककी चदुणवतिय महिय सगमासं ॥ ८५० Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० महावीर और उनका समय इसमें बतलाया गया है कि 'महावीरके निवांणसे ६०५ वर्ष ५ महीने बाद शक राजा हुआ, और शक राजासे ३६४ वर्ष ७ महीने बाद कल्की राजा हुमा ।' शक राजाके इस समयका समर्थन हरिवंशपुराण' नामके एक दूसरे प्राचीन ग्रंथसे भी होता है जो त्रिलोकसारसे प्राय: दो सौ वर्ष पहलेका बना हुआ है और जिसे श्रीजिनमेनाचार्यने शक सं० ७०५ में बनाकर समाप्न किया है। यथा : वर्षाणां षदशतीं त्यक्त्वा पंचानां मासपंचकम् ।। मुक्तिं गते महावीरे शकराजस्ततोऽभवत् ॥ ६०-५४६ !! इतना ही नहीं, बल्कि और भी प्राचीन ग्रन्थों में इस समयका उल्लेख पाया जाता है, जिसका एक उदाहरण 'तिलोयपण्णती' (त्रिलोकप्रजप्ति) का निम्न वाक्य है णिव्वाणे वीरजिणे छन्वाससदेसु पंचवरिसेसु । पणमासेसु गदेसु संनादो सगणिो अहवाल ।। मक का यह समय ही शक संवतकी प्रवृत्तिका काल है, और इसका समर्थन एक पुरातन श्लोकमे भी होता है, जिसे श्वेताम्बराचार्य श्रीमेमतुगने अपनी 'विचारधेरिण' में निम्न प्रकारसे उद्धृत किया है.:-. श्रीवीरनिवृतेः षड्भिः पंचोत्तरैः शनैः । शाकसंवत्सरस्यैषा प्रवृत्तिर्भरतेऽभवत् ॥ इसमें, स्थूलरूपमे वर्षों की ही गणना करते हुए, साफ़ लिखा है कि 'महावीरके निर्वाणमे ६०५ वर्ष बाद इम भारतवर्ष में शकसंवत्मरकी प्रवृनि हुई।' श्रीवीरसेनाचार्य-प्रगीत 'धवल' नामके सिद्धान्त-भाष्यमे-जिमे इस निबंध में 'धवल सिद्धान्त' नाममे भी उल्लेखित किया गया है--इस विषयका और भी ज्यादा समर्थन होता है, क्योंकि इस ग्रंथमें महावीरके निर्वाणके बाद केवनियों तथा श्रुतघर-प्राचार्योंकी परम्पराका उल्लेख करते हुए और उसका त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें शककालका कुछ और भी उल्लेख पाया जाता है और इसीमे यहां पहवा' (अथवा) शब्दका प्रयोग किया गया है । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश काल-परिमाण ६८३ वर्ष बतलाते हुए यह स्पष्टरूपसे निर्दिष्ट किया है कि इस ६८३ वर्षके काल से ७७ वर्ष ७ महीने घटा देने पर जो ६०५ वर्ष ५ महीनेका काल अवशिष्ट रहता है वही महावीरके निर्वारणदिवससे शंककालकी प्रादि-- शक संवत्की प्रवृत्ति - तकका मध्यवर्ती काल है; अर्थात् महावीरके निर्वाणदिवस से ६०५ वर्ष ५ महीनेके बाद शकसंवत्का प्रारम्भ हुआ है। साथ ही इस मान्यताके लिये काररणका निर्देश करते हुए, एक प्राचीन गाथाके अाधार पर यह भी प्रतिपादन किया है कि इस ६०५ वर्ष ५ महीनेके कालमे शककालको - शक संवत्की वर्षादि संख्याको -- जोड़ देनेसे महावीरका निर्वारणकाल -- निर्वारणसंवत्का ठीक परिमाण- -श्रा जाता है। और इस तरह वीर निर्वारण संवत् मालूम करनेकी स्पष्ट विधि भी सूचित की है । धवलके वे वाक्य इस प्रकार हैं --: "सत्र्वकालसमासो तेयासीदिहियछस्सदमेत्ता (६८३) । पुरा एत्थ सत्तमासाहियसत्तहत्तरिवासेसु (७७-७) अबीदेसु पचमासाहिय-पंचुत्तरइस्सदवासारिण (६०५-५) हवंति, एसो वीरजिदि णिच्चारणगद दिवसादो जाव सगकालस्स आदी होदि तावदिय कालो । कुदो ? एदम्मि काले सगणरिंदकालस्स पक्खित्ते वढूमा जिब्दिकालागमणादे । । वुनंचपंच य मासा पंच य वासा श्रं व होति वाससया । सगकाले य सहिया थावेयव्वा तदो रासी ॥" - देखो, प्रारा जैन सिद्धान्तभवनकी प्रति पत्र ५३७ इस प्राचीन गाथाका जो पूर्वार्ध है वही श्वेताम्बरो "तित्थोगाली पइन्नय' नामक प्राचीन प्रकरणकी निम्न गायाका पूर्वार्ध है पंच य मासा पंच य वामा छच्चे व होति वाससया । परिरिगव्वुस्सऽरिहतो तो उप्पन्नो सगो राया ।। ६२३ ।। और इससे यह साफ़ जाना जाता है कि 'तित्थोगाली' की इस गाथामे जो ६०५ वर्ष ५ महीने के बाद शकराजाका उत्पन्न होता लिखा है वह शककान्नके उत्पन्न होने अर्थात् शकसंवत् के प्रवृत्त होनेके श्राशयको लिये हुए हैं। और इस तरह महावीरके इस निर्वारणसमय-सम्बन्धमें दोनों सम्प्रदायोंकी एक वाक्यता पाई जाती है । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० महावीर और उनका समय ........... इन सब प्रमाणोंसे इस विषयमें कोई संदेह नहीं रहता कि शकसंवत्के प्रारम्भ होनेसे ६०५ वर्ष ५ महीने पहले महावीरका निर्वाण हुआ है । शक-सम्बत्के इस पूर्ववर्ती समयको वर्तमान शक सम्वत् १८५५ में जोड़ देनेसे २४६० की उपलब्धि होती है, और यही इस वक्त प्रचलित वीर निर्वाणसम्बत्की वर्षसंख्या है। शक सम्वत् और विक्रम सम्वत्में १३५ वर्षका प्रसिद्ध अन्तर है। यह १३५ वर्षका अन्तर यदि उक्त ६०५ वर्षसे घटा दिया जाय तो अवशिष्ट ४७० वर्षका काल रहता है, और यही स्थूल रूपसे वीरनिर्वाणके बाद विक्रम-सम्बत्की प्रवृतिका काल है, जिसका शुद प्रयवा पूर्णरूप ४७० वर्ष ५ महीने हैं और जो ईस्वी सन्मे प्रायः ५२८ वर्ष पहले वीरनिर्वाणका होना बतलाता है। और जिमे दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाय मानते हैं। अब मैं इतना और बतला देना चाहता है कि त्रिलोकसारको उक्त गाथामें शकराजाके समयका-वीरनिर्वाणसे ६०५ वर्ष ५ महीने पहलेका-जो उल्लेख है उसमें उसका राज्यकाल भी शामिल है; क्योंकि एक तो यहाँ 'सगनजो' पदके बाद 'तो' शब्दका प्रयोग किया गया है जो 'ततः' (तत्तश्चात् ) का वाचक है और उसमे यह स्पष्ट ध्वनि निकलती है कि शकराजाकी सत्ता न रहने पर अयवा उसकी मृत्युसे ३६४ वर्ष ७ महीने बाद कल्की राजा हुमा । दूसरे, इस गाथामे कल्कीका जो समय वीरनिर्वाणसे एक हजार वर्ष तक ( ६०५ वर्ष ५ मास + ३६४ वर्ष ७ माम ) बतलाया गया है उसमे नियमानुसार कल्कीका राज्य काल भी पा जाता है, जो एक हजार वर्षके भीतर सीमित रहता है। और तभी हर हजार वर्ष पीछे एक कल्कीके होनेका वह नियम बन सकता है जो त्रिलोकसारादि ग्रन्थोंके निम्न वाक्योंमें पाया जाता है: इदि पडिसहस्मयस्सं वीस कक्कोणदिकमे चरिमो। जलमंथणो भविस्सदि कक्की सम्मम्गमत्थरणो।। ८५७ ।। ___-त्रिलोकसार मुक्तिं गते महावीरे प्रतिवर्पसहस्रकम् । एकैको जायते कल्की जिनधर्म-विरोधकः ॥ - हरिवंशपुराण एवं वस्ससहस्से पुह ककी हवेह इकको। -त्रिलोकप्राप्ति Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश इसके सिवाय, हरिवंशपुराण तथा त्रिलोकप्रज्ञप्ति में महावीरके पश्चात् एक हजार वर्षके भीतर होनेवाले राज्योंके समय की जो गरणना की गई है उसमें साफ़ तौर पर कल्किराज्यके ४२ वर्ष शामिल किये गये हैं । ऐसी हालत में यह स्पष्ट है कि त्रिलोक तारकी उक्त गाथामें शक प्रोर कल्कीका जो समय दिया है वह अलग अलग उनके राज्य-कालकी समाप्तिका सूचक है । और इसलिये यह नहीं कहा जा सकता कि शक राजाका राज्यकाल वीर - निर्वाणसे ६०५ वर्ष ५ महीने बाद प्रारम्भ हुआ और उसकी — उसके कतिपय वर्षात्मक स्थितिकालकी -- समाप्ति के बाद ३६४ वर्ष ७ महीने और बीतने पर कल्किका राज्यारम्भ हुआ । ऐसा कहने पर कल्किका अस्तित्वसमय वीर - निर्वाणसे एक हजार वर्षके भीतर न रहकर ११०० वर्षके करीब हो जाता है और उससे एक हजारकी नियत संख्या में तथा दूसरे प्राचीन ग्रन्थोंके कथनमें भी बाघा प्राती है और एक प्रकार मे सारी ही कालगणना बिगड़ जाती है । इसी तरह यह भी स्पष्ट है कि ३० + श्रीयुत के० पी० जायसवाल बैरिष्टर पटनाने, जुलाई सन् १९१७ की 'इण्डियन एण्टिक्वेरी' में प्रकाशित अपने एक लेखमें, हरिवंशपुराणके 'द्विचत्वारिंशदेवातः कल्किराजस्य राजता' वाक्यके सामने मौजूद होते हुए भी, जो यह लिख दिया है कि इस पुराण में कल्किराज्यके वर्ष नहीं दिये, यह बड़े ही आश्वर्यकी बात है । प्रापका इस पुराणके आधार पर गुप्तराज्य और कल्किराज्यके बीच ४२ वर्षका अन्तर बतलाना और कल्किके प्रस्तकालको उसका उदयकाल ( Risc of Kalki ) सूचित कर देना बहुत बड़ी गलती तथा भूल है । हाँ, शक सम्वत् यदि वास्तवमे शकराजाके राज्यारम्भसे ही प्रारम्भ हुआ हो तो यह कहा जा सकता है कि त्रिलोकसारकी उक्त गाथामें शक के ३६४ वर्ष 3 महीने बाद जो कल्कीका होना लिखा है उसमें शक और कल्की दोनों राजाका राज्यकाल शामिल है । परन्तु इस कथनमें यह विषमता बनी ही रहेगी कि अमुक अमुक वर्षसंख्या के बाद 'शकराजा हुम्रा' तथा 'कल्किराजा हुभा' इन दो सदृश वाक्योंमेंसे एकमें तो राज्यकालको शामिल नही किया और दूसरे में, वह शामिल कर लिया गया है, जो कथन-पद्धतिके विरुद्ध ' है । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म. महावीर और उनका समय हरिवंशपुराण और त्रिलोकप्रज्ञप्तिसे उक्त शक-काल-सूचक पद्योंमें जो क्रमश: 'अभवत्' और 'संजादो' ( संजातः ) पदोंका प्रयोग किया गया है उनका 'हमा-शकराजा हुमा-अर्थ शकराजाके अस्तित्वकालकी समाप्तिका सूचक है, प्रारम्भसूचक अथवा शकराजाकी शरीरोलत्ति या उसके जन्मका सूचक नहीं। और त्रिलोकसारकी गाथामें इन्हीं जैसा कोई क्रियापद अध्याहृत ( understood ) है। यहाँ पर एक उदाहरण-द्वारा मैं इम विषयको और भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ। कहा जाता है और पाम तौर पर लिखने में भी प्राता है कि भगवान् पाश्वनाथसे भगवान् महावीर ढाई सौ (२५०) वर्षके बाद हुए। परन्तु इस ढाई सौ वर्ष बाद होनेका क्या अर्थ ? क्या पाश्र्वनाथके जन्मसे महावीरका जन्म ढाई सौ वर्ष बाद हुप्रा? या पाश्र्वनाथके निर्वाणसे महावीरका जन्म ढाई सौ वर्ष बाद हुमा ? अथवा पाश्वनाथके निर्वाणसे महावीरको केवलज्ञान ढाई सौ वर्ष बाद उत्पन्न हुआ ? तीनोंमेसे एक भी बात मत्य नहीं है। तब सत्य क्या है ? इसका उतर श्रीगुग्गभद्राचार्यके निम्न वाक्यमें मिलता है: पाश्र्वेश तीर्थ-सन्ताने पंचाशदाद्विशताब्दक। तदभ्यन्तर वायुमहावीरोऽत्र जातवान् ।।२७ ।। -महापुराण, ७४वा पर्व इसमें बतलाया गया है कि 'श्रीपार्श्वनाथ तीर्थकरसे ढाई सौ वर्षके बाद, इसी ममय के भीतर अपनी प्रायुको लिये हुए, महावीर भगवान् हुए' अर्थात पारवनाथके निर्वाणसे. महावीरका निर्वाग ढाई सौ वर्षके बाद हुआ। इस वाक्यमें 'तद्भ्यन्तरवायुः' (इमी समयके भीतर अपनी मायुको लिये हुए) यह पद महावीरका विशेषरण है । इस विशेषण-पदके निकाल देनेसे इस वाक्यकी जैसी स्थिति रहती है और जिस स्थितिमें ग्राम तौर पर महावीरके समयका उल्लेख किया जाता है ठीक वही स्थिति रिलोकसारकी उक्त गाथा तथा हरिवशपुराणादिकके उन शककालसूचक पद्यों की है । उनमें शक राजाके विशेषरण रूपसे 'तदभ्यन्तरवायु इस भाशयका पद अध्याहृत है, जिसे अर्थका स्पष्टीकरण करते हुए, ऊपरसे लगाना चाहिये । बहुत सी कालगणनाका यह विशेषणपद अध्याहृत-रूपमें ही प्राण जान पड़ता है। और इसलिये जहाँ कोई बात Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश स्पष्टतया अथवा प्रकरणसे इसके विरुद्ध न हो वहाँ ऐसे अवसरों पर इस पदका प्राशय जरूर लिया जाना चाहिये । अस्तु । जब यह स्पष्ट हो जाता है कि वीरनिर्वाणसे ६०५.वर्ष ५ महीने पर शकराजाके राज्यकालकी समाप्ति हुई और यह काल ही शकसम्बत्की प्रवृत्तिका काल है-जैसा कि ऊपर जाहिर किया जा चुका है-तब यह स्वतः मानना पड़ता है कि विक्रमराजाका राज्यकाल भी वीरनिर्वाणसे ४७० वर्ष ५ महीनके अनन्तर समाप्त हो गया था और यही विक्रमसम्वत्की प्रवृत्तिका काल है--तभी दोनों सम्बतोंमें १३५ वर्षका प्रसिद्ध अन्तर बनता है। और इस लिये विक्रमसम्वत्को भी विक्रमके जन्म या राज्यारोहणका संवत् न कहकर, वीरनिर्वाण या बद्ध निर्वाण-संवतादिककी तरह, उसकी स्मृति या यादगारमे कायम किया हुआ मृत्यु-संवत् कहना चाहिये । विक्रमसंवत् विक्रमकी मृत्युका मंवत् है, यह बात कुछ दूसरे प्राचीन प्रमाणोंसे भी जानी जाती है, जिसका एक नमूना श्रीअमितगति प्राचार्य का यह वाक्य है: समारूढे पूतत्रिदशवसति विक्रमनृपे सहस्र वर्षाणां प्रभवति हि पंचाशदधिके । समाप्त पंचम्यामवति धरिणी मुखनृपती सिते पक्षे पौषे बुधहितमिदं शास्त्रमनधम् ।। इसमें, 'सुभाषितरत्नसदोह' नामक ग्रन्यको समाप्त करते हुए, स्पष्ट लिखा है कि विक्रमराजाके स्वर्गारोहणके बाद जब १०५०वा वर्ष (संवत् ) बीत रहा था और राजा मुज पृथ्वीका पालन कर रहा था उस समय पौष शुक्ला पंचमीके दिन • यह पवित्र तथा हितकारी शास्त्र समाप्त किया गया है।' इन्ही अमितगति प्राचायंने अपने दूसरे ग्रन्थ 'धर्मपरीक्षा की समाप्तिका समय इस प्रकार दिया है.--- संवत्सराणां विगते सहस्र ससप्तती विक्रमपार्थिवस्य । इदं निषिध्यान्यमतं समाप्तं जेनेन्द्रधर्मामृतयुक्तिशालम् ॥ . । इस पद्यमें, यद्यपि, विक्रनसंवत् १०७० के विगत होने पर ग्रंथकी ममाप्तिका उल्लेख है और उसे स्वर्गारोहण अथवा मृत्युका संवत् ऐसा कुछ नाम नही दिया, फिर भी इस पद्यको पहले पबकी रोशनी में पढ़नेमे इस विषयमें कोई सन्देह नहीं रहता कि अमितगति प्राचार्यने प्रचलित विक्रमसंवत्का ही अपने Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० महावीर और उनका समय ... ३३ ग्रन्थोंमें प्रयोग किया है और वह उस वक्त विक्रमकी मृत्युका संवत् माना जाता था। संवत्के साथमें विक्रमकी मृत्युका उल्लेख किया जाना अथवा न किया जाना एक ही बात थी-उससे कोई भेद नहीं पड़ता था--इसीलिये इस पद्यमें उसका उल्लेख नहीं किया गया। पहले पद्यमें मुझके राज्यकालका उल्लेख इस विषयका और भी खास तौरसे समर्थक है; क्योंकि इतिहाससे प्रचलित वि० संवत् १०५० में मुञ्जका राज्यासीन होना पाया जाता है। और इसलिये यह नहीं कहा जा सकता कि अमिततने प्रचलित विक्रमसंवत्से भिन्न किसी दूसरे ही विक्रमसंवत्का उल्लेख अपने उक्त पद्योंमें किया है। ऐमा कहने पर मृत्युसंवत् १०५० के समय जन्मसंवत् ११३० अथवा राज्यसंवत् १११२ का प्रचलित होना ठहरता है और उस वक्त तक मुञ्जके जीवित रहनेका कोई प्रमाण इतिहासमें नहीं मिलता । मुखके उत्तराधिकारी राजा भोजका भी वि० सं० १११२ से पूर्व ही देहावसान होना पाया जाता है । __अमितगति प्राचार्यके ममयमें, जिम प्राज साढ़े नौ सौ वर्षके करीब हो गये है, विक्रमसंवत् विक्रमको मृत्युका संवन माना जाता था यह बात उनसे कुछ समय पहलेके बने हुए देवसेनाचार्य के ग्रन्थोंसे भी प्रमाणित होती है। देवसेनाचार्यने अपना 'दर्शनमार' ग्रन्थ विक्रमसंवत् ६६० में बनाकर समाप्त किया है । इसमें कितने ही स्थानों पर विक्रमसंवत्का उल्लेख करते हुए उसे विक्रमकी मृत्युका संवत् सूचित किया है; जैसा कि इमकी निम्न गाथाओंसे प्रकट है: छत्तीसे वरिससये विकमरायस्स मरणपत्तस्स । सोरठू बलहीए उप्पएणो सेवडो संघो ॥११॥ पंचसए छव्वीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । दक्षिणमहुराजादो दाविडसंघो महामोहो ॥२८॥ सत्तमाए तेवराणे विकमरायस्स मरणपत्तस्स । दियडे वरगामे कठ्ठो संघो मुणेयव्वो ॥ ३८ ॥ विक्रमसंवत्के उल्लेखको लिये हा जितने ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध हुए हैं उनमें, जहाँ तक मुझे मालूम है, मबसे प्राचीन ग्रन्थ यही है। इससे पहले धनपालकी पाइपलच्छी नाममाला' (वि० सं०१०१६ ) और उससे भी पहले अमितगतिका 'सुभाषितरत्नसंदोह' ग्रन्थ पुरातत्त्वज्ञों-द्वारा प्राचीन माना जाता था। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश हाँ, शिलालेखोंमें एक शिलालेख इससे भी पहिले विक्रमसंवत्के उल्लेखको लिये हुए है और वह चाहमान चण्ड महासेनका शिलालेख है, जो धौलपुरसे मिला है और जिसमें उसके लिखे जानेका संवत् ८६८ दिया है; जैसा कि उसके निम्न अंशसे प्रकट है:-- .... . “वसु नव अष्टौ वर्षा गतस्य कालस्य विक्रमाख्यस्य ।" . यह अंश विक्रमसंवत्को विक्रमकी मृत्युका संवत् बतलानेमें कोई बाधक नहीं है और न 'पाइप्रलच्छी नाममाला' का 'विक्कम कालस्स गए अउणत्ती एणवी] सुत्तरे सहस्सम्मि' अंश ही इसमे कोई बाधक प्रतीत होता है बल्कि ये दोनों ही अंश एक प्रकारसे साधक जान पड़ते है; क्योंकि इनमे जिस विक्रमकालके बीतने की बात कही गई है और उसके बादके बीते हुए वोकी गणना की गई है वह विक्रमका अस्तित्वकाल--उसकी मृत्युपर्यन्तका समय-ही जान पड़ता है । उसीका मृत्यु के बाद बीतना प्रारम्भ हुअा है । इसके सिवाय, दर्शनमारमें एक यह भी उल्लेख मिलता है कि उमकी गाथाएँ पूर्वाचार्योंकी रची हुई है और उन्हें एकत्र संचय करके ही यह ग्रंथ बनाया गया है । यथाः पुव्यायरियकयाई गाहाई संचिऊरण एयत्थ । सिरिदेवसणगणिणा धाराप संवसंतगा ॥४६॥ रइओ दसणसारो हारो भव्याण णंवसार णवए। मिरिपामणाहगेहे सुविसुद्धं माहमुदसमीए ॥५०॥ इससे उक्त गाथानोंके और भी अधिक प्राचीन होनेकी संभावना है और उनकी प्राचीनतामे विक्रमसंवत्को विक्रनकी मृत्युका मंवत् माननंकी बात और भी ज्यादा प्राचीन हो जाती है । विक्रनमंवतकी यह मान्यता अमिनगनिके वाद भी अर्से तक चली गई मालूप होती है। इसीये १५ वीं-१६ वीं शताब्दी तथा उसके करीबके बने हए ग्रन्थोंमें भी उसका उल्नेख पाया जाता है, जिसके दो नमूने इस प्रकार हैं : मृत विक्रमभूपाले मानविंशनिसंयुने । दशपंचशनेऽन्दानामतीते शृणुनापरम् ॥१५७।। लुङ्कामतमभूदेकं................ ...........................॥१५८।। -रलनन्दिकृतभद्रबाहुचरित्र Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. .. . भ० महावीर और उनका समय .. सपट्विंशे शतेऽन्दानां मृते विक्रमराजनि । सौराष्ट्र वल्लभीपुर्यामभूत्तत्कथ्यते मया ॥१८८|| -वामदेवकृत, भावसंग्रह इस संपूर्ण विवेचन परमे यह बात भले प्रकार स्पष्ट हो जाती है कि प्रचलित विक्रमसंवत् विक्रमकी मृत्युका संवत् है, जो वीरनिर्वागमे ४७० वर्ष ५ महीने के बाद प्रारम्भ होता है । और इस लिये वीरनिर्वागासे ४७० वर्ष बाद विक्रम राजाका जन्म होनेकी जो बात कही जाती है और उसके आधार पर प्रचलित वीरनिर्वाणमंवत् पर प्रापनि की जाती है वह ठीक नहीं है। और न यह बात ही ठीक बैठती है कि इस विक्रमने १८ वर्षको अवस्थामें राज्य प्राप्त करके उसी वक्त से अपना संवत् प्रचलित किया है । ऐमा माननेके लिये इतिहासमें कोई भी समर्थ कारण नहीं है। हो सकता है कि यह एक विक्रमकी बातको दूसरे विक्रमके साथ जोड़ देनेका ही नतीजा हो । - इसके सिवाय, नन्दिसघकी एक पट्टावलीमें-विक्रम प्रबन्धमें भी-जो यह वाक्य दिया है कि "सत्तरिचदसदजुत्तो जिणकाला विकमा हवाइ जम्मो।" अर्थात् -'जिनकालसे ( महावीरके निर्वाणये ) * विक्रमजन्म ४७० वर्षके अन्तरको लिये डग है'। और दूसरी पट्टावली मे जो ग्राना>क समयकी गणना विक्रमके राज्यारोहगा-कालमे-उक्त जन्मकालमै १८ की वृद्धि करके-की गई है वह मब उक्त शकपालको और उसके आधार पर बने हुए विक्रमकालको ठीक न समझनेका परिणाम है, अथवा यों कहिये कि पाश्वनाथके निर्वागणसे ढाईसौ वर्ष वाद महावीरका जन्म या केवलज्ञानको प्राप्त होना मान लेने जैसी ग़लती है। ऐसी हालतमें कुछ जैन, अर्जन तथा पश्मिीय और पूर्वीय विद्वानोंने पट्रावलियोंको लेकर जो प्रचलित वीर-निर्वाण मम्वत् पर यह आपत्ति की है कि 'उसकी वर्षसख्यामें १८ वर्षकी कमी है जिसे पूरा किया जाना चाहिये TET:.. * विक्रमजन्मका प्राशय यदि विक्रमकाल अथवा विक्रमसम्वत्की उत्पत्तिसे लिया जाय तो यह कथन ठीक हो सकता है। क्योंकि विक्रमसम्वत्की उत्पत्ति विक्रमको मृत्युके बाद हुई पाई जाती है। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश वह समीचीन मालूम नहीं होती, और इसलिये मान्य किये जानेके योग्य नहीं । उसके अनुसार वीरनिर्वाणसे ४८८ वर्ष बाद विक्रमसम्वत्का प्रचलित होना माननेसे विक्रम और शक सम्वतोंके बीच जो १३५ वर्षका प्रसिद्ध अन्तर है वह भी बिगड़ जाता है—सदोष ठहरता है- प्रथवा शककाल पर भी आपति लाज़िमी आती है जो हमारा इस कालगरगनाका मूलाधार है, जिस पर कोई आपत्ति नहीं की गई और न यह सिद्ध किया गया कि शकराजाने भी वीरनिर्वाणसे ६०५ वर्ष ५ महीनेके बाद जन्म लेकर १८ वर्षकी अवस्थामें राज्याfresh समय अपना सम्वत् प्रचलित किया है। प्रत्युत इसके, यह बात ऊपरके प्रमाणोंसे भले प्रकार सिद्ध है कि यह समय शकसम्वत्की प्रवृत्तिका समय हैचाहे वह सम्वत् शकराजाके राज्यकालकी समाप्ति पर प्रवृत्त हुआ हो या राज्यारम्भके समय --शकके शरीरजन्मका समय नहीं है । साथ ही, श्वेताम्बर भाइयोंने जो वीरनिर्वाणसे ४७० वर्ष बाद विक्रमका राज्याभिषेक माना है और जिसकी वजहसे प्रचलित वीरनिर्वाणसम्वत् में १८ वर्षके बढ़ानेकी भी कोई ज़रूरत नही रहती उसे क्यों ठीक न मान लिया जाय, इसका कोई समाधान नहीं होता । इसके सिवाय, जार्नचार्पेटियरकी यह प्रपत्ति बराबर बनी ही रहती है कि वीरनिर्वाणसे ४७० वर्षके बाद जिस विक्रमराजाका होना बतलाया जाता है उसका इतिहास में कही भी कोई अस्तित्व नहीं है । परन्तु विक्रम संवत् को विक्रमकी मृत्युका सम्वत् मान लेने पर यह प्रापत्ति कायम नहीं रहती; क्योंकि जार्लचार्पेटियरने वीरनिर्वाण ४१० वर्षके बाद विक्रमराजाका + यथा - विक्कुमरजारम्भा प ( पु ? ) र मिरिवीरनिव्वुई भरिया । सुन- मुरिण वेय-जुत्तो विक्कमकालाउ जिणुकालो । - विचारश्रेणि 8 इस पर बैरिष्टर के. पी. जायसवालने जो यह कल्पना की है कि सातकरिंग द्वितीयका पुत्र 'पुलमायि' ही जैनियोंका विक्रम है- जैनियोंने उसके दूसरे नाम 'विलवय' को लेकर और यह समझकर कि इसमें 'क्र' को 'ल' हो गया है उसे 'विक्रम' बना डाला है -- वह कोरी कल्पना ही कल्पना जान पड़ती है । कहीं भी इसका समर्थन नहीं होता। ( वैरिष्टर सा० की इस कल्पनाके लिये देखो, जैनसाहित्यसंशोधक के प्रथम खंडका चौथा अंक ) । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० महावीर और उनका समय ३७ राज्यारंभ होना इतिहाससे सिद्ध माना है । और यही समय उसके राज्यारम्भका मृत्युसम्वत् माननेसे आता है; क्योंकि उसका राज्यकाल ६० वर्ष तक रहा है। मालूम होता है जार्लचार्पेटियरके सामने विक्रमसम्वत् के विषयमें विक्रमकी मृत्युका सम्वत् होनेकी कल्पना ही उपस्थित नहीं हुई और इसीलिये अपने वीरनिर्वाणसे ४१० वर्षके बाद ही विक्रम सम्बत्का प्रचलित होना मान लिया है और इस भूल तथा ग़लतीके आधार पर ही प्रचलित वीरनिर्वाण सम्वत् पर यह आपत्ति कर डाली है कि उसमें ६० वर्ष बढ़े हुए हैं । इसलिये उसे ६० वर्ष पीछे हटाना चाहिये -- प्रर्थात् इस समय जो २४६० सम्वत् प्रचलित है उसमें ६० वर्ष घटाकर उसे २४०० बनाना चाहिये । श्रतः आपकी यह आपत्ति भी निःसार है और वह किसी तरह भी मान्य किये जानेके योग्य नहीं । अब मैं यह बतला देना चाहता हूँ कि जार्ल चार्पेटियरने, विक्रमसम्वत्को विक्रमकी मृत्युका सम्वत् न समझते हुए और यह जानते हुए भी कि श्वेताम्बर भाइयोंने वीरनिर्वाणमे ४७० वर्ष बाद विक्रमका राज्यारम्भ माना है, वीरनिर्वारणसे ४१० वर्ष बाद जो विक्रमका राज्यारम्भ होना बतलाया है वह केवल उनकी निजी कल्पना अथवा खोज है या कोई शास्त्राधार भी उन्हें इसके किये प्राप्त हुआ है । शास्त्राधार जरूर मिला है और उससे उन श्वेताम्बर विद्वानोंकी ग़लतीका भी पता चल जाता है जिन्होंने जिनकाल और विक्रमकालके ४७० वर्ष अन्तरकी गणना विक्रमके राज्याभिषेकसे की है और इस तरह विक्रमसम्वत्को विक्रमके राज्यारोहणका ही सम्वत् बतला दिया है । इस विषयका खुलासा इस प्रकार है: श्वेताम्बराचार्य श्रीपेरुतुगते, अपनी 'विचारश्रेणि' में - जिने 'स्थविरावली' भी कहते हैं. 'जं रयरि कालगओ' आदि कुछ प्राकृत गाथाओं के अाधार पर यह प्रतिपादन किया है कि - "जिम रात्रिको भगवान् महावीर पावापुरमें देखो, जार्लचार्पेटियरका वह प्रसिद्ध लेख जो इण्डियन एण्टिके री ( जिल्द ४३ वीं, सन् १९१४ ) की जून, जुलाई और अगस्तकी संख्यानोंमें प्रकाशित हुआ है और जिसका गुजराती अनुवाद 'जैनसाहित्यसंशोधक के दूसरे ash द्वितीय में निकला है । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश निर्वाणको प्राप्त हुए उसी रात्रिको उजयिनीमें चंडप्रद्योतका पुत्र 'पालक' राजा रसज्याभिषिक्त हुआ, इसका राज्य ६० वर्ष तक रहा, इसके बाद क्रमश: नन्दोंका राज्य १५५ वर्ष, मौर्योंका .१०८, पुष्यमित्रका ३०, बलमित्र-भानुमित्रका ६०, नभोवाहन (नरवाहन) का ४०, गर्द भिल्लका १३ और शकका ४ वर्ष राज्य रहा । इस तरह यह काल ४७० वर्षका हुा । इसके बाद गर्दभिल्ल के पुत्र विक्रमादित्यका राज्य ६० वर्ष, धर्मादित्यका ४०, भाइल्लका ११, नाइल्लका १४ और नाहडका १० वर्ष मिलकर १३५ वर्षका दूसरा काल हुा । और दोनों मिलकर ६०५ वर्ष का समय महावीरके निर्धारण वाद हुप्रा । इसके बाद शकोंका राज्य और शंकसम्वत्की प्रवृत्ति हुई. ऐमा बतलाया है।' यही वह परम्परा और कालगणना है जो श्वेताम्बरोंमें प्रायः करके मानी जाती है। - । परन्तु श्वेताम्बर-सम्प्रदायके बहुमान्य प्रसिद्ध विद्वान् श्रीहेमचन्द्राचार्यके 'परिशिष्टपर्व' से यह मालूम होता है कि उजयिनीके राजा पालकका जो समय (६० वर्ष) ऊपर दिया है उसी समय मगधके सिंहासन पर श्रेगिकके पुत्र कूणिक ( अजातशत्रु ) और कूरिणकके पुत्र उदायीका क्रमशः राज्य रहा है । उदायीके नि:सन्तान मारे जाने पर उसका राज्य नन्दको मिला। इसीमे परिशिष्टपर्वमें श्रीवर्धमान महावी रके निरिणसे ६० वर्षके बाद प्रथम नन्दराजाका राज्याभिषिक्त होना लिखा है । यथा:--- अनन्तरं वर्द्धमानस्वामिनिर्वाणवासरात । गतायां पष्ठिवत्सर्यामेप नन्दोऽभवन्नपः ॥६-२४३।। इसके बाद नन्दोंका वर्णन देकर, मौर्यवंशके प्रथम राजा सम्राट चन्द्रगुप्तके राज्यारम्भका समय बतलाते हुए, श्रोहेमवन्द्राचार्य ने जो महत्वका श्लोक दिया है. वह इस प्रकार है: एवं च श्रीमहावीरमुनर्वर्षशते गते । पंच पंचाशदधिके चन्द्रगुप्तोऽभवन्नृपः ॥८-३३६|| - इस श्लोक पर जालं चाटियरने अपने निर्णयका ख़ास प्राधार रक्खा है 'और डा० हर्मन जेकोबीके कथानुसार इसे महावीर-निर्वाणके सम्बन्धमें अधिक "संगत परम्पराका सूचक बतलाया है। साथ ही, इसकी रचना परसे यह अनुमान किया है कि या तो यह श्लोक किसी अधिक प्राचीन ग्रन्थ परसे ज्योंका त्यों Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० महावीर और उनका समय उद्धृत किया गया है अथवा किसी प्राचीन गाथा परसे अनुवादित किया गया है। अस्तु; इस श्लोकमें बतलाया है कि 'महावीरके निर्वाणसे १५५ वर्ष बाद चंद्रगुप्त राज्यारूढ़ हुआ'। और यह समय इतिहासके बहुत ही अनुकूल जान पड़ता है। विचारोगिकी उक्त कालगणनामें १५५ वर्ष का समय मिर्फ नन्दोंका और उस से पहले ६० वर्षका समय पालकका दिया है। उसके अनुसार चन्द्रगुप्तका राज्यारोहग्ग-काल वीरनिर्वाणमे २१५ वर्ष बाद होता था परन्तु यहां १५५ वर्ष बाद बतलाया है, जिससे ६० वर्ष की कमी पड़ती है। मेस्तुगाचार्यने भी इस कमीको महसूस किया है । परन्तु वे हेम चन्द्राचार्य के इस कथनको ग़लत साबित नहीं कर सकते थे और दूसरे ग्रन्यों के माथ उन्हें माफ़ विरोध नज़र पाता था, इसलिये उन्होंने 'तचिन्त्यम्' कहकर ही इस विषयको छोड़ दिया है। परन्तु मामला बहुत कुछ स्पष्ट जान पड़ता है । हेमचन्द्रने ६० वर्षकी यह कमी नन्दोंके राज्यकाल में की है उनका राजकाल ६५ वर्षका बतलाया है-कमोंकि नन्दोंसे पहिले उनके और वीरनिर्वाण वी वमें ६० वर्षका ममय कूगिक आदि राजाओं-' का उन्होंने माना ही है। ऐपा मालूम होता है कि पहलेमे वीरनिर्वाणके बाद १५५ वर्षके भीतर नन्दोंका होना माना जाता था परन्तु उसका यह अभिप्राय नहीं था कि बीरनिर्वाणके ठीक बाद नन्दों का राज्य प्रारम्भ हुना, बल्कि उनसे पहिले उदायी तया कूगिकका राज्य भी उममें शामिल था। परन्तु इन राज्योंकी अलग अलग वर्ष-गणना मायमे न रहने प्रादिके कारण बादको गलनीमे १५५ वर्षकी संख्या अके ने नन्दराज्यके लिये रूट हो गई । और उधर पालक राजाके उसी निरिण-रात्रिको अभिषिक्त होनेकी जो महज एक दूसरे राज्यकी विशिष्ट घटना थी उसके माथमे राज्यकालके ६० वर्ष जुडकर वह गलती इधरं मगधकी काल गणनामें शामिल हो गई। इस तरह दो भूनोंके कारण कालगणनामें ६० वर्षको वृद्धि हुई और उसके फलस्वरूप वीरनिर्वाणसे ४७० वर्ष बाद विक्रमका राज्याभिषेक माना जाने लगा । हेमचन्द्राचार्यने इन भूलोंको मालूम किया और उनका उक्त प्रकारमे दो इनोकों में ही सुधार कर दिया है। बरिष्टर काशीप्रमाद ( के. पी. ) जी जायसवालने, जान चाटियरके लेखका विरोध करते हुए, हेमचन्द्राचार्य पर जो यह प्रापति की है कि उन्होंने महावीरके निर्वाणके बाद तुरन्त ही नन्दवंशका राज्य बतला दिया है, और इस कल्पित Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश आधार पर उनके कथनको 'भूलभरा तथा अप्रामाणिक' तक कह डाला है उसे देखकर बड़ा ही आश्चर्य होता है। हमें तो बैरिष्टर साहबकी ही साफ़ भूल नज़र माती है। मालूम होता है उन्होंने न तो हेमचन्द्रके परिशिष्ट पर्वको ही देखा है और न उसके छठे पर्वके उक्त श्लोक नं० २४३ के अर्थ पर ही ध्यान दिया है, जिसमें साफ़ तौर पर वीरनिर्वाणसे ६० वर्षके बाद नन्द राजाका होना लिखा है । अस्तु, चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण समयकी १५५ वर्षसंख्यामें प्रागेके २५५ वर्ष जोड़नसे ४१० हो जाते हैं, और यही वीरनिर्वाणसे विक्रमका राज्यारोहणकाल है। परन्तु महावीरकाल और विक्रमकालमें ४७० वर्षका प्रसिद्ध अन्तर माना है और वह तभी बन सकता है जब कि इस राज्यारोहणकाल ४१० में राज्यकालके ६० वर्ष भी शामिल किये जावें । ऐसा किया जाने पर विक्रमसम्वत् विक्रमकी मृत्युका सम्वत् हो जाता है और फिर सारा ही झगड़ा मिट जाता है । वास्तवमें, विक्रमसम्वत्को विक्रमके राज्याभिषेकका सम्वन् मान लेनेकी गलतोसे यह सारी गड़बड़ फैनी है। यदि वह मृत्युका सम्वत् माना जाता तो पालकके ६० वर्षाको भी इधर शामिल होनेका अवसर न मिलता और यदि कोई शामिल भी कर लेता तो उसकी भून शीव्र ही पकड़ ली जाती । परन्तु राज्याभिषेकके सम्वत्की मान्यताने उस भूनको चिरकाल तक बना रहने दिया । उसीका यह नतीजा है जो बहुतसे ग्रन्थोंमें राज्याभिषेक-संवत्के रूपमें ही विक्रमसंवत्का उल्लेख पाया जाता है और कालगणनामे कितनी ही गड़बड़ उपस्थित हो गई है, जिसे अब अच्छे परिश्रम तथा प्रयत्नके साथ दूर करनेकी ज़रूरत है। इसी ग़लती तथा गड़वड़को लेकर और शककालविषयक त्रिलोकसारादिकके वाक्योंका परिचय न पाकर श्रीयुत एस वी. वेंकटेश्वरने, अपने महावीर-समयसम्बन्धी-The date of Vardhamana नामक-लेखा मे यह कल्पना के देखो, विहार और उड़ीसा रिसर्च सोसाइटीके जनरलका सितम्बर सन् १९१५ का अंक तथा जैनसाहित्यसंशोधकके प्रथम खंडका ४ था अंक। + यह लेख सन् १९१७ के 'जनरल अाफ़ दि रायल एशियाटिक सोसाइटीमें पृ०१२२-३० पर, प्रकाशित हुआ है और इसका गुजराती अनुवाद जैनसाहित्यसंशोकषके द्वितीय खंडके दूसरे अङ्कमें निकला है । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० महावीर और उनका समय ४१ की है कि महावीरनिर्वाणसे ४७० वर्ष बाद जिस विक्रमकालका उल्लेख जनग्रन्थोंमें पाया जाता है वह प्रचलित सनन्द-विक्रमसंवत् न होकर अनन्द-विक्रमसंवत् होना चाहिये, जिसका उपयोग १२ वीं शताब्दीके प्रसिद्ध कवि चन्दवरदाई ने अपने काव्यमें किया है और जिसका प्रारम्भ ईसवी सन् ३३ के लगभग अथवा यों कहिये कि पहले ( प्रचलित ) विक्रम संवत्के ६० या ६१ वर्ष बाद हुआ है। और इस तरह पर यह सुझाया है कि प्रचलित वीरनिर्वाणसंवत्मेंसे ६० वर्ष कम होने चाहिये- अर्थात् महावीरका निर्वाण ईसवी सन्से ५२७ वर्ष पहले न मानकर ४३७ वर्ष पहले मानना चाहिये, जो किसी तरह भी मान्य किये जानेके योग्य नहीं । आपने यह तो स्वीकार किया है कि प्रचलित विक्रमसंवत्की गणनानुमार वीरनिर्वाण ई० सन्मे ५२७ वर्ष पहले ही बैठता है परन्तु इसे महज इस बुनियाद पर असंभवित करार दे दिया है कि इससे महावीरका निर्वाण बुद्धनिर्वाणसे पहले ठहरता है, जो आपको इष्ट नही । परन्तु इस तरह पर उसे असंभवित करार नहीं दिया जा सकता, क्योंकि बुद्धनिर्वाण ई० सन्से ५४४ वर्ष पहले भी माना जाता है, जिसका आपने कोई निराकरण नहीं किया। और इसलिये बुद्ध का निर्वाण महावीरके निर्वाणसे पहले होने पर भी आपके इस कथनका मुख्य आधार आपकी यह मान्यता ही रह जाती है कि बुद्ध-निर्वाण ई० सन्से पूर्व ४८५ और ४५३के मध्यवर्ती किसी समयमें हुमा है, जिसके समर्थन में आपने कोई भी सबल प्रमाण उपस्थित नहीं किया और इसलिये वह मान्य किये जानेके योग्य नहीं । इसके सिवाय, अनन्द-विक्रम-संवत्की जिस कल्पनाको आपने अपनाया है वह कल्पना ही निर्मूल है-अनन्दविक्रम नामका कोई संवत् कभी प्रचलित नहीं हुआ और न चन्दवरदाईके नामसे प्रसिद्ध होने वाले 'पृथ्वीराजरासे' में ही उसका उल्लेख है-और इस बातको जाननेके लिये रायबहादुर पं० गौरीशंकर हीराचन्दजी अोझाका 'अनन्द-विक्रम संवत्की कल्पना' नामका वह लेख पर्याप्त है जो नागरी प्रचारिणी पत्रिकाके प्रथम भागमें, पृ० ३७७ से ४५४ तक मुद्रित हुआ है। अब मैं एक बात यहाँ पर और भी बतला देना चाहता हूँ और वह यह कि बुद्धदेव भगवान् महावीरके समकालीन थे। कुछ विद्वानोंने बौद्ध ग्रंथ मज्झिमनिकाय Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश के उपालिसुत्त और सामगामसुत्तकी संयुक्त घटनाको लेकर, जो बहुत कुछ अप्राकृतिक द्वेषमूलक एवं कल्पित जान पड़ती है और महावीर भगवान्के साथ जिसका संबन्ध ठीक नहीं बैठता, यह प्रतिपादन किया है कि महावीरका निर्वाण बुद्ध के निर्वाणसे पहले हुअा है । परन्तु वस्तुस्थिति ऐसी मालूम नहीं होती । खुद बौद्धग्रन्थोंमें बुद्ध का निर्वाण अजातशत्रु (कूणिक) के राज्याभिषेकके आठवें वर्ष में बतलाया है; और दीघनिकायमें, तत्कालीन तीर्थकरोंकी मुलाकातके अवसर पर, अजातशत्रुके मंत्रीके मुखसे निगंठ नातपुत्त (महावीर) का जो परिचय दिलाया है उसमे महावीरका एक विशेषण “अद्धगतो वयो" ( अर्धगतवयाः) भी दिया है, जिसमे यह स्पष्ट जाना जाता है कि अजातशत्रुको दिये जाने वाले इस परिचयके समय महावीर अधेड उम्रके थे अर्थात् उनकी अवस्था ५० वर्पके लगभग थी। यह परिचय यदि अजातशत्रुके राज्यके प्रथम वर्षमें ही दिया गया हो, जिसकी अधिक संभावना है, तो कहना होगा कि महावीर अजातशत्रुके राज्यके २२ वें वर्ष तक जीवित रहे हैं। क्योंकि उनकी आयु प्रायः ७२ वर्ष की थी। और इमलिये महावीरका निर्वाण बुद्ध निर्वारणसे लगभग १४ वर्षके बाद हुआ है। 'भगवतीमूत्र' आदि श्वेताम्बर ग्रन्थोंसे भी ऐमा मालूम होता है कि महावीरनिर्वारगमे १६ वर्ष पहले गोगालक (मंखलिपुत्त गोगाल) का स्वर्गवास हुआ, गोशालकके स्वर्गवाससे कुछ वर्ष पूर्व( प्रायः ७ वर्ष पहले) अजातशत्रुका राज्यारोहण हुआ, उसके राज्यके आठवें वर्षमें बुद्ध का निर्वाण हुअा और बुद्ध के निर्वागणसे कोई १४-१५ वर्ष बाद अथवा अजातशत्रु के राज्यके २२ वें वर्षमें महावीरका निर्वाण हुआ । इस तरह बुद्ध का निर्वाण पहले और महावीरका निर्वागग उमके बाद पाया जाता है । इसके सिवाय, हेमचन्द्राचार्यने चंद्रगुप्नका गज्यारोहण. समय वीरनिर्वाणमे १५५ वर्ष बाद बतलाया है और 'दीपवंश' 'महावंश' नामके * इन मूत्रोंके हिन्दी अनुवादके लिये देखो, राहुल सांकृत्यायन-कृत 'बुद्धचर्या पृष्ठ ४४५, ४८१ । देखो, जार्ल चाटियरका वह प्रसिद्ध लेख जिसका अनुवाद जैनसाहित्यसंशोधकके द्वितीय खंडके दूसरे अङ्कमें प्रकाशित दुपा है और जिसमें बौद्ध ग्रंथकी उस घटना पर खासी आपत्ति की गई है । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० महावीर और उनका समय ४३ बौद्ध ग्रन्थोंमें वही समय बुद्ध निर्वाणसे १६२ वर्ष बाद बतलाया गया है । इससे भी प्रकृत विषयका कितना ही समर्थन होता है और यह स्पष्ट जाना जाता है कि वीरनिर्वाणसे बुद्ध निर्वाण अधिक नहीं तो ७-८ वर्षके करीब पहले ज़रूर हुआ है। - बहुत संभव है कि बौद्धोंके सामगामसुत्तमें वरिणत निगंठ नातपुत्त (महावीर) की मृत्यु तथा संघभेद-समाचार वाली घटना मक्खलिपुत्त गोशालकी मृत्युसे संबंध रखती हो और पिटक ग्रंथोंको लिपिबद्ध करते समय किसी भूल आदिके वश इस सूत्रमें मक्खलिपुत्तकी जगह नातपुत्तका नाम प्रविष्ट हो गया हो; क्योंकि मक्खलिपुतकी मृत्यु-जो कि बुद्ध के छह प्रतिस्पर्धी तीर्थकरोमेंसे एक था-बुद्ध निर्वाणसे प्रायः एक वर्ष पहले ही हुई है और बुद्धका निर्वाण भी उक्त मृत्युसमाचारमे प्रायः एक वर्ष बाद माना जाता है। दूसरे, जिस पावामें इस मृत्युका होना लिखा है वह पावा भी महावीरके निर्वाणक्षेत्र-वाली पावा नहीं है, बल्कि दूसरी ही प्रावा है जो बौद्ध पिटकानुमार गोरखपुरके जिलेमे स्थित कुगीनाराके पासका कोई ग्राम है । और तीसरे, कोई संघभेद भी महावीरके निर्वाणके अनन्तर नही हुआ, बल्कि गौशालककी मृत्यु जिस दशामें हुई है उसमे उसके सघका विभाजित होना बहुत कुछ स्वाभाविक है। इसमे भी उक्त मृत्यु-समाचार-वाली घटनाका महावीरके माथ कोई सम्बन्ध मालूम नहीं होता, जिसके आधार पर महावीरनिर्वागाको बुद्धनिर्वागगसे पहले बतलाया जाता है । । बुद्धनिर्वाणके समय-सम्बन्धमें भी विद्वानोंका मतभेद है और वह महावीरनिर्वाणके ममयमे भी अधिक विवादग्रस्त चल रहा है। परन्तु लंकामें जो बुद्धनिर्वाणसम्वत् प्रचलित है वह सबसे अधिक मान्य किया जाता है-ब्रह्मा, श्याम और मासाममे भी वह माना जाता है। उसके अनुसार बुद्धनिर्वाण ई० सन्से ५४४ वर्ष पहले हुया है। इससे भी महावीरनिर्वाण बुद्ध निर्वाणके बाद बैठता है; क्योंकि वीरनिर्वाणका समय शकसंवत्मे ६०५ वर्ष (विक्रमसम्वत्से ४७० वर्ष) ५ महीने पहले होनेके कारण ईसवी सन्से प्रायः ५२८ वर्ष पूर्व पाया जाता है । इस ५२८ वर्ष पूर्व के समयमें यदि १८ वर्षकी वृद्धि करदी जाय तो वह ५४६ वर्ष पूर्व होजाता है-अर्थात् बुद्धनिर्वाणके उक्त लंकामान्य समयसे दो वर्ष पहले। अतः जिन विद्वानोंने महावीरके निर्वाणको बुद्धनिर्वाणसे पहले मान लेने की Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश वजहसे प्रचलित वीरनिर्वाणसम्वत्में १८ वर्षकी वृद्धिका विधान किया है वह भी इस हिसाबसे ठीक नहीं है। उपसंहार यहाँ तकके इस सम्पूर्ण विवेचन परसे यह बात भले प्रकार स्पष्ट हो जाती है कि आज कल जो वीरनिर्वाणसम्वत् २५६० प्रचलित है वही ठीक है-उसमें न तो बैरिष्टर के० पी० जायसवाल जैसे विद्वानोंके कथनानुसार १८ वर्षकी वृद्धि की जानी चाहिए और न जाल चाटियर जैसे विद्वानोंकी धारणानुसार ६० वर्ष की अथवा एस० वी० वेंकटेश्वरकी सूचनानुसार ६० वर्षकी कमी ही की जानी उचित है। वह अपने स्वरूपमें यथार्थ है। हाँ, उसे गत सम्वत् समझना चाहिये-जैनकाल-गणनामें वीरनिर्वाणके गतवर्ष ही लिये जाते रहे है-ईसवी सन् प्रादिकी तरह वह वर्तमान सम्वत्का द्योतक नहीं है। क्योंकि गत कार्तिकी अमावस्याको शकसम्वत्के १८५४ वर्ष ७ महीने व्यतीत हुए थे और शकसम्वत् महावीरके निर्वाणसे ६०५ वर्ष ५ महीने बाद प्रवर्तित हुआ है, यह ऊपर बतलाया जा चुका है। इन दोनों संख्याओंके जोड़नेमे पूरे २४६० वर्ष होते हैं । इतने वर्ष महावीरनिर्वाणको हुए गत कार्तिकी अमावस्याको पूरे हो चुके हैं और गत कार्तिकशुक्ला प्रतिपदासे उसका २४६१ वाँ वर्ष चल रहा है । यही आधुनिक सम्वत्-लेखन पद्धतिके अनुसार वर्तमान वीरनिर्वाण सम्वत् है। और इसलिये इसके अनुसार महावीरको जन्म लिये हुए २५३१ वर्ष बीत चुके हैं और इस समय गत चैत्रशुक्ला त्रयोदशी (वि० सं० १९६० शक सं० १८५५ ) से, प्रापकी इस वर्षगांठका २५३२ वाँ वर्ष चल रहा है और जो समाप्तिके करीब है। इत्यलम् । 2นหา ?ปรุป Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरनिर्वाणसंवत्की समालोचनापर विचार श्रीयुत् पंडित ए० शान्तिराजजी शास्त्री प्रास्थान विद्वान् मैसूर राज्यने 'भगवान् महावीरके निर्वागा-सम्वत्की समालोचना' शीर्षक एक लेख संस्कृत भाषा में लिखा है, जो हिन्दी जैनगजटके गत दीपमालिकाङ्क (वर्ष ४७ अंक १)में प्रकाशित हुआ है और जिसका हिन्दी अनुवाद 'अनेकान्त' वर्ष ४ की किरण १० में प्रकाशित किया जा रहा है। जनगजटके सहसम्पादक पं० सुमेरचन्दजी "दिवाकर' और 'जैनसिद्धान्तभास्कर' के सम्पादक पं० के० भुजबली शास्त्री प्रादि कुछ विद्वान् मित्रोंका अनुरोध हुअा कि मुझे उक्त लेखपर अपना विचार ज़रूर प्रकट करना चाहिये । तदनुमार ही मैं यहाँ अपना विचार प्रकट करता हूँ । ___ इस लेखमें मूल विषयको छोड़कर दो बातें खाम तौरपर प्रापत्तिके योग्य है-कतो शास्त्रीजीने 'अनेकान्त' आदि दिगम्बर समाजके पत्रोंमें उल्लिखित की जाने वाली वीरनिर्वागण-सम्वत्की संख्याको मात्र श्वेताम्बर सम्प्रदायका अनुसरण बतलाया है; दूसरे इन पंक्तियोंके लेखक तथा दूसरे दो संशोधक विद्वानों ( प्रो० ए० एन० उपाध्याय और पं० नाथूरामजी 'प्रेमी' ) के ऊपर यह मिथ्या प्रारोप लगाया है कि इन्होंने बिना विचारे ही (गतानुगतिक रूपमे) श्वेताम्बर-सम्प्रदायी मार्गका अनुसरण किया है। इस विषयमें सबसे पहले मै इतना ही निवेदन कर देना चाहता हूँ कि 'भगवान् महावीरके निर्वाणको आज कितने वर्ष व्यतीत हुए ? यह एक शुद्ध ऐतिहामिक प्रश्न है--किसी सम्प्रदायविशेषकी मान्यताके साथ इसका कोई खास सम्बन्ध नहीं है। इसे साम्प्रदायिक मान्यताका रूप देना और इस तरह दिगम्बर समाजके हृदयमें अपने लेखका कुछ महत्त्व स्थापित करनेकी Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश चेष्टा करना ऐतिहासिक क्षेत्रमें कदम बढ़ानेवालोंके लिये अनुचित है । श्वेताम्बर समाजके भी कितने ही विद्वानोंने ऐतिहासिक दृष्टिसे ही इस प्रश्नपर विचार किया है, जिनमें मुनि कल्याणविजयजीका नाम खास तौरसे उल्लेखनीय है । इन्होंसे 'वीर-निर्वाण-सम्वत् और जैन कालगणना' नामका एक गवेषणात्मक विस्तृत निवन्ध १८५ पृष्ठ का लिखा है, और उसमें कालगणनाकी कितनी ही भूलें प्रकट की गई हैं । यह निबन्ध "नागरी प्रचारिणी पत्रिका' के १०वें तथा ११वें भागमें प्रकाशित हुया है। यदि यह प्रश्न केवल साम्प्रदायिक मान्यताका ही होता तो मुनिजीको इसके लिये इतना अधिक ऊहापोह तथा परिश्रम करनेकी जरूरत न पड़ती । अस्तु ।। ___ मुनि कल्याणविजयजीके उक्त निबन्धसे कोई एक वर्ष पहिले मैने भी इस विषयपर 'भगवान् महावीर और उनका समय' शीर्षक एक निबन्ध लिखा था, जो चैत्र शुक्ल त्रयोदशी संवत् १९८६ को होनेवाले महावीर-जयन्तीके उत्सवपर देहलीमें पढ़ा गया था और बादको प्रयमवर्षके 'अनेकान्त' की प्रथम किरणमें अग्रस्थान पर प्रकाशित किया गया था * । इस निबन्धमें प्रकृत विषयका कितना अधिक ऊहापोहके साथ विचार किया गया है, प्रचलित वीरनिर्वाण-संवत् पर होनेवाली दूसरे विद्वानोंकी आपत्तियोंका कहाँ तक निरमन कर गुत्थियोंको सुलझाया गया है, और साहित्यकी कुछ पुरानी गड़बड़ अर्थ • समझने की गलती अथवा कालगणनाकी कुछ भूलोंको कितना स्पष्ट करके बतलाया गया है, ये सब बातें उन पाठकोंने छिपी नहीं हैं जिन्होंने इस निबन्धको गौरके साथ पढ़ा है । इसी से 'अनेकान्त' में प्रकाशित होते ही अच्छे-अच्छे जैन-अर्जन विद्वानोंने 'ग्रनेकान्त' पर दी जाने वाली अपनी सम्मितियोंमे इस निबन्धका अभिनन्दन किया था और इसे महत्वपूर्ण, खोजपूर्ण, गवेपरणापूर्ण, वित्तापूर्ग, बड़े मार्कका, अत्युत्तम, उपयोगी, आवश्यक और मननीय लेख प्रकट किया था। कितने ही * सन् १९३४ में यह निबन्ध मंशोधित तथा परिवधित होकर और धवल जयधवलके प्रमाग्गोंकी भी साथमें लेकर अलग पुस्तकाकार रूपमे छप चुका है। +ये सम्मतियाँ 'अनेकान्तपर लोकमत' शीर्षकके नीचे 'अनेकान्त' के प्रथमवर्षकी किरणोंमें प्रकाशित हुई हैं। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीरनिर्वाण सम्वत् की समालोचनापर विचार ४७ विद्वानोंने इसपरसे अपनी भूलको सुधार भी लिया था । मुनि कल्याण विजयजीने सूचित किया था - ' - " आपके इस लेखकी विचार सरणी भी ठीक है ।" और पं० नाथूरामजी प्रेमीने लिखा था - "आपका वीरनिर्वाण-संवत् वाला लेख बहुत ही महत्वका है और उससे अनेक उलझनें सुलझ गई हैं ।" इस निबन्धके निर्णयानुसार ही 'अनेकान्त' में 'वीर - निर्वारण संवत्' का देना प्रारम्भ किया था, जो अब तक चालू है । इतने पर भी शास्त्रीजीका मेरे ऊपर यह आरोप लगाना कि मैंने 'बिना विचार किये ही' (गतानुगतिक रूपमे) दूसरों के मार्गका अनुसरण किया है कितना अधिक अविचारित, अनभिज्ञतापूर्ण तथा आपत्तिके योग्य है। और उसे उनका 'अतिसाहस' के सिवाय और क्या कहा जा सकता है, इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं। आशा है शास्त्रीजीको अपनी भूल मालूम पड़ेगी और वे भविष्य में इस प्रकारके निर्मूल आक्षेपोंसे बाज़ प्राएँगे । अब में लेखके मूल विषयको लेता हू और उस पर इस समय सरसरी तौर पर अपना कुछ विचार व्यक्त करता हूं । ग्रावश्यकता होनेपर विशेष विचार फिर किसी समय किया जायगा । शास्त्रीजीने त्रिलोकसारकी 'परण- छम्मद वस्सं पग्णमामजुद' नामकी प्रसिद्ध गाथाको उद्धृत करके प्रथम तो यह बतलाया है कि इस गाथामें उल्लिखित ‘शकराज' शब्दका अर्थ कुछ विद्वान तो शालिवाहन राजा मानते हैं और दूसरे कुछ विद्वान विक्रमराजा । जो लोग विक्रमराजा अर्थ मानते है उनके हिसाब से इस समय (गन दीपमालिकामे पहनेछ ) वीर निर्वारण सवत् २६०४ आता है, और जो लोग शालिवाहन राजा श्रयं मानते है उनके प्रथांनुसार वह २४६६ बैठता है, परन्तु वे लिखते है २४६७, इस तरह उनकी गग्गनामे दो वर्षका अन्तर ( व्यत्यास) तो फिर भी रह जाता है। साथ ही अपने लेखके समय प्रचलित विक्रम संवत्को १६६६ और शालिवाहनशकको १८६४ बतलाया है तथा दोनों * शास्त्रीजीका लेख गत दीपमालिका ( २० अक्तूबर १९४९ ) से पहलेका लिखा हुआ है, अतः उनके लेखमें प्रयुक्त हुए 'सम्प्रति' (इस समय ) शब्दका वाच्य गत दीपमालिका पूर्वका निर्वारणसंवत् है, वही यहाँपर तथा ग्रागे भी 'इस समय' शब्दका वाच्य समझना चाहिये- कि इस लेख लिखनेका समय । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश के अन्तरको १३६ वर्षका घोषित किया है । परन्तु शास्त्रीजीका यह लिखना ठीक नहीं है- -न तो प्रचलित विक्रम तथा शक संवत्की वह संख्या ही ठीक है जो आपने उल्लेखित की है और न दोनों संवतोंमें १३६ वर्षका अन्तर ही पाया जाता है, बल्कि अन्तर १३५ वर्षका प्रसिद्ध है और वह प्रापके द्वारा उल्लिखित विक्रम तथा शक संवतोंकी संख्याओं ( १९६६ - १८६४ = १३५ ) से भी ठीक जान पड़ता है। बाकी विक्रम संवत् १६६६ तथा शक संवत् १८६४ उस समय तो क्या अभी तक प्रचलित नहीं हुए हैं- काशी श्रादिके प्रसिद्ध पंचांगोंमें वे क्रमश: १६६८ तथा १८६३ ही निर्दिष्ट किये गये है । इस तरह एक वर्षका अन्तर तो यह सहज हीमें निकल आता है । और यदि इधर सुदूर दक्षिण देशमें इस समय विक्रम संवत् १६६६ तथा शक संवत् १८६४ ही प्रचलित हो, जिसका अपनेको ठीक हाल मालूम नहीं, तो उसे लेकर शास्त्रीजीको उत्तर भारतके विद्वानोंके निर्णयपर आपत्ति नहीं करनी चाहिये थी— उन्हें विचारके अवसरपर विक्रम तथा शक संवत्की वही संख्या ग्रहरण करनी चाहिये थी जो उन विद्वानोंके निर्णयका आधार रही है और उस देशमें प्रचलित है जहां वे निवास करते हैं । ऐसा करने पर भी एक वर्षका अन्तर स्वतः निकल जाता । इसके विपरीत प्रवृत्ति करना विचार नीतिके विरुद्ध है । 1 अब रही दूसरे वर्ष अन्तरकी बात, मैंने और कल्याणविजयजीने अपने अपने उक्त निबन्धों में प्रचलित निर्वाण संवत्के कसमूहको गत वर्षोंका वाचक बतलाया है - ईसवी सन् आदिकी तरह वर्तमान वर्ष का द्योतक नही बतलायाऔर वह हिसाब महीनों की भी गणना साथमें करते हुए ठीक ही है । शास्त्रीजीने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया और ६०५ के साथमे शक संवत्की विवादापन्न संख्या १८६४ को जोड़कर वीरनिर्वाण-संवत्को २४६९ बना डाला है ! जबकि उन्हें चाहिये था यह कि वे ६०५ वर्ष ५ महीने में शालिवाहन शकके १८६२ वर्षोंको जोड़ते जो काशी प्रादिके प्रसिद्ध पंचाङ्गानुसार शक सम्वत् १८६३ के प्रारम्भ होनेके पूर्व व्यतीत हुए थे, और इस तरह चैत्रशुक्ला प्रतिपदा के दिन वीरनिर्वाणको हुए २४६७ वर्ष ५ महीने बतलाते। इससे उन्हें एक भी वर्षका अन्तर कहने के लिये अवकाश न रहता; क्योंकि ऊपरके पांच महीने चालू वर्षके हैं, जब तक बारह महीने पूरे नहीं होते तब तक उनकी गणना वर्ष में नहीं Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरनिर्वाणसंवत्की समालोचनापर विचार ४६ की जाती। और इस तरह उन्हें यह बात भी अँच जाती कि जैन कालगणनामें वीरनिर्वाणके गत वर्ष ही लिये जाते रहे हैं । इसी बातको दूसरी तरहसे यों भी समझाया जा सकता है कि गत कार्तिकी अमावस्याको शक सम्वत्के १८६२ वर्ष ७ महीने व्यतीत हुए थे, और शक सम्वत् महावीरके निर्वाणसे ६०५ वर्ष ५ महीने बाद प्रवर्तित हुआ है। इन दोनों संख्याओंको जोड़ देनेसे पूरे २४६८ वर्ष होते हैं । इतने वर्ष महावीरनिर्वाणको हुए गत कार्तिकी अमावस्याको पूरे हो चुके हैं और गत कार्तिक शुक्ला प्रतिपदासे उसका २४६६ वाँ वर्ष चल रहा है; परन्तु इसको चले अभी डेढ़ महीना ही हुआ है और डेढ़ महीनेकी गणना एक वर्षमें नहीं की जा सकती, इमलिये यह नहीं कह सकते कि वर्तमानमें वीरनिर्वाणको हए २४६६ वर्ष व्यतीत हुए हैं बल्कि यही कहा जायगा कि २४६८ वर्ष हुए हैं । अतः 'शकराजा' का शालिवाहन राजा अर्थ करनेवालोंके निर्णयानुसार वर्तमानमें प्रचलित वीरनिर्वाण सम्वत् २४६८ गताब्द के रूपमें है और उसमें गणनानुसार दो वर्पका कोई अन्तर नहीं है-वह अपने स्वरूपमें यथार्थ है । अस्तु । त्रिलोकमारकी उक गाथाको उद्धत करके और 'शकराज' शब्दके सम्बन्धमे विद्वानोंके दो मतभेदोंको बतलाकर, शास्त्रीजीने लिखा है कि "इन दोनों पक्षों में कौनसा ठीक है, यही समालोचनाका विषय है ( उभयोरनयोः पक्षयो. कतरो याथातथ्यमुपगच्छतीति ममालोचनीयः )," और इसतरह दोनों पक्षोंके सत्यासत्यके निर्णयकी प्रतिज्ञा की है। इस प्रतिज्ञा तथा लेखके शीर्षकमें पड़े हुए 'समालोचना' शब्दको और दूसरे विद्वानोंपर किये गये तीव्र आक्षेपको देख कर यह आशा होती थी कि शास्त्रीजी प्रकृत विषयके मंबन्धमे गंभीरताके माथ कुछ गहरा विचार करेगे, किसने कहाँ भूल की है उसे बतलाएंगे और चिरकालसे उलझी हुई समस्याका कोई ममुचित हल करके रखेंगे। परन्तु प्रतिज्ञाके अनन्तरके वाक्य और उसकी पुष्टिमें दिये हुए आपके पाँच प्रमाणोंको देखकर वह सब आशा धूल में मिल गई, और यह स्पष्ट मालूम होने लगा कि आप प्रतिज्ञाके दूसरे क्षरण ही निर्णायकके पासनसे उत्तरकर एक पक्षके साथ जा मिले हैं अथवा तराजूके एक पलड़े जा बैठे हैं और वहाँ खड़े होकर यह कहने लगे हैं कि हमारे पक्षके अमुक व्यक्तियोंने जो बात कही है वही ठीक है; परन्तु वह क्यों ठीक है ? कैसे ठीक है ? और दूसरोंकी बात ठीक क्यों नहीं है ? इन Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश सब बातोंके निर्णयको आपने एकदम भुला दिया है !! यह निर्णयकी कोई पद्धति नहीं और न उलझी हुई समस्याओं को हल करनेका कोई तरीक़ा ही है । आपके वे पंच प्रमारण इस प्रकार हैं ---- है (१) दिगम्बर जैनसंहिताशास्त्र के संकल्प - प्रकरण में विक्रमराजाका ही उल्लेख पाया जाता है, शालिवाहनका नहीं । (२) त्रिलोकसार ग्रन्थकी माधवचन्द्र - त्रैविद्यदेवकृत संस्कृत टीकामें शकराज शब्दका अर्थ विक्रम राजा ही उल्लिखित हैं । (३) पं० टोडरमलजी कृत हिन्दी टीकामें इस शब्दका अर्थ इस प्रकार है— "श्री वीरनाथ चौबीसवाँ तीर्थकरको मोक्ष प्राप्त होनेतें पीछे छपाँच वर्ष पांच मास सहित गए विक्रमनाम शकराज हो है । बहुरि तातें उपरि च्यारि नव तीन इन अंकनि करि तीनसै चौरारणवै वर्ष और सात मास अधिक गए कल्की हो है". . ८५० इस उल्लेखसे भी शकराजाका अर्थ विक्रमराजा ही सिद्ध होता है । (४) मिस्टर राइस - सम्पादित श्रवणबेलगोलकी शिलाशासन पुस्तक में १४१ नं० का एक दानपत्र है, जिससे कृष्णराज तृतीय ( मुम्मडि, कृष्णराज घोडेयर ) ने आजसे १११ वर्ष पहले क्रिस्ताब्द १८३० में लिखाया है । उसमें निम्न श्लोक पाए जाते हैं " नानादेशनृपालमौलिविलसन्माणिक्य रत्नप्रभा । भास्वत्पाद सरोजयुग्मरुचिरः श्रीकृष्णराजप्रभुः ।। श्रीकर्णाटकदेशभासुर महीशूरस्थसिंहासनः । श्रीचामक्षितिपालसूनुरवनौ जीयात्सहस्त्रं समाः ।। स्वस्ति श्रीवर्द्धमानाख्ये, जिने मुक्ति गते सति । वह्निरंधाब्धिनेत्रैश्च ( २४६३ ) वत्सरेषु मितेषु वै ॥ विक्रमाकसमा स्विं दुगजसा मजहस्तिभि: (१८८८ ) । सतीषु गणनीयासु गणितज्ञ - बुधैस्तदा || शालिवाहनवर्षेषु नेत्रबाणन मेंदुभि: (१७५२ ) । प्रमितेषु विकृत्यब्दे श्रावणे मासि मंगले ॥" इत्यादि Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरनिर्वाण-संवतकी समालोचनापर विचार ५१ ___ इन श्लोकोंमें उल्लिखित हुए महावीर-निर्वाणान्द, विक्रमशकान्द और शालिवाहनशकाब्द इस बातको दृढ़ करते है कि शकराज शब्दका अर्थ विक्रमराजा ही है । महावीर-निर्वाणान्द २४६३ को संख्यामें दानपत्रको उत्पत्तिकालके १११ वर्षोंको मिला देनेपर इस समय वीरनिर्वाणसम्वत् २६०४ हो जाता है । और विक्रम शकान्दको संख्या १८८८ को दानपत्रोत्पत्तिकाल १११ वर्षके साथ जोड़ देने से इस समय विक्रमशकाब्द १९९६ आ जाता है। (५) चामराजनगरके निवासी पं० ज्ञानेश्वर द्वारा प्रकाशित जैन पंचांगमें भी यही २६०४ वीरनिर्वाणब्द उल्लिखित है।। ___इन पाँच प्रमाणोंमेंसे नं० २ और ३ में तो दो टीकाकारोंके अर्यका उल्लेख है जो गलत भी हो सकता है, और इसलिये वे टीकाकार अर्थ करनेवालोंकी एक कोटिमें ही पाजाते हैं। दूसरे दो प्रमाण नं० ४, ५ टीकाकारों से किसी एकके प्रर्थ का अनुसरण करनेवालोंकी कोटिमें रक्खे जा सकते हैं । इस तरह ये चारों प्रमाग 'शकराज' का गलत अर्थ करनेवालों तथा गलत अर्थका अनुसरण करनेवालोंके भी हो सकनेमे इन्हें अर्थ करनेवालोंकी एक कोटिमें रखनके सिवाय निर्णयके क्षेत्रमें दूसरा कुछ भी महत्व नहीं दिया जा सकता और न निर्णयपर्यन्त इनका दूमरा कोई उपयोग ही किया जा सकता है। मुकाबलेमें ऐसे अनेक प्रमाण रक्खे जा सकते हैं जिनमें 'शकराज' शब्दका अर्थ शालिवाहन राजा मान कर ही प्रवृत्ति की गई है। उदाहरणके तौर पर पांचवें प्रमाणके मुकाबलेमें ज्योतिषरत्न पं. जियालालजी दि० जैनके सुप्रसिद्ध 'असली पंचाङ्ग' को रक्खा जा सकता है, जिसमें वीरनिर्वाण सं० २४६७ का स्पष्ट उल्लेख है-२६०४ की वहाँ कोई गंध भी नहीं है। रहा शास्त्रीजीका पहला प्रमारण, उसकी शब्दरचना परसे यह स्पष्ट मालूम नही होता कि शास्त्रीजी उसके द्वारा क्या सिद्ध करना चाहते हैं । उल्लिखित संहिताशास्त्रका आपने कोई नाम भी नहीं दिया, न यह बतलाया कि वह किसका बना पा हुअा है और उसमें किस रूपसे विक्रम राजाका उल्लेख पाया है वह उल्लेख उदाहरणपरक है या विधिपरक, और क्या उममें ऐसा कोई आदेश है कि संकल्पमें विक्रम राजाका ही नाम लिया जाना चाहिये-शालिवाहनका नहीं, अथवा जैनियोंको संकल्पादि सभी अवसरों पर--जिसमें ग्रन्थरचना भी Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश शामिल है--विक्रम संवत्का ही उल्लेख करना चाहिये, शक-शालिवाहन का नहीं ? कुछ तो बतलाना चाहिये था, जिससे इस प्रमाणकी प्रकृतविषयके साथ कोई संगति ठीक बैठती । मात्र किसी दिगम्बर ग्रन्थमें विक्रम राजाका उल्लेख आजाने और शालिवाहन राजाका उल्लेख न होनेसे यह नतीजा तो नहीं निकाला जा सकता कि शालिवाहन नामका कोई शक राजा हुअा ही नहीं अथवा दिगम्बर साहित्यमे उसके शक संवत्का उल्लेख ही नहीं किया जाता । ऐसे कितने ही दिगम्बर ग्रन्थ प्रमाणमें उपस्थित किये जासकते हैं जिनमें स्पष्टरूपसे शालिवाहनके शकसंवत्का उल्लेख है। ऐसी हालतमें यदि किसी संहिताके संकल्पप्रकरणमें उदाहरणादिरूपसे विक्रमराजाका अथवा उसके संवत्का उल्लेख आ भी गया है तो वह प्रकृत विषयके निर्णयमें किस प्रकार उपयोगी हो सकता है. यह उनके इस प्रमाणसे कुछ भी मालूम नहीं होता, और इसलिये इस प्रमारणका कुछ भी मूल्य नही है । इस तरह आपके पांचों ही प्रमाण विवादापन्न विषयकी गुत्थीको सुलझानेका कोई काम न करनेसे निर्णयक्षेत्रमे कुछ भी महत्त्व नहीं रखते; और इसलिये उन्हे प्रमाण न कहकर प्रमाणाभास कहना चाहिये । कुछ पुरातन विद्वानोंने 'शकराजा' का अर्थ यदि विक्रम राजा कर दिया है तो क्या इतनेसे ही वह अर्थ ठीक तथा ग्राह्य होगया ? क्या पुरातनोंसे कोई भूल तथा गलती नहीं होती और नहीं हुई है ? यदि नहीं होती और नहीं हुई है तो फिर पुरातनों-पुरातनों में ही कालगणनादिक सम्बन्धमें मतभेद क्यों पाया जाता है ? क्या वह मतभेद किसी एककी गलतीका सूचक नहीं है ? यदि मूचक है तो फिर किसी एक पुरातनने यदि गलतीमे 'शकराजा' का अर्थ 'विक्रमराजा' कर दिया है तो मात्र पुरातन होनेकी वजहमे उसके कथनको प्रमाण-कोटिमें क्यों रक्खा जाता है और दूसरे पुरातन कथनकी उपेक्षा क्यों की जाती है ? शक राजा अथवा शककालके ही विषयमें दिगम्बर साहित्यमें पाँच पुरातन मतोंका उल्लेख मिलता है, जिनमें से चार मत तो त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें पाये जाते हैं और उनमें सबसे पहला मत वीरनिर्वाणसे ४६१ वर्ष बाद शकराजाका उत्पन्न होना बतलाता है * । तीन मत 'धवल' ग्रन्थमें उपलब्ध होते हैं, जिनमेंसे दो तो • * वीरजिणे सिद्धिगदे चउसद-इगसटि-वासपरिमारणे । कालम्मिप्रदिक्कते उप्पण्णो एत्य सगरामो ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरनिर्वाण-संवत्की समालोचनापर विचार ५३ त्रिलोकप्रज्ञप्ति वाले ही हैं और एक उनसे भिन्न है । श्रीवीरसेनाचार्यने 'धवल' में इन तीनोंमतोंको उद्धृत करनेके बाद लिखा है____ "एदेसु तिसु एक्केण होदव्वं, ण तिएणमुवदेसाणसञ्चत्तं अण्णोएणविरोहादो । तदो जाणिय वत्तव्यं ।” अर्थात्-इन तीनोंमेंसे एक ही कथन ठीक होना चाहिये, तीनों कथन सच्चे नहीं हो सकते; क्योंकि तीनोंमें परस्पर विरोध है । अतः जान करके-अनुसंधान करके-वर्तना चाहिये। इस प्राचार्यवाक्यसे भी स्पष्ट है कि पुरातन होनेसे ही कोई कथन सञ्चा तथा मान्य नहीं हो जाता। उसमें भूल तथा गलतीका होना संभव है,और इसीसे अनुसन्धान पूर्वक जांच-पड़ताल करके उसके ग्रहण-त्यागका विधान किया गया है। ऐमी हालतमें शास्त्रीजीका पुरातनोंकी बातें करते हुए एक पक्षका हो रहना और उमे बिना किमी हेतुके ही यथार्थ कह डालना विचार तथा समालोचनाकी कोरी विडम्बना है। ___ यहाँपर में इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि इधर प्रचलित वीरनिर्वाण मंवत्की मान्यताके विषयमे दिगम्बरों और श्वेताम्बरोंमें परस्पर कोई मतभेद नहीं है। दोनों ही वीरनिर्वाणमे ६०५ वर्ष ५ महीने बाद शकशालिवाहनके संवत्की उत्पत्ति मानते हैं। धवल-सिद्धान्नमें श्रीवीरसेनाचार्यने श्रीवीरनिर्वाण संवत्को मालूम करनेकी विधि बतलाते हा प्रमागरूपसे जो एक प्राचीन गाथा उद्धृत की है वह इस प्रकार है पंच य मासा पंच य वासा छच्चेव होंति वाससया । सगकालेण सहिया थावेयव्यो तदो रासी । इसमें बतलाया है कि-'शककालकी संख्याके साथ यदि ३०५ वर्ष ५ महीने जोड़ दिये जावें तो वीरजिनेन्द्रके निर्वाणकालकी संख्या आ जाती है । इस गाथाका पूर्वार्ध, जो वीरनिर्वाणसे शककाल (संवत्) की उत्पत्तिके समयको सूचित करता है, श्वेताम्बरोंके 'तित्थोगाली पइन्नय' नामक निम्न गाथाका भी पूर्वाध है, जो वीरनिर्वाणसे ६०५ वर्ष ५ महीने बाद शकरम्बाका उत्पन्न होना बतलाती है Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश पंचय मासा पंच य वासा छच्चेव होंति वाससया । परिणिस्सऽरिहतो तो उपप्रणो सगो राया ॥ ६२३ ॥ यहाँ शकराजका जो उत्पन्न होना कहा है उसका अभिप्राय शककालके उत्पन्न होने अर्थात् शकस वत्के प्रवृत्त ( प्रारम्भ ) होनेका है, जिसका समर्थन 'विचारश्रेणि' में श्वेताम्बराचार्य श्री मेरुतुरंग द्वारा उद्धृत निम्न वाक्यसे भी होता हैश्रीवीरनिवृतेर्वर्षैः षभिः पंचोत्तरैः शतैः । शाकसंवत्सरस्यैषा प्रवृत्तिर्भरतेऽभवत् ॥ 1 इस तरह महावीरके इस निर्वारण-समय- सम्बन्ध में दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंकी एक वाक्यता पाई जाती है । और इसलिये शास्त्रीजीका दिगम्बर समाजके संशोधक विद्वानों तथा सभी पत्र - सम्पादकोंपर यह श्रारोप लगाना कि उन्होंने इस विषय में मात्र श्वेताम्बर सम्प्रदायका ही अनुसरण किया है उसीकी मान्यतानुसार वीरनिर्वाण सवत्का उल्लेख किया है-- बिल्कुल ही निराधार तथा अविचारित है । ऊपर के उद्धृत वाक्योंमें 'शककाल' और 'शाकसंवत्सर' जैसे शब्दोंका प्रयोग इस बातको भी स्पष्ट बतला रहा है कि उनका अभिप्राय 'विक्रमकाल' अथवा 'विक्रमसंवत्सर' मे नही है, और इसलिये 'शकराजा' का अर्थ विक्रमराजा नही लिया जा सकता । विक्रमराजा वीरनिर्वाण मे ४७० वर्ष बाद हुआ है जैसा कि दिगम्बर नन्दिसंघकी प्राकृत पट्टावलीकं निम्न वाक्यमे प्रकट है- सत्तरचदुमद जुत्ता जिरणकाला विक्कमो हवइ जम्मो छ । इसमें भी विक्रमजन्मका अभिप्राय विक्रमकाल अथवा विक्रमसंवत्सर की उत्पत्तिका है । श्वेताम्बरोंके 'विचारश्रेणि' ग्रन्थमे भी इसी श्राशयका वाक्य निम्न प्रकार मे पाया जाता है 6 विकमरज्जारंभापुर सिरिवीरनिव्वुई भणिया । यह वाक्य 'विक्रमप्रबन्ध' में भी पाया गया है । इसमें स्थूल रूपमेमहीनों की संख्याको साथमें न लेते हुए वर्षोंकी संख्याका ही उल्लेख किया है; जैसाकि 'विचारश्रेरणी' में उक्त 'श्रीवीरनिर्वृतेर्वर्ष:' वाक्यमें शककालके वर्षोंका ही उल्लेख है । न Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरनिर्वाण-संवत्की समालोचनापर विचार ५५ सुन्न-मुणि-वेय-जुत्तो विक्कमकालाउ जिणकालो ।। यहाँ पर एक प्राचीन दिगम्बर वाक्य और भी उद्धृत किया जाता है जो वीरनिर्वाणसे विक्रमकालकी उत्पत्तिको स्पष्टरूपसे ४७० वर्ष बाद बतलाता है और कविवर वीरके, संवत् १०७६ में बनकर समाप्त हुए, जम्बूस्वामिचरितमें पाया जाता है वरिसाणसयचउक्कं सत्तरिजुत्तं जिणेंदवीरस्स । णिव्याणा उववण्णे विक्कमकालस्स उप्पत्ती ।। जब वीरनिर्वाणकाल और विक्रमकालके वर्षों का अन्तर ४७० है तब निर्वाणकालमे ६०५ वर्ष बाद होने वाले शक राजा अथवा शककालको विक्रमराजा या विक्रमकाल कमे कहा जा सकता है ? इमे सहृदय पाठक स्वयं समझ सकते हैं। वैसे भी 'शक' शब्द आम तौर पर गालिवाहन राजा तथा उसके संवत्के लिये व्यवहृत होता है, इस बातको शास्त्रीजीने भी स्वयं स्वीकार किया है, और वामन शिवराम आप्टे (V. S. APTE) के प्रसिद्ध कोषमें भी इसे Specially. applied to Salivahan जैसे शब्दोंके द्वारा शालिवाहनराजा तथा उसके संवत् ( cra) का वाचक बतलाया है। विक्रमराजा 'शक' नहीं था, किन्तु 'शकारि' = 'शकशत्रु था, यह बात भी उक्त कोषसे जानी जाती है। इसलिये जिन जिन विद्वानोंने 'शकराज' शब्दका अर्थ 'शकराजा' न करके 'विक्रमराजा' किया है उन्होंने जरूर ग़लती खाई है। और यह भी संभव है कि त्रिलोकसारके मंस्कृत-टीकाकार माधवचन्द्रने 'शकराजो' पदका अर्थ शकराजा ही किया हो, बादको ‘शकराज:' से पूर्व 'विक्रमांक' शब्द किसी लेखककी गलतीसे जुड़ गया हो और इस तरह वह गलती उत्तरवर्ती हिन्दी टीकामें भी पहुँच गई हो, जो प्राय: संस्कृत टीकाका ही अनुसरण है। कुछ भी हो, त्रिलोकसार को उक्त गाथा नं० ८५० में प्रयुक्त हुए 'शकराज' शब्दका अर्थ शकशालिवाहनके मिवाय और कुछ भी नहीं है, इस बातको मैंने अपने उक्त 'भगवान् महावीर और उनका समय' शीर्षक निबन्धमें भले प्रकार स्पष्ट करके बतलाया है, और भी दूसरे विद्वानोंकी कितनी ही आपत्तियोंका निरसन करके सत्यका स्थापन किया है। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश अब रही शास्त्रीजीकी यह बात कि दक्षिण देशमें महावीरशक, विक्रमशक और क्रिस्तकके रूपमें भी 'शक' शब्दका प्रयोग किया जाता है, इससे भी उनके प्रतिपाद्य विषयका कोई समर्थन नहीं होता। वे प्रयोग तो इस बातको सूचित करते हैं कि शालिवाहन शककी सबसे अधिक प्रसिद्धि हुई है और इस लिये बादको दूसरे सन् - संवतों के साथ भी 'शक' का प्रयोग किया जाने लगा और वह मात्र 'वत्सर' या 'संवत्' अर्थका वाचक हो गया । उसके साथ लगा हुआ महावीर, विक्रम या क्रिस्त विशेषरण ही उसे दूसरे अर्थ में ले जाता है, खाली 'शक' या 'शकराज' शब्दका अर्थ महावीर, विक्रम अथवा क्रिस्त ( क्राइस्ट = ईसा ) का या उनके सन् संवतोंका नही होता । त्रिलोकसारकी गाथामें प्रयुक्त हुए शकराज शब्दके पूर्व चूंकि 'विक्रम' विशेषण लगा हुआ नहीं है, इस लिये दक्षिण देशकी उक्त रूढिके अनुसार भी उसका अर्थ 'विक्रमराजा' नहीं किया जा सकता । ऊपरके इस संपूर्ण विवेचनपरसे स्पष्ट है कि शास्त्रीजीने प्रकृत विषयके सम्बन्धमें जो कुछ लिखा है उसमे कुछ भी सार तथा दम नही है । आशा है शास्त्रीजीको अपनी भूल मालूम पड़ेगी, और जिन लोगोंने आपके लेखपरमे कुछ गलत धारणा की होगी वे भी इस विचारलेखपरसे उसे सुधारनेमे समर्थ हो सकेंगे । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-शासनकी उत्पत्तिका समय और स्थान जैनियोंके अन्तिम तीर्थकर श्रीवीरभगवान्के शासनतीर्थको उत्पन्न हुए आज कितना समय होगया. किस शुभवेलामे अथवा पुण्य-तिथिको उसका जन्म हुआ और किस स्थान पर वह सर्वप्रथम प्रवर्तित किया गया, ये सब बाते ही आजके मेरे इम लेखका विषय है, जिन्हें भावी वीरशासन-जयन्ती-महोत्सवके लिये जान लेना सभीके लिये प्रावश्यक है । इस सम्बन्धमें अब नक जो गवेषणाएं (Researches ) हुई है उनका सार इस प्रकार है: किमी भी जैनतीर्थकरका शासनतीर्थ केवलज्ञानके उत्पन्न होनेमे पहले प्रवतित नहीं होता-तीर्थप्रवृत्तिके पूर्वमे केवलज्ञान की उत्पत्तिका होना आवश्यक है। वीरभगवानको उस केवलज्ञानज्योतिकी संप्राप्ति बैमाख सुदि दशमीको अपराहके समय उस वक्त हुई थी जबकि आप ज़म्भिका ग्रामके वाहिर, ऋजुकुलानदीके किनारे, शालवृक्षके नीचे, एक शिलापर षष्ठोपवाससे युक्त हुए क्षपक-श्रेणीपर आरूढ थे-आपने शुक्लध्यान लगा रक्खा था। जैसा कि नीचे लिखे वाक्योंसे प्रकट है उजुकूलणदीतीरे जंभियगामे वहिं सिलावट्टे । छठूणादावेंतो अवरोह पायछायाए ॥ वइसाहजोण्ह-पक्खे दसमीए खवगसेढिमारूढो। हेतूणे घाइकम्मं केवलणाणं समावण्णो ॥ -धवल-जयधवलमें उद्धृत प्राचीनगाथाएँ । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश ऋजुकूलायास्तीरे शालद्रुमसंश्रिते शिलापट्टे । अपराह्न षष्ठणास्थितस्य खलु जृम्भकाग्रामे ॥ ११ ॥ वैशाखसितदशम्यां हस्तोत्तरमध्यमाश्रिते चन्द्रे । क्षपकश्रेण्यारूढस्योत्पन्न केवलज्ञानम् ।। १२ ।। ___-श्रीपूज्यपाद-सिद्धिभक्तिः वइसाहसुद्धदसमी-माघा-रिक्वम्हि वीरणाहस्स । रिजुकूलणदीतीरे अवरण्हे केवलं गाणं ॥ -तिलोयपण्णत्ती ४-७०१ जंभिय-वहि उजुवालिय तीर वियावत्त सामसाल अहे । छ?णुक्कुडुयस्स उ उप्पएणं केवलं गाणं ।। -आवश्यकनियुक्ति ५२६ पृ० २२७ जहाँ केवलज्ञान उत्पन्न होता है वहाँ उसकी उत्पत्तिके अनन्तर, देवतागरण आते हैं, भूत-भविष्यत् वर्तमानरूप सकल चराऽचरके ज्ञाता केवलज्ञानी जिनेन्द्रकी पूजा करते हैं-महिमा करते हैं और उनके उपदेशके लिये शकाज्ञामे ममवसरण-सभाकी रचना करते हैं , ऐसी साधारण जैन मान्यता है । इस मान्यताके अनुसार जुभकाके पास ऋजुकूला नदीके किनारे बैसाख सुदि दगमीको देवतागरणने आकर वीरभगवानकी पूजाकी-महिमा की और उनके उपदेशके लिये-तीर्थकी प्रवृत्तिके निमित्त~-ममवसरण-मभाकी मुष्टि भी की, यह स्वतः फलित हो जाता है । परन्तु इस प्रथम ममवमरणमें वीरभगवानका शामनतीर्थ प्रवतित नहीं हुआ, यह बात श्वेताम्बर सम्प्रदायको भी मान्य है, जैसा कि उनके निम्न वाक्योंमे प्रकट है तित्थं चा उच्चएणो संघो सो पढमाए समोसरणे । उप्पएणो उ जिणाणं, वीरजिगिदस्स बीयम्मि ।। -प्रावश्यकनियुक्ति, २६५ पृ० १४० + ताहे सक्कारणाए जिरणाग सयलारण समवसरणारिग । विक्किरियाए धनदो विरएदि विचित्तरूवेहि ॥ --तिलोयप० ४-७१० * केवलस्य प्रभावेण सहसा चलितासनाः । प्रागत्य महिमां चक्रुस्तस्य सर्वे सुराऽसुराः । ---जिनसेन-हरिवंशपु० २-६० Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-शासनकी उत्पत्तिका समय और स्थान आधे समवसरणे सर्वेषामर्हतामिह । उत्पन्न तीर्थमन्त्यस्य जिनेन्द्रस्य द्वितीयके ।। १७-३२ -लोकप्रकाश, खं० ३ __इनमें श्री वीर-जिनेन्द्रके तीर्थको द्वितीय समवसरणमें उत्पन्न हुअा बतलाया है, जबकि शेष सभीजैन तीर्थकरोंका तीर्थ प्रथम समवसरणमें उत्पन्न हुआ है । श्वेताम्बरीय आगमोंमें इस प्रथम समवसरणमें तीर्थोत्पत्तिके न होनेकी घटनाको आश्चर्यजनक घटना बतलाया है और उसे आमतौर पर 'अछेरा' (असाधारण घटना) कहा जाता है । अब देखना यह है कि, दूसरा समवसरण कब और कहाँपर हुआ ? और प्रथम समवसरणमें भगवानका शामनतीर्थ प्रवर्तित न होनेका क्या कारण था ? इस विषयमें अभी तक जितना श्वेताम्बर-माहित्य देखनेको मिला है उसमे इतना ही मालूम होता है कि प्रथम समवमरगमें देवता ही देवता उपस्थित थे—कोई मनुष्य नहीं था, इमसे धर्मतीर्थका प्रवर्तन नहीं हो सका। महावीरको केवलज्ञानकी प्राप्ति दिनके चौथे पहरमे हुई थी, उन्होंने जबयह देखा कि उस समय मध्यमा नगरी ( वर्तमान पावापुरी) में सोमिलार्य ब्राह्मणके यहाँ यज्ञ-विषयक एक बड़ा भारी धार्मिक प्रकरण चल रहा है, जिसमें देश-देशान्तरोंके बड़े-बड़े विद्वान् आमन्त्रित होकर आए हुए हैं तो उन्हें यह प्रसंग अपूर्वलाभका कारण जान पड़ा और उन्होंने यह सोचकर कि यज्ञमें आए हाए विद्वान ब्राह्मण प्रतिबोधको प्राप्त होंगे और मेरे धर्मतीर्थ केअाधारस्तम्भ बनेगे.संध्या-समय ही विहार कर दिया और वे रातोंरात १२ योजन (४८ कोस) चल कर मध्यमाके महासेननामक उद्यानमें पहुँचे, जहाँ प्रातःकालसे ही समवसरणको रचना होगई। इस तरह बैसाख मुदि एकादशीको जो दूसरा समवरण रचा गया उसमें वीरभगवानने एक पहर तक विना किमी गणधरकी उपस्थितिके ही धर्मोपदेश दिया । इस धर्मोपदेश और महावीरकी सर्वज्ञताकी खबर पाकर इन्द्रभूति आदि ११ प्रधान ब्राह्मण विद्वान् अपने अपने शिष्यसमूहोंके साथ कुछ आगे पीछे समवसरणमें पहुंचे और वहाँ वीरभगवानसे साक्षात् वार्तालाप करके अपनी अपनी शंकामोंकी निवृत्ति होनेपर उनके शिष्य बन गये, उन्हें ही फिर वीरप्रभु-द्वारा Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश गणधर - पदपर नियुक्त किया गया । साथ ही, यह भी मालूम हुआ कि मध्यमाके इस द्वितीय समवसरण के बाद, जिसमें धर्मचक्रवर्तित्व प्राप्त हुआा बतलाया गया है।, भ० महावीरने राजगृहकी ओर जो राजा श्रेणिककी राजधानी थी प्रस्थान किया, जहाँ पहुँचते ही उनका तृतीय समवसरण रचा गया और उन्होंने सारा वर्षा काल वहीं बिताया, जिससे श्रावरणादि वर्षाके चातुर्मास्यमें वहां बराबर धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति होती रही । परन्तु यह मालूम नहीं हो सका कि प्रथम समवसरण में मनुष्योंका प्रभाव क्यों रहा- वे क्यों नहीं पहुँच सके ? समवसरणकी इतनी विशाल योजना होने, हजारों देवी-देवताओं के वहाँ आकर जय जयकार करने, देवदुंदुभि बाजोंके बजने और अनेक दूसरे आश्वयके होनेपर भी, जिनसे दूर दूरकी जनता ही नहीं किन्तु पशु-पक्षी तक भी खिंचकर चले आते हैं, जृम्भकादि आस-पासके ग्रामोंके मनुष्यों तक को भी समवसरण में जानेकी प्रेरणा न मिली हो, यह बात कुछ समझ मे नही आती । दूसरे, केवलज्ञान जब दिनके चौथे पहरमें उत्पन्न हुआ था तब उस केवलोत्पत्तिकी खबर को पाकर अनेक समूहोंमें देवताओंके ऋजुकूला नदीके तट पर वीरभगवानके पास ग्राने, ग्राकर उनकी वन्दना तथा स्तुति करने - महिमा गाने, समवमरण में नियत समय तक उपदेशके होने तथा उसे सुनने आदि सब नेग - नियोग इतने थोड़े समय में कैसे पूरे हो गये कि भ० महावीरको संध्याके समय ही विहारका अवसर मिल गया ? X तीसरे, यह भी मालूम नहीं हो सका कि केवलज्ञानकी उत्पत्तिमे पहले जब भ० महावीर * देखो, मुनिकल्याण विजयकृत 'श्रमण भगवान महावीर पृ० ४८ से ७३ । + अमर-रायमहिश्रो पत्तो धम्मवरचक्कवट्टित्तं । बीयम समवसरणे पावाए मज्झिमाए उ 11 - ग्राव० नि० ४५० पृ० २२६ + देखो, उक्त 'श्रमण भगवान महावीर पृ० ७४ मे ७८ । X स्थानकवासी श्वेताम्बरोंमें केवलज्ञानका होना १० मीकी रात्रिको माना गया है ( भ० महावीरका आदर्श जीवन पृ० ३३२ ) अतः उनके कथनानुसार भी उस दिन संध्या समय विहारका कोई अवसर नही था । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-शासनकी उत्पत्तिका समय और स्थान - ६१ मोहनीय और अन्तराय कर्मका बिल्कुल नाश कर चुके थे-फलत: उनके कोई प्रकारकी इच्छा नहीं थी-तब वे शासनफलकी एषणासे इतने आतुर कैसे हो उठे कि उस यज्ञ-प्रसंगसे अपूर्व लाभ उठानेकी बात सोचकर संध्यासमय ही ऋजुकूला-तटसे चल दिये और रातोंरात ४८ कोस चलकर मध्यमा नगरीके उद्यानमें जा पहुँचे ? और इसलिये प्रथम समवसरणमें केवल देवताओंके ही उपस्थित होने, संध्या समयके पूर्व तक सब नेग-नियोगोंके पूरा हो जाने और फिर अपूर्वलाभको इच्छासे भ० महावीरके संध्या समय ही प्रस्थान करके रातोंरात मध्यमा नगरीके उद्यानमे पहुँचने आदिकी बात कुछ जीको लगती हई मालूम नहीं होती। प्रत्युत इमके, दिगम्बर साहित्य परसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि ऋजुकूला तटवाले प्रथम समवसरगमें वीर भगवानकी वारणी ही नहीं खिरी-उनका उपदेश ही नहीं हो मका-और उसका कारण मनुष्योंकी उपस्थितिका प्रभाव नहीं था किन्तु उस गगीन्द्रका अभाव था जो भगवानके मुखमे निकले हुए बीजपदोंकी अपने ऋद्धिवलमे टीक व्याख्या कर सके अथवा उनके आगयको लेकर वीरप्ररूपित अर्थको ठीक रूपमें जनताको समझा सके और या यों कहिये कि जनताके लिथे उपयोगी ऐम द्वादशाङ्ग श्रुतरूपमे वीरवारगीको गूथ सके । ऐसे गरणीन्द्रका उस समय तक योग नहीं भिड़ा था, और इसलिये वीरजिनेन्द्रने फिरसे मौनपूर्वक विहार किया, जो ६६ दिन तक जारी रहा और जिसकी समाप्ति के साथ साथ वे राजगृह पहुँच गये, जहाँ विपुलाचल पर्वत पर उनका वह समवसरण रचा गया जिसमें इन्द्रभूति ( गोतम ) आदि विद्वानोंकी दीक्षाके अनन्तर श्रावणकृष्ण-प्रतिपदाको पूर्वाह्नके समय अभिजित नक्षत्र में वीर भगवानको सर्वप्रथम दिव्यवाणी खिरी और उनके शासन-तीर्थकी उत्पत्ति हुई। जैसाकि श्री जिनसेनाचार्यके निम्न वाक्योंसे प्रकट है पट्षष्ठिदिवसान् भृयो मौनेन विहरन् विभुः । आजगाम जगख्यातं जिनो राजगृहं पुरं ।। ६१ ।। "बीजपदरिणलीणत्थपरूवणं दुवालसंगाणं कारो गणहरभडारमो गंथकत्तारो ति अन्भुपगमादो । बीजपदाणं वक्खाणो त्ति वुत्तं होदि ।". -धवल, वेयरणाखंड Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ · जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश पारुरोह गिरि तत्र विपुलं विपुलश्रियं । प्रबोधार्थे स लोकानां भानुमानुदय यथा ।। ६२ ।। ततः प्रबुद्धवृत्तान्तैरापतद्भिरितस्ततः । । जगत्सुरासुरैाप्तं जिनेन्द्रस्य गुणैरिव ।। ६३ ।। इन्द्राऽग्निवायुभूत्याख्या कौण्डिन्याख्याश्च पण्डिताः । इन्दनोदयनाऽऽयाताः समवस्थानमर्हतः ॥ ६॥ प्रत्येक संहिताः सर्वे शिष्याणां पंचभिः शतैः । त्यक्ताम्बरादिसम्बन्धा संयमं प्रतिपेदिरे ॥ ६ ॥ प्रत्यक्षीकृतविश्वार्थ कृतदोपत्रयक्षयं । जिनेन्द्र गोतमोपृच्छत्तीर्थार्थं पापनाशनम् ॥ ८ ॥ स दिव्यध्वनिना विश्वसंशयच्छेदिना जिनः । ददभिध्वनिधीरेण योजनान्तरयायिना || || श्रावणस्यासिते पक्षे नक्षत्रेऽभिजिति प्रभुः । प्रतिपद्य ह्न पूर्वाह्न शासनार्थमुदाहरत ॥११॥ -हरिवंशपुराण, द्विः सर्ग इस विषयमें धवल और जयघवल नामके सिद्धान्तग्रन्थों में, श्रीवर्द्धमान महावीरके अर्थकर्तृत्वकी-तीर्थोत्पादनकी--द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूपमे प्ररूपणा करते हुए, प्राचीन गाथानोंके आधारपर जो विशद कथन किया गया है वह अपना खास महत्व रखता है । द्रव्यप्ररूपरगामें तीर्योत्पनिके समय महावीरके शरीरका 'केरिसं महावीरसरीरं' इत्यादिरूपमे वर्णन करते हुए उसे समचतु:संस्थानादि-गुगोंसे विशिष्ट सकल दोपोंमे रहित और राग द्वेष-मोहके अभावका सूचक बतलाया है । क्षेत्रप्ररूपरणामें 'तित्थुप्पत्ती कम्हि खेत्ते' इत्यादिरूपसे तीर्थोत्पत्तिके क्षेत्रका निरूपण और उसमें समवसरण तथा उसके स्थानादिका निर्देश करते हए जो विस्तृत वर्णन दिया है उसका कुछ अंश इस प्रकार है........... "गयणट्टियछत्ततयेण वड्ढमाण-तिहुवणाहिवइत्तचिंधरण सुसोहियए पंचसेलउर-णेरइदिसा-विसय-अइविउल-विउलगिरिमत्थयत्थए गंगोहोब्ब चउहि सुरविरइयचारे हियविसमाणदेवविज्जाहरमणु Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ वीर-शासनकी उत्पत्तिका समय और स्थान वजणाण मोहए समवसरणमंडले x x x x होदु णामदिट्ठ जिणदव्वमहिमाणं देविंदसरूवावगच्छंत जीवाणमिदं जिणसव्वण्णुत्तलिगं चामरछएणहदि-साविसयम्मि दिव्वामोयगंधसुरसाराणेयमणिणिवहफुडियम्मि गंधउडिप्पासायम्मि ट्ठियसिंहासणारूढेण वड्ढमाणभडारएण तित्थुप्पाइदं । खेत्तप्परूवणा ।" इसमें अनेक विशेषणों के साथ यह स्पष्ट बतलाया है कि, 'पंचशलपुर ('राजगृह' नगर ) की नैऋति दिशामें जो विपुलाचल पर्वत है उसके मस्तकपर होनेवाले तत्कालीन समवसरण-मंडलकी गंधकुटीमें गगन-स्थित छत्रत्रयसे युक्त एवं सिंहासनारूढ हुए वर्द्धमान भट्टारक ( भ० महावीर ) ने तीर्थकी उत्पत्ति कीअपना शासनचक्र प्रवर्तित किया।' जयधवल ग्रन्थमें इतना विशेष और भी पाया जाता है कि पंचशैलपुरको, जो कि गुरगनाम था, 'राजगृह' नगरके नाममे भी उल्लेखित किया है, उसे मगधमंडलका तिलक बतलाया है और तीर्थोत्पत्तिके समय चेलना-सहित महामंडलीकराजा श्रेणिकमे उपभुक्त-उनके द्वारा शामित-प्रकट किया है। यथा:__“कत्थ कहियं ? सेणियराये सचेलणे महामंडलीए सयलवसुहामंडलं भुजते मगह-मंडलतिल अ-रायगिहणयर-णेरयि-दीसमहिछिय-वि उलगिरिपव्वर सिद्धचारणसेविए वारहगणवेहिएण कहियं ।" इसके बाद 'उर्नच' रूपसे जो गाथाएँ दी है और जो धवल ग्रन्थमें भी अन्यत्र पाई जाती हैं उनमेंसे शुरूकी डेढ़ गाथा, जिसके अनन्तरकी दो गाथाएँ पंचपर्वतोंके नाम, आकार और दिशादिके निर्देशको लिए हुए हैं, इस प्रकार हैं "पंचसेलपुरे रम्मे विउले पव्वदुत्तमे। णाणादुम-समाइराणे देव-दाणव-वंदिदे ॥शा महावीरेणत्थो कहियो भविय-लोअस्स।" क्षेत्रप्ररूपणा-सम्बन्धी इस कथनके द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि महावीरके शासन-तीर्थकी उत्पत्ति राजगृहकी नैऋति दिशामें स्थित विपुलाचल पर्वतपर हुई है, जो उस समय राजा श्रेणिकके राज्यमें था। ___ अब काल-प्ररूपणाको लीजिये, इस प्ररूपणामें निम्न तीन गाथामोंको एक साथ देकर अवल-सिवान्तमें बतलाया है कि-'इस भरतक्षेत्रके अवसर्पिणी Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश कल्प- सम्बन्धी चतुर्थ कालके पिछले भागमें जब कुछ कम चौंतीस वर्ष अवशिष्ट रहे थे तब वर्षके प्रथम मास, प्रथम पक्ष और प्रथम दिनमें श्रावरणकृष्ण प्रतिपदाको पूर्वाह्न समय अभिजित् नक्षत्र में भगवान महावीरके तीर्थकी उत्पत्ति हुईं थी । साथ ही, यह भी बतलाया है कि श्रावण - कृष्ण - प्रतिपदाको रुद्र- मुहूर्तमें सूर्योदय के समय अभिजित् नक्षत्रका प्रथम योग होनेपर जहाँ युगकी आदि कही गई है उसी समय इस तीर्थोत्पत्तिको जानना चाहिये : "इमिस्सेऽवसप्पणीए चउत्थसमयस्स पच्छिमे भाए । चोत्तीसवाससेसे किंचिवि सेसूगए संते || १ || वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्मि सावणे बहुले । पादिवदिवसेतित्थुपपत्ती दु अभिजिम्मि ||२|| सावबहुलपविरुद्दमुहुत्ते सुहोदए रविणो । अभिजिस्स पढमजोए जत्थ जुगादी मुणेयव्वा ||३||" श्रावरण- कृष्ण - प्रतिपदाको तीर्थोत्पत्ति होनेका यह स्पष्ट अर्थ है कि वैशाख सुदि १०मीको केवलज्ञान हो जानेपर भी आषाढ़ी पूर्णिमा तक अर्थात् ६६ दिन तक भगवान महावीरकी दिव्यध्वनि-वारणी नहीं खिरी श्रीर इसीमे उनके प्रवचन (शासन) तीर्थ की उत्पत्ति पहले नहीं हो सकी— इन ६६ दिनोंमें वे श्री जिनसेनाचार्य के कथनानुसार मौनसे विहार करते रहे हैं । ६६ दिन तक दिव्यध्वनि प्रवृत्त न होनेका कारण बतलाते हुए धवल और जयधवल दोनों ग्रन्थोंमें एक रोचक शंका-समाधान दिया गया है, जो इस प्रकार है "छासठ दिवसावर यणं केवलकालम्मि किमट्ठ कीरदे ? केवलरणाणे समुपणे वितत्थ तित्थारगुववत्तीहो । दिव्वज्झुरणीय किमट्ठ तद्धाऽपउत्ती ? गणिदाभावादो । सोहमिदेण तक्खणे चैव गरिदो किए - धोदो ? कालीए विरणा असहायरस देविंदस्स तद्धोयणसत्तीए अभाबाहो । सगपादमूलम्मि पडिवण्णमहव्वयं मोत्तृण प्रणमुद्दिसिय दिव्वकुणी किरण पयट्टदे ? साहावियादो ए च सहावो परपज्जणियोगारुडो अब्ववत्थापत्तदो ।" शंका- केवल - कालमेंसे ६६ दिनोंका घटाना किस लिये किया जाता है ? Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर शासन की उत्पत्ति उसका समय और स्थान ६५ समाधान — इसलिये कि, केवलज्ञानके समुत्पन्न होनेपर भी उस समय तीर्थकी उत्पत्ति नहीं हुई । शंका - दिव्यध्वनिकी उस समय प्रवृत्ति क्यों नहीं हुई ? समाधान-गणीन्द्रका प्रभाव होनेसे नहीं हुई । शंका- सौधर्म इन्द्रने उसी समय गरणीन्द्रकी खोज क्यों नहीं की ? समाधान -- काललब्धिके बिना देवेन्द्र असहाय था और उसमें उस खोजकी शक्तिका प्रभाव था । शंका- अपने पादमूलमें जिसने महाव्रत ग्रहण किया है उसे छोड़कर अन्य - को उद्देश्य करके दिव्यध्वनि क्यों प्रवृत्त नहीं होती ? समाधान - ऐसा ही स्वभाव है, और स्वभाव पर - पर्यनुयोगके योग्य नहीं होता, अन्यथा कोई व्यवस्था नहीं रहेगी । इस शंका-समाधान दिगम्बर- मान्यतानुसार केवलज्ञानकी उत्पत्तिके दिन वीरभगवानकी देशनाके न होने और ६६ दिन तक उसके बन्द रहनेके कारणका भली प्रकार स्पष्टीकरण हो जाता है । देवगण श्रीवृषभाचार्य के ‘तिलोयपण्णत्ती' नामक ग्रन्थमे भी, जिसकी रचना ताम्वरीय ग्रागम ग्रन्थों और ग्रावश्यक नियुक्ति ग्रादिगे पहले हुई है, यह स्पष्ट जाना जाता है कि वीर भगवानके शासनतीर्थकी उत्पत्ति पंचशैलपुर ( राजगृह ) के विपुलाचल पर्वतपर श्रावरण- कृष्ण प्रतिपदाको हुई है; जैसा कि नीचे के कुछ वाक्योंमे प्रकट है सुर-खेर महरणे गुणणा मे पंचसेलर | विउम्मि पव्वदवरे वीर जिरो अत्थकत्तारो ||६५|| वासस्स पढममासे सावराणामम्मि बहुलपडिवाए । अभिजीत्तम्मिय उपपत्ती धम्मतित्थस्स || ६ || ऐसी स्थितिमें श्वेताम्बरों की मान्यताका उक्त द्वितीय तृतीय समवसरण जैसा थोड़ा सा मतभेद राजगृहमे ग्रागामी श्रावण कृष्णा प्रतिपदादिको होनेवाले वीरशासन - जयन्ती - महोत्सवमें उनके सहयोग देने और सम्मिलित होनेके लिये कोई बाधक नहीं हो सकता - खासकर ऐसी हालतमे जब कि वे जान रहे हैं कि जिस श्रावण कृष्ण प्रतिपदाको दिगम्बरश्रागम राजगृहमें वीरभगवानके समवसरण - Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश का होना बतला रहे हैं उसी श्रावरण- कृष्ण प्रतिपदाको श्वेताम्बर आगम भी वहां वीरप्रभुके समवसरणका अस्तित्व स्वीकार कर रहे हैं, इतना ही नहीं किन्तु वहां केवलोत्पत्तिके अनन्तर होनेवाले उस सारे चातुर्मास्यमें समवसरणंका रहना प्रकट कर रहे हैं। इसके अलावा यह भी मान रहे हैं कि 'राजगृह नगर महावीरके उपदेश और वर्षावासके केन्द्रोंमें सबसे बड़ा और प्रमुख केन्द्र था और उसमें दोसीसे प्रषिकवार समवसरण होनेके उल्लेख जैनसूत्रोंमें पाये जाते हैं । श्राशा है शासन प्रभावनाके इस सत्कार्यमें दिगम्बरोंको अपने श्वेताम्बर नौर स्थानकवासी भाइयोंका अनेक प्रकारसे सद्भावपूर्वक सहयोग प्राप्त होगा । इसी आशाको लेकर आगामी वीर शासन - जयन्ती - महोत्सवकी योजनाके प्रस्तावमें उक्त दोनों सम्प्रदायोंके प्रमुख व्यक्तियोंके नाम भी साथमें रक्खे गये हैं । अब में इतना और बतला देना चाहता हूँ कि वीर-शासनको प्रवर्तित हुए गत श्रावण कृष्णा-प्रतिपदाको २४६६ वर्ष हो चुके हैं और अब यह २५००व वर्ष चल रहा है, जो आषाढ़ी पूर्णिमाको पूरा होगा । इसीसे वीरशासनका श्रद्धद्वयसहस्राब्दि - महोत्सव उस राजगृहमें ही मनानेकी योजना की गई है जो वीरशासनके प्रवर्तित होनेका प्राद्यस्थान अथवा मुख्यस्थान है । अतः इसके लिये भीका सहयोग वाँछनीय है-सभीको मिलकर उत्सवको हर प्रकारसे सफल बनाना चाहिये । ● इस अवसरपर वीरशासनके प्रेमियोंका यह खास कर्तव्य है कि वे शासनकी महत्ताका विचारकर उसके अनुसार अपने ग्राचार - विचारको स्थिर करें और लोकमें शासन के प्रचारका — महावीर सन्देशको सर्वत्र फैलानेका भरसक उशोग करें प्रथवा जो लोग शासन प्रचारके कार्य में लगे हों उन्हें मतभेदकी साधारण बातोंपर न जाकर अपना सच्चा सहयोग एवं साहाय्य प्रदान करनेमें कोई बात उठा न रक्खें, जिससे वीरशासनका प्रसार होकर लोकमें सुख-शान्तिमुलक कल्याणकी अभिवृद्धि हो सके । देखो, मुनिकल्यारणविजयकृत 'श्रमण भगवान महावीर पृ० ३८४ - ३८५ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थंकरोंका शासनभेद -~-~ जैन समाज में, श्रीवट्टकेराचार्यका बनाया हुआ 'मूलाचार' नामका एक यत्याचार-विषयक प्राचीन ग्रन्थ सर्वत्र प्रसिद्ध है । मूलग्रन्थ प्राकृत भाषामें है, और उस पर वसुनन्दी संद्धान्तिककी बनाई हुई 'श्राचारवृत्ति' नामकी एक संस्कृत टीका भी पाई जाती है । इस ग्रन्थमें, सामायिकका वर्णन करते हुए, ग्रन्थकर्तामहोदय लिखते है: बावीसं तित्रा सामाइयं संजम उवदिसंति । छेदोद्वावरियं पुरा भयवं उसहो य वीरो य ॥ ७-३२ ॥ अर्थात् प्रजितसे लेकर पार्श्वनाथ पर्यन्त बाईस तीर्थकरोंने 'सामायिक' संयमका और ऋषभदेव तथा महावीर भगवानने 'छेदोपस्थापना' संयमका उपदेश दिया है। यहाँ मूल गाथामें दो जगह 'च' (य) शब्द श्राया है। एक चकारसे परिहारविशुद्धि प्रादि चारित्रका भी ग्रहण किया जा सकता है। और तब यह निष्कर्ष निकलता है कि ऋषभदेव और महावीर भगवानने सामायिकादि पाँच प्रकारसे चारित्रका प्रतिपादन किया है, जिसमें छेदोपस्थापनको यहां प्रधानता है । शेष वाईस तीर्थंकरोंने केवल सामायिक चारित्रका या छेदोपस्थापनाको छोड़कर शेष सामायिकादि चार प्रकारके चारित्रका प्रतिपादन किया है । अस्तु । प्रादि र मन्तके दोनों तीर्थंकरोंने छेदोपस्थापन संयमका प्रतिपादन क्यों किया है? इसका उत्तर प्राचार्यमहोदय श्रागेकी दो गायामों में इस प्रकार देते हैं: Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश आचक्रिवदुविभजिदुविण्णादु चावि सुहदरं होदि । एदेण कारणेण दु महव्वदा पंच पएणत्ता ।। ३३ ।। आदीए दुव्विसोधणे णिहणे तह सुहु दुरगुपालेया। पुरिमा य पच्छिमा वि हु कप्पाकप्पं ण जाणंति ॥ ३४ ॥ टीका-".... यस्मादन्यस्म प्रतिपादयितु स्वेच्छानुष्ठातु विभक्तु विज्ञातु चापि भवमि सुखतरं सामायिकं तेन कारणेन महाव्रतानि पंच प्रज्ञतानीति ॥३३॥" "पादितीर्थे शिष्या दुःखेन शोध्यन्ते सुष्ठु ऋजुस्वभावा यतः। तथा च पश्चिमतीर्थे शिष्या दुःखेन प्रतिपाल्यन्ते सुष्ठु वक्रस्वभावा यत: । पूर्वकालशिष्याः पश्चिमकालशिष्याश्च अपि स्फुट कल्पं योग्यं अकल्पं अयोग्यं न जानन्ति यतस्तत आदी निधने च छेदोपस्थापनमुपदिशत इति ॥ ३४ ॥" ___ अर्थात्-पाँच महाव्रतों (छेदोपस्थापना ) का कथन इस वजहमे किया गया है कि इनके द्वारा सामायिकका दूसरोंको उपदेश देना, स्वयं अनुष्ठान करना, पृथक् पृथक् रूपमे भावनामें लाना और सविशेषरूपसे समझना सुगम हो जाता है। पादिम तीर्थमे शिष्य मुश्किलसे शुद्ध किये जाते हैं; क्योंकि वे अतिशय सरलस्वभाव होते हैं । और अन्तिम तीर्थमें शिष्यजन कठिनतासे निर्वाह करते हैं; क्योंकि वे अतिशय वत्रस्वभाव होते हैं । साथ ही, इन दोनों समयोंके शिष्य स्पष्टरूपमे योग्य अयोग्यको नहीं जानते हैं। इसलिये श्रादि और अन्त के तीर्थम इस छेदोपस्थापनाके उपदेशकी जरूरत पैदा हुई है। यहांपर यह भी प्रकट कर देना ज़रूरी है कि छेदोपस्थापनामें हिंसादिकके भेदसे समस्त सावद्यकर्मका त्याग किया जाता है । इसलिये छेदोषस्थापनाकी ॐ इससे पहले, टीकामें, गाथाका शब्दार्थ मात्र दिया है। + 'तत्त्वार्थराजवार्तिक' में भट्टाकलंकदेवने भी छेदोपस्थापनाका ऐसा ही स्वरूप प्रतिपादन किया है । यथा: “सावद्य कर्म हिंसा दिभेदेन विवल्पनिवृत्तिः छेदोपस्थापना ।" इसी ग्रन्थमें अकलंकदेवने यह भी लिखा है कि सामायिककी अपेक्षा व्रत एक है और छेदोपस्थापनाकी अपेक्षा उसके पांच भेद हैं । यथाः Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - जैनतीर्थकरोंका शासनभेद 'पंचमहाव्रत' संज्ञा भी है, और इसी लिये प्राचार्यमहोदयने गाथा नं. ३३ में छेदोपस्थापनाका 'पंचमहाव्रत' शब्दोंसे निर्देश किया है । अस्तु । इसी ग्रन्थमें, मागे 'प्रतिक्रमण' का वर्णन करते हुए, श्रीवट्टकेरस्वामीने यह भी लिखा है: सपडिकमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स जिणस्स । अवराहपडिक्कमणं मज्झिमयाणं जिणवराणं ।। ७-१२५ ।। जावे दु अप्पणो वा अण्णदरे वा भवे अदीचारो। तावे दुपडिक्कमणं मज्झिमयाणं जिणवराणं ।। १२६ ।। इरियागोयरसुमिणादि सव्यमाचरद् मा व आचरदु । पुरिमचरिमा दु सव्वे मव्वे णियमा पडिक्कमदि ॥ १२७ ॥ अर्थात्--पहले और अन्तिम तीर्थकरका धर्म, अपराधके होने और न होनेकी अपेक्षा न करके, प्रतिक्रमण-सहित प्रवर्तता है। पर मध्यके बाईस तीर्थकरोंका धर्म अपराधके होने पर ही प्रतिक्रमणका विधान करता है । क्योंकि उनके समयअपराधकी बहुलता नहीं होती। मध्यवर्ती तीर्थकरों के समयमे जिम वनमे अपने "सर्वसावद्यनिवृत्तिलक्षणमामायिकापेक्षया एकं व्रत, भेदपरतंत्रच्छेदोपस्थापनापेक्षया पंचविधं व्रतम् ।" श्रीपूज्यपादाचार्यने भी 'सर्वार्थसिद्धि' में ऐसा ही कहा है। इसके मिवाय, श्रीवीरनन्दी प्राचार्यने, 'प्राचारमार' ग्रन्यके पांचवें अधिकारमें, छेदोषस्थापनाका जो निम्न स्वरूप वर्णन किया है उससे इस विषयका और भी स्पष्टीकरगा हो जाता है । यथाः-- व्रत-समिति-गुप्तिगैः पच पंच त्रिभिर्मतैः ।। छेदैर्भदैरुपेत्यार्थ स्थापनं स्वस्थितिक्रिया ॥ ६ ॥ छेदोपस्थापनं प्रोक्तं सर्वमावद्यवर्जने । व्रत हिसाऽनृतस्तेयाऽब्रह्मसंगेवमगमः ॥ ७ ॥ अर्थात्-पांच व्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति नामके छेदों-भेदोंके द्वारा अर्थको प्राप्त होकर जो अपने प्रात्मामें स्थिर होने रूप क्रिया है उसको छेदोपस्थापना या छेदोपस्थापन कहते हैं । समस्त सावद्यके त्यागमें छेदोपस्थापनाको हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन (प्रब्रह्म) और परिग्रहसे विरतिरूप व्रत कहा है। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश या दूसरोंके प्रतीचार लगता है उसी व्रतसम्बन्धी प्रतीचारके विषयमें प्रतिक्रमण किया जाता है । विपरीत इसके, आदि और अन्तके तीर्थंकरों ( ऋषभदेव और महावीर ) के शिष्य ईर्ष्या, गोचरी और स्वप्नादिसे उत्पन्न हुए समस्त प्रतिचारोंका आचरण करो अथवा मत करो उन्हें समस्त प्रतिक्रमरण - दण्डकोंका उच्चारण करना होता है । यादि और अन्तके दोनों तीर्थकरोंके शिष्योंको क्यों समस्त प्रतिक्रमण - दण्डकोंका उच्चारण करना होता है और क्यों मध्यवर्ती तीर्थंकरों के शिष्य वैसा आचरण नहीं करते ? इसके उत्तरमें आचार्य महोदय लिखते हैं:ममिया दिबुद्धी एयग्गमणा अमोह्लक्खा य । तम्हा हु जमाचरंति तं गरहंता विसुज्यंति ॥ १२८ ॥ पुरिम-चरमा दु जम्हा चलचित्ता चेव मोहलक्खा य । तो सव्वपडिक्कम अंधलयघोडयदि तो ॥ १२६ ॥ ७० अर्थात् - मध्यवर्ती तीर्थकरोंके शिष्य विस्मरणशीलतारहित दृढबुद्धि, स्थिरचित्त और मूढतारहित परीक्षापूर्वक कार्य करनेवाले होते हैं । इसलिये प्रकटरूपसे वे जिस दोषका आचरण करते हैं उस दोषके विषयमें ग्रात्मनिन्दा करते हुए शुद्ध हो जाते हैं । पर यदि और अन्तके दोनों तीर्थकरोंके शिष्य चलचित्त, विस्मरण शील और मूढमना होते हैं - शास्त्रका बहुत बार प्रतिपादन करनेपर भी उसे नहीं जान पाते । उन्हें क्रमश: ऋजुजड और वक्रजड समझना चाहिये – इसलिये उनके समस्त प्रतिक्रमणदण्डकोंके उच्चारणका विधान किया गया है और इस विषय में अन् घोड़ेका दृष्टान्त बतलाया गया है। टीकाकारने इस दृष्टान्तका जो स्पष्टीकरण किया है उसका भावार्थ इस प्रकार है 'किसी राजाका घोड़ा अन्धा हो गया । उक्त राजाने वैद्यपुत्रसे घोड़ेके लिये औषधि पूछी। वह वैद्यपुत्र वैद्यक नही जानता था, और वैद्य किसी दूसरे ग्राम गया हुआ था । अतः उस वैद्यपुत्रने घोडेकी प्राँखको प्राराम पहुँचानेवाली समस्त श्रौषधियों का प्रयोग किया और उनसे वह घोड़ा नीरोग हो गया । इसी तरह साधु भी एक प्रतिक्रमणदण्डकमें स्थिरचित्त नहीं होता हो तो दूसरेमें होगा, दूसरेमें नहीं तो तीसरेमें, तीसरेमें नहीं तो चौथेमें होगा. इस प्रकार सर्वप्रतिक्रमण - दण्डकोंका उच्चारण करना न्याय है । इसमें कोई विरोध नहीं है; क्योंकि सब ही प्रतिक्रमरण- दण्डक कर्मके क्षय करनेमें समर्थ हैं । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थंकरोंका शासनभेद . ७१ ___मूलाचारके इस सम्पूर्ण कथनसे यह बात स्पष्टतया विदित होती है कि समस्त जैनतीर्थंकरोंका शासन एक ही प्रकारका नहीं रहा है। बल्कि समयकी आवश्यकतानुसार-लोकस्थितिको देखते हुए-उसमें कुछ परिवतेन ज़रूर होता रहा है । और इसलिये जिन लोगोंका ऐसा खयाल है कि जैनतीर्थकरोंके उपदेशमें परस्पर रंचमात्र भी भेद या परिवर्तन नहीं होताजो वचनवर्गणा एक तीर्थकरके मुंहसे खिरती है वही अँची तुली दूसरे तीर्थंकरके मुहसे निकलती है, उसमें जरा भी फेरफार नहीं होता-वह खयाल निर्मूल जान पड़ता है। शायद ऐसे लोगोंने तीर्थंकरोंकी वाणीको फोनोग्राफके रिकाडोंमें भरे हुए मैटर (मज़मून) के सदृश समझ रक्खा है ! परन्तु वास्तवमें ऐसा नहीं है । ऐसे लोगोंको मूलाचारके उपर्युक्त कथनपर खूब ध्यान देना चाहिये । ___पं० आशाधरजीने भी, अपने 'अनगारधर्मामृत' ग्रन्थ और उसकी स्वोपज्ञ टीकामें, तीर्थकरोंके इस शासनभेदका उल्लेख किया है । जैसा कि आपके निम्नवाक्योंसे प्रकट है: ' प्रादिमान्तिमतीर्थकरावेव व्रतादिभेदेन सामायिकमुपदिशतः स्म नाऽजितादयो द्वाविंशतिरिति सहेतुकं व्याचष्टे दुःशोधमृजुजडैरिति पुरुरिव वीरोऽदिशद्वतादिभिदा । दुष्पालं वक्रजडैरिति साम्यं नापरे सुपटुशिष्याः ॥६-८७॥ टीका-अदिशदुपदिष्टवान् । कोऽसौ ? वीरोऽन्तिमतीर्थकरः । किं तत् ? साम्यं सामायिकास्यं चारित्रम् कया ? व्रतादिभिदा व्रतसमितिगुप्तिभेदेन । कुतो हेतोः ? इति । किमिति ? भवति । किं तत् ? साम्यम् । कीदृशम् ? दुष्पालं पालयतुमशक्यम् । कै: ? वजडैरनार्जवजाड्योपेतः शिष्यर्ममेति । क इव ? पुरुरिव । इव शब्दो यथाऽर्थः । यथा पुरुरादिनाथः साम्यं व्रतादिभिदाऽदिशत् । कुतो हेतो: ? इति । किमिति ? भवति । किं तत् ? साम्यं । कीदृशम् ? दुःशोधं शोधयितुमशक्यम् । कैः ऋजुजडैराजवजाड्योपेतैः शिष्यर्ममेति । तथाऽपरेऽजितादयो द्वाविंशतिस्तीर्थकरा व्रतादिभिदा साम्यं नादिशन् । साम्यमेव व्रतमिति कथयन्ति स्म स्वशिष्याणामग्रे । कीदृशास्ते ? सुपटुशिष्याः यतः ऋजुवकजडत्वाभावात् सुष्ठु पटवो व्युत्पन्नतमाः शिष्या येषां त एवम् ।" x X Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश निन्दागर्हालोचनाभियुक्तो युक्तेन चेतसा। __पठेद्वा शृणुयाच्छुद्धय कर्मघ्नान् नियमान् समान् ॥८-६२॥ ____टीका-पठेदुच्चरेत् माधुः शृणुयाद्वा प्राचार्यादिभ्यं आकर्णयेत् । कान् ? नियमान् प्रतिक्रमणदण्डकान् । किविशिष्टान् ? समान सर्वान् । ........इदमत्र तात्पर्य, यस्माददंयुगीना दुःखमाकालानुभावाद्वक्रजटीभूताः स्वयमपि कृतं व्रताद्यतिचारं न स्मरन्ति चलचित्तत्वाच्चासकृत्प्रायशोपराध्यन्ति तस्मादीर्यादिषु दोषो भवतु वा मा भवतु तैः सर्वातिचारविशुद्धयर्थ सर्वे प्रतिक्रमणदण्डकाः प्रयोक्तव्याः । तेषु यत्र क्वचिच्चित्तं स्थिरं भवति तेन सर्वोऽपि दोषो विशोध्यते । ते हि सर्वेऽपि कर्मघातसमर्थाः । तथा चोक्तम् सप्रतिक्रमणो धर्मो जिनयोरादिमान्ययोः । अपराधे प्रतिक्रान्तिमध्यमानां जिनेशिनाम् ।। यदोपजायते दोप आत्मन्यन्यतरत्र वा। तदैव स्यात्प्रतिक्रान्तिमध्यमानां जिनशिनाम् ।। ईर्यागोचरदुःस्वप्नप्रभृतौ वर्ततां न वा । पौरस्त्यपश्चिमाः सर्व प्रतिक्रामन्ति निश्चितम् ।। मध्यमा एकचित्ता यदमूढढवुद्धयः । आत्मनानुष्ठितं तम्माद्गहमारणाः सृजन्ति तम् ।। पौरस्त्यपश्चिमा यस्मात्समाहाश्चलतमः ।। ततः सर्व प्रतिक्रान्तिरन्धोऽश्वाऽत्र निदशनम् ॥" और श्रीपूज्यपादाचार्यने, अपनी 'चारित्रभक्ति' में, इस विषयका एक पद्य निम्नप्रकारसे दिया है:-- तिस्रः सत्तमगुपयस्त नुमनाभापानिमित्तादयाः पंचेर्यादिसमाश्रयाः ममितयः पंचव्रतानीत्यपि । * ये पाचों पद्य, जिन्हें पं० आशाधरजी अपने कथनके ममर्थनमें उद्धृत किया है, विक्रमकी प्रायः १३वीं शताब्दीसे पहलेके बने हुए किसी प्राचीन ग्रन्थके पद्य हैं। इनका सब आशय क्रमशः वही है जो मूलाचारकी उक्त गाथा नं० १२५ से १२६ का है। इन्हें उक्त गाथानोंकी छाया न कहकर उनका पद्यानुवाद कहना चाहिये। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थंकरोंका शासनभेद चारित्रोपहितं त्रयोदशतयं पूर्वं न दिष्ट परैराचारं परमेष्ठिनो जिनपतेर्वोरान्नमामो वयम् ॥७॥ ७३ इसमें कायादि तीन गुतियों, ईर्यादि पंच समितियों और अहिंसादि पंच महाव्रत के रूपमें त्रयोदश प्रकारके चारित्रको 'चारित्राचार' प्रतिपादन करते हुए उसे नमस्कार किया है और साथ ही यह बतलाया है कि 'यह तेरह प्रकारका चारित्र महावीर जिनेन्द्रसे पहले के दूसरे तीर्थकरों द्वारा उपदिष्ट नहीं हुआ है' — अर्थात्, इस चारित्रका उपदेश महावीर भगवान्ने दिया है, और इसलिये यह उन्हींका खास शासन है । यहाँ 'वीरात् पूर्वं न दिष्टं परैः' शब्दों परसे, यद्यपि, यह स्पष्ट ध्वनि निकलती है कि महावीर भगवान्से पहलेके किसी भी तीर्थंकरने — ऋषभदेवने भी इस तेरह प्रकारके चारित्रका उपदेश नहीं दिया है, परन्तु टीकाकार प्रभाचन्द्राचार्यने 'परैः' पदके वाच्यको भगवान् 'अजित' तक ही सीमित किया है-- ऋषभदेव तक नही अर्थात्, यह सुझाया है किपार्श्वनाथ से लेकर अजितनाथपर्यंत पहनेके बाईस तीर्थकरोंने इस तरह प्रकारके चारित्रका उपदेश नहीं दिया है--उनके उपदेशका विषय एक प्रकारका चारित्र ( सामायिक) ही रहा है- यह तेरह प्रकारका चारित्र श्रीवर्धमान महावीर और आदिनाथ (ऋषभदेव ) द्वारा उपदेशित हुआ है। जैसा कि आपकी टीकाके निम्न अंश प्रकट है: -- 66 परैः अन्यतीर्थंकरैः । कस्मात्परैः ? वीरादन्यतीर्थंकरात् । किंविशिष्टात् ? जिनपतेः। परैरजिनादिभिर्जितनाथैख दशभेदभिन्नं चारित्रं न कथितं सर्वसावद्यविरतिलक्षरणमेकं चारित्र तैर्विनिदिष्ट तत्कालीन शिष्याणां ऋजुवक्रजडमतित्वाभावात् । वर्धमानस्वामिना तु वक्रजडमतिभव्याशयवशात् प्रादिदेवेन तु ऋजुमतिविनेयवशात् त्रयोदशविधं निर्दिष्ट ग्राचारं नमामो वयम् ।" संभव है कि 'परैः' पदकी इस सीमाके निर्धारित करनेका उद्देश्य मूलाचारके साथ पूज्यपादके इस कथनकी संगतिको ठीक विठलाना रहा हो । परन्तु वास्तव में यदि इस सीमाको न भी निर्धारित किया जाय और यह मान लिया जाय कि ऋषभदेवने भी इस त्रयोदशविधरूपमे चारित्रका उपदेश नहीं दिया है। तो भी उसका मूलाचार के साथ कोई विरोध नही आता है । क्योंकि यह हो सकता है कि ऋषभदेवने पंचमहाव्रतोंका तो उपदेश दिया हो — उनका छेदोप - Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४. जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश स्थापना संयम अहिंसादि पंचभेदात्मक ही हो-किन्तु पंचसमितियों और तीन गुप्तियोंका उपदेश न दिया हो, और उनके उपदेशकी ज़रूरत भगवान् महावीरको ही पड़ी हो । और इसी लिये उनका छेदोपस्थापन संयम इस तेरह प्रकारके चारित्रभेदको लिये हुए हो, जिसकी उनके नामके साथ खास प्रसिद्धि पाई जाती है। परन्तु कुछ भी हो, ऋषभदेवने भी इस तेरह प्रकारके चारित्रका उपदेश दिया हो या न दिया हो, किन्तु इसमें तो सन्देह नहीं कि शेष बाईस तीर्थंकरोंने ' उसका उपदेश नहीं दिया है। 'यहाँपर इतना और भी बतला देना जरूरी है कि भगवान महावीरने इस तेरह प्रकारके चारित्रमेसे दस प्रकारके चारित्रको-पंचमहाव्रतों और पंचसमितियोंको--मूलगुणोंमें स्थान दिया है । अर्थात्, साधुओंके अट्ठाईस मूलगुणोंमें दस'मूलगुण इन्हें क़रार दिया है। तब यह स्पष्ट है कि श्रीपार्श्वनाथादि दूसरे तीर्थंकरोंके मूलगुण भगवान महावीरद्वारा प्रतिपादित मूलगुणोंसे भिन्न थे और उनकी संख्या भी अट्ठाईस नहीं हो सकती-दसकी सख्या तो एकदम कम हो ही जाती है; और भी कितने ही मूलगुण इनमें ऐसे है जो उस समयके शिष्योंकी उक्त स्थितिको देखते हुए अनावश्यक प्रतीत होते हैं । वास्तवमें मूलगुणों और उत्तरगुरणोंका साहा विधान समयसमयके शिष्योंकी योग्यता और उन्हें तत्तत्कलीन परिस्थितियोंमें सन्मार्गपर स्थिर रख सकनेकी आवश्यकतापर अवलम्बित रहता है। इस दृष्टिसे जिस समय जिन व्रतनियमादिकोंका आचरण सर्वोपरि मुख्य तथा प्रावश्यक जान पड़ता है उन्हें मृलगुग्ण करार दिया जाता है और शेषको उत्तर * अट्ठाईस मूलगुणोंके नाम इसप्रकार हैं: १ अहिंसा, २ सत्य, ३ अस्तेय, ४ ब्रह्मचर्य, ५ अपरिग्रह (ये पांच महावत); ६ ईर्या, ७ भाषा, ८ एषणा, ६ आदाननिक्षेपण, १० प्रतिष्ठापन, ( ये पांच समिति); ११-१५ स्पर्शन-रसन-ध्राण-चक्षु-श्रोत्र-निरोध ( ये पंचेंद्रियनिरोध); १६ सामायिक, १७ स्तव, १८ वन्दना, १६ प्रतिक्रमण, २० प्रत्याख्यान, २१ कायोत्सर्ग (ये षडावश्यक क्रिया); २२ लोच, २३ प्राचेलक्य, २४ अस्नान, २५ भूशयन, २६ प्रदन्तघर्षण, २७ स्थितिभोजन, और २८ एकभक्त । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www - hnwr जैनतीर्थकरोंका शासनभेद ७५ गुण । इसीसे सर्व समयोंके मूलगुण कभी एक प्रकारके नहीं हो सकते । किसी समयके शिष्य संक्षेपप्रिय होते हैं अथवा थोड़ेमें ही समझ लेते हैं और किसी समयके विस्ताररुचिवाले अथवा विशेष खुलासा करनेपर समझनेवाले । कभी लोगोंमें ऋजुजडताका अधिक संचार होता है, कभी वक्रजडताका और कभी इन दोनोंसे अतीत अवस्था होती है। किसी समयके मनुष्य स्थिरचित्त, दृढबुद्धि और बलवान होते हैं और किसी समयके चलचित्त, विस्मरणशील और निर्बल । कभी लोकमें मूढता बढ़ती है और कभी उसका ह्रास होता है । इसलिये जिस समय जैसी जैसी प्रकृति और योग्यताके शिष्योंकी-उपदेशपात्रोंकी-बहुलता होती है उस उस वक्तकी जनताको लक्ष्य करके तीर्थंकरोंका उसके उपयोगी वैसा ही उपदेश तथा वैसा ही व्रत-नियमादिकका विधान होता है। उसीके अनुसार मूलगुणोंमें भी हेरफेर हुअा करता है। परन्तु इस भिन्न प्रकारके उपदेश, विधान या शासनमें परस्पर उद्देश्य-भेद नहीं होता । समस्त जैन तीर्थंकरोंका वही मुख्यतया एक उद्देश्य 'आत्मासे कममलको दूर करके उसे शुद्ध, सुखी, निर्दोष और स्वाधीन बनाना' होता है । दूसरे शब्दोंमें यों कहिये कि संसारी जीवोंको मंमार-रोग दूर करनेके मार्गपर लगाना ही जैनतीर्थक गेंके जीवनका प्रधान लक्ष्य होता है । अस्तु । एक रोगको दूर करनेके लिये जिस प्रकार अनेक औषधियाँ होती हैं और वे अनेक प्रकारसे व्यवहारमें लाई जाती हैं; रोग शान्तिके लिये उनमेसे जिस वक्त जिस औपधिको जिस विधिसे देनेकी ज़रूरत होती है वह उस वक्त उसी विधिसे दी जाती हैइसमें न कुछ विरोध होता है और न कुछ बाधा आती है । उसी प्रकार संसाररोग या कर्म-रोगको दूर करनेके भी अनेक साधन और उपाय होते हैं, जिनका अनेक प्रकारसे प्रयोग किया जाता है । उनमेंसे तीर्थकर भगवान् अपनी अपनी समयकी स्थितिके अनुसार जिस जिस उपायका जिस जिस रीतिसे प्रयोग करना उचित समझते हैं उसका उसी रीतिसे प्रयोग करते हैं। उनके इस प्रयोगमें किसी प्रकारका विरोध या बाघा उपस्थित होनेकी संभावना नहीं हो सकती। इन्हीं सब बातोंपर मूलाचारके विद्वान् प्राचार्यमहोदयने, अपने ऊपर उल्लेख किये हुए वाक्यों-द्वारा अच्छा प्रकाश डाला है और अनेक युक्तियोंसे जैनतीर्थकरोंके शासनभेदको भले प्रकार प्रदर्शित और सूचित किया है । इसके सिवाय, दूसरे Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ~ ~-AA " जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश विद्वानोंने भी इस शासनभेदको माना तथा उसका समर्थन किया है, यह और भी विशेषता है। श्वेताम्बर-मान्यता । श्वेताम्बरोंके यहां भी जनतीर्थंकरोंके शासनभेदका कितना ही उल्लेख मिलता है, जिसके कुछ नमूने इस प्रकार हैं: (१) 'अावश्यकनियुक्ति' में, जो भद्रबाहु श्रुतकेवलीकी रचना कही जाती है, दो गाथाएं निम्नप्रकारसे पाई जाती है-- सपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स । मझिमयाण जिणाणं कारणजाए पडिक्कमणं ।।१२४४।। बावीसं तित्थयरा सामाइयसंजमं उवइसति । छेओवट्ठावणयं पुण वयन्ति उसमो य वीरो य ।।१२४६।। ये गाथाएँ साधारणमे पाठभेदके साथ, जिमसे कोई अर्थभेद नहीं होता, वे ही है जो 'मूलाचार' के ७वें अध्यायमें क्रमश: नं० १२५ और ३२ पर पाई जाती है। और इमलिये, इस विषयमें, नियुक्तिकार और मूलाचारके कर्ता श्रीवट्टकेराचार्य दोनोंका मत एक जान पड़ता है। (२) 'उत्तराध्ययनमूत्र' में 'केशि-गौतम-संवाद' नामका एक प्रकरण (२३वा अध्ययन) है, जिसमें मबमे पहले पार्श्वनाथके शिष्य (तीर्थ शिष्य) केशी स्वामीने महावीर-शिष्य गौतम गणधरसे दोनों तीर्यकरोंके शासनभेदका कुछ उल्लेख करते हुए उसका कारगा दर्याफ्त किया है और यहाँतक पूछा है कि धर्मकी इस द्विविधप्ररूपरणा अथवा मतभेद पर क्या तुम्हें कुछ अविश्वाम या संशय नहीं होता है ? तब गौतमस्वामीने उसका समाधान किया है । इस संवादके कुछ वाक्य (भावविजयगणीकी व्याख्यासहित ) इस प्रकार है: चा उज्जामो अ जो धम्मो, जो इमो पंचमिक्खियो। देसिओ वड्ढमाणेणं, पासेण य महामुग्णी ॥ २३ ।। व्याख्या-चतुर्यामो हिंसानृतस्तेयपरिग्रहोपरमात्मक-व्रतचतुष्करूपः, पंचशिक्षितः स एव मैथुनविरतिरूपपंचमहाव्रतान्वितः ॥२३॥ * 'कारणाजाते' अपराध एवोत्पन्ने सति प्रतिक्रमणं भवति- इति हरिभद्रः । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थकरों का शासनभेद एककज्जपवन्नाणं, विसेसे किं नु कारणं । धम्मे दुवि मेहावी ! कहं विप्पच न ते ? ||२४|| व्याख्या- 'धम्मेति' इत्थं धर्मे साधुधर्मे द्विविधे हे मेधाविन् कथं विप्रत्ययः अविश्वासो न ते तव ? तुल्ये हि सर्वज्ञत्वे किं कृतोऽयं मतभेदः ? इति ॥ २४ ॥ एवं तेनोक्त ७७ तो सिंबुवंतंतु, गोमो इरणमव्यवी । पणा समिक्ख धम्मं तत्तं तत्तविणिच्छयं ||२५|| व्याख्या -- ' बुवंतं तु त्ति' ब्रुवन्तमे वाऽनेनादरातिशयमाह, प्रज्ञाबुद्धिः समीक्ष्यते पश्यति, किं तदित्याह - धम्मं - तत्तंति' बिन्दोर्लोपे धर्मतत्त्वं धर्मपरमार्थ, तत्त्वानां जीवादानां विनिश्वयो यस्मात्तत्तथा, ग्रयं भावः न वाक्यश्रवरणमात्रादेवार्थ निर्णयः स्यात्किन्तु प्रज्ञावादेव ||२५|| ततश्च - पुरिमा उज्जुजडा उ, वक्कजडा य पच्छिमा । मज्झिमा उज्जुपराउ, ते धम्मे दुहा कए ||२६|| व्याख्या- 'पुरिमेति पूर्वे प्रथमजिनमुनयः ऋजवश्च प्राजलतया जडाश्च दुष्प्रजापतया ऋजुजडा:, 'तु' इति यम्माद्धेतोः वक्राश्च वक्रप्रकृतित्वाजडाश्च निजानेककुविकल्पः विवक्षितार्थावगमाक्षमन्वादकजडाः च समुच्चये, पश्चिमाः पश्चिमजिनतनयाः । मध्यमास्तु मध्यमार्हतां माधवः ऋजवरच ते प्रज्ञाश्च सुबोधत्वेन ऋजुप्रज्ञा: । तेन हेतुना धर्माद्विधा कृतः । एककार्य प्रपन्नत्वेपि इति प्रक्रमः ||२६|| यदि नाम पूर्वादिमुनीनामीदृशत्वं तथापि कथमेतदुः विघ्यमित्याह पुरिमाणं दुव्विसोझो उ, चरिमाणं दुरगुपाल । कप्पो मज्झिमाणं तु, सुविसोको सुपाल ||२७|| व्याख्या- -पूर्वेषां दुःखेन विशोध्यो निर्मलता नेतु ं शक्यो दुविशोध्यः, कल्पइति योज्यते, ते हि ऋजुजडत्वेन गुरुणानुशिष्यमारणा अपि न तद्वाक्यं सम्यगव - बोद्ध प्रभवन्तीति तु पूर्ती । चरमागां दुःखेनानुपाल्यते इति दुरनुपालः स एव दुरनुपालः कल्पः साध्वाचारः । ते हि कथंचिजानन्तोऽपि वक्रजडत्वेन न यथावदनुष्ठातुमीशते । मध्यमकानां तु विशोध्यः सुपालकः कल्प इतीहापि योज्यं, ते हि ऋजुप्रज्ञत्वेन सुखेनैव यथावजानन्ति पालयन्ति च अतस्ते चतुर्यामोक्तावपि Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश पंचममपि यामं ज्ञातु पालयितुच क्षमाः । यदुक्त-"नो अपरिग्गहिआए, इत्थीएं जेण होइ परिभोगो । ता तबिरईए च्चिन, प्रबंभविरइत्ति पवणाणं ॥१॥ इति तदपेक्षया श्रीपार्श्वस्वामिना चतुर्यामो धर्म उक्तः पूर्वपश्चिमास्तु नेहशा इति श्रीऋषभश्रीवीरस्वामिम्यां पंचव्रतः । तदेवं विचित्रप्रज्ञविनेयानुग्रहाय धर्मस्य द्वविध्यं न तु तात्त्विकं । प्राद्यजिनकथनं चेह प्रसंगादिति सूत्रपंचकार्थः ।।२७॥ इस संवादकी २६वीं और २७वीं गाथामें शासनभेदका जो कारण बतलाया गया है-भेदमें कारणीभूत तत्तत्कालीन शिष्योंकी जिस परिस्थितिविशेषका उल्लेख किया गया है-वह सब वही है जो मूलाचारादि दिगम्बर ग्रन्थोंमें वरिणत है। बाकी, पार्श्वनाथके 'चतुर्याम' धर्मका जो यहाँ उल्लेख किया गया है उसका प्राशय यदि वही है जो टीकाकारने अहिंसादि चार व्रतरूप बतलाया है, तो वह दिगम्बर सम्प्रदायके कथनसे कुछ भिन्न जान पड़ता है। हो सकता है कि पंच प्रकारके चारित्रमेंसे छेदोपस्थापनाको निकाल देनेसे जो शेष चार प्रकारका चारित्र रहता है उसीसे उसका अभिप्राय रहा हो और बादको आगमाविहित चारित्र-भेदोंके स्थानपर व्रत-भेदोंकी कल्पना कर ली गई हो। (३) 'प्रज्ञापनासूत्र' की मलयगिरि-टीकामें भी तीर्थकरोंके शासन भेदका कुछ उल्लेख मिलता है । यथा: "यद्यपि सर्वमपि चारित्रमविशेषतः सामायिक तथापि छेदादिविशेविशिष्यमारणमर्थतः शब्दान्तरतश्च नानात्वं भजते, प्रथमं पुनरविशेषणात् सामान्यशब्द एवावतिष्ठते सामायिकमिति तच्च द्विधा-इत्वर यावत्कथिकं च, तन्वरं भरतरावतेषु प्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थप्वानारोपितमहाव्रतस्य शक्षकस्य विज्ञेयं, यावत्कथिकं च प्रव्रज्याप्रतिपत्तिकालादारभ्याप्राणोपरमात्, तच्च भरतरावतभाविमध्यद्वाविंशतितीर्थकरतीर्थान्तरगतानां विदेहतीर्थकरतीर्थान्तरगतानां च साधूनामवसेयं तेषामुपस्थापनाया प्रभावात् । उक्त च सव्वमिणं सामाइय छयाइविसेसियं पुण विभिन्नं । अविसेसं सामाइय ठियमिय सामन्नसन्नाए ॥शा सावजजोगविरद त्ति तत्थ सामाइयं दुहा तं च । इत्तरमावकहं ति य पढमंतिमजिणाणं ॥२॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थंकरों का शासनभेद तित्थे णारोवियवयस्स सेहस्स थोवकालीयं । सारण यावकहियं तित्थेसु विदेहयाणं च ॥ ३ ॥ ७६ तथा छेदः पूर्वपर्यायस्य उपस्थापना च महाव्रतेषु यस्मिन् ' चारित्रे तच्छेदोपस्थापनं तच्च द्विविधा -- सातिचारं निरतिचारं च तत्र निरतिचारं यदित्वरसामायिक शैक्षकस्य श्रारोप्यते तीर्थान्तरसंक्रान्तो वा यथा पार्श्वनाथतीर्थाद् वर्षमानतीर्थं संक्रामतः पंचयामप्रतिपत्ती, सातिचारं यन्मूलगुरणधातिनः पुनर्द्र तोच्चारणं, उक्तं च- सेहम्स निरइयारं तित्थंतरसंक्रमे व तं होज्जा । मूलगुणघाइणो साइयारमुभयं च ठियकप्पे ||१|| 'उभयं चेति' सातिचारं निरतिचारं च 'स्थितकल्पे' इति प्रथमपश्चिमतीथंकर - तीर्थकाले ।" इस उल्लेखमें जितसे पार्श्वनाथपर्यंत बाईस तीर्थंकरोंके साघुग्रोंके जो छेदोपस्थापनाका प्रभाव बतलाया है और महाव्रतों में स्थित होनेरूप चारित्रंको छेदोपस्थापना लिखा है वह मूलाचारके कथनसे मिलता जुलता है । शेष कथेनको विशेष अथवा भिन्न कथन कहना चाहिये । आशा है इस लेखको पढ़कर सर्वसाधारण जैनी भाई सत्यान्वेपी और अन्य ऐतिहासिक विद्वान् ऐतिहासिक क्षेत्रमें कुछ नया अनुभव प्राप्त करेंगे और साथ ही इस बातकी खोज लगायेंगे कि जैनतीर्थंकरोंके शासनमें और किन किन बातोंका परस्पर भेद रहा है । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ श्रुतावतार कथा ( 'धवल' और 'जयधवल' के आधार पर ) REA श्रीवीर-हिमाचलसे श्रुत- गंगाका जो निर्मल स्रोत बहा है वह अन्तिम श्रुतकेवली श्रीभद्रबाहुस्वामी तक अविच्छिन्न एक धारामें चला आया है, इसमें किसीको विवाद नही है । बादको द्वादश वर्षीय दुभिक्षादिके कारण मतभेदरूपी एक चट्टान बीचमें जाने से वह धारा दो भागों में विभाजित होगई, जिनमें से एक दिगम्बर और दूसरी श्वेताम्बर शाखाके नामसे प्रसिद्ध हुई। दोनों ही शाखाओंमें अपनी-अपनी तात्कालिक जरूरत और तरीक़तके अनुसार अवतरित श्रुतलकी रक्षाका प्रयत्न हुआ; किन्तु ग्रहरण-धारणकी शक्तिके दिनपर दिन कम होते जाने और देशकालकी परिस्थितियों अथवा रक्षरणादि-विषयक उपेक्षाके कारण कोई भी विद्वान् उस श्रुतको अपने अविकल द्वादशांग - रूप में सुरक्षित नहीं रख सका और इसलिये उसका मूल शरीर प्रायः क्षीण होता चला गया । जिस-जिस अवधिपर पुनः निबद्ध संगृहीत अथवा लिपिबद्ध होनेके कारण वह और अधिक क्षीण होनेसे बचा है उसकी कथाएँ दोनों ही सम्प्रदायोंमें पाई जाती हैं । दिगम्बर सम्प्रदायमें इस श्रुतावतारके जो भी प्रकरण उपलब्ध हैं उनमें इन्द्रनन्दिका श्रुतावतार* अधिक प्रसिद्ध है । इस श्रुतावतारमे अन्तिम अवधिके तौरपर उन ** यह ग्रन्थ माणिकचन्द दिगम्बर जैन ग्रन्थमालाके त्रयोदश ग्रन्थ 'तत्त्वानुशासनादि - संग्रह' में मुद्रित हुआ है । उसीपरसे उसके विषयोंका यहाँ उल्लेख किया गया है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतावतार-कथा दो सिद्धान्तागमोंके अवतारकी कथा दी गई है जिन पर अन्तको 'धवला' और 'जयधवला' नामकी विस्तृत टीकएं--क्रमशः ७२ हजार तथा ६० हजार श्लोकपरिमाण लिखी गई है। भाष्यके रूपमें इनका नाम 'धवल' और 'जयधवल' अधिक प्रसिद्ध है। षट्खएडागम और कषायप्राभूतकी उत्पत्ति धवलके शुरूमें, कर्ताके 'अर्थकर्ता' और 'ग्रन्थकर्ता' ऐसे दो भेद करके, केवलज्ञानी भगवान महावीरको द्रव्य-क्षेत्र-काल-फाव-रूपसे अर्थकर्ता प्रतिपादित किया है और उसकी प्रमाण तामें कुछ प्राचीन पद्योंको भी उद्धृत किवा है। महावीरद्वारा-कथित प्रर्यको गौतम गोत्री ब्राह्मणोत्तम गौतमने अवधारित किया, जिनका नाम इन्द्रभूति था । यह गौतम सम्पूर्ण दुःश्रुतिका पारगामी था, जीवाजीव-विषयक सन्देहके निवारणार्थ श्रीवर्द्धमान महावीरके पास गया था और उनका शिष्य बन गया था। उसे वही पर उसी समय क्षयोपशम-जनित निर्मल ज्ञान-चतुष्टयकी प्राप्ति हो गई थी। इस प्रकार भाव-श्रुतपर्याय-रूप परिणत हुए इन्द्रभूति गौतम ने महावीर-कथित अर्थकी बारह अंगों-चौदह पूर्वोमें ग्रन्थ-रचना की और वे द्रव्यश्रुनके कर्ता हा । उन्होंने अपना वह द्रव्य-भाव-रूपी श्रुतज्ञान लोहाचार्य* के प्रति संचारित किया और लोहाचार्यने जम्बूस्वामीके प्रति । ये तीनों सप्तप्रकारकी लब्धियोंसे मम्पन्न थे और उन्होंने सम्पूर्ण श्रुतके पारगामी होकर केवलज्ञानको उत्पन्न करके क्रमश: निर्वृतिको प्राप्त किया था। जम्बूस्वामीके पश्चात् क्रमश: विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाहु ये पांच प्राचार्य चतुर्दश-पूर्वके धारी अर्थात् श्रुतज्ञानके पारगामी हुए । भद्रबाहुके अनन्तर विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयाचार्य', नागाचार्य, सिद्धार्थदेव, धृतिपेरण, विजयाचार्य, बुद्धिल्ल, गंगदेव और धर्मसेन ये क्रमशः ___* धवलके वेदना' खण्डमे भी लोहाचार्यका नाम दिया है। इन्द्रनन्दिके श्रु तावतारमें इस स्थान पर मुधर्म मुनिका नाम पाया जाता है। १, २, ३, इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारमे जयमेन, नागसेन, विजयसेन, ऐसे पूरे नाम दिये है । जयधवलामें भी जयमेन, नागमेन-रूपसे उल्लेख है परन्तु साथमें विजय-को विजयमेन-रूपमे उल्लेखित नहीं किया। इससे मूल नामोंमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश ११ प्राचार्य ग्यारह अंगों और उत्पादपूर्वादि दश पूर्वोके पारगामी तथा शेष चार पूर्वोके एक देश धारी हुए । - धर्मसेनके बाद नक्षत्राचार्य, जयपाल, पाण्डुस्वामी, ध्र वसेन और कंसाचार्य ये क्रमशः पांच आचार्य ग्यारह अंगोंके पारगामी और चौदह पूर्वोके एक देशधारी हुए। कंसाचार्यके अनन्तर सुभद्र, यशोभद्र,यशोबाहु और लोहाचार्य ये क्रमश: चार प्राचार्य आचारांगके पूर्णपाठी और शेष अंगों तथा पूर्वोके एक देशधारी हुए * । लोहाचार्यके बाद सर्व अंगों तथा पूर्वोका वह एकदेशश्रुत जो प्राचार्यपरम्परासे चला आया था धरसेनाचार्यको प्राप्त हुआ । धरसेनाचार्य अष्टाग महानिमित्तके पारगामी थे । वे जिस समय सोरठ देशके गिरिनगर (गिरनार) पहाड़की चन्द्र-गुहामें स्थित थे उन्हें अपने पासके ग्रन्थ (श्रुत) के व्युच्छेद हो जानेका भय हुआ, और इसलिये प्रवचन-वात्सल्यसे प्रेरित होकर उन्होंने दक्षिणा-पथके आचार्योंके पास, जो उस समय महिमा नगरीमें सम्मिलित हुए * यहां पर यद्यपि द्र मसेन ( दुमसेणो ) नाम दिया है परन्तु इसी पथके 'वेदना' खंडमें और जयधवलामें भी उसे ध्र वसेन नामसे उल्लेखित किया हैपूर्ववर्ती ग्रंथ 'तिलोयपणयत्ती' में भी ध्र वसेन नामका उल्लेख मिलता है । इससे यही नाम ठीक जान पड़ता है। अथवा द्रुमसेनको इसका नामान्तर समझना चाहिये । इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारमें द्रुमसेन नामसे ही उल्लेख किया है। अनेक पट्ठावलियोंमें यशोबाहुको भद्रबाहु (द्वितीय) सूचित किया है और इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार में 'जयबाहु' नाम दिया है तथा यशोभद्रकी जगह अभयभद्र नामका उल्लेख किया है। ' * इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारमें इन प्राचार्योको शेष अंगों तथा पूर्वोके एक देश धारी नहीं लिखा, न धर्मसेनादिको चौदह पूर्वोके एकदेश-धागे लिखा और न विशाखाचार्यादिको शेष चार पूर्वोके एक देश-धारी ही बतलाया है । इसलिये धवलाके ये उल्लेख खास विशेषताको लिए हुए हैं और बुद्धि-ग्राह्य नथा समुचित मालूम होते हैं। _ 'महिमानगड' नामक एक गांव सतारा जिले में है (देखो, स्थलनामकोश'), संभवतः यह वही जान पड़ता है। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतावतार-कथा थे ( दक्षिणावहाइरियाणां महिमाए मिलियाणं ) ® एक लेख (पत्र) भेजा । लेखस्थित धरसेनके वचनानुसार उन प्राचार्योंने दो साधुओंको, जो कि ग्रहण-धारणमें समर्थ थे, बहुविध निर्मल विनयसे विभूषित तथा शील-मालाके धारक थे, गुरु-सेवामें सन्तुष्ट रहने वाले थे, देश कुल-जातिसे शुद्ध थे और सकलकला-पारगामी एवं तीक्ष्ण बुद्धिके धारक आचार्य थे-अन्ध्र देशके वेण्यातट* नगरसे धरसेनाचार्यके पास भेजा। (अंधविसय-वेण्णायडादो पेसिदा)। वे दोनों साघु जब पा रहे थे तब रात्रिके पिछले भागमें धरसेन भट्टारकरने स्वप्नमें सर्व-लक्षण सम्पन्न दो धवल वृषभोंको अपने चरणों में पड़ते हुए देखा। इस प्रकार सन्तुष्ट हुए धरसेनाचार्यने 'जय उ सुयदेवदा' ऐसा कहा । उसी दिन वे दोनों साधुजन धरसेनाचार्य के पास पहुँच गये और तब भगवान् धरसेनका कृतिकर्म (वन्दनादि) करके उन्होंने दो दिन विश्राम किया, फिर तीसरे दिन विनयके साथ धरसेन भट्टारकको यह बतलाया कि 'हम दोनों जन अमुक कार्यके लिये आपकी चरण-शरणमें आए हैं।' इसपर धरसेन भट्टारकने 'सुटु भई' ऐसा कहकर उन दोनोंको आश्वासन दिया और फिर वे इस प्रकार चिन्तन करने लगे ॐ इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारके निम्न वाक्यसे यह कथन स्पष्ट नहीं होता-वह कुछ गड़बड़को लिये हुये जान पड़ता है : "देशेन्द्र (न्ध्र? ) देशनामनि वेणाकतटीपुरे महामहिमा । समुदित मुनीन् प्रति..." इसमें 'महिमासमुदितमुनीन्' लिखा है तो आगे, लेखपत्रके अर्थका उल्लेख करते हुए, उसमें 'वेणाकतटसमुदितयतीन्' विशेपण दिया है जो कि ‘महिमा' और 'वेण्यातट' के वाक्योंको ठीक रूपमें न समझनेका परिणाम हो सकता है। * 'वेण्या' नामकी एक नदी सतारा जिले में है (देखो 'स्थलनाम कोश')। संभवतः यह उसीके तट पर बसा हुआ नगर जान पड़ता है। * इन्द्रनन्दिश्रुतावतारमें 'जयतु-श्रीदेवता' लिखा है, जो कुछ ठीक मालूम नहीं होता; क्योंकि प्रसंग श्रुतदेवताका है। इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारमें तीन दिनके विश्रामका उल्लेख है। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश सेलघण-भग्गघड-अहि-चालणि-महिसाऽवि-जाहय-सुएहि ।" . मट्टिय-मसयसमाणं वक्खाणइ जो सुदं मोहा ||१|| धद्-गारवपडिवद्धो विसयामिस-विस-वसेण घुम्मतो। सो भट्टबोहिलाहो भमइ चिरं भव-वणे मूढो ।।२।। , इस वचनसे स्वच्छन्दचारियोंको विद्या देना संसार-भयका बढ़ाने वाला है। ऐसा चिन्तन कर, शुभ-स्वप्नके दर्शनसे ही पुरुषभेदको जाननेवाले धरसेनाचार्यने फिर भी उनकी परीक्षा करना अंगीकार किया। सुपरीक्षा ही निःसन्देह हृदयको मुक्ति दिलाती है * । तब धरसेनने उन्हें दो विद्याएँ दी-जिनमें एक अधिकाक्षरी, दूसरी हीनाक्षरी थी और कहा कि इन्हें पष्ठोपवासके साथ साधन करो। इसके बाद विद्या सिद्ध करके जब वे विद्यादेवताओंको देखने लगे तो उन्हें मालूम हुआ कि एकका दाँत बाहरको बढ़ा हुआ है और दूसरी कानी (एकाक्षिणी) है । देवताओंका ऐसा स्वभाव नहीं होता, यह विचार कर जब उन मंत्र-व्याकरणमें निपुण मुनियोंने हीनाधिक अक्षरोंका क्षेपण-अपनयन विधान करके-कमीवेशीको दूरकरके-उन मंत्रोंको फिरमे पढा तो तुरन्त ही वे दोनों विद्या देवियाँ अपने अपने स्वभाव-रूपमें स्थित होकर नज़र पाने लगीं। तदनन्तर उन मुनियोंने विद्या-सिद्धिका सब हाल पूर्णविनयके साथ भगवद् धरसेनसे निवेदन किया । इस पर धरसेनजीने सन्तुष्ट होकर उन्हे सौम्य तिथि मोर प्रशस्त नक्षत्रके दिन उस ग्रन्थका पढ़ाना प्रारम्भ किया, जिसका नाम 'महाकम्पपयडिपाहुड' (महाकर्मप्रकृतिप्राभृत) था । फिर क्रमसे उसकी व्याख्या करते हुए (कुछ दिन व्यतीत होने पर) आषाढ़ शुक्ला एकादशीको * इन गाथाओंका संक्षिप्त प्राशय यह है कि 'जो आचार्य गौरवादिक वशवर्ती हुआ मोहसे ऐसे श्रोताओंको श्रुतका व्याख्यान करता है जो शैलघन, भग्न घट, सर्प, छलनी, महिष, मेष, जोंक, शुक, मिट्टी और मशकके समान हैं-इन जैसी प्रकृतिको लिये हुए हैं-वह मूढ बोधिलाभसे भ्रष्ट होकर चिरकाल तक संसार-वनमें परिभ्रमण करता है।' . * इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारमें 'सुपरीक्षा हृन्नितिकरीति, इत्यादि वाक्य के द्वारा परीक्षाकी यही बात सूचित की है, परन्तु इससे पूर्ववर्ती चिन्तनादि-विषयक कथन, जो इसपर 'धरसेन' से प्रारम्भ होता है, उसमें नहीं है। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतावतार कथा पूर्वाह्न के समय ग्रन्थ सम्माप्त किया गया। विनयपूर्वक ग्रन्थका अध्ययन समाप्त हुआ, इससे सन्तुष्ट होकर भूतोंने वहांपर एक मुनीकी शंख-तुरहीके शब्द सहित पुष्यबलिसे महती पूजा की । उसे देखकर धरसेन भट्टारकने उस मुनिका 'भूतबलि' नाम रक्खा, और दूसरे मुनिका नाम 'पुष्पदन्त' रक्खा, जिसको पूजाके अवसर पर भूतोंने उसकी अस्तव्यस्त रूपसे स्थित विषमदन्त पंक्तिकों सम अर्थात् ठीक कर दिया था । फिर उसी नाम कररणके दिन घरसेनाचार्यने उन्हें रुखसत (विदा) कर दिया। गुरुवचन अलंघनीय है, ऐसा विचार कर वे वहां से चल दिये और उन्होंने अंकलेश्वर + में आकर वर्षाकाल व्यतीत किया X । वर्षायोगको समाप्त करके तथा जिनपालित' को देखकर पुष्पदन्ताचार्य तो बनवास देशको चले गये और भूतवलि भी मिल ( द्राविड) देशको प्रस्थान कर गये । इसके बाद पुष्पदन्ताचार्यने जिनपालितको दीक्षा देकर, बोस सूत्रों (विशति प्ररूपणात्मक सूत्रों) की रचना कर और वे मूत्र जिनपालितको पढ़ाकर उसे भगवान् भूतबलि के पास भेजा । भगवान् भूतबलिने जिनपालितके पास उन विंशतिप्ररूपणात्मक सूत्रोंको देखा और साथ ही यह मालूम किया कि जिनपालित अल्पायु है । इससे उन्हें 'महाकर्मप्रकृतिप्राभृत' के व्युच्छेदका विचार + इन्द्रनन्दि - श्रुतावतार में उक्त मुनियोंका यह नामकरण धरमेनांचा के द्वारा न होकर भूतों द्वारा किया गया, ऐसा उल्लेख है । 8 इन्द्रनन्दि- श्रुतावतार में ग्रन्थसमाप्ति और नामकररणका एक ही दिन विधान करके, उससे दूसरे दिन रुखसत करना लिखा है । + यह गुजरातके भरोंच ( Broach ) जिलेका प्रसिद्ध नगर है । X इन्द्रनन्दि श्रुतावतारमें ऐसा उल्लेख न करके लिखा है कि खुद धरसेनाचार्यने उन दोनों मुनियोंको 'कुरीश्वर' (?) पत्तन भेज दिया था जहां वे 8 दिन में पहुँचे थे और उन्होंने वही आषाढ कृष्ण पंचमीको वर्षायोग ग्रहण किया था । * इन्द्रनन्दि श्रुतावतारमें जिनपालितको पुष्पदन्तका भानजा लिखा है और दक्षिणकी भोर विहार करते हुए दोनों मुनियोंके करहाट पहुँचने पर उसके देख का उल्लेख किया है । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश उत्पन्न हुआ और तब उन्होंने ( उक्त सूत्रोंके बाद ) 'द्रव्यप्रमाणानुगम' नामके प्रकरणको आदिमें रखकर ग्रन्थकी रचना की। इस ग्रन्थका नाम ही 'षटस्वण्डागम' है; क्योंकि इस पागम ग्रन्थमें १ जीवस्थान, २ क्षुल्लकबंध, ३ बन्धस्वामित्वविचय, ४ वेदना, ५ वर्गणा और ६ महाबन्ध नामके छह खण्ड अर्थात् विभाग है, जो सब महाकर्म-प्रकृतिप्राभृत-नामक मूलागमग्रन्थको संक्षिप्त करके अथवा उसपरसे समुद्धृत करके लिखे गये हैं । और वह मूलागम द्वादशांगश्रुतके अग्रायणीय-पूर्वस्थित पंचमवस्तुका चौथा प्राभूत है। इस तरह इस षट्खण्डागम श्रुतके मूलतंत्रकार श्रीवर्धमान महावीर, अनुतंत्रकार गौतमस्वामी और उपतंत्रकार भूतबलि-पुष्पदन्तादि आचार्योको समझना चाहिये । भूतबलिपुष्पदन्तमें पुष्पदन्ताचार्य सिर्फ 'सत्प्ररूपणा' नामके प्रथम अधिकारके कर्ता है, शेष सम्पूर्ण ग्रन्थके रचयिता भूतबलि आचार्य है । ग्रन्थका श्लोकपरिमाण इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारके कथनानुसार ३६ हजार है, जिनमेंसे ६ हजार संख्या पांच खण्डोंकी और शेष महाबन्ध खण्डकी है; और ब्रह्महेमचन्द्रके श्रुतस्कन्धानुसार ३० हजार है। यह तो हुई धवलाके अाधारभून षट् ग्वण्डागमश्रतके अवतारकी कथा; अब जयधवलाके अाधारभून 'कपायपाहुड' श्रुतको लीजिये, जिसे 'पेज्जदोस पाहुड' भी कहते हैं। जय धवलामें इसके अवतारकी प्रारम्भिक कथा तो प्रायः वही दी है जो महावीरमे प्राचारांग-धारी लोहाचार्य तक ऊपर वर्णन की गई है.---मुख्य भेद इतना ही है कि यहाँ पर एक-एक विषयके प्राचार्योका काल भी साथमें निर्दिष्ट कर दिया गया है, जब कि 'धवला' में उसे अन्यत्र 'वेदना' खण्डका निर्देश करते हुए दिया है । दूसरा भेद आचार्योंके कुछ नामोंका है । जयधवलामें गौतमस्वामीके बाद लोहाचार्यका नाम न देकर सुधर्माचार्यका नाम दिया है, जो कि वीर भगवान्के बाद होने वाले तीन केवलियोंमेसे द्वितीय केवलीका प्रसिद्ध नाम है। इसी प्रकार जयपालकी जगह जसपाल और जसबाहूकी जगह जयबाह मामका उल्लेख किया है। प्राचीन लिपियोंको देखते हुए 'जस' और 'जय' के लिखनेमें बहुत ही कम अन्तर प्रतीत होता है इससे साधारण लेखकों द्वारा 'जस' का 'जय' और 'जय' का 'जस' समझ लिया जानां कोई बड़ी बात नहीं है। हां, लोहाचार्य और सुधर्माचार्यका अन्तर अवश्य ही चिन्तनीय है । जयधवलामें कहीं Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतावतार-कथा कहीं गौतम और जम्बूस्वामीके मध्य लोहाचार्यका ही नाम दिया है; जैसा कि उसके 'भागविहत्ति' प्रकरणके निम्न प्रशसे प्रकट है : “वि उलगिरिमत्थयत्थवड्ढमाण दिवायरादो विणिग्गमिय गोदम लोहज्ज जंबुसामियादि आइरिय परंपराए आगंतूण गुणहराइरियं पाविय.... ( आराकी प्रति पत्र ३१३ ) ८७ जव धवला और जयधवला दोनों ग्रन्थोंके रचयिता वीरसेनाचार्यने एक ही व्यक्तिके लिये इन दो नामोंका स्वतन्त्रतापूर्वक उल्लेख किया है, तब वे दोनों एक ही व्यक्ति नामान्तर हैं ऐसा समझना चाहिये; परन्तु जहाँ तक मुझे मालूम है, इसका समर्थन अन्यत्र से अथवा किसी दूसरे पुष्ट प्रमाणसे अभी तक नहीं होता -- पूर्ववर्ती ग्रन्थ 'तिलोयपण्णत्ती' में भी 'सुधर्मस्वामी' नामका उल्लेख है । अस्तु; जयधवला परमे शेष कथाकी उपलब्धि निम्न प्रकार होती है:-- आचारांग धारी लोहाचार्य का स्वर्गवास होने पर सर्व अंगों तथा पूर्वोका जो एकदेशश्रुत आचार्य परम्परासे चला आया था वह गुणधराचार्यको प्राप्त हुआ । गुणधराचार्य उस समय पाँचवें ज्ञानप्रवाद-पूर्वस्थित दशम वस्तुके नीमरे 'कसायपाहुड' नामक ग्रन्थ-महार्णवके पारगामी थे। उन्होंने ग्रन्थ-व्युच्छेदके भयसे और प्रवचन - वात्सल्य से प्रेरित होकर, सोलह हजार पद - परिमाण उम 'पेज्जदोसपाहुड' ('कपायपाहुड) का १८०* सूत्र गाथानोंमें उपसंहार किया—सार स्वींचा | साथ ही, इन गाथाओं के सम्बन्ध तथा कुछ वृत्ति प्रादिकी सूचक ५३ विवरणगाथाएँ भी और रचीं, जिससे गाथानोंकी कुल संख्या २३३ हो गई । इसके बाद ये सूत्र - गाथाएँ आचार्य - परम्परासे चलकर प्रार्यमक्षु और नागहस्ती नामके प्राचार्योंको प्राप्त हुई । । इन दोनों प्राचार्योंके पाससे गुरणधराचार्यकी उक्त * इन्द्रनन्दि- श्रुतावतारमे 'त्र्यधिकाशीत्या युक्तं शतं' पाठके द्वारा मूलसूत्रगाथाओं की संख्या १८३ सूचित की है, जो ठीक नहीं है और समझनेकी किसी गलतीपर निर्भर है । जयधवलामें १८० गाथाओं का खूब खुलासा किया गया है । + इन्द्रनन्दि- श्रुतावतारमें लिखा है कि 'गुणधराचार्यने इन गाथासूत्रोंको रचकर स्वयं ही इनकी व्याख्या नागहस्ती और प्रार्यमक्षुको बतलाई ।' इससे ऐतिहासिक कथन में बहुत बड़ा अन्तर पड़ जाता है । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश गाथाओं के अर्थको भले प्रकार सुनकर यतिवृषभाचार्यने उन पर चूरिंग सूत्रोंकी रचना की, जिनकी संख्या छह हजार श्लोक - परिमारण है । इन चूरिंग सूत्रोंको साथमें लेकर ही जयधवला - टीकाकी रचना हुई है, जिसके प्रारम्भका एक तिहाई भाग ( २० हजार श्लोक - परिमाण ) वीरसेनाचार्यका और शेष ( ४० हजार श्लोक-परिमाण ) उनके शिष्य जिनसेनाचार्यका लिखा हुआ है । जयधवलामें चूरिंणसूत्रों पर लिखे हुए उच्चारणाचार्यके वृत्ति-सूत्रोंका भी कितना ही उल्लेख पाया जाता है परन्तु उन्हें टीकाका मुख्याधार नहीं बनाया गया है और न सम्पूर्ण वृत्ति-सूत्रोंको उद्धृत ही किया जान पड़ता है, जिनकी संख्या इन्द्रनन्दिश्रुतावतारमें १२ हजार श्लोक - परिमाण बतलाई है । इस प्रकार संक्षेपमें यह दो सिद्धान्तागमोंके अवतारकी कथा है, जिनके आधारपर फिर कितने ही ग्रंथोंकी रचना हुई है । इसमे इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारसे अनेक अंशोंमें कितनी ही विशेषता और विभिन्नता पाई जाती है, जिसकी कुछ मुख्य मुख्य बातोंका दिग्दर्शन, तुलनात्मक दृष्टिमे, इस लेखके फुटनोटोंमें कराया गया है । यहाँ पर में इतना और बतला देना चाहता हूँ कि धवला और जयधवलामें गौतम स्वामीसे आचारांगधारी लोहाचार्य तकके श्रुतधर श्राचार्यों की एकत्र गणना करके और उनकी रूढकाल-गणना ६८३ वर्षकी देकर उसके बाद घरसेन और गुणधर आचार्योंका नामोल्लेख किया गया है, साथमें इनकी गुरुपरम्पराका कोई खास उल्लेख नहीं किया गया और इस तरह इन दोनों प्राचार्यों का समय यों ही वीर - निर्वाणसे ६८३ वर्ष बादका मूचित किया है । यह सूचना ऐतिहासिक दृष्टिसे कहाँ तक ठीक है अथवा क्या कुछ आपत्तिक योग्य है इसके विचारका यहाँ अवसर नहीं है। फिर भी इतना ज़रूर कह देना होगा कि मूल सूत्रग्रन्थोंको देखते हुए टीकाकारका यह मूचन कुछ त्रुटिपूर्ण अवश्य जान पड़ता है, जिसका स्पष्टीकरण फिर किसी समय किया जायगा । * इन्द्रनन्दिने तो अपने श्रुतावतारमें यह स्पष्ट लिख दिया है कि इन गुणधर श्रीर धरसेनाचार्यकी गुरूपरम्पराका हाल हमें मालूम नहीं है, क्योंकि उसको बतलानेवाले शास्त्रों तथा मुनि-जनोंका इस समय अभाव है । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकुन्दकुन्दाचार्य और उनके ग्रन्थ प्राकृत दिगम्बर जैनवाङ मयमें सबसे अधिक ग्रन्थ (२२ या २३ ) श्रीकुन्दकुन्दाचार्य के उपलब्ध है, जो ८४ पाहड ग्रन्थोंके कर्ता प्रसिद्ध हैं और जिनके विदेह-क्षेत्रमें श्रीसीमन्धर-स्वामीके समवसरणमें जाकर साक्षात् तीर्थकरमुख तथा गणधरदेवसे बोध प्राप्त करनेकी कथा भी सुप्रसिद्ध है और जिनका समय विक्रमकी प्रायः प्रथम शताब्दी माना जाता है । ___ यहां पर मै इन ग्रन्थकार-महोदयके सम्बन्धमें इतना और बतला देना चाहता हूँ कि इनका पहला-सम्भवतः दीक्षाकालीन नाम पद्मनन्दी था t; परन्तु ये कोण्डकुन्दाचार्य अथवा कुन्दकुन्दाचार्य के नाममे ही अधिक प्रसिद्धको प्राप्त हुए हैं, जिसका कारण 'कोंण्डकुन्दपुर' के अधिवासी होना बतलाया जाता है, __ॐ देवसेनाचार्यने भी, अपने दर्शनसार (वि० सं० ६६० ) की निम्न गाथामे, कुन्दकुन्द ( पद्मनन्दि ) के सीमंधर-स्वामीसे दिव्यज्ञान प्राप्त करनेकी बात लिखी है; जइ उमणंदि-णाहो सीमंधरसामि-दिव्वणाणण । ण विवोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति ॥४३॥ + तस्यान्वये भूविदिते बभूव यः पद्मनन्दि-प्रथमाभिधानः । श्रीकौडकुन्दादिमुनीश्वरराख्यस्ससंयमादुद्गत-चारणाद्धिः ।। --श्रवणवेल्गोल-शिलालेख नं० ४० Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAM ५० जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश इसी नामसे इनकी वंशपरम्परा चली है अथवा 'कुन्दकुन्दान्वय' स्थापित हुमा है, जो अनेक शाखा-प्रशाखामोंमें विभक्त होकर दूर दूर तक फैला है । मर्कराके ताम्रपत्रमें, जो शक संवत् ३८८ में उत्कीर्ण हुआ है, इसी कोण्डकुन्दान्वयकी परम्परामें होने वाले छह पुरातन आचार्योंका गुरु-शिष्यके क्रमसे उल्लेख है। ये मूलसंघके प्रधान आचार्य थे, प्रतात्मा थे, सत्संयम एवं तपश्चरणके प्रभावसे इन्हें चारण-ऋद्धिकी प्राप्ति हुई थी और उसके बलपर ये पृथ्वी से प्रायः चार अंगुल ऊपर अन्तरिक्षमें चला करते थे। इन्होंने भरतक्षेत्रमें श्रुतकी-जैन प्रागमकी-प्रतिष्ठा की है-उसकी मान्यता एवं प्रभावको स्वयंके आचरणादिद्वारा (खुद आमिल बनकर) ऊँचा उठाया तथा सर्वत्र व्याप्त किया है अथवा यों कहिये कि आगमके अनुसार चलनेको खास महत्व दिया है, ऐसा श्रवणबेलगोलके शिलालेखों आदिसे जाना जाता है । ये बहुत ही प्रामाणिक एवं प्रतिष्ठित प्राचार्य हुए हैं। सभवत: इनकी उक्त श्रुत-प्रतिष्ठाके कारण ही शास्त्रसभाकी आदिमें जो मंगलाचरण 'मङ्गलं भगवान वीरो' इत्यादि किया जाता है उस में 'मङ्गलं कुन्दकुन्दार्यों' इस रूपसे इनके नामका खास उल्लेख है। आपकं उपलब्ध ग्रन्थोंका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है : १ प्रवचनसार, २ समयसार, ३ पंचास्तिकाय-ये तीनों ग्रन्थ कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थोंमें प्रधान स्थान रखते हैं, बड़े ही महत्वपूर्ण है और अखिल * देखो, कुर्ग-इन्स्क्रिपशन्सका निम्न अंश :- (E. C. I.) .......श्रीमान् कोंगणि-महाधिराज अविनीतनामधेयदत्तस्य देसिगगणं कोण्डकुन्दान्वय-गुणचन्द्रभटारशिष्यस्य अभयणंदिभटारतस्य शिष्यस्य शीलभद्र भटार-शिष्यस्य जनाणंदिभटार-शिष्यस्य गुणणंदिभटार-शिष्यस्य वन्दरणन्दिभटारगर्गे अष्ट-अशीतिउत्तरस्य त्रयो-शतस्य सम्वत्सरस्य माघमासे......." + वन्द्यो विभु वि न कैरिह कौण्डकुन्दः कुन्दप्रभा-प्रणयि-कीर्तिविभूषिताशः । यश्चारु-चारण-काराम्बुज़-चञ्चरीकश्चक्रे-श्रुतस्य भरते प्रयत: प्रतिष्ठाम् ॥ -श्र० शि० ५४ रजोभिरस्पृष्टतमत्वमन्तर्बाह्य ऽपि संव्यंजयितु यतीशः । रजः पदं भूमितलं विहाय वचार मन्ये चतुरंगुलं सः ।।-श्र० शि० १०५ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकुन्दकुन्दाचार्य और उनके प्रन्थ - ६१ जैन समाजमें समान प्रादरकी दृष्टिसे देखे जाते है । पहलेका विपय ज्ञान, ज्ञेय और चारित्ररूप तत्व-त्रयके विभागसे तीन अधिकारोंमें विभक्त है, दूसरेका विषय शुद्ध प्रात्मतत्त्व है और तीसरेका विषय कालद्रव्यसे भिन्न जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश नामके पाँच द्रव्योंका सविशेष-रूपसे वर्णन है । प्रत्येक ग्रंथ अपने-अपने विषयमें बहुत ही महत्त्वपूर्ण एवं प्रामाणिक है । हरएक का यथेष्ट परिचय उस-उस ग्रंथको स्वयं देखने से ही सम्बन्ध रखता है। ___ इनपर अमृतचन्द्राचार्य और जयसेनाचार्यकी खास संस्कृत टीकाएं हैं, तथा बालचन्द्रदेवकी कन्नड टीकाएँ भी है, और भी दूसरी कुछ टीकाएँ प्रभाचन्द्रादिकी संस्कृत तथा हिन्दी आदिकी उपलब्ध हैं । अमृतचंद्राचार्यकी टीकानुसार प्रवचनसारमें २७५ समयसारमें ४१५ और पंचास्तिकायमें १७३ गाथाएँ है; जब कि जयसेनाचार्यकी टीकाके पाठानुसार इन ग्रंथोंमें गाथाओंकी संख्या क्रमश: ३११, ४३६ १८१ है । संक्षेपमें, जैनधर्मका मर्म अथवा उसके तत्त्वज्ञानको समझाके लिये ये तीनों ग्रंथ बहुत ही उपयोगी हैं। ४.नियमसार--कुन्दकुन्दका यह ग्रंथ भी महत्त्वपूर्ण है और अध्यात्मविषयको लिये हुए है। इसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको नियम-नियमसे किया जानेवाला कार्य-एवं मोक्षोपाय बतलाया हैं और मोक्षके उपायभूत मम्यग्दर्शनादिका स्वरूपकथन करते हुए उनके अनुष्ठानका तथा उनके विपरीत मिथ्यादर्शनादिके त्यागका विधान किया है और इसीको (जीवनका) सार निर्दिष्ट किया है । इस ग्रन्थपर एकमात्र संस्कृत टीका पद्मप्रभमलधारिदेवकी उपलब्ध है और उसके अनुसार ग्रन्थकी गाथा-संख्या १८७ है । टीकामें मूलको द्वादश श्रुतस्कन्धरूप जो १२ अधिकारोंमें विभक्त किया है वह विभाग मूलकृत नहीं है-मूल परसे उसकी उपलब्धि नहीं होती, मूलको समझने में उससे कोई मदद भी नहीं मिलती और न मूलकारका वैसा कोई अभिप्राय ही जाना जाता है । उसकी सारी जिम्मेदारी टीकाकारपर है । इस टीकाने मूलको उल्टा कठिन कर दिया है । टीकामें बहुधा मूलका आश्रय छोड़कर अपना ही राग अलापा गया है-मूलका स्पष्टीकरण जैसा चाहिये था वैसा नहीं किया । टीकाके बहुतसे वाक्यों और पद्योंका सम्बन्ध परस्परमें नहीं मिलता । टीकाकारका प्राशय अपनी गद्य-पद्यात्मक काव्यशक्तिको प्रकट करनेका Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जैनसाहित्य और इतिहास विशद प्रकाश अधिक रहा है-उसके काव्योंका मूलके साथ मेल बहुत कम है । अध्यात्म-कथन होनेपर भी जगह जगहपर स्त्रीका अनावश्यक स्मरण किया गया है और अलंकाररूपमें उसके लिये उत्कंठा व्यक्त की गई है, मानो सुख स्त्रीमें ही है। इस ग्रंथका टीकासहित हिन्दी अनुवाद ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीने किया है और वह प्रकाशित भी हो चुका है। ५, बारस-अगुवेक्खा (द्वादशानुप्रेक्षा)-इसमें १ अध्र व (अनित्य), २ अशरण, ३ एकत्व, ४ अन्यत्व, ५ संसार, ६ लोक, ७ अशुचित्य, ८ पासव, ६ संवर, १० निर्जरा, ११ धर्म, १२ बोधिदुर्लभ नामकी बारह भावनाओंका ६१ गाथाओंमें सुन्दर वर्णन है। इस ग्रंथकी 'सव्वे वि पोग्गला खलु' इत्यादि पांच गाथाएँ (नं० २५ से २६) श्रीपूज्यपादाचार्य-द्वारा, जो कि विक्रमकी छठी शताब्दोके विद्वान् हैं, सर्वार्थसिद्धि के द्वितीय अध्यायान्तर्गत दशवें सूत्रको टीकामें 'उक्तं च' रूपसे उद्धृत की गई है। ६. दसणपाहुड-इसमें सम्यग्दर्शनके माहात्म्यादिका वर्णन ३६ गाथाओंमें है और उससे यह जाना जाता है कि सम्यग्दर्शनको ज्ञान और चारित्रपर प्रधानता प्राप्त है । वह धर्मका मूल है और इसलिये जो सम्यग्दर्शनमे-जीवादि तत्त्वोंके यथार्थ श्रद्धानसे-भ्रष्ट है उसको सिद्धि अथवा मुक्तिकी प्राप्ति नहीं हो सकती । ७. चारित्तपाहुड-इम ग्रंथकी गायासंख्या ४४ और उसका विषय सम्यक् चारित्र है । सम्यक्चारित्रको सम्यक्त्वचरण और संयमचरण मे दो भेदोंमें विभक्त करके उनका अलग अलग स्वरूप दिया है और संयमचरगाके सागार अनगार ऐसे दो भेद करके उनके द्वारा क्रमशः श्रावकधर्म तथा यतिधर्मका अतिसंक्षेपमें प्रायः सूचनात्मक निर्देश किया है। ८. सुत्तपाहुड--यह ग्रंथ २७ गाथात्मक है। इसमें सूत्रार्थकी मार्गणाका उपदेश है-आगमका महत्व ख्यापित करते हुए उसके अनुसार चलनेकी शिक्षा दी गई है । और साथ ही सूत्र (पागम) की कुछ बातोंका स्पष्टताके साथ निर्देश किया गया है, जिनके संबंध उस समय कुछ विप्रतिपत्ति या गलतफहमी फली हुई थी अथवा प्रचारमें प्रारही थी। ६. बोधपाहुड-इस पाहुड़ का शरीर ६२ गाथामोंसे निर्मित है। इनमें Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कुन्दकुन्दाचार्य और उनके प्रन्थ ६३ १ श्रायतन, २ चैत्यगृह, ३ जिनप्रतिमा, ४ दर्शन ५ जिनबिम्ब, ६ जिनमुद्रा, ७ श्रात्मज्ञान, ८ देव, ह तीर्थ, १० अर्हन्त, ११ प्रव्रज्या इन ग्यारह बातोंका क्रमशः श्रागमानुसार बोध दिया गया है। इस ग्रंथकी ६१ वीं गाथामें कुन्दकुन्दने अपनेको भद्रबाहुका शिष्य प्रकट किया है जो संभवतः भद्रबाहु द्वितीय जान पड़ते है; क्योंकि भद्रबाहु श्रुतकेवनी के समय में जिनकथित श्रुतमें ऐसा विकार उपस्थित नहीं हुआ था जिसे उक्त गाथामें 'सहवियारों हूओ भासासुत्तेसु जं जिणे कहियं इन शब्दोंद्वारा सूचित किया गया है वह अविच्छिन्न चला ग्राया था । परन्तु दूसरे भद्रबाहु समयमें वह स्थिति नहीं रही थी - कितना ही श्रुतज्ञान लुप्त हो चुका था और जो अवशिष्ट था वह अनेक भाषा-सूत्रोंमें परिवर्तित हो गया था । इससे ६१ वीं गायाके भद्रबाहु भद्रबाहुद्वितीय ही जान पड़ते हैं । ६२ वीं गाथामें उसी नाममे प्रसिद्ध होने वाले प्रथम भद्रबाहका जो कि बारह अंग और चोदपूर्वके ज्ञाता श्रुतकेवली थे, अन्त्य मंगलके रूपमें जयघोष किया गया और उन्हें माफ तौर पर 'गमकगुरु' लिखा है । इस तरह अन्तकी दोनों गायोंमें दो अलग अलग भद्रबाहुयोंका उल्नेव होना अधिक युक्तियुक्त और बुद्धिगम्य जान पड़ता है । १०. भावपाहुड - १६३ गाथाग्रोंका यह ग्रन्थ इसमें भावकी - चित्तशुद्धि की महत्ताको अनेक प्रकार किया गया है । विना भावके बाह्यपरिग्रहका त्याग करके नग्न दिगम्बर साधु तक होने और वन में जा बैठने को भी व्यर्थ ठहराया है। परिणामशुद्धिके बिना संसार - परिभ्रमण नहीं रुकता और न बिना भावके कोई पुरुषार्थ ही सकता है, भाव बिना सब कुछ निःमार है इत्यादि अनेक बातों यह ग्रन्थ परिपूर्ण है। इसकी कितनी ही भद्राचार्य ने अपने ग्रात्मानुशासन ग्रन्थमे किया है । ११. मक्खिपाहुड – यह मोक्ष-प्राभृत भी बड़ा ही महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है और इसकी गाथा - संख्या १०६ है । इसमें आत्माके बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा ऐसे तीन भेद करके उनके स्वरूपको समझाया है और मुक्ति अथवा बडा ही महत्त्वपूर्ण है । सर्वोपरि ख्यापित बहुमूल्य शिक्षाओं एवं मर्मकी गाथाओं का अनुसरण गुण सद्वियारो हुम्रो भासा - सुत्तेसु जंजिरगे कहियं । सो तह कहियं गायं सीसेण य भट्बाहुस्स ।। ६१ ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश परमात्मपद कैसे प्राप्त हो सकता है इसका अनेक प्रकारसे निदश किया है। इस ग्रन्थके कितने ही वाक्योंका अनुसरण पूज्यपाद प्राचार्यने,अपने 'समाधितंत्र' ग्रन्थ में किया है। इन दसणपाहुडसे मोक्खपाहुड तकके छह प्राभृत ग्रन्थोंपर श्रुतसागरसूरिकी टीका भी उपलब्ध है, जो कि माणिकचन्द-ग्रंथमालाके षट्प्राभूतादिसंग्रहमें मूलग्रंथोंके साथ प्रकाशित हो चुकी है। १२. लिंगपाहुड-यह द्वाविंशति (२२) गाथात्मक ग्रंथ है। इसमें श्रमणलिङ्गको लक्ष्यमें लेकर उन आचरणोंका उल्लेख किया गया है जो इस लिङ्गधारी जैनसाधुके लिये निषिद्ध हैं और साथ ही उन निपिद्ध आचरणोंका फल भी नरकवासादि बतलाया गया है तथा उन निषिद्धाचारमें प्रवृत्ति करनेवाले लिङ्गभावसे शून्य साधुनोंको श्रमरण नहीं माना है-तिर्यञ्चयोनि बतलाया है। १३. शीलपाहुड-यह ४० गाथाओंका ग्रन्थ है। इसमें शीलकाविषयोंसे विरागका महत्व ख्यापित किया है और उसे मोक्ष-सोपान बतलाया है। साथ ही जीवदया, इन्द्रियदमन, सत्य, प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य, संतोप, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और तपको शीलका परिवार घोषित किया है। १४. रयणसार-इस ग्रंथका विषय गृहस्थों तथा मुनियोंके रत्नत्रयधर्म-सम्बन्धी कुछ विशेष कर्तव्योंका उपदेश अथवा उनकी उचित-अनुचित प्रवृत्तियोंका कुछ निर्देश है। परन्तु यह ग्रंथ अभी बहुत कुछ संदिग्ध स्थितिमें स्थित है--जिस रूपमें अपनेको प्राप्त हुआ है उसपरसे न तो इसकी ठीक पद्यसंख्या ही निर्धारित की जा सकती है और न इसके पूर्णत: मूलरूपका ही कोई पता चलता है । माणिकचन्द-ग्रंथमालाके षट्प्राभृतादि-संग्रहमें इस ग्रंथकी पद्यसंख्या १६७ दी है। साथ ही फुटनोट्समें सम्पादकने जिन दो प्रतियों ( क-ख) का तुलनात्मक उल्लेख किया है उसपरसे दोनों प्रतियों में पद्योंकी संख्या बहुत कुछ विभिन्न (हीनाधिक) पाई जाती है और उनका कितना ही क्रमभेद भी उपलब्ध है-सम्पादनमें जो पद्य जिस प्रतिमें पाये गये उन सबको ही बिना जांचके यथेच्छ क्रमके साथ ले लिया गया है । देहलीके पंचायती मन्दिरकी प्रतिपरसे जब मैंने इस मा० ग्र० संस्करणकी तुलना की तो मालूम हुआ कि उसमें इस ग्रंथकी १२ गाथाएँ नं० ८, ३४, ३७, ४६, ५५, ५६, ६३, ६६, ६७, Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकुन्दकुन्दाचार्य और उनके प्रन्थ ११३, १२५, १२६ नहीं है और इसलिये उसमें ग्रंथकी पद्यसंख्या १५५ है। साथ ही उसमें इस ग्रंथकी गाथा नं० १७, १८ को आगे-पीछे; ५२ व ५३, ६१ 4६६ को क्रमशः १६३ के बाद, ५४ को १६४ के बाद, ६० को १६५ के पश्चात् १०१ व १०२ को आगे पीछे; ११० व १११को १६२ के अनन्तर, १२१ को ११६ के पूर्व और १२२ को १५४ के बाद दिया है। पं० कलापा भरमापा निटवेने इस ग्रंथको सन १९०७ में मराठी अनुवादके साथ मुद्रित कराया था उसमें भी यद्यपि पद्य-संख्या १५५ है, और कमभेद भी देहली-प्रति-जैसा है, परन्तु उक्त १२ गाथाओंमें से ६३ वी गाथाका प्रभाव नहीं है-वह मौजूद है। किन्तु मा० ग्र. संस्करणकी ३५ वी गाथा नहीं है, जो कि देहली की उक्त प्रतिमें उपलब्ध है । इस तरह ग्रंथप्रतियों में पद्य-संख्या और उनके क्रमका बहुत बड़ा भेद पाया जाता है। ___ इसके सिवाय, कुछ अपभ्रंश भाषाके पद्य भी इन प्रतियोंमें उपलब्ध होते है, एक दोहा भी गाथाओंके मध्यमें आ घुसा है, विचारोंकी पुनरावृत्तिके साथ कुछ बेतरतीबी भी देखी जाती है, गण-गच्छादिके उल्लेख भी मिलते हैं और ये सब बातें कुन्दकुन्दके ग्रंथोंकी प्रकृतिके साथ संगत मालूम नहीं होतीं-मेल नहीं महीं खातीं। और इसलिये विद्वद्वर प्रोफेसर ए० एन० उपाध्येने ( प्रवचनसारकी अंग्रेजी प्रस्तावनामें) इस ग्रंथपर अपना जी यह विचार व्यक्त किया है वह ठीक ही है कि-'रयणसार ग्रंथ गाथाविभेद, विचारपुनावृत्ति, अपभ्रंश पद्योंकी उपलब्धि, गण-गच्छादि उल्लेख और बेतरतीबी आदिको लिये हुए जिस स्थितिमें उपलब्ध है उसपरसे वह पूरा ग्रन्थ कुन्दकुन्दका नहीं कहा जा सकता-- कुछ अतिरिक्त गाथाओंकी मिलावटने उमके मूलमें गड़बड़ उपस्थित कर दी है। और इसलिये जब तक कुछ दूसरे प्रमारण उपलब्ध न हो जाएँ तब तक यह बात विचाराधीन ही रहेगी कि कुन्दकुन्द इस समग्र रयणसार ग्रंथके कर्ता हैं।' इस ग्रंथपर संस्कृ की कोई टीका उपलब्ध नहीं है । १५. सिद्धभक्ति-यह १२ गाथाओंका एक स्तुतिपरक ग्रंथ है, जिसमें सिद्धों की, उनके गुणों, भेदों, सुख, स्थान, प्राकृति और सिद्धिके मार्ग तथा कमका उल्लेख करते हुए, अति-भक्तिभावके साथ वन्दना की गई है। इसपर प्रभाचन्द्राचार्यकी एक संस्कृत टीका है, जिसके अन्तमें लिखा है कि-"संस्कृताः Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश सर्वा भक्तयः पादपूज्यस्वामिकृता: प्राकृतास्तु कुन्दकुन्दाचार्यकृताः' अर्थात् संस्कृतकी सब भक्तियाँ पूज्यपाद स्वामीकी बनाई हुई है और प्राकृतकी सब भक्तियाँ कुन्दकुन्दाचार्यकृत हैं। दोनों प्रकारकी भक्तियोंपर प्रभाचन्द्रचार्यकी टीकाएँ है । इस भक्तिपाठके साथमें कहीं कहीं कुछ दूसरी पर उसी विषयकी, गाथाएँ भी मिलती हैं, जिनपर प्रभाचन्द्रको टीका नहीं है और जो प्रायः प्रक्षिप्त जान पड़ती हैं। क्योंकि उनमेंसे कितनी ही दूसरे ग्रंथोंकी अंगभूत है । शोलापुरसे 'दशभक्ति' नामका जो संग्रह प्रकाशित हुआ है उसमें ऐमी ८ गाथाओं का शुरूमें एक संस्कृतपद्य-सहित अलग क्रम दिया है। इस कमकी 'गमरणागमणविमुक्के' और 'तवसिद्ध णयसिद्धे' नामकी गाथाएँ ऐसी है जो दूसरे ग्रंथोंमें नहीं पाई गई। १६. श्रुतभक्ति---यह भक्तिपाठ एकादश-गाथात्मक है। इसमें जैनश्रुतके आचाराङ्गादि द्वादश अंगोंका भेद-प्रभेद-सहित उल्लेख करके उन्हें नमस्कार किया गया गया है। साथ ही, १४ पूर्वोभेमे प्रत्येककी वस्तुसंख्या और प्रत्येक वस्तुके प्राभृतों ( पाहुडों ) की संख्या भी दी है। १७. चारित्रभक्ति-इस भक्तिपाठकी पद्यसंख्या १० है और वे अनुष्टुभ् छन्दमें हैं । इसमें श्रीवर्द्धमान-प्रणीत सामायिक, छेदोपस्थापन, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंयम ( सूक्ष्मसाम्पराय ) और यथाख्यात नामके पाँच चारित्रों, अहिमादि २८ मूलगुणों तथा दशधर्मों, त्रिगुप्तियों, सकलशीलों, परीषहोंके जय और उत्तरगुरणोंका उल्लेख करके उनकी सिद्धि और सिद्धि-फल मुक्तिसम्बकी भावना की है। १८. योगि (अनगार) भक्ति-यह भक्तिपाठ २३ गाथानोंको अङ्गरूप में लिये हुए है। इसमें उत्तम अनगारों-योगियोंकी अनेक अवस्थाओं, ऋद्धियों, सिद्धियों तथा गुगणोंके उल्लेखपूर्वक उन्हें बड़ी भक्तिभावके साथ नमस्कार किया है, योगियोंके विशेषणरूप गुणोंके कुछ समूह परिसंख्यानात्मक पारिभाषिक शब्दों में दो की संख्यासे लेकर चौदह तक दिये है; जैसे 'दोदोमविप्पमुक्क' तिदंदविग्दं, तिसल्लपरिसुद्ध, तिणियगारवरहिग्रं, तियरणसुद्ध, चउदसगंथपरिसुद्ध, चउदसपूव्वपगब्भ और चउदसमलविवज्जिद' इस भक्तिपाठके द्वारा जनमाधुनोंके आदर्श-जीवन एवं चर्याका अच्छा स्पृहणीय सुन्दर स्वरूप सामने प्राजाता है. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कुन्दकुन्दाचार्य और उनके प्रन्थ ६७ कुछ ऐतिहासिक बातोंका भी पता चलता है, और इससे यह भक्तिपाठ बड़ा ही महत्वपूर्ण जान पड़ता है । १६. श्राचार्यभक्ति — इसमें १० गाथाएँ हैं और उनमें उत्तम श्राचार्यक गुणों का उल्लेख करते हुए उन्हें नमस्कार किया गया है। आचार्य परमेष्ठी किन किन खास गुणोंसे विशिष्ट होने चाहियें, यह इस भक्तिपाठपरसे भले प्रकार जाना जाता है । २०. निर्वाणभक्ति - इसकी गाथासंख्या २७ है। इसमें प्रधानतया निर्वाणको प्राप्त हुए तीर्थंकरों तथा दूसरे पूतात्म-पुरुषोंके नामोंका, उन स्थानोंके नाम सहित स्मरण तथा वन्दन किया गया है जहाँसे उन्होंने निर्वारण-पदकी प्राप्ति की है। साथ ही, जिन स्थानोंके साथ ऐसे व्यक्ति-विशेषोंकी कोई दूसरी स्मृति खास तौरपर जुड़ी हुई है ऐसे अतिशय क्षेत्रोंका भी उल्लेख किया गया है और उनकी तथा निर्वाणभूमियोंकी भी वन्दना की गई है । इस भक्तिपाठपर से कितनी ही ऐतिहासिक तथा पौराणिक वातों एवं अनुश्रुतियोंकी जानकारी होती है, और हम दृष्टिसे यह पाठ अपना खास महत्व रखता है । २१. पंचगुरु (परमेष्ठि) भक्ति - इसकी पद्यसंख्या ७ ( ६ ) है । इसके प्रारम्भिक पांच पद्योंमें क्रमशः श्रहेतु, सिद्ध, ग्राचार्य, उपाध्याय और साधु ऐमे पाँच गुरुवों-परमेष्ठियों का स्तोत्र है, छटे पद्यमें स्तोत्रका फल दिया है और ये छहों पद्य सृग्विणी चंदमें हैं । अन्तका व पद्य गाथा है, जिसमें अर्हदादि पंच परमेष्ठियों के नाम देकर और उन्हें पंचनमस्कार (ग्रामोकार मंत्र ) के अंगभूत तलाकर उनमे भवभवमें सुखकी प्रार्थना की गई है। यह गाया प्रक्षिप्त जान पड़ती है । इस भक्तिपर प्रभाचन्द्रकी संस्कृत टीका नहीं है । २२. श्रोस्सामि थुद्धि - ( तीर्थकर भक्ति ) - यह 'थोस्मामि' पदसे प्रारंभ होनेवाली प्रष्टगाथात्मक स्तुति है. जिसे 'तित्थयरभक्ति' (तीर्थंकरभक्ति) भी कहते हैं। इसमें वृषभादि- वर्द्धमान- पर्यन्त चतुविशति तीर्थंकरोंकी. उनके नामोल्लेख-पूर्वक, वन्दना की गई है और तीर्थंकरोंके लिये जिन जिनवर, जिनवरेन्द्र, नरप्रवर, केवली अनन्तजिन, लोकमहित, धर्मतीर्थंकर, विधृत-रज-मल, लोकोद्योतकर, अर्हन्त, प्रहीन - जर-मरण, लोकोत्तम, सिद्ध, चन्द्र-निर्मलतर, प्रादित्याधिक प्रभ और सागरमिव गम्भीर जैसे विशेषरणों का प्रयोग किया गया है । और अन्तमें Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ . जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश उनसे आरोग्यज्ञान-लाभ (निरावरण अथवा मोहविहीन ज्ञानप्राप्ति), समाधि (धर्म्य-शुक्लध्यानरूप चारित्र), बोधि (सम्यग्दर्शन) और सिद्धि (स्वात्मोपलब्धि) की प्रार्थना की गई है । यह भक्तिपाठ प्रथम पद्यको छोड़ कर शेष सात पद्योंके रूपमें थोड़ेसे परिवर्तनों अथवा पाठ-भेदोंके साथ, श्वेताम्बर समाजमें भी प्रचलित हैं और इसे 'लोगस्स सूत्र' कहते हैं। इस सूत्रमें 'लोगस्स' नामके प्रथम पद्यका छांदसिक रूप शेष पद्योंसे भिन्न है-शेष छहों पद्य जब गाथारूपमें पाये जाते हैं तब यह अनुष्टुभ-जैसे छंदमें उपलब्ध होता है, और यह भेद ऐसे छोटे ग्रंथमें बहुत ही खटकता है-खामकर उस हालतमें जबकि दिगम्बर सम्प्रदायमें यह अपने गाथारूपमें ही पाया जाता है । यहाँ पाठभेदोंकी दृष्टिसे दोनों सम्प्रदायों के दो पद्योको तुलनाके रूपमें रक्खा जाता है :-- लोयस्सज्जोययरे धम्म-तित्थंकरे जिणे वंदे। अरहंते कित्तिम्से च वीसं चेव केवलिणे ॥ २॥ --दिगम्बरपाठ लोगस्स उज्जोअगरे धम्मतित्थयरे जिणं । अरहते कित्तइस्सं च वीमं पि केवली ।। १ ।। ----श्वेताम्बरपाठ कित्तिय वंदिय महिया एढ़े लोगोत्तमा जिग्गा सिद्धा। आरोग्ग-णाण-लाह दितु समाहिं च मे बोहिं ।। ७ ।। ----दिगम्बरपाठ कित्तिय वंदिय महिया जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा। आरुग्ग-बोहिलाहं ममाहिवरमुनम दितु ।। ६।। ---श्वेताम्बरपाठ इन दोनों नमूनोंपरमे पाठक इम स्तुतिकी साम्प्रदायिक स्थिति और मूलमे एकताका अच्छा अनुभव कर सकते हैं। हो सकता है कि यह स्तुतिपाठ और भी अधिक प्राचीन-सम्प्रदाय-भेदमे भी बहुत पहलेका हो और दोनों सम्प्र. दायोंने इसे थोड़े थोड़ेसे परिवर्तनके साथ अपनाया हो । अस्तु । कुन्दकुन्दके ये सब ग्रंथ प्रकाशित हो चुके है। २३. मुलाचार और यटकेर-'मूलाचार' जैन साधुओंके प्राचार-विषयका एक बहुत ही महत्वपूर्ण एव प्रामाणिक ग्रंथ है। वर्तमानमे दिगम्बर-सम्प्रदायका दोनों पद्योंका श्वेताम्बरपाठ पं० मुम्बनालजी-द्वाग सम्पादित 'पंचप्रतिक्रमण' ग्रन्थसे लिया गया है । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकुन्दकुन्दाचार्य और उनके प्रन्थं ६६ term.wmmmxwxx 'प्राचाराङ्ग' सूत्र समझा जाता है । धवला टीकामें प्राचाराङ्गके नामसे उसका नमूना प्रस्तुत करते हुए कुछ गाथाएँ उद्धृत है, वे भी इस ग्रन्थमें पाई जाती हैं; जब कि श्वेताम्बरोंके प्राचाराङ्गमें वे उपलब्ध नहीं है । इससे भी इस ग्रंथको प्राचारानकी ख्याति प्रास है । इसपर 'प्राचारवृत्ति' नामकी एक टीका आचार्य वसुनन्दीकी उपलब्ध है, जिसमें इस ग्रन्थको आचाराङ्गका उन्हीं पूर्वनिबद्ध द्वादश अधिकारोंमें उपसंहार (सारोद्धार) बतलाया, और उसके तथा भापाटीकाके अनुसार इस ग्रथको पद्यसंख्या १२४३ हैं । वसुनन्दी प्राचार्यने अपनी टीका इस ग्रन्थके कर्ताको वट्टकेराचार्य, वट्टकेल्चार्य तथा वट्ट रकाचार्य के रूपमें उल्लेखित किया है । पहलारूपटीकाके प्रारम्भिक प्रस्तावना-वाक्यमें, दूसरा वें १०३, ११वें अधिकारों के सन्धिवाक्योंमें और तीमरा ७ वें अधिकारके सन्धि-वाक्यमें पाया जाता है। परन्तु इस नामके किसी भी प्राचार्यका उल्लेख अन्यत्र गुर्वावलियों, पट्टावलियों, शिलालेखों तथा ग्रंथप्रगस्तियों आदिमें कहीं भी देखने नहीं पाता; और इसलिये ऐतिहासिक विद्वानों एवं रिसर्चम्कालगेंके सामने यह प्रश्न बराबर खड़ा हुअा है कि ये वट्टकेगदि नामके कौनमे प्राचार्य हैं और कब हुए हैं ? मूलाचारकी कितनी ही ऐमी पुरानी हम्नलिखित प्रतियां पाई जाती हैं जिनमें ग्रंथकर्ताका नाम कुन्दकुन्दाचार्य दिया हुआ है। डाक्टर ए० एन० उपाध्येको दक्षिणभारतकी ऐसी कुछ प्रतियोंको स्वयं देखनेका अवसर मिला है और जिन्हें, प्रवचनमारकी प्रस्तावनामें, उन्होंने quite: genuine in their appearance'--'अपने रूपमें बिना किमी मिलावटके बिल्कुल असली प्रतीत होनेवाली' लिखा है। इसके सिवाय, माग्गिकचन्द दि. जैन ग्रन्थमालामें मूलाचारकी जो मटीक प्रति प्रकाशित हुई है उसकी अन्तिम पुष्पिकामें भी मूलाचारको कुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीत' लिखा है । वह पुष्पिका इस प्रकार है :____ "इति मूलाचार-विवृत्तौ द्वादशोऽध्यायः । कुन्दकुन्दाचार्य-प्रणीतमूला वाराख्यविवृतिः । कृतिरियं वसुनन्दिनः श्रीश्रमणस्य ।' यह सब देखकर मेरे हृदय में खयाल उत्पन्न हुप्रा कि कुन्दकुन्द एक बहुत * देवो, माणिकचन्दग्रंथमालामें प्रकाशित ग्रंथके दोनों भाग नं० १६, २३ । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जैनसाहित्य और इतिहासपर विराद प्रकाश बड़े प्रवर्तक प्राचार्य हुए है-प्राचार्य भक्तिमें उन्होंने स्वयं प्राचार्यके लिये 'प्रवर्तक' होना बहुत बड़ी विशेषता बतलाया है - और 'प्रवर्तक' विशिष्ट साधुत्रोंकी एक उपाधि है, जो श्वेताम्बर जैन समाजमें आज भी व्यवहृत है। हो सकता है कि कुन्दकुन्दके इस प्रवर्तकत्व-गुणको लेकर ही उनके लिये यह 'वटकेर' जैसे पदका प्रयोग किया गया हो । और इसलिये मैंने वट्टकेर, वट्टकेरि और व? रक इन तीनों शब्दोंके अर्थपर गम्भीरताके साथ विचार करना उचित समझा । तदनुसार मुझे यह मालूम हुअा कि 'वट्टक' का अर्थ वर्तक-प्रवर्तक है, 'इरा' गिरा-वाणी-सरस्वतीको कहते हैं, जिसकी वाणीप्रवर्तिका हो-जनताको सदाचार एवं सन्मार्गमें लगाने वाली हो-उसे 'वट्टकेर' समझना चाहिये । दूसरे, वट्टकों-प्रवर्तकोंमें जो इरि = गिरि-प्रधानप्रतिष्ठित हो अथवा ईरि= समर्थ-शक्तिशाली हो उसे 'वट्टकेरि' जानना चाहिये। तीसरे, 'वट्ट' नाम वर्तन-प्रावरणका है और 'ईरक' प्रेरक तथा प्रवर्तकको कहते हैं, मदाचारमें जो प्रवृत्ति करानेवाला हो उसका नाम 'व? रक' है; अथवा 'वट्ट नाम मार्गका है, सन्मार्गका जो प्रवर्तक, उपदेशक एवं नेता हो उसे भी 'वट्टरक' कहते है । और इसलिये अर्थकी दृष्टि से ये वट्टकेरादि पद कुन्दकुन्दके लिये बहुत ही उपयुक्त तथा संगन मालूम होते हैं। आश्चर्य नहीं जो प्रवर्तकत्व-गुगणकी विशिष्टताके कारण ही कुन्दकुन्दके लिये क्ट्ट रकाचार्य (प्रवर्तकाचार्य) जमे पदका प्रयोग किया गया हो। मूलाचारकी कुछ प्राचीन प्रतियोंमे ग्रन्यकर्तृत्वरूपसे कुन्दकुन्दका स्पष्ट नामोल्लेख उसे और भी अधिक पुष्ट करता है । मी वस्तुस्थितिमें सुहृदूर पं० नाथूरामजी प्रेमीने जैनमिद्धान्तभास्कर (भाग १२ किरण १) में प्रकाशित 'मूलाचारके कर्ता वट्टकेरि' शीर्षक अपने हालके लेखमें, जो यह कल्पना की है कि, जेट्टगेरि या बेट्टकेरी नामके कुछ ग्राम तथा स्थान पाये जाने है, मूलाचारके कर्ता उन्हीमेंसे किसी बेट्टगेरि या वेट्टकेरी ग्रामके ही रहनेवाले होंगे और उमपरमे कोण्डकुन्दादिकी तरह 'बेट्टकेरि' कहलाने लगे होंगे, वह कुछ संगत मालूम नही होती-बेट्ट और वट्ट शन्दोंके रूपमें ही नहीं किन्तु भाषा तथा अर्थमें भी बहुत अन्तर है। 'बेट्ट' शब्द, प्रेमीजीके लेखानुमार, छोटी पहाड़ी का वाचक कनड़ी भाषाका शब्द है और 'गेरि' उस भाषामें गली-मोहल्लेको • बाल-गुरु-वुढ-सेहे गिलारण-घेरे य खमण-संजुत्ता। वट्टावयगा अण्णे दुस्सीले चावि जाणित्ता ॥३॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -~~ -~ ~~- ~~ - ~ श्रीकुन्दकुन्दाचार्य और उनके प्रन्थ कहते हैं; जब कि 'वट्ट' और 'वट्टक' जसे शब्द प्राकृत भाषाके उपर्युक्त अर्थके वाचक शब्द हैं और ग्रंथकी भाषाके अनुकूल पड़ते हैं। ग्रंथभरमें तथा उसकी टीकामें पेट्रगेरि या बेट्टकेरि रूपका एक जगह भी प्रयोग नहीं पाया जाता और न इस ग्रंथके कर्तृत्वरूपमें अन्यत्र ही उसका प्रयोग देखने में आता है, जिससे उक्त कल्पनाको कुछ अवसर मिलता। प्रत्युत इसके, ग्रंथदानकी जो प्रशस्ति मुद्रित प्रतिमें अंकित है उसमें 'श्रीमट्टरकाचार्यकृतसूत्रस्य सद्विधः' इस वाक्यके द्वारा 'व? रक' नामका उल्लेख है, जोकि ग्रंथकार-नामके उक्त तीनों रूपोंमेंसे एक रूप है और सार्थक है। इसके सिवाय, भाषा-माहित्य श्रीर रचनागेली की दृष्टिसे भी यह ग्रंथ कुन्दकुन्दके ग्रंथोंके साथ मेल खाता है. इतना ही नहीं बल्कि कुन्दकुन्दके अनेक ग्रंथोंके वाक्य (गाथा तथा गाथांश) इस प्रथमें उसी तरहसे संप्रयुक्त पाये जाते हैं जिम तरह कि कुन्दकुन्दके अन्य ग्रंथोंमे परस्पर एक-दूसरे ग्रंथके वाक्योंका स्वतन्त्र प्रयोग देखनेमें पाता है । अत: जब तक किसी स्पष्ट प्रमाण-द्वारा इस ग्रंथके कर्तृत्वरूपमें वट्टकेराचार्यका कोई स्वतन्त्र अथवा पृथक् व्यक्तित्व सिद्ध न हो जाए तब तक इस ग्रंथको कुन्दकुन्दकृत मानने और वट्टकेराचार्यको कुन्दकुन्दके लिये प्रयुक्त हुया प्रवर्तकाचार्यका पद स्वीकार करनेमे कोई खास बाधा मालूम नहीं होती। यह ग्रन्थ अति प्राचीन है; ईमाकी पांचवीं शताब्दीके विद्वान् प्राचार्य यतिवृषभने, अपनी तिलोपपण्गनीमें, 'मूनाारे इरिया एवं निउणं णिरूवेंति" इस वाक्यके साथ प्रस्तुत ग्रन्थके कयनका स्पष्ट उल्लेख किया है । ग्रन्थकी यह प्राचीनता भी उमके कुन्दकुन्दकृत होने में एक सहायक है-बाधक नहीं है । • देखो, अनेकान्त वर्ष २ किरस ३.१० २२१ से २२४ । . Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थ सूत्र के कर्ता कुन्दकुन्द ! सब लोग यह जानते हैं कि प्रचलित 'तत्त्वार्थसूत्र' नामक मोक्षशास्त्रके कर्ता 'उमास्वाति' आचार्य हैं, जिन्हें कुछ समय से दिगम्बरपरम्परामें 'उमास्वामी' नाम भी दिया जाता है और जिनका दूसरा नाम 'गृधपिच्छाचार्य' है । इस भावका पोषक एक श्लोक भी जैनसमाजमे सर्वत्र प्रचलित है और वह इस प्रकार है तत्वार्थ सूत्रकर्तारं गृध्रपिच्छोपलक्षितं । वन्दे गणीन्द्र संजातमुमास्वातिमुनीश्वरं ।। परंतु पाठकोंको यह जान कर आश्चर्य होगा कि जैनसमाज मे ऐसे भी कुछ विद्वान हो गये है जो इस तत्त्वार्थ सूत्रको कुन्दकुन्दाचार्यका बनाया हुआ मानते थे । कुछ वर्ष हुए, तत्त्वार्थ सूत्रकी एक श्वेताम्बरीय टिप्पणी को देखते हुए, सबमे पहले मुझे इसका आभास मिला था और तब टिप्पणीकारके उस लिखने पर बड़ा ही आश्चर्य हुआ था । टिप्पणी अन्तमें तत्त्वार्थ सूत्रके कर्तृत्व क्पियमें 'दुर्वादापहार' नामसे कुछ पद्य देते हुए लिखा है : " परमेतावचतुरैः कर्तव्यं शृणुत वच्मि सविवेकः । शुद्धो योऽस्य विधाता सदूषणीयो न केनापि ॥ ४ यः कुरूंदकुंदनामा नामांतरितो निरुच्यते कैश्चित् । ज्ञेयोऽन्यएव सोऽस्मात्स्पष्टमुमास्यातिरिति विदितात् Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता कुन्दकुन्द १०३ टिप्पणी-“एवं चाकर्ण्य वाचको छु मास्वातिदिगंबरो निन्हव इति केचिन्मावदन्नदःशिक्षार्थ परमेतावचतुरैरितिपद्य ब्र महे शुद्धः सत्यः प्रथम इति यावद्यः कोप्यस्य प्रन्थस्य निर्माता स तु केनापि प्रकारेण न निंदनीय एतावश्चतुर्विधेयमिति । तर्हि कुदकुद एवैतत्प्रथम कर्जेति संशयापाहाय स्पष्ट झापयामः यः कुदकुदनामेत्यादि अयं च परतीर्थिकैः कुदकुद इडाचार्यः पद्यनंदी उमास्वातिरित्यादिनामांतराणि कल्पयित्वा पठ्यते सोऽस्मात्प्रकरणकर्तु रुमास्वातिरित्येव प्रसिद्धनाम्नः सकाशादन्य एव ज्ञेयः किं पुनः पुनर्वेदयामः ।" ____ इसमें अपने सम्प्रदाय-वालोंको दो बातोंकी शिक्षा की गई है-एक तो यह कि इस तत्त्वार्थसूत्रके विधाता वाचक उमास्वातिको कोई दिगम्बर अथवा निन्हव न कहने पाए, ऐसा चतुर पुरुषोंको यत्न करना चाहिये । दूसरे यह कि कुन्दकुन्द, इडाचार्य, पद्मनंदी, और उमास्वाति ये एक ही व्यक्ति के नाम कल्पित करके जो लोग इस ग्रन्थका असली अथवा आद्यकर्ता कुन्दकुन्दको बतलाते हैं वह ठीक नही, वह कुन्दकुन्द हमारे इस तत्त्वार्थमूत्रकर्ना प्रसिद्ध उमास्त्रानिमे भिन्न हीव्यक्ति है। ___ इस परमे मुझे यह खयाल हुआ था कि गायद पट्टावलि-वगित कुन्दकुन्दके नामों को लेकर विमी दन्तकथाके आधार पर ही यह कल्पना की गई है । और इस लिये में उसी वक्तमे इस विषयकी खोजमे था कि दिगम्बर-माहित्यमें किसी जगह पर कुन्दकुन्दाचार्यको इम तन्वार्थमूत्रका कर्ता लिखा है या नहीं। खोज करने पर बम्बईके ऐलक-पन्नालालसरस्वतीभवनमे 'अर्हत्सूत्रवृत्ति' नामका एक ग्रंथ उपलब्ध हमा, जो कि तत्वार्थमूत्रकी टीका है-'सिद्धान्त सूत्रवृत्ति' भी जिसका नाम है-और जिगे 'राजेन्द्रमौलि नामके भट्टारकने रचा है । इममें तन्वार्थमूत्रको स्पष्टतया कुन्दकुन्दाचार्यकी कृति लिखा है; जैसा कि इसके निम्न वाक्योंसे प्रकट है:___ "श्रथ अर्हत्सूत्रवृत्तिमारभे । तत्रादौ मंगलाद्यानि मंगलमध्पानि मंगलान्तानि च शास्त्राणि प्रथ्यते । तदस्माकं विध्नघाताय अस्मदाचार्यो भगवान् कुन्द-कुन्दमुनिः स्वेष्टदेवतागणोत्कर्षकीर्तनपूर्वक तत्स्वरूपवस्तुनिदेशात्मकं च शिष्टाचारविशिष्टष्टजीववाद सिद्धान्तीकृत्य तद्गुणोप Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश लब्धिफलोपयोग्यवन्दनानुकूलव्यापारगर्भमंगलमाचरति मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृतां । ज्ञातारं विश्वतत्त्वनां वंदे तद्गुणलब्धये ॥ ____एतद्गुणोपलक्षितं समवसतावुपदिशंतं भगवंतमहदाख्यं केवलिनं तद्गुणानां नेतृत्व-भेतृत्व-ज्ञातृत्वादीनां सम्यगुपलब्धये वंदे नतोऽस्मि ।। सूत्र ॥ "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।।" अत्र बहुवचनत्वात्समुदायार्थघातकत्वेन त्रयाणां समुदायो मोक्षमार्गः।" "इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्र सिद्धान्तसूत्रवृत्तौ दशमोऽध्ययाय.।।१०।। "मूलसंघबलात्कारगणे गच्छे गिरां शुभे ।। राजेंद्रमौलि-भट्टार्कः सागत्य पट्टराडिमां । व्यरचीनकुदकुदार्यकृतसूत्रार्थदीपिकाम् ।।" जहाँ तक मैंने जनसाहित्यका अन्वेषण किया है और तत्त्वार्थमूत्रकी बहुतसी टीकाओंको देखा है, यह पहला ही ग्रंथ है जिसमें तत्त्वार्थमूत्रका कर्ता 'उमास्वाति' या गृध्रपिच्छाचार्यको न लिख कर 'कुन्दकुन्द मुनिको लिखा है । यह ग्रन्थ कब बना अथवा राजेंद्रमौलिका आस्तित्व समय क्या है, इसका अभी तक कुछ ठीक पता नहीं चल सका-इतना तो स्पष्ट है कि पाप मूलसंघ-सरस्वतीगच्छके भट्टारकतथा सागत्यपट्टके आधीश्वर थे। हाँ; उक्त श्वेताम्बर टिप्परिणकार रत्नसिंहके समयका विचार करते हुए, राजेंद्रमौलिभ०का समय संभवत. १४वीं शताब्दी या उससे कुछ पहले-पीछे जान पड़ता है। मालूम नही भट्टारकजीने किस आधार पर इस तत्त्वार्थसूत्र को कुन्दकुन्दाचार्यकी कृति बतलाया है ! उपलब्ध प्राचीन साहित्य परसे तो इसका कुछ भी समर्थन नहीं होता। हो सकता है कि पट्टावली (गुर्वावलि)-वर्णित कुन्दकुन्दके नामोंमें गृद्ध पिच्छका नाम देख कर भोर यह मालूम करके कि उमास्वातिका दूसरा नाम 'गृपिच्छाचार्य' है, मापने कुन्दकुन्द • ततोऽभवत्पंचसुनामधामा श्रीपानंदी मुनिचक्रवर्ती ॥ - प्राचार्यकुन्दकुन्दाल्यो वक्रगीवो महामतिः । • एनाचार्यों गृधपिच्छ: पवनन्वीति तन्यते । नन्दिसंपविली.। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता कुन्दकुन्द १०५ और उमास्वाति दोनोंको एक ही व्यक्ति समझ लिया हो और इसीलिये तत्वार्थसूत्रके कर्तृत्वरूपसे कुन्दकुन्दाचार्यका नाम दे दिया हो । यदि ऐसा है, और इसीकी सबसे अधिक संभावना है, तो यह स्पष्ट भूल है। दोनोंका व्यक्तित्व एक नहीं था। उमास्वाति कुन्दकुन्दके वंशमें एक जुदे ही प्राचार्य हए है, और वे ही गृध्रांखोंकी पीछी रखने मे गृधपिच्छ कहलाते थे। जैसा कि कुछ श्रवणबेल्गोलके निम्न शिलालेखोंमे भी पाया जाता है : श्रीपद्मनन्दीत्यनवधनामा ह्याचार्यशब्दात्तरकोण्डकुन्दद्वितीयमासीदभिधानमुद्यचरित्रसंजातसुचारणद्धिः ।। अभूदुमास्वातिमुनीश्वराऽसावाचार्यशब्दोत्तरगृधू पिञ्छः । तदन्वये तत्सदशोऽस्ति नान्यस्तात्कालिकाशेषपदार्थवेदी । तदीयवंशाकरतः प्रसिद्धादभूददोषा यतिरत्नमाला । बभौ यदन्तर्मणिवन्मुनीन्द्रस्स कौण्डकुन्दोदितचंडदंड: अभूदुमास्वातिमुनिः पवित्र वंशे तदीये सकलार्थवेदी सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजातं मुनिपुंगवेन सप्राणिसंरक्षणासावधानो बभार योगीकिलगृद्धपक्षान् । तदाप्रभृत्येव बुधायमाहुराचार्यशब्दोत्तरगृद्धपिञ्छ । यहाँ शिलालेख नं० ४७ में कुन्दकुन्दका दूसरा नाम 'पद्मनंदी' दिया है और इसी का उल्लेख दूसरे शिलालेखों आदिमें भी पाया जाता है। बाकी पट्टावलियों (गुर्वावलियो) में जो गृद्ध पिच्छ, एलाचार्य और वक्रग्रीव नाम अधिक दिये हैं उनका समर्थन अन्यत्र से नहीं होता । गृद्धपिच्छ (उमास्वाति) की तरह एलाचार्य और वक्रीव नामके भी दूसरे ही प्राचार्य हो गये है। और इस लिये पट्टावली की यह कल्पना बहुत कुछ संदिग्ध नथा आपत्ति के योग्य जान पड़ती है। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उमास्वाति या उमास्वामी ? दिगम्बर सम्प्रदाय में तत्त्वार्थसूत्रके कर्त्ताका नाम आजकल आम तौरमे 'उमास्वामी' प्रचलित हो रहा है। जितने ग्रन्थ और लेख ग्राम तौरमे प्रकाशित होते हैं और जिनमें किसी न किसी रूपमे तत्त्वार्थसूत्रके कर्ताका नामोल्लेख करनेकी जरूरत पड़ती है उन सबमें प्रायः उमास्वामी नामका ही उल्लेख किया जाता है; बल्कि कभी-कभी तो प्रकाशक अथवा सम्पादक जन 'उमास्वाति' की जगह 'उमास्वामी' या 'उमास्वामि' का संशोधन तक कर डालते हैं । तत्त्वार्यसूत्रके जितने संस्करण निकले है उन सबमें भी ग्रन्थकर्ताका नाम उमास्वामी ही प्रकट किया गया हैं । प्रत्युत इसके, श्वेताम्बर सम्प्रदायमें ग्रन्थकर्ताका नाम पहले ही उमास्वाति' चला आता है और वही इस समय प्रसिद्ध है । अब देखना यह है कि उक्त ग्रन्थकर्ताका नाम वास्तव में उमास्वाति था या उमास्वामी और उसकी उपलब्धि कहाँसे होती है । खोज करनेसे इस विषय में दिगम्बर साहित्यमे जो कुछ मालूम हुआ है उसे पाठकोंके अवलोकनार्थं नीचे प्रकट किया जाता है (१) श्रवणबेलगोलके जितने शिलालेखों में प्राचार्य महोदयका नाम आया है उन सबमें आपका नाम 'उमास्वाति' ही दिया है । 'उमास्वामी' नामका उल्लेख किसी शिलालेखमें नहीं पाया जाता। उदाहरण के लिये कुछ अवतरण नीचे दिये जाते हैं Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उमास्वाति या उमास्वामी? अभूदुमास्वातिमुनीश्वरोऽसावाचार्यशब्दोत्तरगृद्धपिछः । -शिलालेख नं० ४७ श्रीमानुमास्वातिरयं यतीशस्तत्वार्थसूत्रं प्रकटीचकार । -शि० नं० १०५ अभूदुमास्वातिमुनिः पवित्रे वंशे तदीये सकलार्थवेदी। सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजातं मुनिपुगवेन ॥ -शि० नं० १०८ इन शिलालेखोंमें पहला शिलालेख शक संवत् १०३७ का, दूसरा १३२० का और तीसरा १३५५ का लिखा हुआ है। ४७वें शिलालेखवाला वाक्य ४०, ४२, ४३ और ५० नम्बरके शिलालेखोंमें भी पाया जाता है। इससे स्पष्ट है कि आजसे आठसौ वर्षसे भो पहलेसे दिगम्बर सम्प्रदायमें तत्वार्थमूत्रके कर्ताका नाम 'उ मास्वाति' प्रचलित था और वह उसके बाद भी कई सौ वर्ष तक बराबर प्रचलित रहा है। साथ ही, यह भी मालूम होता है कि उनका दूसरा नाम गृध्रपिञ्छाचार्य था । विद्यानन्द स्वामीने भी, अपने 'इलोकवार्तिक' में, इस पिछले नामका उल्लेख किया है । (२) 'प्रिग्रेफिया कर्णाटिका' की ८ वी जिल्दमें प्रकाशित 'नगर' ताल्लुके ४६ वे शिलालेखम भी 'उमास्वाति' नाम दिया है तत्त्वार्थसूत्रकारमुमास्वातिमुनीश्वरम् । श्रुतकेवलिदेशीयं वन्देहं गुणमन्दिरम् ॥ (३) नन्दिमङ्घकी 'गुर्वावली मे भी तत्वार्थमूत्रके कर्ताका नाम 'उमास्वाति' दिया है । यथा तत्त्वार्थसूत्रकर्तृत्वप्रकटीकृतसन्मतिः । उमास्वातिपदाचार्यो मिथ्यात्वतिमिरांशुमान्छ । जैनसिद्धान्तभास्करकी ४थी किरणमें प्रकाशित श्रीशुभचन्द्राचार्यकी गुर्वावलीमें भी यही नाम है और यही वाक्य दिया है और ये शुभचन्द्राचार्य विक्रम की १६ वीं और १७ वीं शताब्दीमें हो गये हैं। * देखो जनहितैषी भाग ६ अङ्क ७-८ । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जैनसाहित्य और इतिहासपर विराद प्रकाश (४) नन्दिसङ्घकी 'पट्टावली' में भी कुन्दकुन्दाचार्यके बाद छठे नम्बर पर 'उमास्वाति' नाम ही पाया जाता है। (५) बालचन्द्र मुनिकी बनाई हुई तत्वार्थसूत्रकी कनडी टीका भी 'उमास्वाति' नामका ही समर्थन करती है और साथ ही उसमें 'गृध्रपिञ्छाचार्य' नाम भी दिया हुआ है । बालचन्द्र मुनि विक्रमकी १३ वीं शताब्दीके विद्वान् हैं। (६) विक्रमकी १६वीं शताब्दीसे पहले का ऐसा कोई अन्य अथवा गिला. लेख प्रादि अभी तक मेरे देखने में नहीं पाया जिसमें तत्वार्थसूत्रके कर्ताका नाम 'उमास्वामी' लिखा हो । हाँ, १६वीं शताब्दीके बने हुए श्रुतसागरसूरिके ग्रन्थोंमें इस नामका प्रयोग जरूर पाया जाता है। श्रुतसागरसूरिने अपनी श्रुतसागरी टीकामें जगह-जगह पर यही (उमास्वामी) नाम दिया है और 'पौदार्यचिन्तामणि' नामके व्याकरण ग्रन्थमें 'श्रीमानुमाप्रभुरनन्तरपूज्यपादः' इम वाक्यमें प्रापने 'उमा' के साथ 'प्रभु' शब्द लगाकर और भी साफ तौरमे 'उमास्वामी' नामको सूचित किया है । जान पड़ता है कि 'उमास्वाति' की जगह 'उमास्वामी' यह नाम श्रुतसागरमूरिका निर्देश किया हुआ है और उनके समय से ही यह हिन्दी भाषा आदिके ग्रन्थोंमें प्रचलित हुआ है । और अब इसका प्रचार इतना बढ़ गया कि कुछ विद्वानोंको उसके विषयमें बिलकुल ही विपर्यास हो गया है और वे यहाँतक लिखनेका साहस करने लगे है कि तत्त्वार्थमूत्रके कर्ताका नाम दिगम्बरोंके अनुसार 'उमास्वामी' और श्वेताम्बरोंके अनुसार 'उमास्वाति' है । (७) मेरी रायमें, जब तक कोई प्रबल प्राचीन प्रमाण इस बातका उपलब्ध न हो जाय कि १६ वीं शताब्दीसे पहले भी 'उमास्वामी' नाम प्रचलित था, तब तक यही मानना ठीक होगा कि प्राचार्य महोदयका असली नाम 'उमास्वाति' तथा इसका नाम 'गृद्धपिच्छाचार्य' था और 'उमास्वामी' यह नाम श्रुतसागर सूरिका निर्देश किया हुआ है । यदि किसी विद्वान महाशयके पास इसके विरुद्ध कोई प्रमाण मौजूद हो तो उन्हें कृपाकर उसे प्रकट करना चाहिये। देसी, कार्यसूत्रके अंग्रेजी अनुवादकी प्रस्तावना : Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थसूत्रकी उत्पत्ति उमास्वातिक तत्त्वार्थमूत्र पर 'तत्त्वरत्नप्रदीपिका' नामकी एक कनडी टीका बालचन्द्र मुनिकी बनाई हुई है, जिसे 'तत्त्वार्थ-नापर्य-वृनि' भी कहते हैं। इस टीका की प्रस्तावनामें नत्वार्थसूत्रकी उत्पत्ति जिम प्रकारसे बतलाई है उसका संक्षिप्त सार इस प्रकार है :- "मौराष्ट्र देशके मध्य ऊर्जयन्तगिरिके निकट गिरिनगर (जूनागढ़) नामके पतनमें आसन्न भव्य स्वहितार्थी, द्विजकुलोत्पन्न, श्वेताम्बरभक्त ऐमा सिद्धय्य' नामका एक विद्वान् श्वेताम्बर मतके अनुकूल सकल शास्त्रका जाननेवाला था। उसने 'दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' यह एक मूत्र बनाया और उस एक पाटिये पर लिव छोड़ा। एक समय चर्यार्थ श्रीगृद्धपिच्छाचार्य 'उमास्वाति' नामके धारक मुनिवर वहाँ पर आये और उन्होंने आहार लेनेके पश्चात् पाटियेको देखकर उसमे उक्त सूत्रके पहले 'सम्यक्' शब्द जोड़ दिया। जब वह (सिद्धय्य) विद्वान् बाहरसे अपने घर आया और उसने पाटिये पर 'सम्यक्' शब्द लगा देखा तो उसने प्रसन्न होकर अपनी मातासे पूछा कि, किस महानुभावने यह शब्द लिखा है । माताने उत्तर दिया कि एक महानुभाव निर्ग्रन्थाचार्यने यह बनाया है । इस पर वह गिरि और अरण्यको ढूढता हुआ उनके आश्रममें पहुँचा ओर भक्तिभावसे नम्रीभूत हो कर उक्त मुनि * यह टीका पाराके जैनसिद्धान्त-भवनमें देवनागरी अक्षरों में मौजूद है। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश महाराजसे पूछने लगा कि आत्माका हित क्या है ? ( यहाँ प्रश्न और इसके बादका उत्तर-प्रत्युत्तर प्रायः सब वही है जो 'सर्वार्थसिद्धि' की प्रस्तावनामें श्रीपूज्यपादाचार्यने दिया है । ) मुनिराजने कहा 'मोक्ष' है। इस पर मोक्षका स्वरूप और उसकी प्राप्तिका उपाय पूछा गया जिसके उत्तररूपमें ही इस ग्रन्थका अवतार हुआ है। इस तरह एक श्वेताम्बर विद्वान्के प्रश्नपर एक दिगम्बर आचार्यद्वारा इस तत्वार्थसूत्रकी उत्पत्ति हुई है, ऐमा उक्त कथनसे पाया जाता है । नहीं कहा जा सकता कि उत्पत्तिकी यह कथा कहाँ तक ठीक है । पर इतना जरूर है कि यह कथा सातसौ वर्षसे भी अधिक पुरानी है; क्योंकि उक्त टीकाके कर्ता बालचंद्र मुनि विक्रम की १३ वीं शताब्दीके पूर्वार्ध में हो गये है । उनके गुरु 'नयकीति' का देहान्त शक सं० १०६६ (वि० सं० १२३४) में हुअा था । मालूम नहीं कि इस कनड़ी टीकामे पहलेके और किस ग्रन्थमे यह कथा पाई जाती है । तत्त्वार्थमूत्रकी जितनी टीकाएँ इम ममय उपलब्ध हैं उनमे सबसे पुरानी टीका 'सर्वार्थमिद्धि' है । परन्तु उसमें यह कथा नहीं है। उमकी प्रस्तावनामे सिर्फ इतना पाया जाता है कि किमी विद्वान्के प्रश्नपर इस मूल ग्रन्थ (तत्वार्थसूत्र) का अवतार हुआ है । वह विद्वान् कौन था, किस सम्प्रदायका था, कहांका रहनेवाला था और उसे किस प्रकारसे ग्रन्थकर्ता प्राचार्यमहोदयका परिचय तथा समागम प्राप्त हुअा था, इन सब बातोंके विषयमें उक्त टीका मौन है। यथा--- "कश्चिद्भव्यः प्रत्यासन्ननिष्ठः प्रज्ञावान् स्वहितमुपलिप्मुविविक्त परमरम्ये भव्यसत्वविश्रामास्पदे क्वचिदाश्रमपदे मुनिपरिपगमध्ये सन्निपण्मण मूर्तमिव मोक्षमार्गमावाग्विसर्ग वपुषा निरूपयन्तं युक्त्यागमकुटालं परहितप्रतिपादनककार्यमार्यनिषेव्यं निर्ग्रन्थाचार्यवर्यमुपमद्य मविनयं परिपृच्छनिस्म, भगवन् ! किंखलु प्रात्मनो ॐ देखो श्रवणबेलगोलस्थ शिलालेख नं० ८२। + इस पदकी वृत्तिमें प्रभाचन्द्रचार्यने प्रश्नकर्ता भव्यपुरुषका नाम दिया है जो पाठकी अशुद्धिसे कुछ गलतसा हो रहा है, और प्रायः सिद्धय्य' ही जान पड़ता है। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Amr तत्वार्थसूत्रकी उत्पत्ति हितं स्यादिति । स ाह मोक्ष इति । स एव पुनः प्रत्याह किं स्वरूपोऽसौ मोक्षः कश्चास्य प्राप्त्युपाय इति । आचार्य आह......।" संभव है कि इस मूलको लेकर ही किसी दन्तकथाके आधार पर उक्त कथाकी रचना की गई हो; क्योंकि यहां प्रश्नकर्ता और प्राचार्य महोदयके जो विशेषण दिये गये हैं प्रायः वे सब कनड़ी टीकामें भी पाये जाते हैं। साथ ही प्रश्नोत्तरका ढंग भी दोनोंका एक सा ही है । और यह सम्भव है कि जो बात सर्वार्थसिद्धि मे संकेत रूपमे ही दी गई है वह बालचन्द्र मुनिको गुरु परम्परामे कुछ विस्तारके साथ मालूम हो और उन्होंने उसे लिपिबद्ध कर दिया हो; अथवा किमी दूसरे ही ग्रन्थसे उन्हें यह मब विशेष हाल मालूम हुआ हो। कुछ भी हो, बात नई है जो अभी तक बहुतोंके जानने में न आई होगी और इसमें नत्वार्थमूत्रका समन्वय दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंके साथ स्थापित होता है । साथ ही, यह भी मालूम होता है कि उस समय दोनों सम्प्रदायोमे आज कल-जैसी खीचातानी नही थी और न एक दूमरेको घृणाकी दृष्टिसे देखता था । * श्रुतमागरी टीकामे भी इमा मूलका प्रायः अनुमरण किया गया है और इसे सामने रखकर ही ग्रन्थको उत्यानिका लिखी गई है। साथ ही, इतना विशेप है कि उसमें प्रश्नकर्ता विद्वान्का नाम 'द्वैपायक' अधिक दिया है । कनड़ी टीकावाली और बातें कुछ नहीं दी । यह टीका कनड़ी टीकासे कई सौ वर्ष वाद की बनी हुई है। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश विवादापन्न है, और उसकी यह विवादापन्नता टिप्पणमें सातवें अध्यायके उक्त ३१वें सूत्रके न होनेसे और भी अधिक बढ़ जाती है; क्योंकि इस सूत्र पर भाष्य भी दिया हुआ है, जिसका टिप्पणकारके सामनेवाली उस भाष्यप्रतिमें होना नहीं पाया जाता जिसपर वे विश्वास करते थे, और यदि किसी प्रतिमें होगा भी तो उसे उन्होंने प्रक्षिप्त समझा होगा । अन्यथा यह नहीं हो सकता कि जो टिप्परणकार भाष्यको मूल-चूल-सहित तत्त्वार्थसूत्रका बाता (रक्षक) मानता हो वह भाष्यतकके साथमें विद्यमान होते हुए उसके किसी सुत्रको छोड़ देवे ।। (४) बढ़ हुए कतिपय सूत्रोंके सम्बन्धमें टिप्पणीके कुछ वाक्य इम प्रकार है: (क) “केचित्त्वाहारकनिर्देशात्पूर्व "तैजसमपि" इति पाठं मन्यते, नैवं युक्तं तथासत्याहारकं न लब्धिजमिति भ्रमः समुत्पद्यते, आहारकस्य तु लब्धिरेव योनिः." (ख) "केचित्तधर्मा वंशेत्यादिसूत्रं न मन्यते तदसत । 'घम्मा वंसा सेला अंजनरिठ्ठा मघा य माघबई, नामेहि पुढवीओ छत्ताइछनमंठागा' इत्यागमान।" (ग) “केचिजडा: 'म द्विविधः' इत्यादि सूत्राणि न मन्यते ।' ये तीनों वाक्य प्रायः दिगम्बर आचार्योका लक्ष्य करके कहे गये है। पहले वाक्य में कहा है कि कुछ लोग पाहारकके निशात्मक मूत्र में पूर्व ही "तैजसमपि" यह मूत्र पाट मानते हैं, परगनु यह ठीक नहीं; क्योंकि गंमा होने पर ग्राहारक शरीर लब्धिजन्य नहीं ऐमा भ्रम उत्पन्न होता है, अाहारककी नो लब्धि ही यानि है ।' दूसरे वाक्यम बतलाया है कि कुछ लोग 'धर्मा वंशा' इत्यादि मूत्र को जो नहीं मानते हैं वह ठीक नहीं है । साथ ही, ठीक न होने के हेतुरूपमें नरकभूमियोंके दूसरे नामोंवाली एक गाथा देकर लिखा है कि 'चकि आगममे नरकभूमियोंके नाम तथा मम्थानके उल्लखवाला यह वाक्य पाया जाता है, इसलिये इन नामोंवाले मूत्र को न मानना अयुक्त है।' परन्तु यह नहीं बतलाया कि जब मूत्र काग्ने 'रत्नप्रभा' प्रादि नामोके द्वारा मप्त नरकभूमियोंका उल्लेख पहले ही सूत्र में कर दिया है तब उनके लिये यह कहाँ लाज़िमी आता है कि वे उन नरकभूमियोंके दूसरे नामोंका भी उल्लेख एक दूसरे मूत्र-द्वारा करें। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वाधिगमसूत्रकी एक सटिप्पण प्रति ११५ - इससे टिप्परकारका यह हेतु कुछ विचित्रसा ही जान पड़ता है। दूसरे प्रसिद्ध श्वेताम्बराचार्योने भी उक्त 'धर्मावंशा' नामक सूत्र को नहीं माना है, और इसलिये यह वाक्य कुछ उन्हें भी लक्ष्य करके कहा गया है। तीसरे वाक्य में उन श्रचायक 'जडबुद्धि' ठहराया है जो "सद्विविधः" इत्यादि सूत्रोंको नहीं मानते हैं !! यहां 'प्रादि' शब्दका अभिप्राय 'अनादिरादिमांश्च' 'रूपिष्वादिमान,' 'योगोपयोगी जीवंषु' इन तीन सूत्रोंसे है जिन्हें 'सद्विविधः ' सूत्र सहित दिगम्वराचार्य सूत्रकारकी कृति नहीं मानते हैं । परन्तु इन चार सूत्रों में 'सद्विविधः' सूत्रको तो दूसरे श्वेताम्बराचार्योंने भी नहीं माना है । और इसलिये कस्मात् 'जडा' पदका वे भी निशाना वन गये हैं ! उन पर भी बुद्धि होने का आरोप लगा दिया गया है !! इसमें श्वेताम्बरोंमें भाग्य-मान्य-सूत्रपाठका विषय और भी अधिक विवादापन्न हो जाता है और यह निश्चितरूपमे नही कहा जा सकता कि उसका पूर्ण एवं यथार्थ रूप क्या है। जब कि सर्वार्थसिद्धि-मान्य सूत्रपाठ के विषय में दिगम्वराचायोमे परस्पर कोई मतभेद नहीं है । यदि दिगम्बर सम्प्रदायमे सर्वार्थसिद्धिसे पहले भाग्यमान्य अथवा कोई दूसरा सूत्रपाठ म्ह हुआ होता और सर्वार्थसिद्धिकार ( श्री पूज्यपादाचार्य ) ने उसमें कुछ उलटफेर किया होता तो यह सम्भव नहीं था कि दिगम्बर यात्रायमि सूत्रपाठ सम्बन्धमें परस्पर कोई मतभेद न होता । श्वेताम्बरांमं भयमान्य पाठके विषय में मतभेदका होना बहुधा भाव्य पहले किसी दूसरे सुत्रपाटके अस्तित्व ग्रथवा प्रचलित होने को सूचित करता है । (५) दसवे अध्यायके एक दिगम्बर नुत्रके सम्बन्ध मे टिप्परगकारने इस प्रकार लिखा है "केचित्तु 'आविद्धकुलाल चक्रवव्यपगतले पालांबुवदेरण्डबीजवदग्निशिखावच' इति नव्यं सूत्रं प्रक्षिपन्ति तन्न सूत्रकारकृतिः, 'कुलालचक्रे दोलायामिपौ चापि यथेष्यते' इत्यादिश्लोकैः सिद्धस्य गतिस्वरूपं प्रोक्त मेव, ततः पाठान्तरमपार्थं ।" अर्थात् — कुछ लोग 'आविद्धकुलालचक्र' नामका नया सूत्र प्रक्षिप्त करते हैं, - वह मूत्रकारकी कृति नही है । क्योंकि 'कुलालचक्रे दोलायामिपौ चापि यथे Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ जैमसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश व्यते' इत्यादि श्लोकोंके द्वारा सिद्धगतिका स्वरूप कहा ही है, इसलिये उक्त सूत्ररूपसे पाठान्तर निरर्थक है । यहाँ 'कुलालचके' इत्यादिरूपसे जिन इलोकों का सूचन किया है वे उक्त सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रके अन्तमें लगे हुए ३२ इलकोंमेंसे १०, ११, १२, १४ नम्बरके श्लोक हैं, जिनका विषय वही है जो उक्त सूत्रका- -- उक्त सूत्रमें वरिंगत चार उदाहरणोंको अलग-अलग चार श्लोकोंमें व्यक्त किया गया है। ऐसी हालतमें उक्त सूत्रके सूत्रकारकी कृति होने में क्या बाधा आती है उसे यहाँ पर कुछ भी स्पष्ट नही किया गया है। यदि किसी बातको श्लोकमें कह देने मात्रसे ही उस आशयका सूत्र निरर्थक हो जाता है और वह सूत्रकारकी कृति नही रहता, तो फिर २२वें श्लोकमें ‘धर्मास्तिकायस्याभावात् स हि हेतुर्गतेः परः ' इस पाठ के मौजूद होते हुए टिप्पणकारने "धर्मास्तिकायाभावात् " यह सूत्र क्यों माना ? - उसे सूत्रकारकी कृति होनेसे इनकार करते हुए निर्रथक क्यों नहीं कहा ? यह प्रश्न पैदा होता है, जिसका कोई भी समुचित उत्तर नहीं बन सकता । इस तरह तो दसवें अध्यायके प्रथम छह सूत्र भी निर्रथक ही ठहरते हैं; क्योंकि उनका सब विषय उक्त ३२ श्लोकोंके प्रारम्भके ६ श्लोकों में आगया हैउन्हें भी सूत्रकारकी कृति न कहना चाहिये था । श्रतः टिप्पणकारका उक्त तर्क निःसार है - उसमे उसका अभीष्ट सिद्ध नही हो सकता, अर्थात् उक्त दिगम्बर सूत्र पर कोई आपत्ति नहीं आ सकती । प्रत्युत इसके, उसका सूत्रपाठ उसी के हाथों बहुत कुछ प्रापत्तिका विषय बन जाना है । (६) इम सटिप्पण प्रतिके कुछ सूत्रोंमें थोड़ासा पाठ भेद भी उपलब्ध होता -जैसे कि तृतीय अध्यायके १०वे सूत्रके शुरू में 'तत्र' शब्द नहीं है वह दिगम्बर सूत्रपाठकी तरह 'भरतहैमवत हरिविदेह' में ही प्रारम्भ होता है । और छठे अध्याय के छठे (दि० ५ वें सूत्रका प्रारम्भ ) ' इन्द्रियकपायत्रतक्रियाः ' पदमे किया गया है, जैसे कि दिगम्बर सूत्रपाठमें पाया जाता है और सिद्धसेन तथा हरिभद्रकी कृतियोंमें भी जिसे भाव्यमान्य सूत्रपाठके रूपमें माना गया है; परन्तु बंगाल एशयाटिक सोसाइटीके उक्त संस्करणमें उसके स्थानपर 'अत्रतकषायेद्रियक्रियाः ' पाठ दिया हुआ है और पं०सुखलालजीने भी अपने अनुवादमें उमी को स्वीकार किया है, जिसका कारण इस सूत्र के भाष्यमें 'अम्रत' पाठका प्रथम Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ datefferent एक सटिप्पण प्रति ११० होना जान पड़ता है और इसलिये जो बादमें भाष्यके व्याख्याक्रमानुसार सूत्रके सुधारको सूचित करता है । (७) दिगम्बर सम्प्रदाय में जो सूत्र श्वेताम्बरीय मान्यताकी अपेक्षा कमती - बढ़ती रूपमें माने जाते हैं अथवा माने ही नहीं जाते उनका उल्लेख करते हुए टिप्पर में कहीं-कहीं अपशब्दों का प्रयोग भी किया गया है । अर्थात् प्राचीन दिगम्बराचार्योको 'पाखंडी' तथा 'जडबुद्धि' तक कहा गया है । यथा ननु- ब्रह्मोत्तर- कापिष्ठ- महाशुक्र- सहस्रारेषु नेंद्रोत्पत्तिरिति परवादिमतमेतावतैव सत्याभिमतमिति कश्चिन्मा व यात्किल पाखंडिनः स्वकपोलकल्पित बुद्धचैव षोडश कल्पान्प्राहुः, नोचेद्दशा पंचपोडशविकल्पा इत्येव स्पष्ट सूत्रकारोऽसूत्रयिष्यद्यथाखंडनीयो निन्हवः ।" 'केचिज्जडा : 'प्रहाणामेकं' इत्यादि मूलसूत्रान्यपि न मन्यन्ते चन्द्राafari मिथः स्थितिभेदोस्तीत्यपि न पश्यन्ति ।" इससे भी अधिक अपशब्दोंका जो प्रयोग किया गया है उसका परिचय पाठकों को आगे चलकर मालूम होगा । (८) दसवें अध्याय के अन्त में जो पुष्पिका ( अन्तिम सन्धि ) दी है व इस प्रकार है " इति तत्वार्थावगमेर्हत्प्रचनसंग्रहे मोक्षप्ररूपणाध्यायो दशमः । ०२२५ पर्यंतमादितः । समाप्तं चैतदुमाम्वातिवाचकस्य प्रकरणापचशती कर्तु : कृतिस्तत्त्वार्थाधिगमप्रकरणं ॥ " इसमें मूल तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की ग्राद्यन्तकारिकाओं सहित ग्रथसंख्या २२५ श्लोकपरिमाण दी है और उसके रचयिता उमास्वातिको श्वेताम्बरीय मान्यतानुमार पांचमी प्रकरणोंका अथवा 'प्रकरणपंचशती का कर्ता सूचित किया है, जिनमें से अथवा जिसका एक प्रकरण यह 'तत्त्वार्थाधिगमसूत्र' है । (e) उक्त पुष्पिकाके अनन्तर ६ पद्य दिये हैं, जो टिप्पणकारकी खुदकी कृति हैं । उनमें प्रथम सात पद्य दुर्वादापहारके रूप में हैं और शेष दो पद्य अंतिम मंगल तथा टिप्परकार के नामसूचनको लिये हुए हैं । इन पिछले पद्योके प्रत्येक चरणके दूसरे अक्षरको क्रमशः मिलाकर रखनेमे "रत्नसिंहो जिनं वंदे" ऐसा वाक्य उपलब्ध होता है, और इसीको टिप्परणमे " इत्यन्तिमगाथाद्वय रहस्यं " Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश पदके द्वारा पिछले दोनों गाथा - पद्योंका रहस्य सूचित किया है । वे दोनों पद्य इस प्रकार हैं सुरनरनिकरनिषेव्यो । नूनपयोदप्रभारुचिरदेहः । सिंधुनिराजो | महोदयं दिशति न कियद्भ्यः ||८|| वृजिनोपतापहारी । सनंदिमचिच्चकोर चंद्रात्मा । 3 भावं भविनां तन्वन्मुदे न संजायते केपां ॥६॥ इससे स्पष्ट है कि यह टिप्पण 'रत्नसिंह' नामके किसी श्वेताम्वराचार्यका बनाया हुआ है | श्वेताम्वरसम्प्रदाय मे 'रत्नसिंह' नामके अनेक सूरि-प्राचार्य हो गये हैं, परन्तु उनमे इस टिप्पणके रचयिता कौन है, इसका ठीक पता मालूम नहीं हो सका क्योंकि 'जैनग्रंथावली' और 'जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास' जैसे ग्रंथोंमें किसी भी रत्नसिंहके नामके साथ इस टिप्पण ग्रन्थका कोई उल्लेख नही है । और इसके लिये इनके समय-सम्बन्धमं यद्यपि अभी निश्चित रूपसे कुछ भी नहीं कहा जा सकता, फिर भी उतना तो स्पष्ट है कि ये विक्रमकी १२ वी १२ वी शताब्दी के विद्वान् ग्राचार्य हेमचन्द्र के बाद हुए है, क्योंकि इन्होंने अपने एक टप्पा हमके कोपका प्रमाण 'इति हेमः' वाक्यके साथ दिया है । साथ ही, यह भी स्पष्ट ही है कि इनमें साम्प्रदायिक कूट्टरता बहुत बहीचढ़ी थी और वह सभ्यता तथा शिष्टताको भी उत्तम गई थी, जिसका कुछ अनुभव पाठकों को अगले परिचय प्राप्त हो सकेगा । (१०) उक्त दोनों पद्योंके पूर्व मे जो ७ पद्य दिये है और जिनके अन्त में " इति दुर्वादापहारः " लिखा है उनपर टिप्पणकारकी स्वोपज्ञ टिप्पणी भी है | यहा उनका क्रमशः टिप्पणी-महित कुछ परिचय कराया जाता है:प्रागवैतद्दक्षिणभपणगरणादास्यमानमिव मत्वा । त्रातं समूलचूलं स भाध्यकारश्चिरं जीयात ॥१॥ टिप्प - "दक्षिण सरलादाराविति हैमः । श्रदक्षिणा असरला: * इन दोनों पद्योंके अन्त में "श्रेयोऽस्तु" ऐसा श्राशीर्वाक्य दिया हुआ है । + "दक्षिणे सरलादारी" यह पाठ अमरकोशका है, उसे 'इति हैमः' लिखकर हेमचन्द्राचार्य कोषका प्रकट करना टिप्परकारकी विचित्र नीतिको सूचित करता है । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी एक सटिप्पण प्रति ११६ स्ववचनस्यैव पक्षपातमलिना इति यावत्त एव भषणाः कुकुरास्तेषां गणरादास्यमानं ग्रहिष्यमानं स्वायत्तीकरिष्यमाणमिति यावत्तथाभूतमिवैतत्तत्त्वार्थशास्त्रं प्रागेव पूर्वमेव मत्वा ज्ञात्वा येनेति शेषः सह मूलचूलाभ्यामिति समूलचूलं जातं रक्षितं स कश्चिद् भाष्यकारो भाष्यकर्ता चिरं दीर्घ जीयाजयं गम्यादित्याशीर्वचोस्माकं लेखकानां निर्मलग्रंथरक्षकाय प्राग्यचनचौरिकायामशक्यायेति ।" भावार्थ-जिसने इस नत्त्वार्थशास्त्रको अपने ही वचनके पक्षपातमे मलिन अनुदार कुत्तोंके समूहों-द्वारा ग्रहीप्यमान-जमा जानकर--यह देखकर कि ऐसी कुना-प्रकृतिके विद्वान् लोग इसे अपना अथवा अपने सम्प्रदायका बनाने वाले हैं--पहले ही इम शास्त्रकी मूल-चूल-महित रक्षा की है-इमे ज्योंका त्यों श्वेताम्बर-मम्प्रदाय के उमाम्बानिकी कृतिरूप में ही कायम रक्खा है--वह भाष्यकार ( जिसका नाम मालूम नहीं* ) चिरजीव होवे--चिरकाल तक जयको प्राप्त होवे----ोमा हम टिप्पगाकार-जैसे लेखकोंका उस निर्मल ग्रन्थके रक्षक तथा प्राचीन-वचनोकी चोरीमे असमर्थ के प्रति ग्रागीर्वाद है। पूर्वाचार्यकृतरपि कविचौरः किंचिदात्मसान्कृत्वा । व्याख्यान यति नवीनं न तत्समः कश्चिदपि पिशुनः ।।२।। टिप्प-"अथ ये कंचन दुरात्मान: सूत्रवचन चौराः स्वमनीपया ** क्योंकि टिप्पणकारने भाग्यकारका नाम न देकर उसके लिये 'स कश्चिन' ( वह कोर्ट ) शब्दोका प्रयोग किया है, जबकि मूलमूत्रकारका नाम उमास्वानि कई स्थानों पर स्पष्टरूपमे दिया है, इसम माफ़ ध्वनित होता है कि टिप्पणकारको भाप्यकार का नाम मालूम नहीं था और वह उसे मूलसूत्रकारसे भिन्न समझता था । भाग्यकारका 'निर्मलग्रन्थ रक्षकाय' विशेपणके साथ 'प्राग्वचनचौरिकायाम शवयाय' विशेषगा भी इसी बातको सूचित करता है। इसके 'प्राग्वचन' का वाच्य तत्त्वार्थसूत्र जान पड़ता है, भाष्यकारने उसे चुराकर अपना नही बनाया-वह अपनी मनःपरिणतिके कारण ऐसा करनेके लिये असमर्थ था-यही प्राशय यहाँ व्यक्त किया गया है। अन्यथा, उमास्वातिके लिये इस विशेषणकी कोई जरूरत नहीं थी और न कोई संगति ही ठीक बैठती है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश यथास्थानं यथेप्सितपाठप्रक्षेपं प्रदर्श्य स्वपरहितापगम कथंचित् कुर्वन्ति तद्वाक्य-शुश्रूषापरिहारायेदमुच्यते- पूर्वाचार्यकृतेरपीत्यादि । ततः परं वादविह्वलानां सद्वक्तृवचोप्यमन्यमानानां वाक्यात्संशयेभ्यः सुज्ञेभ्यो निरीहतया सिद्धांतेतरशास्त्रस्मयापनोदकमेवं ब्रमः ।" भावार्थ-सूत्रवचनोंको चुरानेवाले जो कोई दुरात्मा अपनी बुद्धिमे यथास्थान यथेच्छ पाठप्रक्षेपको दिखलाकर कथंचित् अपने तथा दूसरोंके हितका लोप करते हैं उनके वाक्योंके सुननेका निषेध करनेके लिये 'पूर्वाचार्यकृतेरपीत्यादि' पद्य कहा जाता है, जिसका प्राशय यह है कि 'जो कविचोर पूर्वाचार्यकी कृतिमेसे कुछ भी अपनाकर (चुराकर ) उसे नवीनरूपमें व्याख्यान करना है-नवीन प्रगट करता है उसके समान दूसरा कोई भी नीच अथवा धूर्त नही है।' इसके बाद जो सुधीजन वाद-विह्वलों तथा सद्वक्ताके वचनको भी न माननेवालोंके कथनसे संशयमें पड़े हुए हैं उन्हें लक्ष्य करके सिद्धान्तमे भित्र मास्त्रस्मयको दूर करनेके लिये कहते हैं सुज्ञाः शृणुत निरीहाश्चेदाहो पर गृहीतमेवेदं । सति जिनसमयसमुद्रे तदेकदेशेन किमने न ||३|| टिप्प०-शृणुत भोः कतिचिद्विज्ञाश्चेदाह। यद्यतेदं तत्त्वार्थप्रकरगा परगृहीतं परोपात्तं परनिर्मितमेवेति यायदिति भवंतः संशेरत कि जातमेतावता वर्य त्वस्मिन्नेव कृतादरा न वर्नामह लघीयः मरमीव, यस्मादद्यापि जिनेन्द्रोक्तांगोपांगाद्यागमसमुद्रा गर्जतीति हेतोः तदकदेशेनानेन किं ? न किंचिदित्यर्थः । ईदृशानि भूयांन्येव प्रकरणानि संति केषु केषु रिरिसां करिष्याम इति ।" ___ भावार्थ-भोः कतिपय विद्वानों ! मुनों, यद्यपि यह तन्वार्थप्रकरण परगृहीत है-दूमरोंके द्वारा अपनाया गया है-परनिर्मित ही है, यहां तक पाप संशय करते हैं; परन्तु ऐसा होनेसे ही क्या होगया ? हम तो एकमात्र इसीमें आदररूप नहीं वर्त रहे है, छोटे तालाबकी तरह । क्योंकि आज भी जिनेन्द्रोक्त अंगोपांगादि प्रागमसमुद्र गर्ज रहे हैं, इस कारण उस समुद्रके एक देशरूप इस प्रकरणमे-उसके जाने रहनेमे-क्या नतीजा है ? कुछ भी नहीं । इस प्रकारके बहुतसे प्रकरण विद्यमान है, हम किन किनमें रमनेकी इच्छा करेंगे? Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ferent एक सटिप्पण प्रति परमेतावचतुरैः कर्तव्यं शृणुत वच्मि सविवेकः । शुद्धो योस्य विधाता स दूषणीयो न केनापि ||४|| टिप्प० - "एवं चाकर्ण्य वाचको मास्वातिर्दिगम्बरो निह्नव इति केचिन्मात्रदन्नदः शिक्षार्थं 'परमेतावश्चतुरैरिति' पद्यं ब्रमहे - शुद्धः सत्यः प्रथम इति यावद्यः कोप्यस्य ग्रंथस्य निर्माता स तु केनापि प्रकारेण न निंदनीय एतावचतुरैर्विधेयमिति ।" १२१ भावार्थ - ऊपर की बातको सुनकर 'वाचक उमास्वाति निश्चयसे दिगम्बर निह्नव है ऐसा कोई न कहे, इस बातकी शिक्षाके लिये हम 'परमेतावच्चतुरैः' इत्यादि पद्य कहते हैं, जिसका यह आशय है कि 'चतुरजनों को इतना कर्तव्य पालन जरूर करना चाहिये कि जिससे इस तत्त्वार्थशास्त्रका जो कोई शुद्ध विधाता — प्राद्यनिर्माता है वह किसी प्रकारसे दूपणीय - निन्दनीय - न ठहरे । " यः कुन्दकुन्दनामा नामांतरितो निरुच्यते कैश्चित् । ज्ञेयोऽन्य एव सोऽस्मात्स्यप्रमुमास्वातिरिति विदितात् ||५|| टिप्पर- कुन्दकुन्द एवैतत्प्रथमकर्तेति संशयापोहाय स्पष्टं ज्ञापयामः 'यः कुन्दकुन्दनामेत्यादि । अयं च परतीर्थिकैः कुन्दकुन्द इडाचार्यः पद्मनदी उमास्वातिरित्यादिनामांताराणि कल्पयित्वा पश्यत संSस्मात्प्रकरकतु रुमास्वातिरित्येव प्रसिद्धनाम्नः सकाशादन्य एवं ज्ञेयः किं पुनः पुनर्वेदयामः ।" भावार्थ- - तब कुन्दकुन्द ही इस तत्त्वार्थशास्त्रके प्रथम कर्ता है, इस संशयको दूर करनेके लिये हम 'यः कुन्दनामेत्यादि' पद्यके द्वारा स्पष्ट बतलाते हैं। कि-- पर तीर्थिकों (!) के द्वारा जो कुन्दकुन्दको कुन्दकुन्द, इडाचार्य (?) पद्मनन्दी उमास्वाति इत्यादि नामान्तरोंकी कल्पना करके उमास्वाति कहा जाता है ॐ जहाँ तक मुझे दिगम्बर जैनसाहित्यका परिचय है उसमे कुन्दकुन्दाचार्यका दूसरा नाम उमास्वाति है ऐसा कहीं भी उपलब्ध नहीं होता । कुन्दकुन्दके जो पाँच नाम कहे जाते हैं उनमें मूल नाम पद्मनन्दी तथा प्रसिद्ध नाम कुन्दकुन्दको छोड़कर शेष तीन नाम एलाचार्य, वक्रप्रीव और गृद्धपिच्छाचार्य Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश वह हमारे इस प्रकरणकर्ता से, जिसका स्पष्ट 'उमास्वाति' ही प्रसिद्ध नाम है, भिन्न ही है, इस बातको हम बार बार क्या बतलावें । श्वेतांबर सिंहानां सहजं राजाधिराजविद्यानां । निह्नवनिर्मितशास्त्राग्रहः कथंकारमपि न स्यात् ॥ ६ ॥ टिप्पर ० - तन्वत्र कुनोलभ्यते यत्पाठांतरसूत्राणि दिगंबरैरेव प्रक्षितानि ? परे तु वक्ष्यंति यदस्मृवृद्धैरचितमेतत्प्राप्य सम्यगिति ज्ञात्वा श्वेतांबराः स्वैरं कतिचित्सूत्राणि तिरोकुर्वन् कतिचिश्च प्राक्षिपन्निति भ्रमभेदार्थं 'श्वेतांबर सिंहानामित्यादि' ब्रमः । कोऽर्थः श्वेतांबरसिंहाः स्वयमत्यंतोदंडग्रंथग्रंथनप्रभूष्णवः पर्शनमितशास्त्रं तिरस्करण- प्रक्षेपादिभिर्न कदाचिदप्यात्मसाद्विद्रधीरन् । यतः 'तस्करा एव जायंते परवस्त्वात्मसात्कराः, निर्विशेषेण पश्यंति स्वमपि स्वं महाशयाः ।' भावार्थ-यहां पर यदि कोई कहे कि 'यह बात कैसे उपलब्ध होती है कि पाठांतरित सूत्र हैं वे दिगम्बरोंने ही प्रक्षिप्न किये हैं। क्योंकि दिगम्बर तो कहते है कि हमारे वृद्धों द्वारा रचित इस तत्त्वार्थमूत्रको पाकर और उसे समीचीन जानकर श्वेताम्बरोंने स्वेच्छाचारपूर्वक कुछ सूत्रोंको तो तिरस्कृत कर दिया और कुछ नये सूत्रोंको प्रक्षिप्त कर दिया - अपनी ओरसे मिला दिया है । इस भ्रमको दूर करनेके लिये हम 'श्वेताम्बरसिंहानां' इत्यादि पद्य कहते हैं, जिसका अभिप्राय यह है कि — श्वेताम्बरसिंहोंके, जो कि स्वभावसे ही विद्याओं के राजाधिराज है और स्वयं अत्यन्त उद्दंड ग्रन्थोंके रचनेमें समर्थ हैं, निह्नव-निर्मितशास्त्रोंका ग्रहण किसी प्रकार भी नहीं होता है-वे पर निर्मित शास्त्रोंको तिरस्करण और प्रक्षेपादिके द्वारा कदाचित् भी अपने नही बनाते है । क्योंकि जो दूसरेकी वस्तुको अपनाते हैं - अपनी बनाते है -- वे चोर होते है, महान् आशय के धारक तो अपने धनको भी निविशेषरूपसे अवलोकन करते हैं उसमें अपनायतका ( निजत्वका ) भाव नहीं रखते ।' हैं । तथा कुन्दकुन्द और उमास्वातिकी भिन्नताके बहुत स्पष्ट उल्लेख पाये जाते हैं । अतः इस नामका दिया जाना भ्रान्तिमूलक है । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वार्थाधिगमसूत्रकी एक सटिप्पण प्रति पाठांतरमुपजीव्य भ्रमंति केचिद्वृथैव संतोऽपि । सर्वेषामपि तेषामतः परं भ्रांतिविगमोऽस्तु ॥ ७ ॥ टिप्प० -- अतः सर्वरहस्यको विदा अमृतरसे कल्पनाविषपूरं न्यस्यमानं दूरतस्त्यक्त्वा जिनसमयावानुसाररसिका उमास्वातिमपि स्वतीथिंक इति स्मरतोऽनंत संसारपाशं पतिष्य‌द्भिर्विशदमपि कलुषीकतु कामैः सह निह्नवैः संगं माकुर्वन्निति । १२३ भावार्थ -- कुछ संत पुरुष भी पाठान्तरका उपयोग करके - उसे व्यवहारमें लाकर -- वृथा ही भ्रमते हैं, उन सबकी भ्रान्तिका इसके बादमे विनाश होवे । श्रतः जो सर्व रहस्यको जाननेवाले हैं और जिनागमममुद्रके अनुसरण्-रमिक हैं वे अमृतरसमे न्यस्यमान कल्पना-विषपूरको दूरसे ही त्याग कर, उमास्वातिको भी स्वतीर्थिक स्मरण करते हुए, अनन्त संसारके जाल में पड़नेवाले उन निह्नवोंके साथ संगति न करे - कोई सम्पर्क न रक्खें - जो विशदको भी कलुषित करना चाहते है । (११) उक्त ७ पद्यों और उनकी टिप्पणीमे टिप्परकारने अपने साम्प्रदायिक कट्टरता से परिपूर्ण हृदयका जो प्रदर्शन किया है— स्वसम्प्रदाय के प्राचार्योको 'सिंह' तथा 'विद्यायक राजाधिराज' और दूसरे सम्प्रदायवालोंको 'कुत्ते' तथा 'दुरात्मा' बतलाया है, अपने दिगम्बर भाइयोंको 'परतीर्थिक' अर्थात् भ० महावीरके तीर्थको न माननेवाले अन्यमती लिखा है और साथ ही अपने श्वेताम्बर भाइयोंकों यह आदेश दिया है कि वे दिगम्बरोंकी संगति न करें अर्थात् उनसे कोई प्रकारका सम्पर्क न रक्खें। - उस सबकी आलोचनाका यहाँ कोई अवसर नही है, और न यह बतलाने की ही ज़रूरत है कि श्वेताम्बरसिंहोने कौन कौन दिगम्बर ग्रंथोंका अपहरण किया है और किन किन ग्रंथोंको ग्रादरके साथ ग्रहण करके अपने अपने ग्रन्थोंमें उनका उपयोग किया है, उल्लेख किया है और उन्हें प्रमाण में उपस्थित किया है । जो लोग परीक्षात्मक, ग्रालोचनात्मक एवं तुलनात्मक साहित्यको बराबर पढ़ते रहते हैं उनसे ये बातें छिपी नही हैं । हाँ, इतना ज़रूर कहना होगा कि यह सब ऐसे कलुतिहृदय लेखकोंकी लेखनी ग्रथवा साम्प्रदायिक कट्टरताके गहरे रंग में रंगे हुए कषायाभिभूत साधुनोंकी कर्ता तका ही परिणाम है— नतीजा है - जो अर्से से एक ही पिताकी संतानरूप भाइयों भाइयोंमें — दिगम्बरों - श्वेताम्बरोंमें— परस्पर मनमुटाव चला जाता है और पारस्परिक कलह तथा विसंवाद शान्त होने में नहीं Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ----- -- - १२६ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश दावेकी ये दोनों बातें कहाँ तक ठीक है- मूलसूत्र, उसके भाष्य और श्वेताम्बरीय प्रागमों परसे इनका पूरी तौर पर समर्थन होता है या कि नहीं, इस विषयकी जाँचको पाठकोंके सामने उपस्थित करना ही इस लेखका मुख्य विषय है। सूत्र और भाष्य-विरोध सूत्र और भाष्य जब दोनों एक ही प्राचार्यकी कृति हों तब उनमें परस्पर असंगति. अर्थभेद, मतभेद अथवा किसी प्रकारका विरोध न होना चाहिये । और यदि उनमें कहींपर ऐमी असगति, भेद, अथवा विरोध पाया जाता है तो कहना चाहिए कि वे दोनों एक ही प्राचार्यकी कृति नहीं है-उनका कर्ता भिन्न भिन्न है-और इसलिये सूत्र का वह भाप्य 'स्वोपन' नही कहला मकता । श्वेताम्बरोंके तत्त्वार्थाधिगममूत्र और उसके भाप्यमे ऐसी असगति भेद अथवा विरोध पाया जाता है; जैसा कि नीचेके कुछ नमूनोसे प्रकट है:(१) दवेताम्बरीय मूत्रपाठमे प्रथम अध्यायका २३ वा स्त्र निम्न प्रकार है यथोक्तनिमित्तः पडविकल्पः शेषाणम । इममें अवधिज्ञानके द्वितीय भेदका नाम 'यथोक्तनिमिना' दिया है और भाष्य में 'यथोक्तनिमित्त: क्षयोपशमनिमित्न इत्यर्थः' ऐमा लिखकर 'यथोननिमित्त' का अर्थ 'क्षयोपशमनिमित्त' बतलाया है; परन्तु 'यथोक्त' का अर्थ 'अयोपगम' किसी तरह भी नहीं बनता। 'यथोक्त का मर्वभाधारण अर्थ होता है.---'जमा कि कहा गया', परन्नु पूर्ववर्ती किमी भी मत्रमे 'क्षयोपशमनिमित्त नाममे अवधिज्ञानके भेदका कोई उल्लेख नहीं है और न कही 'क्षयोपशम गब्दका ही प्रयोग आया है, जिममे 'यथोक्त' के साथ उसकी अनृवृत्ति लगाई जा सकती। ऐसी हालतमे 'क्षयोपशनिमित्त' के अर्थ में 'यथाक्तनिमित्त का प्रयोग मूत्रमदर्भके साथ अमंगत जान पड़ता है । इसके मित्राय, 'द्विविधाऽवधिः' इम २१वे मूत्र के भाष्यमें लिखा है--'भवप्रत्ययः क्षयोपशमनिमित्तम्च' और इसके द्वारा अवधिज्ञानके दो भेदोंके नाम क्रमशः ‘भवप्रत्यय' और 'क्षयोपशमनिमित्त' बनलाये हैं। २२वें मूत्र 'भवप्रत्ययो नारकदेवानाम्' में अवधिज्ञानके प्रथम भेदका वर्णन जब भाष्यनिर्दिष्ट नामके साथ किया गया है तब २३वें मूत्र में उसके द्वितीय भेदका वर्णन भी भाष्यनिर्दिष्ट नामके माथ होना चाहिये था और तब उस Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वे. तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जाँच १२७ सूत्रका रूप होता-"क्षयोपशमनिमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम्", जैसा कि दिगम्बर सम्प्रदायमें मान्य है। परन्तु ऐसा नहीं है, अत: उक्त मूत्र और भाष्यकी असंगति स्पष्ट है और इसलिये यह कहना होगा कि या तो 'यथोक्त. निमित्तः' पदका प्रयोग ही ग़लत है और या इसका जो अर्थ 'क्षयोपशमनिमित्तः' दिया है वह ग़लत है तथा २१वें सूत्रके भाष्यमें 'यथोक्तनिमित्त' नामको न देकर उसके स्थानपर 'क्षयोपशमनिमिन' नामका देना भी गलत है। दोनों ही प्रकारमे सूत्र और भाष्यकी पारम्परिक अमंगतिमे कोई अन्तर मालूम नहीं होता। (-) श्वे० सूत्रपाठके छठे अध्यायका छठा मूत्र है.--- "इन्द्रियकपायाऽव्रतक्रिया: पंचचतुःपंचपंचविंशनिसंख्या: पूर्वस्य भेदाः ।" दिगम्बर मुत्रपाटम इमीको न०५ पर दिया है । यह मूत्र स्वेताम्बराचार्य हरिभद्र की टीका और मिद्धमनगगीकी टीकाम भी इमी प्रकार दिया हया है। श्वेताम्बगेकी उम पुरानी मटिप्पण प्रतिमें भी इसका यही रूप है जिसका प्रथम परिचय अनेकान्तके तृतीय वर्षकी प्रथम किरण में प्रकाशित हुया है। इस प्रामागिगक स्त्रपाठके अनुसार भाष्यमें पहले इन्द्रियका. तदनन्तर कपायका और फिर अवतका व्याम्यान होना चाहिये था; परन्तु ऐमा न होकर पहले 'अवत' का और अवनवाने तृतीय स्थानपर इन्द्रियका व्याख्यान पाया जाता है । यह भाग्यपद्धतिको देखने हा सूत्रक्रमोल्लघन नामकी एक असंगति है, जिसे मिद्धसेनगगीने अन्य प्रकारमे दूर करने का प्रयत्न कियाहै, जैसा कि प• मुखलालजीके उक्त तन्वार्थमत्रकी मत्रपाठसे सम्बन्ध रखनवाली निम्न टिप्पणी (पृ० १६२)से भी पाया जाता है :-- __ "मिद्धगेनको मूत्र और भाष्यकी यह असंगति मालूम हुई है और उन्होने इसको दूर करने की कोशिश भी की है ।" परन्तु जान पड़ता है पं० सुखलालजीको गिद्ध मेनका वह प्रयत्न उचित नही जैचा, और इसलिये उन्होंने मूलमूत्र में उस सुधारको इष्ट किया है जो उसे भाष्यके अनुरूप रूप देकर 'अव्रतकषायेन्द्रियक्रियाः' पदगे प्रारम्भ होनेवाला बनाता है । इस तरह पर यद्यपि सूत्र और भाष्यकी उक्त प्रसंगतिको कहीं कहीं Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२% जैमसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश पर सुधारा गया है, परन्तु सुधारका यह कार्य बादकी कृति होनेसे यह नहीं कहा जा सकता कि सूत्र और भाष्यमें उक्त प्रसंगति नहीं थी। यहाँपर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि श्वेताम्बरीय पागमादि पुरातनग्रन्थोंमें भी साम्प्रायिक प्रास्रवके भेदोंका निर्देश इन्द्रिय, कषाय, अव्रत योग और क्रिया इस सूत्रनिर्दिष्ट क्रमसे पाया जाता है; जैसाकि उपाध्याय मुनि श्रीवात्मारामजी द्वारा 'तत्त्वार्थसूत्र-जैनागमसमन्वय' में उद्धृत स्थानांगसूत्र और नवतत्त्वप्रकरणके निम्न वाक्योंसे प्रकट है: "पंचिंदिया पण्णत्ता 'चत्तारिकसाया पएणत्ता ..." पंचविरय पएणत्ता "पंचवीसा किरिया पण्णत्ता..." -स्थानांग स्थान २, उद्देश्य १ सू० ६० (?) "इंदियकसायअव्वयजोगा पंच चउ पंच तिन्नि कमा।" किरियाओ पणवीसं इमाओ ताश्रो अणुकमसो ॥" -नवतत्त्वप्रकरण इससे उक्त सुधार वैसे भी समुचित प्रतीत नहीं होता, वह आगमके विरुद्ध पडेगा। और इस तरह एक असंगतिमे बचने के लिये दूसरी असंगतिको आमन्त्रित करना होगा। (३) चौथे अध्यायका चौथा सूत्र इस प्रकार है "इन्द्र-सामानिक-त्रायस्त्रिंश-पारिपद्याऽऽत्मरक्ष-लोकपाला-ऽनीकप्रकीर्णका-ऽऽभियोग्य-किल्विपिकाश्चैकशः ।" इस सूत्रमें पूर्वसूत्रके निर्देशानुसार देवनिकायोंमें देवोंके दश भेदोंका उल्लेख किया है। परन्तु भाष्यमें 'तद्यथा' शब्दके माथ उन भेदोंको जो गिनाया है उसमें दशके स्थानपर निम्न प्रकारसे ग्यारह भेद दे दिये है: "तद्यथा, इन्द्राः सामानिकाः त्रायस्त्रिंशा: पारिषद्याः आत्मरक्षाः लोकपाला: अनीकाधिपतयः अनीकानि प्रकीर्णकाः भाभियोग्याः किल्विपिकाश्चेति ।" इस भाष्यमें 'अनीकाधिपतयः' नामका जो भेद दिया है वह सूत्रसंगत नहीं है। इसीसे सिद्धसेनगणी भी लिखते है कि Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वे. तस्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जांच १२६ ___ "सूत्रे चानीकान्येवोपात्तानि सूरिणा नानीकाधिपतयः, भाष्ये पुनरुपन्यस्ताः ।" अर्थात्--सूत्रमें तो आचार्यने अनीकोंका ही ग्रहण किया हैं, मनीकाधिपतियोंका नहीं । भाष्यमें उसका पुनः उपन्यास किया गया है। इससे सूत्र और भाष्यका जो विरोध प्राता है उसमे इनकार नहीं किया जा सकता। सिद्धसेनगणीने इस विरोधका कुछ परिमार्जन करनेके लिये जो यह कल्पना की है कि 'भाप्यकारने अनीकों और अनीकाधिपतियोंके एकत्वका विचार करके ऐमा भाष्य कर दिया जान पड़ता है ', वह ठीक मालूम नहीं होती; क्योंकि अनीकों और अनीकाधिपतियोंकी एकताका वैसा विचार यदि भाष्यकारके ध्यान में होता तो वह अनीकों और अनीकाधिपतियोंके लिये अलग अलग पदोंका प्रयोग करके संख्याभेदको उत्पन्न न करता । भाष्यमें तो दोनोंका स्वरूप भी फिर अलग अलग दिया गया है जो दोनोंकी भिन्नताका द्योतन करता है। यों तो देव और देवाधिपति (इन्द्र) यदि एक हों तो फिर 'इन्द्र' का अलग भेद करना भी व्यर्थ ठहरता है; परन्तु दश भेदोंमें इन्द्रकी अलग गणना की गई है, इसमे उक्त कल्पना ठीक मालूम नही होती । सिद्ध मेन भी अपनी इम कल्पना पर दृढ मालूम नहीं होते, इसीसे उन्होंन आगे चलकर लिख दिया है-“अन्यथा वा दशसंख्या भिद्यत"-अथवा यदि ऐसा नहीं है तो दशकी संख्याका विरोध माता है । (४) श्वे० मूत्रपाठके चौथे अध्यायका २६ वां सूत्र निम्न प्रकार है"सारम्वतादित्यबन्ह्यरुणगर्दतोयतुपिताव्यायाधमरुतोऽरिधाश्च ।" इममें लोकान्तिक देवोंके सारस्वत, प्रादित्य, वन्हि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध, मम्त प्रौर अरिष्ट, ऐसे नव भेद बतलाये हैं, परन्तु भाष्यकारने पूर्व सूत्रक भाष्यमे और इस सूत्रके भाष्यमे भी लोकान्तिक देवोंके भेद पाठ ही बतलाये हैं और उन्हें पूर्वादि अाठ दिशा-विदिशानोंमें स्थित मूत्रित किया है; जैसाकि दोनों सूत्रोंके निम्न भाप्योंसे प्रकट है :"ब्रह्मलोक परिवृत्याष्टासु दिक्षु अष्टकिकल्पा भवन्ति । तद्यथा-" "तदेकत्वमेवानीकानीकाधिपत्योः परिचिन्त्य विवृतमेव भाष्यकारेण ।" Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश - "एते सारस्वतादयोऽष्टविधा देवा ब्रह्मलोकस्य पूर्वोत्तरादिषु दिक्षु प्रदक्षिणं भवन्ति यथासंख्यम् ।" - इससे सूत्र और भाष्यका भेद स्पष्ट है। सिद्धसेनगणी और पं० सुखलालजीने भी इस भेदको स्वीकार किया है, जैसा कि उनके निम्न वाक्योंसे प्रकट है"नन्वेवमेते नवभेदा भवन्ति, भाष्यकृता चाष्ट विधा इति मुद्रिताः ।" "इन दो सूत्रोंके मूलभाष्यमें लोकान्तिक देवोंके आठ ही भेद बतलाये हैं, नव नहीं।" इस विषयमें सिद्धसेनगणी तो यह कहकर छुट्टी पागये है कि लोकान्तमें रहने वालोंके ये पाठ भेद जो भाष्यकार सूरिने अंगीकार किये है वे रिष्टविमानके प्रस्तारमें रहनेवालोंकी अपेक्षा नवभेद्रूप हो जाते हैं, आगममें भी नव भेद कहे है, इसमे कोई दोष नही* परन्तु मूल सूत्रमें जब स्वयं सूत्रकारने नव भेदोंका उल्लेख किया है तब अपने ही भाष्यमें उन्होंने नव भेदोंका उल्लेख न करके आठ भेदोंका ही उल्लेख क्यों किया है, इसकी वे कोई माकूल (युक्तियुक्त) वजह नहीं बतला सके। इसीसे शायद प० सुखलालमीको उस प्रकारमे कहकर छुट्टी पा लेना उचित नही ऊंचा, और इस लिये उन्होंने भाष्यको स्वोपजतामे बाधा न पड़ने देनेके खयालसे यह कह दिया है कि-"यहां मूल सत्र में 'मरुतो' पाठ पीछेसे प्रक्षिप्त हुआ है ।' परन्तु इसके लिये वे कोई प्रमाण उपस्थित नहीं कर मके । जब प्राचीनसे प्राचीन श्वेताम्बरीय टीकामे 'मानो' पाठ स्वीकृत किया गया है तब उसे यों ही दिगम्बर पाठकी बातको लेकर प्रक्षिप्त नहीं कहा जा सकता। सूत्र तथा भाष्यके इन चार नमूनों और उनके उक्त विवेचनसे स्पष्ट है कि सूत्र और भाष्य दोनों एक ही प्राचार्यकी कृति नहीं है, और इमलिये ज्वे० भाष्यको 'स्वोपज' नहीं कहा जा सकता। 'उच्यते-लोकान्तवर्तिनः एतेष्टमेदाः सूरिणोपात्ताः, रिटविमानप्रस्तारकतिभिर्नवधा भवन्तीत्यदोषः । प्रागमे तु नवधवाधीता इति ।" Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वे० तत्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी " जाँच १३१ यहाँपर में इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि तत्त्वार्थसूत्रपर श्वेताम्बरोंका एक पुराना टिप्पण है, जिसका परिचय अनेकान्तके वीरशासनाङ्क (वर्ष ३ कि० १ पृ० १२१ - १२८) में प्रकाशित हो चुका है। इस टिप्पणके कर्ता रत्नसिंह सूरि बहुत ही कट्टर साम्प्रदायिक थे और उनके सामने भाष्य ही नही किन्तु सिद्धसेनकी भाष्यानुसारिणी टीका भी थी, जिन दोनोंका टिप्पर में उपयोग किया गया है, परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी उन्होंने भाष्यको 'स्वोपज्ञ' नहीं बतलाया । टिप्परके अन्त में 'दुर्वादापहार' रूपमे जो सात पद्य दिये हैं उनमें से प्रथम पद्य और उसके टिप्पण में, साम्प्रदायिक कट्टरताका कुछ प्रदर्शन करते हुए उन्होंने भाष्यकारका जिन शब्दोंमें स्मरण किया है वे निम्न प्रकार हैं: ---- "प्रागेवैतद दक्षिण-भषण - गरणादास्यमानमिति मत्वा । त्रातं समूल-चूलं स भाष्यकारश्चिरं जीयात् ॥ १ ॥ टिप्पण - दक्षिणे सरलोदाराविति हेमः" अदक्षिणा असरलाः स्ववचनस्यैव पक्षपातमलिना इति यावत्त एव भरणाः कुकुरास्तेषां गणैरादास्यमानं महिष्यमानं स्वायत्तीकरिष्यमानमिति यावत्तथाभूतमिवैततत्वार्थशास्त्रं प्रागेवं पूर्वमेव मत्वा ज्ञात्वा येनेति शेषः । सहमूलचूलाभ्यामिति समूलचूलं त्रातं रक्षितं स कश्चिद् भाष्यकारो भाष्यकर्ता चिरं दीर्घ जीयाञ्जयं गम्यादित्याशीर्वचोऽस्माकं लेखकानां निर्मलग्रन्थरक्षकाय प्राग्वचनं - चौरिकायामशक्यायेति ।" इन शब्दोंका भावार्थ यह है कि - 'जिसने इस तत्त्वार्थशास्त्र को अपने ही वचनके पक्षपातसे मलिन अनुदार कुत्तोंके समूहों द्वारा ग्रहीप्यमान- जैसा जानकर - -यह देखकर कि ऐसी कुत्ता - प्रकृतिके विद्वान लोग इसे अपना अथवा अपने सम्प्रदायका बनाने वाले हैं - पहले ही इस शास्त्रकी मूल-चूल सहित रक्षा की है-इसे ज्योंका त्यों श्वेताम्बरसम्प्रदायके उमास्वातिकी कृतिरूपमें ही कायम रक्खा है-वह (प्रज्ञातनामा ) भाष्यकार चिरंजीव होवे - चिरकाल तक ऐसा हम टिप्पणकार जैसे लेखकोंका उस निर्मलग्रन्थके वचनोंकी चोरी में प्रसमर्थके प्रति प्राशीर्वाद है ।' जयको प्राप्त होवे - रक्षक तथा प्राचीन Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जैनमाहित्य और इनिहामपर विशद प्रकाश ___ यहाँ भाष्यकारका नाम न देकर उसके लिये 'सकश्चित्' (वह कोई ) शब्दोंका प्रयोग किया है, जब कि मूल सूत्रकारका माम, 'उमाम्वाति' कई स्थानोंपर स्पष्ट रूपसे दिया है। इससे साफ ध्वनित होता है कि टिप्पणकारको भाष्यकारका नाम मालूम नही था और वह उसे मूल सूत्रकारसे भिन्न समझता था, भाष्यकारका 'निमलग्रन्थरक्षकाय' विशेषणके साथ 'प्राग्वचन-चौरिकायामशक्याय' विशेषण भी इसी बातको सूचित करता है। इसके 'प्राग्वचन' का वाच्य तत्त्वार्थसूत्र जान पड़ता है-जिसे प्रथम विशेषरणमें 'निर्मलग्रन्थ' कहा गया है, भाष्यकारने उसे चुराकर अपना नही बनाया-वह अपनी मनःपरिणतिके कारण ऐपा करनेके लिये असमर्थ था~यही आशय यहाँ व्यक्त किया गया है। अन्यथा, उमास्पातिके लिये इस विशेषण की कोई जरूरत नही थी-- यह उनके लिये किसी तरह भी ठीक नहीं बैठता। साथ ही, 'अपने ही बचनके पक्षपातमे मलिन अनुदार कुतों के समूहों द्वारा ग्रहीष्यमान-जैसा जानकर' ऐसा जो कहा गया है उपमे यह भी ध्वनित होता है कि भाष्यकी रचना उम समय हुई है जब कि तत्वार्थ पूत्रपर 'सर्वार्थमिद्धि' प्रादि कुछ प्राचीन दिगम्बर टीकाएँ बन चुकी थीं और उनके द्वारा दिगम्बर समाजमें तत्त्वार्थसूत्रका अच्छा प्रचार प्रारंभ हो गया था । इस प्रचारको देखकर ही किसी श्वेताम्बर विद्वानको भाष्यके रचनेकी प्रेरणा मिली है और उसके द्वारा तत्त्वार्थसूत्रको श्वेताम्बर बनाने की चेष्टा की गई है, ऐमा प्रतीत होता है। ऐसी हालतमे भाष्यको स्वयं मूल सूत्रकार उमास्वातिकी कृति बतलाना और भी असंगत जान पड़ता है। सूत्र और भाष्यका आगमसे विरोध ___ मत्र और भाष्य दोनोंका निर्माण यदि श्वेताम्बर आगमोंके आधारपर ही हुआ हो, जैसा कि दावा है, तो श्वे० प्रागमोंके साथ उनमेंसे किमीका जरा भी मतभेद, ममंगतपन अथवा विरोध न होना चाहिये । यदि इनमेंसे किसीमें भी कहींपर ऐसा मतभेद, असंगतपन अथवा विरोध पाया जाता है तो कहना होगा 'चल' का अभिप्राय प्रादि अन्तकी कारिकामोंसे जान पड़ता है, जिन्हें साथमें लेकर और मूलसूत्रका अंग मानकर ही टिप्पण लिखा गया है। : Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वे० तत्स्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जाँच १३३ कि उसके निर्माण का आधार पूर्णत: श्वेताम्बर आगम नहीं है, और इस लिये दावा मिथ्या है । श्वेताम्बरीय सूत्रपाठ और उसके भाष्य में ऐसे अनेक स्थल है जो श्वे० प्रागमोंके साथ मतभेदादिको लिये हुए हैं। नीचे उनके कुछ नमूने प्रकट किये जाते है: (१) श्वेताम्बरीय आगममें मोक्षमार्गका वर्णन करते हुए उसके चार कारण बतलाये हैं और उनका ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, इम क्रममे निर्देश किया है। जैमाकि उत्तराध्ययन सूत्रके २८ वें अध्ययनकी निम्न गाथाओंमे प्रकट है मोक्खमम्ग गई तच्च सुणेह जिणभासियं । चउकारणसंजुत्तं नाणदंमणलवस्त्रणं ।।१।। नाणं च सणं चेव चरित्तं च तवो तहा। एस मात्तिपएणत्तो जिणेहिं वरदंमहि ।। ।। नाणं च ईमणं चेव, चरित्तं च तवो नहा । वयं मम्गमुप्पत्ता, जीवा गच्छति सोग्गइ ।। ३ ।। नाणेण जाणई भावे इंसणेण य महहे । चरित्तण निगिहाइ तवेग परिसुझाई ।। ३५ ।। परन्तु श्वेताम्बर-मृत्रपाठमें, दिगम्बर मूत्रपाठकी नरह, तीन कारणोंका दर्शन-ज्ञान-चारित्रके क्रमन निर्देश है; जैसा कि निम्न मूत्रमे प्रकट है मम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः ।। १ ।। अतः यह मत्र श्वेताम्बर आगमके माथ पूर्णतया मगत नहीं है। वस्तुतः यह दिगम्बरमत्र है और इसके द्वारा मोक्षमार्गके कथनकी उम दिगम्बर शैलीको अपनाया गया है जो श्रीकुन्दकुन्दादिके ग्रथोंमें मवंत्र पाई जाती है। (२) श्वेताम्बरीय मूत्रपाठक प्रथम अध्यायका चौथा मूत्र इस प्रकार है - जीवाऽजीवात्रवबन्धसंवरनिजरामाक्षास्तत्वम् । इसमे जीव, अजीव, आम्रव, बन्ध, सवर, निर्जरा और मोक्ष, ऐसे सात तत्वोंका निर्देश है। भाप्यमे भी "जीवा अजीवा आस्रवा बन्धः संवरो निजरा मोक्ष इत्येष सप्तविधोऽर्थस्तत्त्वम् एते वा सप्तपदार्थान्तत्त्वानि" इन वाक्योंक द्वारा निर्दश्य तत्त्वोके नामके साथ उनकी सग्या सात बतलाई गई है, और तत्त्व तथा पदार्थको एक सूचित किया है । परन्तु श्वेताम्बर आगममें Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश तत्त्व अथवा पदार्थ नव बतलाए हैं, जैसा कि 'स्थानांग' श्रागमके निम्न सूत्रसे प्रकट है : "नव सब्भावपयत्था पण्णत्ते । तं जहा जीवा अजीवा पुरणं पावो आसव संवरो निज्जरा बंधो मोक्खो ।" (स्थान ६ सू० ६६५) सात तत्त्वोंके कथनकी शैली श्वेताम्बर श्रागमोंमें है ही नहीं, इसी से उपाध्याय मुनि आत्मारामजीने तत्वार्थंसूत्रका श्वे० श्रागमके साथ जो समन्वय उपस्थित किया है उसमें वे स्थानाँगके उक्त सूत्रको उद्घृत करनेके सिवाय आगमका कोई भी दूसरा वाक्य ऐसा नहीं बतला सके जिसमें सात तत्त्वोंकी traint स्पष्ट निर्देश पाया जाता हो । सात तत्त्वोंके कथनकी यह शैली दिगम्बर है - दिगम्बर सम्प्रदाय में साततत्त्वों और नव पदार्थोंका अलग अलग रूपसे निर्देश किया है* । दिगम्बर-सूत्रपाठ में यह सूत्र स्थित है । श्रत: इस चौथे सूत्रका आधार दिगम्बरश्रुत जान श्वेताम्बरश्रुत नहीं । भी इसी रूपसे पड़ता है -- (३) प्रथम अध्यायका आठवां सूत्र इस प्रकार है सत्संख्याक्ष त्रस्पर्शनकालान्तरभावात्पबहुत्वैश्च । इसमें सत् संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोगद्वारोंके द्वारा विस्तारसे अधिगम होना बतलाया है; जैसा कि भाष्यके निम्न अंग भी प्रकट है "सत् संख्या क्षेत्रं स्पर्शनं कालः श्रन्तरं भावः अल्पबहुत्वमित्येतैश्च सद्भूतपदप्ररूपणादिभिरष्टाभिरनुयोगद्वारैः सर्वभावानां (तस्वानां) विकल्पशो विस्तराधिगमो भवति ।" परन्तु श्वेताम्बर श्रागममें सत् आदि अनुयोगद्वारोंकी संख्या नव मानी है'भाग' नामका एक अनुयोगद्वार उसमें और है; जैसा कि अनुयोगद्वारसूत्रके निम्न वाक्यसे प्रकट है, जिसे उपाध्याय मुनि श्रात्मारामजीने भी अपने उक्त 'तत्त्वार्थ सूत्र - जैनागम समन्वय' में उद्धृत किया है * सव्वविरओ वि भावहि राव य पयत्थाई सत्ततबाई । - भावप्राभृत ६५ - Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वे० तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जॉच १३५ "से किं तं अगुगमे ? नवविहे पण्णत्ते । तं जहा - संतपय परुवरण्या १ दव्यमाणं च २ खित्त ३ फुसरणा य ४ कालो य५ अंतर ६ भाग ७ भाव ८ अप्पाबहु ६ चेव ।" (अनु० सूत्र ८० ) इससे स्पष्ट है कि उक्त सूत्र और भाष्यका कथन श्वेताम्बर ग्रागमके साथ संगत नहीं है । वास्तवमें यह दिगम्बरसूत्र है; दिगम्बरसूत्र पाठमें भी इसी तरहसे स्थित है और इसका आधार षटखण्डागमके प्रथमखण्ड जीवट्टारणके निम्न तीन सूत्र हैं "एदेसि चोद्दसहं जीवसमासाणं परूवणट्ठदाए तत्थ इमाणि अट्ठ अणियोगद्दाराणि गायव्वाणि भवंति || ५ || तं जहा || ६ || संतपरूवणा दव्वपमाणागमो खेत्तागुगमो फासणागुगमो कालागुगमो अंतरागुगमो भावानुगमो अप्पात्रहुगागमो चेदि ||७|| षट्खण्डागममें और भी ऐसे अनेक सूत्र हैं जिनमे इन सत् श्रादि आठ अनुयोगद्वारोंका समर्थन होता है । (४) ३० सूत्रपाठ द्वितीय अध्याय में 'निवृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्' नामका जो १७ वां सूत्र है उसके भाष्यमें ' उपकरणं बाह्याभ्यन्तरं च' इस वाक्यके द्वारा उपकरणके बाह्य और अभ्यन्तर ऐसे दो भेद किये गये हैं; परन्तु श्वे० प्रागममें उपकरण के ये दो भेद नहीं माने गये हैं । इसीमे सिद्धसेन गरणी अपनी टीकामें लिखते हैं " श्रागमे तु नास्ति कश्चिदन्तर्बहिर्भेद् उपकरणस्येत्या चार्यस्यैव कुतोऽपि सम्प्रदाय इति । " अर्थात् प्रागममें तो उपकरणका कोई अन्तर - बाह्यभेद नहीं है । प्राचार्यका ही यह कहीसे भी कोई सम्प्रदाय है— भाष्यकारने ही किसी सम्प्रदायविशेषकी मान्यतापरमे इसे अंगीकार किया है । इससे दो बातें स्पष्ट हैं- एक तो यह कि भाष्यका उक्त वाक्य श्वे० श्रागमके साथ संगत नहीं है, और दूसरी यह कि भाष्यकारने दूसरे सम्प्रदायकी बातको अपनाया है । वह दूसरा ( श्वेताम्बरभिन्न) सम्प्रदाय दिगम्बर हो सकता है । दिगम्बर सम्प्रदाय में सर्वत्र उपकरणके दो भेद माने भी गये हैं । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ जैमसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश (५) चौथे अध्यायमें लोकान्तिक देवोंका निवासस्थान 'ब्रह्मलोक' नामका पांचवां स्वर्ग बतलाया गया है और 'ब्रह्मलोकालया लोकान्तिका.' इस २५वें सूत्रके निम्न भाष्यमें यह स्पष्ट निर्देश किया गया है कि ब्रह्मलोक में रहने वाले ही लोकान्तिक होते हैं-अन्य स्वर्गों में या उनसे परे-अवेयकादिमें लोकान्तिक नहीं होते"ब्रह्मलोकालया एव लोकान्तिका भवन्ति नान्यकल्पेषु नापि परतः।" ब्रह्मलोकमें रहने वाले देवोंकी उत्कृष्ट स्थिति दस सागरकी, और जघन्य स्थिति सातसागरसे कुछ अधिकको वतलाई गई, जैसा कि सूत्र नं. ३७ और ४२ और उनके निम्न भाष्यांशोंसे प्रकट है 'ब्रह्मलोके त्रिभिरधिकानि सप्तदशेत्यर्थः ।" "माहेन्द्र परा स्थितिविशेषाधिकानि सप्त सागरोपमाणि सा ब्रह्मलोके जघन्या भवति । ब्रह्मलोके दशसागरोपमाणि परा स्थितिः सा लान्तवे जघन्या।' इसमे स्पष्ट है कि मत्र तथा भाष्यके अनुसार लोकान्तिक देवोंकी उत्कृष्ट आयु दस मागरकी और जघन्य आयु मात मागरमे कुछ अधिक की होती हैं; क्योंकि लोकान्तिक देवोंकी आयुका अलग निर्देश करने वाला कोई विशप सूत्र भी श्वे० सत्रपाठमें नहीं है। परन्तु वे० प्रागम में लोकान्तिक देवोंकी उत्कृष्ट और जघन्य दोनों ही प्रकारकी यायु की स्थिति प्राट मागरकी बनलाई है जैसाकि 'स्थानांग' और 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' के निम्न सूत्रमे प्रकट है "लोगतिकदेवाणं जहएणमुक्कासणं अट्ठसागरोवमाई ठिती पएगात्ता ।"-स्था० स्थान ८ सू. ६२३ व्या, श० ६ उ०५ ऐसी हालतमें मूत्र और भाप्य दोनों का,कथन श्वे० प्रागमके माथ मंगत न होकर स्पष्ट विरोधको लिये हुए है। दिगम्बर प्रागमके साथ भी उमका कोई मेल नहीं है; क्यों कि दिगम्बर सम्प्रदायमें भी लोकान्तिक देवोंकी उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति आठ सागरकी मानी है और इसीसे दिगम्बर सत्रपाटमें Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वे तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जांच १३७ "लोकान्तिकानामष्टौ सागरोपमाणि सर्वेषाम्" यह एक विशेषसूत्र लोकान्तिक देवोंकी आयुके स्पष्ट निर्देशको लिये हुए है। (६) चौथे अध्यायमें,देवोंकी जघन्य स्थितिका वर्णन करते हुए, जो ४२वां सत्र दिया है वह अपने भाष्यसहित इस प्रकार है “परतः परतः पूर्वा पूर्वानन्तरा ॥४२॥" माष्य-"माहेन्द्रात्परतः पूर्वापराऽनन्तरा जघन्या स्थितिर्भवति । तद्यथा । माहेन्द्र परा स्थितिविशेषाधिकानि सप्तसागरोपमाणि सा ब्रह्मलोके जघन्या भवति । ब्रह्मलोके दशसागरोपमाणि परा स्थितिः सा लान्तवे जघन्या । एवमासर्वार्थसिद्धादिति ।" यहां माहेन्द्र स्वर्गमे बादके वैमानिक देवोंकी स्थिति का वर्णन करते हुए यह नियम दिया है कि अगले अगले विमानोंमे वह स्थिति जघन्य है, जो पूर्व पूर्वके विमानोंमें उत्कृष्ट कही गई है, और इस नियमको सर्वार्थमिद्ध विमानपर्यन्त लगाने का आदेश दिया गया है। इस नियम और आदेशके अनुमार सर्वार्थसिद्ध विमानके देवोंकी जघन्यस्थिति बत्तीस सागरकी और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरकी ठहरती है। परन्तु अागममें मार्थमिद्धकं देवोंकी स्थिति एक ही प्रकारकी बतलाई है- उममे जघन्य उत्कृष्टका कोई भेद नहीं है, और वह स्थिति तेतीम मागरकी ही है; जैसा कि श्वे० आगमके निम्न वायोमे प्रकट है - "सवट्ठसिद्धदेवारणं भंते ! केवतियं कालं ठिई पएणना ? गोयमा ! अजहण्णुकोसंण तिनीसं सागरोवमाई ठिई पगत्ता।" -प्रज्ञा० प० ४ सू. १०२ "अजहएणमणुक्कोसा तेत्तीसं सागरोपमा । महाविमाणे सव्वट्ठोठिई एसा वियाहिया ॥२४॥ -उत्तराध्ययनसूत्र अ०३६ और इसलिए यह स्पष्ट है कि भाष्यका 'एवमासर्वार्थसिद्धादिति' वाक्य श्वे प्रागमके विरुद्ध है। सिद्धसेनगणीने भी इसे महसूस किया है और इसलिये वे अपनी टीकामें लिखते है ___ "तत्र विजयादिषु चतुपु जघन्येनैकत्रिंशदुत्कण द्वात्रिंशत् सर्वार्थसिद्ध त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यजघन्योत्कृष्टा स्थितिः। भाष्यकारेण तु Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश सर्वार्थसिद्धेऽपि जघन्या द्वात्रिंशत्सागरोपमाण्यधीता तन विद्मः केनाप्य-' भिप्रायेण | आगमस्तावदयम् - " अर्थात् — विजयादिक चार विमानोमें जघन्य स्थिति इकत्तीस सागरकीउत्कृष्ट स्थिति बत्तीस सागरकी है और सर्वार्थसिद्ध मैं अजघन्योत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर की है । परन्तु भाष्यकारने तो सर्वार्थसिद्ध में जघन्यस्थिति बत्तीस सागरकी बतलाई है, हमें नहीं मालूम किस श्रभिप्रायमे उन्होंने ऐसा कथन किया है । आगम तो यह है - ( इसके बाद प्रज्ञापनासूत्रका वह वाक्य दिया है जो ऊपर उद्धृत किया गया है) । (७) छठे अध्याय में तीर्थंकर प्रकृति नामकर्मके श्रास्रव - कारणोंको बतलाते हुए जो सूत्र दिया है वह इस प्रकार है "दर्शन विशुद्धि विनयसम्पन्नता शीलत्रतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णं ज्ञानोपयोग संवेगौ शक्तितस्याग-तपसी संघसाधुसमाधिर्वैयावृत्य कर रामदाचार्य बहुश्रुत प्रवचनभक्तिरावश्य का परिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्स- लत्वमिति तीर्थकरत्वस्य || २३ ||” यह सूत्र दिगम्बर सूत्रपाठके विल्कुल समकक्ष है - मात्रसाधुसमाधिसे पहले यहां 'संघ' शब्द बढ़ा हुआ है, जिससे अर्थ में कोई विशेष भेद उत्पन्न नहीं होता । दि० सूत्रपाठ में इसका नम्बर २४ है । इसमें सोलह काररणोंका निर्देश है और वे हैं- १ दर्शनविशुद्धि, २ विनयसम्पन्नता, ३ शीलव्रतानतिचार, ४ अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, ५ अभीक्ष्णासवेग, ६ यथाशक्ति त्याग, तप, ८ संघसाघुसमाधि, ६ वैयावृत्यकररण, १० प्रद्भक्ति, ११ प्राचार्यभक्ति, १२ बहुश्रुतभक्ति, १३ प्रवचनभक्ति, १४ प्रावश्यकापरिहारिण, १५ मार्गप्रभावना, यथाशक्ति १६ प्रवचनवत्सलत्व । परन्तु श्वेताम्बर आगममें तीर्थंकरत्वकी प्राप्ति के बीस कारण बनलाये हैं- सोलह नहीं और वे है — १ द्वत्सलता, २ सिद्धवत्सलता, ३ प्रवचनवत्सलता, ४ गुरुवत्सलता, ५ स्थविरवत्सलता, ६ बहुश्रुतवत्सलता, ७ तपस्वि * 'पढमचरमेहि पुट्ठा जिरणहेऊ बीस ते इमे 67 - - सत्त रिसयठारणाद्वार १० Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वे० तत्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जांच १३६ वत्सलता, ८ मभीक्ष्णज्ञानोपयोग, ६ दर्शननिरतिचारता, १० विनयनिरतिचारता, ११ आवश्यकनिरतिचारता, १२ शीलनिरतिचारता, १३ व्रतनिरतिचारता १४ क्षणलवसमाधि, १५ तपःसमाधि, १६ त्यागसमाधि, १७ वैय्यावृत्यसमाधि, १८ अपूर्वज्ञानग्रहण, १६ श्रुतभक्ति, २० प्रवचनप्रभावना, जैसाकि 'ज्ञाताधर्मकथांग' नामक श्वेताम्बर आगमकी निम्न गाथाओंमे प्रकट है: अरिहंत-सिद्ध-पथयण-गुरु-थेयर-बहुसुए तवस्सीसु । वच्छलया य एसिं अभिक्खनाणावागे अ॥ १॥ दसणविणए आवस्सए अ सीलवर निरइचारा । खणलवतवञ्चियाए वेयावच्चे समाही य॥२॥ अपुव्वणाणगहणे सुय भत्ती पवयणे पहावणया । परहिं कारणेहिं तित्थयरत्तं लहइ जीव। ।। ३ ।। इनमेंसे सिद्ध वत्सलता, गुरुवत्सलता, स्थविरवत्सलता, तपस्वि-वत्सलता, क्षणलवसमाधि और अपूर्व-ज्ञानग्रहण नामके छह कारण तो ऐसे हैं जो उक्त मूत्रमें पाये ही नहीं जाते; शेयमेंसे कुछ पूरे और कुछ अधूरे मिलते जुलते हैं। इसके मिवाय, उक्त सूत्र में अभीक्षणासंवेग, माधुममाधि और प्राचार्यभक्ति नामक तीन कारगा ऐसे हैं जिनकी गणना इन प्रागमकथित बीस कारणोंमें नहीं की गई है। ऐमी हालत में उक्त सूत्रका एकमात्र आधार श्वेताम्बर श्रुत (प्रागम) कैसे हो सकता है ? इसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते हैं। यहाँपर में इतना प्रौर भी बतला देना चाहता हूँ कि भाष्यकारने प्रवचनवत्सलत्वका ''अहेच्छासनानुष्ठायिनां श्रुतधराणां बाल-वृद्ध-तपस्वि-शेनग्लानादिनां च संग्रहोपग्रहानुग्रहकारित्वं प्रवचनवत्सलत्वमिति', ऐसा विलक्षण लक्षरण करके, इसके द्वारा उक्त बीस कारणोंमसे कुछ छूटे हुए कारणोंका संग्रह करना चाहा है; परन्तु फिर भी वे सब का संग्रह नहीं कर सके-सिद्धवत्सलता और क्षरणलवसमाधि जैसे कुछ कारण रह ही गये और कई * अर्थात्-'महन्तदेवके शासनका अनुष्ठान करनेवाले श्रुतधरों और बालवृद्ध -तपस्वि-शैक्ष तथा ग्लानादि जातिके मुनियोका जो संग्रह-उपग्रह-अनुग्रह करना है उसका नाम प्रवचनवत्सलता है ।' Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश भिन्न कारणोंका भी संग्रह कर गये हैं ! इस विषयमें सिद्ध सेनगणी लिखते हैं__ "विंशतः कारणानां सूत्रकारेण किंचितसूत्रे किंचिद्भाष्ये किंचित् श्रादिग्रहणात सिद्धपूजा-क्षणलवध्यानभावनाख्यमुपात्तम् उपयुज्य च प्रवक्त्रा व्याख्येयम्।" अर्थात् --बीस कारणोंमेंसे सूत्रकारने कुछका सूत्रमें कुछका भाष्यमें और कुछका--सिद्धपूजा क्षणलवध्यानभावनाका-'पादि' शब्दके ग्रहणद्वारा संग्रह किया है, वक्ताको ऐसी ही व्याख्या करनी चाहिये। इस तरह पागमके साथ मूत्र की असंगतिको दूर करनेका कुछ प्रयत्न किया गया है; परन्तु इस तरह अमंगति दूर नही हो सकती--मिद्ध मेनके कथनमे इतना तो स्पष्ट ही है कि मूत्रमें बीमों कारणोंका उल्लेख नहीं हैं। और इमलिये उक्त सूत्रका आधार श्वेताम्बर श्रुत नहीं है । वास्तवमें इम सूत्रका प्रधान आधार दिगम्बर श्रुत है, दिगम्बर मूत्रपाठके यह 'बिलकुल समकक्ष है इतना ही नहीं बल्कि दिगम्बर आम्नायमे आमतौर पर जिन मोलह कारणोंकी मान्यता है उन्हींका इसमें निर्देश है । दिगम्बर खट्खण्डागमके निम्नसूत्रमे भी इसका भले प्रकार समर्थन होता है___ "दमण विमुझदाए विग्णयसंपण्णदाए सीलवदेसु णिरदिचार दाए श्रावासामु अपरिहीणदास खणलवपरिबुझणदार लद्धिसंवेगसंपण्णदाए यथागामे तथा तवे साहणं पासुअपरिचागदाप साहू समाहिसंधारणाए साहूणं वेजावच्चजागजुत्तदाए अरहंतभत्ताय बहुमुदभत्तीप पवयणभत्तीए परयणवच्छलदाए पवयणप्यभावणार अभिक्खणं गाणीवजागजुत्तदाए इच्चेोहि सोलसहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदकम्म बंधंनि ।" इस विषयका विशेष ऊहापोह पं० फूलचंदजी शास्त्रीने अपने 'तत्वार्थमूत्रका अन्तःपरीक्षण' नामक लेखमें किया है, जो चौथे वर्ष के अनेकान्तकी किरगा १११२ (पृष्ठ ५८३-५८८) में मुद्रिन हुआ है । इमीमे यहां अधिक लिखनेकी जरूरत नहीं समझी गई। (८) सातवें अध्याय का १६ वां सूत्र इस प्रकार है: Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वे० सत्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जांच १४१ "दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणाऽतिथिसंविभागवतसम्पन्नश्च ।" इस सूत्रमें तीन गुणवतों और चार शिक्षाब्रतोंके भेदवाले सात उत्तरव्रतोंका निर्देश है, जिन्हें शीलव्रत भी कहते हैं। गुणवतोंका निर्देश पहले और शिक्षाव्रतोंका निर्देश बादमें होता है, इस दृष्टिसे इम मूत्रमें प्रथम निर्दिष्ट हुए दिम्वत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत ये तीन तो गुग्णव्रत हैं; शेष सामायिक, प्रोषधोपवाम, उपभोगपग्भिोगपरिमारण और अतिथिसंविभाग, ये चार शिक्षाक्त है । परन्तु श्वेताम्बर आगममें देशव्रतको गुगावतोंमें न लेकर शिक्षाव्रतोंमें लिया है और इसी तरह उपभोगपरिभोगपरिमारणवनका ग्रहण शिक्षाव्रतोंमें न करके गुरणवतोमें किया है। जैसा कि श्वेताम्बर प्रागमके निम्न सूत्रसे प्रकट है "पागारधम्म दवालमविहं आइक्खइ, तं जहा--पंचअगुव्वयाई तिरिण गुणवयाई चत्तारि मिक्खावयाई । तिणि गुणव्वयाई, तं जहाअणत्थदंडवेरमणं, दिसिव्वयं, उपभोगपरिभोगपरिमाणं । चत्तारि सिक्खाययाई, तं जहा- सामाइयं. देमावगासियं, पोसहोपवासे, अतिहिसंविभागे ।" -श्रीपपातिक श्रीवीरदेशना सूत्र ५७ इसमे तत्त्वार्थशास्त्रका उक्त सूत्र श्वेताम्बर अागमके साथ संगत नहीं, यह स्पष्ट है । इस अमगतिको मिद्धमेनगणीने भी अनुभव किया है और अपनी टीकामें यह बतलाते हुए कि 'आर्य (प्रागम) मे तो गुग्णवतोंका क्रमसे आदेश करके शिक्षाव्रतोंका उपदेश दिया है, किन्तु मूत्रकारने अन्यथा किया है, यह प्रश्न उठाया है कि सूत्रकारने परमार्प वचनका किमलिये उल्लंघन किया है ? जैसा कि निम्नटीका वाक्यमे प्रकट है “सम्प्रति क्रम निर्दिष्ट देशव्रतमुच्यते । अत्राह वक्ष्यति भवान देशव्रतं । परमार्षवचनक्रमकैमाद्भिन्नःसूत्रकारेण? आपे तु गुणव्रतानि कमेणादिश्य शिक्षाब्रतान्युपदिष्टानि सूत्रकारेण त्वन्यथा ।'' इसके बाद प्रश्नके उत्तररूपमें इस असंगतिको दूर करने अथवा उस पर कुछ पर्दा डालनेका यत्न किया गया है, और वह ? म प्रकार है Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश "तत्रायमभिप्रायः-पूर्वतो योजनशतपरिमितं गमनमभिगृहीतम् । न चास्ति सम्भवो यत्प्रतिदिवसं तावती दिगवगाह्या, ततस्तदनन्तरमेवोपदिष्टं देशव्रतमिति देशे-भागेऽवस्थानं प्रतिदिन प्रतिप्रहरं प्रतिक्षणमिति सुखावबोधार्थमन्यथा क्रमः ।" इसमें अन्यथाक्रमका यह अभिप्राय बतलाया है कि पहलेसे किसीने १८० योजन परिमाण दिशागमनकी मर्यादा ली परन्तु प्रतिदिन उतनी दिशाके अवगाहन का सम्भव नहीं है, इसलिये उसके बाद ही देशव्रतका उपदेश दिया है। इससे प्रतिदिन, प्रतिप्रहर और प्रतिक्षण पूर्वगृहीत मर्यादाके एक देशमेएक भागमे अवस्थान होता है। अत: सुखबोधार्थ-सरलतासे समझानेके लिए यह अन्यथाक्रम स्वीकार किया गया है।' यह उत्तर बच्चोंको बहकाने जैसा है। समझमें नहीं आता कि देशवतको सामायिकके बाद रखकर उसका स्वरूप वहाँ बतला देनेसे उसके सुखबोधार्थ में कौनसी अड़चन पड़ती अथवा कठिनता उपस्थित होती थी और अड़चन अथवा कठिनता आगमकारको क्यों नहीं सूझ पड़ी? क्या आगमकारका लक्ष्य सुखबोधार्थ नहीं था ? आगमकारने तो अधिक शब्दोंमें अच्छी तरह समझाकरभेदोपभेदको बतलाकर लिखा है। परन्तु बात वास्तवमे मुखबांधार्थ अथवा मात्र क्रमभेदकी नहीं है, क्रमभेद तो दूसरा भी माना जाता है-पागममें अनयंदण्डवतको दिग्व्रतमे भी पहले दिया है, जिमकी मिद्धमेन गरणीने कोई चर्चा नहीं की है। परन्तु वह क्रमभेद गुरगव्रत-गुरगव्रतका है, जिसका विशेष महत्व नहीं, यहां तो उस कमभेदकी बात है जिससे एक गुरगव्रत शिक्षावत और एक शिक्षाव्रत गुरणवत हो जाता है । और इसलिए इस प्रकारकी असगति मुखबोधार्थ कह देने मात्रमे दूर नहीं हो सकती। अत: स्पष्ट कहना होगा कि इसके द्वारा दूसरे शासनभेदको अपनाया गया है। प्राचार्यो-प्राचार्योंमें इस विषयमें कितना ही मतभेद रहा है। इसके लिए लेखकका 'जैनाचार्योंका शासनभेद' ग्रन्थ देखना चाहिए । (९) आठवें अध्यायमें 'गतिजाति' पादिरूपसे नामकर्मकी प्रकृतियोंका जो सूत्र है उसमें 'पर्याप्ति' नामका भी एक कर्म है । भाष्यमें इस 'पर्याप्ति' के पांच मेद निम्न प्रकारसे बतलाए है Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वे० तत्वार्थसूत्र और उसके भाध्यकी जांच १४३ "पर्याप्तिः पंचविधा । तद्यथा - आहारपर्याप्तिः शरीरपर्याप्तिः इन्द्रियपर्याप्तिः प्राणापानपर्याप्तिः भाषापर्याप्तिरिति ।" परन्तु दिगम्बर श्रागमकी तरह श्वेताम्बर श्रागममें भी पर्यासिके छह भेद माने गये हैं छठा भेद मनः-पर्यातिका है, जिसका उक्त भाष्यमें कोई उल्लेख नहीं है । और इस लिये भाष्यका उक्त कथन पूर्णतः श्वेताम्बर आगमके अनुकूल नही है । इस प्रसंगतिको सिद्धसेनगगीने भी अनुभव किया है और अपनी टीका में यह प्रश्न उठाया है कि 'परमप्रार्षवचन ( आगम) में तो षट् पर्याप्तियां प्रसिद्ध हैं, फिर यह पर्याप्तियोंकी पांच संख्या कैसी ?'; जैसा कि टीकाके निम्न वाक्य से प्रकट है " ननु च पट् पर्याप्तयः पारमार्थवचन प्रसिद्धाः कथं पंचसंख्याका ? इति" | arent इसके भी समाधानका वैसा ही प्रयत्न किया गया है जो किसी तरह भी हृदय ग्राह्य नहीं है । गरगोजी लिखते हैं- "इन्द्रियपर्याप्तिग्रहणादिह मनः पर्याप्तिरपि ग्रहणमवसेयम् ।" अर्थात् इन्द्रियपर्याप्ति ग्रहणसे यहां मनःपर्याप्तिका भी ग्रहण समझ लेना चाहिये । परन्तु इन्द्रियपर्याप्ति में यदि मन:पर्याप्तिका भी सममन:वेश है औरपर्याप्ति कोई अलग चीज़ नहीं है तो श्रागम में मनः पर्याप्तिका अलग निर्देश क्यों किया गया है ? और मूत्रमें क्यों इन्द्रियों तथा मनको अलग अलग लेकर मतिज्ञानके भेदोंकी परिगणना की गई है तथा संसंज्ञके भेदोंको भी प्राधान्य दिया गया है ? इन प्रश्नोंका कोई समुचित समाधान नही बैठता, और इसलिये कहना होगा कि यह भाष्यकारका ग्रागमनिरपेक्ष अपना मत है, जिसे किसी काररणविशेषके वश होकर उसने स्वीकार * प्रहार- सरीरेंदियपज्जती प्राणपारण भास-मरणे । चउ पंच पंच छप्पिय इग- विगलाऽसणि सगीरणं ॥ -नवतत्व प्रकररण, गा० ६ प्रहार - सरीरेंदिय - ऊसास- वो मरणोऽहि निव्वत्ती । होइ जम्रो दलियाम्रो करणं एसाउ पज्जती ॥ 1 - सिद्धसेनीया टीकामें उद्घृत पृ० १६० Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश किया है। अन्यथा, इन्द्रियपर्याप्तिका स्वरूप देते हुए वह इसका स्पष्टीकरण जरूर कर देता । परन्तु नहीं किया गया; जैसाकि "त्वगादीन्द्रियनिर्वर्तनाक्रियापरिसमातिरिन्द्रिय पर्याप्तिः" इस इन्द्रियपर्याप्तिके लक्षणसे प्रकट है। अतः श्वेताम्बर आगमके साथ इस भाष्यवाक्यकी संगति बिठलानेका प्रयत्न निष्फल है। (१०) नवमें अध्यायका अन्तिम सूत्र इस प्रकार है "संयम - श्रुत - प्रतिसेवना - तीर्थ-लिङ्ग-लेश्योपपातस्थानविकल्पतः साध्याः ।" इसमें पुलाकादिक पंचप्रकारके निर्ग्रन्थमुनि संयम, श्रुत, प्रतिसेवना प्रादि पाठ अनुयोगद्वारोंके द्वारा भेदरूप सिद्ध किये जाते हैं, ऐसा उल्लेख है। भाष्यमें उस भेदको स्पष्ट करके बतलाया गया है; परन्तु उस बतलाने में कितने ही स्थानों पर श्वेताम्बर आगमके साथ भाष्यकारका मतभेद है, जिसे मिद्धमेन गणीने अपनी टीकामें 'आगमस्वन्यथा व्यवस्थितः', 'अत्रैवाऽन्यथैवागमः', 'अत्राप्यागमोऽन्यथाऽतिदेशकारी' जैसे वाक्योंके साथ आगमवाक्योंको उद्धृत करके व्यक्त किया है । यहाँ उनमेंसे सिर्फ एक नमूना दे देना हो पर्याप्त होगाभाष्यकार 'श्रुत' की अपेक्षा जैन मुनियोंके भेद को बतलाते. हए लिखते है "श्रुतम् । पुलाक-बकुश-प्रतिसेवनाकुशीला उत्कृष्टनाऽभिन्नाक्षरदशपूर्वधराः । कषायकुशोल-निग्रन्थौ चतुदशपूर्वधरी । जघन्येन पुलाकस्य श्रुतमाचारवस्तु, बकुश-कुशील-निर्ग्रन्थानां श्रुतमष्टी प्रवचनमातरः । श्रुतापगतः केवली स्नातक इति ।" अर्थात्-श्रुतकी अपेक्षा पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना कुशील मुनि न्यादामे ज्यादा अभिन्नाक्षर (एक भी अक्षरकी कमीमे रहित) दगपूर्वके धारी होते हैं । कपायकुशील और निम्रन्थ मुनि चौदह पूर्वके धारी होते हैं । पुलाक मुनिका कमसे कम श्रुत आचारवस्तु है । बकुश, कुशील और निर्ग्रन्थमुनियोंका कमसे कम श्रुत आठ प्रवचनमात्रा तक सीमित है। और स्नातक मुनि श्रनमे रहित केवली होते हैं। इस विषयमें पागमकी जिस अन्यथा व्यवस्थाका उल्लेख मिद्धमेनने किया है वह इस प्रकार है Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वे तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जाँच १४५ __ "पुलाए णं भंते केवतियं सुयं अहिन्जिज्जा गोयमा ! जहण्णेणं रणवमस्स पुन्वस्स तत्तियं पायारवत्थु', उक्कोसेणं नव पुवाइ संपुण्णाई। वउस-पडिसेवणा-कुसीला जहण्णेणं अट्ठपवयणमायाओ, उकोसेणं चोदसपुव्वाई अहिज्जिज्जा । कसायकुसील-निग्गंथा जहण्णेणं अठ्ठपवयणमायाओ, उकोसेणं चौदसपुव्वाइं अहिग्जिज्जा ।" __इसमें जघन्य श्रुतकी जो व्यवस्था है वह तो भाष्यके साथ मिलती-जुलती है; परन्तु उत्कृष्ट श्रुतकी व्यवस्थामें भाष्यके साथ बहुत कुछ अन्तर है। यहाँ पुलाक मुनियोंके उत्कृष्ट श्रुतज्ञान नवपूर्व तक बतलाया है, जब कि भाप्यमें दसपूर्व तकका स्पष्ट निर्देश है । इसी तरह बकुश और प्रतिसेवनाकुशील मुनियोंका श्रतज्ञान यहाँ चौदहपूर्व तक मीमित किया गया है, जब कि भाष्यमें उसकी चरमर्मीमा दसपूर्व तक ही कही गई है। अत: आगमके साथ इस प्रकारके मतभेदोंकी मौजूदगीमें जिनकी संगति बिठलानेका सिद्धमेन गरणीने कोई प्रयत्न भी नही किया, यह नहीं कहा जा सकता कि उक्त मूत्रके भाष्यका आधार पूर्णतया श्वेताम्बर आगम है। (११) नवमें अध्यायमें उत्तमक्षमादि-दशधर्म-विषयक जो सूत्र है उसके तपोधर्म-सम्बन्धी भाष्यका अन्तिम अंश इस प्रकार है: "तथा द्वादशभिक्षु-प्रतिमाः मासिक्यादयः आसप्तमासिक्यः सप्त, सप्रचतुर्दशैकविंशतिरात्रिक्यस्तिस्रः अहोरात्रिकी. एकरात्रिकी चेति ।" इममे भिक्षुषोंकी बारह प्रतिमानोंका निर्देश है, जिनमें सात प्रतिमाएं तो एकमामिकीमे लेकर मप्तमासिकी तक बतलाई हैं, तीन प्रतिमाएँ सप्तरात्रिकी चतुर्दशरात्रिकी और एकविंशतिरात्रिकी कही है, शेष दो प्रतिमाएँ अहोरात्रिकी और एकरात्रिकी नामकी हैं। सिद्धसेन गगीने उक्त भाष्यकी टीका लिखते हुए आगमके अनुसार सप्तरात्रिकी प्रतिमाएँ तीन बतलाई है --चतुर्दशरात्रिकी और एकविंशतिरात्रिकी प्रतिमाओंको आगम-मम्मत नहीं माना है, और इसलिये आप 'सप्त चतुर्दशैकविंशतिरात्रिक्यस्तिस्रः' इम भाष्यांशको प्रागमके माथ असंगत, पार्षविसंवादि और प्रमत्तगीत तक बतलाते हए लिखते हैं: Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश "सप्तचतुर्दशैकविंशतिरात्रिक्यस्तिस्र इति नेदं परमार्षवचनानुसारिभाष्य किं तर्हि ? प्रमत्त गीतमेतत् । वाचकोहि पूर्ववित् कथमेवं विधमाविसंवाद निबध्नीयात् ? सूत्रानवबोधादुपजात भ्रान्तिना केनापि रचितमेतद्वचनकम् । दोच्चा सत्तराइंदिया तझ्या सत्तराइंदिया - द्वितीया सप्तरात्रकी तृतीया सप्तरात्रिकीति सूत्रनिर्भेद: । द्वे सप्तरात्रे त्रीणीति सप्तरात्राणांति सूत्रनिर्भेदं कृत्वा पठितमज्ञेन सप्तचतुर्दशैकविंशतिरात्रिक्यस्तिस्र इति । १४६ अर्थात् -- 'सप्तचतुर्दशै कविशतिरात्रिक्यस्तिस्रः' यह भाष्य परमर्षवचन ( आगम) के अनुकूल नहीं हैं। फिर क्या है ? यह प्रमत्तगीत है - पागलों जैसी बड़ है अथवा किसी पागलका कहा हुआ है । वाचक ( उमास्वाति ) पूर्वके ज्ञाता थे, वे कैसे इस प्रकारका प्राविसंवादि वचन निबद्ध कर सकते थे ? ग्रागमसूत्रकी अनभिज्ञता उत्पन्न हुई भ्रान्तिके कारण किसीने इस वचनकी रचना की है । 'दोच्चा मत्त इंडिया तझ्या सत्तराइंडिया — द्वितीया सप्तरात्रिकी तृतीया सप्तरात्रकी' ऐसा आगमसूत्रका निर्देश है, इसे डेसतरात्रे, श्रीरणीति सप्तरात्राणीति' ऐसा सूत्रनिर्भेद करके किसी अज्ञानीने पढ़ा है और उसीका फल 'सप्तचतुर्दर्शकविंशतिरात्रिtपस्तिस्र' यह भाष्य बना है । सिद्धमेनकी इस टीका परमे ऐसा मालूम होता है कि सिद्धसेनके समय में इस विवादापन्न भाष्यका कोई दूसरा श्रागमसंगतरूप उपलब्ध नहीं था, उपलब्ध होता तो वह सिद्धमेन जैसे ख्यातिप्राप्त और साधनसम्पन्न श्राचार्यको जरूर प्राप्त होता, और प्राप्त होनेपर वे उसे ही भाप्यके रूपमे निबद्ध करते -प्रापत्तिजनक पाठ न देते, अथवा दोनों पाठोंको देकर उनके सन्याऽसत्यकी आलोचना करते । दूसरी बात यह मालूम होती है कि सिद्धसेन चूँकि पहले भाष्यको मूल सूत्रकारकी स्वोपज्ञकृति स्वीकार कर चुके थे और सूत्रकारको पूर्ववित् भी मान चुके थे, ऐसी हालत में जिस तत्कालीन वे० श्रागमके वे कट्टर पक्षपाती ये उसके विरुद्ध ऐसा कथन प्रानेपर वे एकदम विचलित हो उठे हैं और उन्होंने यह कल्पना कर डाली है कि किसीने यह अन्यथा कथन भाष्यमें मिला दिया है, Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी एक सटिप्पण प्रति १४७ यही कारण है कि वे उक्त भाष्यवाक्यके कर्ताको अज्ञानी और उस भाष्यवाक्यको 'प्रमत्तगीत' तक कहनेके लिए उतारू होगये हैं। परन्तु स्वयं यह नहीं बनला सके कि उम भाष्यवाक्यको किसने मिलाया, किसके स्थानपर मिलाया, क्यों मिलाया, कब मिलाया और इस मिलावटके निर्णयका आधार क्या है ? यदि उन्होंने भाष्यकारको स्वयं मूलसूत्रकार और पूर्व वित् न माना होता तो वे शायद वैसा लिखनेका कभी साहम न करते । उनका यह तर्क कि 'वाचक उनास्वाति पूर्व के ज्ञाता थे, वे कैसे इस प्रकारका पार्षविसंवादि वचन निबद्ध कर सकते थे, कुछ भी महत्त्व नहीं रखता, जबवि अन्य कितने ही स्थानोंपर भी पागमके साथ भाप्यका स्पष्ट विरोध पाया जाता है और जिमके कितने ही नमूने ऊपर बतलाये जा चुके है । पिछले (नं. १०) नमूनेमें प्रदर्शित भाप्यके विषयमें जब मिद्धगेन गगी म्वयं यह लिखते हैं कि "आगमम्त्वन्यथा व्यवस्थितः' - आगमकी व्यवस्था इसके प्रतिकूल है, और उमकी मगति विटलानेका भी कोई प्रयत्न नहीं करते, तब वहाँ भाष्यकारका पूर्ववित् होना कहाँ चला गया ? अथवा पूर्ववित होते हुए भी उन्होंने वहाँ 'पापं विसंवादि' वचन क्यों निबद्ध किया ? इसका कोई उत्तर मिद्धमेनकी टीका परमे नहीं मिल रहा है और इलिये जब तक इसके विरुद्ध मिद्ध न किया जाय तब तक यह कहना होगा कि भाग्यका उक्त वाक्य श्वे. प्रागमके विरुद्ध है और वह किमीके द्वारा प्रक्षिप्त न होकर भायकारका निजी मन है। और ऐसे स्पष्ट विरोधों की हालत में यह नहीं कहा जा मकता कि भाप्यादिका एकमात्र प्राधार वेताम्बर श्रुत है। उपसंहार मैं समझता हूँ ये सब प्रमाण, जो ऊपर दो भागोंमें संकलित किये गये हैं, इस बातको बतलाने के लिये पर्याप्त है कि श्वेताम्बरीय तत्वार्थसूत्र और उसका भाष्य दोनों एक ही आचार्यकी कृति नहीं है और न दोनों की रचना सर्वथा श्वेताम्बर आगमोंके आधारपर अवलम्बित है, उसमें दिगम्बर प्रागमोंका भी बहन बडा हाथ है और कुछ मन्तव्य ऐसे भी हैं जो दोनों सम्प्रदायोंसे भिन्न ॐ हम विषयकी विशेष जानकारी प्राप्त करनेके लिये 'तत्त्वार्थसूत्रके बीजों Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश किसी तीसरे ही सम्प्रदायसे सम्बन्ध रखते हैं अथवा सूत्रकार तथा भाष्यकारके निजी मतभेद हैं । और इसलिये उक्त दोनों दावे तथ्यहीन होनेसे मिथ्या हैं । आशा है विद्वज्जन इस विषय पर गहरा विचार करके अपने-अपने अनुभवोंको प्रकट करेंगे । ज़रूरत होनेपर जाँच-पड़तालकी विशेष बातोंको फिर किसी समय पाठकोंके सामने रक्खा जायगा । की खोज' नामका वह निबन्ध देखना चाहिये जो चतुर्थ वर्षके 'अनेकान्त' को प्रथम किरण में प्रकाशित हुआ है । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्र प्रास्ताविक जैनसमाजके प्रतिभाशाली प्राचार्यों, समर्थ विद्वानों और सुपूज्य महात्माओंमें भगवान् समन्तभद्र स्वामीका आसन बहुत ऊँचा है। ऐसा शायद कोई ही प्रभागा जैनी होगा जिमने आपका पवित्र नाम न मुना हो; परन्तु समाजका अधिकांश भाग ऐमा ज़रूर है जो आपके निर्मल गुगगों और पवित्र जीवनवृत्तान्तोंसे बहुत ही कम परिचित है-बल्कि यों कहिये कि अपरिचित है। अपने एक महान् नेता और ऐसे नेताके विषयमें जिसे 'जिनशासनका प्रणेता*'नक लिखा है समाजका इतना भारी अज्ञान बहुत ही स्वटकता है। मेरी बहुन दिनोंसे इस बातकी बराबर इच्छा रही है कि प्राचार्यमहोदयका एक सच्चा इतिहासउनके जीवनका पूरा वृतान्त--लिम्बकर लोगोंका यह अज्ञानभाव दूर किया जाय । परन्तु बहुत कुछ प्रयन्न करने पर भी मैं अभी तक अपनी उस इच्छाको पूरा करनेके लिये ममर्थ नहीं हो सका। इसका प्रधान कारण यथेष्ट माधनसामग्रीकी अप्राति है । ममाज अपने प्रमादमे, यद्यपि, अपनी बहुतमी ऐतिहामिक सामग्रीको खो चुका है फिर भी जो अवशिष्ट है वह भी कुछ कम नहीं है। परन्तु वह इतनी अस्तव्यस्त तथा इधर उधर बिखरी हुई है और उसको मालूम करने तथा प्राप्त करने में इतनी अधिक विघ्नबाधाएँ उपस्थित होती है कि उसका होना नहोना प्रायः बराबर हो रहा है। वह न तो अधिकारियोंके स्वर्य उपयोगमे आती है, न दूसरोंको उपयोगके लिए दी जाती है और इसलिए उमकी दिनपर दिन तृतीया गति (नष्टि ) होती रहती है, यह बड़े ही दुःखका विषय है ! * देखो, श्रवणबेल्गोलका शिलालेख नं० १०८ (नया नं०२५८)। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश साधनसामग्रीकी इस विरलताके कारण ऐतिहासिक तत्त्वोंके अनुसंधान और उनकी जाँचमें कभी कभी बड़ी ही दिक्कतें पेश आती है और कठिनाइयाँ मार्ग रोककर खड़ी हो जाती है। एक नामके कई कई विद्वान् हो गये है*; एक विद्वान् प्राचार्यके जन्म, दीक्षा, गुणप्रत्यय और देशप्रत्यादिके भेदसे कई कई नाम अथवा उपनाम भी हुए हैं और दूसरे विद्वानोंने उनका यथारुचि-चाहे जिस नामसे-अपने ग्रन्थोंमें उल्लेख किया है; एक नामके कई कई पर्यायनाम भी होते हैं और उन पर्यायनामों अथवा प्रांशिक पर्यायनामोंसे भी विद्वानोंतथा प्राचार्योका उल्लेख । मिलता है; कितने ही विभिन्न भाषाओंके अनुवादोंमे, कभी कभी मूलग्रंथ और ग्रथकारके नामोका भी अनुवाद कर दिया जाता है अथवा वे नाम अनुवादित रूपमे ही उन भापात्रोंके ग्रन्थोंमें उल्लेखित हैं; एक व्यक्ति के जो दूसरे नाम, उपनाम, पर्यायनाम अथवा अनुवादित नाम हों वे ही दूसरे व्यक्तियोंके मूल नाम भी हो सकते है और अमर होते रहे है; सम-सामयिक व्यक्तियोके * जैसे, 'पद्मनन्दि' और 'प्रभाचन्द्र' आदि नाम के धारक बहतमे प्राचार्य हुए हैं। 'समन्तभद्र' नामके धारक भी कितने ही विद्वान् हो गये हैं, जिनमें कोई 'लघ' या 'चिक्क', कोई 'अभिनव', कोई गेम्सोप्पे', कोई भट्टारक' और कोई 'गृहस्थ' समन्तभद्र कहलाते थे। इन मबके ममयादिका कुछ परिचय रत्नकरण्डश्रावकाचार (ममीचीन धपंगास्त्र)की प्रस्तावना अथवा तद्विषयक निबन्धमें' ग्रन्थपर सन्देह' शीर्षकके नीचे, दिया गया है। स्वामी समन्तभद्र इन मबमेभिन्न थे और वे बहुत पहले हो गये है। जैसे 'पद्मनन्दी' यह कुन्दकुन्दाचार्यका पहला दीक्षानाम था और बादको कोण्डकून्दाचार्य' यह उनका देशप्रत्यय-नाम हना है; क्योंकि वे 'कोण्डकुन्दपुरके निवासी थे। गुलियोंमे आपके एलाचार्य, वक्रग्रीव और गृध्रपिच्छाचार्य म भी दिये हैं, जो ठीक होनेपर गुगादिप्रत्यको लिये हुए समझने चाहिये और इन नामोंके दूमरे प्राचार्य भी हुए हैं। + जैसे नागचन्द्रका कहीं 'नागचन्द्र' और कही भुजंगसुधाकर' इस पर्यायनामसे उल्लेख पाया जाता है । और प्रभाचन्द्रका 'प्रभेन्दु' यह प्रांशिक पर्याय नाम है,जिसका बहुत कुछ व्यवहार देखने में प्राता है । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्र १५१ नामोंका भी प्रायः ऐसा ही हाल है; कोई कोई विद्वान् कई कई प्राचार्यो के भी शिष्य हुए हैं और उन्होंने अपनेको चाहे जहाँ चाहे जिस प्राचार्यका शिष्य सूचित किया है; एक संघ अथवा गच्छके किसी अच्छे प्राचार्यको दूसरे संघ अथवा गच्छने भी अपनाया है और उसे अपने ही संघ तथा गच्छका प्राचार्य सूचित किया है; इसी तरहपर कोई कोई श्राचार्य अनेक मठोंके अधिपति प्रथवा अनेक स्थानोंकी गद्दियोंके स्वामी भी हुए हैं और इससे उनके कई कई पट्टशिष्य हो गये हैं, जिनमें से प्रत्येकने उन्हें अपना ही पट्टगुरु सूचित किया है । इस प्रकार की हालतोंमे किसीके असली नाम और असली कामका पता चलाना कितनी टेढी खीर है, और एक ऐतिहासिक विद्वानके लिये यथार्थ वस्तु वस्तुस्थितिका निर्णय करने अथवा किसी खास घटना या उल्लेखको किसी खास व्यक्ति के साथ संयोजित करने में कितनी अधिक उलझनों तथा कठिनाइयोंका सामना करना पडता है, इसका अच्छा अनुभव वे ही विद्वान् कर सकते हैं जिन्हें ऐतिहासिक क्षेत्रमें कुछ अर्सेनिक काम करनेका अवसर मिला हो । अस्तु । rry साधनसामग्री के बिना ही इन सब अथवा इसी प्रकारकी और भी बहुतसी दिक्कतो, उलभनो और कठिनाइयोंमेंसे गुज़रते हुए, मैंने आजतक स्वामी समन्तभद्रके विषय मे जो कुछ अनुसंधान किया है- जो कुछ उनकी कृतियों, दूसरे विद्वानोंके ग्रन्थोमे उनके विपयके उल्लेखवाक्यों और शिलालेखों आदि परसे में मालूम कर सका हूँ - श्रथवा जिसका मुझे अनुभव हुआ है उस सब इतिवृत्तको अब संकलित करके, और अधिक साधन सामग्री के मिलनेकी प्रतीक्षा में न रहकर, प्रकाशित कर देना ही उचित मालूम होता है, और इसलिये नीचे उमीका प्रयत्न किया जाता है । पितृकुल और गुरुकुल स्वामी समन्तभद्रके बाल्यकालका अथवा उनके गृहस्थ जीवनका प्राय: कुछ भी पता नहीं चलता और न यह मालूम होता है कि उनके माता पिताका क्या नाम था । हाँ, आपके 'आतमीमांसा' ग्रन्थकी एक प्राचीन प्रति ताड़पत्रों पर लिखी हुई श्रवणबेलगोलके दौर्बलि-जिनदास शास्त्रीके भंडारमें पाई जाती है उसके अन्त में लिखा है Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश __"इति फणिमंडलालंकारस्योरगपुराधिपसूनोः श्रीस्वामिसमन्तभद्रमुनेः कृतौ आप्तमीमांसायाम् ।" इससे मालूम होता है कि समन्तभद्र क्षत्रियवंशमें उत्पन्न हुए थे और राजपुत्र थे । अापके पिता फरिणमंडलान्तर्गत 'उरगपुर' के राजा थे. और इसलिए उरगपुरको आपकी जन्मभूमि अथवा बाल्यलीलाभूमि समझना चाहिये । 'राजावलीकथे' में आपका जन्म 'उत्कलिका' ग्राममें होना लिखा है, जो प्रायः उरगपुरके ही अन्तर्गत होगा । यह उरगपुर 'उन्यूर' का ही संस्कृत अथवा अतिमधुर नाम जान पड़ता है जो चोल राजारोंकी सबसे प्राचीन ऐतिहासिक राजधानी थी। पुरानी त्रिचिनापोली भी इमीको कहते हैं। यह नगर कावेरीके तट पर वमा हुआ था, बन्दरगाह था और किमी ममय बड़ा ही ममृद्धशाली जनपद था । समन्तभद्रका बनाया हुअा 'स्तुतिविद्या' अथवा 'जिनस्तुतिशतं' नामका एक अलंकारप्रधान ग्रंथ है, जिसे 'जिनशतक' अथवा 'जिनशतकालंकार' भी कहते है । इस ग्रंथका 'गत्वैकम्तुतमेव' नामका जो अन्तिम पद्य है वह कवि और काव्यके नामको लिये हुए एक चित्रबद्ध काव्य है । इम काव्य की छह पारे और नव वलयवाली चित्ररचनापरमे ये दो पद निकलते हैं 'शांतिवर्मकृतं.' 'जिनस्तुनिशतं'। इनसे स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ 'शान्तिवर्मा' का बनाया हुआ और इसलिये 'शान्तिवर्मा' ममन्तभद्रका ही नामान्तर है। परन्तु यह नाम उनके मुनिजीवनका नही हो मकता; क्योंकि मुनियोंके 'वर्मान्त' नाम नहीं होते । जान पड़ता है यह * देखो जनहितैषी भाग ११, अंक ४-८, पृष्ठ ४४.० । प्रागके जैनसिद्धान्तभवनमें भी, ताड़पत्रोंपर, प्रायः ऐसे ही लेम्बवाली प्रति मौजूद है । महाकवि कालिदासने अपने 'रघुवंश' में भी 'उरगपुर' नाममे इम नगर का उल्लेख किया है। + यह नाम ग्रन्थके आदिम मंगलाचरणमें दिये हुए 'स्तुतिविद्या प्रमाधये' इस प्रतिज्ञावाक्यमे जाना जाता है। - देखो वसुनन्दिकृत 'जिनशतक-टीका' । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्र प्राचार्यमहोदयके मातापितादि-द्वारा रक्खा हुमा उनका जन्मका शुभ नाम था। इस नामसे भी आपके क्षत्रियवंशोद्भव होनेका पता चलता है। यह नाम राजघरानोंका-सा है । कदम्ब, गंग और पल्लव प्रादि वंशोंमें कितने ही राजा वर्मान्त नामको लिये हुए हो गए हैं । कदम्बोंमें 'शांतिवर्मा' नामका भी एक राजा हुआ है। यहाँ पर किमीको यह आशंका करने की ज़रूरत नहीं कि 'जिनस्तुतिशतं' नामका ग्रन्थ समन्तभद्रका बनाया हुआ न होकर शांतिवर्मा नामके किसी दूसरे ही विद्वान्का बनाया हुआ होगा; क्योंकि यह ग्रन्थ निर्विवाद-रूपमे स्वामी समन्तभद्रका बनाया हुआ माना जाता है । ग्रन्थकी प्रतियोंमें कर्तृत्वरूपसे समन्तभद्रका नाम लगा हुआ है. टीकाकार श्रीवमुनन्दीने भी उसे 'ताकिंकचूडामणिश्रीमत्समन्तभद्राचार्यविरचित' सूचित किया है और दूसरे प्राचार्यों तथा विद्वानोंने भी उसके वाक्योंका, समन्नभद्र के नाममे, अपने ग्रन्थों में उल्लेख किया है । उदाहरणके लिये 'अलंकारचिन्तामरिग' को लीजिये, जिभमें अजितसेनाचार्यने निम्नप्रतिज्ञावाक्य के माथ ? स ग्रन्थके कितने ही पद्याको प्रमाणरूपसे उद्धृत किया है श्रीमत्समन्त भद्रायजिनसेनादिभापितम् । लक्ष्यमात्र लिखामि स्वनामसूचितलक्षणम् ।। इसके मिवाय पं० जिनदास पार्श्वनाथजी फडकुलेने 'म्वयंभूस्तोत्र' का जो संस्करण मस्कृतटीका और मराठी अनुवादम-हित प्रकाशित कराया है उसमें समन्तभद्रका परिचय देते हुए उन्होंने यह मूचित किया है कि कर्णाटकदेशस्थित 'अष्टसहस्री' की एक प्रतिमे प्राचार्य के नामका इस प्रकारमे उल्लेख किया है"इति फणिमंडलाल कारस्यारगपुराधिसूनुना शांतिवमनाम्ना श्रीसमंतभद्रेग ।" यदि पंडितजीकी यह सूचना सत्य हो तो इससे यह विषय और पं० जिनदामकी इस सूचनाको देखकर मैंने पत्र-द्वारा उनसे यह मालूम करना चाहा कि कर्णाटक देशमे मिली हुई अष्टसहस्रीकी वह कौनसी प्रति है और कहाँके भण्डारमें पाई जाती है जिसमें उक्त उल्लेख मिलता है। क्योंकि दौर्बलि जिनदास शास्त्रीके भण्डारसे मिली हुई 'प्राप्तमीमांसा' के उल्लेखसे यह Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश भी स्पष्ट हो जाता है कि शांतिवर्मा समन्तभद्रका ही नाम था। ___ वास्तवमें ऐसे ही महत्त्वपूर्ण काव्यग्रंथोंके द्वारा समन्तभद्रकी काव्यकीर्ति जगतमें विस्तारको प्राप्त हुई है। इस ग्रंथमें आपने जो अपूर्व शब्दचातुर्यको लिये हुए निर्मल भक्तिगंगा बहाई है उसके उपयुक्त पात्र भी आप ही है । आपसे भिन्न 'शांतिवर्मा' नामका कोई दूसरा प्रसिद्ध विद्वान् हुा भी नहीं । इस लिये उक्त शंका निर्मूल जान पड़ती है । हाँ, यह कहा जा सकता है कि समतभद्रने अपने मुनिजीवनसे पहले इस ग्रंथकी रचना की होगी । परन्तु ग्रन्थके साहित्य परसे इसका कुछ भी समर्थन नहीं होता। प्राचार्यमहोदयने, इस ग्रन्थमें, अपनी जिस परिगति और जिस भावमयी मूर्ति को प्रदर्शित किया है उससे अापकी यह कृति उल्लेख कुछ भिन्न है। उत्तरमें आपने यह सूचित किया कि यह उल्लेख पं० वंशीधरजीकी लिखी हई अष्टमहस्रीकी प्रस्तावना परमे लिया गया है, इसलिये इस विषयका प्रश्न उन्हीं करना चाहिये। अष्टमहस्रीकी प्रस्तावना (परिचय) को देखने पर मालूम हुया कि इसमें 'इनि' में 'ममन्तभद्रेगा' तकका उक्त उल्लेख ज्योंका त्यों पाया जाता है, उसके शुरूम ‘काँटदेशतो लब्धपुस्तके' और अनमें 'इत्याद्य ल्लेखो दृश्यते' ये शब्द लगे हुए हैं। इसपर ता० ११ जुलाईको एक रजिस्टर्ड पत्र पं० वंशीधरजीको शोलापूर भेजा गया और उनमें अपने उक्त उल्लेखका खुलासा करनेके लिये प्रार्थना की गई। माथ ही यह भी लिखा गया कि 'यदि अापने स्वयं उम कर्णाट देगमे मिली हुई पुस्तकको न देखा हो तो जिस आधार पर आपने उक्त उल्लेख किया है उसे ही कृपया सूचित कीजिये। ३ री अगस्त सन् १९२४ को दूसरा रिमाण्डर पत्र भी दिया गया परन्तु पडितजीने दोनोंमेंमे किसीका भी कोई उत्तर देनेकी कृपा नहीं की। और भी कहीमे इस उल्लेखका समर्थन नहीं मिला। ऐसी हालतमे यह उल्लेख कुछ संदिग्ध मालूम होता है । आश्चर्य नही जो जनहितपीम प्रकाशित उक्त 'प्राप्तमीमांसा' के उल्लेखकी ग़लत स्मृति परमे ही यह उल्लेख कर दिया गया हो; क्योंकि उक्त प्रस्तावनामें ऐसे और भी कुछ ग़लत उल्लेख पाये जाते है जैसे 'कांच्या नग्नाटकोऽहं' नामक पद्यको मल्लिषेणप्रशस्तिका बतलाना, जिसका वह पद्य नहीं है। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्र १५५ मुनिअवस्थाकी ही मालूम होती है। गृहस्थाश्रममें रहते हुए और राज-काज करते हुए इस प्रकार की महापांडित्यपूर्ण और महदुच्चभावसम्पन्न मौलिक रचनाएँ नहीं बन सकतीं । इम विषयका निर्णय करनेके लिये, संपूर्ण ग्रन्थको गौरके माथ पढते हुए, पद्य नं० १६, ७६ और ११४ * को खास तौरमे ध्यानमें लाना चाहिये । १६ वें पद्यसे ही यह मालूम हो जाता है कि स्वामी संसारमे भय-भीत होने पर शरीरको लेकर ( अन्य समस्त परिग्रह छोड़कर) वीतराग भगवान्की शरणमें प्राप्त हो चुके थे, और आपका प्राचार उस समय ( ग्रन्थरचनाके समय) पवित्र, श्रेष्ठ, तथा गणधरादि-अनुष्ठित प्राचार-जमा उत्कृष्ट अथवा निर्दोप था । वह पद्य इस प्रकार है पृतम्बनवमाचारं तन्वायातं भयाचा । स्वया वामेश पाया मा नतमेकाच्यशंभव ॥ इम पद्यमें ममन्तभद्रने जिस प्रकार 'पूतस्वनवमाचारं + और 'भयात् तन्वायानं' - ये अपने (मा = 'मां' पदके) दो खाम विगेपणपद दिये हैं उसी प्रकार ७६ ३ ॐ पद्यमें उन्होंने 'ध्वंसमानममानस्त्रत्राममानसं' विशेषगणके द्वारा अपनेको उल्लेखित किया है । इस विशेषणसे मालूम होता है कि ममन्तभद्रके मनमे यद्यपि त्राम उद्वेग-बिल्कुल नष्ट ( अस्त ) नहीं हुआ था-मत्तामे कुछ मौजूद जरूर था-फिर भी वह ध्वंममानके समान हो गया था, और इम लिये उनके चित्तको उद्धे जिन अथवा मंत्रस्त करनेके लिये समर्थ नहीं था । चित्तकी ऐसी स्थिति बहुत ऊँचे दर्जे पर जाकर होती है और इस लिये यह विशेषण भी समन्तभद्रके मुनिजीवनकी उत्कृष्ट स्थितिको सूचित करता है और यह बतलाता है * यह पद्य आगे ‘भावी तीर्थकरत्व' शीर्षकके नीचे उदधृत किया गया है। + 'पूत: पवित्र: मु सृष्ट, अनवमः गणधराद्यनुष्ठितः प्राचार; पापकियानिवृत्तिर्यस्यामी पूनस्वनवमाचारः अतस्तं पूतस्वनतमाचारम्'-इति टीका । x ‘भयात् संसारभीतेः । तन्वा शरीरेण ( सह ) आयातं आगनं ।' * यह पूरा पद्य इस प्रकार है स्वसमान समानन्द्या भासमान स माऽनघ । ध्वंसमानसमानस्तत्रासमानसमानतम् ।। ७६ ॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश कि इस ग्रंयकी रचना उनके मुनिजीवन में ही हुई है। टीकाकार प्राचार्य क्सुनन्दीने भी, प्रयम पद्यकी प्रस्तावनामें 'श्रीसमन्नभद्राचार्यविरचित' लिखनेके अतिरिक्त, ८४ वें पद्यमें आए हुए 'ऋद्ध' विशेषणका अर्थ 'वृद्ध' करके, और११५ वें पद्यके 'वन्दीभूतवतः' पदका अर्थ 'मंगलपाठकीभूतवतोपि नग्नाचार्यरूपेण भवतोपि मम' ऐसा देकर, यही सूचित किया है कि यह ग्रंथ समन्तभद्र के मुनिजीवनका बना हुआ है । अस्तु । स्वामी समन्तभद्रने गृहस्थाश्रममें प्रवेश किया और विवाह कराया या कि नहीं, इस बात के जाननेका प्रायः कोई साधन नहीं है । हो, यदि यह सिद्ध किया जा सके कि कदम्बवंशी राजा शान्तिवर्मा और शान्तिवर्मा ममंतभद्र दोनों एक ही व्यक्ति थे तो यह सहजही में बतलाया जा सकता है कि प्रापने गृहस्थाश्रमको धारण किया था और विवाह भी कराया था। साथ ही, यह भी कहा जा सकता कि अापके पुत्रका नाम मोशवर्मा, पौत्रका रविवर्मा, प्रपौत्रका हरिवर्मा और पिताका नाम कास्यवर्मा था; क्योंकि काकुत्स्थवर्मा, मृगेशवर्मा और हरिवर्माके जो दानपत्र जैनियों अथवा जैनसंस्थानोंको दिये हा हलमी और वैजयन्ती के मुकामोंपर पाये नाते हैं उनमे इस वंशारम्पराका पता चलता है । इसमें संदेह नहीं कि प्राचीन कदम्बवंगी राजा प्राय: सब जैनो 'हए है और दक्षिण (बनवास ) देशके राजा हा है; परंतु इतने परमे ही, नाममाम्यके कारण, यह नहीं कहा जा मकता कि शांतिवर्मा कदम्ब और शांतिवर्मा ममंतभद्र दोनों एक व्यक्ति थे। दोनोंको एक व्यक्ति मिद्ध करनेके लिये कुछ विशेष साधनों तथा प्रमाणोंकी जरूरत है, जिनका इसममय अभाव है। मेरी गयमें, यदि ममंतभद्रने विवाह कराया भी हो तो वे बहुत समय तक गृहस्थाश्रममें नहीं रहे है, उन्होंने जल्दी ही थोडी अवस्थामें, मुनि-दीक्षा धारणा की है और नभी वे उम अमाधारण योग्यता और महनाको प्राप्त कर सके है जो उनकी कृतियों तथा दूसरे विद्वानोंकी कृतियोंमें उनके विषयके उल्लेखवाक्योंसे पाई जाती है और जिसका दिग्दर्शन आगे चल कर कराया जायगा। ऐमा मालूम होता है कि 48 देवो 'स्टडीज़ इन साउथ इंडियन जैनिज्म' नामकी पुस्तक, भाग दूमग पृष्ठ ८७॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्र १५७ समन्तभद्रने बाल्यावस्था से ही अपने आपको जनधर्म और जिनेन्द्रदेवकी सेवाके लिये अर्पण कर दिया था, उनके प्रति प्रापका नैसर्गिक प्रेम था और आपका रोम रोम उन्हीके ध्यान और उन्हीं की वार्ताको लिये हुए था । ऐसी हालत में यह आशा नहीं की जा सकती कि आपने घर छोड़ने में विलम्ब किया होगा । भारतमें ऐसा भी एक दस्तूर रहा है कि, पिताकी मृत्युपर राज्यासन सबसे बड़े बेटेको मिलता था, छोटे बेटे तव कुटुम्बको छोड़ देते थे और धार्मिकजीवन व्यतीत करते थे; उन्हें अधिक समयतक अपनी देशीय रियासतमें रहनेकी भी इजाजत नहीं होती थी * । और यह एक चर्या थी जिसे भारतको, खासकर बुद्धकालीन भारतकी, धार्मिक संस्थाने छोटे पुत्रोंके लिये प्रस्तुत किया था, इस कार्यमें पड़ कर योग्य आचार्य कभी कभी अपने राजबन्धुसे भी अधिक प्रसिद्धि प्राप्त करते थे । संभव है कि समंतभद्र को भी ऐसी ही किसी परिस्थितिमेंसे गुजरना पड़ा हो, उनका कोई बड़ा भाई राज्याधिकारी हो, उसे ही पिताकी मृत्यु पर राज्यामन मिला हो, और इस लिये समंतभद्र ने न तो राज्य किया हो और न विवाह ही कराया हो; बल्कि अपनी स्थितिको समझ कर उन्होंने अपने जीवनको शुरू से ही धार्मिक मांचेमें ढाल लिया हो; और पिताकी मृत्यु पर अथवा उससे पहले ही अवसर पाकर आप दीक्षित हो गये हों; और शायद यही वजह हो कि आपका फिर उग्गपुर जाना और वहां रहना प्राय: नही पाया जाता । परंतु कुछ भी हो, इसमे संदेह नही कि आपकी धार्मिक परिणतिमें कृत्रिमताकी जरा भी गंध नही थी । आप स्वभावसे ही धर्मात्मा थे और आपने * इस दस्तुरका पता एक प्राचीन चीनी लेखकके लेखकमे मिलता है (Matwan-lin, cited in Ind. Ant. IX, 22 ) देखो, विन्मेण्ट ferent off हिस्ट्री आफ इंडिया' पृ० १८५, जिसका एक अंश इस प्रकार है An ancient Chinese writer assures us that 'according to the laws of India, when a king dies, he is succeeded by his eldest son (Kumararaja); the other sons leave the family and enter a religious life, and they are no longer allowed to reside in their native kingdom.' Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश अपने अन्तःकरणकी आवाज़से प्रेरित होकर ही जिनदीक्षा* धारण की थी। दीक्षासे पहले आपकी शिक्षा या तो उरैयूरमें ही हुई है और या वह कांची अथवा मदुरामें हुई जान पड़ती है । ये तीनों ही स्थान उस वक्त दक्षिण भारतमें विद्याके खास केन्द्र थे और इन सबोंमें जैनियोंके अच्छे अच्छे मठ भी मौजूद थे, जो उस समय बड़े बड़े विद्यालयों तथा शिक्षालयोंका काम देते थे। आपका दीक्षास्थान प्रायः कांची या उसके आसपासका कोई ग्राम जान पडता है और कांची ही-जिसे 'कांजीवरम्' भी कहते हैं आपके धार्मिक उद्योगोंकी केन्द्र रही मालूम होती है । आप वहीके दिगम्बर माधु थे । 'कांच्या नग्नाटकाऽहं +' आपके इस वाक्यमे भी प्राय: यही ध्वनित होता है। काँचीमें ग्राप कितनी ही बार गये है, ऐमा उल्लेख x 'गजावलीकथे में भी मिलता है। पितृकूलकी तरह समन्तभद्रके गुरुकुलका भी प्राय: कहीं कोई म्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता और न यह मालूम होता है कि आपके दीक्षागुरुका क्या नाम था। स्वयं उनके ग्रंथोमे उनकी कोई प्रशस्तियों उपलब्ध नहीं होती और न मरे ___ * सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानपूर्वक जिनानुष्ठित सम्यक् चारित्रके ग्रहणको 'जिनदीक्षा' कहते है । समन्तभद्रने जिनेन्द्रदेवके चारित्र-गुगाको अपनी जांचद्वारा 'न्यायविहित' और 'अद्भुन उदयहित' पाया था, और इसी लिये वे मप्रसन्नचित्तमे उसे धारण करके जिनेन्द्र देवकी मच्ची मेवा और भतिम लीन हए थे। नीचेके एक पद्यमे भी उनके इसी भावकी ध्वनि निकलती है. ... अत एव ते बुधनुगम्य चरितगुरणमद्भुतोदयम् । न्यायविहितमवधार्य जिने ! त्वयि सुप्रमन्नमनमः स्थिना वयम् ॥१३॥ ----म्वयंभूस्तोत्र । ॐ द्रविड देशको राजधानी जो असेंतक पल्लवगजानोंके अधिकारमें रही है। यह मद्राससे दक्षिण-पश्चिमकी ओर ४२ मीलके फामलेपर. वेगवती नदी पर स्थित है। + यह पूरा पद्य प्रागे दिया जायगा । x स्टडीज़ इन साउथ इंडियन जैनिज्म, पृ० ३० । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्र १५६ , विद्वानोंने ही उनके गुरुकुलके सम्बन्ध में कोई खास प्रकाश डाला है। हाँ, इतना जर मालूम होता है कि श्राप 'मूलसंघ' के प्रधान श्राचार्यों में थे । विक्रमकी १४वीं शताब्दी के विद्वान् कवि 'हस्तिमल्ल' और 'अय्यप्पाय' ने 'श्रीमूल संघव्योम्नेन्दु' विशेषण के द्वारा आपको मूलसंघरूपी ग्राकाशका चन्द्रमा लिखा है । इसके सिवाय श्रवणबेलगोलके कुछ शिलालेखोंमें इतना पता और चलता है कि श्राप श्रीभद्रबाहु श्रुतकेवली, उनके शिष्य चन्द्रगुप्त, चन्द्रगुप्त मुनिके वंशज पद्मनन्दि परनाम श्रीकोंडकुन्दमुनिराज, उनके वशच उमास्वाति श्रपर नाम गृपच्छाचार्य और गृध्रपिच्छके शिष्य बलाकपिच्छ इस प्रकार महान् आचार्योंकी वंशपरम्परम्परामे हुए हैं। यथा श्रीभद्रसर्वतो यो हि भद्रबाहुरितिश्रुतः । श्रुतकेवलिनाथेषु चरमः परमो मुनिः ॥ चंद्रप्रकाश जलसान्द्रकीर्तिः श्रीचन्द्रगुपोऽजनि नस्य शिष्यः । यस्य प्रभावाद्वनदेवताभिराराधितः स्वस्थ गणां मुनीनां || तस्यान्वये भूविदिते बभूव यः पद्मनन्दिप्रथमाभिधानः । श्रीकोएड कुन्द्रादि मुनीश्वराख्यम्सत्संयमादुद्गत चारणद्धिः ।। अभूमास्वातिमुनीश्वरोऽसावा चार्यशब्दोत्तर गृपिन्छ । तदन्वये तत्सदृशोऽस्ति नान्यस्तात्कालिकाऽशेपपदार्थवेदी ॥ श्रीपन्मुनिपस्य बलाकपिच्छ: शिष्योऽजनिष्ट भुवनत्रयवर्ति कीर्तिः । चारित्रचञ्चुर खिलावनिपाल मौलिमालाशिलीमुखविराजितपादपद्मः || एवं महाचार्यपरंपरायां स्यात्कार मुद्रांकिततत्त्वदीपः । भद्रम्समन्ताद्गुणतो गरणीशस्समन्तभद्रोऽजनि वादिसिंहः ॥ - शिलालेख नं० ४० (६४) इस शिलालेखमे जिस प्रकार चन्द्रगुप्तको भद्रबाहुका और बलाकपिच्छको उमास्वातिका शिष्य सूचित किया है उसी प्रकार समन्तभद्र, अथवा कुन्द 'देखो, 'विक्रान्तकौरव' और 'जिनेन्द्रकल्यारणाभ्युदय' नामके ग्रन्थ | Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश तौरमे निष्णात थे । प्राय: सभी विषयों और सारगर्भित उक्ति अच्छे अच्छे मदोन्मत्तोंको नतमस्तक बनाने में समर्थ थी । आप सदैव ध्यानाऽध्ययनमें मग्न और दूसरोंके अज्ञानभावको दूर करके उन्हें सन्मार्गकी ओर लगाने तथा आत्मोन्नतिके पथ पर अग्रसर करनेके लिये सावधान रहते थे । जैनधर्म और जैनसिद्धान्तोंके मर्मज्ञ होनेके सिवाय याप तर्क, व्याकरण, छंद, अलंकार और काव्य- कोषादि ग्रंथोंमें पूरी sarvat matter प्रतिभाने नात्कालिक ज्ञान और विज्ञानके पर अपना अधिकार जमा लिया था । यद्यपि आप संस्कृत, प्राकृत, कनडी और तामिल दि कई भाषाओं के पारंगत विद्वान् थे, फिर भी संस्कृत भाषा पर आपका विशेष अनुराग तथा प्रेम था और उसमें श्रापने जो असाधारण योग्यता प्राप्त की थी वह विद्वानोंसे छिपी नहीं है। अकेली 'स्तुतिविद्या' ही आपके द्वितीय शब्दाधिपत्यको अथवा शब्दोंपर आपके एकाधिपत्यको निरी है । जितनी कृतियाँ अब तक उपलब्ध हुई है वे सब संस्कृतमे ही है। परंतु द किसी को यह न समझ लेना चाहिए कि दूसरी भाषाओं में आपने धरवतान की होगी, की जरूर है; क्योंकि कनड़ी भाषाके प्राचीन कवियों मभी अपने कनड़ी काव्यों, उत्कृष्ट कविके रूपमें आपकी भूरि भूरि प्रशंसा की है। तामिल देशमें तो आप उत्पन्न ही हुए थे, उसमे नामिल भाषा ग्रापकी मातृभाषा थी । उसमें ग्रन्थरचनाका होना स्वाभाविक ही है। फिर भी मन भायाके साहित्यपर ग्रापकी टल छाप थी । दक्षिण भारतमें उच्च कोटिकेन ज्ञान प्रोत्तरे जन, प्रोत्साहन और प्रसारण देनेवालोंमें आपका नाम स्वास नोरगे लिया जाता है। आपके समयमे संस्कृत माहित्यके इतिहासमें एक खास युगका प्रारंभ होता है; और इमीमे संस्कृत साहित्यके इतिहास मे ग्रापका नाम अमर है। , * देखो, 'हिस्टरी ग्राफ़ कनडीज़ लिटरेचर' तथा 'कर्णाटकविरि । + मिस्टर एस० एस० रामस्वामी प्राय्यंगर, एम० ए० भी अपनी स्टडीज इन साउथ इंडियन जैनिज्म' नामकी पुस्तक में, बम्बई गजेटियर, जिल्द पहली भाग दूसरा, पृष्ठ ४०६ के आधारपर लिखते हैं कि 'दक्षिण भारतमें समंतभद्रका उदय, न सिर्फ दिगम्बर सम्प्रदायके इतिहास में ही बल्कि, संस्कृत साहित्यके इतिहासमें भी एक खास युगको अंकित करता है ।' यथा Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्र १६३ Read at wrest fraाके प्रालोकसे एक बार सारा भारत प्रालोकित हो चुका है। देशमें जिस समय बौद्धादिकोंका प्रबल प्रातंक छाया हुआ था और लोग उनके नैरात्म्यवाद, शुम्यवाद क्षणिकवादादि सिद्धान्तों संत्रस्त थे - घबरा रहे -प्रथवा उन एकान्त गतमें पड़कर अपना प्रात्मपतन करनेके लिये विवश हो रहे थे, उस समय दक्षिण भारतमें उदय होकर आपने जो लोकसेवा की है वह बडे ही महत्वकी तथा चिरस्मरणीय है । और इस लिये शुभचंद्राचार्यने जो आपको 'भारतभूषण' लिखा है वह बहुत ही युक्तियुक्ति जान पड़ता है। स्वामी समंतभद्र, यद्यपि, बहुतमे उनमोनम गुग्गोंके स्वामी थे, फिर भी कfree, resea वादित्व और वाग्मित्व नामके चार गुण प्रापमे Menurer कोटिको योग्यतावाले थे-ये वारों ही शनियाँ ग्रापमं नाम तोरस विकाशको प्राप्त हुई थी और इनके कारण प्रापका निर्मल दूर दूर तक चारों ओर फैल गया था। उस वक्त जितने वादी, वाग्मी + कवि और " "Samantbhadra's appearence in South India marks an epoch not only in the annals of Digambar Tradition, but also in the history of Sanskrit literature." समन्तभद्रा भद्राय भातृ भारतभूषणः । नाश्वपुराण | + वादी विजयवाग्बुनिः जिसकी वचनप्रवृति विजयकी और उसे 'वाद' कहते है । + 'वाग्मी त जनरजन:- -जो अपनी वाक्पटुता तथा शब्दचातुरीने दुसरोको रंजायमान करने अथवा अपना प्रेमी बनालेनेमे निपुगा हो उसे 'वाग्मी' कहते हैं । * 'कविनू' तनसंदर्भ: - जो नये नये गंदर्भ नई नई मौलिक रचनाएँ तैयार करनेमें समर्थ हो वह कवि है, अथवा प्रतिभा ही जिसका उज्जीवन है. जो नानावनाओं में निपुण है, कृती है, नाना अभ्यासोंमे कुशलबुद्धि है पोर व्युत्पनिमान ( लौकिक व्यवहारोंमें कुशल ) है उसे भी कवि कहते हैं; यथाafratatent नानावर्णनानिपुरणः कृती । nirrooraarataमनिष्युत्पत्तिमान्कविः । —पलंकारचिन्तामरिण । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश गमक थे उन सब पर आपके यशकी छाप पड़ी हुई थी -प्रापका यश नष्टामरिणके तुल्य सर्वोपरि था और वह बादको भी बड़े बड़े विद्वानों तथा मान श्राचार्योंके द्वारा शिरोधार्य किया गया है। जैसा कि, आजसे ग्यारह सौ वर्ष पहले विद्वान्, भगवज्जिनसेनाचार्य के निम्न वाक्यसे प्रकट हैं कवीनां गमकानां च वादीनां वाग्मिनामपि । यशः सामन्तभद्रीयं मूर्ध्नि चूडामणीयते ॥ ४४ ॥ -ग्रादिपुराण | भगवान् समंतभद्रके इन वादित्व और कवित्वादि गुणोंकी लोकमे कितनी धाक थी, विद्वानोंके हृदय पर इनका कितना मिक्का जमा हुआ था और वास्तव में कितने अधिक महत्त्वको लिये हुए थे. इन सब बातोंका कुछ अनुभव करानेके लिये नीचे कुछ प्रमाणवाक्योंका उल्लेख किया जाता है- विज्ञान ( १ ) यशोधरचरितके 'कर्ना और विक्रमकी ११ वी महाकवि वादिराजरि, समतभद्रको 'उत्कृटकाव्य- माणिक्योंका रोग (पर्वत) सूचित करते हैं और साथ ही यह भावना करते हैं कि हम कि समूहको प्रदान करने वाले होवे - श्रीमत्समंतभद्राद्याः काव्यमाणिक्यरोहणाः । सन्तु नः संततोत्कृष्टाः सूक्तिरत्नोत्करप्रदाः || ( २ ) 'ज्ञानारणंव' ग्रंथके रचयिता योगी श्रीशुभचंद्राचार्य जी विक्रमी प्रायः ११वी के विद्वान है, समंतभद्रको 'कवीन्द्रभास्वान' विशेषावे गाव स्मरण करते हुए लिखते हैं कि जहां आप जैसे कवीन्द्र-सूर्याक निर्मली किरणों स्फुरायमान हो रही है वहा वे लोग खद्यान या जुगनूकी तरह हमको ही प्राप्त होते हैं जो थोडेसे ज्ञानको पाकर उद्धत है -कविता करने लगते है । ॐ 'गमकः कृतिभेदक:'- जी दूसरे विद्वानको कृतियो को मनवाला उनकी तहत पहुँचनेवाला हो और दूसरोंको उनका ममं नया रहस्य समझाने में प्रवीण हो उसे 'गमक' कहते हैं। निश्चायक, प्रत्ययजनक र संशयछेदी भी उसीके नामान्तर है । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्र १६५ मौर इस तरहपर उन्होंने समंतभद्र के मुकाबले में अपनी कविताकी बहुत ही लघुता प्रकट की है समन्तभद्रादिकवीन्द्र भाम्यतां स्फुरन्ति यत्रामलमुनि रश्मयः । व्रजन्ति स्वद्योतवदेव हास्यतां, न तत्र किं ज्ञानन्तयोद्धता जनाः ||१४| (३) श्रकारजित्लासगिमें. प्रजितमेनाचार्यने समनभद्रवो नमस्कार करते हुए उन्हें कवि जर' 'मुनिबंध' श्रोर 'जनानन्द' ( लोगोंको आनंदित करनेवाले) लिखा है और साथ ही यह प्रकट किया है कि उन्हें अपनी 'वचनश्री के लिः ननकी गोभा बढाने अथवा उनमें शक्ति उत्पन करनेके लियेनमस्कार करना है. श्रीमत्समन्तादिकविकु जर मंत्रगम । मुनिवं जनानन्द नमामि वचनश्रियै ॥ ३ ॥ (२) परागनरित्र, परवादिता श्रीवर्धमानमृद्धि ममभद्रको praatees' और 'मुतात्रामृनमारसागर प्रकट करते हुए यह सूचित करते हैं कि समम कुवादियों (प्रतिवादियों) की विकार जयनाभ करके साथ ही यह भावना करते है कि वे महाकवीश्वर मुझ कविता प्रसन होइनकी विद्यामेरामें स्फुरायमान होकर मुगल मनोरथ करे समन्तभद्रादिमहाकवीश्वराः कुलादिविद्याजय लव्धकीर्तयः । सुतकशास्त्रामृत सार सागरा मयि प्रसादस्तु कवित्वकांक्षिण ||||| ( 2 ) भगवज्जनगतावाने प्रागामे, गगनको नमस्कार करते हुए, उन्हें 'गहना' कवियोको उप करनेवाला महान विधाता ( महाकविब्रह्मा) लिखा है और यह प्रकट किया है कि उनके वचनरूपी गनः कुमतपर्वत हो गये थे नमः समन्तभद्राय महते कविवे 1 यद्वचोय खपातेन निर्भिन्नाः कुमताद्रयः ॥ (६) ब्रह्म प्रजिनने सपने 'हनुमचरित्र' में, समन्तभद्रका जयघोष करते हुए, उन्हें 'भरूपरूपी कुमुदोंको प्रफुल्लित करनेवाला चन्द्रमा' लिखा है मोर साथ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश ही यह प्रकट किया है कि वे 'दुर्वादियोंकी वादरूपी खाज ( खुजली ) को मिटाने के लिये द्वितीय महौषधि' थे —- उन्होंने कुवादियोंकी बढ़ती हुई वादाभिलाषाको ही नष्ट कर दिया था जीयात्समन्तभद्रोऽसौ भव्य कैरव चंद्रमाः । दुर्वादिवादकंडूनां शमनैकमहौषधिः ॥ १६ ॥ (७) श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० १०५ (२५४) में, जो शक संवत् १३२० का लिखा हुआ है, समन्तभद्रको 'वादीभवज्जांकुशसूक्तिजाल' विशेषरणके साथ स्मरण किया है— अर्थात् यह सूचित किया है कि समन्तभद्रकी सुन्दर उक्तियों का समूह वादरूपी हस्तियोंको वश में करनेके लिये वज्रांकुशका काम देता है। साथ ही, यह भी प्रकट किया है कि समन्तभद्र के प्रभावसे यह संपूर्ण पृथ्वी दुर्वादकोको वार्ता से भी विहीन हो गई— उनकी कोई बात भी नहीं करता समन्तभद्रस्स चिराय जीयाद्वादीभवत्रांकुशसूक्तिजालः । यस्य प्रभावात्सकलावनीयं वंध्यास दुर्वादुकवार्त्तयापि ॥ इस पद्यके बाद, इसी शिलालेखमें, नीचे लिखा पद्य भी दिया हुआ है और उसमें समन्तभद्रके वचनोंको 'स्फुटरत्नदीप' की उपमा दी है और यह बतलाया है कि वह दैदीप्यमान रत्नदीपक उस त्रैलोक्यरूपी सम्पूर्ण महलको निश्चित रूपसे प्रकाशित करता है जो स्यात्कारमुद्राको लिए हुए समस्तपदार्थोंसे पूर्ण है और जिसके अन्तराल दुर्वादकोंकी उक्तिरूपी ग्रन्धकारसे प्राच्छादित हैस्यात्कार मुद्रित समस्त पदार्थ पूर्ण त्रैलोक्यहर्म्यमखिलं स खलु व्यनक्ति । दुर्वादुकोक्तितमसा पिहितान्तरालं सामन्तभद्रवचनस्फुट रत्नदीपः ॥ ४० वें शिलालेखमें भी, जिसके पद्य ऊपर उद्धृत किये गये हैं, समन्तभद्रको 'स्यात्कारमुद्रांकिततत्त्वदीप' और 'वादिसिंह' लिखा है । इसी तरह पर श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रधान श्राचार्य श्रीहरिभद्रसूरिने, अपनी 'अनेकान्तजयपताका' में, समन्तभद्रका 'वादिमुख्य' विशेषरण दिया है और उसकी स्वोपज्ञ टीकामें लिखा है - "आह च वादिमुख्यः समन्तभद्रः ।" (८) गद्यचिन्तामणिमें, महाकवि वादीभसिंह समन्तभद्र मुनीश्वरको 'सरस्वतीकी स्वछन्दविहारभूमि' लिखते हैं, जिससे यह सूचित होता है कि Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्र १६७ समन्तभद्रके हृदय - मन्दिरमें सरस्वती देवी बिना किसी रोक-टोकके पूरी आज़ादीके साथ विचरती थी और इसलिये समन्तभद्र असाधारण विद्याके धनी थे और उनमें कवित्व वाग्मित्वादि शक्तियाँ उच्च कोटिके विकाशको प्राप्त हुई थीं, यह स्वत: ही स्पष्ट हो जाता है। साथ ही यह भी प्रकट करते हैं कि उनके वचनरूपी वज्रके निपातसे प्रतिपक्षी सिद्धान्तरूपी पर्वतोंकी चोटियाँ खंड खंड हो गई थीं - अर्थात् समन्तभद्रके आगे, बड़े बड़े प्रतिपक्षी सिद्धान्तोंका प्राय: कुछ भी गौरव नहीं रहा था और न उनके प्रतिपादक प्रतिवादीजन ऊँचा मुँह करके ही सामने खड़े हो सकते थे सरस्वतीस्वैरविहारभूमयः समन्तभद्रप्रमुखा मुनीश्वराः । जयन्ति वाग्वनिपातपाटितप्रतीपराद्धान्तमहीध्रकोटयः || (e) श्रवणबेलगोलके शिलालेख नं० १०८ में, जो सं० १३५५ का लिखा हुआ है और जिसका नया नम्बर २५८ है, मंगराजकवि सूचित करते हैं कि समम्नभद्र बलाकपिच्छके बाद ' जिनशासन के प्रणेता' हुए हैं, वे 'भद्रमूर्ति ' थे और उनके वचनरूपी वज्रके कठोर पानसे प्रतिवादीरूपी पर्वत चूर चूर हो गये थे – कोई प्रतिवादी उनके सामने नहीं ठरहरता था - समन्तभद्रोऽजनि भद्रमूर्तिस्ततः प्रणेता जिनशासनस्य । यदीयवाग्वज्रकठोरपातश्चूर्णीचकार प्रतिवादिशैलान् ॥ (१८) समन्तभद्रके सामने प्रतिवादियोंकी - कुवादियोंकी - क्या हालत होती थी, और वे कैसे नम्र अथवा विषण्णवदन और किंकर्तव्यविमूढ बन जाते थे, इसका कुछ आभास अलंकार - चिन्तामणिमें उद्धृत किये हुए निम्न दो पुरातन पद्योंसे मिलता है कुवादिनः स्वकान्तानां निकटे परुषोक्तयः । समन्तभद्रयत्य पाहि पाहीति सूक्तयः ।। ४-३१५ श्रीमत्समन्तभद्राख्ये महावादिनि चागते । कुवादिनोऽलिखन्भूमिमं गुष्ठैरा नताननाः ।। ५- १५६ पहले पद्यसे यह सूचित होता है कि कुवादिजन अपनी स्त्रियोंके निकट तो कठोर भाषण किया करते थे- उन्हें अपनी गर्वोक्तियाँ सुनाते थे परन्तु जब Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -१६८ जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश समन्तभद्र यतिके सामने प्राते थे तो मधुरभाषी बन जाते थे और उन्हें 'पाहि पाहि ' - रक्षा करो (रक्षा करो, अथवा श्राप ही हमारे रक्षक है; ऐसे सुन्दर मृदुलवचन ही कहते बनता था । और दूसरा पद्य यह बतलाता है कि जब महावादी समन्तभद्र ( सभास्थान प्रादिमें) प्राते थे तो कुवादिजन नीचा मुख करके अँगूठोंसे पृथ्वी कुरेदने लगते थे--- अर्थात उन लोगों पर प्रतिवादियों पर - समन्तभद्रका इतना प्रभाव छा जाता था कि वे उन्हें देखते ही विषण्णवदन हो जाते और किंकर्तव्यविमूढ बन जाते थे । (१२) अजित सेनाचार्य के 'अलंकार - चिन्तामरिण' ग्रन्थमें और कवि हस्तिमल्लके 'विक्रान्तकौरव' नाटककी प्रशस्तिमं एक पद्य निम्न प्रकारसे पाया जाता है- ● अवटुतटमटति झटिति स्फुटपटुवाचाटधूर्जटेर्जिह्वा । वादिनि समन्तभद्रे स्थितवति सति का कथान्येषाम् ।। इसमें यह बतलाया है कि वादी समन्तभद्रकी उपस्थितिमें, चतुराईके साथ स्पष्ट शीघ्र और बहुत बोलने वाले धूर्जटिकी जिह्वा ही जब शीघ्र अपने त्रिलमें घुस जाती है-उसे कुछ बोल नही आना- - तो फिर दूसरे विद्वानोंकी तो कथा ही क्या है ? उनका ग्रस्तित्व तो समन्तभद्र के सामने कुछ भी महत्त्व नही • रखता । इस पद्य भी समंतभद्रके सामने प्रतिवादियोंकी क्या हालत होती थी उसका कुछ बोध होता है । कितने ही विद्वानोने इस पद्यमे 'धूर्जटि' को 'महादेव' अथवा 'शिव' का पर्याय नाम समझा है और इसलिये अपने अनुवादोमे उन्होंने 'घूजीट' की जगह महादेव तथा शिव नामोंका ही प्रयोग किया है । परन्तु ऐसा नहीं है । भले ही यह नाम, यहां पर किसी व्यक्ति विशेषका पर्यायनाम हो, परन्तु वह महादेव नामके रुद्र अथवा शिव नामके देवताका पर्याय नाम नहीं है । महादेव न तो * जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय' ग्रंथकी प्रशस्ति में भी, जो शक म०१२०१ में बनकर समाप्त हुआ है, यह पद्य पाया जाता है, सिर्फ 'धूर्जटेजिह्वा के स्थान में 'धूर्जटेरपि जिल्ला' यह पाठान्तर कुछ प्रतियोंमें देखा जाता है । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्र १६६ समन्तभद्रके समसामयिक व्यक्ति थे और न समन्तभद्रका उनके साथ कभी कोई साक्षात्कार या वाद ही हुआ । ऐसी हालतमें यहाँ 'धूर्जटि' मे महादेवका अर्थ निकालना भूल खाली नहीं है । वास्तवमें इस पद्यकी रचना केवल समन्तभद्रका महत्व ख्यापित करनेके लिये नहीं हुई बल्कि उसमें समन्तभद्रकं वादविषयकी एक खास घटनाका उल्लेख किया गया है और उससे दो ऐतिहासिक तत्त्वोंका पता चलता है—एक तो यह कि समन्तभद्र के समय में 'धूर्जटि' नामका कोई बहुत बड़ा विद्वान हुग्रा है, जो चतुराईके साथ स्पष्ट शीघ्र और बहुत बोलने में प्रसिद्ध था; उसका यह विशेषण भी उसके तात्कालिक व्यक्तिविशेष होनेको और अधिकता के साथ सूचित करता है, दूसरे यह कि, समन्तभद्रका उसके साथ वाद हुआ, जिसमें वह शीघ्र ही निरुत्तर हो गया और उसे फिर कुछ बोल नहीं आया । पका यह प्राय उसके उस प्राचीन रूपसे और भी ज्यादा स्पष्ट हो जाता है जो एक म० १०५० में उत्कीर्ण हुए मनिप्रशस्ति नामके ५४वें (६ ऽवें) शिलालेख में पाया जाता है और वह रूप इस प्रकार है अवटुनमदनि झटिति स्फुटपटुवा चाटर्जटेरपि जिह्वा । वादिनि समन्तभद्रे स्थितवति तत्र सदसि भूप कास्थान्येषां ।। उसमें बाद अपि शब्द ज्यादा है और चौथे चरण में 'सति का कथान्येषां की जगह 'तब सदसि भूप काम्थान्येषा' ये शब्द दिये हुए हैं। साथ ही उसका छन्द भी दूसरा है। पहला पद्म आर्या और यह 'ग्रायंगीति' नाम है, जिसके समचरणो मे बीस बीस मात्राएं होती है । ग्रस्तु: इस पद्य - में पहले पद्य जो भेद है उस पर यह मालुम होता है कि यह पद्य समंतभद्रकी ओर से अथवा उनकी मौजूदगी उनके किसी शिष्यकी तरफमें, किसी राजसभामं, राजाको सम्बोधन करके कहा गया है। वह राजसभा चाहे वही हो जिसमे 'धूर्जटि को पराजित किया गया है और या वह कोई दूसरी ही राजसभा हो । पहली हालत में यह पद्य धूर्जटिके निम्र होनेके बाद सभास्थित * दावणगेरे तालुके शिलालेख नं० ६० में भी, जो चालुक्य विक्रमके ५३ वें वर्ष, कीलक संवत्सर ( ई० मन ११२८) का लिखा हुआ है यह पद्य इसी प्रकार दिया है । देखो एपिथेफिया करर्णाटिका, जिल्द ११वीं । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश दूसरे विद्वानोंको लक्ष्य करके कहा गया है और उसमें राजासे यह पूछा गया है कि धूर्जटि जैसे विद्वानकी ऐसी हालत होने पर अब आपकी सभाके दूसरे विद्वानों की क्या आस्था है ? क्या उनमेंसे कोई वाद करनेकी हिम्मत रखता है ? दूसरी हालत में, यह पद्य समन्तभद्रके वादारंभ-समयका वचन मालूम होता है और उसमें धूर्जटिकी स्पष्ट तथा गुरुतर पराजयका उल्लेख करके दूसरे विद्वानोंको यह चेतावनी दी गई है कि वे बहुत सोच-समझकर वादमें प्रवृत्त हों । शिलालेखमें इस 'पद्यको समन्तभद्रके वादारंभ-समारंभ समयकी उक्तियोंमें ही शामिल किया है । परन्तु यह पद्य चाहे जिस राजसभामें कहा गया हो, इसमे संदेह नहीं कि इसमें जिस घटनाका उल्लेख किया गया है वह बहुत ही महत्त्वकी जान पड़ती है । ऐमा मालूम होता है कि धूर्जटि + उस वक्त एक बहुत ही बढ़ाचढ़ा प्रसिद्ध प्रतिवादी था, जनतामें उसकी बड़ी धाक थी और वह समन्तभद्रके सामने बुरी तरहसे पराजित हुअा था। ऐसे महावादीको लीलामात्रमें परास्त कर दनमे समन्तभद्रका सिक्का दूसरे विद्वानों पर और भी ज्यादा अकित हो गया और तबसे यह एक कहावतसी प्रसिद्ध हो गई कि 'धूर्जटि जैसे विद्वान् ही जब ममन्तभद्रके मामने वादमे नही ठहर सकते तब दूसरे विद्वानोंकी क्या मामर्थ्य है जो उनमे वाद करें।' समन्तभद्रकी वादशक्ति कितनी अप्रतिहत थी और दूसरे विद्वानोंपर उसका कितना अधिक सिक्का तथा प्रभाव था, यह बात ऊपर के अवतरणाम बहुत कुछ स्पष्ट हो जाती है, फिर भी मैं यहां पर इतना और बनला देना चाहता है कि समन्तभद्रका वाद-क्षेत्र संकुचित नही था । उन्होंने उसी देशमं अपने वादकी विजयदुन्दुभि नहीं बजाई जिसमें वे उत्पन्न हा थे, बल्कि उनकी वादप्रीति,लोगोंके अज्ञानभावको दूर करके उन्हें सन्मार्गको और लगानेकी शुभ भावना और * जैसा कि उन उक्तिोंके पहले दिये हुए निम्न वाक्यमे प्रकट है"यस्यैवंविधा विद्यावादारंभसंरंभविभिताभिव्यक्तयः सूक्तयः ।" प्राफरेडके 'केटेलॉग' में धूटिको एक 'कवि' Poet लिखा है और कवि अच्छे विद्वानको कहते हैं, जैसा कि इससे पहले फुटनोटमें दिये हुए उसके लक्षणों. से मालूम होगा। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAMANAN स्वामी समन्तभद्र जैन सिद्धान्तोंके महत्वको विद्वानोंके हृदय-पटलपर अंकित कर देनेकी सुरुचि इतनी बढ़ी हुई थी कि उन्होंने सारे भारतवर्षको अपने वादका लीलास्थल बनाया था । वे कभी इस बातकी प्रतीक्षा नहीं करते थे कि कोई दूसरा उन्हें वादके लिये निमंत्रण दे और न उनकी मनःपरिणति उन्हें इस बातमें मंतोष करनेकी ही इजाजत देती थी कि जो लोग अज्ञानभावसे मिथ्यात्वरूपी गों ( खड्डों) में गिरकर अपना प्रात्मपतन कर रहे हैं उन्हें वैमा करने दिया जाय । और इस लिये, उन्हें जहाँ कहीं किसी महावादी अथवा किमी वड़ी वादशालाका पता लगता था वे वहीं पहुंच जाते थे और अपने वादका डंका बजाकर विद्वानोंको स्वत: वादके लिये आह्वान करते थे । डकेको सुनकर वादीजन, यथानियम, जनताके साथ वादस्थानपर एकत्र हो जाते थे और नब समन्तभद्र उनके मामने अपने सिद्धान्तोका बड़ी ही खूबीके साथ विवेचन करते थे और माथ ही इस बातकी घोषणा कर देते थे कि उन सिद्धान्तोंमेसे जिम किमी सिद्धान्न पर भी किसीको आपत्ति हो वह वादके लिये सामने प्रा जाय । कहते हैं कि समन्तभद्रके स्यादादन्यायको तुलामे तुले हुए नत्वभापरणको सुनकर लोग मुग्ध हो जाते थे और उन्हे उगका कुछ भी विरोध करते नहीं बनता था-यदि कभी कोई मनुष्य अहंकारक बग होकर अथवा नासमझीके कारण कुछ विरोध खड़ा करता था तो उसे शीघ्र ही निकनर हो जाना पड़ता था। इस तरह पर, समन्तभद्र भारत के पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, प्रायः मभी देगोमे, एक अप्रतिद्वंद्वी सिंहको तरह क्रीडा करते हुए, निर्भयताके माथ वादके लिये धूम है। एक बार आप घमते हुए 'करहाटक' नगरमे पहुँचे, जिमे कुछ विद्वानोंने सितारा जिलेका + उन दिनों-- ममन्तभद्रके समयमे-,फाहियान (ई० स० ४००) और नत्संग (ई. स. ६३० ) के कथनानुसार, यह दस्तूर था कि नगरमें किसी सार्वजनिक स्थानपर एक उंका ( भेरी या नक्कारा ) रक्खा जाता था और जो कोई विद्वान किसी मतका प्रचार करना चाहता था अथवा वादमे अपने पाण्डित्य पौर नपूण्यको सिद्ध करनेकी इच्छा रखता था वह वादघोषणाके तौरपर, उस डंकेको बजाता था। -हिस्टरी माफ़ कनडीज लिटरेचर। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश प्राधूनिक 'करहाड ® या कराड़' और कुछने दक्षिणमहाराष्ट्रदेशका 'कोल्हापुर' । नगर बतलाया है, और जो उस समय बहुतसे भटों (वीर-योद्धाओं) से युक्त था, विद्याका उत्कट स्थान था और साथ ही अल्प विस्तारवाला अथवा जनाकीर्ण था। उस वक्त आपने वहाँके राजा पर अपने वादप्रयोजनको प्रकट करते हुए, उन्हें अपना तद्विषयक जो परिचय एक पद्यमें दिया था वह श्रवणबेल्गोलके उक्त ५४ वें शिलालेखमें निम्न प्रकारसे संग्रहीत है पूर्व पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताडिता पश्चान्मालवसिन्धुठक्कविषये कांचीपुरे वैदिशे। प्राप्तोऽहं करहाटकं बहभट विद्योत्कर्ट संकटं वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितं ।। इम पद्यमें दिये हुए प्रात्म-परिचयमे यह मालूम होता है कि 'करहाटक.' पहुँचनेमे पहले ममन्तभद्रने जिन देशों तथा नगरोंमें वादके लिये विहार किया था उनमें पाटलीपुत्र ( पटना ) नगर. मालव ( मालवा ), मिन्धु नथा टक्क। देखो, मिस्टर एडवर्ड पी० राइम बी०ए० रचित 'हिस्टरी अाफ़ कन डीज लिटरेचर' पृ००३। +देखो, मिस्टर बी. लेविस राइसकी 'इंस्क्रिप्शन्म ऐट श्रवग्गवेल्गोल नामकी पुस्तक, पृ० ४२; परन्तु इस पुस्तकके द्वितीय मंशोधित मम्करणम, जिमे आर० नरसिंहाचारने तैय्यार किया है, गृद्धि पत्रद्वारा कोल्हापुर' के स्थानमें 'कर्हाड' बनानेकी सूचना की गई है। * यह पद्य ब्रह्म नेमिदत्तके 'पागधनाकथाकोप'मे भी पाया जाता है, परन्तु यह ग्रंथ शिलालेखमे कई सो वर्ष पीछे का बना हुआ है। कनिधम माहबने अपनी Ancient Geography (प्राचीत भूगोल) नामकी पुस्तक में 'ठक्क' देशका पंजाब देशके साथ ममीकरण किया है (S. I. J. 30); मिस्टर लेविम राम साहवन भी अपनी श्रवणबेलगोलके शिलालेखोंकी पुस्तकमें उमे पंजाब देश लिखा है। और 'हिस्टरी प्राफ. कनहीज़ लिटरेचर' के लेखक मिस्टर ऐडवई पी० राईस माहबने उमे In thee Punjab लिखकर पंजाबका एक देश बतलाया है। परन्तु हमारे कितने ही Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्र १७३ ( पंजाब ) देश, कांचीपुर ( कांजीवरम् ), और वैदिश ) ( भिलसा ) ये प्रधान देश तथा जनपद थे जहाँ उन्होंने वादकी मेरी बजाई थी और जहाँ पर किसीने भी उनका विरोध नहीं किया था। साथ ही, यह भी मालूम होता है कि सबसे पहले जिस प्रधान नगर के मध्य में श्रापने वादकी भेरी बजाई थी वह 'पाटलीपुत्र' नामका शहर था, जिसे आजकल 'पटना' कहते हैं और जो मम्राट् चंद्रगुप्त ( मौर्य ) की राजधानी रह चुका है। 'राजावलीकथे' नामकी कनडी ऐतिहासिक पुस्तक में भी समंतभद्रका यह सब ग्रात्मपरिचय दिया हुआ है --विशेषता सिर्फ इतना ही है कि उसमें कहाकमे पहले 'कर्णाट' नामके देशका भी उल्लेख है, ऐसा मिस्टर लेविस राइम साहब अपनी 'इन्स्क्रिप्शन्स ऐट् श्रवणबेलगोल' नामक पुस्तककी प्रस्तावना में सूचित करते हैं। परन्तु इसमें यह मालूम न हो सका कि राजावलीकथेका वह स परिचय केवल कनडीमें ही दिया हुआ है या उसके लिये उक्त संस्कृत पद्यका जैन विद्वानाने 'क' का 'टक्क पाठ बनाकर उसे बंगाल प्रदेशका 'टाका' सूचित किया है, जो ठीक नही है। पंजाब में, 'क' एक प्रदेश है। संभव है उसीकी वजह प्राचीन कालमे सारा पंजाब टक' कहलाता हो, अथवा उस स्वाम प्रदेशका ही नाम टक्क हो जो सिधुके पास है । पद्य में भी 'सिंधु' के बाद एक ही समस्त पटक दिया है इससे वह पंजाब देश या उसका ग्रटकवाला प्रदेश ही मालूम होता है- बंगाल या ढाका नहीं। पंजाब के उस प्रदेशमें 'ठट्टा' प्रादि और भी कितने ही नाम उसी प्रकारके पाये जाते हैं। प्राक्तनविमर्पविचक्षरण राव बहादुर आर० नर्गमहानार एम० To से भी ठक्कको पंजाब देश ही लिखा है । + विदिशाके प्रदेशको वेदिश कहते हैं जो दगा देश की राजधानी थी और जिसका वर्तमान नाम मिलता है। राम साहब ने ' कांचीपूरे बंदिशे का ग्रथं to the out of the way Kanchi किया था जो गलत था और जिसका सुधार श्रवणबेलगोल- शिलालेखोंके संशोधित संस्कररणमें कर दिया गया है। इसी तरह पर प्राय्यंगर महाशयते जो उसका अर्थ in the far off city of Kanchi किया है वह भी ठीक नहीं है । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश भी, प्रमाण रूपसे उल्लेख किया गया है । यदि वह परिचय केवल कनड़ीमें ही है तब तो दूसरी बात है, और यदि उसके साथमें संस्कृत पद्य भी लगा हुआ है, जिसकी बहुत कुछ संभावना है, तो उसमें करहाटकसे पहले 'कर्णाट' का समावेश नहीं बन सकता; वसा किये जाने पर छंदोभंग हो जाता है और गलती साफ़ तौर से मालूम होने लगती है। हाँ, यह हो सकता है कि पद्यका तीसरा चरण ही उसमे 'कर्णाटे करहाटके बहुभटे विद्योत्कटे संकटे' इस प्रकार - से दिया हुआ हो । यदि ऐसा है तो यह कहा जा सकता है कि वह उक्त पद्यका दूसरा रूप है जो करहाटकके बाद किसी दूसरी राजसभामें कहा गया होगा । परन्तु वह दूसरी राजसभा कौनसी थी अथवा करहाटके बाद समंतभद्रने और कहाँ कहाँ पर ग्रपनी वादभेरी बजाई है, इन सब बातोंके जाननेका इस समय कोई साधन नहीं है। हां, राजावलिकथे प्रादिसे इतना जरूर मालूम होता है कि समन्तभद्र कौशाम्बी + मरतुवकहल्ली, लाम्बुश ( ? ), पुण्ड्रोडू +, दशपुर और वाराणसी (बनारस) में भी कुछ कुछ समय तक रहे हैं। परन्तु करहाटक * मेरी इस कल्पनाके बाद, बाबू छोटेलालजी जैन, एम० आर० ए० एम० कलकत्ताने. 'करर्णाटक शब्दानुशासन' की लेविस राइस लिखित भूमिका के श्राधार पर, एक अधूरामा नोट लिखकर मेरे पास भेजा है। उसमें समन्तभद्रके परिचयका डेढ़ पद्य दिया है और उसे 'राजावलिकथे' का बतलाया है, जिसमें एक पद्य तो 'कांच्या नग्नाटकोह' वाला है और बाकीका ग्राधा पद्य इस प्रकार है • कर्णाटे करहाटके बहुभ विद्योत्कटे संकट वादार्थं विजहार संप्रनिदिनं गार्दूलविक्रीडितम् । + इलाहाबादके निकट यमुना-तटपर स्थित नगरी । यहाँ एक समय बौद्ध धर्मका बड़ा प्रचार रहा है । यह वत्सदेशकी राजधानी थी । + उत्तर बंगालका पुण्ड्र नगर तथा उड़ उड़ीसा | ॐ कुछ विद्वानोंने 'दशपुर' को प्राधुनिक 'मन्दसौर ( मालवा ) और कुछने 'धौलपुर' लिखा है; परन्तु पम्परामायण ( ७-३५ ) मे उसे 'उर्जायिनी' के पासका नगर बतलाया है मीर इसलिये वह 'मन्दसौर' ही मालूम होता है । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्र पहुँचने से पहले रहे हैं या पीछे, यह कुछ ठीक मालूम नहीं हो सका । बनारस में आपने वहाँके राजाको सम्बोमन करके यह वाक्य भी कहा था'राजन यस्यास्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जैननिर्ग्रन्थवादी | ' अर्थात् - हे राजन् में जैननिर्ग्रन्यवादी हूँ, जिस किसीकी भी शक्ति मुझमे वाद करनेकी हो वह सन्मुख ग्राकर वाद करे । १७५ और इसमे आपकी वहॉपर भी स्पष्ट रूपसे वादघोषणा पाई जाती है । परन्तु बनारस में आपकी वाद्घोषणा ही होकर नहीं रह गई, बल्कि वाद भी हुआ जान पड़ता है, जिसका उल्लेख तिरुमकूडलुनरसीपुर ताल्लुकेके शिलालेख नं ०१०५ के निम्नपद्यसे, जो शक मं० ११०५ का लिखा हुआ है, पाया जाता हैसमन्तभद्र रसस्तुत्यः कस्य न स्यान्मुनीश्वरः । वाराणसीश्वरस्यामे निर्जिता येन विद्विषः ॥ इस पद्यमें लिखा है कि वे समन्तभद्र मुनीश्वर जिन्होंने वाराणसी ( बनारस ) के राजाके सामने शत्रुग्रोंकी-मिथ्यैकान्तवादियोंको परास्त किया है किसके स्तुतिपात्र नही है ? अर्थात, सभीके द्वारा स्तुति किये जानेके योग्य हैं । समन्तभद्रने अपनी एक ही यात्रामें इन सब देशों तथा नगरीमें परिभ्रमण किया है अथवा उन्हें उसके लिये अनेक यात्राएं करनी पड़ी है, इस बातका यद्यपि कहीं कोई स्पष्ट उल्लेख नही मिलता फिर भी अनुभवमे और आपके जीवनकी कुछ घटनाोंने यह जरूर मालूम होता है कि आपको अपनी उद्देशसिद्धि के लिये एकमे अधिक बार यात्राके लिये उठना पड़ा है- 'ठक्क' से कांची पहुँच जाना और फिर वापिस वैदिश तथा करहाटकको आना भी इसी बातको सूचित करता है । बनारस आप कांचीमे चलकर ही, दशपुर होते हुए, पहुँचे थे। समन्तभद्रके सम्बंध में यह भी एक उल्लेख मिलता है कि वे 'पदद्धक' थेचारण + ऋद्धि से युक्त थे - प्रर्थात् उन्हें तपके प्रभावसे चलनेकी ऐसी शक्ति * यह 'कांच्यां नग्नाटकोह' पद्यका चौथा चरण है । + 'तस्वार्थ राजवार्तिक' में भट्टाकलंकदेवने चाररणयुक्तों का जो कुछ स्वरूप दिया है वह इस प्रकार है- 'क्रियाविषया ऋद्धिद्विविधा चारणत्वमाकाशगामित्वं चेति । तत्र चारणा अनेकविधाः जलजंघातं सुपुष्पपत्रश्रेण्यग्निशिखाद्यालंबनगमनाः । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश प्रास हो गई थी जिससे वे दूसरे जीवोंको बाधा न पहुंचाते हुए, शीघ्रताके साथ सैकड़ों कोस चले जाते थे। उस उल्लेखके कुछ वाक्य इस प्रकार हैं...समन्तभद्राख्यो मुनि यात्पर्द्धिकः। -विकान्तकौरव प्र० । ....समंतभद्रार्यो जीयात्प्राप्तपदर्द्धिकः । --जिनेन्द्रकल्यारणाभ्युदय । ...समंतभद्रस्वामिगलु पुनर्दीक्षेगोण्डु तपस्सामयदि चतुरङ्ग लचारणत्वमं पडेदु । -राजावलीकथे। ऐसी हालत में समन्तभद्रके लिये मुदूरदेशोंकी लम्बी यात्राएँ करना भी कुछ कठिन नही था । जान पड़ता है इमीमे वे भारत के प्रायः सभी प्रान्तोंमे प्रामानी. के साथ घूम सके हैं। __ ममंतभद्रके इस देशाटनके सम्बन्धमें मिस्टर एम. एम. गमम्वामी प्राय्यंगर, अपनी 'स्टडीज इन माउय इंडिज्न जैनिज्म' नामकी पुस्तक में लिखते हैं ".... It is evident that he (Samantbhadra ) was a great Jain missionary who tricd 10 spreadTar and wide Jain doctrines and morals and that he met with no opposition from other sects wherever he went.'' अर्थात्-यह स्पष्ट है कि समन्तभद्र एक बहुन बरे जैनधर्मप्रचारक थे, जिन्होंने जैनमिद्धान्तों और जैन प्राचारोंको दूर दूर तक विम्नारके माथ फैलानेका उद्योग किया है, और यह कि जहां कहीं वे गये हैं उन्हें दूसरे मम्प्रदायोंकी तरफसे किसी भी विरोधका सामना करना नहीं पड़ा। जलमुपादाय वाप्यादिष्वप्कायान् जीवानविराधयंत: भूमाविव पादोद्धारनिक्षेप. कुशला जलचारणाः । भुव उपर्याकाशे चतुरंगुलप्रमाणे जंघोक्षेपनिक्षेपयीघ्र. करणपटवो बहुयोजनशनासु गमनप्रवगा जंघचारणाः । एवमिनो न वेदितव्याः । -प्रध्याय ३, मूत्र ३६ । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्र १७७ 'हिस्टरी माफ़ कनडीज लिटेचर' के लेखक – कनड़ी साहित्यका इतिहास लिखनेवाले मिस्टर एडवर्ड पी० राइस साहब समंतभद्रको एक तेजःपूर्ण प्रभावशाली वादी लिखते हैं और यह प्रकट करते हैं कि वे सारे भारतवर्ष में जैनधर्मका प्रचार करनेवाले एक महान् प्रचारक थे। साथ ही, यह भी सूचित करते हैं कि उन्होंने वादभेरी बजानेके उस दस्तूरमे पूरा लाभ उठाया है, जिसका उल्लेख पीछे एक फुटनोटमें किया गया है, और वे बड़ी शक्तिके साथ जैनधर्मके ' स्याद्वाद - सिद्धान्त' को पुष्ट करनेमें समर्थ हुए हैं । यहां तक इस सब कथनसे स्वामी समंतभद्र के असाधारण गुरणों, उनके प्रभाव और धर्मप्रचारके लिये उनके देशाटनका कितना ही हाल तो मालूम हो गया, परन्तु अभी तक यह मालूम नहीं हो सका कि समंतभद्र के पास वह कौनसा मोहन मंत्र था जिसकी वजहमे वे हमेशा इस बात के लिये खुशकिस्मत + रहे हैं कि विद्वान् लोग उनकी वादघोषणाओं और उनके तात्विक भाषग्गों को चुपके से सुन लेते थे और उन्हें उनका प्रायः कोई विरोध करते नहीं बनता था-वादका तो नाम ही ऐसा है जिससे स्वाहमख्वाह विरोधकी आग भड़कती हैं, लोग अपनी मान रक्षा के लिये अपने पक्षको निर्वल समझते हुए भी, उसका समर्थन करनेके * He ( Samnanthhadra ) was a brilliant disputant, and a great preacher of the Jain religion throughout India........ It was the custom in those days, alluded to by Fa Hian (400) and Hiven Tsang ( 630 ) for a drum to be fixed in a public place in the city, and any learned man, wishing to propagate a doctrine or prove his erudition and skill in debate, would strike it by way of challenge of disputation,... Samantbhadra made full use of this custom, and powerfully maintained the Jain doctrine of Syadvada. + मिस्टर प्राय्यंगरने भी आपको 'ever fortunate ' 'सदा भाग्यशाली' लिखा है। S. in S. I. Jainism, 29. Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश लिये खड़े हो जाते हैं और दूसरेकी युक्तियुक्त बातको भी मानकर नहीं देते, फिर भी समंतभद्रके साथमें ऐसा प्रायः कुछ भी न होता था, यह क्यों ?--अवश्य ही इसमें कोई खास रहस्य है जिसके प्रकट होने की जरूरत है और जिसको जानने के लिये पाठक भी उत्सुक होंगे। जहाँ तक मैंने इस विषयकी जाँच की है-इस मामले पर गहरा विचार किया है-और अपनेको समंतभद्रके साहित्यादिपरसे उसका अनुभव हुअा है उसके आधार पर मुझे इस बातके कहने में जरा भी संकोच नहीं होता कि, समंतभद्रकी इस सफलताका सारा रहस्य उनके अन्तःकरणकी शुद्धता, चरित्रकी निर्मलता और उनकी वाणीके महत्त्व में संनिहित है, अथवा यों कहिये कि यह मत्र अंत.करण तथा चरित्रकी शुद्धि को लिये हुए उनके वचनोंका ही माहात्म्य है जो वे दूसरों पर अपना इस प्रकार सिक्का जमा मके हैं। समंतभद्रकी जो कुछ भी वचनप्रवृत्ति होती थी वह सब प्राय: दूसरोंकी हितकामनाको हो लिये हा होती थी। उसमें उनके लौकिक स्वार्थकी अथवा अपने अहंकारको पृष्ट करने और दूसरोंको नीचा दिवानेम्प कुत्सित भावनाकी गंध तक भी नहीं रहती थी। वे स्वयं मन्मार्ग पर प्रारूढ़ थे और यह चाहते थे कि दूमरे लोग भी सन्मार्गको पहचानें और उसपर चलना प्रारंभ करें । साथ ही, उन्हें दूसरोको कुमार्गमे फैमा हुमा देखकर बड़ा हो खेद तथा कष्ट होना था और इसलिये उनका वाकप्रयत्न सदा उनकी इच्छाके अनुकूल ही रहता था और वे उसके द्वारा एस लाकि • आपके इस खेदादिको प्रकट करनेवाले तीन पद्य, नमूनके तौर पर, इस प्रकार है मद्यांगवद्भूतसमागम ज्ञः शक्त्यन्तव्यक्ति रदैवसतिः । इत्यात्मशिश्नोदरपुष्टिनुप्र्दनि भयहाँ ! मृदव: प्रलब्धा ॥३५।। दृष्टेऽविशिष्टे जननादिहेतो विशिष्टता का प्रतिसत्त्वमेषां । स्वभावतः किं न परस्य सिद्धि रतावकानामपि हा ! प्रपातः ॥३६।। स्वच्छन्दवृत्तेजगतः स्वभावादुश्च रनाचारपथेप्वदोपं । निघुष्य दीक्षासममुक्तिमानास्त्वदृष्टिबाह्या बन ! विभ्रमन्ति ॥३७।। -युक्त्यनुशासन। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~~~~~~~~~~~~~~~........स्वामा समन्तभद्र -~~~~~.......... १७६ उद्धारका अपनी शक्तिभर नद्योग किया करते थे। ऐसा मालूम होता है कि स्वात्म-हितसाधनके बाद दूसरोंका हितसाधन करना ही उनके लिये एक प्रधान कार्य था और वे बड़ी ही योग्यताके साथ उसका संपादन करते थे। उनकी वाक्परिणति सदा क्रोधसे शून्य रहती थी, वे कभी किसीको अपशब्द नहीं कहते थे, न दूसरोंके अपशब्दोंसे उनकी शांति भंग होती थी, उनकी आंखोंमें कम सुखी नहीं पाती थी, हमेशा वे हंसमुख तथा प्रमन्नवदन रहते थे, बुरी भावनासे प्रेरित होकर दूसरोंके व्यक्तित्व पर कटाक्ष करना उन्हें नहीं आता था और मधुरभाषा तो उनकी प्रकृतिमें ही दाग्विन था । यही वजह थी कि कठोर भापण करनेवाले भी उनके मामने पाकर मृदुभाषी बन जाते थे, अपशब्दमदान्धों को भी उनके पागे बोल तक नहीं पाता था और उनके 'वज्रपात तथा 'वजांकुश' की उपमाको लिए हुए वचन भी लोगों को अप्रिय मालूम नहीं होते थे। समंतमद्रके वचनोंमें एक म्वास विशेषता यह भी होती थी कि वे स्याद्वादन्मायी तलामें तुले हुए होते थे और टम लिये उनपर पक्षपातका भूत कभी सवार होने नहीं पाता था। ममंतभद्र स्वयं परीक्षाप्रवानी थे. वे कदाग्रहको बिल्कुल पसद नहीं करते थ, उन्होने भगवान् महावीर तककी परीक्षा की है और तभी उन्हे 'ग्राम' रूपम स्वीकार किया है । वे दुमकी भी परीक्षाप्रधानी होने का उपदेश देते थे ---उनकी मदैव यही शिक्षा रहती थी कि किसी भी तत्त्व प्रथवा सिद्धान्तको. बिना परीक्षा किये केवल दूगरोंके कहन पर ही न मान लेना चाहिये बल्कि समर्थ युक्तियोंद्वाग उमकी अच्छी तरहने जांच करनी चाहिये-उमके गुण-दोषों का पता लगाना चाहिये--ौर तब उसे स्वीकार अथवा अस्वीकार करना चाहिये । ऐमी हालतमे वे अपने किसी भी सिद्धान्तको जबरदस्ती दूसरोंके गले उतारने अथवा उनके मिर मढ़वा कभी यत्न नही करते थे। वे विद्वानोंको, निष्पक्ष दृष्टिगे, स्व-पर मिद्धानों पर खुला विचार करने का पूरा अवसर देते थे। उनकी मात्र यह घोषणा रहती थी कि किसी भी वस्तुको एक ही पहलू मे-एक ही पोरसे मत देखो, उमे सब पोरसे और सब पहलुप्रोंमे देविना चाहिये, तभी उसका यथार्थ ज्ञान हो सकेगा। प्रत्येक वस्तुमें अनेक धर्म अथवा अंग होते है-इसीसे वस्तु अनेकान्तात्मक है-उसके किसी Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ war ० जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश एक धर्म या अगको लेकर सर्वथा उसी रूपसे वस्तुका प्रतिपादन करना एकान्त है, और यह एकान्तवाद मिथ्या है, कदाग्रह है, तत्त्वज्ञानका विरोधी है, अधर्म है और अन्याय है। स्याद्वादन्याय इसी एकान्तवादका निषेध करता है, सर्वथा सत्-असत् एक-अनेक-नित्य-अनित्यादि संपूर्ण एकान्तोंसे विपक्षीभूत अनेकान्ततत्त्व ही उसका विषय है । वह सप्तभंगा तथा नय - विवक्षाको लिये रहता है और हेयादेयका विशेषक है, उसका 'स्यात्' शब्द ही वाक्योंमें अनेकान्तताका द्योतक तथा गम्यका विशेषण है और वह 'कथंचित्' प्रादि शब्दोंके द्वारा भी अभिहित होता है । यथा वाक्येष्वनेकान्तद्योती गम्यं प्रति विशेषणं । स्यान्निपाताऽर्थयागित्वात्तव केवलिनामपि ।। १०३ ।। स्याद्वादः सर्वथकान्तत्यागाकिंवृत्तचिद्विधिः । सनभगनयापेक्षा हेयादेय विशेषकः ।। १०४।। -- देवागम। अपनी घोपणाके अनुसार, मभंतभद्र प्रत्येक विषयके गुग्णदोषोंको स्याहाद * 'मर्वथासदसदेकानेकनित्यानित्यादिमकलकान्तप्रत्यनीकानेकान्ततन्वविषयः स्याद्वादः' ।-देवागमवृनिः । * स्यादम्ति, म्यान्नास्ति, म्यादस्तिनास्ति, स्यादवक्तव्य, स्यादम्त्यवनव्य, स्यानास्त्यवतव्य और म्यादस्तिनास्त्यवक्तव्य, ये सात भंग है जिनका विशेष स्वरूप नथा रहस्य भगवान् समंतभद्रके 'प्राप्तमीमांसा' नामक 'देवागम' ग्रन्थमें दिया हुया है। x द्रव्याथिक-पर्यायाथिकके विभागको लिये हुए, नेगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजसूत्र, शब्द, ममभिरूढ और एवंभून ऐमे सात नय है । इनमेंमे पहले तीन नय 'द्रव्याथिक' और शेप 'पर्यायाथिक' कहे जाते हैं। इमी तरह पहले चार 'प्रर्थनय और शेष तीन 'गब्दनय' कहे जाते हैं। द्रव्याथिकको कथंचित् शुद्ध, निश्चय नथा भूतार्थ और पर्यायाथिकको अशुद्ध , व्यवहार तथा अभूतार्थ नय भी कहते हैं । इन नयोंका विस्तृत स्वरूप 'नयचक्र' तथा 'लोकवातिक' आदि ग्रंथोंमे जानना चाहिये । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . . . स्वामी समन्तभद्र न्यायकी कसौटी पर कसकर विद्वानोंके सामने रखते थे-वे उन्हें बतलाते थे कि एक ही वस्तुतत्त्वमें अमुक अमुक एकान्त पक्षोंके माननेसे क्या क्या अनिवार्य दोष पाते हैं और वे दोष स्याद्वादन्यायको स्वीकार करनेपर अथवा अनेकान्तवादके प्रभावमे किस प्रकार दूर हो जाते हैं और किम तरहपर वस्तुतत्त्वका सामंजस्य बैठ जाता है । उनके समझाने में दूसरोंके प्रति तिरस्कारका कोई भाव नहीं होता था; वे एक मार्ग भूले हुएको मार्ग दिवाने की तरह, प्रेमके माथ उन्हें उनकी त्रुटियोंका बोध कराते थे, और इसमें उनके भापरणादिकका दूमरोंपर अच्छा ही प्रभाव पड़ता था-उनके पास उमके विरोधका कुछ भी कारण नहीं रहता था । यही वजह थी और यही सब वह मोहन मंत्र था जिममे समनभद्र को दूसरे संप्रदायोंकी ओरसे किसी खास विरोधका मामना प्रायः नहीं करना पड़ा और उन्हें अपने उद्देश्यमें अच्छी मफलताकी प्राप्ति हुई । यहाँपर में इतना और भी प्रकट कर देना उचित समझता हूँ कि ममंतभद्र स्याहादविद्याके अद्वितीय अधिपति थे. वे दूसरोंको स्याद्वाद मार्गपर चलनेका उपदेश ही न देते थे बल्कि उन्होंने स्वयं अपने जीवनको स्याद्वादके रंगमे पूरी & इस विषयका अच्छा अनुभव प्राप्त करने के लिये समंतभद्र का 'प्राप्तमीमामा' नामक ग्रथ देखना चाहिये, जिसे 'देवागम' भी कहते हैं । यहाँपर अदन एकांतपक्षमे दोपोद्भावन करनेवाले उसके कुछ पद्य, नमूनके तौरपर, नीचे दिये जाते हैं प्रकान्लपक्षऽपि दृष्टो भेदी विरुध्यते । कारकारमा क्रियायाश्च नक स्वस्मात्प्रजायते ॥ २४ ॥ कर्महतं फलानं लोकतं च नो भवेत् । विद्याविद्यादयं न स्याद्बन्धमोक्षद्वयं तथा ।।५।। हेतोरद तसिद्धिश्चेद्वैतं स्याडेतुसाध्ययोः । हेतुना चेद्विना सिद्धिद्वैतं वाङ् मात्रतो न कि ॥२६।। अद्वतं न विना द्वैतादहेतुरिव हेतुना । संशिन: प्रतिषेधो न प्रतिषेध्याहते क्वचित् ।।२७॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ जैनसाहित्य और इतहासपर विशद प्रकाश तौरसे रंग लिया था और वे उस मार्गके सच्चे तथा पूरे अनुयायी थे । उनकी प्रत्येक बात अथवा क्रियासे अनेकान्तकी ही ध्वनि निकलती थी और उनके चारों मोर अनेकान्तका ही साम्राज्य रहता था। उन्होंने स्याद्वादका जो विस्तृत वितान या शामियाना ताना था उसकी छत्रछायाके नीचे सभी लोग, अपने अज्ञान तापको मिटाते हुए, सुखसे विश्राम कर सकते थे । वास्तवमें ममन्तभद्र के द्वारा स्याद्वाद-विद्याका बहुत ही ज्यादा विकाम हुआ है। उन्होंने स्याद्वादन्यायको जो विशद और व्यवस्थित रूप दिया है वह उनसे पहलेके किसी भी ग्रंथमें नहीं पाया जाता । इस विषयमें, आपका 'याप्तमीमामा' नामका ग्रंथ जिमे 'देवागम' स्तोत्र भी कहते हैं, एक खास तथा अपूर्व ग्रंथ है। जैनमाहित्यमें उसकी जोडका दूसरा कोई भी ग्रंथ उपलब्ध नहीं होता। ऐसा मालूम होता है कि गमतभद्रमे पहले जैनधर्मकी स्याद्वाद-विद्या बहत कुछ लुप्त हो चुकी थी, जनता उससे प्रायः अनभिज्ञ थी और इसमे उमका जनता पर कोई प्रभाव नहीं था। ममतभद्रने अपनी असाधारण प्रतिभामे उम विद्याको पुनरुज्जीवित किया और उसके प्रभावको मर्वत्र व्याप्त किया है । इमीने विद्वान् लोग प्रापको 'स्यावादविद्याप गुरु +', स्याद्वादविद्याधिपति' म्याद्वादशगेर' और 'स्याहादमार्गाग्रगी' जैसे विशेपणों के साथ स्मरण करते आए है । परन्तु इमे भी रहने दीजिये, वीं * भट्टाकलंकदेवन भी समंतभद्रको म्याद्वादमागके परिपालन करने वाले लिखा है। माथ ही भव्यकलोकनयन' (भव्यजीयोके लिये अद्वितीय नेत्र) यह उनका अथवा स्याद्वादमार्गका विशेषण दिया है श्रीवर्द्धमानमकल कमनिन्द्यवन्द्यपादारविन्दयुगलं प्रणिपत्य मूनां । भव्यकलोकनयनं परिपालयन्न स्याद्वादवत्म परिगीमि ममन्तभद्रम् ।। -प्रदशती। श्रीविद्यानंदाचार्य ने भी, युक्त्यनुशामनकी टीकाके अन्त में, स्याद्वादमार्गानुगः' विशेषणके द्वारा, पापको म्याद्वादमार्गका अनुगामी लिखा है । + लघुसमन्तभद्रकृत 'अष्टसहस्री-विषमपद-तात्पर्यटीका' । * वसुनन्द्याचार्यकृत 'देवागमवृत्ति' । tश्रीविद्यानन्दाचार्यकृत 'मष्टमहस्री' । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्र १८३ शताब्दी तार्किक विद्वान्, भट्टाकलंकदेव जैसे महान् श्राचार्य लिखते हैं कि 'आचार्य समन्तभद्रने संपूपदार्थतत्त्वोंको अपना विषय करनेवाले स्याद्वादरूपी पुण्योदधि- तीर्थको इस कलिकालमें, भव्यजीवोंके प्रान्तरिक मलको दूर करनेके लिये प्रभावित किया है— उसके प्रभावको सर्वत्र व्यास किया है । यथातीर्थं सर्वपदार्थ तस्वविषय- स्याद्वाद पुण्योदधेभव्यानामकलंकभावकृतये प्राभावि काले कलौ । येनाचार्य ममन्तभद्रयतिना तम्मै नमः संततं कृत्वा वित्रियते स्तवो भगवतां देवागमस्तत्कृतिः ॥ यह पद्य भट्टालककी 'अष्टशती' नामक वृत्तिके मंगलाचरणका द्वितीय पद्य है, जिसे भट्टाकलंकने, समन्तभद्राचार्यके 'देवागम' नामक भगवत्स्तोत्रकी वृत्ति ( भाप्य ) लिखने का प्रारम्भ करते हुए, उनकी स्तुति और वृत्ति लिखनेकी प्रतिज्ञारूप दिया है। इसमें समन्तभद्र और उनके वाङ्मयका जो संक्षिप्त परिचय दिया गया है वह बड़े ही महत्त्वका है। समन्तभद्रनं स्याद्वादतीर्थको कलिकाल में प्रभावित किया. इस परिचयके 'कलिकालमे' ( 'काले कलों ) शब्द : खास तौर से ध्यान देने योग्य है और उनसे दो अथकी ध्वनि निकलती हैएक तो यह कि, कलिकाल में स्यानादितीर्थको प्रभावित करना बहुत कठिन कार्य था, समन्तभद्रने उसे पूरा करके निःसन्देह एक ऐसा कठिन कार्य किया है जो दूसरा प्रायः नही हो सकता था अथवा नहीं हो सका था और दूसरा यह कि कलिकालमे समन्तभसे पहले उक्त तीर्थकी प्रभावना-महिमा या तो हुई नहीं थी, या वह होकर लुप्तप्राय हो चुकी थी और या वह कभी उतनी और उतने महत्वकी नही हुई भी जितनी श्रीर जितने महत्वकी ममन्तभद्रके द्वारा, उनके समयमे, हो सकी है। पहले श्रयं में किसीको प्राय: कुछ भी विवाद नहीं हो सकता - कलिकाल में जब कलुपाशयकी वृद्धि हो जाती है तब उसके कारण अच्छे कामोंका प्रचलित होना कठिन हो ही जाता है- स्वयं समन्तभद्राचार्यने, * नगर तालुका (जिοशिमोगा ) के ४६ वें शिलालेखमें, समन्तभद्रके ''देवागम' स्तोत्रका भाष्य लिखनेवाले प्रकलंकदेवको 'महद्धिक' लिखा है । यथाजीयात्समन्तभद्रस्य देवागमनसंज्ञिनः । स्तोत्रस्य माप्यं कृतवानकलंको महद्धिकः ।। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश यह सूचित करते हुए कि महावीर भगवानके अनेकान्तात्मक शासनमें एकाधिपतित्वरूप-लक्ष्मीका स्वामी होनेकी शक्ति है, कलिकालको भी उस शक्तिके अपवादका-एकाधिपत्य प्राप्त न कर सकनेका---एक कारण माना है । यद्यपि, कलिकाल उसमें एक साधारण बाह्य कारण है,असाधारणकारकेरूपमें उन्होंने श्रोताओं का कलुषित प्राशय ( दर्शनमोहाकान्त-चित्त ) और प्रवक्ता (प्राचार्यादि) का वचनानय ( वचनका अप्रशस्त निरपेक्ष* नयके साथ व्यवहार ) ही स्वीकार किया है, फिर भी यह स्पष्ट है कि कलिकाल उस शासनप्रचारके कार्यमें कुछ बाधा डालनेवाला-उसकी सिद्धि को कठिन और जटिल बना देनेवालाज़रूर है । यथा कालः कलिर्वा कलुषाशयो वा श्रीतुः प्रवक्तवचनानयो वा । त्वच्छासनै काधिपतित्व-लक्ष्मी-प्रभुत्वशक्तेरपवाद हेतुः ।।५।। __----युक्त्यनुशासन । स्वामी समन्तभद्र एक महान् प्रवक्ता थे, वे वचनानयके दापम बिल्कुल रहित थे, उनके वचन-जैसा कि पहले जाहिर किया गया है---स्याद्वादन्यायको तुलामें तुले हुए होते थे; विकार-हेतुओके ममुपस्थित होने पर भी उनका चिन कभी विकृत नहीं होता था- उन्हे क्षोभ या क्रोध नहीं माना था.---.और इसलिये उनके वचन कभी मार्गका उल्लघन नहीं करते थे। उन्होंने प्रानी अात्मिक शुद्धि, अपने चारित्रवल और अपने स्तुत्य वचनोके प्रभावसे श्रोतानोंके कलुषित आशय पर भी बहुत कुछ विजय प्राप्त कर लिया था-उमे कितने ही अगोम बदल दिया था। यही वजह है कि आप स्याहादगामनको प्रतिष्ठित करनमें बहुत * 'एकाधिपतित्वं मग्वय्याश्रयणीयत्वम् --इति विद्यानन्दः । 'सभी जिमका अवश्य प्राश्रय ग्रहण करें, मे एक म्यामीपनेको एकाधिपतित्व या एकाधिपत्य कहते हैं।' ६ अपवादहेतुर्वाह्य: माधारण: कलिरेव काल:- इति विद्यानन्दः । * जो नय परस्पर अपेक्षारहित है वे मिथ्या है और जो अपेक्षासहित है वे सम्यक् अथवा वस्तुतत्त्व कहलाते है । इसीसे स्वामी समन्तभद्रने कहा है 'निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽयंकृत' -देवागम । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्र कुछ सफल हो मके और कलिकाल उसमें कोई विशेष बाधा नहीं डाल सका। वसुनन्दि सैद्धान्तिकने तो अापके मतकी-शासनकी-वंदना और स्तुति करते हुए यहाँ तक लिखा है कि उस शासनने कालदोषको ही नष्ट कर दिया था—अर्थात् समन्तभद्रमुनिके शासन-कालमें यह मालूम नही होता था कि आजकल कलिकाल बीत रहा है । यथा लक्ष्मीभृत्परमं निमत्तिनिरतं निर्वाणसौख्यप्रदं कुज्ञानासपवारणायविधृतं छत्रं यथा भासुरं । सज्ञानर्नययुक्तिमौक्तिकफलैः संशोभमानं परं वन्दे तद्धतकालदीपममलं सामन्तभद्र मतम ॥॥ -देवागमवृत्ति इम पद्यमें ममन्नभद्र के 'मन' को, लक्ष्मीभत् परम निर्वाग्गसौख्यप्रद हतकालदोप और अमल ग्रादि विशेषणोंके माथ स्मरगा करते हए, जो देदीप्यमान छत्रकी उपमा दी गई है वह बडी ही हृदयग्राहिणी है, और उसमे मालूम होता है कि ममन्नभद्रका गामनछत्र सम्यग्जानों.मुनयों तथा मयुक्तियों रूपी मुक्ताफलोंमे संशोभित है और वह उसे धारण करनेवालेके कुज्ञानरूपी आतापको मिटा देने वाला है। इस मब कथनमें स्पष्ट है कि ममन्तभद्रका म्याहादशामन बड़ा ही प्रभावशाली था। उसके तेजके मामने अवश्य ही कलिकालका तेज मन्द पड़ गया था, और इमलिये कलिकालम स्पादाद तीर्थको प्रभावित करना, यह समन्तभद्रका ही एक खास काम था । दूसरे अर्थ के सम्बन्धमें मिर्फ इतना ही मान लेना ज्यादा अच्छा मालूम होता है कि समन्तभद्रमे पहले स्याहादतीर्थकी महिमा लुप्तप्राय हो गई थी, ममन्तभद्रने उमे पुन: संजीवित किया है, और उसमे असाधारण बल तथा शक्तिका संचार किया है । श्रवणबेल्गोलके निम्न शिलावाक्यसे भी ऐसा ही ध्वनित होता है, जिसमे यह मूचित किया गया है कि मुनिसंघके नायक आचार्य समन्तभद्रके द्वारा सर्वहितकारी जैनमार्ग ( स्याहादमार्ग) इम कलिकालमे सब पोरसे भद्ररूप हुप्रा है-अर्थात् उसका प्रभाव मवंत्र व्याप्त होनसे वह सबका हितकरनेवाला पौर सबका प्रेमपात्र बना है Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश "आचार्यस्य समन्तभद्रगणभृद्येनेहकाले कलौ जैनं वर्त्म समन्तभद्रमभवद्भद्र समन्तान्मुहुः " ॥ -५४ वाँ शिलालेख । इसके सिवाय चन्नरायपट्टरण ताल्लुकेके कनड़ी शिलालेख नं० १४६ में, जो शक सं० १०४७ का लिखा हुआ है, समन्तभद्रकी बाबत यह उल्लेख मिलता है। कि वे श्रुतकेवलि-संतानको उन्नत करनेवाले और समस्त विद्यायोंके निधि थे ।' यथा- १८६ श्रुतकेवलिगलु पलबरुम् अतीतर् श्रद् इम्बलिक्के तत्सन्तानोन्नतियं समन्तभद्र - प्रतिपर तन्दरु समस्त विद्यानिधिगत् ॥ और बेलूर ताल्लुकेके शिलाशेख न० १७ मे भी, जो रामानुजाचार्य मंदिर के अहाते के अन्दर सौम्यनायकी मन्दिरकी छतके एक पत्थर पर उत्कीर्ण है और जिसमे उसके उत्कीर्ण होनेका समय शक स० १०५६ दिया है, ऐसा उल्लेख पाया जाता है कि श्रुतकवलियों तथा और भी कुछ प्राचार्य के बाद समन्तभद्रस्वामी श्रीवर्द्धमानस्वामीके तीर्थकी — जैनमार्ग की— महस्रगुणी वृद्धि करते हुए उदयको प्राप्त हुए । यथा— “श्रीवर्द्धमानस्त्राभिगलु तीर्थदालु केवलिगलु ऋद्धिप्राप्तरु श्रुतिकेवलिगलु' पलरु सिद्धसाध्यर आगे तन.. ध्यमं सहस्रगुणं माडि समन्तभद्र-स्वामिगलु सन्दर " . ... इन दोनों उल्लेखोंसे भी यही पाया जाता है कि स्वामी समन्तभद्र इस कलिकालमे जैनमागंकी— स्याद्वादशामनकी— असाधारण उन्नति करनेवाले हुए है । नगर ताल्लुकेके ३५वे शिलालेख, भद्रबाहुके बाद कलिकालके प्रवेशको सूचित करते हुए, आपको 'कलिकालगणधर' और 'शास्त्रकर्त्ता' लिखा है: ― देखो 'एपिग्रेफिया करर्णाटिका' जिल्द पाँचवी (E.C., V. ) + इस अंशका लेविस राइसकृत अंग्रेजी अनुवाद इस प्रकार है- Increasing that doctrine a thousand fold Samantabhadra swami arosc. + यह शिलालेख शक सं० ६६६ का लिखा हुआ है (E.C., VIII. ) Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्र १८७ "....भद्रबाहुस्वामि गलिद् इत्तकलिकाल वर्तनयिं गणभेदं पुट्टिदुद् अवर अन्वयक्रमर्दिकलिकालगणधरु शास्त्रकत्तुंगलुम् एनिसिद समन्तभद्रस्वामिगल।" ममन्तभद्रने जिम स्याद्वादशासनको कलिकालमें प्रभावित किया है उसे भट्टाक्लंकदेवने, अपने उक्त पद्यमें, 'पुण्योदधि' की उपमा दी है। साथ ही, उसे 'तीर्थ लिखा है और यह प्रकट किया है कि वह भव्यजीवोंके आन्तरिक मलको दूर करनेवाला है और इसी उद्देश्य से प्रभावित किया गया है । भट्टाकलंकका यह सव लेख ममन्तभद्रके उम वचनतीर्थको लक्ष्य करके ही लिखा गया है जिसका भाष्य लिखनके लिये आप उस वक्त दत्तावधान थे और जिसके प्रभावमे 'पात्रकेमरी' जैसे प्रखर तार्किक विद्वान् भी जैनधर्मको धारण करने में समर्थ हो सके है। भट्टाकलंकके इस सब कथनमे समन्तभद्रके वचनोंका अद्वितीय माहात्म्य प्रकट होता है । वे प्रौढत्व, उदारता और अर्थगौरवको लिये हा होनेके अतिरिक्त कुछ दूमरी ही महिमाम सम्पन्न थे । इमीमे बड़े बड़े प्राचार्यों तथा विद्वानोने आपके वचनोकी महिमाका खुला गान किया है । नीचे उमीके कुछ नमूने और दिये जाते है, जिनमे पाठकोंको ममंतभद्रके वचनमाहात्म्यको समझने और उनके गुग्गोका विशेष अनुभव प्राप्त करनेमे और भी ज्यादह सहायता मिल सकेगी। साथ ही, यह भी मालूम हा मकेगा कि समंतभद्र की वचनप्रवृत्ति, परिरणति और स्याद्वादविद्याको पुनरुज्जीवित करने आदिके विषय में ऊपर जो कुछ कहा गया है अथवा अनुमान किया गया है वह सब प्रायः ठीक ही है नित्यायेकान्तगर्तप्रपतनविवशान्प्राणिनोऽनर्थसार्थाद्उद्धतु नतुमुच्चैः पदममलमलं मंगलानामलंध्यं । स्याद्वादन्यायवर्ती प्रथयद वितथार्थ वचः स्वामिनादः प्रेक्षावत्वात्प्रवृत्तं जयतु विघटिताऽशेषमिथ्याप्रवाद ।।-अष्टसहस्री इस पद्यमे, विक्रमकी प्रायः ६ वी शताब्दीके दिग्गज तार्किक विद्वान् ___ माप पहले पजैन थे, 'देवागम' को सुनकर आपकी श्रद्धा बदल गई पौर मापने जैनदीक्षा धारण की। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश श्रीविद्यानन्द आचार्य, स्वामी समंतभद्रके वचनसमूहका जयघोष करते हुए लिखते हैं कि स्वामीजीके वचन नित्यादि एकान्त गर्तो में पड़े हुए प्राणियोंको अनर्थसमूहसे निकालकर उस उच्च पदको प्राप्त करानेके लिये समर्थ हैं जो उत्कृष्ट मंगलात्मक तथा निर्दोष है, स्याद्वादन्यायके मार्गको ग्रथित करनेवाले हैं, सत्यार्थ हैं, परीक्षापूर्वक प्रवृत्त हुए हैं अथवा प्रेक्षावान् † - समीक्ष्यकारीआचार्यमहोदयके द्वारा उनकी प्रवृत्ति हुई है, और उन्होंने संपूर्ण मिथ्या प्रवादको विघटित - तितर वितर—कर दिया है । प्रज्ञाधीशप्रपूज्योज्ज्वल गुणनिकरोद्भ तसत्कीर्तिसम्पद्विद्यानंदोदयायानवरतमखिलक्लेशनिर्णाशनाय । स्वाद्गौः सामन्तभद्री दिनकररुचिजित्सप्तभंगीविधीद्धा भावादकान्तचेतस्तिमिर निरसनी वोऽकलंकप्रकाशा ॥ - प्रष्टसहस्री | इस पद्य में वे ही विद्यानंद प्राचार्य यह सूचित करते हैं कि समन्तभद्रकी वाणी उन उज्ज्वल गुणों के समूहसे उत्पन्न हुई सत्कीतिरूपी सम्पत्तिमे युक्त है * वस्तु सर्वथा नित्य ही है- कूटस्थवत् एकरूपतासे रहती है- - इस प्रकारकी मान्यताको 'नित्यैकान्त' कहते हैं और उसे सर्वथा क्षणिक मानना - क्षरणक्षण में उसका निरन्वयविनाश स्वीकार करना -- - 'क्षणिकैकान्त' वाद कहलाता है । 'देवागम' में इन दोनों एकान्तवादोंकी स्थिति और उसमें होनेवाले अनर्थीको बहुत कुछ स्पष्ट करके बतलाया गया है । + यह स्वामी समन्तभद्रका विशेषरण है । युक्त्यनुशासन - टीकाके निम्न पद्य में भी श्रीविद्यानंदाचार्यने आपको 'परीक्षेक्षरण' ( परीक्षादृष्टि ) विशेषरणके साथ स्मरण किया है और इस तरह पर आपकी परीक्षाप्रधानताको सूचित किया है श्रीमद्वीर जिनेश्वरामलगुरणस्तोत्रं परीक्षेक्षणः साक्षात्स्वामिसमन्तभद्रगुरुभिस्तत्त्वं समीक्ष्याखिलं । प्रोक्तं युक्त्यनुशासनं विजयिभिः स्याद्वादमार्गानुगै— विद्यानन्दबुधैरलंकृतमिदं श्रीसत्यवाक्याधिपैः || Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समंतभद्र ११ जो बड़े बड़े बुद्धिमानों द्वारा प्रपूज्य 8 है, वह अपने तेजसे सूर्यको किरणको जीतनेवाली सप्तभंगी विधिके द्वारा प्रदीप्त है, निर्मल प्रकाशको लिये हुए है और भाव-प्रभाव आदिके एकान्त पक्षरूपी हृदयांधकारको दूर करनेवाली है। साथ ही, अपने पाठकोंको यह आशीर्वाद देते हैं कि वह वाणी तुम्हारी विद्या ( केवलज्ञान ) और आनन्द ( अनंतमुख ) के उदयके लिये निरंतर कारणीभूत होवे और उसके प्रसादसे तुम्हारे संपूर्ण क्लेश नाशको प्राप्त हो जायँ । यहां 'विद्यानन्दोदयाय' पदसे एक दूसरा अर्थ भी निकलता है और उससे यह सूचित होता है कि ममंतभद्रकी वाणी विद्यानंदाचार्य के उदयका कारण हुई है और इसलिये उसके द्वारा उन्होंने अपने और उदयकी भी भावना की है। अद्वैताद्याग्रहांग्रग्रहगहनविपन्निग्रह ऽलंध्यवीर्याः म्यात्कारामोघमंत्रप्रणयनविधयः शुद्धसद्ध यानधीराः । धन्यानामादधाना धृतिमधिवसतां मंडलं जैनमग्रयं । वाचः सामन्तभद्र यो विदधतु विविधां सिद्धिमुद्भूतमुद्राः ।। अपक्षकान्तादिप्रबलगरलोद्रे कदलिनी प्रवृद्धानेकान्तामृतरसनिपेकानवरतम् । प्रवृत्ता वागेषा सकलविकलादेशवशत: समन्ताद्भद्र वो दिशतु मुनिपस्यामलमतेः ।। अष्टमहनीके इन पद्योंमें भी श्रीविद्यानंद-जैसे महान् प्राचार्योन. जिन्होंने अष्टमहस्रीके अतिरिक्त प्राप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशामनपरीक्षा, विद्यानन्दमहोदय और श्लोकवातिक आदि कितने ही महत्त्वपूर्ण ग्रंथोंकी रचना की है, निर्मलमति श्रीसमंतभद्र-मुनिराजकी वाणीका अनेक प्रकारमे गुणगान किया है और उसे अलंध्यवीर्य, स्यात्काररूप अमोघमंत्रका प्रणयन करनेवाली, शुद्ध -सद्धयानधीरा, उद्भूतमुद्रा, ( ऊँचे आनन्दको देनेवाली), एकान्तरूपी * अथवा ममन्तभद्रकी भारती बड़े बड़े बुद्धिमानोंके द्वारा प्रपूजित है और उज्ज्वल गुणोंके ममूहमे उत्पन्न हुई मत्कीर्तिरूपी सम्पत्तिसे युक्त है । + 'ध्यानं परीक्षा तेन धीराः स्थिराः' इति टिप्पणकारः । * 'उद्भूतां मुदं शान्ति ददातीति ( उद्भूतमुद्राः ) इति टिप्पणकारः । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश प्रबल गरल ( विष ) के उद्र ेकको दलनेवाली और निरन्तर अनेकान्तरूप अमृत रसके सिंचनसे प्रवृद्ध तथा प्रमाण नयोंके अधीन प्रवृत्त हुई लिखा है । साथ ही, वह वारणी नाना प्रकारकी सिद्धिका विधान करे और सब प्रोरसे मंगल तथा कल्पारणको प्रदान करनेवाली होवे, इस प्रकारके आशीर्वाद भी दिये हैं । कार्या एव स्फुटमिह नियतः सर्वथा- कारणादेरित्याद्ये कान्तवादाद्धततरमतयः शांततामाश्रयन्ति । प्रायो यस्योपदेशादविघटितनयान्मानन्यादलंध्यान स्वामी जीयात्म शश्वत्प्रथिततरयतीशोऽकलंकी रुकीर्तिः ॥ अष्टमस्री इस पद्य में लिखा है कि 'वे स्वामी ( समंतभद्र ) मदा जयवंत रहें जो बहुत प्रसिद्ध मुनिराज हैं, जिनकी कीर्ति निर्दोष तथा विशाल है और जिनके नयप्रमाणमूलक अलभ्य उपदेशमे वे महाउद्धतमति एकान्तवादी भी प्राय: शान्तताको प्राप्त हो जाते हैं जो कारण कार्यादिका सर्वथा भेद ही नियत मानते है अथवा यह स्वीकार करते हैं कि वे कारण कार्यादिक सर्वथा अभिन्न ही हे - एक ही है । येनाशेपकुनीतिवृनिमरितः प्रेक्षावतां शापिताः यद्वाचोऽप्यकलंकनी तिरुचिरास्त्वार्थसार्थयतः । स श्रीस्वामिममन्तभद्रयतिभद्याविभुर्भानुमान विद्यानंदघनप्रदोऽनवधियां स्याहारमार्गणीः || सहस्रके इस अन्तिम मंगलपद्यमें श्रीविद्यानन्द ग्रावायनं, मक्षंपमे, मन्द्र- aaee अपने जो उद्गार प्रकट किये हैं ने बड़े ही महत्व है। आप + अष्टमहत्रीके प्रारम्भ मे जो मंगल पद्य दिया है उसमे समन्तभद्रको 'श्री वर्द्धमान', 'उद्भूतबोध महिमान्' और 'अनिन्द्ययवाक्' विशेषांक साथ अभिवन्दन किया है । यथा श्रीवर्द्धमाममभिवंद्यसमंतभद्रमुद्भूत बांधव हिमानमनिन्द्यवानम् । शास्त्रावताररचितस्तुनिगोचरासमीर्मासिनं कृतिरलं क्रियते मयाय ॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्र १६१ स्था लिखते हैं कि 'जिन्होंने परीक्षावानोंके लिये संपूर्ण कुनीति-वृत्तिरूपी नदियोंको सुखा दिया है और जिनके वचन निर्दोषनीति (स्याद्वादन्याय) को लिये हुए होनेकी वजहमे मनोहर हैं तथा तत्त्वार्थसमूहके द्योतक है वे यतियोंके नायक, द्वादमा अग्रणी, विभु और भानुमान् (तेजस्वी ) श्रीसमन्तभद्र स्वामी कलुषाशयति प्राणियोंको विद्या और श्रानंदघनके प्रदान करनेवाले होवें। इससे स्वामी समंतभद्र और उनके वचनोंका बहुत ही अच्छा महत्त्व ख्यापित होता है । गुणान्विता निर्मलवृनमीकिका नरोन मैः कण्ठविभूषणीकृता । न हारयष्टिः परमेव दुर्लभा समन्तभद्रादिभवा च भारती ॥ ६ ॥ --- -चन्द्रप्रभवति । इस पद्यमें महाकवि श्रीवीरनंदी प्राचार्य, समंतभद्रकी भारती ( वाणी )को उस हारयष्टि ( मोनियों की माला ) के समकक्ष रखते हुए जो गुग्गों ( सूतके धागो) में गूंथी हुई है, निर्मल गोल मोतियोंसे युक्त है और उत्तम पुरुषकि कंठका विभूषण बनी हुई हैं, यह सूचित करते हैं कि समंतभद्रकी वाणी अनेक सद्गुणों को लिये हुए हैं, निर्मल वृत्त रूपी मुक्ताफलोंग युक्त है और बड़े बड़े श्राचार्यो तथा विद्वानोंने उसे अपने कंठका आभूषण बनाया है । साथ ही, यह भी बतलाते हैं कि उस हारयष्टिको प्राप्त कर लेना उतना कठिन नही हैं जितना कठिन कि सभी भारती को पा लेना - उसे समझकर हृदयंगम कर लेनाऔर उससे स्पष्ट ध्वनि निकलती है कि समतभद्रके वचनोका लाभ बड़े ही भाग्य है । तथा परिश्रमसे होता है । श्री नरेन्द्रसेनाचार्य भी, अपने 'सिद्धान्नसारसंग्रह में, ऐसा ही भाव प्रकट करते हैं । आप समंतभ दके वचनको 'ग्रनघ' (निष्पाप) सूचित करते हुए उसे मनुष्यत्व की प्राप्तिकी तरह दुर्लभ बतलाते है । यथाश्रीमत्सतस्य देवस्यापि वचोऽनघ । प्राणिनां दुर्लभं यद्वन्मानुपत्वं तथा पुनः ।। ११ ।। शक संवत् ७०५ मे 'हरिवशपुराण' को बनाकर समाप्त करनेवाले श्रीजिनेसेनाचार्यने समंतभद्रके वचनोंको किस कोटिमे रक्खा है और उन्हें किस महा * वृतान्न, चरित, प्राचार, विधान अथवा छन्द | Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ जैनमाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश पुरुषके वचनोंकी उपमा दी है, यह सब उनके निम्न वाक्यसे प्रकट है- . जीवसिद्धि-विधायीह कृत-युक्त्यनुशासन । वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विज़म्भते ॥ ३०॥ इस पद्यमें जीवसिद्धिका विधान करनेवाले और युक्तियोंद्रारा अथवा युक्तियोंका अनुशासन करनेवाले समंतभद्र के वचनोंकी बाबत यह कहा गया है कि वे वीर भगवानके वचनोंकी तरह प्रकाशमान है, अर्थात् अन्तिम तीर्थकर श्रीमहावीर भगवानके वचनोंके समकक्ष हैं और प्रभावादिकमें भी उन्हीके तुल्य हैं। जिनसेनाचार्यका यह कथन समंत भद्रके 'जीवसिद्धि' और 'युक्त्यनुशासन' नामक दो ग्रन्थोंके उल्लेखको लिये हुए है, और इसमे उन ग्रन्थों (प्रवचनों) का महत्त्व स्वतः स्पष्ट हो जाता है । प्रमाण-नय-निर्णीत-वस्तुतत्त्वमबाधितं । जीयात्समंतभद्रस्य स्तोत्रं युक्त्यनुशामनं ।। -युक्त्यनुशासनटीका । इस पद्यमें श्रीविद्यानंदचाय, ममतभद्रके 'युक्न्यनुगामन' म्तोत्रका जयघोष करते हुए, उसे 'अबाधित' विशेषग देते है और माथ ही यह भूचित करते है कि उसमें प्रमाण-नयके द्वारा वस्नुतत्त्वका निर्णय किया गया है । * स्वामिनश्चरितं तम्य कस्य नो विम्मयावहं । देवागमेन सर्वज्ञा येनाद्यापि प्रदर्श्वन । त्यागी स एव योगीन्द्रो येनाक्षय्यमुखावहः । अर्थिने भव्यसार्थाय दियो रत्नकरंडकः ।। --पाइवनाथरिन । * माणिकचंद्रग्रन्थमालामें प्रकाशित 'पाश्र्वनाथरिन' में इन दोनो पचोंके मध्यमें नीचे लिम्वा एक पद्य और भी दिया है, जिसके द्वारा वादिराजने ममंतभद्रको अपना हित चाहनेवालोंके द्वाग वंदनीय और अचिन्त्य-महिमावाला देव प्रतिपादन किया है। माथ ही, यह लिखकर कि उनके द्वारा शब्द भने प्रकार सिद्ध होते हैं, उनके किमी व्याकरण ग्रन्थका उल्लेख किया है अचिन्त्यमहिमा देव: मोऽभिवंद्यो हितगिरणा । शब्दाश्च येन सिद्धयन्ति मात्वं प्रतिभिताः ॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्र १६३ इन पद्यों में, 'पार्श्वनाथचरितको शक सं० ६४७ में बनाकर समाप्त करनेवाले श्रीवादिराजसूरि, समंतभद्रके 'देवागम' और 'रत्नकरंडक' नामके दो प्रवचनों ( ग्रन्थों ) का उल्लेख करते हुए, लिखने है कि 'उन स्वामी ( समंतभद्र ) का चरित्र किसके लिये विस्मयावह ( श्राश्चर्यजनक ) नहीं है जिन्होंने 'देवागम' के द्वारा आज भी सर्वज्ञको प्रदर्शित कर रक्खा है । निश्चयमे वे ही योगीन्द्र ( समन्तभद्र ) त्यागी ( दाता ) हुए है जिन्होंने भव्यसमूहरूपी याचकको अक्षय सुखका कारण रत्नोका पिटारा ( रत्नकरडक) दान दिया है' । समन्तभद्रा भद्रार्थो भातु भारतभूषणः । देवागमेन येनात्र व्यक्तो देवागमः कृतः -- पाण्डवपुराण इस पद्य में श्रीशुभ चंद्राचार्य लिखते हैं कि 'जिन्होंने 'देवागम' नामक अपने aarti द्वारा देवागमको जिनेन्द्रदेव के ग्रागमको इस लोकमे व्यक्त कर दिया है वे 'भारतभूषण और एक मात्र मद्रप्रयाजनके धारक' श्रीसमन्तभद्र लोकमेकमान हो, अर्थात् अपनी किया और गुणोंके द्वारा लोगोके हृदयान्धकारको दूर करनेमें समर्थ हो ।" समन्तभद्रकी भारतीका एक स्वतंत्र हाल, दक्षिण देने प्राप्त हुआ है । यह स्तोत्र कवि नागराज का बनाया हुआ और अभीतक प्राय अप्रकाशित ही जान पड़ता है। यहाँ पर उसे भी अपने पाठकोकी अनुभवबुद्धि के लिये दे देना उचित समता है। वह स्नान इस प्रकार है- साम्मरीमि ताम्रवीमि नंनमीमि भारती, तंननीमि पापठीमि बंभणीमि तेऽमलां । इसकी प्राप्ति के लिये में उन शातिराजजीका याभारी हूँ जो कुछ रह चुके है। अ तक जेनविन धारा के + 'नागराज' नामक एक कवि संवत् १९५३ मे हो गये हैं ऐसा 'कर्णाटककविनति' से मालूम होता है। बहा है कि यह तो उन्हीका बनाया हुया हा, वे उभयविनाविलास' उपाधि भी युक्त थे। उन्होंने उन् मं० में अपना 'पुण्यामवनम्पू बताकर समाप्त किया है। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश देवराजनागराजमर्त्यराजपूजिता श्रीसमन्तभद्रवादभासुरात्मगोचरां ॥१॥ मातृ-मान-मेयसिद्धिवस्तुगोचरां स्तुवे, सप्तभंगसप्तनीतिगम्यतत्वगोचरां । मोक्षमार्ग-तद्विपक्षभूरिधर्मगोचरामाप्रतत्त्वगोचरां समन्तभद्रभारती ॥ २ ॥ सूरिसूक्तिवंदितामुपेयतत्त्वभाषिणी. चारुकीर्तिमासुरामुपायतत्त्वसाधनीं। पूर्वपक्षखंडन प्रचण्डवाग्विलासिनी संस्तुवे जगद्धितां समन्तभद्रभारती ॥ ३ ॥ पात्रकेसरिप्रभावसिद्धकारिणी स्तुवे, भाष्यकारपोषितामलंकृतां मुनीश्वरैः । गृध्रपिच्छभापितप्रकृष्टमंगलार्थिकां सिद्धि-सौख्यमाधनी ममन्तभद्रभारती ।। ४ ।। इन्द्रभूतिभाषितप्रमेयजालगोचरां. वद्धमानदेवबोद्धबुद्धचिद्विलासिनी, योगसौगतादिगर्वपर्वताशनि स्तुवे । क्षीरवार्धिसन्निभां समन्तभद्रभारती ।। ५ ।। मान-नीति-वाक्यामद्धधम्तुधर्मगोचरां मानितप्रभावसिद्धमिद्धिमिद्धमाधनी । घोरभूरिदुःखवार्धितारणक्षमामिमां चारुचनमा मतुव समन्तभदभारतीम ।। ६।। सान्तसादानाद्यनन्तमध्ययुक्तमध्यमां शून्यभावसर्ववेदि-तत्त्वमिद्धिमाधनी । हेत्वहंतुवाद सिद्धवाक्य जालभामुरां मोक्षसिद्धये स्तुवे समन्तभद्रभारतीम ।। ॥ व्यापकद्वयाप्तमार्गतत्वयुग्मगाचरां पापहारि-वाग्विलासिभूषणांशुकां स्तुवे । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्र श्रीकरी च धीकरी च सर्वसौख्यदायिनीं नागराजपूजितां समन्तभद्रभारतीम् ॥ ८ ॥ १६५ इस 'समन्तभद्रभारतीस्तोत्र' में, स्तुति के साथ, समन्तभद्रके वादों, भाषणों और ग्रंथोंके विषयका यत्किचित् दिग्दर्शन कराया गया है। साथ ही, यह सूचित किया गया है कि समन्तभद्र की भारती प्राचार्योकी मूक्तियोंद्वारा वंदित, मनोहर कीर्ति देदीप्यमान और क्षीरोदधिकं समान उज्ज्वल तथा गम्भीर है; पापोंको हरना, मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्रको दूर करना ही उम वाग्देवीका एक आभूषण और वाग्विलास ही उसका एक वस्त्र है, वह घोर दुःखमागरसे पार करनेके लिये समर्थ है, सर्व सुम्वोंको देनेवाली है और जगतके लिये हितरूप है । यह में पहले ही प्रकट कर चुका हूं कि समन्तभद्रकी जो कुछ वचनप्रवृत्ति होती थी वह सब प्राय: दूसरोंके हिनके लिये ही होती थी। यहां भी इस स्तोत्रमे वही बात पाई जाती है, और ऊपर दिये हुए दूसरे कितने ही ग्राचार्योक वाक्योंमे भी उसका पोषण तथा स्पष्टीकरण होता है । अस्तु, इस विषयका यदि और भी अच्छा अनुभव प्राप्त करना हो तो उसके लिये स्वयं समन्तभद्रके ग्रंथोंकी देखना चाहिये । उनक विचारपूर्वक अध्ययनसे वह अनुभव स्वतः हो जायगा । समन्तभद्रके ग्रन्थांका उद्देश्य ही पापको दूर करके - कुदृष्टि, कुबुद्धि, कुनीति और कुबुनिको हटाकर - जगनका हित साधन करना है। समन्तभद्रने अपने इस उद्देश्यको कितने ही ग्रंथी व्यक्त भी किया है, जिसके दो उदाहरण नीचे दिये जाते है इतीयमानमीमांसा विहिता हितमिच्छतां । सम्यग्मिथ्योपदेशार्थविशेषप्रतिपत्तये ।। ११४. ।। यह 'प्राप्नमीमांसा' ग्रन्थका पद्य है। इसमें ग्रथनिर्माणका उद्देश्य प्रकट करते हुए, बतलाया गया है कि यह 'प्राप्तमीमांसा' उन लोगोंको सम्यक् और मिथ्या उपदर्शक प्रर्थविशेषका ज्ञान करानेके लिये निर्दिष्ट की गई है जो अपना इस स्तोत्र के पूरे हिन्दी अनुवादके लिये देखो, 'सत्साधु- स्मरण - मंगलपाठ जो वीरमेवामन्दिरसे प्रकाशित हुआ है । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश हित चाहते हैं । ग्रन्थकी कुछ प्रतियोंमें 'हितमिच्छतां' की जगह 'हित मिच्छता' पाठ भी पाया जाता है। यदि यह पाठ ठीक हो तो वह ग्रन्थरचयिता समन्तभद्रका विशेषण है और उससे यह अर्थ निकलता है कि यह प्राप्तमीमांसा हित चाहनेवाले समन्तभद्र के द्वारा निर्मित हुई है; बाकी निर्माणका उद्देश्य ज्योंका त्यों कायम ही रहता है-दोनों ही हालतोंमें यह स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ दूसरोंका हित सम्पादन करने-उन्हें हेयादेयका विशेष बोध करानेके लिये ही लिखा गया है। न रागान्नः स्तोत्रं भवति भवपाशच्छिदि मुनी न चान्येषु द्वेषादपगुणकथाभ्यासखलता । किमु न्यायान्यायप्रकृतगुग्गदोपज्ञमनसां। हितान्वेषोपायस्तव गुणकथासंगगदितः ।। यह 'युक्त्यनुशासन' नामक स्तोत्रका, अन्तिम पद्यसे पहला, पद्य है। इसमें प्राचार्य महोदयने बडे ही महत्वका भाव प्रदर्शित किया है। आप श्रीवर्तमान ( महावीर ) भगवान् को सम्बोधन करके उनके प्रति अपनी इम स्तोत्र-रचनाका जो भाव प्रकट करते हैं उमका म्पप्राशयः दम प्रकार है---- (हे वीर भगवन् !) हमारा यह स्तोत्र पाप जैसे भवपाशदक मुनिके प्रति रागभावमे नही है, न हो सकता है: क्योंकि इधर ना हम परीक्षाप्रधानी है पीर उधर ग्रापने भवपागको छेद दिया है-मंसारमे अपना सम्बन्ध ही अलग कर लिया है-ऐसी हालतमे अापके व्यक्तित्व के प्रति हमाग गगभाव इम स्तोत्रकी उत्पनिका कोई कारण नहीं हो मकना । दूसरोके प्रति द्वेषभावमे भी इस स्तोत्रका कोई सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि एकान्तवादियोंके माथ- उनके व्यक्तित्वक प्रतिहमारा कोई द्वेष नही है। हम तो दुगुं गोंकी कथाके अभ्यामको भी म्बलता समझते हैं और उम प्रकारका अभ्याम न होनमे वह 'म्बलना हममें नहीं है, और इम लिये दूसरोक प्रति कोई प्रभाव भी इस स्तोत्रको उत्पनिका कारण नहीं हो सकता । तब फिर इसका हेतु अथवा उद्देश ? उग यही है कि जो रम स्पष्टागयके लिखनमें धीविद्यानंदाचार्यकी टीकामे कितनी ही महायता ली गई है। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्र १६७ लोग न्याय-अन्यायको पहचानना चाहते हैं और प्रकृत पदार्थके गुण-दोषोंको जाननेकी जिनकी इच्छा है उनके लिये यह स्तोत्र 'हितान्वेषण के उपायस्वरूप' reat गुणकथा साथ, कहा गया है। इसके सिवाय, जिस भवपाशको श्रापने छेद दिया है उसे छेदना - अपने और दूसरोंके संसारबन्धनों को तोड़ना -- हमें भी इष्ट है और इसलिये वह प्रयोजन भी इस स्तोत्रकी उपपत्तिका एक हेतु हैं ।' इससे स्पष्ट है कि समंतभद्रके ग्रंथोंका प्रणयन - - उनके वचनोंका अवतार - किसी तुच्छ रागद्वेष वशवर्ती होकर नही हुग्रा है । वह श्राचार्य महोदयकी उदारता तथा प्रेक्षापूर्व कारिताको लिये हुए है और उसमें उनकी श्रद्धा तथा गुणज्ञना दोनों ही बातें पाई जानी हैं। साथ ही, यह भी प्रकट है कि समंतभद्र के ग्रंथोंका उद्देश्य महान है, लोकहितको लिये हुए है, और उनका प्रायः कोई भी विशेष कथन की अच्छी जांनके विना निर्दिष्ट हुआ नहीं जान पड़ता । यहां तक इस सब कथनसे ऐसा मालूम होता है कि समंतभद्र अपने इन सब गुणों के कारण ही लोक में अत्यंत महनीय तथा पूजनीय थे और उन्होंने देश-देशान्तरोंमें अपनी अनन्यसाधारण कीर्तिको प्रतिष्ठित किया था । निःसन्देह, वे मोधरूप थे, श्रेष्ठगुणों के ग्रावास थे, निर्दोष थे और उनकी यश कान्तिमे तीनों लोक अथवा भारतके उत्तर, दक्षिण और मध्य ये तीनों विभाग कालिमान थे - उनका यास्तेज सर्वत्र फैला हुआ था, जैसा कि श्रीसुनन्दी श्राचार्यके निम्न वाक्यमे पाया जाना है समन्तभद्रं साधं स्नुत्रे वरगुग्णालयं । निमलं यद्यशष्कान्तं बभूव भुवनत्रयं ||२|| -जिनशतकटीका । अपने इन सब पूज्य गुग्गों की वजहसे ही सपनभद्र लोक में 'स्वामी' पदसे वाम तौर पर विभूषित थे । लोग उन्हें 'स्वामी' 'स्वामीजी' कहकर ही पुकारते थे, और बड़े बड़े प्राचार्यों तथा विद्वानाने भी उन्हें प्राय: इसी विशेष के साथ स्मरण किया है । यद्यपि और भी कितने ही आचार्य 'स्वामी' कहलाते थे परन्तु उनके साथ यह विशेषगा उतना रूठ नही है जितना कि समनभद्रके साथ रूढ जान पड़ता है— समंतभद्रके नामका तो यह प्रायः एक अंग ही बन गया 1 इससे कितने ही महान् प्राचार्यों तथा विद्वानोंने अनेक स्थानों पर नाम न देकर, Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश केवल 'स्वामी' पदके प्रयोग-द्वारा ही आपका नामोल्लेख किया है * और इससे यह बात सहजहीमें समझमें आ सकती है कि प्राचार्य महोदयकी 'स्वामी' रूपमे कितनी अधिक प्रसिद्धि थी। निःसंदेह यह पद आपकी महती प्रतिष्ठा और असाधारण महत्ताका द्योतक है । आप सचमुच ही विद्वानोंके स्वामी थे, त्यागियोंके स्वामी थे, तपस्वियोंके स्वामी थे, ऋषिमुनियोंके स्वामी थे, सद्गुरिणयों के स्वामी थे, सत्कृतियोंके स्वामी थे और लोकहितैषियोंके स्वामी थे। भावी तीर्थकर त्व समन्तभद्रके लोकहितकी मात्रा इतनी बढ़ी हुई थी कि उन्हें दिन गत उमीके मपादनकी एक धुन रहती थी; उनका मन, उनका वचन और उनका गरीर सब उमी अोर लगा हुआ था; वे विश्वभरको अपना कुटुम्ब समझते थे-उनके हृदयमे 'विश्वप्रेम जागृत था--और एक कुटुम्बीके उद्धारकी तरह वे विश्वभरका उद्धार करनेमे सदा मावधान रहते थे। वस्नुतत्वकी मम्यक् अनुभूनिके माथ, अपनी इम योगपरिगनिके द्वारा ही उन्होंने उम महत् , नि:मीम तथा मर्वातिशाया पुण्यको मंचित किया मालूम होता है जिसके कारण वे दमी भारतवर्ष मे 'तीथंकर' होनेवाले हैं-धर्मतीर्थको चलाने के लिये अवतार लेनिवाले है । आपके 'भावी तीथंकर होने का उल्लेख कितने ही ग्रंथों में पाया जाता है, जिनके कुछ अवतरण नीचे दिये जाते हैं देखो-वादिगजमूरिकृत पार्श्वनाथचरितका 'स्वामिनश्चरित' नामका पद्य जो ऊपर उद्धृत किया गया है, पं० ग्रागाधरकृन मागारधर्मामृन और ग्रनगारधर्मामृतकी टीकाओंके 'स्वाम्युक्ताष्टमूलगुगणपक्षे, इति स्वामिमतेन दर्शनिको भवेत्, स्वामिमतेन त्विमे (अनिचारा: ), अथाह स्वामी यथा, नथा च स्वामिमूक्तानि' इत्यादि पद ;न्यायदीपिकाका 'तदुत्त स्वामिभिरेव' इम वाक्पके माथ 'देवागम' की दो कारिकामोंका अवतरण, और श्रीविद्यानंदाचार्यकृत प्रमहरी आदि ग्रन्थोंके कितने ही पद्य तथा वाक्य जिनमेंमे नित्याचे कान्त' प्रादि कुछ पद्य ऊपर उद्धृत किये जा चुके है। + "सर्वातिशायि तत्पुण्यं त्रैलोक्याधिपतित्वकृत् ।" -श्लोकवानिक Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्र १६४ श्रीमूलसंघव्योमेन्दभरते भावितीर्थकृद्देशे समंतभद्राख्यो मुनिर्जीयात्पदचि कः ।। -विक्रान्तकौरव प्र० श्रीमूलसंघव्योम्नेन्दर्भारते भावितीर्थकृद्देशे समन्तभद्रार्यो जीयात्प्राप्तपद्धि कः ।। -जिनेंद्रकल्याणाभ्युदय उक्तं च समन्तभद्रेणात्मर्पिगीकाले आगामिनिभविष्यत्तीर्थकर-परमदेवेन-'काले कल्पशतेऽपि च' (इत्यादि रत्नकरंड' का पूरा पद्य दिया है।) -श्रुतसागरकृत-पप्राभृतटीका कृत्वा श्रीमजिनेन्द्राणां शासनम्य प्रभावनां । वर्मोक्षदायिनी धीरो भावितीर्थकरो गुणी । ----नेमिदनकृत पागधनाकथाकोश। आ भावि नीर्थकरन अप्प ममंतभद्रम्वामिगलु (गजावलिकथे) * अट्टहरी गाव पडिहरि चकिचक्कं य एय बलभहो । मरिणय समंतभा तित्थयरा हंति गिगयमेगा | श्रीवद्धमान महावीरस्वामी निर्वाण के बाद सैकड़ों ही ग्रन्छे अच्छे महात्मा प्राचार्य तथा मुनिराज यहा हो गये है परंतु उनमेमे दुसरे किमी भी प्राचार्य नथा मुनिराजके विषयमें यह उल्लेख नहीं मिलता कि वे ग्रागेको इम देशमै इम गाथामे लिखा है कि ---पाठ नागयगण, नौ प्रतिनारायग, चार चक्रवर्ती, एक बलभद्र, श्रेणिक और ममन्नभद्र ये ( २८ पुष्प प्रागेको) नियमसे नीर्थकर होंगे। यह गाथा कौनमें मूलग्रन्यकी है, इसका अभीतक मुझे काई ठीक पता नहीं चला । पं० जिनदाम पाश्वनाथ जो फडकुलेने इमे स्वयंभूस्तोत्रके उस संस्करगामें उद्धन किया है जिसे उन्होंने मंस्कृलटीका तथा मगठीअनुवादसहित प्रकाशित कराया है। मेरे दर्यापन करने पर पंडितजीने सूचित किया है कि यह गाथा 'चर्चाममाधान' नामक ग्रंथमें पाई जाती है। ग्रन्थके इस नाम परसे ऐसा मालूम होता है कि वहाँ भी यह गाथा उद्धन ही होगी और किसी दूसरे ही पुरातन ग्रंथकी जान पड़ती है । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश 'तीर्थंकर' होंगे । भारतमें 'भावी तीर्थंकर' होने का यह सौभाग्य, शलाका पुरुषों तथा श्रेणिक राजाके साथ, एक समंतभद्रको ही प्राप्त है और इससे समंतभद्रके इतिहासका --- उनके चरित्रका - गौरव और भी बढ़ जाता है। साथ ही, यह भी मालूम हो जाता है कि आप १ दर्शनविशुद्धि, २ विनयसम्पन्नता, ३ शीलव्रतेध्वनतिचार, ४ अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, ५ संवेग, ६ शक्तितस्त्याग, ७ शक्तितस्तप, ८ साघुसमाधि, ६ वैयावृत्यकरण, १० अर्हद्भक्ति, ११ प्राचार्यभक्ति, १२ बहुश्रुतभक्ति, १३ प्रवचनभक्ति, १४ आवश्यकापरिहार, १५ मार्गप्रभावना और १६ प्रवचनवत्सलत्व, इन सोलह गुरणोंसे प्राय: युक्त थे - इनकी उच्च गहरी भावना से प्रापका प्रात्मा भावित था-व — क्योंकि दर्शनविशुद्धिको लिये हुए, ये ही गुण समस्त अथवा व्यस्तरूपसे आगम में तीर्थंकरप्रकृति नामक ' नामकर्म'की महापुण्यप्रकृतिके ग्राम के कारण कहे गये है । इन गुणोका स्वरूप तत्वार्थ सूत्रकी बहुतसी टीकाओं तथा दूसरे भी कितने ही ग्रन्थोंमें विद्यादरूपमे दिया हुआ है, इसलिये उनकी यहाँ पर कोई व्याख्या करनेकी ज़रूरत नही है । हाँ, इतना जरूर बतलाना होगा कि दर्शनविशुद्धिके साथ साथ, समतभद्रकी 'अर्हद्भक्ति' बहुत बढी चढी थी, वह बड़े ही उच्चकोटिके विकासको लिये हुए थी । उसमें अंधश्रद्धा अथवा अंधविश्वासको स्थान नहीं था. • गुरगज्ञता गुणप्रीति और हृदयकी सरलता ही उसका एक आधार था, और इस लिये वह एकदम शुद्ध तथा निर्दोष थी । अपनी इस शुद्ध भन्तिके प्रतापसे ही समंतभद्र इतने अधिक प्रतापी, तेजस्वी तथा पुण्याधिकारी हुए मालूम होते हैं। उन्होंने स्वय भी इस बात का अनुभव किया था, और इमीगे वे अपने 'जिनस्तुतिशतक' ( स्तुतिविद्या) के अन्त में लिम्बने है सुश्रद्धा मम ते मते स्मृतिरपि त्वय्यचनं चापि तं हस्तावंजलये कथा श्रुतिरतः कर्णोऽक्षि मंप्रेक्षते । * देखो, तत्त्वार्थाधिगम सूत्रके घंटे प्रध्यायका २४वाँ सूत्र, श्रीर उसके 'ratcarfre' भाष्यका निम्न पद्य efragaurrat arcनोर्थकृत्वस्य हेतवः । समस्ता स्पा वा हग्विशुद्धया समन्विताः ॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तमद्र मुस्तुत्यां व्यसनं शिरोनतिपर सेवेडशी येन ते तेजस्वी सुजनोऽहमेव सुकृती तेनैव तेजःपते ।।११४|| अर्थात्-हे भगवन्, आपके मतमें अथवा आपके ही विषयमें मेरी सुश्रद्धा है-अन्धश्रद्धा नहीं-, मेरी स्मृति भी आपको ही अपना विषय बनाये हुए है, मैं पूजन भी आपका ही करता हूँ, मेरे हाथ आपको ही प्रणामांजलि करनेके निमित है, मेरे कान प्रापकी ही गुणकथाको सुननेमे लीन रहते हैं, मेरी आँखें आपके ही रूपको देखती है, मुझे जो त्र्यमन + है वह भी आपकी ही सुन्दर स्तुतियों के रचनेका है और मेरा मस्तक भी आपको ही प्रणाम करनेमें तत्पर रहता है; इस प्रकारकी चूकि मेरी मेवा है.---मैं निरन्तर ही प्रापका इस तरह पर मेवन किया करता हूँ-इमी लिये हे तेज.पते ! ( केवलज्ञानम्वामिन् । ) में तेजस्वी हैं, मुजन हूँ और मुकृती ( पुण्यवान ) हैं। ममंतभद्र के इन मच्चे हार्दिक उद्गारोमे यह स्पष्ट चित्र विच जाता है कि वे कैसे और कितने 'अहंद्भक्त' थे और उन्होंने कहाँ नक अपनेको ग्रहणमेवाके लिये अपंग कर दिया था । अहंद्गुणोंमें इतनी अधिक प्रीनि होनेमे ही वे प्रहन्त होने के योग्य और अहन्नोमें भी तीर्थकर होने के योग्य पुण्य मंचय कर सके हैं, इसमें जग भी संदेह नहीं है । अहंद्गुग्गोंकी प्रनियादक मुन्दर मृन्दर स्तुतियाँ रचनेकी पोर उनकी बड़ी रूचि थी, उन्होंने टमीको अगना व्यमन लिखा है और यह बिल्कुल ठीक है। ममतभद्रके जितने भी ग्रन्थ पाये जाते हैं उनमेमे कुछको छोडकर शेष सब ग्रन्थ म्नोत्रोंके ही को लिये हुए हैं और उनमे समंतभद्रकी अद्वितीय अहंशक्ति प्रकट होती है। जिनस्तुतिगतक' के सिवाय देवागम, युक्त्यनुशासन और स्वयभूम्तोत्र, वे प्रारक वाम स्तुतिग्रथ है । ममतभद्रके इम उल्नेबमे रोमा पाया जाता है कि यह 'जिनमतक' ग्रन्थ उस ममय बना है जब कि ममन्नभद्र कितनी ही मुन्दर मुन्दर स्तुतियोंस्तुनिग्रन्थों का निर्मागा कर चुके थे और नुतिरचना उनका एक व्यसन बन चुका था। प्राश्चर्य नही नो देवागम, युक्यनुशासन और स्वयंभू नामके स्तोत्र इम ग्रन्थमे पहले ही बन चुके हों और ऐसी मुन्दर स्तुतियोंके कारण ही समंतभद्र अपने स्तुनिव्यमनको 'मुस्तुतिव्यमन' लिखनेके लिये समर्थ हो सके हों। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश इन ग्रंथों में जिस स्तोत्र प्रणालीसे तत्त्वज्ञान भरा गया है और कठिनसे कठिन तात्विक विवेचनोंको योग्य स्थान दिया गया है वह समंतभद्रसे पहले के ग्रंथों में प्रायः नहीं पाई जाती अथवा बहुत ही कम उपलब्ध होती है । समंतभद्रने, अपने स्तुतिग्रंथोंके द्वारा, स्तुतिविद्याका खास तौरसे उद्धार तथा संस्कार किया है और इसी लिये वे 'स्तुतिकार' कहलाते थे । उन्हें 'आद्य स्तुतिकार' होनेका भी गौरव प्राप्त था । श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रधान आचार्य श्रीहेमचंद्रने भी अपने 'सिद्ध है मशब्दानुशासन' व्याकरणके द्वितीय-मूत्रकी व्याख्या में "स्तुतिकारोऽप्याह" इस वाक्यके द्वारा आपको 'स्तुतिकार' लिखा है और साथ ही आपके 'स्वयंभू स्तोत्र' का निम्न पद्य उद्धृत किया है नयास्तव स्यात्पदलाञ्छना। इमे रसोपविद्धा इव लोहधातवः । भवन्त्यभिप्रेत फलां यतस्ततो भवन्तमार्या प्रणता हितैषिणः || * इसी पद्यको श्वेताम्बराग्रणी श्रीमलयगिरिमुनिं भी, अपनी आवश्यकमूत्र' की टीका, स्तुतिकारोऽप्याह इस परिचय - वाक्यके साथ उद्धृत किया है, और इस तरह पर समन्तभद्रको 'आद्यस्तुतिकार' - सबमे प्रथम अथवा सबमे श्रेष्ठ स्तुतिकार - सूचित किया है । इन उल्लेखवाक्योंसे यह भी पाया जाना है कि समन्तभद्र की स्तुतिकार' रूपमे भी बहुत अधिक प्रसिद्धि थी और इसीलिये 'स्तुतिकार' के साथमे उनका नाम देनेकी शायद कोई जरूरत नही समझी गई । समन्तभद्र इस स्तुतिरचनाके इतने प्रेमी क्यों थ और उन्होंने क्यों इस मार्गको अधिक पसंद किया, इसका साधारण कारण यद्यपि, उनका भक्ति- उठेक अथवा भक्तिविशेष हो सकता है; परन्तु यहाँ पर में उन्ही शब्द में दस विषय tat सनातन जैनग्रंथमाला में प्रकाशित 'स्वयभृस्तोत्र में और स्वयंभूस्तोत्रकी प्रभाचंद्राचार्यविरचित संस्कृतटीका 'लांचनामे की जगह सत्यनाञ्छिताः' और 'फला:' की जगह 'गुरणा:' पाठ पाया जाता है । -- * इस पर मुनि जिनविजयजी अपने 'साहित्यसंशोधक' के प्रथम प्रक लिखते है - "इस उल्लेख से स्पष्ट जाना जाता है कि ये ( समन्तभद्र ) प्रसिद्ध स्तुतिकार माने जाते थे, इतना ही नहीं परन्तु प्राद्य - सबसे पहले होनेवाले - -स्तुतिकारका मान प्राप्त थे ।" Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्र २०३ को कुछ और भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि समन्तभद्रका इन स्तुति स्तोत्रोंके विषय में क्या भाव था और वे उन्हें किस महत्त्वकी दृष्टिसे देखते थे । आप अपने 'स्वयं स्तोत्र' में लिखते हैं स्तुतिः स्तोतुः साधोः कुशल परिणामाय स तदा भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः । किमेवं स्वाधीन्याज्जगति सुलभे श्रायमपथे स्तुयान्न त्या विद्वान्सततमभिपूज्यं नमिजिनम् ||११६ || अर्थात् - स्तुति के समय और स्थानपर स्तुत्य चाहे मौजूद हो या न हो श्रीर फलकी प्राप्ति भी चाहे सोधी उसके द्वारा होती हो या न होती हो, परन्तु साधु स्तोताकी स्तुति कुशलपरिणामको पुण्यप्रसाधक परिणामोंकी- --कारण जरूर होती है, और वह कुशलपरिणाम अथवा तज्जन्य पुण्यविशेष श्रेय फलका दाता है । जब जगतमें इस तरह स्वाधीनतामे श्रेयोमार्ग सुलभ है- अपनी स्तुतिके द्वारा प्राप्त है तब, हे सर्वदा प्रभिपूज्य नमिजिन ! ऐसा कौन परीक्षापूर्वकारी विद्वान् अथवा विवेकी होगा जो आपकी स्तुति न करेगा ? जरूर करेगा । इससे स्पष्ट है कि समनभद्र इन ग्रहस्तोत्र के द्वारा श्रेयोमार्गको सुलभ और स्वाधीन मानते थे, उन्होंने इन्हें 'जन्मारण्यशिखी' + - जन्ममरणरूपी संमारवनको भस्म करनेवाली अग्नि- तक लिखा है और ये उनकी उस निःश्रेयस -- मुक्तिप्रातिविषयक - भावना के पोषक थे जिसमे वे सदा सावधान रहते थे। इसी लिये उन्होंने इन 'जिन स्तुनियों को अपना व्यसन बनाया था उनका उपयोग प्रायः ऐसे ही शुभ कामोंमें लगा रहता था। यही वजह थी कि संसारमें उनकी उन्नतिका - उनकी महिमाका- कोई बाधक नहीं था, वह नाशरहित थी । 'जिनस्तुतिशतक' के निम्नवाक्यम भी ऐसा ही ध्वनित होता है. -- 'वन्दीभूतवतोऽपिनोन्नतिहतिर्नन्तुश्च येषां मुदा । + 'जन्मारण्यशिखी स्तवः' ऐसा 'जिनस्तुतिशतक' में लिखा है । + "येषां नन्तुः (स्तोतुः ) मुदा ( हर्पेगा ) वन्दीभूतवतोऽपि ( मंगलपाठकी भूतवनोऽपि नग्नाचार्यरूपेण भवतोपि मम ) नोन्नतिहति: ( न उन्नतेः माहात्म्यस्य हतिः हनन ) " इति तट्टीकायां वसुनन्दी | * यह पूरा पद्य इस प्रकार हैं- Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश इसी ग्रन्थमें एक श्लोक निम्न प्रकारसे भी पाया जाता है रुचं बिभर्ति ना धीरं नाथातिस्पष्टवेदनः । वचस्ते भजनात्सारं यथायः स्पशवेदिनः ।। ६०॥ इसमें, थोड़े ही शब्दों-द्वारा, अर्हद्भक्तिका अच्छा माहात्म्य प्रदर्शित किया है-यह बतलाया है कि 'हे नाथ, जिस प्रकार लोहा स्पर्शमणि (पारस पाषाण) का सेवन (स्पर्शन) करनेसे सोना बन जाता है और उसमें तेज अजाता है उसी प्रकार यह मनुष्य आपकी सेवा करनेमे अति स्पष्ट ( विशद ) ज्ञानी होता हुआ तेजको धारण करता है और उसका वचन भी मारभूत तथा गम्भीर हो जाता है।' मालूम होता है समन्तभद्र अपनी इस प्रकारकी श्रद्धाके कारण ही अर्हद्भक्ति में सदा लीन रहते थे और यह उनकी इस भकिका ही परिणाम था जो वे इतने अधिक ज्ञानी तथा तेजस्वी हो गये हैं और उनके वचन अद्वितीय तथा अपूर्व माहात्म्यको लिये हुए थे। समन्तभद्रका भक्तिमार्ग उनके स्तुतिग्रन्थोंके गहरे अध्ययनमे बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता है । वाम्नवमें ममन्तभद्र ज्ञानयोग, कर्मयोग प्रोर भक्तियोग तीनोंकी एक मूर्ति बने हए थे.--इनमेंमे किसी एक ही योग वे एकान्न पक्षपाती नही थे-निरी एकान्तता तो उनके पास भी नहीं फटकती थी । वे मवंथा एकान्तवादके मान विरोधी थे और उसे वस्ततत्त्व नही मानते थे। उन्होंने जिन खास कारगोसे अर्हन्तदेवको अपनी प्रतिक योग्य समझा और उन्हें अपनी म्नुनि जन्मारण्यगिखी स्तवः स्मृतिमि कलेशाम्बुधेनाः पदे भनानां परमो निधी प्रतिकृति: सर्वार्थसिद्धि: पग। वन्दीभतवनोपि नोग्ननिहनिनन्तश्च येषा मुदा दातारो जयिनो भवन्तु वरदा देवश्वगम्ते सदा । ११५।। * जो एकान्तता नयोंके निरपेक्ष व्यवहारको लिये हुए होती है उमे निरी' अथवा 'मिथ्या एकान्लता कहते है । ममन्नभद्र इस मिथ्य कामनामे हिन थे, इसीसे 'देवागम' में एक प्रापतिका निरसन करते हुए, उन्होंने लिखा है "न मिध्यकान्ततास्ति नः ।" Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्र २०५ का विषय बनाया है उनमें, उनके द्वारा, एकान्तदृष्टिके प्रतिषेधकी सिद्धि भी एक कारण है । अर्हन्तदेवने अपने न्यायवारणोंसे एकान्त दृष्टिका निषेध किया है अथवा उसके प्रतिषेधको सिद्ध किया है और मोहरूपी शत्रुको नष्ट करके वे कैवल्य विभूतिके मम्राट् बने हैं, इसीलिये समन्तभद्र उन्हें लक्ष्य करके कहते हैं कि 'आप मेरी स्तुति योग्य हैं - पात्र है' । यथा एकान्तदृष्टिप्रतिषेधसिद्धि-न्यायेषुभिर्मार्हरिपु निरस्य । श्रमि स्म कैवल्यविभूतिसम्राट तनस्वमर्हन्नसि वे स्तवाहः ||२५|| - स्वयंभू स्तोत्र इससे ममन्तभद्रकी माफ़ तौरपर परीक्षाप्रधानता पाई जाती है और साथ ही यह मालूम होता है कि (१) एकान्नदृष्टिका प्रतिषेध करना और (२) मोहशत्रुका नाश करके कैवल्य विभूतिका सम्राट् होना ये दो उनके जीवन के खाम उद्देश्य थे । समन्तभद्र अपने इन उद्देश्योंको पूरा करनेमें बहुत कुछ सफल हुए है । यद्यपि प्रपने इस जन्ममं केवल्यविभूतिके सम्राट नहीं हो सके परन्तु उन्होंने वैसा होनेके लिये प्राय सम्पूर्ण योग्यताओंका सम्पादन कर लिया है, यह कुछ कम सफलता नहीं है और इसीलिये वे आगामीको उस विभूतिके सम्राट होंगे — नीथंकर होंगे - जैसा कि ऊपर प्रकट किया जा चुका है । केवलज्ञान न होने पर भी, समन्तभद्र उस स्याद्वादविद्याकी अनुपम विभूतिमे विभूषित थे जिसे केवलज्ञानकी तरह सर्वतत्वोकी प्रकाशित करनेवाली लिखा है और जिसमें तथा केवलज्ञानमें साक्षात् प्रमाधानूका ही भेद माना गया है । इसलिये प्रयोजनीय पदार्थोंके सम्बन्धमे आपका ज्ञान बहुत बहा चढ़ा था, इसमें जरा भी सन्देह नहीं है, और इसका अनुभव ऊपर के कितने ही अवतरली तथा समन्तमद्रकं ग्रन्थोंसे बहुत कुछ हो जाता है। यही वजह है कि श्रीजिनखेवाचार्यने आपके वचनोंको केवली भगवान महावीरके वचनोंके तुल्य प्रकाशमान लिखा है और दूसरे भी कितने ही प्रधान प्रधान ग्राचार्यों तथा विद्वानोंने प्रापकी - स्याद्रादकेवलज्ञानं सर्वतत्त्वप्रकाशनं 1 भेद: साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यतम भवेत् ॥ १०५ ॥ - प्रासमीमांसा | यथा Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश विद्या और वाणीको प्रशंसामें खुला गान किया है +। .. यहाँ तकके इस संपूर्ण परिचयसे यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है और इसमें जरा भी संदेह नहीं रहता कि समन्तभद्र एक बहुत ही बड़े महात्मा थे, समर्थ विद्वान् थे, प्रभावशाली प्राचार्य थे, महा मुनिराज थे, स्याद्वादविद्याके नायक थे, एकांत पक्षके निर्मूलक थे, अबाधितशक्ति थे, 'सातिशय योगी' थे, सातिशय वादी थे, सातिशय वाग्मी थे, श्रेष्ठकवि थे, उत्तम गमक थे, मद्गुरगोंकी मूर्ति थे, प्रशांत थे, गंभीर थे, भद्रप्रयोजन और मदुश्यके धारक थे, हितमितभाषी थे, लोकहितैपी थे, विश्वप्रेमी थे, परहितनिरत थे, मुनिजनोमे वंद्य थे, बड़े बड़े प्राचार्यों तथा विद्वानोंसे स्तुत्य थे और जैन शासनके अनुपम द्योतक थे, प्रभावक थे और प्रसारक थे। ऐसे मातिशय पूज्य महामान्य और मदा स्मरगा रखने योग्य भगवान् समंतभद्र स्वामीके विषयमें श्रीशिवकोटि प्राचार्यने, अपनी 'रत्नमाला' में जो यह भावना की है कि वे निप्पार स्वामी ममतभद्र मे हृदय में रात दिन तिष्टी जो जिनराजके ऊँचे उठते हुए शासनममुद्रको बढाने के लिये चंद्रमा है' वह बहुत ही युक्तियुक्त है और मुझे बड़ी प्यारी मालूम देती है। निःसन्देह स्वामी ममतभद्र इसी योग्य है कि उन्हे निरन्तर अपने हृदयमंदिरमे विगममान किया जाय, और इम लिये मैं शिवकोटि प्राचार्यकी दम भावनाका हृदय में अभिनंदन और अनुमोदन करते हुए, उसे यहां पर उद्धृत करता हूं स्वामी समन्तभद्रा मेऽहर्निशं मानमेऽनघः । निष्ठताजिनराजोदयच्छासनाम्बुधिचंद्रमाः ॥५॥ + श्वेताम्बर माधु मुनिश्री जिनविजयजी कुछ थोड़े प्रशंमा - वाक्योक आधार पर ही लिखते हैं-"इतना गौरव शायद ही अन्य किमी प्राचायंका किया गया हो।" जनमाहित्यमंशोधक १ । ___ श्रीविद्यानंदाचार्यने भी अष्टमहस्रीम कई बार इस विशेषणा के साथ आपका उल्लेख किया है। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका मुनि-जीवन और आपत्काल श्रीअलंकदेव, विद्यानंद और जिनसेन-जैसे महान् प्राचार्यों तथा दूसरे भी अनेक प्रसिद्ध मुनियों और विद्वानोंक द्वारा किये गये जिनके उदार स्मरणों एवं प्रभावशाली स्तवनों-सकीर्तनोंको पाठक इससे पहले प्रानंदके साथ पढ़ चुके हैं और उन परसे जिन प्राचार्य महोदयकी असाधारण विद्वत्ता, योग्यता, लोक सेवा और प्रतिष्ठादिका कितना ही परिचय प्राप्त कर चुके हैं, उन स्वामी समंत: भद्रके बाधारहित और शान्त मुनि जीवन में एक बार कटिन विपत्तिकी भी एक बड़ी भारी लहर पाई है, जिसे आपका 'आपत्काल' कहते हैं। वह विपनि क्या थी और समंतभद्रनं उमे कैसे पार किया, यह सब एक बड़ा ही हृदय-द्रावक विषय है। नीचे उमीका, उनके मुनिजीवनकी झांकी महित, कुछ परिचय और विचार पाठकोंक मामने उपस्थित किया जाता है। मुनि जीवन ममन्तभद्र, अपनी मुनिचर्या के अनुसार, हिमा, मन्य. अग्नेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह नामके पचमहावनोंका यथेष्ट गतिमे पालन करते थे, ईर्या-भाषापपगादि पचमिनियोके परिपालन-दाग उन्हे निरन्तर पृष्ट बनाते थे, पाँचों इंद्रियोक निग्रहम मदा तत्पर, मनोगुप्ति आदि तीनों गुमियोके पालनमे धीर और सामायिकादि पडावश्यक क्रियायोके अनुष्ठानमें सदा मावधान रहते थे। वे पूर्ण अस्मिावतका पालन करते हा. कपायभावको लेकर किमी भी जीवको अपने मन, वचन या कायमे पीडा पहुँचाना नहीं चाहते थे। इम बातका सदा यत्न रखते थे कि किमी प्राणीको उनके प्रमादवरा बाधा न पहुँच जाय, इसीलिये वे दिनमें मार्ग शोधकर चलते थे, चलते ममय दृष्टिको इधर उधर नहीं भ्रमाते थे, रात्रिको गमनागमन नहीं करते थे, और इतने साधनसंपन्न थे कि मोते समय एकामनगे रहते थे----यह नहीं होता था कि निद्राऽवस्थामें एक कर्वटसे दूसरी कर्वट बदन जाय और उसके द्वारा किमी जीवजंतुको बाधा पहेच जाय. वे पीछी पुस्तकादिक किमी भी वस्तुको देख भाल कर उठाते-धरते थे और मलमूत्रादिक भी प्रासुक भूमि तथा बाधारहित एकांत स्थानमें क्षेपण करते थे । इसके सिवाय, उनपर यदि कोई प्रहार करता तो वे उसे नहीं रोकते थे, उसके प्रति दुर्भाव भी Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश नहीं रखते थे, जंगलमें यदि हिंस्र जंतु भी उन्हें सताते अथवा डंसमशकादिक उनके शरीरका रक्त पीते थे तो वे बलपूर्वक उनका निवारण नहीं करते थे, और न ध्यानावस्था में अपने शरीरपर होने वाले चीटी आदि जंतुनोंके स्वच्छंद विहारको ही रोकते थे । वे इन सब अथवा इसी प्रकारके और भी कितने ही उपसर्गों तथा परीषहोंको साम्यभावसे सहन करते थे और अपने ही कर्मविपाकका चिन्तन कर सदा धैर्य धारण करते थे— दूसरोंको उसमें जरा भी दोष नहीं देते थे । वर्ष । समंतभद्र सत्यके बड़े प्रेमी थे, वे सदा यथार्थ भाषण करते थे, इतना ही नहीं बल्कि, प्रमत्तयोग से प्रेरित होकर कभी दूसरोंको पीड़ा पहुँचानेवाला सावद्य वचन भी मुहसे नही निकालने थे, और कितनी ही बार मौन धारण करना भी श्रेष्ठ समझते थे । स्त्रियोंके प्रति आपका अनादरभाव न होते हुए भी आप कभी उन्हें रागभावसे नही देखते थे, बल्कि माता, बहिन और सुताकी तरह ही पहचानते थे । साथ ही, मैथुनकर्मसे, घृणात्मक दृष्टिके साथ, आपकी पूर्ण विरक्ति रहती थी, और आप उसमें द्रव्य तथा भाव दोनों प्रकारको हिसाका सद्भाव मानते थे । इसके सिवाय, प्राणियोंकी ग्रहिसाको आप 'परमब्रह्म' समझते थे और जिस श्राश्रमविधिमें श्रणुमात्र भी प्रारंभ न होता हो उसीके द्वारा उस हिसाकी पूर्णसिद्धि मानते थे। उसी पूर्ण हिसा और उसी परमब्रह्मकी सिद्धि के लिए आपने अंतरंग और बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रहांका * आपकी इस घृणात्मक दृष्टिका भाव 'ब्रह्मचारी' के निम्न लक्षण भी पाया जाता है, जिसे ग्रामने 'रत्नकरड' में दिया है मलवीज मलयोनि गलन्मलं पूति गंधि वीभत्सं । पश्यन्तं गमनं गाद्रिरमनि यो ब्रह्मचारी स ॥ १८३॥ हिमा भूताना जगति विदितं ब्रह्म परम, न मात्राभस्त्गुरपि न यत्राश्रमविधी | ततस्तत्सद्धयर्थ परमकरुणां ग्रन्थमुभयं भवानेवात्याक्षीन्न च विकृतपपरितः ॥ ११६ ॥ -स्वयंभूरतोत्र । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल २०६ मुनिपदके विरुद्ध समझते थे । त्याग किया था श्रीर नैग्रंथ्य - प्राश्रममें प्रविष्ट होकर अपना प्राकृतिक दिगम्बर वेष धारण किया था। इसीलिये श्राप अपने पास कोई कौड़ी पैसा नहीं रखते थे, बल्कि कौड़ी - पैसे से सम्बन्ध रखना भी अपने पके पास शौचोपकरण ( कमंडलु ), संयमोपकरण (पीछी) श्रीर ज्ञानोपकरण ( पुस्तकादिक) के रूपमें जो कुछ थोड़ीमी उपधि थी उसमे भी श्रापका ममत्व नहीं था — भले ही उसे कोई उठा ले जाय, आपको इसकी जरा भी चिन्ता नहीं थी । आप सदा भूमिपर शयन करते थे और अपने शरीरको कभी संस्कारित अथवा मंडित नही करते थे, यदि पसीना आकर उस पर मैल जम जाना था तो उसे स्वयं अपने हाथमे धोकर दूसरोंको अपना उजलारूप दिखानेकी भी कभी कोई चेष्टा नहीं करते थे बल्कि उस मलजनित परीपहको साम्यभाव जीतकर कर्ममलको धोनेका यत्न करते थे, और इसी प्रकार नग्न रहते तथा दूसरी सरदी गरमी प्रादिकी परीषहोंको भी खुशीखुशीने महन करते थे । इससे आपने अपने एक परिचय में गौरव के साथ अपने आपको 'नग्नाटक' और 'मन्नमलिननन्' भी प्रकट किया है। * समंतभद्र दिनमें सिर्फ एक बार भोजन करने थे, रात्रिको कभी भोजन नहीं करते थे, और भोजन भी आगमोदित विधिके अनुसार शुद्ध, प्रामुक तथा निर्दोष ही लेते थे । वे अपने उस भोजनके लिये किसter freeगा स्वीकार नहीं करने थे, किसीको किमी रूपमें भी अपना भोजन करने-कराने के लिये प्रेरित नहीं करते थे, और यदि उन्हें यह मालूम हो जाता था कि किसीने उनके उद्देश्यगे कोई भोजन तय्यार किया है अथवा किसी दूसरे अतिथि ( मेहमान ) के लिये तय्यार किया हुआ भोजन उन्हें दिया जाता है तो वे उस भोजनको नहीं लेने थे । उन्हें उसके में मावद्यकर्मके भागी होनेका दीप मालूम पड़ता था और कसे वे सदा अपने आपको मन-वचन-काय तथा कृत-कारिन अनुमोदनद्वारा दूर रखना चाहते थे । वे उसी शुद्ध भोजनको अपने लिये कल्पित श्रीर शास्त्रानुमोदित समते थे जिसे दातारने स्वयं अपने अथवा अपने कुटुम्बके लिये * 'कांच्यां नग्नाटको मलमलिनतनुः इत्यादि पद्य में । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश ही तय्यार किया हो, जो देनेके स्थान पर उनके मानेसे पहले ही मौजूद हो और जिसमेंसे दातार कुछ अंश उन्हें भक्तिपूर्वक भेंट करके शेषमें स्वयं संतुष्ट रहना चाहता हो - उसे अपने भोजनके लिये फिर दोबारा आरंभ करनेकी कोई जरूरत न हो । आप भ्रामरी वृत्तिसे, दातारको कुछ भी बाधा न पहुँचाते हुए, भोजन लिया करते थे । भोजनके समय यदि श्रागमकथित दोषोंमेंसे उन्हें कोई भी दोप मालूम पड़ जाता था अथवा कोई अन्तराय सामने उपस्थित हो जाता था तो वे खुशीसे उसी दम भोजनको छोड़ देते थे और इस अलाभके कारण चित्तपर ज़रा भी मैल नहीं लाते थे । इसके सिवाय, श्रापका भोजन परिमित और सकाररण होता था । श्रागममें मुनियोंके लिये ३२ ग्राम तक भोजनकी ग्राज्ञा है परंतु आप उसमे अक्सर दो चार दस ग्राम कम ही भोजन लेते थे, और जब यह देखते थे कि बिना भोजन किये भी चल सकता है— नित्यनियमोंके पालन तथा धार्मिक अनुष्ठानोंके सम्पादन मे कोई विशेष बाधा नही आती तो कई कई दिनके लिए आहारका त्याग करके उपवास भी धारण कर लेते थे; अपनी शक्तिको जांचने और उसे बढ़ानेके लिये भी आप अक्सर उपवास किया करते थे, ऊनोदर रखते थे, अनेक रसोंका त्याग कर देते थे और कभी कभी ऐसे कठिन तथा गुप्त नियम भी ले लेते थे जिनकी स्वाभाविक पूर्तिपर ही ग्रापका भोजन ग्रवलम्बित रहता था । वास्तवमे, समंतभद्र भोजनको इस जीवनयात्राका एक माधनमात्र समझते थे । उसे अपने ज्ञान, ध्यान और संयमादिकी सिद्धि वृद्धि तथा स्थितिका सहायकमात्र मानते थे और इसी दृष्टिसे उसको ग्रहण करते थे । किमी शारीरिक बलको बढ़ाना, शरीरको पुष्ट बनाना अथवा तेजोवृद्धि करना उन्हें उसके द्वारा इष्ट नहीं था । वे स्वादके लिये भी भोजन नहीं करते थे. यही वजह है कि आप भोजनके ग्रामको प्राय विना चबाये ही बिना उसका रसास्वादन किये ही - निगल जाते थे । ग्राप समझते थे कि जो भोजन केवल देहस्थितिको कायम रखने के उद्देश किया जाय उसके लिये रसास्वादनकी जरूरत ही नहीं है, उसे तो उदरस्थ कर लेने मात्रकी जरूरत है। साथ ही, उनका यह विश्वास था कि रसास्वादन करनेसे इन्द्रियविषय पुष्ट होता है, इन्द्रियविपयाके सेवन मे कभी सच्ची शांति नहीं मिलती, उल्टी तृष्णा वह जाती है, तृष्णारोगकी वृद्धि निरंतर ताप उत्पन्न करती है और उस ताप अथवा दाहके कारण यह जीव Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका मुनिजीवन और श्रापत्काल २११ संसार में अनेक प्रकारकी दुःखपरम्परासे पीड़ित होता है, इसलिये वे क्षणिक सुखके लिये कभी इन्द्रियविषयोंको पुष्ट नही करते थे--क्षणिक सुखोंकी अभिलाषा करना ही वे परीक्षावानोंके लिये एक कलंक और अधर्मकी बात समझते थे । आपकी यह खास धारणा थी कि, आत्यन्तिकस्वास्थ्य - अविनाशी स्वात्मस्थिति अथवा कर्मविमुक्त-अनंतज्ञानादिमय अवस्थाकी प्राप्ति - ही पुरुषोंका - इस जीवात्माका --- स्वार्थ है स्वप्रयोजन है, क्षणभंगुर भोग-क्षरणस्थायी विषयसुखानुभवन- - उनका स्वार्थ नहीं है; क्योंकि तृपानुषंगसे - भोगों की उत्तरोत्तर आकांक्षा बढ़नेसे - शारीरिक और मानसिक दुःखोंकी कभी शांति नहीं होती । वे समझते थे कि, यह शरीर 'प्रजंगम' है - बुद्धिपूर्वक परिस्पंदव्यापाररहित है और एक यत्रकी तरह चैतन्य पुरुषके द्वारा स्वव्यापार में प्रवृत्त किया जाता है; साथ ही, 'मलबीज' है— मलमे उत्पन्न हुआ है; मलयोनि है - मलकी उत्पत्ति का स्थान है; 'गलन्मल' है—मल ही इससे भरता है, 'पूर्ति' है -- दुर्गन्धियुक्त है; 'बीभत्स' है - घुणात्मक है; 'क्षयि' है--नाशवान् हैऔर 'ताप' है - ग्रात्माके दुःखोंका कारण है । इस लिये वे इस गरीरमे संह रखने तथा अनुराग बढानेको अच्छा नहीं समझते थे उसे व्यर्थ मानते थे, और इस प्रकारकी मान्यता तथा परिणतिको ही ग्रात्महित स्वीकार करते थे । अपनी ऐसी ही विचारपरिगति के कारण समंतभद्र शरीर से बड़े ही निस्पृह और शतदोत्पलं हि सौख्यं तृष्णामयाप्यायनमात्रतुः । तृष्णाभिवृद्धि तपत्यजस्रं तापस्तदायामयतीत्यवादी ||१३|| -स्वयमुन्तोत्र । * स्वास्थ्यं यदात्यन्तिकमेव मा, स्वार्थो न भोग: परिभंगुरात्मा । तृषानुषंगान्न च तापशान्तिरितीदमाख्यद्भगवान्सुपा ॥३६॥ प्रजंगमं जगमनेययंत्र यथा तथा जीवधृतं शरीरं । बीभत्सु पूर्ति क्षयि तापक च स्नेहो वृथायेति हि त्वमाख्य ।।३२।। —स्वयंभूस्तोत्र | मलबीज मलयोति गलन्मलं पूर्ति गन्धि बीभत्सं । पश्यन्नगम् रत्नकरण्ड Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश निर्ममत्व रहते थे- उन्हें भोगोंसे जरा भी रुचि अथवा प्रीति नहीं थी - ; वे इस शरीरसे अपना कुछ पारमार्थिक काम निकालनेके लिये ही उसे थोडासा शुद्ध भोजन देते थे और इस बातकी कोई पर्वाह नहीं करते थे कि वह भोजन रूखाचिकना, ठंडा-गरम, हल्का भारी, कटुआ-कपायला आदि कैसा है । इस लघु भोज नके बदले में समन्तभद्र अपने शरीरमे यथाशक्ति खूब काम लेते थे, घंटों तक कायोत्सर्ग में स्थिर होजाते थे, आनापनादि योग धारण करते थे, और आध्यात्मिक तपकी वृद्धिके लिये +, अपनी शक्तिको न छिपाकर, दूसरे भी कितने ही अनशनादि उम्र उग्र बाह्य तपश्चरणोंका अनुष्ठान किया करते थे । इसके मित्राय, नित्य ही आपका बहुतसा समय मामायिक, स्तुतिपाठ, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, समाधि, भावना, धर्मोपदेश, ग्रन्थरचना और परहितप्रतिपादनादि कितने ही धर्मकार्योंमें खर्च होता था । ग्राप अपने समयको जरा भी धर्म मानारहित व्यर्थ नहीं जाने देते थे । आपत्काल इस तरहपर, बड़े ही प्रमके साथ मुनिधर्मका पालन करने हुए, स्वामी रामन्तभद्र जब 'मरगुवकहली ' * ग्राम में धर्मध्यानमहित ग्रानन्दपूर्वक अपना मुनि जीवन व्यतीत कर रहे थे और अनेक दुर्द्धर तपश्चरणोंके द्वारा ग्रात्मोन्नति के पथ अग्रेसर हो रहे थे तब एकाएक पूर्वमंत्रित ग्रमातावेदनीय कर्मके तीव्र उदयमें आपके शरीरमें 'भस्मक' नामका एक महारोग उत्पन्न होगया है । इस रोगकी उत्पतिमे बाह्य तपः परमदुश्चरमारस्त्वमाध्यत्मिकम्यतपसः परिचहरणार्थम् ॥८२ —स्वयभूस्तोत्र | * ग्रामका यह नाम राजावलीकथे में दिया है। यह काबी' के पासपासका कोई गाँव जान पड़ता हैं 1 + ब्रह्मदत्त भी अपने 'प्राराधनाकथाकोष' में, समन्तभद्रकथा के अन्नंगन, ऐसा ही सूचित करते हैं। यथा दुर्द्धरानेकचारित्ररत्नरत्नाकरो महान् । यावदास्ते सुख धीरस्तावत्तत्कायकेऽभवत् ||४|| सट्टे महाकर्मोदयाद्दु :खदायकः । arenger: कष्टं भस्मकव्याधिसंज्ञकः ।। ५ ।। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका मुनिजीवन और प्राएकाल २१३ से यह स्पष्ट है कि समन्तभद्रके शरीर में उस समय कफ क्षीण होगया था और वायु तथा पित्त दोनों बढ़ गये थे; क्योंकि कफके श्रीगा होने पर जब पित्त, वायुके साथ बढ़कर कुपित हो जाता है तब वह अपनी गर्मी और तेजी से जठराग्निको अत्यन्त प्रदीस, बलाढ्य और तीक्ष्ण कर देता है और वह अग्नि, अपनी तीक्ष्णनामे, विरूक्ष शरीर में पड़े हुए भोजनका निरस्कार करती हुई उसे क्षरणमात्रमें भस्म कर देती है । जठराग्निकी इस अत्यन्त तीक्ष्णावस्थाकी ही 'भस्मक' रोग कहते हैं । यह रोग उपेक्षा किये जाने पर अर्थात् गुरु, स्निग्ध शीतल मधुर और श्लेष्मल ग्रनपानका यथेष्ठ परिमागमे प्रथवा तृप्तिपर्यन्त सेवन न करने पर - शरीर के रक्तमांसादि धातुम्रोको भी भस्म कर देता है, महादोवंल्य उत्पन्न कर देता है, तृषा, स्वेद, दाह तथा मूच्र्छादिक अनेक उपद्रव खड़े कर देता है और अन्तमें रोगीको मृत्युमुखमे हो स्थापित करके छोड़ना है । इस रोगके श्राक्रमण पर समन्तभद्रने शुरूशुरू में उनकी कुछ पर्वाह नहीं की । वे स्वेच्छापूर्वक धारण किये हुए उपवासों तथा अनशनादि तपकि ग्रवसरपर जिस * "कट्वादिक्षान्त्रभुजां नराणा क्षीणे कके मास्तरवृद्धी । श्रतिप्रवृद्ध. पवनान्वितोऽग्निर्भुक्त क्षणाद्भस्मकरोति यस्मात् । तस्मादमी भस्मकमज्ञको भूदुपेक्षितायं पचने च धान्नु ।' -- इति भावप्रकाशः । "नरे क्षीणक के पित्त कुपित मारुतानुगम् । स्वोष्मणा पावकस्थानं बलमग्नेः प्रयच्छति ॥ तथा लब्धलो देहे विरूक्षं साऽनिलोऽनलः । परिभूय पचत्यन्न तैक्ष्ण्यादा मुहं मुहुः ॥ पक्वान्नं सततं धानुन् मणितादीन्पचत्यपि । ततो दौर्बल्यमानकान् मृत्यु चोपनयेन्नरं ॥ भुक्तेऽन्ने लभते शांति जीगांमात्र प्रताम्यति । तृस्वेदामूच्र्छाः स्युर्व्याधयोज्यग्निसंभवाः ॥ ' " तमेत्यग्नि गुरुस्निग्धशीतमघुरविज्वलः । अन्नपानैर्नयेच्छान्ति दीप्तमग्निमिवाम्बुभिः ॥ " - इति चरकः । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ जैनसाहित्य और इतहासपर विशद प्रकाश प्रकार क्षुधापरीषहको सहा करते थे उसी प्रकार उन्होंने इस अवसर पर भी, पूर्व अभ्यासके बलपर, उसे सह लिया। परन्तु इस क्षुधा और उस क्षुधामें बड़ा अन्तर था; वे इस बढ़ती हुई क्षुधाके कारण, कुछ ही दिन बाद, असह्य वेदनाका अनुभव करने लगे; पहले भोजनसे घंटोंके बाद नियत समय पर भूखका कुछ उदय होता था और उस समय उपयोगके दूसरी ओर लगे रहने प्रादिके कारण यदि भोजन नही किया जाता था तो वह भूख मर जाती थी और फिर घंटों तक उमका पता नहीं रहता था; परन्तु अब भोजनको किये हुए देर नहीं होती थी कि क्षुधा फिरसे या धमकनी थी और भोजनके न मिलनेपर जठराग्नि अपने प्रामपामके रक्त मांसको ही ग्वीच म्वीचकर भम्म करना प्रारम्भ कर देती थी। ममन्तभद्रको इममें बड़ी वेदना होती थी, क्षुधाके समान दूसरी शरीर वेदना है भी नहीं; कहा भी गया है 'तुधासमा नास्ति शरीरवेदना ।" इस तीव क्षुधावेदनाके अवसरपर किमीमे भोजनकी याचना करना, दोबारा भोजन करना अथवा रोगीपमानिके लिये किमीको अपने वारने प्रच्छे स्निग्ध, मधुर, गीतल, गरठ पार करकारी भोजनोके नय्यार करनकी प्रेरणा करना, यह सब उनके मुनियमके विरुद्ध था। इसलिये ममन्तभद्र, वमनस्थितिका विचार करते हए, उस समय अनेक उनमोनम भावनानांवा चिन्तवन करने थे और अपने ग्रात्माको सम्बोधन करके कहने थे-'हे. ग्रामन, तुन अनादिकालग इम संसार में परिभ्रमण करने हा अनेक बार नरक पशु प्रादि गनियाम दु.मह क्षुधावेदनाको महा है, उसके ग्रागे तो यह नेरी क्षुधा कुछ भी नही है । तुझे इतनी नीव क्षुधा रह चुकी है जो तीन लोकका अन्न म्बाजान पर भी उपगम न हो, परन्तु एक कगा बाने को नहीं मिला। ये मब कर तून पगधीन होकर सहे हैं और इसलिए उनमे कोई लाभ नहीं होमका, अब तू स्वाधीन होकर इस वेदनाको सहन कर। यह मब नरे ही पूर्वकमका दविपाक है । माम्यभावमे वेदनाको मह लेने पर कर्म की निजंग हो जायगी, नवीन कम नहीं बंधेगा और न ागेको फिर कभी गमे दुःखोको उठाने का अवसर ही प्राप्त होगा।' इस तरह पर समन्तभद्र अपने गाम्यभावको हुनु रखते थे और कायादि दुर्भावोंको उत्पन्न होनेका अवमर नहीं देते थे। इसके सिवाय, वे इस शरीरको Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल २१५ कुछ अधिक भोजन प्राप्त कराने तथा शारीरिक शक्तिको विशेष क्षीण न होने देनेके लिये जो कुछ कर मकते थे वह इतना ही था कि जिन अनशनादि बाह्य तथा घोर तपश्चरग्गोंको वे कर रहे थे और जिनका अनुष्ठान उनकी नित्यकी इच्छा तथा शक्तिपर निर्भर था- मूलगुगोंकी तरह लाज़मी नहीं था-उन्हें वे ढीला अथवा स्थगित कर दें। उन्होंने वैसा ही किया भी-वे अब उपवाम नहीं रखते थे, अनगन, ऊनादर, वृनिपरिमख्यान रमपरित्याग और कायक्लेश नामके बाद्य तपोंके अनुष्ठानको उन्होंने, कुछ कालके लिये, एकदम स्थगित कर दिया था, भोजनके भी वे अब पूरे ३२ ग्राम लेते थे; माथ ही गेगी मुनिके लिये जो कुछ भी रिमायत मिल सकती थी वे भी प्राय: मभी उन्होंने प्राप्त कर ली थी । परन्तु यह मब कुछ होते हुए भी, आपकी क्षुधाको जग भी शाति नहीं मिली, वह दिनपर दिन बढ़ती और नीबगे नीबतर होती जाती थी: जटगनलकी ज्यालाओं तथा पिनकी नीया माने सरीरका रम-रक्तादि दग्ध हा जाता था, ज्वलाप गरीर के अगोपर दुर दर तक धावा कर रही थी, और नित्यका म्वल्प भोजन उनके लिये जग भी पर्याप्त नहीं होता था .. वह एक जाज्वल्यमान अग्निपर थोडेंगे जनक बीटेका ही काम देता था। गके अतिरिक्त 'यदि किमी दिन भोजनका अन्न गय हो जाना था नो योर की ज्यादा गजब हो जाना था--- शुधा गनगी उस दिन और भी ज्यादा तथा निर्दय म्प धारण कर लेनी थी । म नरहार ममनभद्र जिम महावेदनाका अनुभव कर रहे थे उसका पाटर अनुगान भी नहीं कर सकते । मादा त अन्नं अच्छे धीरवीरोंका धैर्य बट जाना है. श्रद्धान भ्रष्ट हो जाता है और ज्ञानगुगण डगमगा जाता है। परन्तु ममलभद्र महामना थे, महात्मा थे. ग्रान्म-देहान्लग्नानी थे संपत्ति - विनिमें ममनिन थे, निमल सम्यग्दर्शन के मानक थे और उनका ज्ञान अदुःखभावित नही था जो दु:खोके आने पर भीगा हो जाय, उन्होंने यथाशनि उा उग्र तपश्चरगोके दाग कष्ट महनका अन्द्रा अभ्यास किया था, वे अानंदपूर्वक कष्टोको महन किया करते थे-उन्हें सहते हुए खेद नहीं मानते प्रदुःख भावितं ज्ञानं क्षीयते दुःखमन्निधौ । तस्माद्यथाबलं दुखरात्मानं भावयेन्मुनिः ॥ --समाधितन्त्र । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ जैनसाहित्य और इतिहसपर विशद प्रकाश थे। और इसलिये, इस संकटके अवसरपर वे जरा भी विचलित तथा धैर्यच्युत नहीं हो सके। समन्तभद्रने जब यह देखा कि रोग शान्त नहीं होता, शरीरकी दुर्बलता बढ़ती जा रही है, और उस दुर्बलताके कारण नित्यकी आवश्यक क्रियानोंमें भी कुछ बाधा पड़ने लगी है। साथ ही, प्यास प्रादिकके भी कुछ उपद्रव शुरू हो गये हैं, तब आपको बड़ी ही चिन्ता पैदा हुई । आप सोचने लगे-"इस मुनि अवस्थामें, जहाँ आगमोदित विधिके अनुसार उद्गम-उत्पादनादि छयालीम दोषों चौदह मलदोषों और बत्तीस अन्तरायोंको टालकर, प्रासुक तथा परिमित भोजन लिया जाता है वहाँ इस भयंकर रोगकी शान्तिके लिये उपयुक्त और पर्याप्त भोजनकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती ॐ । मुनिपदको कायम रखते हुए, यह रोग प्रायः असाध्य अथवा निःप्रतीकार जान पड़ता है; इसलिये या तो मुझे अपने मुनिपदको छोड़ देना चाहिये और या 'सल्लेखना' व्रत धारण करके इस शरीरको धर्मार्थ त्यागनेके लिये तय्यार हो जाना चाहिये; परन्तु मुनिपद कैम छोड़ा जा सकता है ? जिम मुनिधर्म के लिये में अपना सर्वस्व अर्पण कर चुका हैं, जिम मुनिधर्मको मैं बड़े प्रेमके साथ अब तक पालता आ रहा हैं और जो मुनिधर्म मेरे ध्येयका एक मात्र आधार बना हुआ है उसे क्या में छोड दू? जो आत्मा और देहके भद-विज्ञानी होते है ब ऐसे कष्टों को सहते हुए खेद नहीं माना करते, कहा भी है प्रात्मदहान्तरज्ञानजनिताहादनिर्वृतः ।। तपसा दुष्कृतं घोरं भुजानापि न विद्यते ।। -समाधितन्त्र * जो लोग पागममे इन उद्गमादि दापों तथा अन्तरायोंका स्वरूप जानते हैं और जिन्हें पिण्डशुद्धिका अच्छा ज्ञान है उन्हें यह बतलाने की शरूरत नहीं है कि सच जैन साधुनोंको भोजनके लिये वैगे ही कितनी कठिनाइयोंका माम । करना पड़ता है। इन कठिनाइयोंका कारगा दातारों की कोई कमी नहीं है; बल्कि भोजनविधि और निर्दोष भोजनकी जटिलता है। उसका प्रायः एक कारण है-फिर 'भस्मक' जैसे रोगकी शांतिके लिये उपयुक्त मोर पर्याप्त भोजनको तो बात ही दूर है। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल २.१७ क्या क्षुधाकी वेदनासे घबराकर अथवा उससे बचनेके लिये छोड़ दूं ? क्या इन्द्रियविषयनित स्वल्प सुखके लिये उसे बलि दे दूं ? यह नहीं हो सकता । क्या क्षुधादि दुःखोंके इस प्रतिकारसे अथवा इन्द्रियविपयजनित स्वल्प सुखके अनुभव से इस देहकी स्थिति सदा एकसी श्रीर सुखरूप बनी रहेगी ? क्या फिर इस देह में क्षुधादि दुःखों का उदय नही होगा ? क्या मृत्यु नही आएगी ? यदि ऐसा कुछ नहीं है तो फिर इन क्षुधादि दुःखोंके प्रतिकार प्रादिमं गुरण ही क्या हैं ? उनसे इस देह प्रथवा देहीका उपकार ही क्या बन सकता है ? मे दुःखोंसे बचने के लिये कदापि मुनिधर्मको नहीं छोड़गा, भले ही यह देह नष्ट हो जाय, मुझे उसकी चिन्ता नहीं है, मेरा आत्मा अमर है, उसे कोई नाग नहीं कर सकता, मैंने दुःखों का स्वागत करनेके लिये मुनिधमं धारण किया था, न कि उनसे घबराने और बचनेके लिये मेरी परीक्षाका यही समय है, में मुनिधर्मको नही छोड़ गा ।" इतने में ही अंतःकरण के भीतर से एक दूसरी ग्रावाज ग्राई"समतभद्र ! तू अतंत्र प्रकार जैन शामनका उद्धार करने और उसे प्रचार देने में समर्थ है, तेरी बदौलत बहुत मे जीवोका प्रज्ञानभाव तथा मिथ्यात्व नष्ट होगा और वे सन्मार्ग मे लगेगे; यह शासनोद्धार और लोकहितका काम क्या कुछ कम धर्म है ? यदि इस शासनोद्वार और लोकहितकी दृष्टिमे ही तू कुछ समयके लिये मुनिपदको छोड़ने और अपने भोजनकी योग्य व्यवस्था द्वारा रोगको शान्त करके फिर से मुनिपद धारण कर लेवे तो इसमें कौनसी हानि है ? तेरे ज्ञान, श्रद्धान, और चारित्रके भावको तो इससे जरा भी क्षति नहीं पहुँच सकती, वह ती हरदम तेरे साथ ही रहेगा; तु पलिंगकी अपेक्षा अथवा बाह्यमें भले ही मुनि न रहे, परंतु भावों की अपेक्षा तो तेरी अवस्था मुनि जैसी ही होगी. फिर इसमें अधिक सोचने विचारनेकी बात ही क्या है ? इसे प्रापद्धर्मके पर ही स्वीकार कर; तेरी परिणति तो हमेशा लोकहितकी तरफ रही है, अब उसे * क्षुधादि दुःखोंके प्रतिकारादिविषयक आपका यह भाव 'स्वयंभू स्तोत्र' के निम्न पद्य भी प्रकट होता है क्षुदादिदु. प्रतिकारतः स्थिति नं चेन्द्रियार्थप्रभवात्पसौख्यत । ततो गुरणो नास्ति च देहदेहिनोरितीदमित्थं भगवान् व्यजिज्ञपत' ||१८|| Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश गौर क्यों किये देता है ? दूसरोंके हितके लिये ही यदि तू अपने स्वार्थकी थोड़ीसी बलि देकर - अल्पकालके लिये मुनिपदको छोड़कर बहुतों का भला कर सके तो इसमे तेरे चरित्र पर जरा भी कलंक नहीं आ सकता, वह तो उलटा और भी ज्यादा देदीप्यमान होगा; श्रतः तु कुछ दिनोंके लिये, इसमुनिपदका मोह छोड़कर और मानापमानकी जरा भी पर्वाह न करते हुए अपने रोगको शांत करनेका यत्न कर, वह निःप्रतीकार नही है, इस रोगसे मुक्त होनेपर, स्वस्थावस्था में, तू और भी अधिक उत्तम रीतिमे मुनिधर्मका पालन कर सकेगा; अविलम्व करनेकी ज़रूरत नहीं हैं, विलम्व हानि होगी ।" इस तरह पर समन्तभद्रके हृदयमे कितनी ही देर तक विचारोंका उत्थान और पतन होता रहा । अन्तको आपने यही स्थिर किया कि "क्षुबादिदुःखोंमे घबराकर उनके प्रतिकारके लिये अपने न्याय्य नियमोंको तोड़ना उचित नहीं है; लोकका हित वास्तवमे लोकके प्राश्रित है और मेरा दिन मेरे आश्रित है। यह ठीक है कि लोककी जितनी सेवा में करना चाहता था उसे में नहीं कर सका, परन्तु उस सेवाका भाव मेरे ग्रात्मामें मौजूद है और में उसे अगले जन्ममे पुरा करूंगा, इस समय लोकहितकी आशा पर श्रात्महितको विगाहना मुनासिब नहीं है; इसलिये मुझे अब सल्लेखना' का व्रत जरूर ले लेना चाहिये और मृत्युकी प्रतीक्षामे बैठकर शान्तिके साथ इस देहका धर्मार्थ त्याग कर देना चाहिये ।" इस forest लेकर समन्तभद्र सल्लेखनावनकी श्राज्ञा प्राप्त करनेके लिये अपने वयोवृद्ध, तपोवृद्ध और अनेक सद्गुणालंकृत पूज्य गुरुदेव के पास पहुँचे और उनसे अपने रोगका सारा हाल निवेदन किया। साथ ही, उनपर यह प्रकट करते हुए कि मेरा रोग नि.प्रतीकार जान पड़ता है और रोगकी निःप्रतीकारावस्थामे 'सल्लेखना' का दशरण लेना ही श्रेष्ठ कहा गया है। यह विनम्र प्रार्थना • * 'राजावलीक' से यह तो पता चलता है कि समन्तभद्रके गुरुदेव उम समय मौजूद थे और समन्तभद्र सल्लेखना की प्राज्ञा प्राप्त करनेके लिये उनके पास गये थे, परन्तु यह मालूम नही हो सका कि उनका क्या नाम था । + उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां व निःप्रतीकारे । धर्मा ननुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥१२२॥ - रत्नकरंड Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rrrrrrrrrrrna समन्तभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल २१६ की कि-'अब पाप कृपाकर मुझे सल्लेखना धारण करनेकी आज्ञा प्रदान करें और यह आशीर्वाद देवें कि मै साहसपूर्वक और सहर्ष उमका निर्वाह करनेमें ममर्थ हो सकू।' ममन्तभद्रकी इस विज्ञापना और प्रार्थनाको सुनकर गुरुजी कुछ देरके लिये मौन रहे, उन्होंने ममन्तभद्रके मुखमंडल (चहरे) पर एक गंभीर दृष्टि डाली और फिर अपने योग बलसे मालूम किया कि समन्तभद्र अल्पायु नहीं है, उसके द्वारा धर्म तथा शामनके उद्धारका महान् कार्य होनको है, इस दृष्टिसे वह सल्लेखनाका पात्र नहीं; यदि उसे सल्लेखनाकी इजाजत दी गई तो वह अकालमें ही कालके गालम चला जायगा और उममे श्री वीरभगवानके गासन-कार्यको बहुत बड़ी हानि पहुचेगी; माथ ही, लोकका भी बड़ा अहित होगा। यह मब मोचकर गुरुजीने, समन्तभद्रकी प्रार्थनाको अस्वीकार करते हए, उन्हें बड़े ही प्रेमके माथ ममझाकर कहा- 'वत्म, अभी तुम्हारी मल्लेम्वनाका समय नहीं पाया, तुम्हारे द्वारा गागन कार्य के उद्धारकी मुझे बड़ी पाया है, निश्चय ही तुम धर्मका उद्धार और प्रचार करोगे, ऐमा मंग अन्तःकरण कहता है: लोकको भी इम ममय तुम्हारी बड़ी जरत है; दलिये मेरी यह खास इच्छा है ग्रार यही मेरी प्राज्ञा है कि तुम जहाँपर पोर जिम वेपमे रहकर रोगोपशमनके योग्य तृप्तिपर्यन्त भोजन प्राप्त कर मका वहीपर बुगामे न जागो और उमी वेगको धारण करलो, गेगके उपशान्त होनेगर फिर मे जैनमुनिदीला धागा कर लेना और अपने मब कामोको मंभाल लेना । मुभं. तुम्हारी श्रद्धा और गुगाजतापर पूग विश्वास है, इसीलिये मुझे यह कहनेमे ज़रा भी संकोच नहीं होता कि तुम चाहे जहां जा सकते हो और चाहे जिम वेपको धारण कर मकने होः मै स्खुशीमें तुम्हे ऐमा करने की इजाजत देना हूँ। गुरुजीके इन मधुर नथा मागभिन वचनोको मुनकर और अपने अन्तःकरण की उम अावाजको स्मरण करके ममन्तभद्रको यह निश्चय हो गया कि इमोमें जरूर कुछ हित है, इसलिये आपने अपने मल्लेबनाके विचारको छोड़ दिया और गुरूजीकी प्राज्ञाको शिरोधारण कर आप उनके पासमे चल दिये। ___अब समन्तभद्रको यह चिन्ता हुई कि दिगम्बर मुनिवेषको यदि छोड़ा जाय तो फिर कौनसा वेष धारण किया जाय, और वह वेष जैन हो या अजन । अपने Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश मुनिवेषको छोड़नेका खयाल आते ही उन्हें फिर दुःख होने लगा और वे सोचने लगे-"जिस दूसरे वेषको मैं अाज तक विकृत + और मप्राकृतिक वेष समझता मारहा हूँ उसे मैं कैसे धारण करू ! क्या उसीको अब मुझे धारण करना होगा? क्या गुरुजीकी ऐसी ही माज्ञा है ?-हाँ, ऐसी ही प्राज्ञा है । उन्होंने स्पष्ट कहा है-'यही मेरी प्राज्ञा है, चाहे जिस वेषको धारण करलो, रोगके उपशांत होनेपर फिरसे जैनमुनिदीक्षा धारण कर लेना, तब तो इसे प्रलंध्यशक्ति भवितव्यता कहना चाहिये। यह ठीक है कि मैं वेष (लिंग) को ही सब कुछ नहीं समझता-उसीको मुक्तिका एक मात्र कारण नहीं जानता, वह देहाश्रित है और देह ही इस प्रात्माका संसार है; इमलिये मुझ मुमुक्षुकासंसार-बंधनोंसे छूटनेके इन्कका-किमी वेषमे एकान्त प्राग्रह नहीं हो सकता 8; फिर भी मैं वेषके विकृत और अविकृत ऐमे दो भेद जरूर मानता हूँ, और अपने लिये अविकृत वेषमें रहना ही अधिक अच्छा ममभता है । इसीमे, यद्यपि, उस दूसरे वेष में मेरी कोई नि नहीं हो सकती, मेरे लिये वह एक प्रकारका उपसर्ग ही होगा और मेरी अवस्था उम ममय अधिकतर चनोपसृष्ट मुनि जैसी ही होगी; परन्तु फिर भी उम उपसर्गका कर्मा तो मै खुद ही हंगा न? मुझे ही स्वयं उम वेपको धारण करना पड़ेगा ! यही मेरे लिये कुछ कष्टकर प्रतीत होता है । अच्छा, अन्य वेप न धारण कर तो फिर उपाय भी + ततस्तत्सिद्धयर्थ परमकरणी ग्रन्थमुभय । भवानवात्याक्षीन्न च विकृतवेपोधिरतः ।। -स्वयभूस्तोत्र ॐ श्रीपूज्यपादक ममाधितंत्रमें भी वेपविषयमें केमा ही भाव प्रतिपादित किया गया है। यथा लिगं देहाधितं दृष्ट देह एवात्मना भवः । न मुच्यन्ते भवात्तस्मात ये लिंगकृतागृहा: ।।७।। अर्थात्-लिंग ( जटाधारण-नग्नत्वादि) देहाश्रित है पोर देह ही प्रामा का संसार है, इमलिये जो लोग लिंग (वेष) का ही एकान भाग्रह रखते है-- उसीको मुक्तिका कारण समझते है-वे संसारबंधनसे नहीं छूटते । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समंतभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल २२१ अब क्या है ? मुनिवेषको कायम रखता हुआ यदि भोजनादिके विषयमें स्वेच्छाचारसे प्रवृत्ति करू तो उससे अपना मुनिवेष लज्जित और कलंकित होता है, और यह मुझसे नहीं हो सकता; में खुशीसे प्राण दे सकता हूं परन्तु ऐसा कोई काम नहीं कर सकता जिससे मेरे कारण मुनिवेष अथवा मुनिपदको लज्जित और कलंकित होना पड़े। मुझसे यह नहीं बन सकता कि जैनमुनिके रूपमें उस पदके विरुद्ध कोई हीनाचारण करू; और इसलिये मुझे अव लाचारीसे अपने मुनिपदको छोड़ना ही होगा । मुनिपदको छोड़कर में 'क्षुल्लक' हो सकता था, परन्तु वह लिंग भी उपयुक्त भोजनकी प्रातिके योग्य नहीं है— उस पदधारीके लिए भी उद्दिष्ट भोजनके त्याग प्रादिका कितना ही ऐसा विधान है जिसमे, उस पकी मर्यादाको पालन करते हुए, रोगोपनान्तिके लिये यथेष्ट भोजन नहीं मिल सकता. और मर्यादाका उल्लंधन मुझमे नहीं बन सकता- इसलिये में । उस वेपको भी नहीं धारण करूंगा। बिल्कुल गृहस्थ बन जाना अथवा यों ही किसीके श्राश्रयमे जाकर रहना भी मुझे इष्ट नही है। इसके सिवाय, मेरी । चिरकालको प्रवृत्ति मुझे इस बातकी इजाजत नही देती कि मै अपने भोजनके लिये किसी व्यक्ति विशेषको कष्ट मे अपने भोजनके लिए ऐसे ही किसी निर्दोष मार्गका अवलम्बन लेना चाहता है जिसमें खास मेरे लिये किसीको भी भोजनका कोई प्रवन्ध न करना पड़े और भोजन भी पर्याप्त रूपमें उपलब्ध होता रहे।" यही सब सोचकर अथवा उसी प्रकारके बहुत से ऊहापोहके बाद, आपने अपने दिगम्बर मुनिवेषका प्रादरके साथ त्याग किया और साथ ही, उदासीन भावसे, अपने शरीरको पवित्र भस्मसे प्राच्छादित करना प्रारंभ कर दिया। उस समयका दृश्य बड़ा ही करुणाजनक था । देहमे भस्मको मलते हुए आपकी श्रांखें कुछ हो श्राई थी। जो प्रां भस्म व्याधिको तीव्र वेदनासे भी कभी द नहीं हुई थी उनका इस समय कुछ ग्रार्द्र हो जाना साधारण बात न थी । मंघ मुनिजनोंका हृदय भी प्रापको देखकर भर आया था और वे सभी भावीकी मध्य शक्ति तथा कर्मके दुर्विपाकका ही चितन कर रहे थे । समन्तभद्र जब अपने देहपर भस्मका लेप कर चुके तो उनके बहिरंग में भस्म और अंतरङ्गमें सम्यग्दर्शनादि निर्मल गुरगोंके दिव्य प्रकाशको देखकर ऐसा मालूम होता था कि Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश एक महाकांतिमान् रत्न कर्दमसे लिप्स होरहा है और वह कर्दम उस रत्नमें प्रविष्ट न हो सकनेसे उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकता , प्रथवा ऐसा जान पड़ता था कि समन्तभद्रने अपनी भस्मकाग्निको भस्म करने - उसे शांत बनानेके लिये यह 'भस्म' का दिव्य प्रयोग किया है । अस्तु । संघको प्रभिवादन करके अब समन्तभद्र एक वीर योद्धाकी तरह कार्यसिद्धिके लिए, 'मरणुत्र कहल्ली' से चल दिये । 'राजावलिकथे' के अनुसार, समन्तभद्र मरणुवकहल्लीसे चलकर 'कांची' पहुँचे और वहां 'शिवकोटि' राजाके पास, संभवतः उसके 'भीमलिग' नामक शिवालयमें ही, जाकर उन्होंने उसे आशीर्वाद दिया। राजा उनकी भद्राकृति आदिको देखकर विस्मित हुआ और उसने उन्हें 'शिव' समझकर प्रणाम किया । धर्मकृत्यों का हाल पूछे जानेपर राजाने अपनी शिवभक्ति, शिवाचार, मदिरनिर्माण और भीमलिंग मंदिर में प्रतिदिन बारह खंडुग + परिमारण तंडुलानविनियोग करनेका हाल उनसे निवेदन किया । इसपर समन्तभवनं, यह कहकर कि मैं तुम्हारे इस नैवेद्यको निवारण करूंगा.' उस भोजनके साथ मदिरमं अपना प्रासन ग्रहण किया, और किवाड़ बंद करके सत्रको चने जानेकी आज्ञा की । सब लोगोंके चले जाने पर समन्नभने शिवार्थ जठराग्निमें उस भोजनकी आहुतियाँ देनी आरम्भ की और आकृतियां देने देने उस भोजनसँग जब एक कर भी अवशिष्ट नहीं रहा तब आपने पूर्गा तृप्ति लाभ करके, दरवाजा खोल दिया | ग्रन्तःस्फुरितसम्यक्त्वे वहियत कुलिगकः । शोभित महाकान्तिः कर्दमानको मणिर्यथा ॥ - श्राराधना कथाकोश | + 'खंडुग' कितने मेरका होता है, इस विषय में वर्गी नेभिसागरजीनं, पं० शांतिराजजी शास्त्री मैसूरके पत्राधारपर यह सूचित किया है कि बेंगलोर प्रांतमें २०० मेरका, मैसूर प्रांतमें १८० मेरका हेगडेवन कोटमें मेरका और शिमोगा डिस्ट्रिक्ट ६० सेरका खंडुग प्रचलित है, और मेरका परिमाण मंत्र ८० तोलेका है। मालूम नहीं उस समय वाम काचीमें किनने सेरका बग प्रचलित था । संभवतः वह ४० सेरमे तो कम न रहा होगा । + 'शिवारण' में कितना ही गूढ अर्थसंनिहत है । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल सम्पूर्ण भोजनकी समाप्तिको देखकर राजाको बड़ा ही पाश्चर्य हुा । अगले दिन उसने और भी अधिक भक्ति के साथ उत्तम भोजन भेंट किया; परन्तु पहले दिन प्रचुर परिमाणमें तृप्तिपर्यन्तभोजन कर लेनेके कारण जठराग्निके कुछ उपशांत होनेमे, उम दिन एक चौथाई भोजन बच गया, और तीसरे दिन आधा भोजन ोप रह गया । ममन्तभद्रने साधारणतया इम शेषान्नको देवप्रमाद वतलाया: परन्तु राजाको उसमे मंनोप नहीं हुा । चौथे दिन जब और भी अधिक परिमागामें भोजन बच गया तब राजाका संदेह बढ़ गया और उमने पाँचवें दिन मन्दिरको, उस अवसर पर, अपनी सेनामे घिरवाकर दरवाजे को बोल डालने की ग्राज्ञा दी। दरवाजको खोलनके लिए बहुतमा कनकल शब्द होनेपर ममंतभद्रने उपमर्ग का अनुभव किया और उपमर्गकी निवृनिपर्यन्त गमस्त ग्राहार पानका त्याग करके नथा गरीरमे बिल्कुल ही ममन्व छोडकर, आपने बड़ी ही भत्ति माथ एकाग्र चितमे श्रीवृषभादि चतुर्विशति तीर्थक गेंकी स्तुनि * करना प्रारंभ किया । स्तुति करते हए, ममन्तभद्रनं जव ग्राटवें नीर्थकर धीचन्द्र प्रभम्वामीजी भले प्रकार स्तुति करके भीलिंगकी पोर दृष्टि की तो उन्हें उम स्थानपर, किसी दिव्यशक्तिके प्रतापमे, चन्द्र लांछनयुक्त ग्रहन्त भगवानका एक जाज्वल्यमान मृवर्गमय विशाल बिम्ब, निभूनिगहिन, प्रकट होता हग्रा दिखलाई दिया । यह नेम्वकर ममंतभद्रने दरवाजा खोल दिया और ग्राप शेष तीर्थकगेकी स्तुति करनेमे नल्लीन होगये। __दरवाजा खुलते ही इस माहात्म्यको देखकर शिवकोटि राजा बहुत ही आश्चर्यचकित हया और अपने छोटे भाई 'शिवायन'-सहित, योगिराज श्रीममतभद्र को उट नमस्कार करता हुआ उनके चरणोमे गिर पड़ा। समनभद्र ने, श्रीवर्द्धमान महावीरपर्यंत स्तुति कर चुकनेपर, हाथ उठाकर दोनों को प्राशीर्वाद दिया। इसके बाद धर्मका विस्तृत स्वरूप सुनकर राजा समार-देह भोगोंमें विरक्त होगया और उसने अपने पुत्र श्रीकंट' का राज्य देकर गिवायन-सहित उन मुनिमहाराजके समीप जिनदीक्षा धारण की । और भी कितने ही लोगोंकी • इसी स्तुतीको 'स्वयमभूस्तोत्र' कहते हैं । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश श्रद्धा इस माहात्म्यसे पलट गई और वे भरव्रतादिकके धारक होगये । इस तरह समन्तभद्र थोड़े ही दिनोंमें अपने 'भस्मक' रोगको भस्म करनेमें समर्थ हुए, उनका प्रापत्काल समाप्त हुआ, और देहके प्रकृतिस्थ होजानेपर उन्होंने फिरसे जैनमुनिदीक्षा धारण कर ली । श्रवणबेलगोलके एक शिलालेख में भी, जो आजसे आठसौ वर्ष मे भी अधिक पहले का लिखा हुआ है, समन्तभद्रके 'भस्मक' रोगकी शान्ति, एक दिव्य शक्ति के द्वारा उन्हें उदात्त पदकी प्राप्ति और योगसामर्थ्य अथवा वचन - बलमे उनके द्वारा 'चन्द्रप्रभ' (बिम्ब) की आकृष्टि आदि कितनी ही बातोंका उल्लेख पाया जाता है । यथा वंद्यो भस्म भस्मसात्कृतिपटुः पद्मावती देवतादत्तोदात्तपद-स्वमंत्रवचनव्याहृतचंद्रप्रभः । आचार्यरस समन्तभद्रगरणभृद्येनेह काले कलौ जैन वर्त्म समन्तभद्रमभवद्भद्रं समन्तान्मुहुः ॥ इसमें यह बतलाया गया है कि 'जो अपने 'भस्मक' रोगको भस्ममात् करनेमें चतुर हैं 'पद्मावती' नामकी दिव्यशक्तिके द्वारा जिन्हें उदात्त पदकी प्राप्ति हुई, जिन्होंने अपने मन्त्रवचनोंसे ( त्रिस्वरूपमें ) ' चन्द्रप्रभ' को बुला लिया और जिनके द्वारा यह कल्याणकारी जैनमार्ग (धर्म) इस कलिकालमें सत्र प्रोसे भद्ररूप हुआ, वे गणनायक प्राचार्य समन्तभद्र पुनः पुनः वन्दना किये जानेके योग्य हैं ।' * देखो, 'राजावलिकये' का वह मूलपाठ, जिसे मिस्टर लेविस राक्षस साहबने अपनी Inscriptions at Sravanabelgola नामक पुस्तककी प्रस्तावना पृष्ठ ६२ पर उद्धृत किया है। इस पाठका अनुवाद मुझे वर्णी नेमिसागर की कृपासे प्राप्त हुआ, जिसके लिये में उनका प्रभारी हूँ । 1 इस शिलालेखका पुराना नंबर ५४ तथा नया नं० ६७ है, हमे 'मल्लिप्रशस्ति' भी कहते हैं, और यह शक सम्वत् १०५० का लिखा हुआ है । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक पालोचन स्वामी समन्तभद्रकी 'मस्मक' व्याधि और उसकी उपशान्ति आदिके समर्थनमें जो 'वंद्यो भस्मकभस्मसात्कृतिपटुः' इत्यादि प्राचीन परिचय-वाक्य श्रवणबेल्गोलके शिलालेख नं० ५४ (६.७) परमे इस लेख में ऊपर उद्धत किया गया है उसमें यद्यपि 'शिवकोटि' गजाका कोई नाम नहीं है परन्तु जिन घटनामोंका उसमें उल्लेख है वे 'राजालिकथ' आदिके अनुमार शिवकोटि राजाक 'गिवालय'से ही सम्बन्ध रखती है । 'सेनगगकी पट्टावली' में भी इस विषयका समर्थन होता हैं। उसमें भी 'भीर्मालग' शिवालय में शिवकोटि राजाके ममन्तभद्रद्वारा चमत्कृत और दीक्षित होनेका उल्लेख मिलता है । माथ ही, उसे 'नवनिलिंग' देशका 'महाराज मूचित किया है, जिसकी गजधानी उस समय संभवत: 'कांची' ही होगी। यथा_ ( स्वस्ति ) नवतिलिङ्गदेशाभिगमद्राक्षाभिरामभीमलिङ्गम्बयंन्वादिस्तोटकोत्कीरण मन्दसान्द चन्द्रिकाविशदयशः श्रीचन्द्रजिनेन्द्रसदर्शनसमुत्पन्नकीतृहलकलितशिवकोटिमहाराजतपाराज्यस्थापकाचार्यश्रीमत्समन्त • भद्रम्वामिनाम " हमके मिवाय, 'विक्रान्तकोग्व' नाटक और श्रवणबेल्गोलके गिलालेख नं० १०५ (नया नं०२५४) में यह भी पता चलता है कि 'शिवकोटि' समन्तभद्रके प्रधान शिष्य थे । यथा-- शिष्यौ तदीयौ शिवकोटिनामा शिवायनः शास्त्रविदां वरेण्यो। कृत्स्नश्रुतं श्रीगुरुपादमूले ह्यधीतवंती भवतः कृतार्थी ॥x -विक्रान्तकौरव तस्यैव शिष्यशिवकोटिसूरिः नपालतालम्बनदेहयष्टिः । संसारवाराकरपोतमेतत् तत्त्वार्थसूत्रं तदलंचकार ॥ -श्रवणबेल्गोल-शिलालेख ● 'स्वयं' से 'कीरग' नकका पाठ कुछ अशुद्ध जान पड़ता है। + 'जैनसिद्धान्तभास्कर' किरण १ली, पृ० ३८ । x यह पद्य 'जिनेन्द्रकल्याणाम्युदय'को प्रगस्तिमें भी पाया जाता है। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश 'विक्रान्त कौरव' के उक्त पद्यमें 'शिवकोटि' के साथ ' शिवायन' नामके एक दूसरे शिष्यका भी उल्लेख है, जिसे 'राजावलिकथे' में 'शिवकोटि' राजाका अनुज (छोटा भाई) लिखा है और साथ ही यह प्रकट किया है कि उसने भी शिवकोटिके साथ समन्तभद्रसे जिनदीक्षा ली थी ; परन्तु शिलालेखवाले पद्य में वह उल्लेख नहीं है और उसका कारण पद्यके अर्थपरसे यह जान पडता है कि यह पद्य तत्त्वार्थसूत्रकी उस टीकाकी प्रशस्तिका पद्य है जिसे शिवकोटि प्राचार्यने रचा था, इसीलिये इसमें तत्त्वार्थसूत्र के पहले 'एतत्' शब्दका प्रयोग किया गया है और यह सूचित किया गया है कि 'इस तत्त्वार्थसूत्रको उस शिवकोटिसूरिने अलंकृत किया है जिसका देह तपरूपी लनाके श्रालम्बनके लिये यष्टि बना हुआ है । जान पड़ता है यह पद्य + उक्त टीका परसे ही शिलालेखमें उद्धृत किया गया है, और इस दृष्टिसे यह पद्य बहुत प्राचीन है और इस बातका निर्णय करनेके लिये पर्याप्त मालूम होता है कि 'शिवकोटि प्राचार्य स्वामी समन्तभद्रके शिष्य थे । । ग्राश्चर्य नहीं जो ये 'शिवकोटि कोई गजा ही हुए । देवागमकी वसुनन्दिवस्ति में मंगलाचरणका प्रथम पद्य निम्न प्रकार में पाया जाता है २२६ सार्वश्री कुलभूषणं क्षरिपु सर्वार्थसंसाधनं सन्नीतेर कलंक भावविधृतेः संस्कारकं सत्पथं । निष्णातं नयसागरे यतिपतिं ज्ञानांशुसद्भास्करं भेत्तारं वसुपालभावतमसो वन्दाम बुद्धये || यह पद्यर्थक है, और इस प्रकारके द्वयर्थक व्यर्थक पद्य बहुधा ग्रन्थों * यथा— शिवकोटिमहाराजं भव्यनप्युदरं निजानुजं वेरस..... संसारशरीरभोगनिवेदि श्रीकंठनेम्वसुनंगे राज्यमनित्तु शिवायन गुडिया मुनिपरल्लिये जिनदीक्षेयनान्तु शिवकोट्याचार्यरागि... | + इसके पहले 'समन्तभद्रस्स निराय जीयात्' और 'स्यात्कारमुद्रितसमस्तपदार्थ पूर्ण' नामके दो पद्य भी उसी टीका जान पड़ते हैं । + नगरताल्लुकेके ३५ वे शिलालेख में भी 'शिवकोटि' भाचार्यको समन्तभद्रका शिष्य लिखा है ( E. C. VIII ) । + व्यर्थक भी हो सकता है, और तब यतिपतिसे तीसरे अर्थ में वमुनन्दीके Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका मुनिजीवन और श्रापत्काल २२७ में पाये जाते हैं । इसमें बुद्धिवृद्धिके लिये जिस 'यतिपति' को नमस्कार किया गया है उससे एक अर्थ में 'श्रीवर्द्धमानस्वामी' और दूसरे में 'समंतभद्रस्वामी' का अभिप्राय जान पड़ता है । यतिपतिके जितने विशेषता है वे भी दोनोंपर ठीक घटित होजाते हैं । 'अकलंक - भावकी व्यवस्था करनेवाली सन्नीति (स्याद्वादनीति ) के सत्पथको संस्कारित करनेवाले' ऐसा जो विशेषण है वह समन्तभद्रके लिये agreinदेव प्रौर श्रीविद्यानंद जैसे प्राचार्यों द्वारा प्रयुक्त विशेषणोंमे मिलताजुलता है। इस पद्यके अनन्तर ही दूसरे 'लक्ष्मीभृत्परमं' नामके पद्यमें, समन्तभद्रके मत ( शासन) को नमस्कार किया गया है । मनको नमस्कार करनेसे पहले खास समन्तभद्रको नमस्कार किया जाना ज्यादा संभवनीय तथा उचित मालूम होता है । इसके सिवाय इस वृत्तिके अन्तमें जो मंगलपद्य दिया है वह भी चर्थक है और उसमें साफ़ तौरसे परमार्थविकल्पी 'समंतभद्रदेव' को नमस्कार किया है। और दूसरे अर्थ में वही 'समंतभद्रदेव' परमात्माका विशेषण किया गया है। यथासमन्तभद्रदेवाय परमार्थविकल्पिने । समन्तभद्रदेवाय नमोस्तु परमात्मने || इन सब बातों यह बात और भी दृढ हो जाती है कि उक्त 'यतिपति से समन्तभद्र खास तौर पर अभिप्रेत हैं । ग्रस्तु उक्त यतिपतिके विशेषणोंमें 'भेत्तारं वसुलभावतमसः ' भी एक विशेषण है, जिसका अर्थ होता है वालके भावiधकारको दूर करनेवाले' | 'वसुपाल' शब्द सामान्य तौर से 'राजा' का वाचक है और इसलिये उक्त विशेषगणसे यह मालूम होता है कि समन्तभद्रस्वामीने भी किसी राजाके भावाधकारको दूर किया है। बहुत सभव है कि वह राजा 'शिवकोटि' ही हो और वही समन्तभद्रका प्रधान शिष्य हुआ हो। इसके सिवाय 'a' शब्दका अर्थ 'शिव' और 'पाल' का अर्थ 'राजा' भी होना है और इस तरह पर 'वसुपाल' से शिवकोटि राजाका अर्थ निकाला जा सकता है, परन्तु यह कल्पना बहुत ही क्लिष्ट जान पड़ती है और इसलिये में इस पर अधिक जोर गुरु नेमिचंद्रा भी गय लिया जा सकता है, जो वसुनन्दि-श्रावकाचारकी 'प्रशस्तिके अनुसार नयनन्दीके शिष्य और श्रीनन्दीके प्रशिष्य थे । & श्रीवर्द्धमानस्वामीने राजा श्रेणिकके भावान्धकारको दूर किया था । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश २२८ देना नहीं चाहता । ब्रह्म नेमिदत्त + के 'आराधना- कथाकोश' में भी 'शिवकोटि' राजाका उल्लेख है— उसीके शिवालय में शिवनैवेद्यसे 'भस्मक' व्याधिकी शांति और चन्द्रप्रभ जिनेन्द्रकी स्तुति पढ़ते समय जिनबिम्बकी प्रादुर्भूतिका उल्लेख है । साथ ही, यह भी उल्लेख है कि शिवकोटि महाराजने जिनदीक्षा धारण की थी । परन्तु शिवकोटिको, 'कांची' अथवा 'नवतैलंग' देशका राजा न लिखकर 'वाराणसी' (काशी - बनारस) का राजा प्रकट किया है, यह भेद है . । अब देखना चाहिये, इतिहास से 'शिवकोटि' कहाँका राजा सिद्ध होता है । जहाँ तक मैंने भारत के प्राचीन इतिहासका, जो अब तक संकलित हुग्रा है, परिशीलन किया है वह इस विषय में मौन मालूम होता है— शिवकोटि नामके राजाकी उससे कोई उपलब्धि नही होती - बनारसके तत्कालीन राजानोंका तो उससे प्रायः कुछ भी पता नहीं चलता । इतिहासकालके प्रारम्भ में ही ईसवी सन्से करीब ६०० वर्ष पहले - बनारस या काशीकी छोटी रियासत ' कोशल' राज्यमें मिला ली गई थी, और प्रकट रूपमें अपनी स्वाधीनताको खो चुकी थी। इसके बाद, ईसामे पहलेकी चौथी शताब्दीमें, प्रजातशत्रुके द्वारा वह 'कोशल' राज्य भी 'मगध' राज्यमे शामिल कर लिया गया था, और उस वक्तसे उसका एक स्वतन्त्र राज्यसत्ताके तौरपर कोई उल्लेख नहीं मिलता । + ब्रह्म नेमिदत्त भट्टारक मल्लिभूषरण के शिष्य और विक्रमकी १६वीं शताब्दीके विद्वान् थे । आपने वि० मं० १५८५ में श्रीपालचरित्र बनाकर समाप्त किया है । श्राराधना कथाकोश भी उसी वक्नके करीबका बना हुआ है । + यथा --- वाराणसी ततः प्राप्तः कुलघोपैः समन्विताम् । योगिलिंग तथा तत्र गृहीत्वा पर्यटन्पुरे ॥ १६ ॥ स योगी लीलया तत्र शिवकोटिमहीभुजा । कारितं शिवदेवोरुप्रासादं संविलोक्य च ॥ २०॥ * V. A. Smith's Early History of India, III Edition, p. 30-35. (विन्सेंट ए० स्मिथ साहबकी अर्ली हिस्टरी प्राफ़ इन्डिया, तृतीयसंस्करण, पृ० ३०-३५ ।) Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल संभवत: यही वजह है जो इस छोटीसी परतन्त्र रियासतके राजारों अथवा रईसोंका कोई विशेष हाल उपलब्ध नहीं होता। रही कांचीके राजाओंकी बात, इतिहासमें सबसे पहले वहाँके राजा "विष्णुगोप' ( विरणुगोप वर्मा ) का नाम मिलता है, जो धर्मसे वैष्णव था और जिसे ईमवी सन् ३५०के करीब ‘समुद्रगुस'ने युद्ध में परास्त किया था। इसके बाद ईमवी सन् ४३७ में 'मिहवर्मन्' (बौद्ध)। का, ५७५ में सिंहविपणुका, ६०० से ६२५ तक महेन्द्रवर्मन्का, ६२५ से ६४५ तक नमिहवर्मन्का, ६५५में परमेश्वरवर्मन्का, इसके बाद नरसिंहवर्मन् द्वितीय ( राजमिह ) का और ७४० में नन्दिवर्मन्का नामोल्लेख मिलता है । ये सब राजा पल्लव वशके थे और इनमें मिहविष्णु' से लेकर पिछले सभी राजाओं का राज्यक्रम ठीक पाया जाता है । परन्तु मिहविपामे पहलेके राजाओंकी क्रमशः नामावली और उनका गज्यकाल नही मिलना, जिसकी इस अवसर पर -मित्र काटिका निश्चय करने के लिये-खास जरूरत थी। इसके सिवाय, विमेंट स्मिथ साहब ने, अपनी 'ग्री हिस्टरी ग्राफ इन्डिया (५० २७५-२७६) में यह भी मूचित किया है कि ईमवी मन् २२० या २३० और 30 का मध्यवर्ती प्राय एक शताब्दीका भाग्नका इतिहास बिल्कुल ही अन्धकाराच्छन्न हैउमका कुछ भी पता नहीं चलना । इससे स्पष्ट है कि भारनका जो प्राचीन इतिहास मंकलित हुअा है वह बहुत कुछ अधूग है । उसमे शिवकोटि-जमे शक सं० ३८० (ई० म० ८५८) में भी निहवमन् काचीका राजा था और वह उसके राज्यका २२वा वर्ष था, एमा 'लोक विभाग' नामक दिगम्बर जैनग्रन्थमे मालूम होता है। कांचीका एक पल्लवराजा शिवस्कंद वर्मा भी था जिसकी अोरमे 'मायिदावोलु' का दानपत्र लिखा गया है, ऐसा मद्रामके प्रो० ए० चक्रवर्ती 'पंचास्तिकाय' की अपनी अंग्रेजी प्रस्तावनामें सूचित करते हैं । यापकी सूचनाओंके अनुसार यह राजा ईमाकी १ली शताब्दीके करीब (विष्णुगोपसे भी पहले) हुमा जान पड़ता है। ६ देग्वो, विमेंट ए० स्मिथ साहबका 'भारतका प्राचीन इतिहास' ( Early History of India) तृतीय संस्करण, पृष्ठ ४७१ से ४७६ । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश प्राचीन राजाका यदि नाम नहीं मिलता तो यह कुछ भी श्राश्चर्यकी बात नहीं है । यद्यपि ज्यादा पुराना इतिहास मिलता भी नहीं, परन्तु जो मिलता है और मिल सकता है उसको संकलित करनेका भी अभी तक पूरा प्रायोजन नहीं हुआ । जैनियोंके ही बहुतसे संस्कृत, प्राकृत, कनड़ी, तामिल और तेलगु प्रादि ग्रन्थोंमें इतिहासकी प्रचुर सामग्री भरी पड़ी है जिसकी ओर अभी तक प्राय: कुछ भी लक्ष्य नहीं गया । इसके सिवाय, एक एक राजाके कई कई नाम भी हुए हैं और उनका प्रयोग भी इच्छानुसार विभिन्न रूपसे होता रहा है, इससे यह भी संभव है कि वर्तमान इतिहासमें 'शिवकोटि का किसी दूसरे ही नामसे उल्लेख हो * और वहाँ पर यथेप्त परिचय के न रहनेसे दोनोंका समीकरण न हो सकता हो, और वह समीकरण विशेष अनुसन्धानकी अपेक्षा रखता हो । परन्तु कुछ भी हो, इतिहासकी ऐसी हालत होते हुए, बिना किसी गहरे अनुसंधानके यह नहीं कहा जा सकता कि 'कोट' नामका कोई राजा हुम्रा ही नहीं, और न शिवकोटिके व्यक्तित्वमे ही इनकार किया जा सकता है। 'राजावलिकथे' में शिवकोटिका जिस ढंगमे उल्लेख पाया जाता है और पट्टावलियों तथा शिलालेखों प्रादि द्वारा उसका जैसा कुछ समर्थन होता है उस परसे मेरी यही राय होती है कि 'शिवकोटि' नामका श्रथवा उस व्यक्तित्वका कोई राजा जरूर हुआ है, और उसके अस्तित्वकी संभावना अधिकतर काचीकी ओर ही पाई जाती है; ब्रह्मनंमिदत्तनं जो उसे वाराणसी ( काशी बनारस ) का राजा लिखा है वह कुछ ठीक प्रतीत नही होता । ब्रह्म नेमिदत्तको कथामे और भी कई बातें ऐसी है जो ठीक नहीं जंचती। इस कथा में लिखा है कि कांचीमें उस वक्त भस्मक व्याधिको नाश करने के लिये समर्थ (स्निग्वादि ) * शिवकोटिमे मिलते-जुलते शिवस्कन्दवर्मा ( पल्लव ) शिवमृगेशवर्मा ( कदम्ब ), शिवकुमार ( कुन्दकुन्दाचार्यका शिष्य ) शिवस्कन्द वर्मा हारितीपुत्र ( कदम्ब ), शिवस्कन्द शातकरण ( श्रांध्र ), शिवमार (गंग ), शिवश्री (प्रांत), और शिवदेव ( लिच्छिवि), इत्यादि नामोंके धारक भी राजा हो गये हैं। संभव है कि शिवकोटिका कोई ऐसा ही नाम रहा हो, अथवा इनमेंसे हो कोई शिवकोटि हो । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल २३१ भोजaint सम्प्रासिका प्रभाव था, इसलिये समन्तभद्र कांचीको छोड़कर उत्तरकी प्रोर चल दिये । चलते चलते वे 'पुण्ड्रेो न्दुनगर' में पहुंचे, वहाँ बौद्धोंकी महती दानशाला को देखकर उन्होंने बौद्ध भिक्षुकका रूप धारण किया; परन्तु जब वहाँ भी महाव्याधिको शान्तिके योग्य आहार का प्रभाव देखा तो ग्राम वहाँसे निकल गये और क्षुधामे पीडित अनेक नगरों में घूमते हुए 'दशपुर' नामके नगरमें भागवतों (undi) का उन्नत मठ देखकर और यह देखकर कि यहाँपर भागवत लिङ्गधारी माधुग्रोंको भक्तजनों द्वारा प्रचुर परिमाण में सदा विशिष्ट आहार भेंट किया जाता है. आपने बौद्ध-वेपका परित्याग किया और भागवतवेष धारण कर लिया, परन्तु यहाँका विशिष्टाहार भी ग्रापकी भस्मक व्याधिको शान्त करने में समर्थ न हो सका और इस लिये ग्राप यहां भी चल दिये । इसके बाद नानादिग्देशादिकोंमें घूमते हुए ग्राम ग्रन्नको 'वाराणसी' नगरी पहुँचे और वहां आपने योगिलिङ्ग धारण करके शिवकोटि राजाके शिवालय में प्रवेश किया । इस शिवालय में शिवजी के भांगके लिये तय्यार किये हुए अठारह प्रकारके सुन्दर श्रेष्ठ भोजनोंके समूहको देखकर आपने सोचा कि यहां मेरी दुर्व्याधि जरूर शान्त हो जायगी । इसके बाद जब पूजा हो चुकी और वह दिव्य श्राहार— ढेर का ढेर नैवेद्य-बाहर निक्षेपित किया गया तब आपने एक युक्ति के द्वारा लोगों तथा राजाको ग्राश्चर्यमें डालकर शिवको भोजन करानेका काम अपने हाथ में लिया। इस पर राजाने घी, दूध, दही और मिठाई ( इक्षुरम ) आदिने मिश्रित नाना प्रकारका दिव्य भोजन प्रचुर परिमाणमे ( पूर्ण: कुभशनैर्युक्तं भरे हुए सो घड़ों जितना ) तय्यार कराया और उसे शिवभांजनके लिये योगिराजके सुपुर्द किया। समंतभद्रने वह भोजन स्वयं खाकर जब मंदिरके कपाट खोले मौर वाली बरतनोंको बाहर उठा ले जानेके लिये कहा, नब राजादिकको बड़ा प्राचयं हुआ । यही समभा गया कि योगिराजने अपने योग .. + 'पुण्ड्र' नाम उत्तर बंगालका है जिसे 'पौण्ड्रवर्धन' भी कहते हैं । 'पुण्ड्रे न्दु. नगर से उत्तर दंगालके इन्द्रपुर, चन्द्रपुर अथवा चन्द्रनगर आदि किसी खास : शहरका अभिप्राय जान पड़ता है। छपे हुए 'आराधनाकथाकोश' (श्लोक ११ ). में ऐसा ही पाठ दिया है । संभव है कि वह कुछ अशुद्ध हो । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश बलसे साक्षात् शिवको अवतारित करके यह भोजन उन्हें ही कराया है। इससे राजाकी भक्ति बढ़ी और वह नित्य ही उत्तमोत्तम नैवेद्यका समूह तैयार करा कर भेजने लगा । इस तरह, प्रचुर परिमाण में उत्कृष्ट श्राहारका सेवन करते हुए, जब पूरे छह महीने बीत गये तब आपको व्याधि एकदम शांत होगई और प्राहारकी मात्रा प्राकृतिक हो जाने के कारण वह सब नैवेद्य प्रायः ज्योंका त्यों बचने लगा। इसके बाद राजाको जब यह खबर लगी कि योगी स्वयं ही वह भोजन करता रहा है और 'व' को प्रणाम तक भी नहीं करता तब उसने कुपित होकर योगी से प्रणाम न करनेका कारण पूछा। उत्तरमे योगिराजने यह कह दिया कि 'तुम्हारा यह रागी द्वेषी देव मेरे नमस्कारको महन नहीं कर सकता, मेरे नमस्कारको सहन करनेके लिये वे जिनसूर्य ही समर्थ हैं जो अठारह दापोसे रहिन है और केवलज्ञानरूपी सनेजमे लोकालोकके प्रकाशक हैं। यदि मेने नमस्कार किया तो तुम्हारा यह देव ( शिवलिङ्ग ) विदीं हो जायगा -खंड खंड हो जायगा -इसमें में नमस्कार नही करता है। इस पर राजाका कौतुक बढ़ गया और उसने नमस्कारके लिये आग्रह करते कहा - 'यदि यह देव खंड खंड हो जायगा तो हो जाने दीजिये, मुझे तुम्हारे नमस्कार के सामथ्र्यको जरूर देखना है । समन्तभद्रने स्वीकार किया और अगले दिन अपने गामध्यंको दिखलाने का वादा किया। राजाने एवमस्तु' कहकर उन्हें मन्दिरमे रखवा और बाहर से चीकी पहरेका पूरा इन्तजाम कर दिया। दो पहर रात बीतने पर समन्तभद्रको अपने वचन निर्वाहकी निन्ता हुई, उससे अम्विकादेवीका ग्रामन डोल गया । वह दौडी हुई आई, आकर उसने समन्तभद्रको आश्वासन दिया और यह कहकर चली गई कि तुम स्वयंभुवा भूतहितेन भूतले' इस पद प्रारम्भ करके चतुविशति तीर्थंकरोंकी उन्नत स्मृति रवां, उसके प्रभाव से सत्र काम शीघ्र हो जायगा और यह कूलिंग टूट जायगा । समन्तभद्रको इस दिव्यदर्शन प्रसन्नता हुई और वे निर्दिष्ट स्तुतिको रचकर सुखगे स्थित हो गये । सवेरे ( प्रभात समय ) राजा श्राया श्रीर उसने वही नमस्कार द्वारा सामर्थ्य दिखलाने की बात कही। इस पर समन्तभद्रने ग्रपनी उस महास्तुनिको पढ़ना प्रारम्भ किया । जिस वक्त 'चन्द्रप्रभ' भगवानकी स्तुति करते हुए 'तमस्तमोरेरिव रश्मिभिन्नं' यह वाक्य पढा गया उसी वक्त वह 'शिवलिंग' खंड खंड Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल २३३ होगया और उस स्थानसे 'चन्द्रप्रभ' भगवानकी चतुर्मुखी प्रतिमा महान् जयकोलाहलके साथ प्रकट हुई । यह देखकर राजादिकको बड़ा आश्चर्य हुप्रा और राजाने उसी समय ममन्तभद्रसे पूछा-हे योगीन्द्र, पाप महासामर्थ्यवान् अव्यक्तलिंगी कौन है ? इसके उत्तरमें समन्तभद्रने नीचे लिखे दो काव्य कहे कांच्या नग्नाटकोऽहं मलमलिनतनुर्लाम्बुशे पाण्डुपिंडः । पुण्ड्रोएड्र शाक्यभिक्षुः दशपुरनगरे मृष्टभाजी परित्राट् । वारागाभ्यामभूवं शशिधरधवलः पाण्डुरांगतपस्वी, राजन यस्याम्ति शक्ति:, सवदतः पुरता जैननिथवादी ।। पूर्व पाटलिपुत्रमध्यनगर भेरी मया ताडिता, पश्चान्मालवसिन्धुठक्कविषय कांचीपुरे वैदिश, प्रामोऽहं करहाटकं बहुभट विद्यात्कटं संकटं, वादार्थी विचराम्यहं नरपते शालविक्रीडितं ।। इसके बाद ममनभद्र ने लिंग छोडकर जैन निग्रंथ लिग धारण किया और संप्रग एकानवादियों को बाद में जीनकर जनगायनकी प्रभावना की। यह मब देवकर राजा को जयम में श्रद्धा होगई, वैराग्य हो पाया और राज्य छोड़ कर उसने जिनदीक्षा धारण करली ४ ।" * संभव है कि यह 'Tोड़े' पाठ हो, जिमने 'पुण्ड'–उनर बंगाल-और 'उड़ --- उडीमा ---दोनों का अभिप्राय जान पड़ता है। + कहीं पर 'गाधरधवल: भी पाठ है जिसका अर्थ चन्द्रमाके ममान उज्वन होता है। + प्रवदतु भी पाठ कही कहो पर पाया जाता है। x ब्रह्म नमिदन के कथनानुमार उनका कथाकोग भट्टारक प्रभाचन्द्र के उस कथाकोगके प्राधारपर बना हुआ है जो गद्यात्मक है और जिसको पूरी तरह देवनका मुझे अभी तक कोई प्रवमर नही मिल सका । सुहृदर पं० नाथूरामजी प्रेमीन मेरी प्रेग्णाने, दोनों कथाकोगोंमे दी हुई समन्तभद्रकी कथाका परस्पर मिलान किया है और उसे प्रायः समान पाया है। आप लिखते हैं.---"दोनोंमें कोई विशेष फर्क नहीं है । नेमिदतको कथा प्रभानन्द्रकी गद्यकथाका प्रायः पूर्ण Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश नेमिदत्तके इस कथनमें सबसे पहले यह बात कुछ जीको नहीं लगती कि 'काँची' जैसी राजधानी में अथवा और भी बड़े-बड़े नगरों शहरों तथा दूसरी राजधानियों में भस्मक व्याधिको शांत करने योग्य भोजनका उस समय प्रभाव रहा हो और इस लिये समन्तभद्रको सुदूर दक्षिणसे सुदूर उत्तर तक हजारों मीलकी यात्रा करनी पड़ी हो। उस समय दक्षिण में ही बहुतसी ऐसी दानशालाएँ थी जिनमें साधुयोंको भरपेट भोजन मिलता था और अगणित ऐसे शिवालय थे जिनमें इसी प्रकार से शिवको भोग लगाया जाता था, और इसलिये जो घटना काशी (बनारस) में घटी वह वहां भी घट सकती थी । ऐसी हालत में, इन सब संस्था यथेष्ट लाभ न उठाकर, मुदूर उत्तरमे काशीतक भोजन के लिये भ्रमण करना कुछ समझ में नहीं आता । कथामें भी यथेष्ट भोजनके न मिलनेका कोई विशिष्ट कारण नहीं बतलाया गया - सामान्यरूपगे 'भस्मवाधिविनाशाहारहानित: ' ऐसा सूचित किया गया है, जो पर्याप्त नहीं है । दूसरे यह बात भी कुछ ग्रमंगनमी मालूम होती है कि ऐसे गुरु, स्निग्ध, मधुर और इनेष्मल २३४ , पद्यानुवाद है। पादपूर्ति ग्रादिके लिये उसमें कही कहीं थोड़े बहुत शब्द विशेषण अव्यय आदि प्रवश्य बढा दिये गये हैं। नेमिदनद्वारा लिखित कथाके ११ वें श्लोक में 'पुण्ड्रं न्दुनगरे' लिखा है, परन्तु गद्यकथामे० 'एण्ड्रन गरे' और 'वन्दक-लोकानां स्थाने' की जगह 'वन्दकानां वृहद्विहारे' पाठ दिया है। १२ वें 'पके 'वोग' की जगह 'वंदकलिंग' पाया जाता है। शायद 'वदक' बौद्धका पर्यायशब्द हो । 'कांच्या नग्नाटकोन्ह' आदि पोका पाठ ज्योंका त्यों है। उसमें 'पुण्ड्रोण्डु' की जगह 'पुण्ड़ोष्ट' 'टक्कविषये' की जगह 'ढक्कविषये श्रीर 'वेदिशे' की जगह 'वैदुपे' इस तरह नाममात्रका अन्तर दीख पड़ता है ।" ऐसी हालत में, नेमिदनकी कथाके इस सारांशको प्रभाचन्द्रकी कथाका भी माराश समझना चाहिये और इसपर होनेवाले विवेचनादिकां उस पर भी ययासंभव लगा लेना चाहिये । 'वन्दक' बौद्ध का पर्याय नाम है यह बात परमात्म प्रकाशकी ब्रह्मदेवकृतीका निम्न अंशसे भी प्रकट है "खवरणउ वंदउ सेवडउ" - अपरणको दिगम्बरोह, वंदको बौद्धोऽहं श्वेतपटादिलिंगधारकोऽमितिमूढात्मा एवं मन्यत इति । " Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका मुनिजीवन और श्रापत्काल २३५ गरिष्ट पदार्थोंका इतने अधिक ( पूर्ण शतकुभ जितने ) परिमारगमें नित्य सेवन करने पर भी भस्मकाग्निको शांत होने में छह महीने लग गये हों । जहाँ तक मैं समझता हूँ और मैने कुछ अनुभवी वैद्योंम भी इस विषय में परामर्श किया है, यह रोग भोजनकी इतनी अच्छी अनुकूल परिस्थिति में अधिक दिनों तक नहीं ठहर सकता, और न रोगकी ऐसी हालत में पैदलका इतना लम्बा सफ़र भी बन सकता है । इसलिये, 'राजावलिकथे' में जो पांच दिनकी बात लिखी हैं वह कुछ असंगत प्रतीत नहीं होती। तीसरे समंतभद्रके मुखमे उनके परिचयके जो दो काव्य कहलाये गये है वे बिल्कुल ही अप्रासंगिक जान पड़ते हैं। प्रथम तो राजाकी ओर उस अवसर पर वैसे प्रश्नका होना ही कुछ बेढंगा मालूम देता हैवह अवसर तो राजाका उनके चरणों पड़ जाने और क्षमा-प्रार्थना करनेका था -- दूसरे समन्तभद्र, नमस्कारके लिये ग्राग्रह किये जाने पर अपना इतना परिचय दे भी चुके थे कि वे 'शिवोपासक' नहीं है बल्कि जिनोपासक हैं फिर भी यदि विशेष परिचयके लिये वैसे प्रश्नका किया जाना उचित ही मान लिया जाय तो उसके उत्तर में समन्तभद्रकी श्रीरमें उनके पितृकुल और गुरुकुलंका परिचय दिये जानेकी, अथवा अधिक अधिक उनकी भस्मकव्याधिकी उत्पत्ति और उसकी शानिके लिये उनके उस प्रकार भ्रमणको कथाको भी बतला देनेकी जरूरत थी; परन्तु उक्त दोनों पद्योंमें यह सब कुछ भी नहीं है-न पितृकुल अथवा गुरुकुलका कोई परिचय है और न भस्मकव्याधिकी उत्पत्ति आदिका ही उसमें कोई खास जिक्र है -- दोनों में स्पष्टरूपये वादको घोषणा है; बल्कि दूसरे पद्य में तो, उन स्थानोंका नाम देते हुए जहां पहले वादकी भेरी बजाई थी, अपने इस भ्रमणका उद्देश्य भो 'वाद' ही बतलाया गया है। पाठक सोचें, क्या समंतभद्रके इस भ्रमणका उद्देश्य 'वाद' था ? क्या एक प्रतिष्ठित व्यक्तिद्वारा विनीतभावसे परिचयका प्रश्न पूछे जानेपर दूसरे व्यक्तिका उसके उत्तर में लड़ने -२ गडनेके लिये तय्यार होना श्रथवा वादकी घोषणा करना शिष्टता और सभ्यताका व्यवहार कहला सकता है ? और क्या समतभद्र-जैसे उत्तरकी कल्पना की जा सकती हैं ? कभी नहीं। पहले पद्यके चतुर्थ चरण में यदि वादकी घोषणा न होती तो वह पद्य इस अवसर पर उत्तरका एक अंग बनाया जा सकता था; क्योंकि उसमें अनेक स्थानों पर समन्तभद्रके अनेक वेष महान् पुरुषोंके द्वारा ऐसे Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश धारण करने की बातका उल्लेख है । परन्तु दूसरा पद्य तो यहां पर कोरा अप्रासंगिक ही है - वह पद्य तो 'करहाटक' नगरके राजाकी सभा में कहा हुआ पद्य है उसमें, अपने पिछले वादस्थानोंका परिचय देते हुए, साफ़ लिखा भी है कि में अब उस करहाटक ( नगर ) को प्राप्त हुआ हूँ जो बहुभटोंसे युक्त है, विधाका उत्कट स्थान है और जनाकीर्ण है । ऐसी हालत में पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि बनारस के राजाके प्रश्न के उत्तरमे समंतभद्र मे यह कहलाना कि, अब में इस करहाटक नगर में प्राया हूँ कितनी वे सिर-पैर की बात है, कितनी भारी भूल है और उससे कथामें कितनी कृत्रिमता या जाती है । जान पड़ता है ब्रह्मने मदन इन दोनों पुरातन पद्योंको किसी तरह कथा में संगृहीत करना चाहते थे और उस संग्रहकी धुन में उन्हें इन पद्योंके अर्थसम्बन्धका कुछ भी ख़याल नहीं रहा। यही वजह है कि वे कथामें उनको यथेष्ट स्थान पर देने अथवा उन्हें ठीक तौर पर संकलित करने में कृतकार्य नहीं हो सके । उनका इस प्रसंग पर, 'स्फुटं काव्यद्वयं चेति योगीन्द्रः तमुवाच स यह लिखकर उक्त पद्योंका उद्धृत करना कथाके गौरव और उसकी अकृत्रिमताको बहुत कुछ कम कर देना है । इन पद्योंमें वादकी घोषणा होनेसे ही ऐसा मालूम देता है कि ब्रह्म नेमिदनने, राजा में जैन धर्म की श्रद्धा उत्पन्न करानेसे पहले, समंतभद्रका एकान्तवादियों वाद कराया है; अन्यथा इतने बड़े चमत्कार के अवसर पर उसकी कोई आवश्यकता नहीं थी । कांचीके बाद भ्रमण भी का वह पहले पद्यको लक्ष्य में रखकर ही कराया गया मालूम होता है। यद्यपि उसमे भी " कुछ त्रुटियां है वहां पद्यानुसार कॉवीके बाद, लाबुशमे प्रिण्ड' रूपमे ( शरीरमें भस्म रमाए हुए ) रहनेका कोई समनभद्र के पाण्डुउल्लेख ही नहीं है, ॐ यह बतलाया गया है कि "कांची में में नग्नाटक ( दिगम्बर साधु ) हुआ, वहाँ मेरा शरीर मनसे मलिन था, लाम्बुशमें पाण्डुपिण्ड रूपका धारक ( भस्म रमाए जैवसाधु ) हुप्रा, पुण्ड्रोड्रमें बौद्ध भिक्षुक हुमा दशपुर नगरमें मृष्टभोजी परिव्राजक हुआ, और वाराणसी में शिवसमान उज्ज्वल पाण्डुर अंगका धारी में तपस्वी ( शैवसाधु ) हुआ है। हे राजन् में जैन निर्व्रन्यवादी हैं, जिस fharat शक्ति मुझसे वाद करनेकी हो वह सामने ग्राकर वाद करें ।" Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र का मुनिजीवन और आपत्काल २३७ पौर न दशपुरमें रहते हुए उनके मृष्टमोजी होनेकी प्रतिज्ञाका ही कोई उल्लेख है । परन्तु इन्हें रहने दीजिये, सबसे बड़ी बात यह है कि उस पद्यमें ऐसा कोई भी उल्लेख नही है जिससे यह मालूम होता हो कि समंनभद्र उस समय भस्मक व्याघिसे युक्त थे अथवा भोजनकी यथेष्ट प्राप्तिके लिये ही उन्होंने वे वेष धारण किये थे । बहुत संभव है कि कांचीमें 'भस्मक' व्याधिकी शांतिके बाद समंतभद्रने कुछ अर्मे तक और भी पुजिनदीक्षा धारण करना उचित न समझा हो; बल्कि लगे हाथों शासनप्रचारके उद्देशमे, दूसरे धर्मोके आन्तरिक भेदको अच्छी तरहमे मालूम करनेके लिये उस तरह पर भ्रमण करना जरूरी अनुभव किया हो और उमी भ्रमगा का उक्त पद्यमें उल्लेख हो; अथवा यह भी होमकता है कि उक्त पद्य मे ममंतभद्रके निग्रंन्यमुनिजीवनमे पहलेकी कुछ घटनाओंका उल्लेख हो जिनका इतिहास नहीं मिलता और इमलिये गिन पर कोई विशेष राय कायम नहीं की जामकती। पद्यमें किमी क्रमिक भ्रमणका अथवा घटनाओंके क्रमिक होनेका उल्लेख भी नहीं है; कहां कांची और कहाँ उत्तर वंगालका पुण्डनगर ! पुण्ड़ने वागगामी निकट, वहां न जाकर उज्जनके पाम 'दयपुर' जाना और फिर वापिम वागणमी पाना, ये वाने क्रमिक भ्रमणको भूचित नहीं करनी । मेरी गयमे पहली बात ही ज्यादा संभवनीय मालूम होती है। प्रस्तु, इन सब बातोंको ध्यान में रखते हए, ब्रह्म नेमिदनकी कथाके उस अंशपर सहमा विश्वास नहीं किया जा सकता जो कांचीमें बनारम तक भोजनके लिये भ्रमण करने और बनारसम भस्मक-व्याधिको शाति आदिमे सम्बन्ध रखता है, खासकर __ कुछ जैन विद्वानोंने इस पद्यका अर्थ देते हुए 'मलमलिनतनुर्लाम्बुशे पाण्डुपिण्ड:' पदोंका कुछ भी अर्थ न देकर उसके स्थानमें 'शरीरमें रोग होनेसे ऐसा एक खंडवाक्य दिया है; जो ठीक नहीं है । इस पद्यमें एक स्थानपर 'पाण्डुपिण्डः' और दूसरे पर 'पाण्डुरागः' पद पाये हैं जो दोनों एक ही अर्थ के वाचक हैं और उनमे यह स्पष्ट है कि समन्तभद्रने जो वेष वाराणसीमें धारण किया है वही लाम्बुशमें भी धारण किया था। हर्षका विषय है कि उन लेखकोंमेंसे प्रधान लेखकने मेरे लिखनेपर अपनी उस भूलको स्वीकार किया है और उसे अपनी उस समयकी भूल माना है। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश ऐसी हालतमें जब कि 'राजावलिकथे' साफ़ तौर पर कांचीमें ही भस्मक-व्याधिकी शांति प्रादिका विधान करती है और सेनगणकी पट्टावलोसे भी उसका बहुत कुछ समर्थन होला है। जहाँ तक मैंने इन दोनों कथानोंकी जाँच की है, मुझे 'राजावलिकथे' में दी हुई समन्तभद्रकी कथामें बहुत कुछ स्वाभाविकता मालूम होती है-मगुवकहल्ली ग्राममें तपश्चरण करते हुए भस्मक-व्याधिका उत्पन्न होना, उसकी निःप्रतीकारावस्थाको देखकर समन्तभद्र का गुस्से सल्लेखनावतकी प्रार्थना करना, गुरुका प्रार्थनाको अस्वीकार करते हुए मुनिवेष छोड़ने और रोगोपगान्तिके पश्चात् पुजिनदीक्षा धारण करनेकी प्रेरणा करना, 'भीमलिंग' नामक गिवालयका और उसमें प्रतिदिन १२ खंडुग परिमारग तंडुलानके विनियोगका उल्लेख, शिवकोटि राजाको प्रागीर्वाद देकर उसके धर्मकृत्योंका पूछना, क्रमश: भोजनका अधिक अधिक बचना, उपमर्गका अनुभव होने ही उमकी निवृत्तिपर्यन ममस्त आहार...पानादिकका त्याग करके ममन्नभद्र का पहलेमे ही जिनस्तुति लीन होना, चन्द्रप्रभकी स्तुतिके बाद शेष तीर्थकगेकी स्तुति भी करते रहना, महावीर भगवान्की स्तुति की समाप्ति पर चरणों में पड़े हुए राजा और उनके छोटे भाईको पाशीर्वाद देकर उन्हें मद्धर्मका विस्तृत स्वरूप बतलाना, राजाके पुत्र 'श्रीकंठ' का नामोल्लेख, गजाके भाई "शिवायन का भी गजाके माथ दीक्षा लेना, और समन्तभद्रकी प्रोग्मे भीर्मालग नामक महादेवके विषयमें एक गन्द भी अविनय या अपमानका न कहा जाना, ये मय बातें, जो नेमिदत्तकी कथामें नहीं हैं. इस कथाकी स्वाभाविकताको बहुत कुछ वटा देती है। प्रत्युत इमके, नेमिदनकी कथामे कृत्रिमताकी बहुत कुछ गंध पाती है, जिमका कितना ही परिचय ऊपर दिया जा चुका है । इसके मिवाय, राजाका नमस्कारके लिये प्राग्रह, ममम्मभद्र का उनर, और अगले दिन नमस्कार करनेका वादा, इत्यादि बानें भी उसी कुछ ऐसी ही है ओ जीको नहीं लगती और प्रापनिके योग्य जान पड़ती है। नेमिदनकी इस कयापरमे ही कुछ विद्वानोंका यह बयान हा गया था कि इसमें जिनविम्बके प्रकट होनेकी जो बात कही गई है वह भी शायद कृत्रिम ही है और वह 'प्रभावकचरित' में दी हुई 'मिद्धमेन दिवाकर' की कथामे, कुछ परिवर्तनके साथ, ले ली गई जान परनी है-उममें भी स्तुति पढ़ते हुए इसी तरह Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल २३६ पार्श्वनाथका बिम्ब प्रकट होनेकी बात लिखी है। परन्तु उनका यह खयाल गलत था और उसका निरसन श्रवणबेलगोलके उस मल्लिपेणप्रशस्ति नामक शिलालेखसे भले प्रकार हो जाता है, जिसका 'वंद्यो भस्मक' नामका प्रकृत पद्य ऊपर उद्धृत किया जा चुका है और जो उक्त प्रभावकचरितसे १५६ वर्ष पहिलेका लिम्बा हया है--प्रभावकरितका निर्माणकाल वि० सं० १३३४ है और गिलालेख शक संवत् १०६० (वि० सं० ११८५ ) का लिखा हुअा है। इससे स्पष्ट है कि चन्द्रप्रभ-बिम्बके प्रकट होनकी बात उक्त कथापरमे नही ली गई बलि वह समन्तभद्रकी कथाम खास तौरपर सम्बन्ध रखती है । दूसरे एक प्रकारकी घटनाका दो स्थानोंपर होना कोई अस्वाभाविक भी नहीं है। हाँ, यह हो सकता है कि नमस्कारके लिये प्राग्रह प्रादिकी बात उक्त कथा परमे ले ली गई हो। क्योंकि 'गजावलिकथे' प्रादिमे उसका कोई समर्थन नहीं होता, और न ममन्तभद्रके सम्बन्धमें वह कुछ युक्तियुक्त ही प्रतीत होती है । इन्ही सब कारणोमे मेग यह कहना है कि ब्रह्म नेमिदनने 'गिवकोटि' को जो वागगामी का गजा लिम्बा है वह कुछ ठीक प्रतीत नही होता: उसके अस्तित्वकी सम्भावना अधिकतर का चीकी पार ही पाई जाती है, जो ममन्तभद्रके निवासादिका प्रधान प्रदेश रहा है। अस्तु । शिवकाटिने समन्तभद्रका गिप्य होने पर क्या क्या कार्य किये और कोन कौनगे ग्रन्थाकी रचना की. यह सब एक जुदा हा विषय है जो खास गिवकोटि प्राचार्य के चरित्र अथवा इतिहास सम्बन्ध रखता है, और इसलिये मै यहाँ पर उसकी कोई विशेष चर्चा करना उचित नहीं समझता । 'शिवकोटि' और 'शिवायन' के सिवाय समन्तभद्रके और भी बहत मे ... . .......... +13 FEAF%2FRPrin Ind tha AKA rat and ॐ प्रभाचन्द्रभट्टारक का गद्य कथाकोश, जिसके आधार पर नेमिदत्तने अपने ब.थाकोगकी रचना की है, 'प्रभावकारत' से पहलेका बना हुआ है अत: यह भी हो सकता है कि उमपरमे ही प्रभावचरितमें यह बात ले ली गई हो। परन्तु साहित्य की एकतादि कुछ विशेष प्रमाणोंके बिना दोनों ही के सम्बन्धमें यह कोई लाजिमी बात नहीं है कि एकने दूमरेकी नकल ही की हो; क्योंकि एक प्रकारके विचारोंका दो ग्रन्थकर्तामोंके हृदयमें उदय होना भी कोई असंभव नहीं है। . Lunatha waitil A . INR sh Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश शिष्य रहे होंगे, इसमें सन्देह नहीं है परन्तु उनके नामादिका अभी तक कोई पता नहीं चला, और इसलिये अभी हमें इन दो प्रधान शिष्यों के नामों पर ही संतोष करना होगा। __ समन्तभद्रके शरीरमें 'भस्मक' व्याधिकी उत्पत्ति किस समय अथवा उनकी किस अवस्थामें हुई, यह जाननेका यद्यपि कोई यथेष्ट साधन नहीं है, फिर भी इतना जरूर कहा जा सकता है कि वह समय, जबकि उनके गुरु भी मौजूद थे, उनकी युवावस्थाका ही था। उनका बहुतसा उत्कर्ष, उनके द्वारा लोकहितका बहुत कुछ साधन, स्याद्वादतीर्थके प्रभावका विस्तार और जैनशासनका अद्वितीय प्रचार, यह सब उसके बाद ही हुप्रा जान पड़ता है । 'राजावलिकये में तपके प्रभावसे उन्हें 'चारणऋद्धि' की प्राप्ति होना, और उनके द्वारा 'रत्नकरंडक' आदि ग्रंथोंका रचा जाना भी पुनर्दीक्षाके बाद ही लिखा है । माथ ही, इसी अवसर पर उनका खास तौर पर 'म्याद्वाद-वादी'-स्याद्रादविद्याके प्राचार्यहोना भी सूचित किया है * इसीसे एडवर्ड गइम माहब भी लिखते हैं It is told of him that in cariy life he (Samantabhadra) perforined severe penance, and on account of a depressing discase was about to make the vow of Sallekhana, or starvation; but was dissuaded by his guru, who foresaw that he would be a great pillar of the Jain faith. अर्थात्-समन्तभद्रकी बाबत यह कहा गया है कि उन्होंने अपने जीवन (मुनिजीवन ) की प्रथमावस्था में घोर तपश्चरण किया था, और एक प्रव. पीडक या अपकर्षक रोगके कारण वे सल्लेखनावत धारण करने ही को थे कि उनके गुरुने, यह देखकर कि वे जैनधर्मके एक बहुत बड़े स्तम्भ होने वाले हैं, उन्हें वैसा करनेसे रोक दिया । इस प्रकार यह स्वामी समन्तभद्र की भस्मकव्याधि और उसकी प्रतिक्रिया एवं शान्ति प्रादिकी घटनाका कुछ समर्थन और विवेचन है। “मा भावि तीत्यंकरन् अप्प समन्तभद्रस्वामिगसु पुनर्दीमेगोष्ट तपस्सामयेदि चतुरंगुल-चारणत्वमं पडेदु रत्नकरण्डकादिजिनागमपुराणमं पेलि स्याबादवादिनल भागि समाधिय् मोडेदरु ।" Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका एक और परिचय-पद्य - . .. .. ... . स्वामी समन्तभद्रके आत्म-परिचय-विषयक अभी तक दो ही ऐमे पद्य मिल रहे थे जो राजसभाओंमें राजाको सम्बोधन करके कहे गये है-एक 'पूर्व पाटलिपुत्रमध्यनगरे मेरी मया नाडिना' नामका है, जो करहाटककी राजसभा में अपनी पूर्ववाद-घोपरगानोंका उल्लेख करते हुए कहा गया था और दूसरा *. 'काच्यां नग्नाट कोह। इस वाक्यमे प्रारम्भ होता है जो किसी दूसरी राजसभा में कहा हा जान पड़ता है और जिसमें विभिन्न स्थानोंपर अपने विभिन्न साधु2. वेषोंका उल्लेख करते हुए अपनेको जननिर्गन्थवादी प्रकट किया है और साथ ही : यह चैलेंज किया है कि जिम किसीकी भी वादकी शक्ति हो वह सामने आकर * वाद करे। हालमे समन्तभद्र-भारतीका संशोधन करते हुए, स्वयम्भूस्तोत्रकी प्राचीन प्रतियोंकी खोजमें, मुझे देहलीके पंचायती मदिरसे एक ऐमा अतिजीर्ण-शीर्ण गुटका मिला है जिसके पत्र उलटने-पलटने आदिकी जरा-सी भी असावधानीको + पूर्व पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताडिता, पश्चान्मालवसिन्धुठक्कविषये कांचीपुरे वैदिशे। प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभट विद्योत्कटं संकटं, वादार्थी विचराम्यहं नरपते ! शार्दूलविक्रीडितम् ॥ + काच्यां नग्नाटकोऽहं मलमलिनतनुर्लान्बुशे पाण्डुपिड:. पुण्डोड़े शाक्यभिक्षुदशपुरनगरे मृ(मि)ष्टभोजी परिव्राट् । वाराणस्यामभूवं शशि (श)घरधवलः पाण्डुरांगस्तपस्वी, राजन् ! यस्यास्ति शक्तिः सवदतु पुरतो जैननिर्गन्यवादी ।। .. .232312 .15aa..... ....... . .. . .. " Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश सहन नहीं कर सकते । इस गुटकेके अन्तर्गत स्वयम्भूस्तोत्रके अन्तमें उक्त दोनों यथाक्रम पद्योंके अनन्तर एक तीसरा पद्य और संगृहीत है, जिसमें स्वामीजीके परिचय-विषयक दस विशेषण उपलब्ध होते है और वे हैं-१ प्राचार्य, २ कवि, ३ वादिराट, ४ पण्डित, ५ दैवज्ञ (ज्योतिर्विद्), ६ भिषक् (वैद्य), ७ मान्त्रिक (मन्त्रविशेषज्ञ), ८ तान्त्रिक (तन्त्रविशेषज्ञ), ६ आज्ञासिद्ध और सिद्ध सारस्वत । वह पद्य इस प्रकार है : श्राचार्योहं कविरहमहं वादिराट् पंडितोह दैवज्ञोहं भिषगहमहं मांत्रिकस्तांत्रिकोहं । राजन्नस्यां जलधिवलयामेखलायामिलाया माज्ञासिद्धः किमिति बहुना सिद्धसारस्वताहं ॥३॥ इस पद्यमें वर्णित प्रथम तीन विशेषरग-प्राचार्य, कवि और वादिराट...--- तो पहलेमे परिज्ञान है--अनेक पूर्वाचार्योक वाक्यों, ग्रंथों तथा शिलालेखोमें इनका उल्लेख मिलता है। चौथा पंडित' विशेषग्ण अाजकलके व्यवहारम 'कवि' विशेषण की तरह भले ही कुछ साधारण समझा जाता हो परन्तु उस समय कविके मूल्यकी तरह उसका भी बडा मूल्य था और वह प्रायः गमक (शास्त्रोंके मर्म एवं रहस्यको समझने और दूमगेको ममझाने में निपुण) जैसे विद्वानोंके लिये प्रयुक्त होता था । भगर्वाग्जनमेनाचार्यने प्रादिपारगमे ममन्तभद्रके यशको कवियों, गमकों, वादियों और वाग्मियोंके मस्तकका चडामगि बतलाया है। और इसके द्वारा यह सूचित किया है कि उम ममय जितने कवि, गमकवादी और वाग्मी थे उन सबपर ममन्तभद्रके यगी छाया पडी हुई थी- उनमें कवित्व, गमकत्व, वादित्व और वाग्मित्व नामके ये चारों गुण असाधारगा कोटिके विकासको प्राप्त हुए थे, और इसलिये पडित विशेषरण यहाँ गमकत्व जैसे गुगा विशेषका द्योतक है। शेष सब विशेषण इम पद्यके द्वारा प्राय: नए ही देखो, वीरसेवामन्दिरसे प्रकाशित 'सत्साधुस्मरणमंगलपाठ' में 'स्वामिसमन्तभद्रस्मरण • कवीनां गमकानां च वादीनां वाग्मिनामपि । यश: सामन्तभद्रीयं मूनि चूगमणीयते ॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समंतभद्रका एक और परिचय पद्य २४३ प्रकाशमें पाए है और उनसे ज्योतिष, वैद्यक, मन्त्र और तन्त्र जैसे विषयोंमें भी समन्तभद्रकी निपुणताका पता चलता है। रत्नकरण्डश्रावकाचारमें अंगहीन सम्यग्दर्शनको जन्मसन्ततिके छेदनमें असमर्थ बतलाते हुए, जो विषवेदनाके हरने में न्यूनाक्षरमन्त्रकी असमर्थताका उदाहरण दिया है वह और शिलालेखों तथा ग्रंथोंमे 'स्वमन्त्रवचन-व्याहूतचन्द्रप्रभ:' जैमे वाक्योंका जो प्रयोग पाया जाता है वह सब भी प्रापके मन्त्रविशेषज्ञ तथा मन्त्रवादी होने का सूचक है। अथवा यों कहिये कि आपके 'मान्त्रिक विशेषणमे अब उन सब कथनोंकी यथार्यताको अच्छा पोषण मिलता है । इधर हवी शताब्दीके विद्वान् उग्रादित्याचायने अपने 'कल्याणकारक' वैद्यक ग्रंथमें 'अष्टाङ्गमप्यविलमत्र समन्तभद्रः प्रोक्तं सविस्तरवचोविभवैर्विशेषात' इत्यादि पद्य (२०-८६) के द्वारा ममन्नभद्रकी अष्टाङ्ग वैद्यकविषयपर विस्तृत रचनाका जो उल्लेख किया है उसको ठीक बतलानेमे 'भिषक्' विशेषण अच्छा सहायक जान पड़ना है । अन्नके दो विशेषण 'श्राज्ञासिद्ध' और 'सिद्ध सारम्बत' तो बहुत ही महत्वपूर्ण हैं और उनमे स्वामी ममन्तभद्रका असाधारण व्यक्तित्व बहुत कुछ सामने आ जाता है । इन विशेषणोंको प्रस्तुत करते हुए स्वामीजी राजाको सम्बोधन करते हुए कहते हैं कि-'हे राजन् ! मैं इस समुद्रवलया पृथ्वीपर 'प्राज्ञासिद्ध' है --जो प्रादेश दू वही होता है । और अधिक क्या कहा जाय 'मै सिद्धसारस्वत हूं-सरस्वती मुझे सिद्ध है।' इस सरस्वतीकी मिद्धि अथवा वचनसिदि में ही गमन्नाभद्रकी उस सफलता का सारा रहस्य मनिहित है जो स्थान स्थानपर वादघोषणाएं करने पर उन्हें प्राप्त हुई थी अथवा एक शिलालेम्वके कथनानुमार वीर जिनेन्द्र के शासनतीर्थकी हजारगुणी वृद्धि करनेके रूपमें वे जिसे अधिकृत कर सके थे । अनेक विद्वानोने 'सरस्वती-स्वरविहारभूमयः' जैसे पदोंके द्वारा समन्तभद्र को जो सरस्वतीकी स्वच्छन्द विहारभूमि प्रकट किया है और उनके रचे हुए प्रबन्ध (ग्रंथ) रूप उज्ज्वल सरोवरमें सरस्वतीको क्रीड़ा करती हुई बतलाया है उन सब *देखो, सत्साघुस्मरणमंगलपाठ, पृ० ३४, ४६ । 1 देखो, बेलूरताल्लुकेका शिलालेख नं० १७ (E. C. V.) तथा सत्साधुस्मरणमंगल पाठ, पृ० ५१ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश कथनोंकी पुष्टि भी इस 'सिद्ध सारस्वत' विशेषणसे भले प्रकार हो जाती है। . समन्तभद्रकी वह सरस्वती (वाग्देवी) जिनवाणी माता थी जिसकी अनेकामतदृष्टिद्वारा अनन्य आराधना करके उन्होंने अपनी वाणीमें वह अतिशय प्रात किया था जिसके मागे सभी नततस्तक होते थे और जो आज भी सहृदय विद्वानों को उनकी ओर आकर्षित किए हुए है। यहाँपर में इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि उक्त गुटकेमें जो दूसरे दो पद्य पाये जाते है उनमें कहीं-कहीं कुछ पाठभेद भी उपलब्ध होता है, जैसे कि प्रथम पद्यमें 'ताडिता' की जगह पाटिता' 'वैदिशे' की जगह 'वैद्रों 'बहुभटं विद्योत्कटं' की जगह 'बहुभटैविद्योत्कट:' और 'शार्दूलविक्रीडित' की जगह 'शार्दूलवत्क्रीडितु" पाठ मिलता है। दूसरे पद्यमें 'कांच्या' की जगह 'कांच्या' 'लांबुशे' की जगह 'लांबुसे', 'डोडे' की जगह "पिंडोई', 'शाक्यभिक्षुः' की जगह 'शाकभक्षी', 'वाराणस्यामभूवं' की जगह 'वागरणम्यां बभूव', 'शशधरधवल:' की जगह 'शशधग्धवला' और 'यस्यानि' की जगह 'जस्यास्ति' पाठ पाया जाता है । इन पाठभेदोंमें कुछ तो माधारण है, कुछ लेखकोंकी लिपि की अशुद्धिके परिणाम जान पड़ते हैं और कुछ मौलिक भी हो सकते है। 'शाक्यभिक्षः' की जगह 'शाकभक्षी' जैसा पाठभेद विचारणीय है। भट्टारक प्रभाचन्द्र और ब्रह्म मिदत्त के कथाकोपोंमे जिस प्रकार ममन्तभद्रकी कथा दी है उसके अनुसार तो वह 'शाक्यभिक्षुः' ही बनता है; परन्तु यह भी हो सकता है कि उम पाठके कारण ही कथाको वैसा रूप दिया गया हो और वह 'मिष्टभोजी पग्विाट्' मे मिलता जुलता 'शाकभीजी' परिवाटका वाचक हो । कुछ भी हो, अभी निश्चितरूपमे एक बात नहीं कही जा सकती । इस विषयमें अधिक खोजकी पावश्यकता है। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . स्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री, तार्किक और योगी तीनों थे AN अनेकान्तकी पिछली किरण (वर्ष ७ नं. ३-४) में मुहद्वर पं० नाथूरामजी प्रेमीका एक लेख प्रकाशित हुआ है जिसका शीर्षक है 'क्या रत्नकरण्डके कर्ना स्वामी समन्तभद्र ही है ?' इस लेखमें 'रत्नकरण्डश्रावकाचार' पर स्वामी ममन्तभद्रके कर्तृत्वकी आशंका करते हए प्रेमीजीने वादिराजसूरिके पाश्र्वनाथचरितमे 'स्वामिनश्चरितं तस्य', 'अचिन्त्यमहिमादेवः', 'त्यागी स एव योगीन्द्रो' इन तीन पद्योंको इमी क्रममे एक माथ उद्धृत किया है और बतलाया है कि इसमें कमशः स्वामी, देव और योगीन्द्र इन तीन प्राचार्योंकी स्तुति उनके अलग-अलग ग्रन्थों दिवागम, जनेन्द्र, रत्नकरण्डक) के संकेत सहित की गई है। 'स्वामी' तथा 'योगीन्द्र' नाम न होकर उपपद है पीर 'देव' जनेन्द्रव्याकरणके कर्ता देवनन्दीके नामका एक देश है। स्वामी पद देवागमके कर्ता स्वामी समन्तभद्रका वाचक है और 'योगीन्द्र' पद, बीचमे देवनन्दीका नाम पड़ जानेमे, स्वामी समन्तभद्रमे भिन्न किमी दूसरे ही आचार्यका वाचक है और इसलिये वे दूसरे प्राचार्य ही 'रत्नकरण्ड' के कर्ता होने चाहिये । परन्तु योगीन्द्र' पदके वाच्य वे दूसरे प्राचार्य कौन है यह आपने बतलाया नहीं । हाँ, इतनी कल्पना जरूर की है कि-"असली नाम रत्नकरण्डके कर्ताका भी समन्तभद्र हो सकता है, जो स्वामी समन्तभद्रमे पृथक् शायद दूसरे ही समन्तभद्र हों। यह कल्पना भी पापकी ( 'हो सकता है', 'शायद' मोर 'हों' जैसे शब्दोंके प्रयोगको लिये रहने Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश और दूसरे समन्तभद्रका कोई स्पष्टीकरण न होनेसे ) सन्देहात्मक है, और इस लिये यह कहना चाहिये कि 'योगीन्द्र' पदके वाच्यरूपमें आप दूसरे किसी आचार्यका नाम अभी तक निर्धारित नहीं कर सके हैं। ऐसी हालतमें आपकी प्राशंका और कल्पना कुछ बलवती मालूम नहीं होती। लेखके अन्तमें "समन्तभद्र नामके धारण करनेवाले विद्वान और भी अनेक हो गये हैं" ऐसा लिखकर उदाहरण के तौर पर अष्टसहस्रीकी विषमपद-नात्पर्य. वृत्तिके कर्ताका नाम सूचित किया है और बतलाया है कि वे म० म० सतीशचन्द्र विद्याभूषणके अनुसार ई० मन् १००० के लगभग हर हैं। हो सकता है कि ये 'विषमपद तात्पर्य-वत्ति' के कर्ता सनन्तभद्र ही प्रेमीजी की दृष्टिम उन दूसरे समन्तभद्रके रूपमें स्थित हों जिनके विषय में रत्नकरण्डके कर्ता हानेकी उपर्युक्त कल्पना की गई है । परन्तु एक तो इन्हें 'योगीन्द्र' सिद्ध नही किया गया, जिसमे उक्त पदमे प्रयुक्त योगीन्द्र' पदके साथ इनकी संगति कुछ ठीक बैठ सकती। दूसरे, इन विषमपद-तात्पर्यवृत्तिके कर्ता-विषयमे प्रेमीजी स्वयं ही प्रागे लिखते हैं "नाम तो इनका भी ममन्नभद्र था; परन्तु स्वामी समन्तभद्रसे अपनेको पृथक् बतलानेके लिए इन्होंने पापको 'लघु विशेषण सहित लिखा है।' अतः ये लघु ममन्तभद्र ही यदि रत्नकरण्डके कर्ता होते तो अपनी वृत्तिके अनुसार रत्नकरण्डमे भी स्वामी समन्तभद्रसे अपना पृथक् बोध करानेके लिए अपनेको 'लघुममन्तभद्र' के रूपमें ही उल्लेखित करते; परन्तु रत्नकरण्डके पद्यों, गद्यात्मक सन्धियों और टीका तकमें कही भी ग्रन्थके कर्तृत्वरूपसे 'लघुसमन्तभद्र' का नामोल्लेख नही है, तब उसके विषयमें लघुममन्तभद्र-कृत होनेकी कल्पना कैसे की जा सकती है ? नहीं की जा सकती:-खामकर ऐमी हालतमें जब कि * देवं स्वामिनममलं विद्यानन्दं प्रणम्य निजभक्त्या । विवृणोम्यष्टमहस्री-विषमपदं लधुसमन्तभद्रोऽहम् ॥१॥ * इन लघुममन्तभद्रके • अलावा चिक्कस०, गेरुसोप्पे स०, अभिनव म०. भट्टारक स० और गृहस्थ म० नामके पाँच समन्तभद्रोंकी मैंने और खोज की थी और उसे पाजमे कोई २० वर्ष पहले मा० दि० जैन ग्रन्थमालामें प्रकाशित रत्नकरण्ड-श्रावकाचारकी अपनी प्रस्तावनामें प्रकट किया था और उसके द्वारा Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री, तार्किक और योगी तीनों थे २४७ रत्नकरण्डकी प्रत्येक सन्धिमें समन्तभद्रके नामके साथ 'स्वामी' पद लगा हुआ है, जैसा कि सनातन जैनग्रन्थमालाके उस प्रथम गुच्छकसे भी प्रकट है जिसे मन् १९०५ में प्रेमीजीके गुरुवर पं० पन्नालालजी बाकलीवालने एक प्राचीन गुटके परसे बम्बईके निर्णयसागर प्रेस में मुद्रित कराया था और जिसकी एक सन्धिका नमूना इस प्रकार है " इति श्रीममन्तभद्रस्वामिविरचिते रत्नकरण्डनाम्नि उपासकाभ्ययने सम्यग्दर्शनवर्णनो नाम प्रथमः परिच्छेदः || १||" और इसलिये लेखके शुरू में प्रेमीजीका यह लिखना कि 'ग्रन्थमें कही भी कर्ताका नाम नही दिया है' कुछ मंगत मालूम नहीं देता । यदि पद्य भागमें नाम के देने को ही प्रत्यकारका नाम देना कहा जायगा तब तो ममन्तभद्रका 'देवागम' भी उनके नामसे शून्य ही ठहरेगा; क्योंकि उसके भी किसी पद्य में समन्तभद्रका नाम नही है । तीसरे, लघु समन्तभद्रने अपनी उस विषमपदनात्सर्यवृत्ति में प्रभाचन्द्रके 'प्रमेयकमाण्ड' का उल्लेख किया है, इसमे लघु समन्तभद्र प्रभाचन्द्रके वादके विद्वान् ठहरते हैं। और स्वयं प्रेमीजीके कथनानुसार इन प्रभाचन्दाचार्यने ही रत्नकरण्ड श्रावकाचारकी वह संस्कृत टीका लिखी है जो मारिएकचन्दग्रन्थमाला में उन्हीं मन्त्रमुद्रित हो चुकी है । इस टीकाके सन्धिवाक्योंमें ही नहीं किन्तु मूलग्रन्थकी टीकाका प्रारम्भ करते हुए उसके ग्रादिम प्रस्तावना वाक्य में यह स्पष्ट किया था कि समयादिककी दृष्टिसे इन छहों दूसरे समन्तभद्रों में से कोई भी रत्नकरण्डका कर्ता नहीं हो सकता है । ( देखो, उक्त प्रस्तावनाका 'ग्रन्थपर मन्देह' प्रकरण पृ० ५ मे । ) * अथवा तच्छक्तिसमर्थनं प्रमेयकमलमार्तण्डे द्वितीयपरिच्छेदे प्रत्यक्षेतरभेदादित्यत्र व्याख्यानावसरे प्रपञ्चतः प्रोक्तमत्रावगन्तव्यम् ।” " तथा च प्रमेयकमलमार्तण्डे द्वितीय परिच्छेदे इतरेतराभावप्रघट्टके प्रति पादितं 1 + देखो, जैनसाहित्य और इतिहास' ग्रन्थमें 'श्रीचन्द्र और प्रभाचन्द्र' नामक लेख, पृष्ठ ३३९ । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश भी प्रभाचन्द्राचार्यने इस रत्नकरण्डको स्वामी समन्तभद्रकी कृति सूचित किया है । यह प्रस्तावना - वाक्य और नमूनेके तौर एक रुन्धिवाक्य इस प्रकार है "श्रीसमन्तभद्रस्वामी रत्नानां रक्षणोपाय भूत रत्न कर एडकारूयं सम्यग्दर्शनादिरत्नानां पालनोपायभूतं रत्नकरण्डकाख्यं शास्त्रं कर्तुकामो निर्विघ्नत: शास्त्रपरिसमाप्यादिकं फलमभिलपन्निदेवताविशेषं नमस्कुर्वन्नाह - " " इति प्रभाचन्द्रविरचितायां समन्तभद्रस्वामिविरचितोपासकाध्ययनटीकायां प्रथमः परिच्छेदः ||१|| " प्रेमीजीने अपने 'जैनसाहित्य और इतिहास' नामक ग्रन्थ ( पृ० ३३६ ) में कुछ लेखोंके प्राधारपर यह स्वीकार किया है कि प्रभाचन्द्राचार्य धाराके परमारवंशी राजा भोजदेव और उनक उनगधिकारी जर्यासह नरेशके राज्यकालमें हुए हैं और उनका 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' भोजदेवके राज्यकालको रचना है । जब कि वादिराजसूरिका पार्श्वनाथचग्नि शमवत् ६८३ (वि० सं० १००२) में बनकर समाप्त हुआ है। इससे प्रभाचन्द्राचार्य वादिराजवं प्राय: समकालीन जान पड़ते हैं । और जब प्रेमीजीकी मान्यतानुसार उन्होने रत्नकरण्डकी वह टीका लिखी है जिसमें माफ तौर पर रत्नकरण्डको स्वामी मनभद्रको कृति प्रतिपादित किया गया है तब प्रेमीजीके लिये यह कल्पना करनेकी कोई माकूल वजह नहीं रहती कि वादिराजसूरि देवागम और रत्नकरणको दो नग प्रनय प्राचार्योंकी कृति मानने थे और उनके समक्ष वैमा माननेका कोई प्रमगा या जनश्रुति रही होगी । यहाँ पर मुझे यह देखकर बड़ा प्राश्वर्य होता है कि प्रेमीजीने वादिराजके स्पष्ट निर्देशके बिना ही देवागम और रत्नकरटको भिन्न भिन्न कर्तृ मानकर यह कल्पना तो कर डाली कि वादिराजके सामने दोनो ग्रन्थोंके भिनवलका कोई प्रमाण या जनश्रुति रही होगी, उनके were are afevere नहीं किया जा सकता; परन्तु १३वी शतके प्राचार्य १८ पाशायर जैसे महान् विद्वान्ने जब अपने 'धर्मामृत' ग्रन्थ में जगह जगह पर रस्नकरण्डको स्वामी समन्तभद्र की कृति और एक धागम ग्रन्थ प्रतिपादित किया है तब उसके सम्बन्ध में यह कल्पना नहीं की कि पं० प्राशावरजीके सामने भी वैसा प्रतिपादन करने Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री, तार्किक और योगी तीनों थे २४६ का कोई प्रबल प्रमाण अथवा जनश्रुतिका प्राधार रहा होगा !! क्या प्राशावरजी को एकाएक प्रविश्वासका पात्र समझ लिया गया, जो उनके कथनकी जांचके लिये तो पूर्व परम्पराकी खोजको प्रोलेजन दिया गया परन्तु वादिराजके तथाafed serni afeके लिए कोई संकेत तक भी नहीं किया गया ? नहीं मालूम इसमें क्या कुछ रहस्य है ? प्राशावरजी के सामने तो बहुत बड़ी परम्परा प्राचार्य प्रभाचन्द्र की रही है, जो अपनी टीका द्वारा रत्नकरण्डको स्वामी समन्तभद्रका प्रतिपादित करने थे और जिनके वाच्यको प्रागाधरजीने अपने धर्मामृत की टीका श्रद्धा साथ उद्धृत किया है और जिनके उद्धरणका एक नमूना इस प्रकार है "यथास्तत्र भगवन्नः श्रीमत्प्रभेदेवपादा रत्नकरण्ड-टीकायां 'चतुरात्रि' इत्यादि सूत्र 'द्विनिपण' इत्यस्य व्याख्याने 'देववन्दनां कुर्वता र समानौ वापविश्य प्राणामः कर्तव्यः" इति । १० - पनगारधर्मामृन प० न० ६३ की टीका शारजीके पहले १२वी शताब्दी श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव भी होगये है. जो की स्वामी समन्तभद्रकी कृति मानते थे, इसमें नियममारकी टीका उन्होने तथा चोक श्रीममन्नमद्रस्यामिभिः इस वाक्य के साथ रत्नeroent अन्नरक्त" नामका पद्य उद्धृत किया है। इस तरह प० प्राशाभरजीने पूर्वको १२वा पौर eiferaसूरके समय तक रत्नकरण्डके स्वामी का पता चलता है। खोजने पर और भी प्रमाण मिल russafrasा पता तो उसके वाक्योंके उद्धरणों तथा अनुमरणोके द्वारा विक्रमकी छठी ( ईमाको ५वी) नाब्दी तक पाया जाता है . और उदाहरण के तौरपर रत्नकरण्डका 'प्राप्तोपमनुस्य पद्य न्यायावतार में उद्धृत मिलता है. जो ई० की वी शताब्दिकी रचना प्रमाणित हुई है । और reserves fear ही पदवाक्योंका अनुसरण 'सर्वार्थसिद्धि' ( ई० की ५वीं शताब्दि ) में पाया जाता है और जिनका स्पष्टीकरण 'सर्वार्थसिद्धिपर ममन्नभद्रका प्रभाव' नामक लेखमें किया जा चुका है ( देखो, अनेकान्न वर्ष ५ कि० १०-११ ) ११वी शताब्दीमे भी, न होनेकी मान्यतासकते है । और वैसे Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश इसलिये उसके बाद के किसी विद्वान द्वारा उसके कर्तृत्वकी कल्पना नहीं की जा सकती। यहाँ पर पाठकोंको इतना और भी जान लेना चाहिये कि आजमे कोई २० वर्ष पहले मैंने 'स्वामी समन्तभद्र' नामका एक इतिहास ग्रन्थ लिखा था, जो प्रेमीजीको समर्पित किया गया था और माणिकचन्द्र-जैनग्रथमालामे रल. करण्ड-श्रावकाचारकी प्रस्तावनाके साथ भी प्रकाशित हुआ था। उसमे पाश्वनाथचरितके उक्त 'स्वामिनश्चरितं' और 'त्यागी स एव योगीन्द्र। इन दोनों पद्योको एक साथ रखकर मैने बतलाया था कि इनमे वादिर जमूरिने स्वामी समन्तभद्रकी स्तुति उनके 'देवागम' और 'र नकरारक'नामक दो प्रवचनों ( ग्रन्थों ) के उल्लख पूर्वक की है। माथ ही, क फुटनोट-दाग यह मचन किया था कि इन दोनो पद्योंके मध्यमें 'अचिन्त्यमहिमा देयः माऽभिवन्दया हितैषिणा । शब्दाच येन मिद्धयन्ति साधुत्वं प्रतिलम्भिना:" यह पद्य प्रकाशित प्रनिमे पाया जाता है, जो मेरी गयमे भक्त दानो पोक वादका मालूम होता है और जिमका 'देव:' पद मभवत: देवनन्दी । पूजापान ) का वाचक जान पड़ता है। और लिखा था कि "यदि यह वीमग पद्य मचमुच ही ग्रन्थकी प्राचीन प्रतियोंमें इन दोनों पद्योके मध्यमे ही पाया जाना है और मध्यका ही पद्य है तो यह कहना होगा कि वादिगजने ममन्नभद्रको अपना हिन चाहने वालोंके द्वारा बन्दनीय और अचिन्यमहिमा वाला देय भी प्रतिपादन किया है। साथ ही यह लिखकर कि उनके द्वारा शब्द भये प्रकार सिद्ध होते हैं, उनके ( समन्तभद्र के ) किमी व्याकरण ग्रंथका उल्लम्ब किया है ।" इस मूनना और सम्मतिके अनुमार विद्वान् लोग बगबर यह मानते प्रा रहर कि त्यागी स एव योगीन्द्रो येनाक्षय्यमवावहः । अधिन भव्य दिया रम्नकरण्डक' इम पथके द्वारा वादिगजमुग्नेि पूर्वके 'स्वामिनश्चग्नि' पामें उल्लिखित स्वामी समन्तभद्रको ही रत्नकरण्डका कर्ता मूचित किया है, नुनांचे प्रोफसर हीरालालजी एम०ए० भी सन् १६४२ में पटवण्डागमकी चोयी जिन्दकी प्रस्ताबना लिखते हुए उमके १२ वं पृष्ठपर लिखते है 'श्रावकाचारका सबसे प्रधान, प्राचीन, उत्तम और सुप्रसिद्ध ग्रन्थ म्वामी समन्तभद्रकृत रत्नकरण्ड-श्रावकाचार है, जिसे वादिराजग्नेि 'प्रक्षय्यमुखावह' Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री, तार्किक और योगी तीनों थे २५१ और प्रभाचन्द्रने 'अखिल सागारमार्गको प्रकाशित करनेवाला सूर्य' लिखा हैं" मेरे उक्त फुटनोटको लक्ष्यमें रखते हुए प्रेमीजी अपने लेखमें लिखते है'यदि यह कल्पना की जाय वि. पहले श्लोकके बाद ही तीसरा लोक होगा, बीचका इलोक गलतीसे तीसरेकी जगह अप गया होगा - यद्यपि इसके लिये हस्तलिखित प्रतियोंका कोई प्रमाण अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है तो भी, दोनोको एक साथ रखनेपर भी, स्वामी और योगीन्द्रको एक नहीं किया जासकता और न उनका सम्बन्ध ही ठीक बैठता है । परन्तु सम्वन्ध क्योकर ठीक नहीं वैटता और स्वामी तथा योगीन्द्रको एक कंस नहीं किया जा सकता ? इसका कोई स्पष्टीकरण आपने नहीं किया । मात्र यह कह देनसे काम नहीं चल सकता कि तीनो एक एक ग्राचार्यकी स्वतन्त्र प्रशस्ति हैं" । क्योंकि यह बात तो it farara हो है कि तीनो एक एक श्राचार्यकी प्रमस्ति है या दोकी अथवा नीनकी । वादिराजमृति तो कही यह लिखा नहीं कि "हमने १५ लोकों में पूर्व १५ ही प्राचार्योंका या कवियोका स्मरण किया है और न दूसरे ही किसी प्राचार्य ऐसी कोई सूचना की है। इसके सिवाय समन्तभद्रके साथ 'देव' उपपद भी जुड़ा हुआ गाया जाता है, जिसका एक उदाहरण देवागमकी वसुनन्दिवृत्तिके ग्रन्त्यमगलका निम्न पद्य है समन्तभद्रदेवाय परमार्थविकल्पिते । समन्तभद्रदेवाय नमोऽस्तु परमात्मने ॥ १ ॥ और इस लिये उक्त मध्यवर्ती श्लोक भाए हुए 'देव' पदके वाच्य समन्तभद्र भी हो सकते है. जैसा कि उपर्यु' लिखित फुटनोट में कहा गया है, उसमें कोई बाधा नही मानी । इसी तरह यह कह देन भी काम नहीं चलता कि - "तीनो लोक अलगअलग अपने आपमें परिपूर्ण है, ने एक दूसरेकी प्रपेक्षा नही रखते।" क्योकि अपने ग्रामे परिपूर्ण होते और एक मरेकी अपेक्षा न रखते हुए भी क्या ऐसे एक अधिक लोकों द्वारा किसीकी स्तुति नही की जा सकती ? जरूर की जा सकती है। और इसका एक सुन्दर उदाहरण भगवज्जिनसेन द्वारा समन्तभद्रकी ही स्तुनिके निम्न दो श्लोक है, जो अलग-अलग अपने में परिपूर्ण हैं, एक दूसरेकी अपेक्षा नहीं रखते और एक साथ भी दिये हुए है- Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश नमः समन्तभद्राय महते कविवेधसे । यद्वचो वज्रपातेन निर्भिन्नाः कुमताद्रयः ॥ ४३ ॥ कवीनां गमकानां च वादीनां वाग्मिनामपि । यशः सामन्तभद्रीय मूर्ध्नि चूड़ामणीयते ॥ ४४ ॥ - प्रादिपुराण, प्रथम पर्व यहां पर यह बात भी नोट कर लेने की है कि भगवजिनसेनने 'प्रवादिकरियूथानां' इस पद्यसे पूर्वाचार्योकी स्तुतिका प्रारम्भ करते हुए, समन्तभद्र र अपने गुरु वीरसेनके लिये तो दो दो पद्योंमें स्तुति की है. शेषमेसे किसी भी Marinी स्तुति के लिये एकसे अधिक पचका प्रयोग नही किया है। और इस लिये यह स्तुतिकर्ताकी इच्छा और रुचिपर निर्भर है कि वह सबकी एक-एक पद्य स्तुति करता हुआ भी किमीकी दो या तीन पद्यमे भी स्तुति कर मकता है - उसके ऐसा करनेमें बाधाकी कोई बात नहीं है। और इसलिये प्रेमीजीका अपने उक्त तर्कपरसे यह नतीजा निकालना कि तब उक्त दो लोकोमे एक ही समन्तभद्रकी स्तुति की होगी, यह नही हो सकता." कुछ भी युक्ति-संगत मालूम नहीं होता । हाँ, एक बात लेखके अन्नमं प्रेमीजीने और भी कही है। सभव है नही उनका अन्तिम तर्क और उनकी आशंकाका मूलाधार हो, वह वान इस प्रकार है 7 "देवागमादिके कर्त्ता और रत्नकरण्डके कर्ना अपनी रचनाशैली प्रर विषयकी दृष्टि से भी एक नही मालूम होते । एक तो महान् तार्किक है और दूसरे धर्मशास्त्री | जिनमेन यादि प्राचीन प्राचार्यनि उन्हें वादी, वाग्मी और तार्किक के रूपमें ही उल्लेखित किया है, धर्मशास्त्रीके रूपमे नहीं। योगीन्द्र जैसा विशेषण तो उन्हें कही भी नहीं दिया गया ।" I इसमे मालूम होता है कि प्रमोजी स्वामी समन्तभद्रको 'तार्किक' मानते हैं। परन्तु 'धर्मशास्त्री' और 'योगी' माननमे सन्दिग्ध है, और अपने इस सन्दहके कारण स्वामीजीके द्वारा किमी धर्मशास्त्रका रचा जाना तथा पार्श्वनाथ चरितके उस तीसरे इलोकमें 'योगीन्द्र' पदके द्वारा स्वामीजीका उल्लेख किया जाना उन्हें कुछ संगत मालूम नहीं होता, और इसलिये वे शंका शील बने हुए है। ऐसा Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री, तार्किक और योगी तीनों थे २५३ नहीं कि वे एक तार्किकका धर्मशास्त्री तथा योगी होना पसंभव समझते हों, बल्कि इस विषयमें उनकी दूसरी दलील है और वह केवल इतनी ही है कि-किसी प्राचीन प्राचार्यने स्वामी समन्तभद्रको धर्मशास्त्रीके रूपमें उल्लेखित नहीं किया और योगीन्द्र जैसा विशेषण तो उन्हें कहीं भी नहीं दिया गया।' परन्तु यह दलील ठीक नहीं है; क्योंकि श्रीजिनमेनाचार्यमे भी प्राचीन प्राचार्य प्रकलंकदेवने देवागम-भाष्यके मंगलपद्यमें येनाचार्यसमन्तभद्र -यतिना तस्मै नमः संततं' इस वाक्यके द्वाग समन्तभद्रको प्राचार्य' और 'यति' दोनों विशेषगोंक साथ उल्लेखिन किया है जिममें 'प्राचार्य' विशेषगण 'धर्माचार्य' अथवा 'प्राचार्यपरमेष्ठि' का वाचक है, जो दर्शन. प्रान, चारित्र नप और वीर्यरूप पवाचार धर्मका स्वय प्राचरण करते और दमरोंको प्राचरण करते है। और इसलिये यह प्राचार्यपद धर्मशास्त्री' में भी बड़ा है-धर्मनास्त्रित्व इसके भीतर मंनिहित अथवा समाविष्ट है। स्वयं समन्तभदने भी अपने एक परिचय-पद्या में, अपने को पानायं मूचित किया है। मग यान' विभेगमा मन्मागमें यनगील योगीका वाचक है। श्री विद्यानन्दानायंने अपनी प्रमहनीमें स्वामी ममन्तभद्रको 'यतिभृत' और 'यनीग' + नमः लिम्बा है जो दोनो ही योगिगन प्रथम 'यागीन्द्र' अर्थक द्योतक है। कवि हम्निमल्ल पोर प्रयपायने विक्रान्नकोरवारिक ग्रन्याम समन्तभद्रको 'पद्धिकचारण ऋदि का धारक --लिखा है, जो उनके महान् योगी होनेका सूचक है । प्रोर कवि दामादरनं प्रपन 'चन्द्रप्रभग्निमें माफतौरपर 'योगी' विशेषगका ही प्रयोग किया है। यथा • सरगणारणपहागणे धारियचरितवरतवापारे।। प्रपं पर च ज मो पार्यारमो मुरण, झयो ॥५६।। -द्रव्यसंग्रह देखो. अनेकान्तकी उस पिछली किरणमें प्रकाशित 'समन्तभद्रका एक और परिचय-पद' गोषक मम्पादकीय लेख (अथवा इससे पूर्ववर्ती लेख)। + "स श्रीस्वामिसमन्तभद्रयतिमृद भूयाद्विभुर्भानुमान् ।' "स्वामी जीयास्व शश्वत्परतरयतीसोफलोस्कीतिः ।।" Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश यद्वारत्याः कविः सर्वोऽभवत्संज्ञानपारगः । तं कविनायकं स्तौमि समन्तभद्र-योगिनम् । इसके सिवाय ब्रह्म नेमिदनने अपने पाराधना-कथाकोग' में, गमन्तभद्रकी कथाका वर्णन करते हुए, जब योगिचमत्कारके अनन्तर समन्तभद्र के मुखमे उनके परिचयके दो पद्य कहलाये है तब उन्हें स्पष्ट शब्दोंमें योगीन्द्र लिखा है जैसा कि निम्न वाक्यमे प्रकट है "स्फुटं काव्यद्वयं चेति योगीन्द्र: ममुवाच मः।" ब्रह्म नेमिदत्तका यह कयाकोश प्राचार्य प्रभाचन्द्र के गद्यकथाकोगके प्राधार पर निर्मित हुना है, और इसलिये स्वामी ममभद्रका इतिहास लिम्बते समय मैंने प्रेमीजीको उक्त गद्य कथाकोशपरम ब्रह्ममिदन-गिन कपाका मिलान करके विशेषताओंका नोट कर देनकी प्रेरणा की थी । तदनुसार उन्होंने मिलान करके मुझे जो पत्र लिखा था उसका तुलनामा वाक्योंके माथ उल्नेम्व मैंने एक फुटनोटमे उक्त इतिहासके पृ० १.८५.१०६. पर कर दिया था। उमपरमे मालूम होता है कि--''दोनों कथा प्रोम कोई विशेष फर्क नहीं है। मिदनकी कथा प्रभानन्द्रकी गद्य कथाका प्राय पूगं अनुवाद है । और जो माधारणमा फर्क है वह उक्त फुटनोट में पत्र की पत्नियोंके उद्धरण-दारा अन । प्रस: उम. परमे यह कहने में कोई ग्रापनि मालूम नहा होती कि प्रभानन्द्रा नी ने गए कथाकोशमें स्वामी ममन्तभद्रको योगीन्द्र' रूपम उल्लवित किया है । वकि प्रेमीजीके कथनानुमार * ये गद्यकथाकोगके कर्मा प्रभाचन्द्र भी वे ही प्रभाचन्द्र है जो 'प्रेमेयकमलमानंण्ड' और 'रन्तक रगड-श्रावकाचार' की टीकाके कर्ता है । अत: स्वामी ममन्तभद्रके लिये 'योगीन्द्रः विशेषगणक प्रयोगका अनुमन्धान प्रमंय. कमलमार्तण्डकी रचनाके समय तक अथवा वादिगजमूरिके पाश्वनाथ-ग्निकी रचनाके लगभग पहुँच जाता है। ऐमी हालतमें प्रेमीजीका यह लिखना कि "योगीन्द्र जैमा विशेषण तो उन्हें कहीं भी नहीं दिया गया कुछ भी मंगत मालूम नहीं होता और वह खोजमे कोई विशेष सम्बन्ध न रखना हमा नमती लेखनीका ही परिणाम जान पड़ता है। • देखो, 'जनसाहित्य और इतिहास' १० ३३६ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री, तार्किक और योगी तीनों थे २५५ ar रही रचनाशैली और विषयकी बात । इसमें किमीको विवाद नहीं कि 'देवागम' और 'रत्नकरण्ड' का विषय प्रायः अलग है एक मुख्यतया प्रातकी मीमांसको लिये हुए है तो दूसरा प्राप्तकयित श्रावकर्मके निर्देशको । विषयकी भिन्नता रचनाशैलीमें भिन्नताका होना स्वाभाविक है, फिर भी यह भिन्नता ऐसी नही जो एक साहित्यकी उत्तमता तथा दूसरेकी अनुत्तमना ( घटियापन )को यातन करती हो । रत्नकरण्डका साहित्य देवागमने जरा भी होन न होकर अपने विषयकी दृष्टिमे इतना प्रोट, सुन्दर जॅना तुला और अयंगौरवको लिये हुए है कि उसे मूत्रग्रन्थ कहने में जग भी सकोन नहीं होता । १२ श्रावावरजी जैसे प्रौढ विद्वानाने तो पनी धर्मामृनटीकामे उसे जगह-जगह 'ग्रागम' ग्रन्थ लिखा ही है और उसके वाक्योंको 'सूत्र' रूपमे उल्लेखित भी किया है - जैसा कि पीछे दिये हुए एक उद्धरण प्रकट है। और यदि रचनाशैनीमे प्रमीजीका अभिप्राय उस तर्कपद्धति में है जिसे a darrafts प्रधान ग्रन्थोंमें देख रहे है और समझते हैं कि 'रत्नकरण्ड' भी उसी में राहुधा होना चाहिये था तो वह उनकी भारी भूल है । और तब मुझे कहना होगा कि उन्होंने श्रावकाचार-विययक जैनमाहित्यका कालक्रममे अथवा ऐतिहासिक दृष्टि अवलोकन नहीं किया धार न देश तथा समाजकी तात्कालिक स्थिनियर हो कुछ गम्भीर विचार किया है। यदि ऐसा होता तो उन्हें मालूम हो जाता कि उस तक स्वामी समन्तभद्रक समयमे और उससे भी गहने धावक मांग प्रायः साधु-मुखा हुआ करते थे उन्हें स्वतन्त्ररूप प्रत्याको अध्ययन करके अपने मार्गका निश्चय करनेकी जरूरत नहीं होती थी; बल्कि माधु प्रथवा मुनिजन ही उस वक्त, धर्मविपयमे, उनके एकमात्र पथप्रदर्शक होते थे। उस समय मुनिजनोकी स्वामी बहुलता थी और उनका प्राय: हर वक्त मत्समागम बना रहता था। इसमें गृहस्थ लोग धर्मrari लिये उन्होंके पास जाया करते थे और धर्मकी व्याख्याको सुनकर उन्हीसे अपने लिये कभी कोई व्रत, किमी बास वन अथवा वनममूहकी याचना किया करते थे । साजन भी resist उनके यथेष्ट adornर्मका उपदेश देते थे, उनके afer are afe उचित समझते तो उसकी गुरुमन्त्र-पूर्वक उन्हें दीक्षा देते थे और यदि उनकी शक्ति तथा स्थितिके योग्य उसे नहीं पाते थे तो उसका निषेध Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश " कर देते थे। साथ ही, जिस व्रतका उनके लिये निर्देश करते थे उसके विधिfवधानको भी उनकी योग्यताके अनुकूल नियंत्रित कर देते थे। इस तरहपर गुरुजनोंके द्वारा धर्मोपदेशको सुनकर धर्मानुष्ठानकी जो कुछ शिक्षा गृहस्थोंको मिलती थी उसीके अनुसार चलना वे अपना धर्म - अपना कर्तव्यकर्म - समझते थे, उसमें 'चूँ चरा' (किं, कथमित्यादि) करना उन्हें नही आता था; अथवा यों कहिये कि उनकी श्रद्धा और भक्ति उन्हें उस ओर (संशयमार्ग की तरफ़ ) जाने हो न देती थी । श्रावकोंमें सर्वत्र प्रज्ञा-प्रधानताका साम्राज्य स्थापित था और अपनी इस प्रवृत्ति तथा परिणतिके कारण ही वे लोग 'श्रावक' तथा 'श्राद्ध' कहलाते थे । उस वक्त तक श्रावकधर्ममें अथवा स्वाचार- विषयपर श्रावकोमें तर्कका प्राय. प्रवेश ही नहीं हुआ था और न नाना आचार्यों का परस्पर इतना मतभेद ही हो पाया था जिसकी व्याख्या करने अथवा जिसका सामजस्य स्थापित करने प्रादिके लिये किसीको तर्कपद्धतिका प्राश्रय लेनेकी ज़रूरत पड़ती। उस वक्त तर्कका प्रयोग प्राय: स्व-परमलके विचारों सिद्धांतों तथा प्राप्तादि विवादग्रस्त विषयोंपर ही होता था । वे ही नर्ककी कसौटीपर चढ़े हुए थे- उन्ही की परीक्षा तथा निर्णयादिके लिये उसका सारा प्रयास था । और इसलिये उस वक्तके जो तर्कप्रधान ग्रंथ पाये जाते हैं वे प्रायः उन्ही विषयोंकी चर्चाको लिये हुए हैं । जहाँ विवाद नहीं होता वहाँ तर्कका काम भी नहीं होता । इमीसे छन्द, अलंकार, काव्य, कोश, व्याकरण, वैद्यक, ज्योतिपादि दूसरे कितने ही विषयोंके ग्रंथ तर्कपद्धतिसे प्रायः शून्य पाये जाते हैं। खुद स्वामी समन्तभद्रका 'जिनशतक' नामक ग्रंथ भी इसी कोटिमें स्थित हैस्वामी द्वारा निर्मित होनेपर भी उसमें 'देवागम' जैसी तर्कप्रधानता नही पाई जाती- वह एक कठिन, शब्दालङ्कार- प्रधान ग्रंथ है और प्राचार्य महोदयके पूर्व काव्यकौशल, प्रद्भुत व्याकरण- पांडित्य और अद्वितीय शब्दाधिपत्यको * " शृणोति गुर्वादिभ्यो धर्ममिति श्रावक: “श्राद्धः श्रद्धासमन्विते" " - सा० धर्मामृतटीका श्रीधर, हेमचन्द्र" Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री, तार्किक और योगी तीनों थे २५७ सूचित करता है। रत्नकरण्ड भी उन्हीं तर्कप्रधानता-रहित ® ग्रन्थोंमेंसे एक पंथ है और इसलिये उसकी यह तर्क-हीनता सन्देहका कोई कारण नहीं हो सकती। ऐसा कोई नियम भी नहीं है जिससे एक ग्रन्थकार अपने सम्पूर्ण ग्रंथमें एक ही पद्धतिको जारी रखनेके लिये बाध्य हो सके। नानाविषयोंके ग्रंथ नाना प्रकारके शिष्योंको लक्ष्य करके लिखे जाते हैं और उनमें विषय तथा शिष्यरुचिकी विभिन्नताके कारण लेखन-पद्धतिमें भी अक्सर विभिन्नता हुमा करती है। ऐसी हालतमें प्रेमीजीने रत्नकरण्ड-श्रावकाचारके कर्तृत्व-विषयपर जो आशंका की है उसमें कुछ भी सार मालूम नहीं होता । आशा है इस लेखपरसे प्रेमजी अपनी शंकाका यथोचित समाधान करने में समर्थ हो सकेंगे। ___ ऐसा भी नहीं कि रत्नकरण्डमें तर्कमे बिल्कुल काम ही न लिया गया हो। प्रावश्यक तर्कको यथावसर बराबर स्थान दिया गया है । जरूरत होनेपर उसका अच्छा स्पष्टीकरण किया जायगा । यहाँ सूचनारूपमें ऐसे कुछ पद्योंके नम्बरोंको ( १५० की संख्यानुसार ) नोट किया जाता है, जिनमें तर्कसे कुछ काम लिया गया है अथवा जो तर्कदृष्टिको लक्ष्यमें रख कर लिखे गये हैं :-५, ८, ६, २१, २६, २७, २९, ३०, ३१, ३२, ३३, ४७, ४८, ५३, ५६, ६७, ७०, ७१, ८२, ८४, ८५, ८६, ६५, १०२, १२३ । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रके ग्रन्थोंका संक्षिप्त परिचय स्वामी समन्तभद्राचार्यने कुल कितने ग्रन्थोंकी रचना की, वे किस किस विषय अथवा नामके ग्रन्थ है, प्रत्येककी श्लोकसंख्या क्या है, और उनपर किन किन प्राचार्यों तथा विद्वानोंने टीका-टिप्पण अथवा भाष्य लिखे है; इन सब बातोंका पूरा विवरण देनेके लिये, यद्यपि साधनाभावमे, मैं तय्यार नहीं हूँ फिर भी आचार्यमहोदयके बनाये हुए जो जो ग्रन्थ इस समय उपलब्ध होते है और जिनका पता चलता या उल्लेख मिलता है उन मबका कुछ परिचय अथवा यथावश्यकता उनपर कुछ विचार नीचे प्रस्तुत किया जाता है: १ प्राप्तमीमांसा समन्तभद्रके उपलब्ध ग्रन्थोमे यह सबमे प्रधान ग्रन्थ है और ग्रन्थका यह नाम उसके विषयका स्पष्ट द्योतक है। इसे 'देवागम' स्तोत्र भी कहते हैं। 'भक्तामर' प्रादि कितने ही स्तोत्रोंके नाम जिस प्रकार उनके कुछ प्राध प्रक्षरोंपर अवलम्बित है उसी प्रकार 'देवागम' शब्दोंसे प्रारम्भ होनेके कारगा यह ग्रन्थ भी 'देवागम' कहा जाता है: अथवा अर्हन्लदेवका मागम इसके द्वारा व्यक्त होना है-उसका तत्त्व साफ़ तौर पर समझमें प्राजाता है और यह उसके रहस्यको लिये हुए है, इसमे भी यह अन्य 'देवागम' कहलाता है। इस ग्रन्थके श्लोकों अथवा कारिकाओंकी संख्या ११४ है । परन्तु 'इतीयमाप्रमीमांसा' नामके पर नं० ११४ के बाद 'वसुनन्दी' प्राचार्यनं, अपनी 'देवागमवृत्ति' में, नीचे लिखा पद्य भी दिया है जयति जगति क्लेशावेशप्रपंचहिमांशुमान् विहतविषमैकान्तध्वान्तप्रमाणनयांशुमान् । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रके प्रन्योंका संचित परिचय ...२ यतिपतिरको यस्याधृष्टान्मवाम्बुनिघेलवान् स्वमतमतयस्ती• नाना परे समुपासते ।।११।। यह पद्य यदि वृत्ति के अन्तमें ऐसे ही दिया होता तो हम यह नतीमा निकाल सकते थे कि यह बसुनन्दी प्राचार्यका ही पद्य है और उन्होंने अपनी वृत्तिके अन्त मंगलस्वरूप इमे दिया है । परन्तु उन्होंने इसकी वृत्ति दी है और साथ ही इसके पूर्व निम्न प्रस्तावनावाक्य भी दिया है____ "कृतकृरयो निव्यूढतत्त्वप्रति श्राचार्यः श्रीसमन्तभद्र केसरी प्रमाणनयतीक्ष्णनखरदंष्ट्राविदारित-प्रवादिकुनयमदविह्वलकुम्भिकुम्भस्थलपाटनपटुरिदमाह-" ___इससे दो बाने स्पष्ट हो जाती है,एक तो यह कि यह पद्य वसुनन्दी प्राचार्यका नहीं है, दूसरी यह कि वमुनन्दीनं इसे ममन्तभद्रका ही, ग्रन्थके अन्त मंगलस्वरूप, पद्य समझा है और वैसा समझकर ही इसे वृति तथा प्रस्तावनाके साथ दिया है। परन्तु यह पद्य, वास्तवमें, मूल ग्रन्थका अन्तिम पद्य है या नहीं यह बात अवश्य ही विचारणीय है और उसका यहाँ विचार किया जाता है.____ इस ग्रन्थपर भट्टाकलंकदेवने एक भाष्य लिखा है, जिसे 'अष्टशती' कहते है और श्रीविद्यानन्दाचार्यने 'अष्टसहस्त्री' नामक एक बड़ी टीका लिखी है, जिमे 'मासमीमांसालंकृति' तथा 'देवागमालंकृति' भी कहते हैं । इन दोनों प्रधान तथा प्राचीन टीकाग्रन्थोंमें इस पद्यको मूल ग्रन्थका कोई अंग स्वीकार नहीं किया गया और न इसकी कोई व्याख्या ही की गई है। 'अष्टशती' में तो यह पद्य दिया भी नहीं। हाँ, 'अष्टमहत्री' में टीकाकी समाप्तिके बाद, इमे निम्न वाक्यके साथ दिया है 'अत्र शास्त्रपरिसमानौ केचिदिदै मंगलवचनमनुमन्यते ।' उक्त पद्यको देने के बाद 'श्रीमदकलंकदेवाः पुनरिदं वदन्ति' इस वाक्यके माय 'अष्टशती' का अन्तिम मंगलपद्य उद्धृत किया है; और फिर निम्न वाक्यके साय, श्रीविद्यानन्दाचार्यने अपना अन्तिम मंगल पद्य दिया है___ "इति परापरगुत्प्रवाहगुणगणसंस्तवस्य मंगलम्य प्रसिद्धर्वये तु वभक्तिवशादेवं निवेदयामः ।" Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश सहस्रीके इन वाक्योंसे यह स्पष्ट ध्वनि निकलती है कि 'भ्रष्टशती' प्रौर 'अष्टसहस्री' के अन्तिम मंगल - वचनोंकी तरह यह पद्य भी किसी दूसरी पुरानी टीकाका मंगल-वचन है, जिससे शायद विद्यानंदाचार्य परिचित नहीं थे अथवा परिचित भी होंगे तो उन्हें उसके रचयिताका नाम ठीक मालूम नहीं होगा । इसीलिये उन्होंने, अकलंकदेवके सदृश उनका नाम न देकर, 'केचित्' शब्दके द्वारा ही उनका उल्लेख किया है। मेरी रायमें भी यही बात ठीक जँचती है। ग्रंथकी पद्धति भी उक्त पद्यको नहीं चाहती। मालूम होता है वसुनन्दी प्राचार्यको 'देवागम' की कोई ऐसी ही मूल प्रति उपलब्ध हुई है जो साक्षात् प्रथवा परम्परया उक्त टीकासे उतारी गई होगी और जिसमें टीकाका उक्त मंगलपद्य भी गलती से उतार लिया गया होगा । लेखकोंकी नासमझी से ऐसा बहुधा ग्रन्थप्रतियोंमें देखा जाता है । 'सनातनजैनग्रंथमाला' में प्रकाशित 'वृहत्स्वयंभू - स्तोत्र' के अन्तमें भी टीकाका 'यो निःशेषजिनोक्त' नामका पद्य मूलरूपसे दिया हुआ है और उसपर नंबर भी क्रमश: १४४ डाला है । परन्तु यह मूलग्रंथका पद्य कदापि नही है । २६० 'आतमीमांसा' की जिन चार टीकानोंका ऊपर उल्लेख किया गया है उनके सिवाय 'देवागम-पद्यवार्तिकालंकार' नामकी एक पाँचवी टीका भी जान पड़ती है जिसका उल्लेख युक्त्यनुशासन-टीकामें निम्न प्रकार से पाया जाता है-इति देवागमपद्यवार्तिकालंकारे निरूपितप्रायम् । इससे मालूम होता है कि यह टीका प्रायः पद्यात्मक है। मालूम नहीं इसके रचयिता कौन प्राचार्य हुए हैं। संभव है कि 'तस्वार्थश्लोकवातिकालंकार' की तरह इस 'देवागमपद्यवार्तिकालंकार' के कर्ता भी श्रीविद्यानंद प्राचार्य ही हों और इस तरह उन्होंने इस ग्रंथकी एक गद्यात्मक ( श्रष्टमहत्री ) और दूसरी यह पद्यात्मक ऐसी दो टीकाएँ लिखी हों, परन्तु यह बात अभी निश्चयपूर्वक नहीं कही जा सकती । प्रस्तु; इन टीकाओं में 'भ्रष्टसहस्री' पर 'अष्टसहस्रीविषमपदतात्पर्यटीका' नामकी एक टिप्परगी लघुममन्तभद्राचार्यने लिखी है और दूसरी टिप्पणी श्वेताम्बर सम्प्रदायके महान् श्राचार्य तथा नैय्यायिक विद्वान् उपाध्याय यशोविजयजीकी लिखी हुई है। प्रत्येक टिप्पणी परिमारगमें भ्रष्टसहस्री - जितनी * देखो, माणिकचन्द-ग्रंथमालामें प्रकाशित 'युक्त्यनुशासन' पृष्ठ ९४ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रके प्रन्थोंका संक्षिप्त परिचय २६१ ही है - अर्थात् दोनों प्राठ प्राठ हजार श्लोकोंवाली हैं । परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी - ऐसी ऐसी विशालकाय तथा समर्थ टीका-टिप्परिगयों की उपस्थितिमें भी - 'देवागम' अभी तक विद्वानोंके लिये दूरूह और दुर्बोधसा बना हुआ है । इससे पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि इस ग्रन्थके ११४ श्लोक कितने अधिक महत्त्व, गांभीर्य तथा गूढार्थको लिये हुए हैं; और इसलिये, श्रीवीरनंदी श्राचार्यने 'निर्मलवृत्तमौक्तिका हारयष्टि' की तरह और नरेंद्रसेनाचार्यने 'मनुष्यत्व' के समान समन्तभद्रकी भारतीको जो 'दुर्लभ' बतलाया है उसमें जरा भी प्रत्युक्ति नहीं है । वास्तवमें इस ग्रंथ की प्रत्येक कारिकाका प्रत्येक पद 'सूत्र' है और वह बहुत ही जाँचतोलकर रक्खा गया है— उसका एक भी अक्षर व्यर्थ नहीं है। यही वजह है कि समन्तभद्र इस छोटेसे कूजेमे संपूर्ण मतमतान्तरोंके रहस्यरूपी समुद्रको भर सके हैं और इसलिये उसको अधिगत करनेके लिये गहरे अध्ययन, गहरे मनन और विस्तीर्ण हृदयकी खास जरूरत है । हिन्दीमें भी इस ग्रन्थपर पंडित जयचन्दरायजीको बनाई हुई एक टीका मिलती है जो प्राय: साधारण है । सबसे पहले यही टीका मुझे उपलब्ध हुई थी और इसी परसे मैंने इस ग्रन्थका कुछ प्राथमिक परिचय प्राप्त किया था । उस वक्त तक यह ग्रंथ प्रकाशित नहीं हुआ था, और इसलिये मैंने बड़े प्रेमके साथ, उक्त टीकामहिन, इस ग्रंथकी प्रतिलिपि स्वयं अपने हाथमे उतारी थी। वह प्रतिलिपि अभी तक मेरे पुस्तकालय में सुरक्षित है। उस वक्तसे बराबर में इस मूल ग्रंथको देखता प्रा रहा हूँ और मुझे यह बड़ा ही प्रिय मालूम होता है । इस ग्रंथपर कनड़ी, तामिलादि भाषाश्रोंमें भी कितने ही टीका-टिप्पण. विवरण और भाष्य ग्रन्थ होंगे परन्तु उनका कोई हाल मुझे मालूम नहीं है; इसीलिये यहांपर उनका कुछ भी परिचय नहीं दिया जा सका । + इस विषयमे, श्वेताम्बर साघु मुनि जिनविजयजी भी लिखते हैं ''यह देखने में ११४ श्लोकोंका एक छोटासा ग्रंथ मालूम होता है, पर इसका गांभीर्य इतना है कि, इस पर सैकड़ों-हजारों श्लोकोंवाले बड़े बड़े गहन भाष्य-विवरण प्रादि लिखे जाने पर भी विद्वानोंको यह दुर्गम्यसा दिखाई देता है ।" - जैनहितैषी भाग १४, अंक ६ । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश २ युक्त्यनुशासन समन्तभद्रका यह ग्रंथ भी बड़ा ही महत्वपूर्ण तथा अपूर्व है, और इसका भी प्रत्येक पद बहुत ही अर्थगौरवको लिए हुए है। इसमें, स्तोत्रप्रणालीसे, कुल ६४ पद्यों द्वारा, स्वमत और परमतोंके गुणदोषोंका, सूत्ररूपसे, बड़ा ही मार्मिक वर्णन दिया है, और प्रत्येक विषयका निरूपण, बड़ी ही खूबी के साथ, प्रबल युक्तियोंद्वारा किया गया है। यह ग्रंथ जिज्ञासुनोंके लिये हितान्वेषणके उपायस्वरूप है और इसी मुख्य उद्देश्यको लेकर लिखा गया है; जैसा कि ६३वीं कारिकाके उत्तरार्धमे प्रकट है। । श्रीजिनसेनाचार्यने इसे महावीर भगवानके वचनोंके तुल्य लिखा है । इस ग्रंथपर अभीतक श्रीविद्यानंदाचार्यकी बनाई हुई एक ही सुन्दर संस्कृतटीका उपलब्ध हुई है और वह 'माणिकचन्द - ग्रंथमाला' में प्रकाशित भी हो चुकी है। इस टीकाके निम्न प्रस्तावना - वाक्यसे मालूम होता है कि यह ग्रंथ प्राप्तमीमांसा के बादका बना हुआ है - “श्रीमत्समन्तभद्रस्वामिभिराप्तमामासायामन्ययोगव्यवच्छदाद्व्यवस्थापितेन भगवता श्रीमतार्हतान्त्यतीर्थंकर परमदेवेन मां परीक्ष्य किं चिकीर्षवो भवंत इति ते पृष्टा इव प्राहुः ।” ग्रंथका विशेष परिचय समन्तभद्रका युक्त्यशासन' लेखमें दिया गया है । · २६२ ३ स्वयम्भूस्तोत्र इसे 'बृहत्स्वयंभू स्तोत्र' और 'समन्तभद्रस्तोत्र' + भी कहते हैं। यह ग्रंथ भी * सन् १९०५ में प्रकाशित 'मनातनजैनग्रंथमाला' के प्रथम गुच्छकमें इस ग्रंथ पद्योंकी संख्या ६५ दी है, परन्तु यह भूल है। उसमें ४० वें नम्बर पर जो 'स्तोत्रं युक्त्यनुशासने' नामका पद्य दिया है वह टीकाकार का पद्य है, मूलग्रन्थका नहीं । और मा० ग्रन्थमालामें प्रकाशित इस ग्रन्थकं पद्यों पर गलत नम्बर पड़ जानेसे ६५ संख्या मालूम होती है । + किमु न्यायान्याय प्रकृत-गुरणदोषज्ञ मनसां हितान्वेषोपायस्तव गुग्ण-कथासंग-गदितः । + 'जैनसिद्धान्त भवन धारा' में इस ग्रंथकी कितनी ही ऐसी प्रतियां कनड़ी अक्षरोंमें मौजूद है जिनपर ग्रंथका नाम 'समंतभद्रस्तोत्र' लिखा है । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रके प्रन्योंका संक्षिस-परिचय बड़ा ही महत्त्वशाली है, निर्मल-सूक्तियोंको लिये हुए है और चतुर्विशति जिनदेवोंके धर्मको प्रतिपादन करना ही इसका एक विषय है। इसमें कहीं कहीं परकिसी-किसी तीर्थकरके सम्बन्धमें-कुछ पौराणिक तथा ऐतिहासिक बातोंका भी उल्लेख किया गया है, जो बड़ा ही रोचक मालूम होता है। उस उल्लेखको छोड़कर शेष मंपूर्ण ग्रंथ स्थान स्थान पर, तात्त्विक वर्णनों और धार्मिक शिक्षामोंसे परिपूर्ण है। यह ग्रंथ अच्छी तरहमे ममझ कर नित्य पाठ किये जानेके योग्य है । इसका पूरा एवं विस्तृत परिचय 'ममन्लभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र' इस नामके निवन्धमें दिया गया है। ___ इस ग्रन्थपर क्रियाकलापके टीकाकार प्रभाचन्द्र आचार्यकी बनाई हुई अभी तक एक ही संस्कृतटीका उपलब्ध हुई है। टीका माधारणतया अच्छी है परन्तु ग्रन्थके रहस्यको अच्छी तरह उद्घाटन करनेके लिये पर्याप्त नही है। ग्रन्थपर अवश्य ही दूसरी कोई उत्तम टीका भी होगी, जिसे भंडारोंमें खोज निकालनेकी जरूरत है। यह स्तोत्र 'कियाकलाप' ग्रन्थमें भी मंग्रह किया गया है, और कियाकलापपर पं० प्राशाधरजीकी एक टीका कही जाती है, इसमे इम ग्रंथपर पं० आशाधरजीको भी टीका होनी चाहिये । ४ स्तुतिविद्या यह प्रथ 'जिनम्नुतिगतक 'जिनम्नुनिशनं,' 'जिनमतक' और 'जिनशतकालकार' नामोंमें भी प्रसिद्ध है, भक्तिरसमे लबालब भरा हुआ है, रचनाकौशल नथा चित्रकाव्योंके उत्कर्पको लिये हुए है, सर्व प्रलंकारोंमे भूषित है और इतना दुर्गम तथा कठिन है कि विना मंस्कृनटीकाकी महायता के अच्छे-अच्छे विद्वान् भी इमे सहमा नहीं लगा मकते। इसके पद्योंकी सख्या ११६ है और उनपर एक ही संस्कृतटीका उपलब्ध है जो बसुनन्दीकी बनाई हुई है। वमुनन्दीसे पहले नरसिंह विभाकरकी टीका बनी थी, जो इस मुपद्मिनी कृतिको विकसित करने वाली थी और जिससे पहले इस ग्रंथपर दूसरी कोई टीका नही थी, ऐसा टीकाकार वमुनन्दीके एक वाक्यमे पाया जाता है। यह टीका माज उपलब्ध नहीं है पौर संभवतः वसुनन्दी के समय (१२वी शताब्दी)में भी उपलब्ध नहीं थी केवल उसकी जनश्रुति ही प्रवशिष्ट थी ऐसा जाना जाता है । प्रस्तुत टीका अच्छी Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश पौर उपयोगी बनी हैं । इसका विशेष परिचय 'समन्तभद्रकी स्तुतिविद्या' नामक निबन्धसे जाना जासकता है । ५ रत्नकरंड उपासकाध्ययन इसे 'रत्नकरंडश्रावकाचार' तथा 'समीचीन-धर्मशास्त्र' भी कहते है । उपलब्ध ग्रंथों में, श्रावकाचार विषयका, यह सबमे प्रधान, प्राचीन, उत्तम और सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है। श्रीवादिराजसूरिने इसे 'अक्षय्यसुखावह और प्रभाचन्द्रने 'अखिल सागारमार्गको प्रकाशित करनेवाला निर्मल सूर्य' लिखा है । इसका विशेष परिचय और इसके पद्योंकी जाँच मादि-विषयक विस्तृत लेख माणिकचन्दग्रंथमालामें प्रकाशित रत्नकरण्ड-श्रावकाचारकी प्रस्तावनामें तथा वीरसेवामन्दिरसे हाल में प्रकाशित 'समीचीन-धर्मशास्त्र' की प्रस्तावनामें दिया गया है। यहाँपर मैं सिर्फ इतनाही बतला देना चाहता हूँ कि इस ग्रन्थपर अभीतक केवल एक ही संस्कृतटीका उपलब्ध हुई है, जो प्रभाचन्द्राचार्यकी बनाई हुई है और वह प्रायः साधारण है ।हां. 'रत्नकरंडकविषमपदव्याख्यान'नामका एक संस्कृक टिप्पण भी इस ग्रन्थपर मिलता है, जिसके कर्ताका नाम उमपरसे मालूम नहीं हो सका। यह टिप्पण पाराके जैनमिद्धान्तभवनमें मौजूद है । कनडी भाषामें भी इम ग्रन्थकी कुछ टीकाएँ उपलब्ध हैं परन्तु उनके रचयिताओं आदिका कुछ पता नही चल सका । तामिल भाषाका 'अरु गलछप्पु' ( रत्नकरडक ) ग्रन्थ, जिसकी पच-मस्या १८० है, इम अन्यको सामने रखकर बनाया गया मालूम होता है और कुछ अपवादोंको छोड़कर इमीका प्राय: भावानुवाद अथवा सारांश जान पड़ता है । परन्तु वह कब बना पोर किमने बनाया, इसका कोई पता नहीं चलता और न उमे तामिल-भाषाकी टीका ही कह सकते है। ६ जोवसिद्धि इस ग्रन्थका पता श्रीजिनसेनाचार्यप्रणीत 'हरिवंशपुराण के उम पद्यमे चलता है जो 'जीवसिद्धिविधायीह कृतयुक्त्यनुशासन' जैसे पदोंसे प्रारम्भ __ यह राय मैंने इस ग्रंथके उम अंग्रेजी अनुवादपरमे कायम की है जो सन् १९२३-२४ के अंग्रेजी जैनगजटके कई प्रकोंमें the Casket of Gems नामसे प्रकाशित हुमा है। - - - - . . . Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रके प्रन्थोंका संक्षिप्त परिचय २६५ होता है । ग्रंथका विषय उसके नामसे ही प्रकट है और वह बड़ा ही उपयोगी विषय है। श्रीजिनसेनाचार्यने समंतभद्रके इस प्रवचनको भी "जीवसिद्धिविधायीह कृनयुक्त्यनुशासनम् । वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विज़म्मते ॥" इस वाक्यके द्वारा महावीर भगवानके वचनोंके समान प्रकाशमान बतलाया है। इससे पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि यह ग्रंथ कितने अधिक महत्त्वका होगा। दुर्भाग्यसे यह ग्रंथ अभी तक उपलब्ध नहीं हुप्रा । मालूम नहीं किस भंडारमें बन्द पड़ा हमा अपना जीवन शेष कर रहा है अथवा शेष कर चुका है। इसके शीघ्र अनुसंधानकी बड़ी जरूरत है। ७ तत्वानुशासन _ 'दिगम्बरनग्रंथकर्ता और उनके प्रथ' नामकी सूची में दिए हुए समन्तभद्रके ग्रंथोंमें 'तत्त्वानुशामन का भी एक नाम है। श्वेताम्बर कान्फरेमद्वाग प्रकाशित 'जैनग्रंथावली' में भी 'तन्वानुशामन' को समन्तभद्रका बनाया हुप्रा लिखा है, और माथ ही यह भी प्रकट किया है कि उसका उल्लेख मुरतके उन मेठ भगवानदास कल्यागादामजीकी प्राइवेट रिपोर्ट में है जो पिटर्मन माहबकी नौकरीमें थे। और भी कुछ विद्वानोंने. ममन्तभद्रका परिचय देते हुए, उनके ग्रंथोंमें 'तन्वानुशासन का भी नाम दिया है। इस तरह पर इम ग्रन्थके अस्तित्वका कुछ पता चलता है। परन्तु यह ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ। अनेक प्रसिद्ध भंडारोंकी मूचियां देखने पर भी यह मालूम नहीं हो सका कि यह ग्रन्थ किम जगह मौजूद है और न इसके विषयमें अभी तक किमी शास्त्रवाक्यादिपरसे यह ही पूरी तौर पर निश्चय किया जा सका है कि समंतभद्रने वास्तवमें इस नामका कोई ग्रंथ बनाया है, फिर भी यह खयाल जरूर होता है कि ममन्तभद्रका ऐसा कोई ग्रंथ होना चाहिये। खोज करनेमे इतना पता जरूर चलता है कि रामसेनके उस 'तत्वानुशासन से भिन्न, जो माणिकचन्द्रग्रंथमालामें 'नागसेन' + 'नागसेन' नाम गलतीसे दिया गया है। वास्तवमे वह ग्रन्थ नागसेनके शिष्य 'रामसेन' का बनाया हुमा है; भोर यह बात मैंने एक लेखद्वारा सिद्ध की थी जो जुलाई सन् १९२० के जैनहितैषीमें प्रकाशित हुमा है । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश के नामसे मुद्रित हुआ है, कोई दूसरा 'तत्त्वानुशासन' ग्रन्थ भी बना है, जिसका एक पद्य नियमसारकी पद्मप्रभ- मलधारिदेव - विरचित टीकामे, 'तथा चोक्त तत्त्वानुशासने' इस वाक्यके साथ, पाया जाता है और वह पद्य इस प्रकार हैउत्सज्ये कायकर्माणि भावं च भवकारणं । स्वात्मावस्थानमव्ययं कायोत्सर्गः स उच्यते ॥ यह पद्य 'माणिकचन्दग्रंथमाला' में प्रकाशित उक्त तत्वानुशासनमें नहीं है, और इसलिये यह किसी दूसरे हो 'तत्त्वानुशासन' का पद्य है, ऐसा कहने में कुछ भी संकोच नहीं होता । पद्यपरमे ग्रंथ भी कुछ कम महत्वका मालूम नहीं होता | बहुत संभव है कि जिस तत्त्वानुशासन'का उक्त पद्य है वह स्वामी समंतभद्रका ही बनाया हुआ हो । इसके सिवाय श्वेताम्बरसम्प्रदायके प्रधान वाचायं श्रीहरिभद्रसूरिने, अपने 'अनेकान्तजयपताका' ग्रन्थ में 'वादिमुख्य समन्तभद्र के नामसे नीचे लिखे दो श्लोक उद्धृत किये हैं, और ये श्लोक शान्याचार्यविरचित 'प्रमाणकलिका' तथा वादिदेव पूरि विरचित 'म्याद्वादरत्नाकर' में भी समन्तभद्र के नामसे उद्घृत पाये जाते हैं + बोधात्मा चेच्छ्रन्द्रस्य न म्यादन्यत्र तच्छ्र ुतिः । यद्वोद्धारं परित्यज्य न बोधोऽन्यत्र गच्छति ॥ न च स्यात्प्रत्ययो लोके यः श्रोत्रा न प्रतीयते । शब्दाभेदेन सत्येवं सर्वः स्यात्परचिन्वत | श्रर 'समयमार' की जयमेनाचार्यकृन 'नात्ययंवृति' में भी, ममन्तभद्र नाममे कुछ श्लोकों को उद्धृत करते हुए एक श्लोक निम्न प्रकार में दिया हैधर्मिणोऽनन्तरूपत्वं धर्माणां न कथंचन । अनेकान्तयनेकान्त इति जैनमतं ततः ॥ ये तीनों श्लोक समंतभद्रक उपलब्ध ग्रंथों ( नं ० १ मे ५ तक ) में नहीं पाये जाते और इस लिये यह स्पष्ट है कि ये समन्तभद्र के किमी दूसरे ही ग्रन्थ + देखो, जनहितषी भाग १४, अंक ६ ( पृ०१६१) नया जैनसाहित्यसंशोer' अंक प्रथममें मुनि जिनविजयजीका लेल । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रके प्रन्योंका संक्षिप्त परिचय अथवा अन्योंके पच है जो अभी तक अज्ञात अथवा अप्रास है । प्राश्चर्य नहीं जो ये भी इस ' तत्वानुशासन' ग्रंथके ही पद्य हों। यदि ऐसा हो और यह ग्रन्थ उपलब्ध हो जाय तो उसे जैनियों का ही नहीं किन्तु विज्ञजगतका महाभाग्य समझना चाहिये । ऐसी हालनमें इस ग्रन्थकी भी शीघ्र खोज होनेकी बड़ी जरूरत है। यहाँ पर में इतना और भी प्रकट कर देना चाहता हूं कि स्वामी समन्तभद्र मे शताब्दियों बाद बने हुए रामसेनके तत्वानुशामन में एक पद्य निम्न प्रकारमे पाया जाना है ममाऽहंकारनामानी सेनान्यौ तौ च तत्मुतौ । यदानः मुदर्भेदो मोहव्यूहः प्रवर्त्तने ।। १३ ।। इसमें म्पकालंकार-द्वारा ममकार और प्रहंकारको मोहगजाके दो सेनापति बननाया है और उनके द्वारा उस दर्भेद मोहव्यूहके प्रवर्तित होनंका उल्लेख किया है जिसके राग-द्वेष काम-क्रोधादि प्रमुख प्रग होने है । इम पद्यके प्राशयसे मिलता-जुलना एक प्राचीन पद्य प्राचार्य विद्यानन्दने युक्तानुगासनकी टीकामें 'नया चोक्त" वाक्यके माथ उद्धृत किया है, जो इस प्रकार है ममकाराकारौ मचियाविव मोहनीयराजम्य । गगादि सकलपरिकर-परिपोषणतत्परौ मततम् ।। इममें ममकार और अहंकारको मोहराजाके दो मन्त्री बदलाया है और लिखा है कि ये दोनो मन्त्री राग-द्वेष-काम-क्रोधादिम्प मारे मोह-परिवारको परिपष्ट करने में सदा तत्पर रहते है । यह पद्य अपने मूलरूपमें अन्यत्र देखनेको नहीं मिलता और इससे मेरी यह कल्पना एवं धारणा होती है कि इसका मूलस्थान संभवतः समन्तभद्रका उक्त तन्वानुशासन ही है। इसी पद्यमें कुछ फेर-फार करके अथवा रूपकको बदलकर प्रा० गममेनने अपने उक्त पचको सृष्टि की है। ८ प्राकृतव्याकरण 'जैनग्रंथावली से मालूम होता है कि समन्तभद्रका बनाया हुमा एक 'प्राकृतव्याकरण' भी है जिसकी श्लोकसंख्या १२०० है । उक्त ग्रंथावलीमें इस ग्रन्थका Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश उल्लेख 'रायल एशियाटिक सोसाइटी' की रिपोर्टके भाधारपर किया गया है मौर उक्त सोसायटीमें ही उसका अस्तित्व बतलाया गया है। परंतु मेरे देखनेमें अभी तक यह ग्रन्थ नहीं भाया और न उक्त सोसाइटीकी वह रिपोर्ट ही देखने को मिल सकी है +; इसलिए इस विषय में में अधिक कुछ भी कहना नहीं चाहता । हाँ, इतना जरूर कह सकता हूं कि स्वामी समंतभद्रका बनाया हुआ यदि कोई व्याकरण ग्रन्थ उपलब्ध होजाय तो वह जैनियोंके लिये एक बड़े ही गौरवकी वस्तु होगी । श्रीपूज्यपाद प्राचार्यने अपने 'जैनेन्द्र' व्याकरणमे 'चतुष्टयं समंतभद्रस्य' इस सूत्र के द्वारा समन्तभद्रके मतका उल्लेख भी किया है, इसमें समन्तach किसी व्याकरणका उपलब्ध होना कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है । ६ प्रमाण पदार्थ मूडबिद्रीके 'पडुवस्तिभंडार' की सूची से मालूम होता है कि वहाँपर 'प्रमापदार्थ' नामका एक संस्कृत ग्रन्थ समन्तभद्राचार्यका बनाया हुधा मौजूद है श्रौर उसकी श्लोकसंख्या १००० है* । साथ ही उसके विषयमे यह भी लिखा है कि वह अधूरा है। मालूम नही, ग्रन्थकी यह श्लोकसंख्या उसकी किसी टीकाको साथमें लेकर है या मूलकाही इतना परिमारण है । यदि अपूर्ण मूलका ही इतना परिमाण है तब तो यह कहना चाहिये कि समन्तभद्रके उपलब्ध मूलग्रन्थोंमें यह सबसे बड़ा ग्रन्थ है, और न्यायविषयक होनेसे बड़ा ही महत्व रखता है । यह भी मालूम नही कि यह ग्रन्थ किस प्रकारका प्रधूरा है— इसके कुछ पत्र नष्ट हो गये हैं या ग्रन्थकार इसे पूरा ही नहीं कर सके है। बिना दबे इन सब बानोके विषय में कुछ भी नही कहा जा सकता। हां, इतना जरूर में कहना चाहता हूँ + रिपोर्ट आदिको देखकर श्रावश्यक सूचनाएँ देने के लिये कई बार अपने एक मित्र, मेम्बर रॉयल एशियाटिक सोसायटी कलकत्ता, को लिखा गया प्रौर प्रार्थनाएं की गई परन्तु वे अपनी किन्हीं परिस्थितियोंके वश श्रावश्यक सूचनाएँ देनेमें असमर्थ रहे । ● यह सूची प्राराके 'जैन सिद्धान्त भवन' में मौजूद है । 8 इस ग्रंथके विषयमें प्रावश्यक बातोंको मालूम करने के लिए मूढविद्रीके पं० लोकनाथजी शास्त्रीको दो पत्र दिये गये। एक पत्रके उत्तरमें उन्होंने ग्रंथको Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समतभद्रके प्रन्योंका संक्षिप्त परिचय २६६ कि यदि यह अंथ, वास्तवमें, इन्हीं समन्तभद्राचार्य का बनाया हुमा है तो इसका बहुत शीघ्र उद्धार करने और उसे प्रकाशमें लानेकी बड़ी ही आवश्यकता है। १० कर्मप्रामत-टीका प्राकृतभाषामें, श्रीपुष्पदन्त-भूतबल्याचार्य-विरचित 'कर्मप्राभृत' अथवा 'कर्मप्रकृतिप्राभृन' नामका एक सिद्धान्त ग्रंथ है ! यह ग्रंथ १जीवस्थान, २क्षुल्लकबन्ध, ३बन्धस्वामित्व, ४भाववेदना, ५वर्गणा और ६ महाबन्ध नामके छह खंडोंमें विभक्त है, और इमलिये इसे 'षट् खण्डागम' भी कहते हैं। समन्तभद्रने इस ग्रंथके प्रथम पांच खंडोंकी यह टीका बड़ी ही सुन्दर तथा मृदु संस्कृत भाषामें लिखी है और इसकी संख्या अझतालीस हजार श्लोकपरिमाण है; ऐसा श्रीइद्रनंद्याचार्यकृत 'श्रुतावतार' पथके निम्नवाक्योंसे पाया जाता है। साथ ही, यह भी मालूम होता है कि समन्तभद्र 'कषायप्राभूत' नामके द्वितीय सिद्धान्तग्रंथकी भी व्याख्या लिखना चाहते थे; परतु द्रव्यादि-शुद्धिकरण-प्रयत्नोंके प्रभावसे, उनके एक सधर्मी साधुने (गुरुभाईने ) उन्हें वसा करनेसे रोक दिया था कालान्तरे ततः पुनरासन्ध्या पलरि (?) तार्किकाऽर्कोभूत ॥१६॥ श्रीमान्समंतभद्रम्वामीत्यथ सोऽप्यधीत्य तं द्विविधं । सिद्धान्तमतः पटखंडागमगतखंडपंचकस्य पुनः ।। १६८।। अष्टौ चत्वारिंशत्सहस्रसग्रंथरचनया युक्तां। विरचिनवानतिसुन्दरमृदुसंस्कृतभाषया टीकाम् ।। १६६ ।। विलिवन द्वितीयमिद्धान्तस्य व्याख्यां सधर्मणा स्वेन । द्रव्यादिशुद्धिकरणप्रयत्नविरहात्प्रतिनिषिद्धः ॥१७॥ इस परिचयमें उस स्थानविशेष अथवा ग्रामका नाम भी दिया हुपा है जहाँ ताकिकमूर्य स्वामी समंतभद्रने उदय होकर अपनी टीकाकिरणोंसे कर्मप्राभूत सिद्धान्तके अर्थको विकसित किया है। परन्तु पाठकी कुछ अशुद्धिके कारण निकलवाकर देखने पर उसके सम्बन्ध यथेष्ट सूचनाएं देनेका वायदा भी किया था; परंतु नहीं मालूम क्या वजह हई जिससे वे मुझे फिर कोई सूचना नहीं दे सके । यदि शास्त्रीजीसे मेरे प्रश्नोंका उत्तर मिल जाता तो मैं पाठकोंको इस पंचका अच्छा परिचय देनेके लिये समर्थ हो सकता था। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश यह नाम स्पष्ट नहीं हो सका। 'पासम्ध्यां पलरिकी जगह 'चासीयः पलरि' पाठ देकर पं० जिनदास पार्श्वनाथजी फडकुलेने उसका भयं 'मानन्द नांवच्या गांवात-पानंद नामके गांवमें-दिया है। परंतु इस दूसरे पाठका यह अर्थ कैसे हो सकता है, यह बात कुछ समझमें नहीं पाती । पूछने पर पंडितजी लिखते है "श्रुतपंचमीक्रिया इस पुस्तकके मराठी अनुवादमें समंतभद्राचार्यका जन्म आनंदमें होना लिखा है, " बस इतने परसे ही प्रापने 'पलरि' का अर्थ 'पानंद गांवमें कर दिया है, जो ठीक मालूम नहीं होता; और न प्रापका 'असीद्यः' पाठ ही ठीक जंचता है; क्योंकि 'अभूत' क्रियापदके होनेसे 'प्रासीत' क्रियापद व्यर्थ पड़ता है। मेरी रायमें, यदि कर्णाटक प्रान्नमें 'पल्ली' शब्दके अर्थमें 'पलर' या इमीसे मिलता जुलता कोई दूसरा शब्द व्यवहत होता हो और सप्तमी विभक्ति में उसका 'पलरि' रूप बनता हो तो यह कहा जा सकता है कि 'पासन्ध्यां' की जगह 'आनंयां' पाठ होगा, और तब ऐमा प्राशय निकल सकेगा कि समंतभद्रने 'प्रानंदी पल्ली' में अथवा 'प्रानंदमठ' में ठहर कर इस टीकाकी रचना की है। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ गंधस्ति महाभाष्यकी खोज कहा जाता है कि स्वामी समन्तभद्रने उमास्वातिके 'तत्त्वार्थ सूत्र' पर 'हस्त' नामका एक महाभाष्य भी लिखा है जिसकी श्लोक संख्या ८४ हज़ार है, और उक्त 'देवागम' स्तोत्र ही जिसका मंगलाचरण है। इस ग्रंथकी वसे तलाश हो रही है । बम्बई के सुप्रसिद्ध दानवीर सेठ माणिकचंद हीराचंदजी जे० पी० ने इसके दर्शनमात्र करा देनेवालेके लिये पांचसौ रुपये नकदका परितोषिक भी निकाला था, और मैने भी 'देवागम' पर मोहित होकर उस समय वह संकल्प किया था कि यदि यह ग्रंथ उपलब्ध हो जाय तो में इसके अध्ययन, मनन और प्रचार में अपना शेष जीवन व्यतीत करूंगापरन्तु आज तक किसी भी भण्डारस इस ग्रंथका कोई पता नही चला । एक बार अखबारों में ऐसी खबर उड़ी थी कि यह ग्रथ मास्ट्रिया देश के एक प्रसिद्ध - + 'गन्धहस्ति' एक बड़ा ही महत्वसूचक विशेषण है - गन्धेभ. गन्धगज, ate rafae भी इसीके पर्यायनाम है। जिस हाथीको गन्धको पाकर दूसरे हाथी नहीं ठहरते - भाग जाते अथवा निमंद और निस्तेज हो जाते हैं—उसे 'गस्ती' कहते हैं। इसी गुरण के कारण कुछ खास खास विद्वान् भी इस पदसे विभूषित रहे हैं। समन्तभद्रके सामने प्रतिवादी नहीं ठहरते थे यह बात कुछ विस्तार के साथ उनके परिचय में बतलाई जा चुकी है; इससे 'गंधहस्ती' अवश्य ही समन्तभद्रका विरुद अथवा विशेषरण रहा होगा और इससे उनके महाभाष्यको गंधहस्ति- महाभाष्य कहते होंगे । प्रथवा गंधहस्ति-तुल्य होने से ही वह गंधहस्तिमहाभाष्य कहलाता होगा और इससे यह समझना चाहिये कि वह सर्वोत्तम भाष्य है— दूसरे भाष्य उसके सामने फीक, श्रीहीन भोर निस्तेज है । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश नगर ( वियना ) की लायब्ररीमें मौजूद है । और इसपर दो एक विद्वानोंको वहाँ भेजकर ग्रंथकी कापी मँगानेके लिये कुछ चंदे वगैरहकी योजना भी हुई थी; परंतु बादमें मालूम हुआ कि वह खबर ग़लत थी-उसके मूल में ही भूल हुई है-और इस लिये दर्शनोत्कंठित जनताके हृदयमें उस समाचारसे जो कुछ मंगलमय माशा बंधी थी वह फिर से निराशामें परिणत होगई। मै जनसाहित्यपरसे भी इस ग्रंथके अस्तित्वकी बराबर खोज करता मा रहा है। अबतकके मिले हुए उल्लेखों-द्वारा प्राचीन जैनसाहित्य परसे इस ग्रंथका जो कुछ पता चलता है उसका सार इस प्रकार है: (१) कवि हस्तिमल्लकि 'विक्रान्त-कौरव' नाटककी प्रशस्तिमें एक पद्य निम्न प्रकारसे पाया जाता है तत्त्वार्थसूत्रव्याख्यानगंधहस्तिप्रवर्तकः । स्वामी समन्तभद्रोऽभूदेवागनिदेशकः ।। यही पद्य 'जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदय' ग्रंथकी प्रशस्तिमें भी दिया हमा है, जिसे पं० अय्यपार्यने शक सं० १२४१ में बना कर ममाप्त किया था; और उसकी किसी किमी प्रतिमें 'प्रवर्तकः' की जगह 'विधायकः' पौर 'निदेशकः' की जगह 'कवीश्वरः ' पाठ भी पाया जाता है; परन्तु उससे कोई अर्थभेद नही होता अथवा यो कहिये कि पद्यके प्रतिपाद्य विषयमें कोई मन्तर नहीं पड़ता। इस पद्यमे यह बतलाया गया है कि "म्वामी ममन्नभद्र 'तत्त्वार्थमूत्र' के 'गंधहस्ति' नामक व्याख्यान ( भाष्य ) के प्रवर्तक -अथवा विधायक-हुए हैं और माथ ही वे 'देवागम' के निदेशक-अथवा कवीश्वरभी थे।" ___ इम उल्लेखसे इतना तो स्पष्ट मालूम होता है कि समन्नभद्रने 'तत्त्वार्थसूत्र' पर 'गंधहस्ति' नामका कोई भाष्य अथवा महाभाष्य लिखा है, परंतु यह मालूम नहीं होता कि देवागम' (प्रासमीमांसा) उस भाष्यका मंगलाचरगा है। देवागम' यदि मंगलाचरणरूपसे उस भाष्यका ही एक अंश होता तो उसका पृथकरूपसे नामोल्लेख करनेकी यहां कोई जरूरत नहीं थी; इम पद्यमें उसके पृथक नामनिर्देशसे | कवि हस्तिमल्ल विक्रमकी १४ वीं शताब्दीमें हुए है। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंधस्ति महाभाष्यकी खोज .. २७३ यह स्पष्ट ध्वनि निकलती है कि वह समन्तभद्रका एक स्वतंत्र और प्रधान ग्रंथ है। देवागम (मासमीमांसा) की अन्तिम कारिका भी इसी भावको पुष्ट करती हुई नजर प्राती है और वह निम्न प्रकार है * इतीयमाप्तमीमांसा विहिता हितमिच्छतां । सम्यग्मिथ्योपदेशार्थविशेषप्रतिपत्तये ।। वसुनन्दी प्राचार्यने, अपनी टीकामें, इस कारिकाको 'शास्त्रार्थोपसंहार. कारिका' लिखा है, और इसकी टीकाके अन्तमें समंतभद्रका 'कृतकृत्यः नियंढतत्त्वप्रतिज्ञः * इत्यादि विशेषणोंके साथ उल्लेख किया है । विद्या. नंदाचार्यने प्रष्टसहस्रीमें, इस कारिकाके द्वारा प्रारब्धनिर्वहण-प्रारंभ किये हए कार्यकी परिसमाप्ति ---प्रादि को मूचित करते हुए, 'देवागम' को 'स्वोक्तपरिच्छेदशास्त्र बितलाया है-प्रर्थात, यह प्रतिपादन किया है कि इस शास्त्र में जो दश परिच्छेदोंका विभाग पाया जाता है वह स्वयं स्वामी समन्तभद्रका किया हमा है। प्रकलंकदेवने भी ऐमा ही + प्रतिपादन किया है । और इम सब कथनमे 'देवागम'का एक स्वतंत्र शास्त्र होना पाया जाता है जिसकी समाप्ति उक्त कारिकाके साथ हो जाती है, और यह प्रतीत नहीं होता कि वह किसी टीका अथवा भाष्यका प्रादिम मंगलाचरण है; क्योंकि किसी ग्रंथपर टीका * जो लोग अपना हित चाहते है उन्हे लक्ष्य करके, यह 'प्राप्तमीमांसा' सम्यक् और मिथ्या उपदेशके प्रयविशेषको प्रतिपत्तिके लिये कही गई है। शास्त्रके विषयका उपसंहार करनेवाली अथवा उसकी समाप्तिकी सूचक कारिका। * ये दोनों विशेषगण ममन्तभद्रके द्वारा प्रारंभ किये हुए ग्रंथकी परिसमासिको मूचित करते है। "इति देवागमाख्ये स्वोक्तपरिच्छेदे मास्त्र ( स्वेनोक्ता: परिच्छेदा दश यस्मिस्तत् स्वोक्तपरिच्छेदमिति ग्राह्य तत्र ) विहितेयमाप्तमीमांसा सर्वज्ञ-विशेषपरीक्षा............ -प्रष्टसहस्री। + "इति स्वोक्तपरिखेन्दविहितेयमासमीमांसा सर्वज्ञविशेषपरीक्षा।" -मष्टशती Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश प्रथवा भाष्य लिखते हुए नमस्कारादि- रूपसे मंगलाचरण करनेकी जो पद्धति पाई जाती है वह इससे विभिन्न मालूम होती है और उसमें इस प्रकारसे परिच्छेदभेद नहीं देखा जाता। इसके सिवाय उक्त कारिकासे भी यह सूचित नहीं होता कि यहां तक मंगलाचरण किया गया है और न ग्रंथके तीनों टीकाकारों-कलंक, विद्यानंद तथा वसुनन्दी नामके प्राचार्यो— मेंसे हो किसीने अपनी टीकामें इसे 'गंधहस्ति महाभाष्यका मंगलाचरण' सूचित किया है, बल्कि गंधहस्ति महाभाष्यका कहीं नाम तक भी नहीं दिया। और भी कितने ही उल्लेखों से देवागम ( प्राप्तमीमांसा ) एक स्वतंत्र ग्रंथके रूपमें उल्लेखित मिलता है * | श्रौर इस लिये कवि हस्तिमल्लादिकके उक्त पद्य परसे देवागमकी स्वतंत्रतादि-विषयक जो नतीजा निकाला गया है उसका बहुत कुछ समर्थन होता है । कवि हस्तिमलादिक के उक्त पद्यसे यह भी मालूम नही होता कि जिस तत्त्वासूत्र पर समन्तभद्रने गंधहस्ति नामका भाष्य लिखा है वह उमास्वातिका तत्त्वार्थसूत्र' अथवा 'तत्त्वार्थशास्त्र' है या कोई दूसरा तत्त्वार्थसूत्र । हो सकता है कि वह उमास्वातिका ही तत्त्वार्थसूत्र हो, परन्तु यह भी हो सकता है कि वह उससे भिन्न कोई दूसरा ही तत्त्वार्थमुत्र अथवा तत्त्वार्थशास्त्र हो, जिसकी रचना किसी दूसरे विद्वानाचार्य के द्वारा हुई हो; क्योंकि तत्त्वार्थ सूत्रोंके रचयिता अकेले उमास्वानि ही नहीं हुए है - दूसरे प्राचार्य भी हुए है और न सूत्रकां प्रथं केवल गद्यमय * यथा --- ५. गोविन्दभट्ट इत्यासीद्विद्वान्मिथ्यात्ववर्जितः देवगमनसूत्रस्य श्रुत्वा सदृशेनान्वितः । विक्रान्तकौरव-प्रशस्ति :- स्वामिनश्चरितं नस्य कस्य तो विस्मयावहम् । देवागमेन सर्वज्ञो येनाद्यापि प्रदश्यते ॥ - वादिराजसूरि (पादयं च० ) ३ - जीयात् समन्तभद्रस्य देवागमनसंजिनः । स्तोत्रस्य भाष्यं कृतवानकलंकी महद्धिकः ।। अलंकार यस्सावं मातमीमांसितं मतं । स्वामिविद्यादिनंदाय नमस्तस्मै महात्मने । - नगरताल्लुकेका शि० लेख नं० ४६ (E. C, VIII.) Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंधस्ति महाभाज्यकी खोज संक्षिप्त सूचनावाक्य या वाक्यसमूह ही है बल्कि वह 'शास्त्र' का पर्याय नाम भी है और पद्यात्मक शास्त्र भी उससे अभिप्रेत होते है । यथा कायस्थपद्मनाभेन रचितः पूर्वमूत्रतः।-यशोधरचरित्र । तथोदिष्टं मयात्रापि ज्ञात्वा श्रीजिनसूत्रतः।-भद्रबाहुचरित्र । भणियं पवयणसार पंचत्थियसंगहं सुत्तं ।-पंचास्तिकाय । देवागमनसूत्रस्य श्रुत्वा सहर्शनान्वितः।-वि० कोरव प्रशस्ति । एतम.."मुलाराधनाटीकायां मुस्थितसूत्र में विम्नरन: समर्थितं द्रष्टव्य-प्रनगारधर्मामृत-टीका। प्रतएव तत्त्वार्थमूत्रका अर्थ ' तत्त्वार्थविषयक शास्त्र' होता है और इसीसे उमास्वातिका तत्त्वार्थसूत्र 'तत्वार्थशास्त्र' और 'नत्त्वार्थाधिगममोक्षशास्त्र' कहलाता है। "मिद्धान्तशास्त्र' और 'राद्धान्तसूत्र' भी तत्त्वार्थशास्त्र प्रथवा तत्त्वार्थमूत्रके नामान्तर है । इसीमे पायेदेवको एक जगह तत्त्वार्थमूत्र'का और दूसरी जगह राद्धान्त का कर्ता लिम्बा है । और पुष्पदन्न. भूतबल्यादि प्राचार्योद्वारा विरचित सिद्धान्तगास्त्रको भी तत्त्वार्थशास्त्र या तत्त्वार्थमहागास्त्र कहा जाता है । इन सिद्धान्त मास्त्रोंपर •तुम्बुलूराचार्यने कनडी भाषामे 'चुडामणि नामकी एक बड़ी टीका लिखी है, जिसका परिमागग इन्द्रनन्दिकृत 'श्रतावतार में ८४ हजार और 'कर्णाटकशब्दानुशासन' में ६६ हजार श्लोकोंका बतलाया है। भट्टाकलंकदेवनं. ७ अपने कर्णाटक शब्दानुशासन' में कनड़ी भाषाकी यह गाथाबद्ध भगवती प्राराधना' शास्त्रके एक अधिकारका नाम है। + यथा-(१)".......प्रवरि तत्त्वार्थसूत्रकर्तुगल एनिमिद् आर्यदेवर..." -नगरताल्लुकेका शि० लेख नं० ३५" (२)"प्राचार्यवयों यतिरायं देवो राधान्तकर्ता ध्रियतां स मनि । -श्रवणबेल्गुल शिलालेख नं० ५४ (६७) ये 'प्रष्टगती' प्रादि ग्रन्थोंके कर्तास भिन्न दूसरे भहाकलक है, जो विक्रमको १७वीं शताब्दी में हुए है । इन्होंने कर्णाटकगन्दानुशासनको ई० सन् १६०४(यक१५२६ ) में बनाकर समाप्त किया है। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश उपयोगिताको जतलाते हुए, इस टीकाका निम्न प्रकारसे उल्लेख किया है “न चैष (कर्णाटक) भाषाशास्त्रानुपयोगिनी तत्त्वार्थमहाशास्त्रव्याख्यानस्य षण्णवतिसहस्त्रप्रमितग्रन्थसंदर्भरूपस्य चूडामण्यभिधानस्य महाशास्त्रस्यान्येषां च शब्दागम-युक्त्यागम-परमागम-विषयाणां तथा काव्य-नाटक-कलाशास्त्र-विषयारणं च बहूनां ग्रन्थानामपि भाषाकतानामुपलब्धमानत्वात्। इस उल्लेखसे स्पष्ट है कि 'चुडामरिण' जिन दोनों (कर्मप्राभूत और कषायप्राभृत) सिद्धान्त-शास्त्रोंकी टीका कहलाती है, उन्हें यहाँ 'तत्त्वार्थमहाशास्त्र के नामसे उल्लेखित किया गया है। इससे सिद्धान्तशास्त्र और 'तत्त्वार्थशास्त्र' दोनोंकी एकार्थताका समर्थन होता है और साथ ही यह पाया जाता है कि कर्मप्राभूत तथा कषायप्राभूत ग्रंथ 'तत्त्वार्थशास्त्र' कहलाते थे। तत्त्वार्थविषयक होनसे उन्हें 'तत्त्वार्थशास्त्र' या 'तत्त्वार्थमूत्र' कहना कोई अनुचित भी प्रतीत नहीं होता / इन्हीं तत्त्वार्थशास्त्रोंमेसे 'कर्मप्राभूत' मिद्धान्तपर ममन्तभदने भी एक विस्तृत संस्कृनटीका लिखी है जिसका परिचय पहले दिया जा चुका है मौर जिसकी संख्या 'इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार के अनुसार 48 हजार और 'विबुधश्रीधर-विर. चित-श्रुतावनारके मनमे 68 हजार श्लोक-परिमारग है। ऐमी हालतमें, पाश्चर्य नहीं कि कवि हस्तिमल्लादिकने अपने उक्त पद्यमें समन्तभद्रको तत्वार्थमूत्रके जिस 'गधहस्ति नामक व्याख्यानका कर्ता मूचित किया है वह यही टीका अथवा भाप्य हो / जब तक किसी प्रबल और समर्थ प्रमागके द्वारा, बिना किसी संदेहके, यह मालूम न हो जाय कि समन्तभद्रने उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्रपर ही 'गंधहस्ति' नामक महाभाष्यकी रचना की थी तबतक उनके उक्त सिदान्तभाष्यको गंधहस्तिमहाभाष्य माना जा सकता है और उसमें यह पच कोई बाधक प्रतीत नहीं होता। (2) पाराके जेनसिद्धान्त भवनमें ताइपत्रों पर लिखा हुमा, कनड़ी भाषाका एक अपूर्ण ग्रंथ है, जिसका तथा जिसके कर्ताका नाम मालूम नहीं हो ... देखो, गइम साहबकी 'स्किपर्णम ऐट श्रवणबेलगोल' नामकी पुस्तक सन 1886 की छपी हुई। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. गंधस्ति महामाज्यको खोन 277 सका, और जिसका विषय उमास्वातिके तस्वााधिगमसूत्रके तीसरे अध्यायसे सम्बन्ध रखता है। इस ग्रंथके प्रारंभमें नीचे लिखा वाक्य मंगलाचरणके तौर पर मोटे अक्षरोंमें दिया हुआ है "तत्वार्थव्याख्यानपएणवतिसहस्रगन्धहस्तिमहाभाष्यविधायत (क) देवागमकवीश्वरस्याद्वादविद्याधिपतिसमन्तभद्रान्वयंपेनुगाण्डेयलक्ष्मीसेनाचार्यर दिव्यश्रीपादपद्मगलिगे नमोस्तु / " ___ इस वाक्यमें 'पेनुगोण्डे के रहनेवाले लक्ष्मीसेन * प्राचार्य के चरणकमलोंको नमस्कार किया गया है और साथ ही यह बलाया गया है कि वे उन समन्तभद्राचार्यके वंशमें हुए हैं जिन्होंने तत्त्वार्थके व्याख्यानस्वरूप 66 हजार ग्रंथपरिमारणको लिए हुए गंधहस्ति नामक महाभाष्यकी रचना की है और जो 'देवागम' के कवीश्वर तथा स्याद्वादविद्याके अधीश्वर ( अधिपति ) थे।। यहाँ समन्तभद्रके जो तीन विशेषण दिये गये हैं उनमेमे पहले दो विशेषण प्राय: वे ही है जो 'विक्रान्तकौरव' नाटक और 'जिनेन्द्रिकल्यारणाभ्युदय' के उक्त पद्यमें खासकर उसके पाठान्तरित रूपमें--पाये जाते है। विशेषता सिर्फ इतनी है कि इसमें * तन्वार्थमूत्रव्याख्यान की जगह 'तत्त्वार्थव्याख्यान' और 'गंधहस्ति' की जगह 'गंधहस्तिमहाभाष्य'ऐमा स्पष्टोल्लेख किया है / साथही, गंधहस्तिमहाभाष्यका परिमारण भी 66 हजार दिया है,जो उसके प्रचलित परिमारण (चौरासी हजार ) से 12 हजार अधिक है / * लक्ष्मीसेनाचार्य के एक शिष्य मल्लिषेणदेवकी निपद्याका उल्लेख श्रवणबेल्गोलके 168 वें शिलालेखमें पाया जाता है और वह शिलालेख ई० सन् 1400 के करीबका बतलाया गया है / संभव है कि इन्हीं लक्ष्मीसेनके शिष्यकी निषद्याका वह उल्लेख हो और इससे लक्ष्मीमेन 14 वी शताब्दीके लगभगके विद्वान हों / लक्ष्मीसेन नामके दो विद्वानोंका और भी पता चला है परन्तु वे 16 वीं और 18 वीं शताब्दी के प्राचार्य / / विक्रमकी १२वीं शताब्दीके विद्वान् कवि गुणवर्मने भी अपने कन्ना- . भाषामें रचे गये पुष्पदन्तपुराणमें समन्तभद्रके गन्धहस्ति भाष्यका उल्लेख करते हुए उसकी पसंख्या 66 हजार दी है। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश इस उल्लेखसे भी 'देवागम' के एक स्वतंत्र तथा प्रधान ग्रंथ होनेका पता चलता है, और यह मालूम नहीं होता कि गन्धहस्तिमहाभाष्य जिस 'तत्त्वार्य' ग्रन्थका व्याख्यान है वह उमास्वातिका 'तत्त्वार्थसूत्र' है या कोई दूसरा तत्त्वार्थशास्त्र; और इसलिये, इस विषयमें जो कुछ कल्पना और विवेचना ऊपर की गई है उसे यथासंभव यहाँ भी समझ लेना चाहिये / रही ग्रन्थसंख्याकी बात, वह बेशक उसके प्रचलित परिमाणसे भिन्न है और कर्मप्राभूत टीकाके उस परिमाणस भी भिन्न है जिसका उल्लेख इन्द्रनन्दी तथा विबुध श्रीधरके 'श्रुतावतार' नामक ग्रन्थोंमें पाया जाता है। ऐसी हालतमें यह खोजनेकी जरूरत है कि कौनसी संख्या ठीक है। उपलब्ध जैनमाहित्यमें, किमी भी प्राचार्य के ग्रन्थ अथवा प्राचीन शिलालेख परसे प्रचलित संख्याका कोई समर्थन नहीं होता अर्थात्. ऐसा कोई उल्लेख नही मिलता जिससे गंधहस्ति महाभाप्यकी श्लोकसंख्या 84 हजार पाई जाती हो;-बल्कि ऐमा भी कोई उल्लेख देखने में नहीं माता जिससे यह मालूम होता हो कि समन्तभद्रने 84 हजार श्लोकसंख्यावाला कोई ग्रन्थ निर्माण किया है, जिसका सम्बन्ध गंधहस्ति महाभाप्यके साथ मिला लिया जाता; और इसलिये महाभाष्यकी प्रचलित संख्याका मूल मालूम न होनेसे उसपर सदेह किया जासकता है। श्रुतावतार में 'चूडामरिक नामके कनडी भाष्यकी संख्या 88 हजार दी है; परंतु करर्णाटक शब्दानुशासनमें भट्टाकलंकदेव उसकी संख्या 66 हजार लिखते है और यह संख्या स्वयं ग्रन्यको देखकर लिखी हुई मालूम होती है; क्योंकि उन्होंने ग्रन्थको 'उपलभ्यमान' बतलाया है। इससे श्रुतावतारमें समन्तभद्रके सिद्धान्तागम-भाष्यको जो संख्या 48 हजार दी है उसपर भी संदेहको अवसर मिल सकता है, खासकर ऐसी हालत में जब कि विबुध श्रीधरके 'श्रुतावतार में उसकी संख्या 68 हजार हो- प्रकोंके मागे अंकोंका प्रागे पीछ लिखा जाना कोई अम्वाभाविक नहीं है, वह कभीकभी जल्दी में हो जाया करता है। उदाहरणके लिये डा. सतीशचन्द्रकी 'हिस्टरी माफ इंडियन लाजिक'को लीजिये, उसमें उमास्वातिकी प्रायुका उल्लेख करते हुए 84 की जगह 48 वर्ष, इसी अंकोंके पागे पीछेके कारण, लिखे गये हैं। अन्यथा, राक्टर साहबने उमास्वातिका समय ईसवी सन् 1 मे 85 तक दिया है। यदि इसे न देते तो वहाँ प्रायुके विषयमें और भी ज्यादा प्रम होना संभवपा। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LAAAAAmiasinindianan गन्धहस्ती महाभाष्यकी खोज पीछे लिखे जानेसे कहीं पर 48 हजार लिखी गई हो और उसीके माधारपर 48 हजारका गलत उल्लेख कर दिया गया हो-या 66 हजार हो अथवा 68 हजार वगैरह कुछ और ही हो; और यह भी संभव है कि उक्त वाक्यमें जो मंख्या दी गई है वही ठीक न हो-वह किसी गलतीसे 84 हजार था 48 हजार प्रादिकी जगह लिखी गई है हो / परन्तु इन सब बातोंके लिये विशेष अनुसंधान तथा खोजकी जरूरत है और तभी कोई निश्चित बात कही जा सकती है। हाँ, उक्त वाक्योंमें दी हुई महाभाष्यकी संख्या और किसी एक श्रुतावतारमें दी हुई समन्तभद्रके सिद्धान्तागमभाष्यकी संख्या दोनों यदि सत्य साबित हो तो यह जरूर कहा जा सकता है कि ममन्तभद्रका गंधहस्तिमहाभाष्य उनके सिद्धान्तागमभाष्य ( कर्मप्राभूत-टीका ) मे भिन्न है, और वह उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रका भाष्य ही सकता है। (3) श्रीचामुण्डायने, अपने कर्णाटक मापा-निबद्ध त्रिषष्ठिलक्षरणपुराणके निम्न पद्यमें, समन्तभद्र के तत्त्वार्यभाष्यका उल्लेख किया है "अभिमत्तमग्गिरे तत्त्वार्थभाष्यमं तर्क शास्त्रमं वरदु वची-। विभवदिनिलेगेमंद समन्तभद्रदेवर समानरेंवरमोतारे // 5 // " यह पुराण शक मं० 600 ( वि० 1035 , में बनकर समाप्त हुआ है / इममें ममन्तभद्रके जिस तत्वायंभाप्यका उल्लेख है उसे 'तकंशास्त्र' बतलाया गया है, जिसमे वह नर्कश लीकी प्रधानताको लिये हुए जान पड़ता है, उसकी सख्यादिका यहां कोई निर्देश नहीं है / (4) उमास्वानिके 'नत्वार्थमूत्र' पर 'राजवार्तिक' और 'श्लोकवार्तिक' नामके दो भाष्य उपलब्ध हैं जो क्रमश: अकलंकदेव तथा विद्यानंदाचार्यके बनाये हुए है / ये वातिकके ढंगमे लिखे गये हैं और 'वार्तिक' ही कहलाते हैं / वार्तिकोंमें उक्त, अनुक्त और दुरुक्त-कहे हए, बिना कहे हुए और अन्यथा कहे हुएतीनों प्रकारके प्रयोंकी चिन्ता, विचारणा अथवा अभिव्यक्ति हुप्रा करती है / जैसा कि श्रीहेमचन्द्राचायंप्रतिपादित 'वातिक'के निम्न लक्षणसे प्रकट है उक्तानुक्तदुरुक्तार्थचिन्ताकारि तु वार्तिकम / / | A rulc which explains what is said or but imperfectly said and supplies omissions. (V. S. Apte's dictionary) Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश ____ इससे वार्तिक-भाष्योंका +परिमाण पहले भाष्योंसे प्रायः कुछ बढ़ जाता है। जैसे सर्वार्थ सिद्धिसे राजवातिकका और राजवातिकसे श्लोकवातिकका परिमारण बढ़ा हुपा है / ऐसी हालतमें उक्त तत्त्वार्थसूत्रपर समंतभद्रका 84 या 96 हजार श्लोकसंख्यावाला भाष्य यदि पहलेसे मौजूद था तो अकलंकदेव और विद्यानंदके वार्तिक-भाष्योंका अलग अलग परिमाण उससे जरूर कुछ बढ़ जाना चाहिये था; परन्तु बढ़ना तो दूर रहा वह उल्टा उससे कई गुणा कम है। इससे यह नतीजा निकलता है कि या तो समन्तभद्रने उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्र पर वैसा कोई भाष्य नहीं लिखा-उन्होंने सिद्धान्तग्रन्थपर जो भाष्य लिखा है वही 'गंधहस्ति महाभाष्य' कहलाता होगा-और या लिखा है तो वह अकलंकदेव तथा विद्यानंदसे पहले ही नष्ट हो चुका था, उन्हें उपलब्ध नहीं हुआ। ( 5 ) शाकटायन व्याकरणके 'उपज्ञाते.' सूत्रकी टीकामें टीकाकार श्रीप्रभयचन्द्रसूरि लिखते है-- + वार्तिकभाष्योंसे भिन्न दूसरे प्रकारके भाष्यों अथवा टीकामोंका परिमाण भी बढ़ जाता है, ऐसा अभिप्राय नहीं है / वह चाहे जितना कम भी हो सकता है। यह तीसरे अध्यायके प्रथम पादका 182 वा सूत्र है और अभयचंद्रसूरिके मुद्रित 'प्रक्रियासंग्रह' में इसका क्रमिक नं० 746 दिया है। देखो, कोल्हापुरके 'जैनेन्द्रमुद्रणालय' में छपा हुमा सन् 1907 का संस्करण / / ये अभयचन्द्रसूरि वे ही अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती मालूम होते है जो केशववीके गुरु तथा 'गोम्मटसार'की 'मन्दप्रबोधिका' टीकाके कर्ता थे, और 'लघीयस्त्रय'के टीकाकार भी ये ही जान पड़ते है / 'लघीयस्त्रय' की टीकामें टीकाकारने अपनेको मुनिचंद्रका शिष्य प्रकट किया है और मंगलाचरणमें मुनिपंद्रको भी नमस्कार किया है; 'मंदप्रबोषिका' टीकामें भी 'मुनि'को नमस्कार किया गया है और शाकटायन व्याकरणको इस प्रक्रियासंग्रह' टीकामें भी मुनीन्द्र'को नमस्कार पाया जाता है और वह 'मुनीन्दु' (= मुनिचंद्र ) का पाठान्तर भी हो सकता है / साथ ही, इन तीनों टीकामों के मंगलाचरणोंकी शैली भी एक पाई जाती है-प्रत्येकमें अपने गुरुके सिवाय, मूलग्रंयकर्ता तथा जिनेश्वर (जिनापीय ) को भी नमस्कार किया गया है और टीका करजेकी प्रतिज्ञाके Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... गन्धहस्ति महाभाध्यकी खोज 281 .. "तृतीयान्तादुपज्ञाते प्रथमतोहाते यथायोग अणादयो भवन्ति / / अर्हता प्रथमतो ज्ञातं आहेत प्रवचन। सामन्तभद्रं महाभाष्यमित्यादि / / " ___ यहाँ तृतीयान्तसे उपज्ञात अर्थमें प्रणादि प्रत्ययोंके होनेसे जो रूप होते हैं उनके दो उदाहरण दिये गये है-एक 'पाहत-प्रवचन' और दूसरा सामन्तभद्र महाभाष्य' / साथ ही, 'उपज्ञात'का अर्थ 'प्रथमतो ज्ञात'-बिना उपदेशके प्रथमजाना हुप्रा-किया है / अमरकोशमें भी 'प्राय ज्ञान'को उपशा' लिखा है / इस प्रर्थकी दृष्टिमे अहंन्तके द्वारा प्रथम जाने हुए प्रवचनको जिस प्रकार 'पाहंत प्रवचन' कहते है उसी प्रकार ( समन्तभरण प्रथमतो विनोपदेशेनज्ञातं सामन्त साथ टीकाका नाम भी दिया है। इससे ये तीनों टीकाकार एक ही व्यक्ति मालूम होते हैं और मुनिचद्रके शिष्य जान पड़ते हैं। केशववर्णीने गोम्मटसारकी कनड़ी टीका शक स० 1281 ( वि० सं० 1416 ) मे बनाकर समाप्त की है, पौर मुनिचंद्र विक्रमकी 13 वी 14 वी शताब्दीके विद्वान थे। उनके अस्तित्व समयका एक उल्लेख सौंदत्तिके शिलालेखमे शक सं० 1151 (वि० सं० 1286) का और दूसरा श्रवणबेलगोलके 137 ( 347 ) नंबरके शिलालेख में शक सं० 1200 ( वि० मं० 1335 ) का पाया जाता है। इस लिए ये अभय चंद्रमूरि विक्रमकी प्राय 14 वीं शताब्दीके विद्वान् मालूम होते हैं। बहुत संभव है कि वे प्रभयमूरि मैद्धान्तिक भी ये ही अभयचंद्र हों जो 'श्रुत मुनि के गास्त्रगुरु थे और जिन्हें श्रुतमुनिके भावसंग्रह' की प्रशस्तिमें शब्दागम, परमागम और तांगमके पूर्ण जानकार ( विद्वान् ) लिखा है। उनका ममय भी यही पाया जाता है; क्योंकि थुनमुनिके अरगुवनगुरु और गुरुभाई बालचंद्र मुनिने शक सं० 1165 (वि० सं० 1330 ) में 'द्रव्यसंग्रह' सूत्र पर एक टीका लिखी है ( देखो ‘कर्णाटककविचरिने' ) / परन्तु श्रुतमुनिके दीक्षागुरु प्रभयचन्द्र सैद्धान्तिक इन अभयचंद्रसूरिसे भिन्न जान पड़ते हैं, क्योंकि श्रवणबेल्गोलके शि० लेख नं० 41 प्रौर 105 में उन्हें माघनंदीका शिष्य लिखा है / लेकिन समय उनका भी विक्रमकी 13 वी 14 वी शताब्दी है। प्रभयचंद्र नामके दूसरे कुछ विद्वानोंका अस्तित्व विकमकी 16 वी मोर 17 वीं शताब्दियोंमें पाया जाता है। परन्तु वे इस प्रक्रियासंग्रह' के कर्ता मालूम नहीं होते। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www 282 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश भद्रं ) समन्तभद्र के द्वारा बिना उपदेशके प्रथम जाने हुए महाभाष्यको 'सामन्तभद्र महाभाष्य' कहते हैं, ऐसा समझना चाहिये; और इससे यह ध्वनि निकलती है कि समन्तभद्रका महाभाष्य उनका स्वोपज्ञ भाष्य है- उन्हींके किसी ग्रन्थपर रचा हुमा भाष्य है। अन्यथा, इसका उल्लेख टः प्रोक्त' सूत्रकी टीका में किया जाता, जहाँ 'प्रोक्त' तथा 'व्याख्यात' अर्थमें इन्हीं प्रत्ययोंसे बने हुए रूपोंके उदाहरण दिये हैं और उनमें सामन्तभद्र' भी एक उदाहरण है परन्तु उसके साथमें 'महाभाष्यं' पद नहीं है क्योंकि दूसरेके ग्रंथ पर रचे हुए भाष्यका अथवा यों कहिये कि उस ग्रन्थके अर्थका प्रथम ज्ञान भाष्यकारको नहीं होता बल्कि मूल ग्रन्थकारको होता है / परन्तु यहां पर हमे इस चर्चामें अधिक जानेकी ज़रूरत नहीं है / मैं इस उल्लेख परमे सिर्फ इतना ही बतलाना चाहता हूँ कि इसमें समन्तभद्रके महाभाष्यका उल्लेख है और उसे 'गन्धहस्ति' नाम न देकर 'सामन्तभद्र महाभाष्य के नामसे ही उल्लेखित किया गया है / परन्तु इस उल्लेखसे यह मालूम नहीं होता कि वह भाष्य कौनसे ग्रन्थपर लिखा गया है / उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रकी तरह वह कर्मप्राभूत सिद्धान्तपर या अपन ही किसी ग्रंथपर लिखा हुआ भाप्य भी हो सकता है। .ऐमी हालतमे, महाभाष्यके निर्माण का कुछ पता चलने के सिवाय, इस उल्लेखसे और किसी विशेषताकी उपलब्धि नहीं होती। (6 ) स्याद्वादमजरी नामके श्वेताम्बर ग्रंथमें एक स्थानपर 'गंधहस्ति' आदि ग्रन्थोंके हवाले से अवयव और प्रदेशके भेदका निम्न प्रकारसे उल्लेख किया है "यद्यप्यवयवप्रदेशयोगन्धहस्त्यादिपु भेदोऽस्ति तथापि नात्र सूक्ष्मेक्षिका चिन्त्या / " * यह उसी तीसरे अध्यायके प्रथम पादका 166 वा सूत्र है; और प्रकियासंग्रहमें इसका क्रमिक नं० 743 दिया है। ॐ यह हेमचन्द्राचार्य-विरचित 'अन्ययोगव्यवच्छेद-सात्रिशिका'की टीका है जिसे मल्लिषेणसूरिने शक सं० 1214 (वि० सं० 1346 ) में बनाकर समाप्त किया है। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~~~-rrrrrrrr गन्धहस्ति महाकाव्यकी खोज 283 इस उल्लेखसे सिर्फ 'गंधहस्ति' नामके एक ग्रन्थका पता चलता है परन्तु यह मालूम नहीं होता कि वह मूल ग्रन्थ है या टीका, दिगम्बर है या श्वेताम्बर और उसके कर्ताका क्या नाम है / हो सकता है कि, इसमें 'गंधहस्ति' से समन्तभद्रके गंधहस्तिमहाभाष्यका ही अभिप्राय हो, जैसाकि पं. जवाहरलाल शास्त्रीने ग्रन्थकी भाषाटीकामें सूचित किया है; परन्तु वह श्वेताम्वरोंका कोई ग्रन्थ भी हो सकता है जिसकी इस प्रकारके उल्लेख-अवसरपर अधिक संभावना पाई जाती है। क्योंकि दोनों ही सम्प्रदायोंमें एक नामके अनेक ग्रन्थ होते रहे हैंऔर नामोंकी यह परस्पर समानता हिन्दुओं तथा बौद्धों तकमे पाई जाती है। अतः इम नाममात्रके उल्लेखसे किसी विशेषताकी उपलब्धि नहीं होती। (7) 'न्यायदीपका' * में प्राचार्य धर्मभूपरणने अनेक स्थानों पर प्राप्तमीमांमा' के कई पद्योंको उद्धत किया है; परन्तु एक जगह सर्वज्ञकी सिद्धि करते हुए, वे उसके सूक्ष्मान्तरितदरार्थाः' नामक पद्यको निम्न गक्यके माथ उद्धृत करते है "तदुक्तं स्यामिभिर्महाभाष्यम्यादावाप्तमीमांसाप्रस्तावे-" इस वाक्यमे इतना पता चलता है कि महाभाष्यको आदिमें 'प्राप्तमीमांसा' नामका भी एक प्रस्ताव है-प्रकरण है-और ऐसा होना कोई अस्वाभाविक नहीं है; एक ग्रन्थकार अपनी किमी कृतिको उपयोगा समझकर अनेक ग्रन्थोंमें भी उद्धृत कर सकता है / परन्तु इसमे यह मालूम नहीं होता कि वह महाभाष्य उमास्वातिके तत्वार्थमूत्रका ही भाष्य है। वह कर्मप्राभूत नामके सिद्धान्तशास्त्रका भी भाष्य हो सकता है और उममे भी 'माप्तमीमांसा' नामके एक प्रकरणका होना कोई प्रसंभव नहीं कहा जा सकता / इसके सिवाय ' प्राप्तमीमांसाप्रस्तावे' पदमें पाये हुए 'मातमीमांसा' शब्दोंका वाच्य यदि समन्तभद्रका संपूर्ण प्राप्तमीमांसा' नामका दशपरिच्छेदात्मक ग्रन्थ माना जाय तो उक्त पदसे यह भी मालूम नहीं होता कि वह प्राप्तमीमांसा ग्रन्थ उस भाष्यका मंगलाचरण है, बल्कि वह उसका एक प्रकरण जान पडता है। प्रस्ताव या प्रकरण होना और बात है और * यह ग्रन्य शक सं० 1307 ( वि० सं० 1442 )में उनकर समास हुमा है और इसके रचयिता धर्मभूषण 'पभिनव धर्मभूषण' कहलाते हैं। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश मंगलाचरण होना दूसरी बात। एक प्रकरण मंगलात्मक होते हुए भी टीकाकारोंके मंगलाचरणकी भाषामें मंगलाचरण नहीं कहलाता। टीकाकारोंका मंगलाचरण अपने इष्टदेवादिककी स्तुतिको लिए हुए या तो नमस्कारात्मक होता है या माशीर्वादात्मक और कभी कभी उसमें टीका करनेकी प्रतिज्ञा भी शामिल रहती है,अथवा इष्टकी स्तुति-ध्यानादिपूर्वक टीका करने की प्रतिज्ञाको ही लिये हुए होता है; परन्तु वह एक ग्रन्थके रूपमें अनेक परिच्छेदोंमें बंटा हुमा नहीं देखा जाता / प्राप्तमीमांसामें ऐसा एक भी पद नहीं है जो नमस्कारात्मक या पाशीर्वादात्मक हो अथवा इष्टकी स्तुनिध्यानादिपूर्वक टीका करने की प्रतिज्ञाको लिए हुए हो; उसके अन्तिम पद्यमे भी यह मालूम नहीं होता कि वह किम ग्रन्यका मंगलाचरण है, और यह बात पहिले जाहिर की जा चुकी है कि उसमें दशपरिच्छेदोका जो विभाग है वह स्वयं समन्तभद्राचार्यका किया हुआ है / ऐमी हालतमें यह प्रतीत नहीं होता कि प्राप्तमीमामा गंधहस्तिमहाभाष्यका प्रादिम मंगलाचरण हैमर्थात्. वह भाष्य 'देबागमनभोयानचामरादिविभूतिय / मायाविष्वपिदृश्यन्ते नातम्त्वमसिनो महान् // ' इम पद्यसे भी प्रारम्भ होता है और इससे पहले उसमें कोई दूसरा मंगल पद्य अथवा वाक्य नहीं है / हो सकता है कि समन्तभद्रने महाभाष्यकी प्रादिमें प्राप्तके गुणोंकाकोई खाम स्तवन किया हो और फिर उन गुणोंकी परीक्षा करने अथवा उनके विषयमें अपनी श्रद्धा और गुणज्ञताको संसूचित करने प्रादिके लिये प्राप्तमीमांसा' नामके प्रकरणकी रचना की हो अथवा पहलेसे रचे हुए अपने इम ग्रन्थक वहाँ उढ़त किया हो / और यह भी हो मकता है कि मूलग्रन्थ के मंगलाचरणको ही उन्होंने महाभाष्यका मंगलाचरण स्वीकार किया हो; जमे कि पूज्यपादकी बाबत अनेक विद्वानोंका कहना है कि उन्होंने तत्त्वार्थमूत्रके मंगलाचरणकोही अपनी सर्वार्थ मिद्धि टीकाका मगलाचरण बनाया है और उमसे भिन्न टीकामें किसी नये मंगलाचरणका विधान नहीं किया है। दोनों ही हालतोंमें 'प्राप्तमीमासा' प्रकरणसे पहले दूसरे मंगलाचरणका-पाप्तस्तवन-होना ठहरता है, जिसकी संभावना अभी बहुत कुछ विचारणीय है। - परन्तु किमने ही विद्वान् इस मतसे विरोध भी रखते है जिसका हाल मागे चलकर मालूम होगा।' Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गन्धहस्ति महाभाष्यकी खोज 285 (8) माप्तमीमांसा ( देवागम) की 'प्रष्टसहस्री' टीका पर लघु समन्त भने 'विषमपदतात्पर्यटीका' नामकी एक टिप्पणी लिखी है, जिसकी प्रस्तावना. का प्रथम वाक्य इस प्रकार है :__ "इहहि / खलु पुरा स्वकीय-निरवद्य विद्या-संयम-संपदा गणधरप्रत्येकबुद्ध-श्रुतकेवलि-दशपूर्वाणां सूत्रकृन्महर्षीणां महिमानमात्मसात्कुर्वद्भिर्भगवद्भिरुमास्वातिपादैराचार्यवरासूत्रितस्य तत्त्वार्थाधिगमस्य मोक्षशास्त्रस्य गंधहस्त्याख्यं महाभाष्यमुपनिबध्नतः स्याद्वादविद्यामगुरुवः श्रीस्वामिसमन्तभद्राचार्यास्तत्र किल मंगलपुरस्सर-स्तव-विषय-परमाप्तगुणातिशय-परीक्षामुपक्षिप्तवन्तो देचागमाभिधानम्य प्रवचनतीर्थस्य सृ सा० सतीशचन्द्रने, अपनी 'हिस्टरी प्राफ इंडियन लांजिक'में, लघुसमन्तभद्रको ई० सन् 198 (वि० सं० 1057 ) के करीबका विद्वान् लिखा है। परन्तु बिना किसी हंतुके उनका यह लिखना ठीक प्रतीत नहीं होता; क्योंकि अष्टसहनीके अंत में 'केचित्' गन्दपर टिप्पणी देते हुए, लघुसमन्तभद्र उसमें वसुनन्दि प्राचार्य और उनकी देवागमवृत्तिका उल्लेख करत है। यथा"वसुनन्दिप्राचार्याः कचिच्छब्देन ग्राह्याः, यतस्तरेव स्वस्य वृत्यन्ते लिखितोयं श्लोक:' इत्यादि। और वमुनन्दि आचार्य विक्रमकी 12 वीं शताब्दीमें हुए हैं, इसलिये लघुसमन्तभद्र सम्भवतः विक्रमकी 13 वी शताब्दीसे पहले नहीं हए। रत्नकरण्ड-श्रावकाचारकी प्रस्तावनामें 'चिक्क ( लघु ) ममन्तभद्र' के विषयमे जो कुछ उल्लेख किया गया है उसे ध्यानमें रखते हुए ये विक्रमकी प्राय: 14 वीं शतानीके विद्वान् मालूम होते हैं और यदि 'माघनन्दी' नामान्तरको लिये हए तथा अमरकीतिके शिष्य न हों तो ज्यादेमे ज्यादा विक्रमकी 13 वीं शताब्दीके विद्वान हो सकते है। यह प्रस्तावनावाक्य मुनिजिनविजयजीने पूनाके 'भण्डारकर इन्स्टिटयूट' की उम ग्रन्थ प्रतिपरप उद्धृत करके भेजा था जिमका नम्बर 620 है / “मंगलपुरस्सरस्तवोहि शास्त्रावतार-रचित-स्तुनिरुच्यते / मंगलं पुरस्सरमस्येति मंगलपुरस्सर: शास्त्रावतारकालस्तत्र रचितः स्तवो मंगलपुरस्सरस्तव इति व्याख्यानात् / " -प्रष्टसहस्री Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश ष्टिमापूरयांचक्रिरे।" इस वाक्य-द्वारा, प्राचार्योंके विशेषणोंको छोड़कर, यह खासतौर पर सूचित किया गया है कि स्वामी समन्तभद्रने उमास्वातिके 'तत्त्वार्थाधिगममोक्षशास्त्र' पर 'गन्धहस्ति' नामका एक महाभाष्य लिखा है, और उसकी रचना करते हुए उन्होंने उसमें परम प्राप्तके गुणातिशयकी परीक्षाक अवसरपर 'देवागम' नामके प्रवचनतीर्थकी सृष्टि की है। यपि इस उल्लेखसे गंधहस्तिमहाभाष्यकी श्लोकसंख्याका कोई हाल मालूम नहीं होता और न यही पाया जाता है कि देवागम (प्राप्तमीमांसा) उसका मंगलाचरण है, परन्तु यह बात बिलकुल स्पष्ट मालूम होती है कि समन्तभद्रका गंधहस्ति महाभाष्य उमास्वातिके 'तत्त्वार्थसूत्र' पर लिखा गया है और 'देवागम' भी उसीका एक प्रकरण है / जहाँ तक मै समझता हूँ यही इस विषयका पहला स्पछोल्लेख है जो अभीतक उपलब्ध हुमा है / परन्तु यह उल्लेख किस प्राधारपर अवलम्बित है ऐमा कुछ मालूम नही होता / विक्रमको बारहवीं शताब्दीसे पहलेके जनसाहित्यमें तो गंधहस्तिमहाभाष्यका कोई नाम भी अभीतक देखनेमे नहीं पाया और न जिस अष्टसहस्री' टीका पर यह टिप्पणी लिखी गई है उममे ही इस विषयका कोई स्पष्ट विधान पाया जाता है / अष्टसहस्रीको प्रस्तावनासे मिर्फ़ इतना मालूम होता है कि किसी निःश्रेयस शास्त्रके प्रादिम किये हुए प्राप्तके स्तवनको लेकर उसके प्राशयका ममर्थन या स्पष्टीकरण करने के लिये यह प्राप्तमीमामा लिखी गई है। वह नि:श्रयसशास्त्र कोनमा और उसका वह स्तवन क्या है, इस बातकी पयांलोचना करने पर प्रष्टसहस्रीके अन्तिम भागमे इतना पता चलता है कि जिस शास्त्र के प्रारम्भमें प्राप्तका स्तवन 'मोक्षमार्गप्रणेता, कर्मभूभृद्भना और विश्वतत्त्वानां ज्ञाता' रूपमे किया गया है उसी * "तदेवेदं निःश्रेयमशास्त्रस्यादो तग्निबन्धनतया मगलायतया च मुनिभिः संस्तुतेन निरतिशयगुरणेन भगवताप्तेन श्रयोमार्गमात्महितमिच्छनां सम्यग्मिध्योपदेशार्थविशेषप्रतिपत्यर्थमाप्तमीमांसां विदधानाः श्रद्धागुणज्ञताभ्यां प्रवक्तमनसः कस्माद् देवागमादिविभूतितोऽह महानाभिष्टुत इति स्फुटं पृष्ठा इब स्वामिसमन्तभद्राचार्याः प्राहुः-" Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गन्धहस्ति महाभाष्यकी खोज 287 शास्त्रसे 'निःश्रेयस शास्त्र' का अभिप्राय है / इन विशेषणोंको लिये हुए पासके स्तवनका प्रसिद्ध श्लोक निम्न प्रकार है मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् / ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये / / प्राप्तके इस स्तोत्रको लेकर, प्रष्टसहस्रीके कर्ता श्रीविद्यानन्दाचार्यने इसपर 'प्राप्तपरीक्षा' नामका एक ग्रन्थ लिखा है और स्वयं उसकी टीका भी की है। इस ग्रन्थमें परीक्षाद्वारा पहन्तदेवको ही इन विशेषरणोंम विशिष्ट और वंदनीय ठहराते हुए, 120 वें नंबर के पद्यमे, 'इति संदेपतान्वयः' यह वाक्य दिया है पोर इमकी टीकामें लिखा है “इति संक्षेपत: शास्त्रादी परमेष्ठिगुणस्नात्रभ्य मुनिपुङ्गवैविधीयमानस्यान्वयः संप्रदायान्यवच्छेदलक्षणः पदार्थघटनालक्षणो वा लक्षणीयः प्रपंचतम्तदन्वयम्याक्षेपसमाधानलक्षणम्य श्रीमत्स्वामीममंतभद्रदेवागमाख्यानमीमांसाया प्रकाशनान...!" __इस सब क्थनमे इतना तो प्रायः स्पष्ट हो जाता है कि समन्तभद्रका देवागम नामक प्राप्तमीमामा ग्रन्थ 'माक्षमागम्य नेतारं' नामक पद्यमे कहे हए आसके स्वरूपको लेकर निम्बा गया है; परन्तु यह पद्य कौनमे निःश्रेयम (मोक्ष) शास्त्रका पद्य है और उसका कर्ता कौन है, यह बात अभी तक स्पष्ट नहीं हुई। विद्यानंदाचार्य, प्राप्तपरीक्षाको ममाप्त करते हुए, इस विषय में लिखते हैं श्रीमत्तत्वाथेशास्त्राद्भतसलिल निधेरिद्धरत्नाद्भवस्य, प्रोत्थानारंभकाले सकलमलभिदे शास्त्रकारैः कृतं यन / स्तोत्रं तीर्थोपमानं प्रथित पथुपथं म्वामिमीमांसितं नन , विद्यानंद: स्वशक्त्या कथमपि कथितं सत्यवाव याथसिद्धयं / / 12 / / हम पद्यसे मिर्फ इतना पता चलता है कि उक्त तीर्थोपमान स्तोत्र, जिसकी स्वामी ममंतभद्रने मीमांसा और विद्यानन्दने परीक्षा की.तत्त्वार्थशास्त्ररूपी अद्भत (r) "शास्त्रारंभेभिष्टुतस्याप्तस्य मोक्षमार्गप्रणेतृतया कर्मभूभृद्भत्तृतया विश्वतत्त्वानां ज्ञातृतया च भगवदहत्सवंशस्यवान्ययोगव्यवच्छेदेन व्यवस्थापनपरपरीक्षेयं विहिता।" Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश समुद्रके प्रोत्थानका-उसे ऊंचा उठाने या बढ़ानेका-प्रारम्भ करते समय शास्त्रकारद्वारा रचा गया है / परन्तु वे शास्त्रकार महोदय कौन है, यह कुछ स्पष्ट मालूम नहीं होता। विद्यानन्दने पासपरीक्षाकी टीकामें शास्त्रकारको सूत्रकार सूचित किया है और उन्हीं 'मुनिपुगव' का बनाया हा उक्त गुणस्तोत्र लिखा है परन्तु उनका नाम नहीं दिया। हो सकता है कि प्रापका अभिप्राय 'सूत्रकार से 'उमास्वाति' महाराजका ही हो; क्योंकि कई स्थानोंपर आपने उमास्वातिके वचनोंको सूत्रकारके नामसे उद्धृत किया है परन्तु केवल सूत्रकार या शास्त्रकार शब्दोंपरसे ही--जो दोनों एक ही अर्थ के वाचक है-उमास्वातिका नाम नहीं निकलता; क्योंकि दूसरे भी कितने ही प्राचार्य सूत्रकार अथवा शास्त्र. कार हो गए हैं, समन्तभद्र भी शास्त्रकार थे, और उनके देवागमादि ग्रन्थ सूत्रग्रन्थ कहलाते हैं / इसके सिवाय यह बात अभी विवादग्रस्त चल रही है कि उक्त 'मोक्षमार्गस्य नेता" नामका स्तुतिपद्य उमास्वातिके तत्त्वार्थमूत्रका मंगलापरण है / कितने ही विद्वान् इसे उमास्वातिके तत्त्वार्थमूत्रका मंगलाचरण मानते है, और बालचन्द्र, योगदेव तथा श्रुतसागर नामके पिछले टीकाकारोंने भी अपनी अपनी टीकामें ऐमा ही प्रतिपादन किया है ! परन्तु दूसरे कितने ही विद्वान ऐसा नहीं मानते, वे इसे तत्त्वार्थमूत्रकी प्राचीन टीका 'सर्वार्थ सिद्धि' का मंगलाचरण स्वीकार करते है और यह प्रतिपादन करते हैं कि यदि यह पद्य तत्त्वार्थमूत्रका मंगलाचरण होता तो मर्वार्थसिद्धि-टीकाके कर्ता श्रीपूज्यपादाचार्य इसकी जरूर व्याख्या करते, लेकिन उन्होंने इसकी कोई व्याख्या न करके इसे अपनी टीकाके मंगलाचरणके तौर पर दिया है और इस लिये यह पूज्यपादकृत ही मालूम होता है / सर्वार्थसिद्धि की भूमिकामें. पं. कलाप्पा भरमाप्पा निटवे भी, श्रतसागरके कथनका विरोध करते हुए अपना ऐसा ही मत प्रकट करते है. और माय ही, एक हेतु यह भी देते हैं कि नवार्थमूत्रकी रचना द्वैपायक के प्रश्नपर हुई * "देवागमनमूत्रस्य श्रुत्या सद्दर्शनान्वित:'---विक्रान्तकौरव / * श्रुतसागरी टीकाकी एक प्रतिमें 'द्वैयाक' नाम दिया है, और बालम मुनिकी टीकामें 'मिद्धय्य' ऐमा नाम पाया जाता है / देखो, जनवरी सन् 1921 का जनहितषी, पृ० 80, 81 / Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गन्धहस्ति महाभाष्यकी खोज 296 है और प्रश्नका उत्तर देते हुए बीचमें मंगलाचरणका करना अप्रस्तुत जान पड़ता है; दूसरे वस्तुनिर्देशको भी मंगल माना गया है जिसका उत्तरद्वारा स्वतःविधान हो जाता है और इसलिये ऐसी परिस्थितिमें पृथक् रूपसे मंगलाचरणका किया जाना कुछ संगत मालूम नहीं होता / भूमिकाके वे वाक्य इस प्रकार है “सर्वार्थसिद्धिग्रंथारंभे 'मोक्षमार्गस्य नेतारमिति' श्लोको वतते स तु सूत्रकृता भगवदुमास्यातिनव विरचित इति श्रुतसागराचार्यस्याभिमतमिति तत्प्रणीतश्रुतमागर्याख्यवृत्तितः म्पटमवगम्यते / तथापि श्रीमत्पूज्यपादाचार्येणाव्याख्यातत्वादिदं श्लोकनिर्माणं न सूत्रकृतः किंतु सर्वार्थमिद्धिकृत एवेति निर्विवादम / नथा एतेषा सूत्राणं द्वैपायक-प्रश्नोपयुत्तरत्वेन विरचनं तैरेवाङ्गीक्रियते तथा च उत्तरे वक्तव्ये मध्ये मगलस्याप्रस्तुतत्वाद्वस्तुनिर्देशम्यापि मंगलवेनाङ्गीकृतत्वाबोपरितन: सिद्धान्त एव दाव्य मापनीतीत्यूह्य सुधीभिः / / " पं०वंशीधरजी, अष्टमहनीके स्वमपादित संस्करण में, ग्रथकर्तामोंका परिचय देते हुए, लिम्बने हैं कि ममन्तभद्रने गधहस्तिमहाभाष्यको रचनाकरते हुए उसकी पादिमें इस पद्यके द्वाग प्राप्नका म्नवन किया है और फिर उसकी परीक्षाके लिये 'प्राप्तमीमामां' ग्रंथकी रचना की है। यथा "भगवता मनन्तभद्रगा गन्धहम्निमहाभाप्यनामानं तत्त्वार्थापरि टीकाग्रन्थं चतुरशीतिमहमानुष्टुभमानं विरचयन / तदादी मोक्षमागस्य नेनारम' इत्यादिनेकन पानामः स्तुतः / तत्परीक्षगाथं च ततांग्रे पंचदशाधिकशनपाराप्तमीमांसाग्रन्धाभ्यधायि।" / कुछ विद्वानोका कहना है कि 'गजवानिक' टोकामें प्रकलंकदेवने इस पद्यको नही दिया- इसमे दिये हुए प्राप्त विशेषणोंकी चर्चा तक भी नहीं की--पोर न विद्यानंदने ही अपनी 'लोकवानिक टीकामें इसे उद्धृत किया है, ये ही सर्वार्थ सिद्धि के बाद की दो प्राचीन टीवाएँ उपलब्ध है जिनमे यह पद्य नहीं पाया जाता. और इससे यह मालूम होता है कि इन प्राचीन टीकाकारोंने इस पद्यको मूलग्रन्थ ( तत्वार्थसूत्र ) का प्रग नहीं माना / अन्यथा, ऐसे महत्वशाली पद्यको छोड़कर खण्डरूपमें अन्यके उपस्थित करनेकी कोई वजह नहीं थी जिस पर 'प्रासमीमामा' जैसे महान ग्रन्थोंकी रचना हुई हो। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश ___सनातनजैनग्रन्थमालाके प्रथम गुच्छक में प्रकाशित तत्वार्थसूत्र में भी, जो कि एक प्राचीन गुटके परसे प्रकाशित हुआ है, मंगलाचरण नहीं है, और भी बम्बई-बनारस मादिसे प्रकाशित हुए मूल तत्त्वार्थसूत्रके कितने ही संस्करणोंमें वह नहीं पाया जाता, अधिकांश हस्तलिखित प्रतियोंमें भी वह नहीं देखा जाता पौर कुछ हस्तलिखित प्रतियोंमें वह पद्य 'काल्यं द्रव्यषटकं.' 'उज्जोवरणमुज्जवरणं' इन दोनों अथवा इनमेंसे किसी एक पथके साथ उपलब्ध होता है मोर इससे यह मालूम नहीं होता कि वह मून ग्रन्थकारका पछ है बल्कि दूसरे पचोंकी तरह ग्रन्थके शुरूमें मंगलाचरणके तौरपर संग्रह किया हमा जान पड़ता है साथ ही श्वेताम्बर सम्प्रदायमें जो मूल तत्त्वार्थसूत्र प्रचलित है उसमें भी यह अथवा दूसरा कोई मंगलाचरण नहीं पाया जाता। ऐसी हालतमें लघुममन्तभद्रके उक्त कथनका प्रष्टसहस्री ग्रन्थ भी कोई स्पष्ट आधार प्रतीत नहीं होना / पौर दि यह मान भी लिया जाय कि विद्यानन्दने सूत्रकार या शास्त्रकारमे 'उमारवानि' का और तन्वार्थशास्त्रसे उनके 'तत्वार्थाधिगम मोक्षशास्त्र' का उल्लेख किया है और इस लिये उक्त पद्यको नन्वार्थाधिगमसूत्रका मंगलाचरण माना है तो इसमे प्रष्टसहस्री पोर प्राप्तपरीक्षाके उक्त कथनोंका सिर्फ इतना ही नतीजा निकलता है कि ममन्नभद्रने उमास्वातिके उक्त पद्यको लेकर उमपर उमी तरहम 'प्राममीमांसा' ग्रन्थकी रचना की है जिम तरहसे कि विद्यानंदने उसपर 'पासपरीक्षा' लिखी हैअथवा यो कहिये कि जिस प्रकार 'प्राप्तपरीक्षा' की मष्टि लोकवार्तिक-भाष्यको लिखते हुए नही की गई और न वह इलोकवातिकका कोई अंग है उमी प्रकारकी स्थिनि गन्धहस्ति महाभाष्यके समान्धमें 'प्राप्तमीमांसा' की भी हो सकती है, उसमें प्रप्टमहस्री या प्राप्तपरीक्षाके उक्त वचनोंमे कोई बाधा नहीं पाती; और न उनमे यह लाजिमी माता है कि ममूचे तत्वार्थमृत्रपर महा * ' ममन्तभद्र-मारती-स्तोत्र' के निम्न वाक्यसे भी कोई बाधा नही माती, जिसमें सांकेतिक रूपमे समन्तभद्रको भारती ( प्राप्तमीमांसा ) को 'गृपिच्छाचार्यके कहे हुए प्रकृष्ट मंगलके प्राशयको लिये हुए' बतलाया है "गृपिच्छ-भाषित-प्रकृष्ट-मंगलाधिकाम् / " Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 261 Anmummmmmm matalaliNA M IndianRMARAamadise गंधस्ति महाभाज्यकी खोज भाष्यकी रचना करते हुए 'प्राप्तमीमांसा' की सृष्टि की गई है और इसलिये वह उसीका एक अंग है / हाँ, यदि किसी तरह पर यह माना जा सके कि 'प्राप्तपरीक्षा के उक्त १२३वें पद्यमें 'शास्त्रकार से समन्तभद्रका अभिप्राय है और इस लिये मंगलाचरणका वह स्तुति पर (स्तोत्र ) उन्ही का रचा हुमा है तो तत्वार्यशास्त्र' का अर्थ उमास्वातिका तत्त्वार्थसूत्र करते हुए भी उक्त पद्यके 'प्रोत्थान ' शब्द परसे महाभाष्यका प्राशय निकाला जा सकता है; क्योंकि तत्त्वार्थमूत्रका प्रोत्थान-उसे ऊंचा उठाना या बढ़ाना-महाभाष्य जैसे ग्रन्थोके द्वारा ही होता है / और 'प्रोत्थान' का प्राशय पदि ग्रन्थकी उस 'उत्थानिका ' में लिया जाय जो कभी कभी गन्धकी रचनाका सम्बन्धादिक बतलाने के लिये शुरूमे लिखी जाती है, तो उससे भी उक्त प्राशयम कोई बाधा नही पाती; बल्कि 'भाष्यकार' को 'शास्त्रकार' कहा गया है यह मो : स्पष्ट हो जाना है; क्योकि मूल तत्त्वार्थमूत्रमे वमी कोई उत्थानिका नहीं है. वह या तो मंगलाचरणके बाद 'मर्वार्थसिद्धि' में पाई जाती और या महाभाष्यमे होगी। मार्थसिद्धि टीकाके कर्ता भी कचित् उस 'शास्त्रकार शब्दके वाच्य हो मकते है / रही भाष्यकारको शास्त्रकार कहने की बात, मा इममे कोई विरोध मालूम नहीं होता-तत्त्वार्थशास्त्रका अर्थ होनेसे जब उसके वातिक भाप्य या व्याख्यानको भी गाम्त्र' कहा जाता है तब उन वानिक-भाष्यादिके रचयिता स्वयं शास्त्रकार' सिद्ध होते हैं, उसमे कोई आपत्ति नहीं की जा सकती। और यदि उमास्वातिके तत्वार्थमूत्रद्वारा तत्वार्थशास्त्ररूपी समुद्रका प्रात्यान होनेमे 'प्रोत्थान' शब्दका वाच्य वहां उक्त तत्वार्थ मूत्र ही माना जाय तो फिर उस पहले 'तत्त्वाथशास्त्राद्भतमलिलनिधि' का वह वाच्य नहीं रहेगा, उमका वाच्य कोई अन्यविशेष न होकर सामान्य रूपमे नत्वार्थमहादधि, द्वादशांगश्रुत या कोई अंग-पूर्व ठहरेगा, और तब अष्टसहस्री तथा प्राप्नपरीक्षाके कथनोंका वही नतीजा निकलेगा जो ऊपर निकाला गया है-गंध हाम्न महाभाष्यकी a sokmakadaudakAAAAAAAAAAAA.Anirudds * जैसा कि श्लोकवातिक' में विद्यानंदाचार्यके निम्न वाक्योस भी प्रकट है'प्रसिदं च तस्वार्थस्य शास्त्रस्वे तदार्तिकस्य शास्त्रत्व सिद्धमेव तदर्थत्वात् / .........तदनेन तव्याख्यानस्य शास्त्रत्वं निवेदितम् / / " Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश रचनाका लाजिमी नतीजा उनसे नहीं निकल सकेगा। इसके सिवाय, मातमीमांसाके साहित्य अथवा संदर्भपरसे जिस प्रकार उक्त पद्यके अनुसरणकी या उसे अपना विचाराश्रय बनानेकी कोई खास ध्वनि नहीं निकलती उसी प्रकार 'वसुनन्दि-वृत्ति' की प्रस्तावना या उत्थानिकासे भी यह मालूम नहीं होता कि प्राप्तमीमांसा उक्त मंगलपद्य ( मोक्षमार्गस्य नेतारमित्यादि ) को लेकर लिखी गई है, वह इस विषयमें प्रष्टसहस्रीकी प्रस्तावनासे कुछ भिन्न पाई जाती है और उससे यह स्पष्ट मालूम होता है कि समन्तभद्र स्वयं सर्वज्ञ भगवानकी स्तुति करने के लिये बैठे है-किसीकी स्तुतिका समर्थन या स्पष्टीकरण करनेके लिये नहीं ---उन्होंने अपने मानसप्रत्यक्ष द्वारा सर्वज्ञको साक्षात् करके उनसे यह निवेदन किया है कि ' हे भगवन्, माहात्म्यके प्राधिक्य-कथनको 'स्तवन' कहते है और आपका माहात्म्य प्रतीन्द्रिय होनेसे मेरे प्रत्यक्षका विषय नही है, इस लिये में किस तरहसे आपकी स्तुति करू ? उत्तरमें भगवान्की अोरमे यह कहे जानेपर कि, हे वत्स ! जिस प्रकार दूसरे विद्वान् देवोंके प्रागमन और प्राकागमें गमनादिक हेतुसे मेरे माहात्म्यको समझकर स्तुति करते है उस प्रकार तुम क्यों नहीं करते ?' समन्तभद्रने फिर कहा कि भगवन् ! इस हेतुप्रयोगमे आप मेरे प्रति महान् नहीं ठहरते-में देवोके प्रागमन और आकाशमें गमनादिकके कारण प्रापको पूज्य नहीं मानता-क्यांकि यह हेतु व्यभिचारी है, ' और यह कह कर उन्होंने प्रासमीमांसाके प्रथम पद्य-द्वाग उसके व्यभिचारको दिखलाया है; प्रागे भी इसी प्रकार के अनेक हतुप्रयोगों तथा विकलगोंको उठाकर आपने अपने ग्रन्थकी क्रमशः रचना की है अष्टमहस्रीको प्रस्तावनाके जो शब्द पीछे फुटनोटमें उद्धृत किये गये हैं उनमे यह पाया जाता है कि निःश्र यमगास्त्रकी प्रादिमे दिये हुए मंगलपमें प्राप्तका स्तवन निरतिशय गुणोंके द्वारा किया गया है; इसपर मानों प्राप्त भगवानने समन्तभद्रसे यहपूछा है कि मैं दवागमादि विभूतिके कारण महान है, इस लिये इस प्रकारके गुणातिशयको दिखलाते हुए निःश्रेयस शास्त्रके कर्ता मुनिने मेरी स्तति क्यों नहीं की ? उत्तरमें समन्तभद्रनं प्राप्तमीमांसाका प्रथम पद्य कहा है। और उसका 'न: ' पद खाम तौरमे ध्यान देने योग्य है। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गन्धहस्ति महाभाष्यकी खोज 263 है और उसके द्वारा सभी प्राप्तोंकी परीक्षा कर डाली है / वसुनन्दि-वृत्तिकी प्रस्तावनाके वे वाक्य इस प्रकार है ___ "...........स्वभक्तिसंभारप्रेक्षापूर्वकारित्वलक्षणप्रयोजनवद्गुणस्तवं कर्तु कामः श्रीमत्समन्तभद्राचार्यः सर्वज्ञ प्रत्यक्षीकृत्यैवमाचष्टे-हे भट्टारक संस्तवो नाम माहात्म्यस्याधिक्यकथनं / त्वदीयं च माहात्म्यमतीन्द्रियं मम प्रत्यक्षागोचरं / अतः कथं मया स्तूयसे / / अत प्राह भगवान ननु भो वत्स यथान्ये देवागमादिहतोर्मम माहात्म्यमवबुध्य स्तवं कुर्वन्ति तथा त्वं किमिति न कुरुपे / / अत आह-अस्माद्ध तोर्न महान भवान मां प्रति / व्यभिचारित्वादम्य हेतोः / इति व्यभिचारं दर्शयति-" इस तरहपर, लघुसमन्तभद्रके उक्त स्पष्ट कथनका प्राचीन साहित्यपरसे कोई ममर्थन होता हुआ मालूम नहीं होता / बहुत संभव है कि उन्होंने अष्टमहली पौर प्रासपरीक्षाके उक्त वचनोपरसे ही परम्पग-कथनके महाग्मे वह ननीजा निकाला हो, और यह भी संभव है कि किसी दूसरे ग्रन्थ के स्पष्टोल्लेखिके प्राधारपर. जो अभी तक उपलब्ध नहीं हुअा. वे गंधहस्ति-महाभाप्यके विषयमें वैमा उल्लेख करने अथवा नतीजा निकालने के लिये समथं हा हों। दोनों ही हालतोंमें प्राचीन माहित्यपरमे उक्त कथनके समर्थन और यथेष्ट निर्णयके लिये विशेष अनुसंधान की जरूरत बाकी रहती है. इसके लिये विद्वानोंको प्रयत्न करना चाहिए। ये ही सब उल्लेख है जो अभीतक इम अथके विषय मे हमें उपलब्ध हुए है। पौर प्रत्येक उल्लेखपरमे जो बात जितने अंगोंमें पाई जाती है उसपर यथाशक्ति ऊपर विचार किया जा चुका है / मेरी रायमें, इन मब उल्लेखोपग्मे इतना जरूर मालूम होता है कि 'गंधहम्ति-महाभाष्य नामका कोई ग्रंथ जरूर लिम्बा गया है, उसे 'सामन्तभद्र-महाभाष्य' भी कहते थे और खालिम 'गंभहस्नि' नामसे भी उसका उल्लेखित होना मभव है। परन्तु वह किस ग्रन्थपर लिम्वा गयाकर्मप्राभृत कि भाप्यने भिन्न है या भिन्न--यह सभी सुनिश्चतरूपसे नहीं * समन्तभद्रका 'कर्मप्राभत' सिद्धान्तपर लिखा हा भाष्य भी उपलब्ध नहीं है / यदि वह सामने होता तो गधहस्ति महाभाप्यके विशेष निर्णयमें उससे बहुत कुछ सहायता मिल सकती थी। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश कहा जा सकता। हाँ, उमास्वातिके 'तत्त्वार्थसूत्र'पर उसके लिखे जानेको अधिक संभावना जरूर है; परन्तु ऐसी हालतमें, वह अष्टशती और राजबातिकके कर्ता प्रकलंकदेवसे पहले ही नष्ट हो गया जान पड़ता है / पिछले लेखकोंके ग्रंथोंमें महाभाष्यके जो कुछ स्पष्ट या अस्पष्ट उल्लेख मिलते हैं वे स्वयं महाभाष्यको देखकर किये हुए उल्लेख मालूम नहीं होते-बल्कि परंपग-कथनोंके माधारपर या उन दूसरे प्राचीन ग्रंथोंके उल्लेखोंपरसे किये हुए जान पड़ते हैं, जो अभी तक उपलब्ध नहीं हुए ! उनमें एक भी ऐसा उल्लेख नहीं है जिसमें 'देवागम' जैसे प्रसिद्ध ग्रन्थके पद्योंको छोड़कर, महाभाष्यके नामके माथ उसके किसी वाक्यको उद्धृत किया हो। इसके सिवाय, 'देवागम' उक्त महाभाष्यका प्रादिम मंगलाचरण है यह बात इन उल्लेखोंसे नहीं पाई जाती / हाँ, वह उसका एक प्रकरण जरूर हो सकता है, परन्तु उसकी रचना 'गंधहस्ति' की रचनाके अवसरपर हुई या वह पहले ही रचा जा चुका था और बादको महाभाष्यमें शामिल किया गया इसका अभी तक कोई निर्णय नहीं हो सका। फिर भी इतना तो स्पष्ट है और इस कहने में कोई आपत्ति मालूम नही होती कि 'देवागम (प्राप्तमीमांसा ) एक बिल्कुल ही स्वन्नत्र ग्रन्थके रूपमें इतना अधिक प्रसिद्ध रहा है कि महाभाष्यको समंतभद्रकी कृति प्रकट करते हुए भी उसके साथमें कभी कभी देवागमका भी नाम एक पृथक् कृतिक रूपमें देना जरूरी समझा गया है और इस तरहपर 'देवागम' की प्रधानता और स्वन्तत्रताको उद्घोषित करनेके माथ साथ यह मूचित किया गया है कि देवागमके परिचयके लिये गंधहस्ति- महाभाष्यका नामोल्लेख पर्याप्त नहीं है-उमके नामपरसे ही देवागमका बोष नहीं होता। माथ ही, यह भी कहा जा सकता है कि यदि 'देवागम' गंधहस्ति-महाभाग्यका एक प्रकरण है तो 'युक्त्यनुशामन' ग्रंथ भी उसके अनन्तरका एक प्रकरण होना चाहिये; क्योंकि 'युक्त्यनुशासनटीकाके प्रथम प्रस्तावनावा टीकाका प्रथम प्रस्तावनावाक्य इस प्रकार है "श्रीमत्समन्तभद्रस्वामिभिरातमीमांसायामन्ययोगव्यवच्छदाव्यवस्थापितेन भगवता श्रीमताहंतान्त्यतीर्थकरपरमदेवेन मां परीक्ष्य किंचिकीर्षवो भवन्तः इति तेष्ठा इव प्राहु:-" Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गन्धहस्ती महाभाष्यकी खोज 265 क्यद्वारा श्रीविद्यानंद प्राचार्य ऐसा सूचित करते हैं कि प्राप्तमीमांसा-द्वारा प्राप्तकी परीक्षा हो जानेके अनन्तर यह ग्रंथ रचा गया है, और ग्रंथके प्रथमा पद्य में पाये हुए 'पद्य शब्द परसे भी यह ध्वनि निकलती है कि उससे पहले किसी दूसरे ग्रन्थ अथवा प्रकारणकी रचना हुई है। ऐमी हालतमें, उस ग्रन्थराजको 'गंधहस्ति' कहना कुछ भी अनुचित प्रनीत नहीं होता जिसके 'देवागम' और ' युक्त्यनुशासन' जैसे महामहिमासम्पन्न मौलिक ग्रन्थरत्न भी प्रकरण हों। नहीं मालूम तब, उस महाभाष्यमै ऐसे कितने ग्रन्थरत्नोंका समावेश होगा। उमका लुप्त हो जाना निःसन्देह जनसमाजका बड़ा ही दुर्भाग्य है / रही महाभाष्यके मंगलचरणको बात, इस विषयमें, यद्यपि अभी कोई निचित राय नहीं दी जा सकती, फिर भी मोक्षमार्गस्य नेतारं' नामक पद्यके मंगलाचरण होनकी सभावना जरूर पाई जाती है और साथ ही इस बातकी भी संभावना है कि वह समन्तभद्र-प्रणीत है। परन्तु यह भी हो सकता है कि उक्त पद्य उमास्यानिके तत्वार्थमूत्रका मंगलाचरण हो और ममन्तभद्रने उसे ही महाभाष्यका प्रादिम मगलाचरण स्वीकार किया हो, ऐसी हालतमे उन सब प्राक्षेपों के योग्य ममाधानकी जरूरत रहती है जो इस पद्यको तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण मानने पर किये जाते हैं और जिनका दिग्दर्शन ऊपर कराया जा चुका है। मेरी रायमें,इन सब बातोंको लेकर और सबका अच्छा निर्णय प्राप्त करने के लिये,महाभाष्यके सम्बंध में प्राचीन जैनमाहित्यको टटोलने की अभी और जरूरत जान पड़ती है, और वह जरूरत और भी बढ़ जाती है जब हम देखते है कि ऊपर जितने भी उल्लेख मिले है वे सब विक्रमकी प्राय: ११वों, १२वी, १३वीं, १४वीं,ौर १५वीं युक्त्यनुशासनका प्रथम पद्य इस प्रकार है"कीर्त्या महत्या भुवि वर्द्धमान त्वां वदमानं स्तुतिगोचरत्वं / निनीषवः स्मो वयमद्य वीर विशीर्णदोषाशयपाशबन्ध / " पच प्रस्मिन्काले परीक्षावसानसमये (- इति विद्यानंद:) अर्थात- इस समय-परीक्षाकी समाप्तिके प्रवमरपर-हम मापको-वीरवर्षमानको-अपनी स्तुतिका विषय बनाना चाहते है-मापकी स्तुति करना चाहते है। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश शताब्दियोंके उल्लेख है,उनसे पहले पाठसौ वर्षके भीतरका एक भी उल्लेख नहीं है और यह समय इतना तुच्छ नहीं हो सकता जिसकी कुछ पर्वाह न की जाय; बल्कि महाभाष्यके अस्तित्व, प्रचार और उल्लेखकी इस समयमें ही अधिक संभावना पाई जाती है और यही उनके लिये ज्यादा उपयुक्त जान पड़ता है। प्रतः पहले उल्लेखोंके साथ पिछले उल्लेखोंकी शृखला और संगति ठीक बिठलाने के लिये इस बातकी खास जरूरत है कि १०वीसे ३री शताब्दी पीछे तकके प्राचीन जनसाहित्यको खूब टटोला जाय-उस समयका कोई भी ग्रंथ प्रथवा शिलालेख देखनेसे बाकी न रक्खा जाय-, ऐसा होने पर इन पिछले उल्लेखोंको शृखला पौर संगति ठीक बैठ सकेगी और तब वे और भी ज्यादा वजनदार हो जाएंगे। साथ ही, इस हूँ ढ-खोजसे समन्तभद्रके दूसरे भी कुछ ऐसे ग्रन्थों तथा जीवनवृत्तान्तोंका पता चलनेकी प्राशा की जाती है जो उनके परिचयमें निबद्ध नहीं हो सके और जिनके मालूम होनेपर ममन्तभद्रके इतिहासका और भी ज्यादा उद्धार होना संभव है / प्राशा है कि अब पुरातत्त्वके प्रेमी और समन्तभद्रके इतिहासका उद्धार करने की इच्छा रखनेवाले विद्वान् जरूरइस हूँढ-खोजके लिये अच्छा यल करेंगे, और इस तरह शीघ्र ही कुछ विवादग्रस्त प्रश्नोंको हल करने में समर्थ हो सकेंगे। + खो, उन उल्लेखोंके वे फुटनोट भी जिनमें उनके कामोंका समय दिया Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 समन्तभद्रका समय और डाक्टर के० बी० पाठक डॉक्टर के० बी० पाठक बी० 10, पी० एच० डी० नं 'समन्तभद्रके समयपर एक लेख पूनाके 'ऐन्नल्म माफ दि भाण्डारकर प्रोरियण्टल रिसर्च इन्स्टिटयूट' नामक अंग्रेजी पत्रकी ११वी जिल्द (Vol XI. Pt. II P. 14)) में प्रकागित कराया है और उसके द्वारा यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि स्वामी ममन्तभद्र ईमाकी आठवी शताब्दीके पूर्वार्द्ध में हए है: जब कि जैन समाज में उनका ममय प्रामनौरपर दूसरी शताब्दी माना जाता है और पुगतत्त्वके कई विद्वानोंने उसका समर्थन किया है। यह लेख, कुछ अर्मा हुषा, मेरे मित्र पं0 नाथूरामजी प्रेमी बम्बईकी कृपासे मुझे देखनको मिला. देखनेपर बहुन कुछ सदोष तथा भ्रममूलक जान पड़ा और अन्नको जांचनेपर निश्चय हो गया कि पाठकजीने जो निर्णय दिया है वह ठीक तथा युक्तियुक्त नहीं है। अतः प्राज पाठकजीके उक्त लेख। उत्पन्न होनेवाले भ्रमको दूर करने और यथार्थ वस्तुस्थितिका बोध कराने के लिए ही यह लेख लिखा जाता है। पाठकजी का हेतुवाद "समन्तभद्रका समय निर्णय करना प्रासान है, यदि हम उनके 'युक्त यनुशासन' और उनकी 'मासमीमांसा' का सावधानी के साथ अध्ययन करें, इस Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश प्रस्तावनावाक्पके साथ पाठकजीने अपने लेखमें जिन हेतुप्रोंका प्रयोग किया है, उनका सार इस प्रकार है: (1) समन्तभद्र बौद्ध ग्रन्थकार धर्मकीतिके बाद हुए हैं; क्योंकि उन्होंने 'युक्त्यनुशासन' में निम्न वाक्य-द्वारा प्रत्यक्षके उस प्रसिद्ध लक्षगपर आपत्ति की है जिसे धर्मकोतिने 'न्यायबिन्दु' में दिया है प्रत्यक्षनिर्देशवदप्यसिद्धमकल्पकं ज्ञापयितु अशक्यम् / विना च सिद्धेन च लक्षणार्थो न तावकद्वेषिणि वीर ! मत्यम् // 3 // (2) चूंकि प्राप्तमीमासाक ८०वे पद्यमें समन्तभद्रने बतलाया है कि धर्मकीति अपना विरोध खुद करता है जब कि वह कहता है कि सहोपलम्भनियमादभेदी नीलतद्धियोः (प्रमाणविनिश्चय) इमलिये भी समन्नमद्र धर्मकीनिके बाद हुए है। (3) प्राप्तमीमांसाके पद्य नं० 106 में जैनग्रन्थकार (समन्तभद्र) ने बौद्ध ग्रन्थकार (धर्मकीति) के त्रिलक्षण हेतुपर प्रापत्ति की है। इसमे भी स्पष्ट है कि समन्तभद्र धर्मकीनिके बाद के विद्वान् है / (4) शन्दावनके सिद्धान्तको भर्तृहरिने इस प्रकारमे प्रतिपादित किया है न मोम्ति प्रत्यया लांक यः शब्दानुगमाइते / अनुविद्धमिव झानं सर्व शहेन भासते / / वारूपता चेदुक्रामेदवबांधम्य शाश्वती। न प्रकाशः प्रकाशेत सा हि प्रत्यवमशिनी।। भर्तृहरिके इसी सिद्धान्तकी श्वेताम्बर ग्रन्धकार हरिभद्रमूरिन अपनी 'अनेकान्त नयपनाका' के निम्न वाक्यमें तीव्र पालोचना की है और उसमें समन्तभद्रको 'बादिमुख्य' नाम देते हुए प्रमाणरूपमे उनका वचन उद्धत किया है___ "एतेन यदुक्तमाह च शब्दार्थविन , वारूपता चेदकामेन इत्यादि कारिकाद्वयं तदपि प्रत्युक्तम् / तुल्ययोगक्षेमत्वादिति प्राह च वादिमुख्य: बोधात्मा चेच्छब्दस्य न स्यादन्यत्र तच्छरुतिः / यद्बोद्धार परित्यज्य न बोधोऽन्यत्र गच्छति / / न च स्यात्प्रत्ययो लोके यः श्रोत्रा न प्रतीयते। शब्दाभेदेन सत्येवं सर्वः स्यात्परचित्तवत् // इत्यादि / Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका समय और डा० के.वी. पाठक 296 ___इस तरहपर यह स्पष्ट है कि समन्तभद्रके मतमें शब्दाद्वैतका सिद्धान्त सुनिश्चित रूपसे असत्य है / समन्तभद्रके शब्दों "न च स्यात्प्रत्ययो लोके यः श्रोत्रा न प्रतीयते" की तुलना भर्तृहरि के शब्दों "न सास्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमाहते" के साथ करनेपर मालूम होता है कि समन्तभद्रने भर्तृहरिके मतका खण्डन यथासंभव प्राय. उसीके शब्दोंको उद्धृत करके किया है, जो कि मध्यकालीन ग्रन्थकारोंकी विशेषताओंमसे एक खास विशेषता है, (लेखमें नमूने के तौर पर इस विशेषताके कुछ उदाहरण भी दिये गये है।) और इस लिये समन्तभद्र भर्तृहरिके बाद हुए हैं। (5) ममन्न भद्रके शिष्य लक्ष्मीधरने अपने 'एकान्त खण्डन' में लिखा है "नकांतलक्ष्मीविलासावासाः सिद्धसनार्याः असिद्धि प्रति (त्य)पादयन् / षडदर्शनरहस्यसंवेदनमंपादिननिम्सीमपाण्डित्यमण्डिताः पूज्यपादस्वामिनस्तु विराधंसाधयति म्म / सकलताकिंकचक्रचूडामणिमरीचिमेचकितचरणनखमयूस्खा भगवन्तः श्रीस्वामिममन्तभद्राचार्या असिद्धिविरोधावत्र वन / तदुतं / / अमिद्धं सिद्धसेनस्य विरुद्धं देवनन्दिनः / द्वयं समन्तभद्रस्य सर्वथैकान्तसाधमिति / / नित्यादोकान्तहेताबु धततिमहित: सिद्धसेनो ह्यसिद्धं / 5 ते श्रीदेवनन्दी विदितजिनमतः सन विरोधं व्यनक्ति।।" इन प्रवतरणोंमे, जो कि एकान्तम्खण्डनके प्रारम्भिक भागमे उद्धृत किये गये है, स्पष्ट है कि पूज्यपाद ममन्तभद्रम पहिले जीवित थे--अर्थात् समन्तभद्र पूज्यपादके बाद हुए हैं। और इसलिये पूज्यपादके जैनेन्द्र व्याकरणमे "चतुष्टयं समन्तभद्रस्य" यह समन्तभद्र के नामोल्लेखवाला जो सूत्र ( अ० 5 पा० 4 सू० 168) पाया जाता है, वह प्रक्षिप्त है। इसीमे जैन शाकटायनने, जिसने जैनेन्द्र व्याकरणके बहनसे सूत्रोंकी नकल की है, उसका अनुसरण भी नहीं किया है, किन्तु "वा" शब्दका प्रयोग करके ही सन्तोष धारण किया है-अपना काम निकाल लिया है। (6) उक्त एकान्तखण्डनमे लक्ष्मीधरने भट्टाचार्यका एक वाक्य निम्न प्रकारसे उदधृत किया है Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश वर्णात्मकाश्च ये शब्दाः नित्याः सर्वगतास्तथा / पृथक द्रव्यतया ते तु न गुणाः कस्यचिन्मताः॥ -इति भट्टाचार्याः(यवचनाच्च) ये भट्टाचार्य स्वयं कुमारिल है, जो प्राय: इस नामसे उल्लेखित पाये जाते है; जैसा कि निम्न दो प्रवतरणोंमे प्रकट है-- तदुक्तं भट्टाचार्यैर्मीमांसाश्लोकवातिके / यस्य नावयवः स्फोटो व्यज्यते वर्णबुद्धिभिः / सोपि पर्यनुयोगेन नैकेनापि विमुच्यते / / इनि / तदुक्तं भट्टाचार्यः प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोपि प्रवर्तते / जगच सृजतस्तस्य किं नाम न कृतं भवेत / / इति / -मर्वदर्शनमग्रह अत : खुद समन्तभद्रके शिष्यद्वारा कुमारिलका उल्लेख होनम समन्तभद्र कुमारिलसे अधिक पहलके विद्वान् नहीं ठहरते ...वे या तो कुमारिलके प्रायः समसामयिक हैं अथवा कुमारिलर थोड़े ही ममय पहले हुए है। (7) 'दिगम्बर जैनसाहित्यमे कुमारिलका स्थान'' नामक मरे लेखम यह सिद्ध किया जा चुका है कि समनभद्रकी प्राप्तमीमामा' और उसकी अकलंकदेवकृत 'अष्टशती' नामकी पहली टीका दोनों कुमारिलके द्वारा नीवालोचित हुई हैं-खण्डिन की गई है --ौर प्रकलंकदेवके दो अवर (Junior ) समकालीन विद्वानों विद्यानन्द-पात्रकेमरी तथा प्रभाचन्द्रके द्वारा मण्डित ( मरक्षित) की गई हैं। अकलंकदेव राष्ट्रकूट राजा साहमतुङ्ग-दन्तिदुर्गके राज्यकालमें हुए है, पौर प्रभाचन्द्र अमोघवर्ष प्रथमके गज्यतक जीवित रह है, क्योंकि उन्होंने गुणभद्रके प्रात्मानुशासनका उल्लेख किया है / अकलकदेव और उनके छिद्रान्वेपी कुमारिलके साहित्यिक व्यापारोंको ईसाकी पाठवीं शताब्दीके उत्तरार्धमें रक्खा जाना चाहिये / और चूकि समन्तभद्रने धर्मकीति तथा मर्तृहरिके मतोंका खण्डन किया है और उनके शिष्य लक्ष्मीपर कुमारिसका उल्लेख करते है, प्रतः Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका समय और डा० के.बी. पाठक 301 हम समन्तभद्रको ईसाकी पाठवीं शताब्दीके पूर्वार्धमें स्थापित करनेके लिये मजबूर है-हमें बलात् ऐसा निर्णय देनेके लिये बाध्य होना पड़ता है / हेतुओंकी जाँच समन्तभद्रका धर्मकीतिके बाद होना सिद्ध करनेके लिये जो पहले तीन हेतु दिये गये है उनमेंसे कोई भी समीचीन नहीं है / प्रथमहेतु रूपसे जो बात कही गई है वह युक्तधनुशासनके उस वाक्यपरसे उपलब्ध ही नहीं होती जो वहाँपर उद्धृत किया गया है क्योंकि उसमे न तो धर्मकीर्तिका नामोल्लेख है, न न्यायबिन्दुका और न धर्मकीतिका प्रत्यक्ष लक्षरण ही उद्धृत पाया जाता है, जिसका रूप है-"प्रत्यक्ष कल्पनापादमभ्रान्तम।" यदि यह कहाजाय कि उक्त वाक्यमें 'अकल्प' पदका जो प्रयोग है वह निविकल्पक' तथा 'कल्पनापोढ'का वाचक है और इसलिये धर्मकीतिके प्रत्यक्ष-लक्षगाको लक्ष्य करके ही लिखा गया है, तो इसके लिये सबसे पहले यह सिद्ध करना होगा कि प्रत्यक्षको अकल्पक अथवा कल्पनापोनु निर्दिष्ट करना एकमात्र धर्मकीनिकी ईजाद है--उममे पहले के किमी भी विद्वान्न प्रत्यक्षका ऐमा म्वरूप नहीं बनलाया है। परन्तु यह सिद्ध नहीं हैधर्मकीतिमे पहले दिग्नाग नामके एक बहुत बड़े बौद्ध तार्किक हो गये है, जिन्होंने न्यायशास्त्रपर 'प्रमाणसमुश्चय' प्रादि कितने ही ग्रन्थ लिखे है और जिनका समय ई० सन् 345 मे 415 तक बतलाया जाता है * / उन्होंने भी 'प्रत्यक्ष कल्पनापाढम' इत्यादि वाक्य / के द्वारा प्रत्यक्षका स्वरूप 'कल्पनापोढ' बतलाया है। ब्राह्मण नाकिक उद्योतकरने अपने न्यायवानिक ( 1--1--4 ) में 'प्रत्यक्ष कल्पनापोहम' इस वाक्यको उद्धत करते हुए दिग्नागके प्रत्यक्ष विषयक सिद्धान्तकी नीव पालोचना की है / और यह उद्योतकर भी धर्मकीर्तिमे पहने हुए है। क्योंकि धर्मकीतिने उनपर भापति की है, जिसका उल्लेख खुद देखो,गायकवाड़ प्रोरियण्टल सिरीज बड़ोदाम प्रकाशित 'सत्त्वसंग्रह' ग्रंथको भूमिकादिक / यह वाक्य दिग्नागके 'प्रमाणसमुख्य' में तथा 'न्यायप्रवेश में भी पाया जाता है और वाचस्पति मिश्रने न्यायवार्तिककी टीकामें इसे साफ़ तौर पर दिग्नागके नामसे उल्लेखित किया है। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशव प्रकाश पाठक महाशयने अपने 'भर्तृहरि पौर कुमारिल' नामके लेखमें किया है। इसके सिवाय तत्त्वार्थराजवातिकमें अकलंकदेवने जो निम्न लोक 'तथा चोक्त' शब्दोंके साथ उद्धृत किया है उसे पाठकजीने, उक्त ऐनल्सकी उसी संख्यामें प्रकाशित अपने दूसरे लेख (पृ० 157 ) में दिग्नागका बतलाया है प्रत्यक्ष कल्पनापोडं नामजात्यादियोजना / अमाधारणहेतुत्वादःस्तव्यपदिश्यते / / ऐसी हालतमें यह स्पष्ट है कि प्रत्यक्षका 'कल्पनापोढ' स्वरूप एकमात्र होना माना जायगा तो दिग्नागको भी धर्मकीर्तिके बादका विद्वान कहना होगा जो पाठक महाशयको भी इष्ट नहीं हो सकता और न इतिहाससे किसी तरह सिद्ध ही किया जासकता है; क्योंकि धर्मकीतिन दिग्नागके 'प्रमाणममुश्चय' ग्रन्थपर वार्तिक लिखा है / वस्तुत: धर्मकीति दिग्नागके बाद न्यायशास्त्रमें विशेष उन्नति करनेवाला हुआ है, जिसका स्पष्टीकरगा ई-मिग नामक चीनी यात्री ( सन् 671-665 ) ने अपने यावाविवरगामें भी दिया है। उसने दिग्नागप्रतिपादित प्रत्यक्षके 'कल्पनापोन' लक्षणमें 'प्रभ्रान्त' पदकी वृद्धि कर उमका सुधार किया है / और यह 'अम्रान्त' शब्द अथवा इसी प्राशयका कोई दूमग शब्द समन्तभद्रके उक्त वाक्यमें नहीं पाया जाता, और इसलिये यह नही कहा जासकता कि ममन्तभद्रने धर्मकीतिके प्रत्यक्ष लक्षणको गामने रखकर उसपर आपत्ति की है / यह दूसरी बात है कि समन्तभदने प्रत्यक्षके जिस 'निर्विकल्पक' लक्षगापर आपति की है उसमे धर्मकीतिका लक्षण भी प्रापन्न एवं बाधित ठहरता है; क्योंकि उसने भी अपने लक्षणमें प्रत्यक्षके निर्विकल्पक स्वरूपको अपनाया है। और इमीमे टीकामें टीकाकार विमानन्द प्राचार्यने, जिन्हें गलतीसे लेख में 'पात्रके मरी' नाममे भी उल्लेखित किया गया है, "कल्प___+देखो, डा.सतीशचन्द्रकी 'हिस्टरी प्राफ़ दि मिडियावल स्कूल प्रॉफ़ इंडि. यन लॉजिक'पृ०१०५ तथा J. B. B. R. A. S.Vol.XVIII P. 229. देखो, उक्त हिस्टरी ( H. M. S. I. L.) पृ० 105 या हिस्टरी प्राफ़ इण्डियन लॉजिक प० 306 / Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका समय और डा० के.बी. पाठक 303 नापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षमिति लक्षणमस्यार्थः प्रत्यक्षप्रत्यायन" इस वाक्यके द्वारा उदाहरणके तौरपर अपने समयमें खाम प्रसिद्धिको प्राप्त धर्मकीतिके प्रत्यक्षलक्षणको लक्षणार्थ बतलाया है। अन्यथा, "प्रत्यक्ष कल्पनापोढम्' यह लक्षण भी लक्षणार्थ कहा जासकता है / इसी तरह धर्मकीतिके वाद होनेवाले जिन जिन विद्वानोंने प्रत्यक्षको निर्विकल्पक माना है उन सबका मत भी प्रापन्न तथा बाधित हो जाता है, और इससे ममन्तभद्र इतने परमे ही जिम प्रकार उन अनुकरणशील विद्वानोंके बादके विद्वान् नहीं कहे जासकते उसी प्रकार दे धर्मकीनिके बादके भी विद्वान् नहीं कहे जासकते / अत: यह हेतु प्रसिद्धादि दोषोंमे दूषित होने के कारण अपने साध्यकी सिद्धि करने में ममर्थ नहीं है। यहाँपर मैं इतना और भी बतला देना उचित समझता हैं कि प्रत्यक्षको निर्विकल्पक माननेके विषय में दिग्नागकी भी गणना अनुकरणशील विद्वानोंमें ही है; क्योंकि उनके पूर्ववर्ती प्राचार्य वमबन्धुने भी सम्यकज्ञानरूप प्रत्यक्षको 'निर्विकल्प' माना है, और यह बात उनके विज्ञप्तिमात्रतामिद्धि' तथा 'त्रिशिका विज्ञप्तिकारिका' जैसे प्रकरण-ग्रन्थों पर साफ ध्वनित है। इसके मिवाय वबन्धुमे भी पहलेके प्राचीन बौद्र माहित्य में इस बातके प्रमाण पाये जाते हैं कि बौद्ध सम्प्रदायमे उम मम्यक ज्ञानको निर्विकल्प' माना है जिसके 1 प्रत्यक्ष, 2 अनुमान ऐसे दो भेद किये गये है और जिन्हें धर्मकीनिने भी. न्यायबिन्दुमें, "द्विविधं सम्यग्ज्ञानं प्रत्यक्षमनुमान च" इस वाक्य के द्वारा अपनाया है; जैसा कि 'लंकावतारमूत्र' में दिये हुए 'मम्यक ज्ञान' के म्वरूपप्रतिपादक निम्न बुद्ध-वाक्यम प्रकट है 'मयान्यैश्च तथागतैरनुगम्य यथावहशिनं प्रज्ञप्तं विवृतमुत्तानीकृतं यत्रानुगम्य मभ्यगवबोधानुच्छेदाशाश्वततो विकल्पम्य प्रवृतिः म्वप्रत्यास्मार्यज्ञानानुकूलं तीथकरपक्षपर पक्षश्रावकप्रत्येकबुद्धागतिलक्षणं तत्सम्यरज्ञानम् / " पृ०२२८ * ये दोनों ग्रंथ संस्कृतवृत्तिसहित सिलवेन लेवीसके द्वारा संपादित होकर परिसमे मुद्रित हुए है। पहलेकी वृत्ति स्वोपन जान पड़ती है, और दूसरेकी वृत्ति प्राचार्य स्थिरमतिकी कृति है। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304 . जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश जब 'सम्यग्ज्ञान' ही बौद्धोंके यहाँ बहुत प्राचीनकालसे विकल्पकी प्रवृत्तिसे रहित माना गया है तब उसके अंगभूत प्रत्यक्षका निर्विकल्प माना जाना स्वतः सिद्ध है। बहुत सम्भव है कि पार्य नागार्जुनके किसी ग्रन्थमें सम्भवत: उनकी 'युक्तिषष्ठिकाकारिका' में-प्रत्यक्षका प्रकल्पक अथवा निर्विकल्पक रूपसे निर्देश किया गया हो और उसे लक्ष्यमें रखकर ही समन्तभद्रने अपने युक्त्यनुशासनमें उसका निरसन किया हो / प्रार्य नागार्जुनका समय ईसवी सन् 181 बतलाया जाता है और समन्तभद्र भी दूसरी शताब्दीके विद्वान् माने जाते हैं। दोनों ग्रन्थोंके नामोंमें भी बहुत कुछ साम्य है और दोनोंकी कारिकासंख्या भी प्राय: मिलती-जुलती है / युक्त्यनुशासनमें 64 कारिकार है-मुख्य तो 60 ही है-और इममे उमेभी युक्तिषष्ठिका प्रथवा 'युक्तधनुशासनपष्ठिका' कहमकते है। ये सब बातें उक्त सम्भावनाकी पुष्टि करती है / यदि वह ठीक हो-पौर उमको ठीक मानने के लिये भोर भी कुछ महायक मामग्री पाई जाती है, जिसका उल्लेख मागे किया जायगा तो ममन्तभद्र प्राय: नागर्जुनके समकालीन विद्वान् ठहरने है। धर्मकीनिके बादके विद्वान तो वे किमी नरह भी सिद्ध नहीं किये जामकते / / दूसरे हेतुरूपमे जो बात कही गई है वह भी अमिद है अर्थात् प्राप्तमीमामाकी उम 80 नम्बरकी कारिकामे उपलब्ध ही नहीं होनी, जो इस प्रकार है माध्यमाधन विज्ञप्तेयदि विज्ञप्तिमात्रना / न माध्यं न च हेतुश्च प्रतिवा-हेतु-दोषतः / / इसमें न नो धर्मकीतिका नामोल्लेम्ब है और न "सहापलम्भनियमादमंदी नीलतद्धियोः" वाक्यका / फिर समन्तभद्रकी प्रोग्मे यह कहना कम बन सकता है कि 'धमंकीति अपना विरोध खुद करता है जब कि यह महोपलम्भनियमात् इत्यादि वाक्य कहता है ?' मालूम होता है प्रमहनी-जैमी टीका 'सहोपलम्भनियमात् इत्यादि वाक्यको देखकर और उसे धर्मकीनिके प्रमागगविनिश्चय ग्रन्थमें भी पाकर पाठक महाशयने यह मब कल्पना कर डाली है ! ॐ नागार्जुनके इस ग्रन्थका उल्लेख डाक्टर सतीश चन्द्रने अपनी पूर्वाग्लेम्बित 'हिस्टरी प्राफ़ इण्डियन लॉजिक' में किया है; देखो, उसका 10 70 / है देखो, पूर्वोल्लेखित तस्वसंग्रह' ग्रन्थकी भूमिकादिक / Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र का समय और डा० के. बी. पाठक 305 परन्तु प्रष्टसहस्रीमें यह वाक्य उदाहरणके तौरपर दिये हुए कथनका एक अंग है, इसके पूर्व 'तथाहिं' शब्दका भी प्रयोग किया गया है जो उदाहरणका वाचक है और साथमें धर्मकीतिका कोई नाम नहीं दिया गया है; जैसाकि टीकाके निम्न प्रारम्भिक प्रंशसे प्रकट है___ "प्रतिज्ञादोपस्तावत्स्ववचनविरोधः साध्यसाधनविज्ञानम्य विज्ञप्तिमात्रमभिलपतः प्रसज्यते / तथाहि / सहोपलम्भनियमादभेदी नीलतद्धियादिचन्द्रदर्शनवदित्यत्रार्थसंविदा सहदशनमुपेत्येकत्वकान्त साधयन कथमवधेयाभिलाप: ?' पृ० 242 ऐमी हालतमें टीकाकार के द्वाग उदाहरणरूपमे प्रस्तुत किये हुए कथनको मूल ग्रन्थकारका बनला देना अति माहमका कार्य है ! मूलमें तो विज्ञप्तिमात्रताका सिद्धान्त माननेवालो ( बौद्धों) पर आपत्ति की गई है और इस मिद्धान्तके माननवाले ममन्तभद्रके पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती दोनों ही हए है। अतः इस प्रापनिमें जिस प्रकार पूर्ववर्ती विद्वानोंकी मान्यताका निरसन होता है वैसे ही उनग्वनी विद्वानोंकी मान्यताका भी निगमन होजाता है / इसीमे टीकाकारोंको उनमेमे जिम मतका निरमन करना इष्ट होना है वे उमीके वाक्यको लेकर मूलके आधार पर उमका खण्डन कर डालते है और इसीसे टीकानों में प्रायः 'एतेन एतदपि निरस्तं-भवति-प्रत्युक्त भवति', 'एतेन यदत्त भट्ट न... तन्निरम्नं ( अपमहम्री) जैसे वाक्यों का भी प्रयोग पाया जाता है / और इस लिये यदि टीकाकारने उत्तरवर्ती किमी विद्वान के वाक्यको लेकर उसका निरसन किया है तो इसमे वह विद्वान मूल कारका पूर्ववर्ती नहीं होजाता-टीकाकारका पूर्ववर्ती जरूर होता है / मूलकारको तब उसके बादका विद्वान् मानना भारी भूल होगा और ऐमी भूलोंसे ऐतिहामिक क्षेत्रमे भारी अनर्थोकी संभावना है क्योंकि प्रायः सभी सम्प्रदायोंके टीकाग्रंथ यथावश्यकता उत्तरवर्ती विद्वानोंके मतोंके खण्डनमे भरे हुए हैं। टीकाकारोंकी दृष्टि प्रायः ऐतिहासिक नहीं होती किन्तु मैद्धान्तिक होती है। यदि ऐतिहासिक हो तो वे मूलवाक्योंपरमे उन पूर्ववर्ती विद्वानोके मतोंका ही निरसन करके बतलाएँ जो मूलकार लक्ष्यमें थे। - इसके सिवाय, विज्ञप्तिमात्रताका सिद्धान्त धर्मकीतिक बहुत पहलेसे माना जाता था, वसुबन्धु जैसे प्राचीन प्राचार्योंने उसपर 'विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि' और Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 306 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश 'त्रिशिका विज्ञप्तिकारिका' जैसे प्रकरण-ग्रन्थों तककी रचना की है, जिनका उल्लेख पहले किया जाचुका है / यह बौद्धोंकी विज्ञानाद्वैतवादिनी योगाचारशाखाका मत है और प्राचार्य वसुबन्धुके भी बहुत पहलेसे प्रचलित था / इसीसे उन्होंने लिखा है कि 'यह विज्ञप्तिमात्रताकी सिद्धि मैंने अपनी शक्तिके अनुसार की है, पूर्ण रूपसे यह मुझ-जैसोंके द्वारा चिन्तनीय नहीं है, बुद्धगोचर है "विज्ञप्तिमात्रतासिद्धिः स्वशक्तिसदृशी मया / कृतेयं सर्वथा सा तु न चिन्त्या बुद्धगोचरः / / " 'लकावतारसुत्र' नामके प्राचीन बौद्ध ग्रन्थमें, जो वमुबन्धुसे भी बहुत पहले निर्मित हो चुका है और जिसका उल्लेख नागार्जुनके प्रधान शिष्य प्रार्यदेव तक ने किया है * , महामति-द्वारा बुद्ध भगवान्मे जो 108 प्रश्न किये गये है, उनमें भी विज्ञप्तिमात्रताका प्रश्न निम्न प्रकार से पाया जाता है-- "प्रज्ञप्तिमात्रं च कथं ब्रूहि मे वदतांवर / 2-37 / " और आगे ग्रन्थके तीसरे परिवर्तनमें विज्ञप्तिमात्रताके स्वरूप-सम्बन्ध में लिखा है "यदा त्वालम्व्यमर्थ नोपलभते ज्ञान तथा विज्ञप्रिमाजव्यवस्थान भवति विज्ञप्ते ह्याभावाद् प्राहकस्याप्यग्रहणं भवति / तद्ग्रहणानप्रवर्तते ज्ञानं विकल्पसंशब्दितं / " ___ इमसे बौद्ध का यह सिद्धान्न बहुन प्राचीन मालूम होता है / प्राश्चर्य नहीं जो "सहोपलम्भानियमादभेदी नीलतद्धिया:" यह वाक्य भी पुराना ही हो और उसे धर्मकीर्तिने अपनाया हो / अत: प्राप्तमीमांसाके उत्त. वाक्यपरमे ममन्तभद्रको धर्मकीतिक बादका विद्वान् करार देना नितान्त भ्रमात्मक है / यदि धर्मकीतिको ही विज्ञप्तिमात्रता सिद्धान्तका ईजाद करनेवाला माना जायगा तो वसुबन्धु प्रादि पुरातन प्राचार्योंको भी धर्मकीतिके बादका विद्वान् मानना होगा, जो पाठक महाशयको भी इष्ट नहीं होसकता और न इतिहाससे ही किसी तरहपर सिद्ध किया जासकता है / और इसलिये यह दूमरा हेतु भी प्रसिद्धादि दोषों * देखो, पूर्वोल्लेखित 'हिस्टरी प्रॉफ़ मिडियावल स्कूल प्राफ़ इण्डियन लॉजिक' पृ० 72, ( या हिस्टरी माफ़ इण्डियन लॉजिक पृ० 243, 261) Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका समय और डा० के. बी. पाठक 307 से दूषित होनेके कारण साध्यकी सिद्धि करने-समन्तभद्रको धर्मकीतिके बादका विद्वान् करार देने के लिये समर्थ नहीं है। तीसरे हेतुमें प्राप्तमीमांसाकी जिस कारिका नं० 106 का उल्लेख किया गया है वह इस प्रकार है सधर्मणैव साध्यस्य साधादविरोधतः / स्याद्वादप्रविभक्तार्थ-विशेष-व्यंजको नयः।। इसमें नयका स्वरूप बतलाते हुए स्पष्ट रूपसे बौद्धोंके रूप्य अथवा विलक्षण हेतुका कोई नामोल्लेख नहीं किया गया है, जो "पक्षधर्मत्वं सपक्षे सत्वं विपक्षे चासत्वं" इन तीन रूप है * और न उसपर सीधी कोई आपत्ति ही की गई है,बल्कि इतना ही कहागया है कि स्याद्वाद ( श्रतज्ञान )के द्वारा प्रविभक्त अर्थविशेषका जो साध्यके सधर्मारूपमे, साधर्म्यरूपमे और अविरोधरूपसे व्यंजक है-प्रतिपादक है-वह 'नय' है / इमीमे प्राप्तमीमामा ( देवागम ) को मुनकर पात्रकेसरी स्वामी जब जनधर्मके श्रद्धालु बने थे तब उन्हें अनुमानविषयक हेतुके स्वरूप में सन्देह रहगया था-~उक्त ग्रन्थपरमे यह स्पष्ट नहीं हो पाया था कि जैनधर्म मम्मत उमका क्या स्वरूप है और उसमे बौद्धका त्रिलक्षणहेतु कैमे असमीचीन ठहरता है / और वह मन्देह बादको “अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेगा किम / नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम" इम वाक्यकी उपलब्धिपर दूर होसका था, और इसके प्राधारपर ही वे बौद्धोंके विलक्षणहेतुका कदर्थन करने में समर्थ हुए थे। परन्तु अकलकदेव-जैसे टीकाकारोंने, जो पात्रकंसरीके बाद हुए हैं, अपने बुद्धि-वैभवमे यह बनियान करके बतलाया है कि उक्त कारिकामे 'सपक्षेगव ( सधर्मणैव ) साध्यस्य साधान' इन शब्दोंके द्वाग हेनुके लक्षण्ण रूपको और 'अविराधान' पदमे हेतुके अन्यथानुपपत्ति स्वरूपको दर्शाते हुए यह प्रतिपादित किया गया है कि केवल त्रिलक्षणके आहेतुपना है, तत्पुत्रत्वादिकी तरह है। यदि यह मान लिया जाय कि समन्तभद्रके ___ * देखो, 'न्यायप्रवेग' प्रादि प्राचीन बौद्ध ग्रन्थ / t'मपक्षेगव साध्यस्य माधादित्यनेन हेतोस्त्रलक्षण्यमविरोधात् इत्यन्यथानुपपत्तिं च दर्शयता केवलस्य विलक्षणस्यासाधनत्वमुक्त तत्पुत्रत्वादिवत् / ' -अष्टशती Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308 जैनसाहित्य और इतिहासपर विश प्रकाश सामने ऐसी ही परिस्थिति थी और इस वाक्यसे उनका वही लक्ष्य था जो प्रकलंकदेव-द्वारा प्रतिपादित हुमा है, तो भी इससे यह सिद्ध नहीं होता कि यह त्रिलक्षणहेतु धर्मकीर्तिका ही था, क्योंकि धर्मकीनिसे पहले भी बौद्ध-सम्प्रदायमें हेतुको त्रिलक्षणात्मक मानागया है। जैसा कि दिग्नागके 'प्रमाणसमुच्चय' तथा 'हेतुचक्रडमरु' मादि ग्रंथोंपरसे प्रकट है-प्रमाणसमुच्चयमें 'त्रिरूपहेतु' नामका एक अध्याय ही अलग है / नागार्जुनने अपने 'प्रमाणविहेतना ग्रन्थमें नैय्यायिकोंके पंचांगी अनुमानकी जगह त्र्यंगी अनुमान स्थापित किया है * और इससे ऐसा मालूम होता है कि जिस प्रकार नैय्यायिकोंने पंचांगी अनुमानके साथ हेतुको पंचलक्षण माना है उसी प्रकार नागार्जुनने भी श्यंगी अनुमानका विधान करके हेतुको त्रिलक्षणरूपसे प्रतिपादित किया है। इस तरह विलक्षण अथवा रूप्य हेतुका अनुसन्धान नागार्जुन तक पहुँच जाता है / इसके सिवाय, प्रशस्तपादने काश्यपके नामसे जो निम्न दो श्लोक उद्धृत किये है उनके प्राशयमे यह स्पष्ट जाना जाता है कि वैशेषिक दर्शनमे भी बहुत प्राचीन कालमे रूप्य हेतुकी मान्यता प्रचलित थी यदनुमेयेन मम्बद्धं प्रसिद्धं च तदन्विते / तदभावे च नास्त्येव तल्लिङ्गमनुमापकम् / / विपरीतमतो यत्स्यादेकेन द्वितयेन वा। विरुद्धासिद्धसंदिग्धमलिंगं काश्यपाऽनवीन / / यदि केवल इस त्रिलक्षरण-हेतुके उल्लेखके कारण,जो स्पष्ट भी नही है,ममन्तभद्रको धर्मकीतिके बादका विद्वान् माना जायगा तो दिग्नागको और दिग्नागके पूर्ववर्ती उन प्राचार्योंको भी धर्मकीतिके बादका विद्वान् मानना पड़ेगा जिन्होंने देखो, डा० सतीशचन्द्रकी उक्त हिस्टरी अाफ़ इण्डियन लाजिक 10 85-66 ___ * देखो, श्रीनमंदाशंकर मेहताशंकर बी० ए० कृत "हिन्द तत्त्वज्ञाननो इतिहास पृष्ठ 182 / देखो, गायकवाड़सिरीजमें प्रकाशित 'न्यायप्रवेश' की प्रस्तावना (Introduction) पृ० 23 प्रादि / Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका समव और डा० के. बी. पाठक 309 त्रिरूपहेतुको स्वीकार किया है, और यह मान्यता किसी तरह भी संगत नहीं ठहर सकेगी, किन्तु विरुद्ध पड़ेगी। अतः यह तीसरा हेतु भी प्रसिद्धादि दोषोंसे दूषित होनेके कारण साध्यकी सिद्धि करनेके लिये समर्थ नहीं है। इस तरहपर जब यह सिद्ध ही नहीं है कि समन्तभद्रने अपने दोनों ग्रन्थोंके उक्त वाक्योंमेंमे किसी में भी धर्मकीनिका, धर्मकीतिक किसी ग्रन्थ-विशेषका या वाक्य-विशेषका अथवा उसके किसी ऐसे अन्नवी सिद्धान्त-विशेषका उल्लेख तथा प्रतिवाद किया है जिसका प्राविष्कार एकमात्र उसी के द्वारा हुअा हो, तब स्पष्ट है कि ये हेतु खुद अमिद्ध होनेसे तीनों मिलकर भी साध्यकी सिद्धि करने में समर्थ नहीं हो सकते--अर्यात् इनके आधारपर किसी तरह भी यह साबित नहीं किया जासकता कि स्वामी समन्तभद्र धर्मकीनिके बाद हुए है। चौथा हेतु भी समीचीन नहीं है; क्योंकि इस हेतु-द्वाग जो यह बात कही गई है कि 'ममन्तभद्रने भर्तृहरिके मतका खण्डन यथासम्भव प्राय: उसीके शब्दों को उद्धृत करके किया है वह मुनिश्चित नहीं है। इस हेतुको निश्चयपथप्राप्ति के लिये अथवा इसे सिद्ध करार देने के लिए कमसे कम दो बातोको साबित करनेकी खाम जरूरत है, जो लेखपरने सावित नहीं हैं- एक तो यह है कि "बोधात्मा चेच्छदम्य" इत्यादि दोनों इलोक वस्तुनः समन्तभद्रकी कृति है, और दूसरी यह है कि भर्तृहरिमे पहले शब्दावन मिद्धान्तका प्रतिपादन करने वाला दूसरा कोई नहीं हुग्रा है--भर्तृहरि ही उमका माद्य विधायक है.---और यदि हया है तो उसके द्वारा 'न मोस्नि प्रन्ययो लोके" इत्यादि श्लोकमे मिलता जुलता या ऐमे प्रागयका कोई वाक्य नहीं कहा गया है अथवा एक ही विषयपर एक ही भाषामे दो विद्वानोंके लिखने बैठनेपर परस्पर कुछ भी शब्द-सादृश्य नहीं हो सकता है / लेख में यह नहीं बतलाया गया है कि उक्त दोनो नोक समन्तभद्रके कौनसे ग्रन्थके वाक्य हैं। समन्तभद्रके उपलब्य ग्रन्थोंमेमे किसी भी ते पाये नहीं जाते और न विद्यानन्द तथा प्रभाचन्द्र-जमे प्राचार्योंके ग्रन्थों में ही वे उल्लेखित मिलते हैं, जो समन्तभद्रके वाक्योंका बहुत कुछ अनुसरण करनेवाले हुए है। विद्यानन्दके श्लोकवात्तिकमें इस शन्दाढतके सिद्धान्तका खण्डन प्रकलंकदेवके Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश वाक्य इस प्रकार है ....."सर्वथैकान्तानां तदसंभवं भगवत्समन्तभद्राचार्यन्यायादावाद्यकान्तनिराकरणप्रवणादावेद्य वक्ष्यमानाच्च न्यायात्संक्षेपतः प्रवचनप्रामाण्यवादय मवधार्य तत्र निश्चितं नामात्मसात्कृत्य संप्रति श्रुतस्वरूपप्रतिपादकमकलंकग्रंथमनुवादपुरस्सरं विचारयति / " (पृ०२३६) इसपरसे ऐसा खयाल होता है कि यदि शब्दावतके खण्डनमें समन्तभद्रके उक्त दोनों श्लोक होते तो विद्यानन्द उन्हें यहां पर-इम प्रकरण में-उद्धृत किये बिना न रहने / और इमलिये इन श्लोकोंको समन्तभद्रके बतलाना संदेहसे खाली नहीं है। इन ग्लोकोंके साथ हरिभद्रमूरिके जिन पूर्ववर्ती वाक्योंको पाठकजीने उद्धृत किया है वे 'अनेकान्तजयपताका' की उस वृति के ही वाक्य जान पड़ते हैं जिसे स्वोपज्ञ कहा जाता है और उनमें "प्राह च वादिमुख्यः" इस वाक्यके द्वारा इन श्लोकोंको वादिमुख्यकी कृति बतलाया गया है-समन्तभद्रकी नही। वादिमुख्यको यहाँ समन्तभद्र नाम देना किसी टिप्पणीकारका कायं मालूम होता है, और शायद इमीमे उस टिप्पणीको पाठकजीने उद्धृत नही किया। हो सकता है कि जिम ग्रन्थके ये श्लोक हों उसे अथवा इन श्लोकोंको ही समन्तभद्रके समझनेमें टिप्पणीकारको, चाहे वे म्बुद हरिभद्र ही क्यों न हों-भ्रम हा हो। ऐमे भ्रमके बहुत कुछ उदाहरण पाये जाते हैकितने ही ग्रन्थ तथा वाक्य ऐमे देखनमें पाते हैं जो कृति तो है किसीकी और समझ लिए गये किसी दूसरे के / नमूनेके तौरपर 'तत्त्वानुशासन' को लीजिये, जो रामसेनाचार्यकी कृति है परन्तु मारिगकचन्द्रग्रन्थमालामें वह ग़लतीसे उनके गुरु नागसेनके नाममे मुद्रित हो गई है. पोर तबस हस्तलिखित प्रतियोंसे अपरिचित विद्वान् लोग भी देखादेखी नागसनके नाममे ही उसका उल्लेख करने लगे हैं। इसी तरह प्रमेयकमलमातंण्डके निम्न वाक्यको लीजिये, जो गलतीसे उक्त ग्रन्थमें अपनी टीकासहित मुद्रित हो गया है पोर उसपरसे कुछ विद्वानोंने यह समझ लिया है कि वह मूलकार माणिक्यनन्दीका वाक्य है, जिनके * देखो, जैन हितैषी भाग 14, पृ० 313 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र का समय और डा० के. बी. पाठक 311 'परीक्षामुख' शास्त्रका उक्त प्रमेयकमलमार्तण्ड भाष्य है और जिस भाष्यपर भी फिर अन्यद्वारा टीका लिखी गई है, और इसीलिये वे यह कहने लगे है कि माणिक्यनन्दीने विद्यानन्दका नामोल्लेख किया है सिद्धं सर्वजनप्रबोधजननं सद्योऽकलंकाश्रयं / विद्यानन्द समन्तभद्रगुणतो नित्यं मनोनन्दनम् / निर्दोषं परमागमार्थविषयं प्रोनं प्रमालक्षणम् / युक्त्या चेतसि चिन्तयन्तु सुधियः श्रीवर्धमानं जिनम् / / खुद पाठक महाशयने भी कहा है कि माणिक्यनन्दीने विद्यानन्दका नामोल्लेख किया है पोर वह इसी वाक्यको मारिणक्यनन्दीका वाक्य समझने की गलती पर प्राधार रम्वता हुमा जान पड़ना है। इसीसे डाक्टर सतीशचन्द्र विद्याभूषणको अपनी मध्यकालीन भारतीय न्यायशास्त्रकी हिस्टरीमें (पृ० 28 पर) यह लिखना पड़ा है कि 'मिस्टर पाठक कहते है कि माणिक्यनन्दीने विद्यानन्दका नामोन्नेम्व किया है, परन्तु खुद परीक्षामुख शास्त्रके मूल में ऐमा उल्लेख मेरे देखनेमे नही पाया / ' ऐमी हालत मे उक्त दोनों श्लोकोंकी स्थिति बहुत कुछ सन्देहजनक हैबिना किसी विशेष समर्थन तथा प्रमाणके उन्हें सुनिश्चित रूपसे समन्तभद्रका नही कहा जासकता और इसलिये उनके प्राधारपर जो अनुमान बाँधा गया है वह निदोप नहीं कहला सकता / यदि किसी तरह पर यह सिद्ध कर दिया जाय कि वे दोनों श्लोक ममन्तभद्रके ही हैं तो फिर दूसरी बातको सिद्ध करना होगा और उममें यह तो सिद्ध नहीं किया जा सकता कि भर्तृहरिसे पहले शब्दाद्वैत सिद्धान्तका माननेवाला दूसरा कोई हुआ ही नहीं ; क्योंकि पाणिनि प्रादि दूसरे विद्वान भी शब्दातके माननेवाले शब्द-ब्रह्मवादी हए है खुद भर्तृहरिने अपने 'वाक्यपदीय' ग्रन्थमें उनसे कितनोंही का नामोल्लेख तथा सूचन किगा है / और न तब यही सिद्ध किया जा सकता है कि उनमेंसे किसीके द्वारा "न सोम्नि प्रत्ययो लोके" जैसा कोई वाक्य न कहा गया हो। स्वतन्त्र रूपसे एक ही विषयपर लिखने बैठनेवाले विद्वानोंके साहित्यमें कितना ही शब्दसादृश्य स्वतः ही हो जाया करता है, फिर उस विषयके अपने पूर्ववर्ती विद्वानोंके कथनोंको पढ़कर तथा स्मरण कर लिखनेवालोंकी तो बात ही धी Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश है-उनकी रचनामोंमें शब्दसादृश्यका होना और भी अधिक स्वाभाविक है / जैसा कि पूज्यपाद, अकलंक और विद्यानन्दकी कृतियोंके क्रमिक अध्ययनसे जाना जाता है अथवा दिग्नाग और धर्मकीतिकी रचनामोंकी तुलनांसे पाया जाता है / दिग्नागने प्रत्यक्षका लक्षण 'कल्पनापोढं'और हेतुका लक्षण "ग्राह्यधर्मस्तदंशेन व्याप्तो हेतुः" किया तब धर्मकीर्तिने प्रत्यक्षका लक्षण 'कल्पनापोढमभ्रान्त' पौर हेतुका लक्षण “पक्षर्धमस्तदंशेन व्याप्तो हेतुः" किया है (r) / दोनोंमें कितना अधिक शब्दसादृश्य है, इसे बतलाने की ज़रूरत नहीं / इसी तरह भर्तृहरिका 'न सोस्ति प्रत्ययो लोके, नामका श्लोक भी अपने पूर्ववर्ती किसी विद्वान्के वाक्यका अनुसरण जान पड़ता है / बहुत सम्भव है कि वह निम्न वाक्यका ही अनुसरण हो, जो विद्यानंदके श्लोकवातिक और प्रभाचंद्रके प्रमेयकमलमार्तण्डमें समानरूपसे उद्धृत पाया जाता है और अपने उत्तरार्धमें थोड़ेसे शब्दभेदको लिये हुए है,और यह भी सम्भव है कि उसे ही लक्ष्यमें रखकर 'न चास्ति प्रत्ययो लोके' नामक उस श्लोककी रचना हुई हो जिमे हरिभद्रने उद्धृत किया है न सोस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमाहते / अनुविद्धमिवाभाति सर्व शब्दे प्रतिष्ठितम् / / प्रमेयकमलमार्तण्डमें यह श्लोक और साथमें दो श्लोक प्रौर भी, ऐसे तीन श्लोक 'तदुक्तं' शब्दके साथ एक ही जगह पर उद्धृत किये गये है, और इससे ऐसा जान पड़ता है कि वे किमी ऐमे ग्रन्थमे उद्धृत किये गये हैं जिसमें वे इसी क्रमको लिये हुए होंगे। भर्तृहरिके 'वाक्यपदीय' ग्रन्थमें वे इस क्रमको लिये हुए नहीं है, बल्कि 'अनादिनिधनं शब्दब्रह्मतत्त्वं यदक्षर' नामका तीसरा श्लोक जरासे पाठभेदके साथ वाक्यपदीयके प्रथम काण्डका पहला श्लोक है और शेष दो श्लोक ( पहला उपयुक्त शब्द भेदको लिये हुए) उसमें क्रमश: नम्बर 124, 125 पर पाये जाते है / इससे भी किसी दूसरे ऐसे प्राचीन ग्रंथकी सम्भावना दृढ होती है जिसका भर्तृहरिने अनुकरण किया हो / इसके हेतुके ये दोनों लक्षण पाठकजीने एनल्सके उरी नम्बरमें प्रकाशित अपने दूसरे लेखमें उद्धृत किये है। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका समय और डा० के. बी. पाठक 313 सिवाय भर्तृहरि खुद अपने वाक्यपदीय ग्रन्थको एक संग्रहग्रन्थ बतलाते हैं न्यायप्रस्थानमार्गास्तानभ्यस्य स्वं च दर्शनम् / प्रणीतो गुरुणाऽस्माकमयमागमसंग्रहः / / 2-460 उन्होंने पूर्व में एक बहुत बड़े संग्रहकी सूचना की है, जिसके अल्पज्ञानियों द्वारा लुतप्राय हो जानेपर पतञ्जलि ऋषिके द्वारा उसका पुन: कुछ उद्धार किया गया। इसीमे टीकाकार पुण्यराजने "एतेन संग्रहानुसारेण भगवता पतञ्जलिना संग्रहसंक्षेपमतमेव प्रायशो भाष्यमुपनिबद्धमित्युक्तं वेदितव्यम्' इस वाक्यके द्वारा पतञ्जलिके महाभाष्यको उस संग्रहका प्रायः 'संक्षेपभूत' बतलाया है / और भत हरिने इस ग्रन्थके प्रथम कांडमें यहां तक भी प्रतिपादित किया है कि पूर्व ऋषियोंके स्मृति-शास्त्रोंका प्राश्रय लेकर ही शिष्यों-द्वारा शब्दानुशासनकी रचना की जाती है तस्मादकृतकं शास्त्रं स्मृतिं वा सनिबन्धनम् / आश्रित्यारभ्यते शिष्ट: शब्दानामनुशासनम् // 43 // ऐमी हालतमें 'न च स्यात् प्रत्ययो लोके' इन शब्दोंका किसी दूसरे पूर्ववर्ती ग्रन्थ में पाया जाना कुछ भी अस्वाभाविक नही है। प्रस्तु। ___ यदि धर्मकीतिके पूर्ववर्ती किसी विद्वानने दिग्नाग-प्रनिपादित प्रत्यक्ष-लक्षण अथवा हेतु-लक्षणको बिना नामधामके उद्धृत करके उसका खण्डन किया हो और बादको दिग्नागके ग्रन्थोंकी अनुपलब्धिके कारण कोई शम्म धर्मकीर्तिके वाक्योंके माथ सादृश्य देखकर उसे धर्मकीर्तिपर आपत्ति करने वाला और इमलिये धर्मकीतिके बादका विद्वान समझ बैठे, तो उमका वह समझना जिस प्रकार मिथ्या तथा भ्रममूलक होगा उसी प्रकार भर्तृहरिके पूर्ववर्ती किसी विद्वान्को उसके महज़ किमी ऐसे पूर्ववर्ती वाक्यके उल्लेखके कारण जो भर्तृहरिके उक्त वाक्यके साथ कुछ मिलताजुलता हो, भर्तृहरिके बादका विद्वान् करार देना भी मिथ्या तथा भ्रममूलक होगा। प्रन: यह चौथा हेतु दोनों बातोंकी दृष्टिसे प्रसिद्ध है और इसलिये इसके माधारपर समन्तभद्रको भर्तृहरिके बादका विद्वान् करार नहीं दिया जासकता / पाँचवें हेतुमें एकान्तखण्डनके जिन प्रवतरणोंकी तरफ़ इशारा किया गया है उनपरसे यह कैसे स्पष्ट है कि पूज्यपाद समन्तभद्रसे पहले जीवित थे अर्थात Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश समन्तभद्र पूज्यपादके बाद हुए है-वह कुछ समझमें नहीं पाता! क्योंकि यह तो कहा नहीं जासकता कि सिद्धसेनने प्रसिद्ध हेत्वाभासका और पूज्यपाद (देवनन्दी) ने विरुद्धहेत्वाभासका पाविर्भाव किया है और समन्तभद्रने एकान्त-साधन को दूषित करने के लिये, चुकि इन दोनोंका प्रयोग किया है इसलिये वे इनके आविष्कर्ता सिद्धसेन और पूज्यपादके बाद हुए है। ऐसा कहना हेत्वाभासोंके इतिहासकी अनभिज्ञताको सूचित करेगा; क्योंकि ये हेत्वाभास न्यायशास्त्र में बहुत प्राचीनकालसे प्रचलित है। जब असिद्धादि हेत्वाभास पहलेसे प्रचलित थे तब एकान्त-साधनको दुषित करने के लिये किसीने उनमेंसे एकका, किसीने दूसरेका और किसीने एकसे अधिक हेत्वाभासोंका यदि प्रयोग किया है तो ये एक प्रकारकी घटनाएँ अथवा किसी किसी विषयमें किसी किसीकी प्रसिद्धि-कथाएं हुई, उनके मात्र उल्लेखक्रमको देखकर उसपरसे उनके अस्तित्व-क्रमका अनुमान करलेना निर्हेतुक है / उदाहरण के तौरपर नीचे लिखे श्लोकको लीजिये, जिसमें तीन विद्वानोकी एक एक विषयमें खास प्रसिद्धिका उल्लेख है प्रमाणमकलंकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् / धनंजयकवेः काव्यं रत्नत्रयमकण्टकम् / / यदि उल्लेखक्रममे इन विद्वानोंके अस्तित्वक्रमका अनुमान किया जाय तो अकलंकदेवको पूज्यपादसे पूर्वका विद्वान् मानना होगा। परन्तु ऐसा नहीं हैपूज्यपाद ईसाकी पांचवी शताब्दीके विद्वान् हैं और अकलंकदेवने उनकी सर्वार्थसिद्धिको साथमें लेकर 'राजवातिक' की रचना की है / अत: मात्र उल्लेखक्रमकी दृष्टिमे अस्तित्वक्रमका अनुमान करलेना ठीक नहीं है। यदि पाठकजीका ऐसा ही अनुमान हो तो सिद्धमेनका नाम पहले उल्लेखित होने के कारण उन्हें मिद्धसेनको पूज्यपादसे पहलेका विद्वान मानना होगा, और ऐसा मानना उनके पहले हेतुके विरुद्ध पड़ेगा: क्योंकि सिद्धसेनने अपने 'न्यायावतार' में प्रत्यक्षको 'अभ्रान्त' के अतिरिक्त ग्राहक' भी बतलाया है जो निर्णायक, व्यवसायात्मक अथवा सवि. कल्पकका वाचक है और उससे धर्मकीर्तिके प्रत्यक्ष-लक्षणपर प्रापत्ति होती है। इसीसे उसकी टीकामें कहा गया है- "तेन यत् ताथागतेः प्रत्यपादि 'प्रत्यक्ष कल्पनापाढमभ्रान्तमिति' तदपास्तं भवति / " और इसलिये अपने प्रथम हेतुके अनुसार उन्हें सिरसेनको धर्मकीतिके बादका विद्वान कहना होगा / सिद्ध Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संमन्तभद्रका समय और डा० के. बी. पाठक 315 सेनका धर्मकीतिके बाद होना और पूज्यपादके पहले होना ये दोनों कथन परस्पर में विरुद्ध है; क्योंकि पूज्यपादका अस्तित्वसमय धर्मकीर्तिसे कोई दो शताब्दी पहलेका है। अतः महज उक्त अवतरणोंपरसे न तो हेत्वाभासोंके आविष्कारकी दृष्टिसे और न उल्लेखक्रमकी दृष्टि से ही समन्तभद्रको पूज्यपादके बादका विद्वान कहा जासकता है / तब एक सूरत अनुमानकी और भी रह जाती है-यद्यपि पाठकजीके शब्दोंपरसे उसका भी स्पष्टीकरण नहीं होता * और वह यह है कि, चूंकि समन्तभद्रके शिष्यने उक्त अवतरणोंमें पूज्यपाद ( देवनन्दी ) का नामोल्लेख किया है इसलिये पूज्यपाद समन्तभद्रसे पहले हुए हैं -यद्यपि इसपरसे वे ममन्तभद्रके ममकालीन भी कहे जासकते है / परन्तु यह अनुमान तभी बन सकता है जबकि यह सिद्ध कर दिया जाय कि एकान्तखंडनके कर्ता लक्ष्मीधर समन्तभद्रके साक्षात् शिष्य थे। उक्त अवतरणोपरमे इस गुरुशिष्य-सम्बन्धका कोई पता नही चलता, और इसलिये मुझे 'एकान्तखंडन' की उम प्रतिको देखनेकी ज़रूरत पैदा हुई जिसका पाठकजीने अपने लेखमें उल्लेख किया है और जो कोल्हापुरके लक्ष्मीसेन-मठमें ताड़पत्रोपर पुरानी कन्नडलिपिमें मौजूद है / श्रीयुत ए० एन० उपाध्येजी एम०प० प्रोफेसर राजाराम कालिज कोल्हापुरके सौजन्य तथा अनुग्रहसे मुझे उक्त ग्रंथकी एक विश्वस्त प्रति ( Truc copy ) खुद प्रोफेसर साहबके द्वारा जॉच होकर प्राप्त हुई, और इसके लिये मैं प्रोफ़ेसर साहबका बहुत ही आभारी हूँ। ग्रन्थप्रतिको देखने से मालूम हुअा कि यह अथ अधूरा है--किसी कारणवश पूरा नहीं हो मका-और इमलिये इसमें ग्रंथकर्ताकी कोई प्रशस्ति नहीं है, न दुर्भाग्यमे ऐसी कोई सन्धियां ही हैं जिनमें प्रथकारने गुरुके नामोल्लेखपूर्वक अपना नाम दिया हो और न अन्यत्र ही कहीं ग्रन्थकारने प्रपनेको स्पष्टरूपसे समन्तभद्रका दीक्षित या समन्तभद्रशिष्य लिखा है / साथ ही, यह भी मालूम हुआ कि उक्त * पाठकजीके शब्द इस प्रकार है-From the passages cited above from the Ekantakhandana, it is clear that Pujyapada lived prior to Samantabhadra. Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश अवतरणोंमें पाठकजीने 'तदुक्तं' रूपसे जो दो श्लोक दिये है वहाँ एक पहला ही श्लोक है और उसके बाद निम्न वाक्य देकर ग्रंथविषयका प्रारम्भ किया गया है "तदीयचरणाराधनाराधितसंवेदनविशेष नित्यायेकान्तवादविवादप्रथमवचनखण्डनप्रचण्डरचनाडम्बरो लक्ष्मीधरो धीरः पुनरसिद्धादि षटकमाह दूसरा श्लोक वस्तुतः ग्रन्थके मंगलाचरणपद्य 'जिनदेवं जगद्बन्धु'इत्यादि के अनन्तरवर्ती पद्य नं० 2 का पूर्वार्ध है और जिसका उत्तरार्ध निम्न प्रकार है / इसलिये वह ग्रन्थकारका अपना पद्य है, उसे भिन्न स्थानपर 'तदुक्त' रूपये देना पाठक महागयकी किसी गलतीका परिणाम है 'नो द्वौ ब्र ते वरेण्यः पटुतरधिपणः श्रीसमन्तादिभद्रः नच्छिष्यो लक्ष्मणन्तु प्रथित नयपथी वक्त्यमिद्ध्यादिपटकं / / " इम उत्तरार्धके बाद और 'तदक्त' में रहने कुछ गद्य है, जिमका उ नरांश पाठकजीने उद्धृत किया है और पूर्वाश, जिममे अथके विपयका कुछ दिग्दर्शन होता है, इस प्रकार है___ "निन्याोकान्तसाधनानामंकुगदिकं सकत के कार्यत्वाद यकाय तन सकतवं यथा घट: / काय च इदं नम्मात्सक कमेवत्यादीनाम् / " इस तरहपर यह ग्रन्थकी स्थिति है और इमपरमे ग्रन्थकारका नाम 'लक्ष्मीधर' के माथ लक्ष्मण' भी उपलब्ध होता है, जो लक्ष्मीधरका पर्यायनाम भी हो सकता है। जान पडता है ग्रन्थके प्रारम्भमे उक्त प्रकारमें प्रयुक्त हुए 'तच्छिष्यः और "तदीयचरणाराधनाराधितसंवेदनविशेषः" इन दो विशेषगोंपरसे ही पाठकजीन लक्ष्मीधरके विषयमें समन्तभद्रका साक्षात् शिष्य होनेकी कल्पना कर डाली है ! परन्तु वास्तवमै इन विशेषगोंगरमे लक्ष्मीधरको समन्तभद्रका साक्षात शिप्य समझना भूल है; क्योंकि लक्ष्मीधरने एकान्तसाधनके विषय में भिन्नकालीन तीन प्राचार्यो-गिद्ध मेन, देवनन्दी ( पूज्यपाद ) भोर समन्तभद्रके मतोंका उल्लेख करके जो 'नच्छिष्यः' और 'तदीय चरणाराधनाराधितसंवेदनविशेषः' ऐसे अपने दो विशेषण दिये हैं उनके द्वारा उसने अपने को उक्त तीनों प्राचार्योका शिष्य ( उपदेश्य ) मूचित किया है, जिसका फलि. Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र का समय और डा० के. बी. पाठक 317 तार्थ है परम्परा-शिष्य ( उपदेश्य ) / और यह बात 'तदुक्तं' रूपसे दिये हुए श्लोकको 'इति' शब्दसे पृथक करके उसके बाद प्रयुक्त किये गये तदीयादि द्वितीय विशेषणपदसे और भी स्पष्टताके साथ झलकती है। 'तच्छिष्यः' का अर्थ 'तस्य समन्तभद्रस्य शिष्यः' नहीं किन्तु 'तेषां सिद्धसेनादीनां शिष्यः' ऐसा होना चाहिये / और उसपरसे किसीको यह भ्रम भी न होना चाहिये कि 'उनके चरणोंकी पाराधना-सेवासे प्राप्त हुआ है ज्ञानविशेष जिसको' पदके इस प्राशयसे तो वह माक्षात् शिष्य मालूम होता है; क्योंकि आराधना प्रत्यक्ष ही नहीं . किन्तु परोक्ष भी होती है, बल्कि अधिकतर परोक्ष ही होती है / और चरणाराधनाका अभिप्राय शरीरके अंगरूप पैरोंकी पूजा नहीं, किन्तु उनके पदोंकीवाक्योंकी-सेवा-उपासना है, जिससे ज्ञान-विशेषकी प्राप्ति होती है। ऐसे बहुतसे उदाहरण देखने में आते है जिनमे शताब्दियों पहलेके विद्वानोंको गुरुरूपसे अथवा प्रपनको उनका शिष्यरूपमें उल्लेखित किया गया है, और वे सब परम्परीण गुमशिप्य के उल्लेख है--साक्षात् के नही / नमूनके तौरपर 'नीतिसार' के निम्न प्रशस्ति वाक्यको लीजिये, जिममे ग्रन्थकार इन्द्रनन्दीन हजार वर्षसे भी अधिक पहले के प्राचार्य कुन्दकुन्दस्वामीका अपनेको शिष्य ( विनेय ) मूचित किया है-- "-स: श्रीमानिन्द्रनन्दी जगति विजयतां भूरिभाषानुभावी देवज्ञः कुन्दकुन्दप्रभुपदविनयः म्बागमाचारचंचुः // " इसी तरह एकान्तखंडनके उक्त विशंपग्गपद भी परम्परीण शिष्यताके उल्लेखको लिये हुए है-साक्षात् शिप्यताके नही / यदि लक्ष्मीधर समन्तभद्रका साक्षात् शिष्य होता तो वह 'तदुक्तं रूपसे उस श्लोकको न देता, जिसमें सिद्ध मेनादिकी तरह समन्तभद्रकी भी एकान्त साधनके विषयमें एक खास प्रसिद्धि का उल्लेख किया गया है और वह उल्लेखवाक्य किसी दूसरे विद्वान्का है, जिससे ग्रन्थकार समन्तभद्रसे बहुत पीछे काइतने पोछेका जब कि वह प्रसिद्धि एक लोकोक्तिका रूप बन गई थी-विद्वान् जान पड़ता है। यह प्रसिद्धि का श्लोक सिद्धि विनिश्चयटीका और न्यायविनिश्चयविवरणमें निम्न रूपमे पाया जाता है Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश प्रसिद्धः सिद्धसेनस्य विरुद्धो देवनन्दिनः / द्वेधा समन्तभद्रस्य हेतुरेकान्तसाधने / न्यायविनिश्चय-विवरणमें वादिराजने इसे 'तदुक्तं' पदके साथ दिया है पौर सिद्धि विनिश्चयटीकामें अनन्तवीयं प्राचार्यने, जो कि प्रकलंकदेवके अन्योंके प्रधान व्याख्याकार है और अपने बादके व्याख्याकारों प्रभाचन्द्र-बादिराणादिके द्वारा अतीव पूज्यभाव तया कृतज्ञताके व्यक्तीकरणपूर्वक म्मूत किये गये है,इम श्लोकको एक बार पांचवें प्रस्तावमें "यद्वक्ष्यत्यमिद्धः सिद्धसेनस्य" इत्यादि कपमे उद्धृत किया है, फिर छठे प्रस्तावमें इमे पुनः पूरा दिया है। और वहाँपर इसके पदोंकी श्याख्या भी की है। इसमे यह श्लोक प्रकलकदेवके सिद्धिविनिश्चय ग्रंपके 'हेतुलक्षणसिद्धि' नामक छठे प्रस्तावका है। पोर इनिये लक्ष्मीधर प्रकनकदेवके बादका विद्वान् मालूम होता है / वह यस्ततः टन विद्यानन्दकं भी बाद हमा है जिन्होंने अकलंकदेवकी 'अप्रशनी के प्रतिवादी कुमारिलके मनका अपने स्वार्थश्लोकवातिक प्रादि ग्रथों में तीन खण्डन किया है क्योकि उसने एकालखण्डन में "तथा चोक्त विद्यानन्दम्वामिभिः" इम बायरे साथ प्राप्तपीना' का निम्न वाक्य उद्धृत किया है, जो कि विद्यानन्दकी उनके नन्वार्थ-लोकवातिक और अष्टमहमी प्रादि कई ग्रंथोंके बादको कृति है- . सनि धर्मविशेषे हि तीर्थकृत्वसमाये / ब्याजिनेश्वरो मार्ग न मानाडेव केवलान / / ऐसी हालन में यह स्पष्ट है कि नामीधर ममन्नभद्मा माक्षान् शिष्य नहीं या-ममन्तभद्रके माक्षात शियों में शिवकोटि और शिवायन नामक दो भाषायौका ही नामोल्लेख मिलता है -वह विद्यानन्दका उक्त प्रकार उम्नेस करने के कारण वास्तत्रमें गमन्तभद्रमे कई शताब्दी पीछे का विद्वान मात्रम होता है और यह बात आगे चल कर और स्पष्ट हो जायेगी / यहाँपर सिर्फ इतना ही जान लेना चाहिये कि जब लक्ष्मीधर समन्तभद्रका माक्षात शिष्य नही था. तब उसके द्वारा पूज्यपादका नामोल्लेख होना इस गतके लिये कोई नियामक नही * देखो, विक्रान्तकौरव, जिनेन्दकल्याणाम्युदय, अथवा स्वामी ममनमः (इतिहास) पृ० 65 प्रादि / Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका समय और न० के. वी. पाठक 316 हो सकता कि पूज्यपाद समन्तभद्रसे पहले हुए है। यदि लक्ष्मीधरके द्वारा उल्लेखित होने मात्रसे ही उन्हें समन्तभद्रसे पहलेका विद्वान् माना जायगा नो विद्यानन्दको भी समन्तभद्रसे पहलेका विद्वान् मानना होगा, और यह स्पष्ट ही पाठकजीके, इतिहासके तया विद्यानन्दके उस उपलब्ध माहित्यके विरुद्ध पडेगा, जिममें जगह जगह पर ममन्तभद्रका और उनके बहुत पीछे होनेवाले प्रकमकदेवका नया दोनोंके वाक्योंका भी उल्लेख किया गया है। यहाँ में इतना मोर भी बताना देना चाहता है कि उपलब्ध जनमाहिन्यमें पूज्यपाद ममन्तभद्रमे बाटके विद्वान् मान गये है। पट्टावालियोंको छोड़कर श्रवणबेलगोल के शिलालेखोंमें भी एमा ही प्रतिपादित होना है। मिलानेख नं. 40 (4 ) में ममन्न महके परिचय-गायक बाद "न: मन्द लिम्वकर 'यो देवनन्दी प्रथमाभिधान:' इत्यादि पद्यों के द्वारा पूज्यपादका परिचय दिया है, और न. 18.5 के मिलानेमम ममन्नमद्रक बाद प्रज्यपादके परिनयका मा प्रथम पत्र दिया है उसी तन का प्रयोग किया है। इम नर पर यादो ममन्नभद्र बारका विद्वान गनित किया है। इसके मिवाय, बुद्ध पूज्यपादक द्रव्याकरणम ममन्तभद्रय! नामाल करने वाला एक मूव निम्न प्रकार में पाया जाता है "चतुष्यं ममन्नभद्रम्य।" 5-5-16% इम मूत्रको मोजूदगीमें यह नहीं कहा जामकता कि ममन्तभद्र पूज्यपादके बाद दुग है, और मी लिए पाठकोमा म मूषकी चिन्ना पंदा हुई, जिस. नं उन 3. निगयो मागमे पर भारी कठिनाई ( difficulty ) उपस्थित कर दी। इस कठिनाईम महाजमे ही पार पानेके लिए पाठकजीन इम मूत्रका तथा इसी प्रकारके मरे नामोरे बवाना मूत्रोको भी-अंपक करार देने की ओटा की वह व्यर्थ की कल्पना नया वीचातानीक (सबाय पौर कुछ प्रतीत नही होती। पापकी इम कल्पनाका एकमात्र प्राधार साकटायम व्याकरणमे, जिम मापने जने। व्याकरणक बहुतसे सूत्रोंको नकल (copy) करनेवाला बतलाया है, उक्त मूत्रका प्रपया उसी पारायके दूसरे समान मूत्रका न होना है। पर इसमे पापका ऐसा माशय तपा अनुमान जान पड़ता है कि Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश 'चूकि जैनशाकटायनने जैनेंद्र व्याकरणके बहुतसे सूत्रोंकी नक़ल ( कॉपी) की है इसलिये यह सूत्र यदि जैनद्र व्याकरणका होता तो शाकटायन इसकी भी नकल जरूर करता , परन्तु यह अनुमाग ठीक नहीं है। क्योंकि एक तो 'बहत' में 'सबका समावेश नहीं किया जासकता है। यदि ऐमा समावेश माना जायगा तो पूज्यपादके 'जनेंद्र में पाणिनीय व्याकरणके बहुनमे सूत्रोंका अनुसरण होनेम मौर साथ ही पाणिनि-द्वारा उल्लेविन शाकटायनादि विद्वानोंका नामोल्लेख न होनेसे पाणिनीय व्याकरणके उन नामोल्लेखवाले मूत्रोको भी प्रक्षित कहना होगा, जो इष्ट नहीं होसकता। दूसरे, जैन गाकटायननं मर्वथा 'जनेद्रका अनुमरण किया है, ऐमा न तो पाठकजी द्वारा उद्धत मूत्रोंपर और न दूसरे मूत्रोंपरसे ही प्रतीत होता है। प्रत्युत इसके. कितने ही अंगों में वह स्वतन्त्र रहा है और कितने ही अंगों में उसने दूसरों के सूत्रों, जिनमें पागनिके मत्र भी शामिल है, अनुमग्गा किया है / वुद पाठकजीने अपने प्रकृन लेन में शाकटायनके 'जरायाङसिन्दम्याचि (1.037) मूत्रक विषयमें लिखा है कि वह बिल्कुल पाणिनिके. "जराया जरमन्यतम्याम' ( 2.101) मत्रके प्राधार पर रचा गया है ( is tntircls xised on) / माथ ही, यह भी लिखा है कि जन शाकटयन एम गरम 'का नामोल्लम्ब होने में ही कुछ विद्वानोका यह विश्वास करनेमें गलती है कि 'इन्द्र' नामका भी वास्तव में काई वय्याारणी हुग्रा है + ! मी हालतम यदि उसने जनेद्रके कुछ सूत्रोंको नही लिया अथवा उनका या उनके नामवाले पनका काम 'वा' शब्दक प्रयोग से निकाल लिया और कुछ एंगे मूत्रामे स्वय पूर्वाचार्योंके नामोंका निर्देश किया जिनमें पूज्यपादन या शब्दका प्रयोग करक ही संतोष धारण कर लिया या तो इसमें कोई बाधा नहीं मानी पोर न जनेन्द्र तथा शाकटायनके वे वे (पूर्वाचार्याक नामोल्लेखवाल ) मूत्र प्रक्षिप्त ही ठहरते हैं। उन्हें प्रक्षित मिद करनेके लिये विशेष प्रमाग्गोंको उपस्थित करनेकी पाठकजीका यह मन भी कुछ ठीक मासूम नही होता; क्योंकि काव. तारसूत्र जैसे प्राचीन ग्रन्थमें भी इन्द्र को शब्दशास्त्रका प्रणेता लिखा "इन्द्रोऽपि महामते अनेकशास्त्रविदग्धबुधि: स्वशब्दशास्त्रप्रणेता" पृ० 174 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका समय और डा. के.वी. पाठक 321 जरूरत है, जो उपस्थित नहीं किये गये / प्रस्तु। जब एकान्तक्षणानके का लक्ष्मीधर समन्तभद्रके साक्षात् शिष्य ही सिद्ध नही होते पोर न उनके द्वारा उल्लेखित होने मात्र पूज्यपादाचार्य समन्तभद्रसे पहलेके विद्वान् ठहरते है तब यह पर इन सूत्रोंके विषयमें कोई विशेष विचार करनेकी जरूरत ही नहीं रहती; क्योंकि उक्तमूत्र ( 5.4.168 ) की प्रक्षितमा प्राधारपर ही समन्तभटको पूज्यपादके बादका विद्वान् नहीं बतलाया गया है बल्कि एकान्तखानके उत्त. प्रवस रगोंके भाधार पर वैमा प्रतिपादित करके जनेन्द्रक हम मूत्रविषयमे प्रक्षिसाकी कल्पना की गई है, और इस कल्पनाके कारण दूसरे नामोल्लेखवाले मूत्रोंको भी प्रक्षिस कहने के लिये बाध्य होना पड़ा है। परन्तु फिर भी जनेदके "कृवृषिमृजां यशोभदस्य" ( 2.1.16 ) हम नामोल्लेखवाने मूत्रको प्रक्षिप्त नही बतलाया गया। नहीं मालूम इममा पपा कारण है ! बठा हेतु भी ममीचीन मही है. योनि. जब लक्ष्मीपर समन्तभद्रका साक्षाय ही नही था पौर उमने कमाग्लिक मतका खंडन करनेवाले विधानवामी नकका अपने गन्ध में उपेल किया है, तब उसके द्वारा महानायक कुमानि उस्लेख होने में यह नतीजा नहीं निकाला जा सकमा कि ममम मालिक प्रार: मनमायिक प्रभवा माग्लिमे कुछ घोडही ममम पहने हो। पर पहा मातयात. क. प्रायः मानगो समयके माय माय ममयक निको विका / इसमेकी र दाने ~जने ममन्नभद्रका धमंकीलिपा महको पार करके उनके मनाका सरन बना और लामीपरको मागन माय ... ही प्रमिव मिद्ध की भी है. जिनकी मांगलिक काम प्रार: इट भी बन तथा मार नहीं रहना / या दियोर पाप मरीजोहक बतलाया गया है. पहले भी विधानको पात्रो नया विवानन्द-साथ कम उमलमित किया गया है-फोर अहे तथा प्रभारन्द्रका प्रकनकदेव के प्रवर (Junior ) समका. मीन विज्ञान टहराया गया है और मास ही प्रबलदेवो ईमाको प्रारी Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322 जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश शताब्दीके उत्तरार्धका विद्वान करार दिया गया है, वह सब भी प्रसिद्ध पौर बाषित है। पात्रकेसरी विद्यानन्दका कोई नामान्तर नहीं था, न वे तथा प्रभाचन्द्र प्रकलंकदेवके शिष्य थे मोर न उनके समकालीन विद्वान, बल्कि पात्रकेसरी तत्त्वार्थ-श्लोकवातिकादिके कर्ता विद्यानन्दसे भिन्न एक बुदे ही प्राचार्य हए है तथा प्रकलंकदेवके भी बहुत पहले होगये है और प्रकलंकदेव ईसाकी सातवीं शताब्दीके प्राय: पूर्वार्ध के विद्वान् है / इन सब बातोंके लिये 'स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्द नगमक निबन्धको देखना चाहिये जो इस निबन्धसंग्रहमें अन्यत्र प्रकाशित हो रहा है। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मर्वार्थसिद्धिपर समन्तभद्रका प्रभाव 'मयामिति' प्राचार्य उमाम्बानि ( गृध्रपिच्छाचार्य ) के तत्वार्थसूत्रको प्रमिद प्राचीन टीका है पौर देवनन्दी अपग्नाम पूज्यपाद माचार्यकी वाम कृति है, जिनका ममप पाम तौरपर ईमाकी पानी पोर विक्रमकी छठी शताब्दी माना जाता है / दिगम्बर ममाजको मान्यतानुमार पा० पुग्यपद स्वामी समन्तमाके बाद हम है, यह बान पट्टानियोंमे ही नहीं किन्तु पनेक गिलालेखोंमे भी जानी जानी है / श्रवणबेन्गोलक शिनाने ना न. 10 (4) में प्राचार्योंके वशादिकका उल्लेख करने हा ममनाक रिचय-पद्यके बाद 'तत:' (तत्पश्चात् ) शन लिखकर यो देवनन्दी प्रथमाभिधानः' इत्यादि पद्योंके द्वारा पूग्यपादका परिमय दिया है. पोरन - 1.8 (25) क मिनामेबमें गमन्तभद्रके मनन्तर पूज्यपादक परिणयका प्रथमपय दिया है उमी में 'वत:' मन्दका प्रयोग किया है, पोर इम नरहर पूज्यपादको समनट बादका विद्वान मूचित किया है। हमके मिवाय, स्वयं पूज्यपारने अपने जनेन्द्र' व्याकरणके निम्न सूत्र ममन्तभद्र के मतका उम्मेख किया है "चतुष्टयं समन्तभदस्य" --5-4-168 इस मूत्रकी मौजूदगी में यह नहीं कहा जा सकता कि समन्तभद्र पूज्यपादके * श्रीपादोदायमराग्यस्ततः मुराधीश्वरपूज्यपादः / पोष्पगुमानियानी बानि मास्वाणि तारनानि / / Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324 जनसाहित्य और इतिहासपर विराद प्रकाश बाद हुए है, और न अनेक कारणोंके वदा / इसे प्रक्षित ही बतलाया जासकता है। परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी पौर इन उल्लेखोरी मसत्यताका कोई कारण न बतलाते हुए भी, किसी गलत धारणाके वश, हालमें एक नई विचारधारा उपस्थित की गई है, जिसके जनक है प्रमुख वे० विद्वान् श्रीमान् पं० सुखलालजी संघवी काशी, और उसे गति प्रदान करनेवाले है न्यायाचार्य पं० महेन्टकुमारजी शास्त्री काशी। पं० सुखलालजीने जो बात प्रकलंकग्रन्थत्रयके 'प्राथन में कही उमे ही अपनाकर तथा पुष्ट बनाकर पं० महेन्द्रकुमारजीने न्यायकुमुदचंद्र द्वि० भागकी प्रस्तावना, प्रमेयकमलमातंण्डकी प्रस्तावना और जैनमितान्तभास्कर के 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' गोपंक लेख में प्रकाशित की है। उनाचे 50 मुखमानजी, न्यायकुमुदचन्द्र द्वितीय भागके 'प्रकथन' में, प. महेन्द्रकुमारजीमी कृतिएर सन्तोप व्यक्त करते हा मोर उम पपने मंक्षिप्त लेसका विवाद और गबग भाष्य' बतलाते हुए लिखते है-'प. महेन्द्रकुमार जीने मेरे मशित लेखका विशद और सबल भाष्य करके प्रस्तुत भागको प्रस्तावना (१०२५)में यह अभ्रान्तरूपसे स्थर किया है कि स्वामी समन्तभद्र याद उत्तरवर्ती है। इस तरह प० मुम्ब लालजीको 10 महेन्द्र कुमारजीका पोर. प. महेन्मारजीको पं० मुखलालजीवी रम विपक्षमे पारस्परिक समर्थन और भिनन्दन प्रात है-दोनों ही विद्वान् म विचारमायाको बहाने में नमन है ! ! इस नई विचार धागका लक्ष्य है ममन्तभद्रको पूज्यपादके बादका श्रिमान सिद्ध करना, और उसके प्रधान दो मागन है जो गंशाम निम्न प्रकार है (1) विद्यानन्दवी सामाधामोर प्रमहाके लोग यह 'मयंथा स्पष्ट है कि विद्यानादनं 'मधमार्गस्य नाम गादि मगनतोत्रकी ज्यपान देखो, 'समन्तभद्रका समय और डा० के०ी पाठक नामका (बंद) लेख जो (पहले) १६जून-जुलाई मन् 1934 ने 'जैन जगत मे प्रमागिन पा है. अथवा "Samantabhadra's date and Dr. pathakm ais of B.O.R. I. vol xv Pts. 1-11. P. 7.88 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वार्थसिद्धिपर समन्तभद्रका प्रभाव 325 कत सूचित किया है और समन्तभद्रको इसी सातस्तोत्रका 'मीमांसाकार' लिखा है, प्रतएव समनाम पूज्यपादके "उत्तरवर्ती ही" है। (2) यदि पूज्यपाद ममन्तभद्रके उसरवर्ती होते तो वे समन्तभद्रकी प्रसाधारण कृतियोंका पौर खामकर 'ससभंगी' का "जोकि ममन्तभद्रको जनपरम्परा को उस समयकी नई देन रही," अपने 'मर्यामिति' मादि किसी अन्य में उपयोग किये बिना न रहने / चकि पूज्यवादके अन्योंमें 'ममन्तभद्रकी अमाघारगा नियोका किमी संगम म्प भी नही पाया जाना, प्रनय समननद ज्यपादके "उनरही है। इन दोनों मानों में प्रथम माधनको कुछ बिगद नया पनविन करने हुए 5. मकुमारी जनमिवालमारकर ( भाग कि..) में प्राना सीख प्रकार काय कामे विद्यानन्दको घामार्गाके 'श्रीमनन्यायवारवादभुतमनिमरतापपोरयानारामाने इत्यादि पद्य * को कर यह वनमा HEET विद्यानन्द इसके द्वारा यह दिन का रहे है कि 'मोक्षमाग ने नगद जम मगनम्तोत्रका ममे सकेन है उसे नन्दाबमास्त्रको ना मन बनलाने समय या उसकी प्रधान भूमिका अपने समय दने रमाइमर लिग उन्हें प्रत्यायाले' पदकी येचिया बगाना डी को जात्रावनाचिनम्नति' तथा म्यादी मन परो भी उनी प्रास्थानारम्भ* Famar को प्रेस के लिये प्रवृत होना पडा था और कोयानकी माजलानजीक उम नोटके अनुरूप थी जिमे उन्होंने मु सीय भाग 'प्रायन { पृ०१५) में अपने बुद्धिपागरके भाग पा था। पान 'प्रोत्यानारम्भकाने पदके प्रथंकी सीसमान मी वा कुष्ठ चल सकती थी जब तक विद्यानन्दका कोई स्पष्ट * मनस्वार्थ शास्वादनुनमामिलनिरिक्ष स्नोद्भवस्य प्रोपामागमकाले मकसमनभिो पात्रकार: कसं यत् / तीपोपमान पितरूपण स्वामिमीमामितं नद विधाम: बसमस्या कथमपि कथितं सत्यवास्यामि // 123 // Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश उल्लेख इस विषयका न मिलता कि वे 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' इत्यादि मंगलस्तोत्र को किसका बतला रहे हैं। चुनाँचे न्यायाचार्य पं०दरबारीलालजी कोठिया और पं० रामप्रसादजी शास्त्री आदि कुछ विद्वानोंने जब पं० महेन्द्रकुमारजीकी भूलों तथा गलतियोंको पकड़ते हुए, अपने उत्तर-लेखोंके द्वारा विद्यानन्दके कुछ अभ्रान्त उल्लेखोंको सामने रक्खा और यह स्पष्ट करके बतला दिया कि विद्यानन्दने उक्त मंगलस्तोत्रको सूत्रकार उमास्वातिकृत लिखा है और उनके तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण बतलाया है, तब उस खींच-तानकी गति रुकी तथा बन्द पड़ी / और इसलिये उक्त मंगलस्तोत्रको पूज्यपादकृत मानकर नथा समन्तभद्रको उसीका मीमांसाकार बतला कर निश्चितरूपमें समन्तभद्रको पूज्यपादके बादका ( उत्तरवर्ती ) विद्वान् बतलानेरूप कल्पनाकी जो इमारत खड़ी की गई थी वह एक दम धराशायी हो गई है / और इसीसे पं० महेन्द्रकुमारजीको यह स्वीकार करने के लिये बाध्य होना पड़ा है कि प्रा० विद्यानन्दने उक्त मंगलश्लोकको सूत्रकार उमास्त्राति-कृत बतलायाहै, जैसा कि अनेकान्तकी पिछली किरण (वर्ष 5 कि० ८.६)में मोक्षमार्गस्य नेतारम्' शीर्षक उनके उत्तर-लेखसे प्रकट है / इस लेखमे उन्होंने अब विद्यानन्दके कथनपर सन्देह व्यक्त किया है और यह मूचित किया है कि विद्यानन्दने अपनी अष्टसहस्रीमें अकलंककी अष्टशतीके 'देवागमेत्यादिमंगलपुरस्सरस्तव' वाक्यका मीधा अर्थ न करके कुछ गलती खाई है और उमीका यह परिणाम है कि वे उक्त मंगलश्लोकको उमास्वातिकी कृति बतला रहे है, अन्यथा उन्हें इसके लिये कोई पूर्वाचार्यपरम्परा प्राप्त नहीं थी। उनके इस लेखका उत्तर न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजीने अपने द्वितीय लेखमे दिया है. जो अन्यत्र (अनेकान्त वर्ष५ कि०१०-११में) 'तत्त्वार्थमूत्रका मंगलाचरणा'इस शीर्षकके माथ, प्रकाशित हुआ है / जब पं०महेन्द्रकुमारजी विद्यानन्दके कथन पर सन्देह करने लगे हैं तब वे यह भी असन्दिग्ध रूपमें नहीं कह सकेंगे कि समन्तभद्रने उक्त मंगलस्तोत्रको लेकर ही 'प्राप्तमीमांसा' रची है, क्योंकि उसका पता भी विद्यानन्दके प्राप्तपरीक्षादि ग्रन्थोसे चलता है / चुनांचे वे अब इसपर भी सन्देह करने लगे हैं, जैसा कि उनके निम्न वाक्यसे प्रकट है "यह एक स्वतन्त्र प्रश्न है कि स्वामी समन्तभद्रने 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' श्लोकपर प्राप्तमीमांसा बनाई है या नही / " Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वार्थसिद्धिपर समन्तभद्रका प्रभाव 327 ऐसी स्थितिमें पं० सुखलालजीके द्वारा अपने प्राक्कथनोंमें प्रयुक्त निम्न वाक्यों का क्या मूल्य रहेगा, इसे विज्ञपाठक स्वयं समझ सकते हैं " 'पूज्यपादके द्वारा स्तुत प्राप्तके समर्थन में ही उन्होंने ( समन्तभद्रने) प्राप्तमीमांसा लिखी है' यह बात विद्यानन्द ने प्राप्तपरीक्षा तथा अष्टसहस्रीमें सर्वथा स्पष्ट रूपसे लिखी है।" -अकलंकग्रन्थत्रय, प्राक्कथन पृ० 8 "मैंने अकलंकग्रन्यत्रयके ही प्राक्कथनमें विद्यानन्दकी आप्तपरीक्षा एवं प्रष्टसहस्रीके स्पष्ट उल्लेखके आधारपर यह नि:शंक रूपप्से बतलाया है कि स्वामी समन्तभद्र पूज्यपादके श्रानम्तोत्रके मीमांसाकार है अतएवं उनके उत्तरवर्ती ही है।" __" ठीक उसी तरहमे समन्तभद्रन भी पूज्यपाद के 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' वाले मंगलपद्यको लेकर उसके ऊपर प्राप्तमीमांमा रची है।" "पूज्यपाद का 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' वाला मप्रसन्न पद्य उन्हें ( समन्तभद्रको ) मिला फिर तो उनकी प्रतिभा और जग उठी।" -न्यायकुमुद० द्वि० प्राक्कथन पृ०१७-१६ इन वाक्योंपरमे मुझे यह जानकर बड़ा ही पाश्चर्य होता है कि पं० सुखलालजी-जमे प्रौढ़ विद्वान् भी कच्चे प्राधारोंगर ऐसे सुनिश्चित वाक्योंका प्रयोग करते हुए देखे जाते है ! मम्भवत: इमकी तहमे कोई गलत धारणा ही काम करती हुई जान पड़ती है, अन्यथा जब विद्यानन्दने आसपरीक्षा और प्रष्टसहस्रीमें कही भी उक्त मंगलश्लोकके पूज्यपादकृत होनेकी बात लिखी नही तब उमे 'मधंथा स्पष्ट रूपमे लिखी" बनलाना कैसे संगत हो सकता है ?" नहीं हो सकता। अब रही दूसरे साधनकी बात, 10 महेन्द्रकुमारजी इस विषयमें पं० सुखलालजीके एक युक्ति-वाक्यको उद्धृतकरते और उसका अभिनन्दन करते हुए, अपने उसी जैनमिद्धान्तभास्कर वाले लेखके अन्तमें, लिखते हैं "श्रीमान् पंडित सुखलालजी साटका इस विषयमे यह तर्क "कि यदि समन्तभद्र पूर्ववर्ती होते, तो समन्तभद्रकी प्राप्तमीमांसा जैसी अनूठी कृतिका उल्लेख अपनी सर्वार्थसिद्धि प्रादि कृतियोंमें किए बिना न रहते" हृदयको लगता है।" Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश इसमें पं० सुखलालजीके जिस युक्ति-वाक्यका डबल इनवर्टेड कामाजके भीतर उल्लेख है उसे पं० महेन्द्रकुमारजीने अकलंकअन्नत्रय और न्यायकुमुदचन्द्र द्वि० भागके प्राक्कथनोंमें देखनेकी प्रेरणा की है, तदनुसार दोनों प्रावकथनोंको एकसे अधिक बार देखा गया, परन्तु खेद है कि उनमें कहीं भी उक्त वाक्य उपलब्ध नहीं हुआ ! न्यायकुमुदचन्द्रकी प्रस्तावनामें यह वाक्य कुछ दूसरे ही शब्दपरिवर्तनोंके माथ दिया हप्रा है* और वहां किसी 'प्राक्कथन' को देखनेकी प्रेरणा भी नहीं की गई / अन्छा होता यदि 'भास्कर' वाले लेखमें भी किमी प्राक्कथनको देखनेको प्रेरणा न की जाती अथवा पं० सुखलालजीके तर्कको उन्हीके गब्दोंमें रक्ग्वा जाता और या डबल इनवर्टेड कामाजके भीतर न दिया जाता। प्रस्तु; इस विषयम पं० मुम्बलालजीने जो नर्क अपने दोनों प्राक्कथनोमे उपस्थित किया है उसके प्रधान प्रंशको ऊपर माधन नं० 2 में संकलित किया गया है. और उममें पडितजीके वाम शब्दोको इनवर्टेड कामाजके भीतर दे दिया है / इनगे पंडितजीके तर्ककी स्पिरिट अथवा रूपरेखाको भले प्रकार ममभा जा सकता है। पडितजीने अपने पहले प्राक्कयनमे उपस्थित नर्कमा वावन मा प्रावक यनमे यह स्वयं स्वीकार किया है कि- 'मेरी बह (समभगीवादी ) दनील विद्यानन्दके स्पष्ट उल्लेम्बके प्राधारपर किये गये निगं यी पोषक है। सौर में मैंने वहाँ स्वतन्त्र प्रमाणके रूपमे पेग नहीं किया है: पाक नोकको 'पूज्यपादकर बतलानेवाला जब विद्यानन्दका कोई स्पष्ट लव है हो नहीं और उनकी कल्पनाके प्राधारपर जो निर्णय किया गया कामह बिन गया है नव पापकके पमें उपस्थित की गई दलील भी व्यथं पड़ जाती है; क्योंकि जब वह दीवार ही नहीं रही जिसे लेप लगाकर गए किया जाय नत्र लेप व्यथं ठहरना है-उमका कुछ प्रर्थ नहीं रहता / और इलिये पंडितजीको वह दलील विचारके योग्य नहीं रहती। * यथा- “यदि ममन्नभद्र पूज्यपादके प्राक्कालीन होते तो वे अपने इम युग-प्रधान प्राचार्यकी प्रासमीमांसा जैमी अनूठी कृतिका उल्लेख किये बिना नहीं रहते।" Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वार्थसिद्धिपर समन्तभद्रका प्रभाव 326 / यद्यपि, पं० महेंद्रकुमारजीके शब्दों में, "ऐसे नकारात्मक प्रमाणोंमे किसी प्राचार्य के समयका स्वतन्त्रभावमे साधन-बाधन नहीं होता" फिर भी विचारकी एक कोटि उपस्थित होजाती है / मम्भव है कलको पं० मुखलालजी अपनी दलीलको स्वतन्त्र प्रमाणके रूप में भी उपस्थित करने लगें, जिसका उपक्रम उन्होंने "ममन्तभद्रकी जनपरम्पराको उम समयकी नई देन" जैसे शब्दोंको बादमे जोडकर किया है और साथ ही समन्नभद्रकी असाधारण कृतियोंका किमी प्रामे म्पर्श भी न करने' नककी बात भी ये लिम्ब गये हैं अतः उमार-----द्वितीय माधनार- विचार कर लेना ही प्रावस्यक जान पड़ता है। मोर उभीक मो. :मेयागे प्रान्त किया जाता है। मबगे पहले मै यह बतला देना चाहता हूँ कि या किसी प्राचार्य के लिये यह प्रावश्यक नहीं है कि वह अपने पूर्ववर्ती प्राचार्योक मभी विपयोंको अपने ग्रन्थमें उल्लेम्बित प्रथवा चर्चित करे-मा करना न करना ग्रंयकारको रुचिविशेषपर अवलम्बित है / चुनत्रि से बहनसे प्रमागा उपस्थित किये जासकते है जिनमें पिछले प्राचार्योने पूर्ववर्ती प्राचार्योंकी तिनी ही वातोंको अपने ग्रन्थों मे छमा नक भी नहीं; उसने पर भी पूज्यपादके मब ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। उनके 'मारमं नाम के एक म्बाम ग्रन्थ का धवला' में नयविषयक उन्लेख मिलता है। पोर मामे वह उनका महन्वका म्वतन्त्र अन्य जान पड़ता है। बहुत सम्भव है कि में उन्होंने ममभंगी' को भी विगदन की हो। उस अन्यकी अनुपलब्धि की हालसमें पद नही कहा जा मका कि पूज्यपादने 'मतभंगी' का कोई विवाद धिन न किया अथवा उमे छपा तक नहीं / इसके मिवाय. गप्तमा एकमात्र ममन्तभद्रकी ईजाद अथवा उन्हीके द्वारा प्रावि कृत नहीं है, बल्कि उसका विधान पहनेगे चला पाता है और वह श्रीकुन्दकन्दाचार्य के प्रन्यो में भी रूपमे पाया जाता है; जमा कि निम्न दो गाथाओंमे प्रकट है 23 देम्बो, न्यायकुमुदचन्द्र विभागका 'प्राक्कथन पृ०१८ / + 'नगा मासंग्रहे युक्तं पूज्यपाद:-अनन्तपर्याय:त्मकस्य वस्तुनोऽन्यतमायाधिगमे कर्तव्ये जात्यहत्वपेक्षो निरवयप्रयोगो नय' इति " Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330 जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश अस्थि त्ति य णस्थि त्ति य हवदि अवत्तव्यमिदि पुणो दव्वं / पज्जायेण दु केण वि तदुभयमादिट्ठमएणं वा / / 2-23 -प्रवचनसार सिय अस्थि णस्थि उहयं अव्वत्तव्वं पुणो य तत्तिदर्य / दव्वं खु सत्तभंगं आदेसवसेण संभवदि / / 14 / / -पंचास्तिकाय प्राचार्य कुन्दकुन्द पूज्यपादसे बहुत पहले हो गये हैं। पूज्यपादने उनके मोक्षप्राभूतादि ग्रन्थोंका अपने समाधितंत्रमें बहुत कुछ अनुमरण किया है-कितनी ही गाथानोंको तो अनुवादितरूपमें ज्यों-का-त्यों रख दिया है और कितनी ही गाथाओं को अपनी सर्वार्थसिद्धि में 'उक्तं च' प्रादि रूपसे उद्धृत किया है, जिसका एक नमूना ५वें अध्यायके १६वें सूत्रकी टीकामें उद्धन पंचास्तिकायकी निम्न गाथा है अण्णोण्णं पविसंता दिता श्रीगासमण्णमएणम्स / मेलंता वि य णिच्चं सगं समावं ण विजहंति / / 7 / / ऐसी हालतमें पूज्यपादके द्वारा 'सप्तभंगी' का स्पष्ट शब्दोंमें उल्लेख न होनेपर भी जैसे यह नहीं कहा जा सकता कि प्रा० कुन्दकुन्द पूज्यपादके बाद हुए हैं वैसे यह भी नहीं कहा जा सकता कि समन्तभद्राचार्य पूज्यपादके बाद हुए हैउत्तरवर्ती है / और न यही कहा जा सकता है कि 'सतभंगी' एकमात्र समन्तभद्रकी कृति है-उन्हींकी जैनपरम्पराको 'नई देन' है / ऐसा कहनेपर प्राचार्य कुन्दकुन्दको समन्तभद्रके भी वादका विद्वान् कहना होगा, और यह किसी तरह, भी सिद्ध नहीं किया जा सकता-मकराके ताम्रपत्र और अनेक शिलालेख तथा अन्योंके उल्लेख इसमें प्रबल बाधक है। अत: पं० सुखलालजीको 'सतमंगी वाली दलील ठीक नहीं है-उससे उनके अभिमतकी सिटि नहीं हो सकती। अब में यह बतला देना चाहता हूँ कि प. मुखलालजीने अपने साधन. ( दलील ) के अंगरूप में जो यह प्रतिपादन किया है कि 'पूज्यपादने ममन्तभद्र की असाधारण कृतियों का किसी अंशमें स्पर्श भी नहीं किया' वह पभ्रान्त न होकर +देखो, वीरसेवामन्दिरमे प्रकाशित 'समाधितंत्र' की प्रस्तावना Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ सिद्धिपर समन्तभद्रका प्रभाव वस्तुस्थितिके विरुद्ध है; क्योंकि समन्तभद्रकी उपलब्ध पाँच असाधारण कृतियोंमेंसे भाप्तमीमांसा. युक्त्यनुशासन, स्वयंभूस्तोत्र और रत्नकरण्डश्रावकाचार नामकी चार कृतियोंका स्पष्ट प्रभाव पूज्यपादकी 'सर्वार्थसिद्धि' पर पाया जाता है; जैसा कि अन्तःपरीक्षणके द्वारा स्थिर की गई नीचेकी कुछ तुलना परसे प्रकट है। इस तुलनामें रक्खे हुए वाक्योंपरसे विज्ञपाठक सहजहीमें यह जान सकेंगे कि / मा० पूज्यपादने स्वामी समन्तभद्रके प्रतिपादित अर्थको कहीं शब्दानुसरणके कहीं पदानुसरणके, कहीं वाक्यानुसरणके, कहीं उदाहरणके, कहीं पर्यायशब्दप्रयोगके, कही 'मादि' जैग संग्राहकपद-प्रयोगके और कहीं व्याख्यान-विवेचनादिके रूपमें पूर्णतः अथवा अंशतः अपनाया है-ग्रहण किया है / तुलनामें स्वामी समन्तभद्रके वाक्योंको ऊपर और थोपूज्यपादके वाक्योंको नीचे भिन्न टाइपोंमें रख दिया गया है, और माथमे यथावश्यक अपनी कुछ व्याख्या भी दे दी गई है, जिसमे माधारगण पाठक भी हम विषयको ठीक तौरपर अवगत कर सकेंः-- (1) "नित्यं तत्प्रत्यभिज्ञानान्नाकस्मात्तदविच्छिदा। क्षणिक कालभेदात्त बुद्धथसंचरदोपतः // " ___ --प्राप्तमीमांसा, का० 56 "नित्यं तदेवेदमिति प्रनीतेन नित्यमन्यत्प्रतिपत्तिसिद्धेः / " -स्वयम्भूस्नोत्र, का० 43 "तदवेदमिति स्मरणं प्रत्यभिज्ञानम् / तदकम्मान भवतीति योऽस्य हंतुः स सद्भावः ।यनात्मना प्रारहाट यस्तु तेनैवात्मना पुनरपि भावात्तदवेदमिति प्रत्यभिज्ञायत... 'नतस्तद्भावेनाऽव्ययं नित्यमिति निश्चीयते / तत्तु कचिद्वेदितव्यम्। --सर्वार्थसिद्धि, म० 5 मू 31 यहाँ पूज्यपादनं समन्तभद्रके 'तदेवेदमिति' इम प्रत्यभिज्ञानलशगको ज्योंका न्यो अपनाकर इसकी व्याख्या की है. 'नाकस्मात' शब्दोंको ‘अकस्मान्न भवति' रुपमे रक्खा है, 'तदविच्छिदा' के लिये सूत्रानुसार तद्भावेनाऽव्ययं' शब्दोंका प्रयोग किया है और 'प्रत्यभिज्ञान' शब्दको ज्योंका त्यों रहने दिया है / साथ ही 'न नित्यमन्यत्प्रतिपत्तिसिदे:' 'क्षणिक कालभेदात' इन वाक्योंके भावको 'तत्तु कथंचिद्वेदितव्यं' इन शब्दोंके द्वारा संगृहीत और सूचित किया है। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश (2) "नित्यत्वैकान्तपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते / " -प्राप्तमीमांसा, का० 37 "भावपु नित्येपु विकारहानेर्न कारकव्याप्त कार्ययुक्तिः / न बन्धभोगौ न च तद्विमोक्षः............ -युक्त्यनुशासन, का० 8 "न मर्वथा नित्यमुद्रेत्यपैनि न च क्रियाकारकमत्र युक्तम्।" -स्वयम्भूस्तोत्र 24 "सर्वथा नित्यत्वे अन्यथाभावाभावात् संसारतन्निवृत्तिकारणप्रक्रियाविरोधः स्यात् / " --पर्वार्थमिद्धि, प० 5 मू० 31 यहाँ पूज्यपादने 'नित्यत्वैकानपक्ष' पदके लिये ममन्तभद्रके ही अभिमतानुमार 'मन्था नित्यत्वे' इस ममानार्थक पदका प्रयोग किया है, 'विकिया नोपपद्यते' और 'विकारहानेः' के अाशयको 'अन्यथाभावाभावात्' ५दके द्वारा व्यक्त किया है और शेषका ममावेश 'समार-निवृत्तिकारगप्रक्रियाविरोधः स्यात्' इन गन्दोंमें किया है। (3) “विवक्षितो मुख्य इनीप्यतेऽन्यो गुणोऽविवक्षो न निरात्मकते। स्वयम्भूस्तोत्र 53 "विवक्षा चाऽविवक्षा च विशेष्येऽनन्न धर्मिणि। मनो विशेषणम्याऽत्र नाऽमनम्नम्नदर्थिभिः / / " -प्राप्तमीमामा, का० 35 "अनेकान्तात्मकम्य वस्तुनः प्रयोजनवाद्यस्य कम्यधिद्धर्मम्य विवक्षया प्रापितं प्राधान्यमपितमुपनीतमिति यावत / नविपरीतमनपिनमा प्रयोजनाभावात् / मतोऽप्यविवक्षा भवतीत्युपमजनोभुतमनपित मुच्यते / -सर्वार्थसिद्धि, प्र०५ मू. 32 यहाँ 'अपित' और 'प्रनपित' शब्दोंकी व्याख्या करते हुए समन्तभद्रकी 'मुस्य' और 'गुण (गौरण)' शब्दोंकी व्याख्याको अर्थतः अपनाया गया है। मुख्य के लिये प्राधान्य, 'गुण' के लिये 'उपसर्जनीभूत' 'विवभिन' के लिये 'विवक्षया प्रापित' और 'अन्यो गुणः' के लिये 'तद्विपरीतमनपिनम्' जैसे शब्दोंका प्रयोग Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका प्रभाव 333 किया गया है। साथ ही, 'अनेकान्तात्मकस्य वस्तुन: प्रयोजनवाद्यस्य कस्यचिधर्मस्य ये शब्द 'विवक्षित' के स्पष्टीकरणको लिये हुए है-पासमीमांसाकी उक्त कारिकामें जिस अनन्तर्मिविशेष्यका उल्लेख है और युक्त्यनुशासनकी 46 वी कारिकामें जिसे 'तत्त्वं त्वनेकान्तमशेषरूपम्' शब्दोंसे उल्लेखित किया है उसीको पूज्यपादने 'अनेकान्तात्मकवस्तु'के रूपमें यहाँ ग्रहण किया है। और उनका 'धर्मम्ध' पद भी समन्तभद्रके 'विशेषणस्य' पदका स्थानापन्न है। इसके सिवाय, दूसरी महत्वकी बात यह है कि प्रातमीमांसाकी उक्त कारिकामें जो यह नियम दिया गया है कि विवक्षा और अविवक्षा दोनों ही सत् विशेषणकी होती है--प्रसत्की नहीं-पौर जिसको स्वयम्भूस्तोत्रके 'मविवक्षो न निगत्मक:' शब्दोंक द्वारा भी मूचित किया गया है, उसीको पूज्यपादने 'सतोऽप्यविक्षा भवतीति' इन शब्दोंमें संग्रहीत किया है। इस तरह अपित और अनर्पितको व्याख्यामे समन्तभद्र का पूरा अनुसरण किया गया है / (5) "न द्रव्यपर्यायपृथंब्यवस्था, द्वयात्म्यमेकापणया विरुद्धम् / धर्मी च धर्मश्च पिथ स्वधेमी न सर्वथा तेऽभिमतौ विरुद्धौ।" -युक्त्यनुशासन, का० 47 . •न सामान्या मनानि न व्यनि व्यक्तमन्वयान। व्यत्यदेति विशंपान महकत्रोदयादि सन् // " -प्राप्तमामासा, का० 57 "नन इदमेव विरदं तदेव निन्यं नदेवानित्यमिति / यदि नित्यं व्ययोदयामावादनित्यनाच्याघानः / अवानियत्वमेव स्थित्यभावानित्यताव्याघात इति / नेतद्विरुद्धम् / कत: : (उलानिका.... 'अपितानपितमिद्धेर्नाम्नि विरोधः / तद्यथा-~एकम्य दरद नम्मापना. पुत्री. भ्राना, भागिनय इत्येवमादयः सम्बन्धा जनकत्व-जन्यत्वादानमित्ता ननिरनयन्ते अपरगाभदान् / पुनपक्षेया पिना, पित्रपक्षमा पत्र लिमादिः। तथा द्रा पनि सामान्यपगया नित्यं. विशेषापराया जानत्यानानन निगधः / --मनायकि 50 यहाँ पूज्यपादने एक ही वस्तुमे उत्पाद व्ययादिकी दृष्टि से नित्य-मानत्यक -विरोधकी गंका उठाकर उसका जो परिहार किया है वह सब युक्त्यनुशासन Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 334 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश पौर मासमीमांसाकी उक्त दोनों कारिकामोंके प्राशयको लिए हुए है-उसे ही पिता-पुत्रादिके सम्बन्धों-द्वारा उदाहृत किया गया है। बातमीमांसाको उक्त कारिकाके पूर्वार्ध तथा तृतीय चरणमें कही गई नित्यता-अनित्यता-विषयक बातको 'द्रव्यमपि सामान्यापरणया नित्यं, विशेषार्पणयाऽनित्यमिति' इन शब्दों में फलितार्थ रूपसे रक्खा गया है / और युक्त्यनुशासनकी उक्त कारिकामें 'एकार्पणासे'-एक ही अपेक्षासे--विरोध बतलाकर जो यह सुझाया था कि अर्पणाभेदसे विरोध नहीं पाता उसे 'न विरुध्यन्ते अर्पणाभेदात्' जैसे शब्दोंद्वारा प्रदर्शित किया गया है। (5) "द्रव्यपर्याययोरैक्यं तयोरव्यतिरेकतः / परिणामविशेषाश्च शक्तिमच्छक्तिभावतः / / संझा-संख्या-विशेषाचस्वलक्षणविशेषतः। प्रयोजनादिभेदाच तन्नानात्वं न सर्वथा // " -माप्तमीमांसा, का०७१, 32 "यद्यपि कथंचिद् व्यदेपशादिभेदहेतुत्वापेक्षया द्रव्यादन्ये (गुणाः) तथापि तद्व्यनिरकात्तत्परिणामाच नान्यं / " - मर्वार्थसिद्धि प्र० 5 मू०४२ यहां द्रव्य और गुणों (पर्यायो) का अन्यत्व तथा अनन्यत्व ब.लाते हुए, प्रा० पूज्यपादने स्वामी समन्तभद्रकी उक्त दोनो ही कारिकामोंके माशयको अपनाया है पोर ऐसा करते हुए उनके वाक्यमें कितना ही शब्द-साम्य भी मागया है; जैसा कि 'तदव्यतिरेकात' और 'परिणामाच' पदोंके प्रयोगमे प्रकट है। इसके तिवाय, 'कथंचिन' शब्द 'न सर्वथा' का, 'द्रव्यादन्य' पद 'नानात्व' का 'नान्य' शब्द 'ऐक्य' का, 'व्यपदेश' शब्द 'सज्ञा' का वाचक है तथा 'भेदहेत्वपेक्षया' पद् 'भेदात्' 'विशेषात्' पदोंका समानार्थक है और 'पादि' शब्द संज्ञासे भिन्न शेप संख्या-लक्षण-प्रयोजनादि भेदोका मग्राहक है। इस तरह शब्द और अर्थ दोनोंका साम्य पाया जाता है / (6) "उपेक्षा फलमाद्यस्य शेषस्यादानहानधीः / पर्वावाऽज्ञाननाशो वा सर्यस्यास्य स्वगोचरे ।।"-पातमी०१०२ "जस्वभावस्यात्मनः कर्ममलीमसस्य करणालम्बनादर्थनिश्चये प्रीति Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वार्थसिशिपर समन्तभद्रका प्रभाव 335 रुपजायते, सा फलमित्युच्यते / उपेक्षा अज्ञाननाशो वा फलम् / रागद्वेषयोरप्रणिधानमुपेक्षा अन्धकारकल्पाज्ञाननाशो वा फलमित्युच्यते / " --मर्वार्थसिद्धि प्र०१ मू०१० यहाँ इन्द्रियोंके मालम्बनसे अर्थके निश्चयमें जो प्रीति उत्पन्न होती है उसे प्रमाणशानका फल बतलाकर 'उपेक्षा प्रज्ञाननाशो वा फलम्' यह वाक्य दिया है, जो स्पष्टतया प्राप्तमीमांसाकी उक्त कारिकाका एक अवतरण जान पड़ता है और इसके :रा प्रमाणफल-विषयमें दूसरे प्राचार्यके मतको उद्धृत किया गया है / कारिकामें पड़ा हुमा 'पूर्वा' पद भी उसी 'उपेक्षा' फलके लिये प्रयुक्त हुमा है जिससे कारिकाका प्रारम्भ है / (7) "नयस्तवेष्टा गुणमुख्यकल्पतः // 6 // " -स्वयम्भूस्तोत्र "निरपेक्षा नयामिभ्याः सापेक्षा वन्तु तेऽर्थकृत / " --प्राप्तमीमामा, का० 108 "मिथोऽनपेक्षाःपुरुषार्थहेतुनीशा न चांशी पृथगाम्ति तेभ्यः / परस्परक्षाः पुरुषार्थहेतुणा नयास्तद्वदसिक्रियायाम / / --युक्त्यनुशासन, का० 56 "त एत ( नया ) गुण-प्रधानतया परस्परतंत्राः सम्यग्दर्शनहतयः पुरुषार्थक्रियासाधनसामथ्यात् तन्त्वादय इव यथोपायं विनिवेश्यमानाः पटादिमंज्ञाः स्वतंत्राश्चाममर्थाः / निरपेक्षेषु तन्त्वादिषु पटादिकार्य नास्तीति // " __--सर्वार्थसिदि, म० 1 10 33 स्वामी ममन्तभद्रने अपने उक्त वाक्योंमें नयोंके मुख्य भोर गुरण (गौण) ऐमे दो भेद बतलाये है, निरक्षेप नयोंको मिथ्या तथा सापेक्ष नयोंको बस्तु = वास्तविक (मम्यक) प्रतिपादित किया है पोर सापेक्ष नयोंका 'अर्थकृत् लिख कर फलतः निरपेक्ष नयोंको 'नाथंकृत अथवा कार्याशक्त (मसभर्थ) मूचित किया है। साथ ही, यह भी बतलाया है कि जिस प्रकार परस्पर अनपेक्ष अंश पुरुषार्थ के हेतु नहीं, किन्तु परस्पर सापेक्ष मंश पुरुषार्थके हेतु देख-जावे है पोर अंगोंसे अंशी पृथक् (भिन्न प्रथवा स्वतन्त्र ) नहीं होता। उसी प्रकार नयोंको जानना चाहिए। इन सब बातोंको सामने रखकर ही पूज्यपादने Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 336 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश अपनी सर्वार्थसिद्धि के उक्त वाक्यको सृष्टि की जान पड़ती है / इस वाक्यमें मंशअंशीकी बातको तन्त्वादिपटादिसे उदाहृत करके रक्खा है / इसके 'गुणप्रधानतया', 'परस्परतंत्राः', 'पुरुषार्थ-क्रियासाधनसामर्थ्यात्' और 'स्वतंत्राः' पद क्रमशः 'गुणमुख्यकल्पतः' 'परस्परेक्षा:-सापेक्षा 'पुरुषार्थ-हेतुः', 'निरपेक्षाः' पनपेक्षाः' पदोंके समानार्थक है / और 'असमर्थाः' तथा 'कार्य नास्ति' ये पद 'मर्थकृत' के विपरीत 'नाथंकृत् के माशयको लिये हुए है। (5) "भवत्यभावोऽपि च वस्तुधर्मो भावान्तरं भाववदर्हतस्ते / प्रमीयते च व्यपदिश्यते च वस्तुव्यवस्थाङ्गममेयमन्यत् // " -युक्त्यनुशासन, का० 56 "प्रभावस्य भावान्तरत्वादेत्वङ्गत्वादिभिरभावस्य वस्नुधर्मत्वमिद्धेश्च / " --सर्वार्षसिद्धि, प० 6 0 27 इस वाक्यमें पूज्यपादने, प्रभावके वस्तुधर्मस्वकी सिद्धि बतलाते हुए, समन्तभद्रके युक्त्यनुशासन-गत उक्त वाक्यका शम्दानुपरगणके साथ कितना अधिक अनुकरण किया है, यह बात दोनों वाक्योंको पढ़ते ही स्पष्ट होजाती हैं / इनमें 'हत्वङ्ग' और 'वस्तुव्यवस्था ग' शब्द समानार्थक है। (E) "धनधान्यादि-प्रन्थं परिमाय नतोऽधिकेपु निस्पृहना / परिमित. परिग्रहः म्यादिच्छापरिमाणनामाऽपि ।"-रलक र ड श्रा० 61 "धन-धान्य क्षेत्रादीनामिच्छावशान कृत्परिच्छेदी गृहनि पंचमाणुव्रतम। -मर्वार्थ मिति, प्र. 020 यहाँ इच्छावगात् ऋतपरिच्छेदः' ये दाद परिमाय नतोधिक निस्पृहता' प्राशयको लिये हए है। (10) "तिर्यकक्लशवणिज्याहिसारम्भमलम्भनादीनाम् / ___कथाप्रसङ्गप्रसवः मतव्यः पापपशः / / " ..रत्नका 26 "तिर्यकालशवाणिज्यप्राणवधकारम्भ कादिषु पापसंयुक्त वचनं पापीपदेशः।" -~सर्वार्थमि०प्र०७ मू०५ 21 वें मूत्र ( 'दिग्देशानदण्ड ' ) की ध्याा अनर्थदण्ड तो समातभद्र-प्रतिपादित पांचों भेदोंको अपनाते हुए उनके जो लक्षण दिये है उनमे शब्द Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वार्थसिद्धिपर समन्तमद्रका प्रभाव पौर मर्षका कितना अधिक साम्य है यह इस तुलना तथा प्रागेकी दो तुलनामाँसे प्रकट है। यहां 'प्राणिपध' हिंसाका समानार्थक है और 'पादि' में 'प्रलम्भन' भी गर्मित है। (11) “वध-बन्धच्छेदादेवेंपावागाव परकलबारे। प्राण्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदाः।" -रलकरण्ड०७८ "परेषां जयपराजयवधबन्धनानछेदपरस्वहरणादि कथं स्यादिति मनसा चिन्तनमपध्यानम्" -सर्वार्थसि० 007 सू० 21 ___ यहां 'कथं स्यादिति मनसा चिन्तनम्' यह 'पाध्यानम्' पदको व्याख्या है 'परेषां जय पराजय' तथा 'परस्वहरण यह 'मादि' शब्द-द्वारा गृहीत प्रयंका कुछ प्रकटीकरण है और 'परस्वहरणादि' में 'परकलत्रादि' का अपहरण भी शामिल है। (12) "क्षितिसलिलदहनपवनारम्भ विफलं वनस्पतिच्छेदम् / सरणं सारणमपि च प्रमाद चयों प्रभाषन्तं // " -रत्नकरण्ड० 80 "प्रयोजनमन्नरण वृक्षादिछेदन-भूमिकुट्टन-सलिलसेचनाघवद्यकार्य प्रमादाचरितम् / " -सर्वार्थसि० प्र०७ सूत्र 21 यहाँ 'प्रयोजनमन्तरेण' यह पद 'विफलं' पदका समानार्थक है, 'वृक्षादि' पद बनस्पति' के प्राशयको लिये हुए है, 'कुट्टन मेचन' में 'भारम्भ' के प्राशयका एक देश प्रकटीकरण है और 'भादि प्रक्यकार्य' में 'दहन-पवनारम्म' तया 'सरण मारण' का प्राशय संगृहीत है। (13) 'सहतिपरिहरणार्थ चौद्रं पिशितं प्रमादपरिहतये / मर्चच वर्जनीयं जिनचरणो शरणमुपयातः॥"-रत्नकरण्ड 84 "मधु मांसं मद्यं च सदा परिहर्तव्यं प्रसघातानिवृत्तचेतसा / " -सर्वार्षति० म०७ सू० 11 यहाँ 'सातानिवृत्तचेतसा' ये शब्द 'सहतिपरिहरणार्थ' पदके स्पष्ट माशयको लिये हुए है पौर मधु, मांस, परिहर्तव्यं यं पद क्रमशः क्षौद्र, पिशितं, वर्षनीवं पडोके पर्यावपद है। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 338 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश (14) अल्पफल बहुविघातान्मूलकमाणि शृंगवेराणि / नवनीत-निम्बकुसुमं कैतकमित्येवमवहेयम् / / -रत्नकरण्ड०८५ "केतक्यर्जुनपुष्पानि श्रृंगवेर मूल कार्दानि बहुजन्तुयोनिस्थानान्यनन्तकायव्यपदेशार्हाणि परिहर्तव्यानि बहुधाताल्पफलत्वात् / " यहाँ 'बहुतघानाल्पफलत्वात्' पद 'अल्पफलबहुविघातात्' पदका शब्दानुसरणके साथ समानार्थक है 'परिहर्तव्यानि' पद 'हेयं' के प्राशयका लिए हुए है और 'बहजन्तुयोनिस्थानानि' जैसे दो पद स्पष्टीकरणके रूपमें है। (15) "यद निष्टं तद्ब्रयेचानुपसेव्यमेतदपि जह्यात / अभिसन्धिकृता विरतिर्विषयायोग्याव्रतं भवति // " -रत्नकरण्ड 86 "यानवाहनाभरणादिष्वेतावदेवेष्टमतोऽन्यदनिष्टमित्यनिष्टान्निवतन कर्तव्यं काल नियमेन यावज्जीव वा यथाशक्ति / " "तमभिमन्धिकृतो वियमः।" -सर्वार्थसि० प्र०७ सू० 21, 1 यहां यानवाहन' प्रादि पदोंके द्वारा 'अनिष्ट' की व्याख्या की गई है, गंप भोगोपभोगपरिमाणव्रतमें अनिष्ट के निवर्तनका कथन समन्तभद्रका अनुमरगा है। साथमें 'कालनियमेन' और 'यावरजीवं जमे पद ममन्तभद्रके 'नियम' पोर 'यम' के प्राशयको लिए हुए है, जिनका लक्षण रत्नकरण्ड 0 श्रा० के अगले पद्य (87) में ही दिया हुआ है / भौगोपभोगपरिमाणवतके प्रमगानुसार समनभद्रने उक्त पद्यके उत्तरार्ध में यह निर्देश किया था कि अयोग्य विषयसे ही नही किन्तु योग्य विषयसे भी जो 'पभिसन्धिकृता विरति' होती है वह वत कहलाती है। पूज्यपादने इस निर्देशने प्रसंगोपात 'विषयायोग्यात्' पदों को निकाल कर उसे प्रतके साधारण लक्षाके रूपमें ग्रहण किया है, और इसीसे उस लक्षणको प्रकृत अध्याय (नं०१) के प्रथम सूत्रकी व्याख्याने दिया है। (16) "श्राहारोपयोरप्युपकरणायासयोश्च दानेन / पैश्यावृत्यं अवते चतुरात्मस्येन चतुरखाः ।।'--रत्नकरड० 117 "स (अतिथिर्मविभागः) चतुर्विधः- भिक्षोपकरणोपधप्रतिश्रयभेदात् / " -सर्वार्षसिक प्र०७ सू० 21 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वार्थसिद्धिपर समन्तभद्रका प्रभाव 336 यहाँ पज्पादने समन्तभद्र-प्रतिपादित दानके चारों भेदोंको अपनाया है। उनके 'भिक्षा' और 'प्रतिश्रय' शब्द क्रमश: 'पाहार' और 'प्रावास के लिये इस प्रकार ये तुलनाके कुछ नमूने है जो श्रीपूज्यपादकी 'सर्वार्थसिद्धि' पर स्वामी समन्तभद्रके प्रभावको उनके साहित्य एवं विचारोंकी छापको स्पष्टतया बतला रहे है और द्वितीय साधनको दूषित ठहरा रहे हैं। ऐसी हालतमें मित्रवर पं० सुखलाल जीका यह कथन कि 'पूज्यपादने समन्तभद्रकी असाधारण कृतियोंका किमी अंगमें स्पर्श भी नहीं किया बड़ा ही पाश्चर्यजनक जान पड़ता है और किसी तरह भी मगन मालूम नहीं होना / प्राशा है पं० सुखलालजी उक्त तुलनाकी रोगनीमें इस विषयपर फिर विचार करनेकी कृपा करेंगे। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रकी स्तुतिविद्या ग्रन्थ-नाम___ इस ग्रन्यका मूलनाम 'स्तुतिविणा' है; जैसा कि मादिम मंगलपमें प्रयुक्त हुए 'स्तुतिविद्यां प्रसाधये' इस प्रतिशावाक्यसे जाना जाता है। ग्रन्थका 'गत्वैकस्तुतमेव' नामक जो मन्तिम पच कवि और काव्यके नामको लिए हुए एक चक्रवृत्तरूपमें चित्रकाव्य है उसकी छह भारों और नव वलयोंबानी चित्ररचनापरसे प्रन्धका नाम 'जिनस्तुतिशत निकलता है, जैसा कि टीकाकाग्ने व्यक्त किया है और इसलिए प्रपका दूसरा नाम 'जिनम्तुतिशतं' है जो ग्रन्थकार. को इष्ट रहा मालूम होता है / यह नाम जिनस्तुतियोंके रूपमें स्तुतिविचारे पचोंकी प्रधान संख्याको साथमें लिये हुए है और इसलिये इसे स्तुतिसम्यापरक नाम समझना चाहिये / जो प्रबनाम संख्यापरक होते है उनमें 'शत' की संख्याके लिये ऐसा नियम नहीं है कि संपकी पथसंस्था पूरी सो ही हो वह दो चार दस बीस प्रषिक भी हो सकती है, जैसे समाविशतककी पयसंख्या 105 मोर भूधर-बैनशतकी 107 है / और भी बहतसे शत-संख्यापरक प्रन्यनामोका ऐसा ही हाल है / भारतमें बहुत प्राचीनकालसे मुखपीनोंके विषय में ऐसा दस्तूर रहा है कि वे सो की संख्या अथवा करके सरीदी जानेपर कुछ अधिक संख्यामें ही मिमती है जैसे माम कहीं 112 चीर कहीं 120 की संख्यामें मिलते है इत्यादि / शतक अन्योंमें भी अन्धकारोंकी प्राय: ऐसी ही नीति रही है उन्होंने 'शत' कहकर भी सतसे प्रायः च प्रषिक पर ही अपने पाठकोंको प्रदान किये है। इस दृष्टि से प्रस्तुत सन्धर्म 116 पर होते हुए भी उसका 'बिनस्तुतिशत Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रको स्तुतिविद्या 341 यह नाम सार्थक जान पड़ता है / 'शत' और 'शतक' दोनों एकार्थक है प्रतः 'जिनस्तुतिशत' को जिनस्तुतिशतक' भी कहा जाता है / 'जिनस्तुतिशतक' का बादको संक्षितल्प 'जिनशतक' होगया है और यह ग्रंथका तीसरा नाम है, जिसे टीकाकारने 'जिनशतकनामेति' इस वाक्यके द्वारा प्रारम्भमें ही व्यक्त किया है। साथ ही, 'स्तुतिविद्या' नामका भी उल्लेख किया है / यह ग्रन्थ अलङ्कारोंकी प्रधानताको लिये हुए है और इसलिये अनेक ग्रन्थप्रतियोंमें इसे 'जिनशतालङ्कार' अथवा 'जिनमतकालंकार' जैसे नामसे भी उल्लेखित किया गया है,और इमलिये यह अन्यका चौथा नाम अथवा ग्रन्यनामका चौथा संस्करण है। ग्रन्थ-परिचय समन्तभद्र--भारतीका अंगरूप यह अन्य जिन-स्तुति-विषयक है / इसमें वृषभादि चविंशतिजिनोंकी-चौबीस जैन तीर्थंकरोंकी-अलंकृत भाषामें बड़ी ही कलात्मक स्तुति की गई है। कहीं श्लोकके एक चरणको उलटकर रख देनेसे दूसरा चरण छ, पूर्वाधको उलटकर रख देनेसे उत्तरार्ष और समूचे श्लोकको उलटकर रख देनेसे दूसरा श्लोक 1 बन गया है। कहीं-कहीं चरणके पूर्वाध. उत्तराधमें भी ऐसा ही क्रम रखा गया + है और कहीं-कहीं एक चरणमें क्रमश: जो प्रक्षर है वे ही दूसरे चरण में है, पूर्वाधमें जो अक्षर है वे ही उत्तरार्धमें है और पूर्ववर्ती इलोकमें जो अक्षर है वे ही उत्तरवर्ती श्लोकमें है, परन्तु प्रर्थ उन सबका एक-दूसरेसे प्राय: भिन्न है और वह अक्षरोंको सटा कर तथा अलगसे रखकर भिन्न-भिन्न शब्दों तथा पदोंकी कल्पना-द्वारा संगठित किया गया है। लोक नं० 102 का उत्तरार्ध है-'श्रीमते वर्तमानाय नमो नमितविद्विषे। अगले दो श्लोकोंका भी यही उत्तराधं इसी प्रक्षर-कमको लिये हए है; परन्तु वहाँ पक्षरोंके विन्यासभेद मोर पदादिककी जुदी कल्पनापोस पर्ष प्रायः बदल गया है। लोक 10,83,88, 65 लोक 57, 66,981 लोक 86, 87 + श्लोक 85, 63, 64 / देलो, श्लोक 5, 15, 25, 52, 11-12, 16-17, 67-38, 46-47, 76-77, 93-94, 186-107 / Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 342 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश कितने ही श्लोकग्रन्थमें ऐसे हैं जिनमें पूर्वार्धके विषमसंख्याअक्षरोंको उत्तरार्धके समसंख्याङ्क भक्षरोंके साथ क्रमशः मिलाकर पढ़नेसे पूर्वार्ष और उत्तरार्धक विषमसंख्याङ्कमक्षरोंको पूर्वार्धके समसंख्यांक अक्षरोंकेसाथ क्रमशः मिलाकर पढ़नेसे उत्तरार्ध हो जाता है। ये श्लोक 'मुरज' अथवा 'मुरजबन्ध' कहलाते हैं। क्योंकि इनमें मृदङ्गके बन्धनों-जैसी चित्राकृतिको लिये हुए अक्षरोंका बन्धन रक्खा गया है। ये चित्रालंकार थोड़े थोड़ेसे अन्तरके कारण अनेक भेदोंको लिये हुए है और अनेक श्लोकोंमें समाविष्ट किये गये हैं। कुछ श्लोक ऐसे भी कलापूर्ण है जिनके प्रथमादि चार चरणोंके चार आद्य प्रक्षरोंको अन्तिमादि चरणोंके चार अन्तिम अक्षरोंके साथ मिलाकर पढ़नेसे प्रथम चरण बन जाता है। इसी तरह प्रथमादि चरणोंके द्वितीयादि प्रक्षरोंको अन्तिमादि चरणोंके उपान्त्यादि अक्षरोंके साथ साथ क्रमश: मिलाकर पढ़नेपर द्वितीयादि चरण बनजाते है, ऐसे श्लोक 'अर्थभ्रम' कहलाते है / कुछ पद्य चक्राकृतिक रूपमें अक्षर-विन्यासको लिये हुए है और इससे उनके कोई कोई अक्षर चक्र में एक वार लिखे जाकर भी अनेक वार पढ़ने में माने है। उनमेंमे कुछमे यह भी खूबी है कि चक्र गर्भवृन्में लिखा जानेवाला जो यादि प्रक्षर है वह चक्रकी चार महा दिशात्रोंमें स्थित चारों प्राओंके अन्त में भी पड़ता है / 111 और 112 नम्बरके पद्योंमें तो वह स्खूबी और भी बढी चढ़ी है / उनकी छह प्रारों और नव वलयोंवाली चकरचना करनेपर गर्भम अथवा केन्द्रवृत्तमे स्थित जो एक अक्षर ( 'न' या 'र') है वही छहों पारोके प्रथम चतुर्थ तथा सप्तम वलयमें भी पड़ता है,और इसलिए चक्रमें 16 बार लिखा जाकर 28 बार पढ़ा जाता है / पद्यमें भी वह दो-दो अक्षरोंके अन्त गलसे 8 बार प्रयुक्त हुमा है / इनके सिवाय, कुछ चक्रवत्त ऐसे भी है जिनमें प्रादि प्रक्षरको गर्भम नहीं रक्खा गया बल्कि गर्भ में वह प्रक्षर रक्खा गया है जो प्रथम तीन चरमोमेंसे +देखो श्लोक नं० 3. 4, 18, 19, 20, 21, 27. 36, 43, 44, 56, 10, 12 - देखो, श्लोक 26, 53, 54 प्रादि / देखो, क्लोक 22, 23, 24 / Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संमन्तभद्रकी स्तुति विद्या 343 प्रत्येकके मध्य में प्रयुक्त हुआ है / इन्हींमें कवि और काव्यके नामोंको अंकित करनेवाला 116 वा चक्रवृत्त है। - अनेक पद्य ग्रन्थमें ऐसे हैं जो एकसे अधिक अलंकारोंको साथमें लिये हुए है, जिसका एक नमूना 84 वा श्लोक है, जो पाठ प्रकारके चित्रालंकारोंसे प्रलंकृत है / यह श्लोक अपनी चित्ररचनापरसे सब पोरमे समानरूपमें पढ़ा जाता है / कितने ही पद्य ग्रन्थमें ऐसे हैं जो दो-दो अक्षरोंसे बने हैं-दो व्यञ्जनाक्षरोंसे ही जिनका सारा शरीर निर्मित हुअा है / 14 वा श्लोक ऐसा है जिसका प्रत्येक पाद भिन्न प्रकारके एक-एक प्रक्षरमे बना है और वे अक्षर है क्रमशः म, न, म, त, / साथ ही, 'ततोतिता तु तेतीत' नामका 16 वा श्लोक ऐसा भी है जिसके सारे गरीरका निर्माण एक ही तकार अक्षरने हुमा है। इस प्रकार यह ग्रन्थ शब्दालंकार और चित्रालंकारके अनेक भेद-प्रभेदोंसे अलंकृत है और इमीमे टीकाकार महोदयने टीकाक प्रारंभ में ही इस कृतिको 'समस्तगुणगणीपेना' विशेषण के माथ 'सर्वालंकारभूपिना' (प्राय: सब प्रलंकारोंमे भूपिन ) लिखा है / मचमुच यह गून ग्रन्थ ग्रन्थकारमहोदयके अपूर्व काव्य-कौशल, अद्भुत व्याकरण-पाण्डित्य और अद्वितीय गन्दाधिपत्यको सूचित करता है / इमकी दुर्वाधनाका उल्नेम्व टीकाकारने 'योगिनामपि दुष्करायोगियोंके लिये भी दुर्गम ( कठिननाने बोधगम्य )-विशेपणके द्वारा किया है और माथ ही इस कृनिको 'सद्गुगाधारा' ( उत्तम गुग्गोंकी प्राधारभूत ) बतलाते हुए 'सुपद्मिनी' भी मूचित किया है और इसमे इसके अंगोंकी कोमलता, मुरभिता और सुन्दरताका भी सहज सूचन हो जाता है, जो ग्रन्थमें पद-पदपर लक्षित होती है। ग्रन्थ रचनाका उद्देश्य इस ग्रन्थको रचनाका उद्देश्य, ग्रन्थके प्रथम पद्यगे 'श्रागसां जये' वाक्यके द्वारा 'पापोंको जीतना बतलाया है और दूसरे अनेक पद्योंमे भी जिनस्तुतिसे देखो, पद्य नं० 110, 113, 114, 115, 116 / * देखो, वीरसेवामन्दिरमे प्रकाशितग्रन्थ पृष्ठ नं० 103, 104 का फुटनोट / दोनों, पद्य न० 51, 52, 55, 85, 63, 64, 67, 100, 106 / Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 344 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश पापोंको जीते जानेका भाव यक्त किया है। परन्तु जिनस्तुतिसे पाप कैसे जीते जाते है यह एक बड़ा ही रहस्यपूर्ण विषय है / यहाँ उसके स्पष्टीकरणका विशेष अवसर नहीं है, फिर भी संक्षेपमें इतना जरूर बतला देना होगा कि जिन तीर्थकरोंकी स्तुति की गई है वे सब पाप-विजेता हुए है-उन्होंने प्रशानमोह तथा काम-क्रोधादि पापप्रकृतियोंपर पूर्णत: विजय प्राप्त की है। उनके चिन्तन और माराधनसे अथवा हृदय मन्दिरमें उनके प्रतिष्ठित (विराजमान) होनेसे पाप खड़े नहीं रह सकते-पापोंके हट बन्धन उसी प्रकार ढीले पड़ जाते हैं जिस प्रकार कि चन्दन के वृक्षपर मोरके पाने से उससे लिपटे हुए सांप ढोले पड़ जाते हैं और वे अपने विजेतासे घबराकर कहीं भाग निकलनेकी ही सोचने लगते हैं / अथवा यों कहिये कि उन पुण्यपुरुषोंके ध्यानादिकसे प्रात्माका वह निष्पाप शुद्ध स्वरूप सामने आता है जो सभी जीवोंकी मामान्य सम्पत्ति है मौर जिसे प्राप्त करने के सभी भव्य जीव अधिकारी है / उस शुद्ध स्वरूपके सामने आते ही अपनी उस भूली हुई निधिका स्मरण हो उठता है, उसकी प्राप्तिके लिये प्रेम तथा अनुगग जाग्रत हो जाता है और पाप-परिणति सहज ही छूट जाती है। अत: जिन पूनात्माओंमे वह शुद्धस्वरूप पूर्णत: विकसित हुमा है उनकी उपासना करता हुमा भव्यजीव अपनेमे उस शुद्धस्वरूपको विकसित करनेके लिये उसी तरह समर्थ होता है जिम तरह कि तलादिकमे सुसजित बसी दीपककी उपासना करती हुई उसके चरणाम जब तन्मयताकी दृष्टिम अपना मस्तक रखती है तो तद्प हो जाती है-स्वयं दीपक बनकर जगमगा उठती है / यह सब भक्ति-योगका माहात्म्य है, स्तुति-पूजा पोर प्रार्थना जिसके प्रधान अंग है / साधु स्तोताकी स्तुति कुशल-परिणामोंकी--पुण्य-प्रसाधक शुभभावोंकी-निमित्तभूत होती है और अशुभ अथवा पापकी निवृत्तिरूप वे कुशलपरिणाम ही प्रात्माके विकास में सहायक होते है / इसीसे स्वामी समन्तभद्रने - -more-mini .. .. . 8 "हतिनि त्वयि विमो ! शिथिलीभवन्ति जन्तोः क्षणेण निविदा प्रपि कर्मबन्धाः / सद्यो मुजंगमममा इव मध्यभागमन्यागते बनशिबहिनि बन्दनस्य ॥"-कल्याणमन्दिर Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 345 aanmom समन्तभद्रकी स्तुतिविद्या अपने स्वयम्भूस्तोत्रमें, परमात्माकी-परम वीतराग-सर्वश-जिनदेवकी-स्तुतिको कुशल-परिणामोंकी हेतु बतलाकर उसके द्वारा कल्याणमार्गको सुलभ और स्वाधीन बतलाया है। साथ ही यह भी बतलाया है कि पुण्य-गुरगोंका स्मरण प्रास्मासे पापमलको दूर करके उसे पवित्र बनाता है / और स्तुतिविद्या (114) में जिनदेवकी ऐसी सेवाको अपने 'तेजस्वी' तथा 'सुकृती' होने प्रादिका कारण निर्दिष्ट किया है। परन्तु स्तुति कोरी स्तुति, तोता-रटन्त प्रयवा रूढिका पालन-मात्र न हो कर सच्ची स्तुति होनी चाहिये-सुतिकर्ता स्तुत्यके गुणोंको अनुभूति करता हुमा उनमें अनुरागी होकर तद्रूप होने अथवा उन प्रात्मीय गुणोंको अपने में विकसित करनेकी शुद्ध-भावनासे मम्पन्न होना चाहिये, तभी स्तुतिका ठीक उद्देश्य एवं फल ( पापोंको जीतना ) घटित हो सकता है और वह ग्रन्थकारके शन्दोंमें 'जन्मागण्यशिखी' (११५)-भवभ्रमणरूप संसार-बनको दहनकरनेवाली अग्नि-तक बनकर प्रात्माके पूर्ण विकाममें सहायक हो सकती है / __और इसलिये स्तुत्यकी प्रशंसामें अनेक चिकनी-चुपड़ी बातें बनाकर उसे प्रसन्न करना और उसकी उस प्रसन्नता-द्वारा अपने लौकिक कार्योंको सिद्धकरना-कराना-जैसा कोई उद्देश्य भी यहाँ प्रभीष्ट नहीं है / परमवीतरागदेवके साथ वह घटित भी नहीं हो सकता; क्योंकि मच्चिदानन्दरूप होनेसे वह सदा ही ज्ञान तथा प्रानन्दमय है, उसमें रागका कोई अंश भी विद्यमान नहीं है, और इसलिये किसीकी पूजा-वन्दना या स्तुति-प्रशंसासे उसमें नवीन प्रसन्नताका कोई संचार नहीं होता और न वह अपनी स्तुति-पूजा करनेवालेको पुरस्कारमें कुछ देता-दिलाता ही है। इसी तरह पात्मा द्वेषांशके न रहनेसे + "स्तुति: स्तोतुः साधोः कुशलपरिणामाय स तदा भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः / किमेवं स्वाधीन्याजगति सुलभे श्रायसपथे स्तुयान्न त्वा विद्वान्सततमभिपूज्यं नमिजिनम् // 11 // * "तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनाति वितं दुरिताऽजनेभ्यः / / 57 // " Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * TRIम्स: -- ' .MAHA 346 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश वह किसीकी निन्दा या अवज्ञापर कभी अप्रसन्न नहीं होता, कोप नहीं करता और न दण्ड देने-दिलाने का कोई भाव ही मनमें लाता है। निन्दा और स्तुति दोनों ही उसके लिये समान हैं, वह दोनोंके प्रति उदासीन है, और इस लिये उनसे उसका कुछ भी बनता या बिगड़ता नहीं है / फिर भी उसका एक निन्दक स्वतः दण्ड पा जाता है और एक प्रशंसक अभ्युदयको प्राप्त होता है, यह सब कर्मों और उनकी फल-प्रदान-शक्तिका बड़ा ही वैचित्र्य है, जिसे कर्मसिद्धान्तके अध्ययनसे भले प्रकार जाना जा सकता है। इसी कर्म-फल-वैचित्र्यको ध्यानमें रखते हुए स्वामी समन्तभद्रने अपने स्वयम्भूस्तोत्र में कहा है सुहृत्त्वयि श्रीसुभगत्वमश्नुते द्विपस्त्वयि प्रत्यय-वत्प्रलीयते / भवानुदासीनतमस्तयोरपि प्रभो ! परं चित्रमिदं तवेहितम् / / 6 / / 'हे भगवन् ! आप मित्र और शत्रु दोनोंके प्रति अत्यन्त उदासीन है। मित्रसे कोई अनुराग और शत्रुसे कोई प्रकारका द्वेषभाव नहीं रखते, इसीसे मित्रके कार्योंसे प्रसन्न होकर उसका भला नहीं चाहते और न शत्रुके कार्योसे अप्रसन्न होकर उसका बुरा मनाते है-, फिर भी आपका मित्र (अपने गुणानुराग, प्रेम और भक्तिभावके द्वारा ) श्रीविशिष्ट सौभाग्यको अर्थात् ज्ञानादि लक्ष्मीके प्राधिपत्यरूप अभ्युदयको प्रास होता है और एक शत्रु ( अपने गुणद्वपी परिणामके द्वारा ) 'क्विक' प्रत्ययादिकी तरह विनाशको-अपकर्षको-प्राप्त हो जाता है, यह आपका ईहित-चरित्र बड़ा ही विचित्र है !! ऐसी स्थितिमें 'स्तुति' सचमुच ही एक विद्या है। जिसे यह विद्या सिद्ध होती है वह सहज ही पापोंको जीतने और अपना प्रात्मविकाम मिद्ध करने में समर्थ होता है। इस विद्याकी सिद्धिके लिये स्तुत्यके गुणोंका परिचय चाहिये, गुणोंमें वर्द्धमान अनुराग चाहिये, स्तुत्यके गुण ही प्रात्म-गुरण है और उनका विकास प्राने प्रात्मामें हो सकता है ऐसी हुन श्रद्धा चाहिये। साथ ही, * इसीसे टीकाकारने स्तुतिविद्याको 'धन-कठिन-धातिकर्मेन्धन-दहन-समर्था' लिखा है--प्रर्थात् यह बतलाया है कि 'वह घने कठोर धातियाकर्मरूपी ईन्धनको भस्म करनेवाली समर्थ अग्नि है', और इससे पाठक ग्रन्थके प्राध्यात्मिक महत्वका कितना ही अनुभव प्राप्त कर सकते हैं। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रकी स्तुति विद्या मन-वचन-कायरूप योगको स्तुत्यके प्रति एकाग्र करनेकी कला पानी चाहिये / इसी योग-साधनारूप कलाके द्वारा स्तुत्यमें स्थित प्रकाशसे अपनो स्नेहसेभक्तिरससे-भीगी हुई प्रात्म-बत्तीको प्रकाशित और प्रज्वलित किया जाता है। वस्तुतः पुरातन प्राचार्योन-प्रङ्ग-पूर्वादिके पाठी महर्षियोंने-वचन और कायको अन्य व्यापारोंमे हटाकर स्तुत्य (उपास्य ) के प्रति एकाग्र करनेको 'द्रव्यपूजा' और मनकी नाना-विकल्पजनित व्यग्रताको दूर करके उसे ध्यान तथा गुणचिन्तनादिके दाग स्तुत्यमें लीन करने को 'भावपजा' बतलाया है। प्राचीनोंकी इस द्रव्यपूजा आदिके भावको श्रीअमितगति प्राचार्यने अपने उपासकाचार ( वि० ११वी शताब्दी ) के निम्न वाक्यमें प्रकट किया है " वचाविग्रह-संकोचो द्रव्यपूजा निगद्यते / तत्र मानस-संकाची भावपूजा पुरातनः / / " स्तुति-स्तोत्रादिके रूपमे ये भक्तिगट ही उस समय हमारे पूजा-पाठ थे, ऐसा उपामना-माहित्यके अनुमन्धानमे जाना जाता है। ग्राधुनिक पूजापाठोंकी तरहके कोई भी दुमरे पूजापाट उम ममयके उपलव्य नहीं है / उस समय मुमुक्षजन एकान्त-स्थानमें बैठकर प्रयवा अहत्प्रतिमा पादिके मामने स्थित होकर बड़े ही भक्तिभाव के माय बिचार-पूर्वक. इन निम्नांत्रोंको पढ़ते थे और सब कुछ भूल-भुलाकर स्तुत्यके गुगगोंमें लीन हो जाते थे। तभी अपने उद्देश्यमें सफल और अपने लक्ष्यको प्राप्त करनेमे समर्थ होते थे / ग्रन्थकारमहोदय उन्हीं मुमुक्षजनके अग्रणी थे। उन्होंने स्तुनिविद्याके मार्गको बहुत ही परिप्कृत पौर प्रशस्त किया है। वीतरागसे प्रार्थना क्यों ? स्तुतिविद्याका उद्देश्य प्रतिष्ठित होजानेपर अब एक बात और प्रस्तुत की जाती है और वह यह कि, जब वीतराग अहंन्तदेव परम उदासीन होनेसे कुछ करते-धरते नहीं तब ग्रन्थमें उनसे प्रार्थनाएँ क्यों की गई हैं मोर क्यों उनमें व्यर्थ ही मर्तृत्व-विषय-का प्रारोप किया गया है ? यह प्रश्न बडा सुन्दर है Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 348 - जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश और सभीके लिये इसका उत्तर बांछनीय एवं जाननेके योग्य है। प्रतः अब इसीके समाधानका यहां प्रयत्न किया जाता है। ___ सबसे पहली बात इस विषयमें यह जान लेनेकी है कि इच्छापूर्वक अपवा बुद्धिपूर्वक किसी कामको करनेवाला ही उसका कर्ता नहीं होता बल्कि अनिच्छापूर्वक मथवा अबुद्धिपूर्वक कार्य करनेवाला भी कर्ता होता है / वह भी कार्यका कर्ता होता है जिसमें इच्छा या बुद्धिका प्रयोग ही नहीं बल्कि सद्भाव (अस्तित्व) भी नहीं अथवा किसी समय उसका संभव भी नहीं है। ऐसे इच्छाशून्य तथा बुद्धिविहीन कर्ता कामोंके प्रायः निमित्तकारण ही होते है और प्रत्यक्षरूपमें उनके कर्ता जड और चेतन दीनों ही प्रकारके पदार्थ हुमा करते है। इस विषयके कुछ उदाहरण यहां प्रस्तुत किये जाते है, उनपर जरा ध्यान दीजिये (1) 'यह दवाई अमुक रोगको हरनेवाली है।' यहां दवाईमें कोई इच्छा नहीं और न बुद्धि है, फिर भी वह रोगको हरनेवाली है-रोगहरण कार्यकी कर्ता कही जाती है; क्योंकि उसके निमित्तमे रोग दूर होता है / (2) 'इस रसायनके प्रसादसे मुझे नीगेगताकी प्राप्ति हुई। यहाँ 'रसायन' जड प्रौषधियोंका समूह होनेसे एक जड पदार्थ है; उसमें न इच्छा है, न बुद्धि और न कोई प्रसन्नता; फिर भी एक रोगी प्रसन्नचित्तसे उस रसायनका सेवन करके उसके निमित्तसे प्रारोग्य-लाभ करता है और उम - रसायनमें प्रसन्नताका प्रारोप करता हुमा उक्त वाक्य कहता है / यह सब लोक-व्यवहार है अथवा अलंकारोंकी भाषामें कहने का एक प्रकार है / इसी तरह यह भी कहा जाता है कि 'मुझे इस रसायन या दवाईने अच्छा कर दिया' जब कि उसने बुद्धिपूर्वक या इच्छापूर्वक उसके शरीर में कोई काम नहीं किया। हां, उसके निमित्तसे शरीरमें रोगनाशक तथा प्रारोग्यवर्धक कार्य जरूर हुमा है और इसलिये वह उसका कार्य कहा जाता है / (3) एक मनुष्य छत्री लिये जा रहा था और दूसरा मनुष्य विना छत्रीके सामनेसे पा रहा था। सामने वाले मनुप्यकी दृष्टि बब बत्रीपर पड़ी तो उसे अपनी खत्रीकी याद मागई प्रोर यह स्मरण हो पाया कि में अपनी छत्री अमुक दुकानपर भूलपाया हूँ, चुनांचे वह तुरन्त ही वहां गया और अपनी पत्री ले 'माया मोर माकर कहने लगा- 'तुम्हारी इस छत्रीका में बहुत पामारी है, Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रकी स्तुतिविद्या 346 इसने मुझे मेरी भूली हुई छत्रीकी याद दिलाई है।' यहाँ छत्री एक जडवस्तु है, उसमें बोलनेकी शक्ति नहीं, वह कुछ बोली भी नहीं और न उसने बुद्धिपूर्वक छत्री भूलनेकी वह बात ही सुझाई है, फिर भी चूकि उसके निमित्तसे भूली हुई बचीकी स्मृतिपादिरूप यह सब कार्य हुआ है इसीसे अलंकृत भाषामें उसका मआभार माना गया है। (4) एक मनुष्य किसी रूपवती स्त्रीको देखते ही उसपर आसक्त होगया, तरह-तरहकी कल्पनाएँ करके दीवाना बन गया और कहने लगा-'उस स्त्रीने मेरा मन हर लिया, मेरा चित्त बुरा लिया, मेरे ऊपर जादू कर दिया ! मुझे पागल बना दिया ! अब मैं बेकार हूँ और मुझसे उसके बिना कुछ भी करते. धरते नहीं बनता।' परन्तु उस बेचारी स्त्रीको इसकी कोई खबर नहीं-किसी बातका पता तक नहीं और न उसने उस पुरुषके प्रति बुद्धिपूर्वक कोई कार्य ही किया है-उस पुरुषने ही कहीं जाते हुए उसे देख लिया है, फिर भी उस स्त्रीके निमित्तको पाकर उम मनुष्यके प्रात्म-दोषोंको उत्तेजना मिली और उसकी यह सब दुर्दशा हुई / इसीसे वह उसका सारा दोप उस स्त्रीके मत्थे मढ़ रहा है; जब कि वह उसमें अज्ञातभावसे एक छोटासा निमित्त कारण बनी है, बड़ा कारण तो उस मनुष्यका ही भात्मदोप था। (5) एक दु:खित और पीड़ित गरीव मनुष्य एक सन्तके प्राश्रयमें चला गया और बड़े भक्तिभाबके साथ उस सन्तको सेवा-शुश्रुषा करने लगा। वह सन्त संसार-देह-भोगोंसे विरक्त है-वैराग्यसम्पन्न है-किसीसे कुछ बोलता कहता नहीं-सदा मोनसे रहता है। उस मनुष्यकी अपूर्व भक्तिको देखकर पिछले भक्त लोग सब दंग रह गये ! अपनी भक्तिको उसकी भक्तिके आगे नगण्य गिनने लगे और बड़े मादर-सत्कारके साथ उस नवागन्तुक भक्तहृदय मनुष्यको अपने-अपने घर भोजन कराने लगे और उसकी दूसरी भी अनेक भावश्यकतामोंकी पूर्ति गहे प्रेमके साथ करने लगे, जिससे वह सुखसे अपना जीवन व्यतीत करने लगा / कभी-कभी वह भक्तिमें विह्वल होकर सन्तके चरणों में गिर पड़ता और बड़े ही कम्पित स्वरमें गिडगिड़ाता हुमा कहने लगता-'हे नाप! पाप ही मुझ दीन-हीनके रक्षक है, माप ही मेरे मन्नदाता है, मापने मुझे वह भोजन दिया है जिससे मेरी जन्म-जन्मान्तरकी भूख मिट Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 350 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश गई है / आपके चरण-शरणमें पाने से ही मैं सुखी बन गया हूँ, आपने मेरे सारे दु:ख मिटा दिये हैं और मुझे वह दृष्टि प्रदान की है जिससे मैं पपनेको और जगतको भले प्रकार देख सकता हूँ। अब दया कर इतना अनुग्रह और कीजिये कि मैं जल्दी ही इस संसारके पार हो जाऊँ / ' यहाँ भक्त-द्वारा सन्तके विषयमें जो कुछ कहा गया हैं वैसा उस सन्तने स्वेच्छासे कुछ भी नहीं किया / उसने तो भक्तके भोजनादिकी व्यवस्थाके लिये किसीको संकेत तक भी नहीं किया और न अपने भोजनमेसे कभी कोई ग्रास ही उठा कर उसे दिया है; फिर भी उसके भोजनादिकी सब व्यवस्था हो गई। दूसरे भक्तजन स्वयं ही विना किसीकी प्रेरणाके उसके भोजनादिकी सुव्यवस्था करनेमे प्रवृत्त हो गये और वैसा करके अपना अहोभाग्य समझने लगे / इसी तरह सन्तन उस भक्तको लक्ष्य करके कभी कोई खास उपदेश भी नहीं दिया,फिर भी वह भक्त उस सन्तकी दिनचर्या और अवाग्विसर्ग ( मौनोपदशरूप) मुख-मुद्रादिकपरसे स्वयं ही उपदेश ग्रहण करता रहा और प्रबोधको प्राप्त हो गया / परन्तु यह सबकुछ घटित होनेमे उस सन्त पुरुपका व्यक्तित्व ही प्रधान निमित्त कारण रहा हैभले ही वह कितना ही उदासीन क्यों न हो / इसीस भक्त-द्वारा उसका सारा श्रेय उक्त सन्तपुरुषको ही दिया गया है। इन सब उदाहरणोंपरमे यह बात सहज ही समझमें पाजाती है कि किसी कार्यका कर्ता या कारण होने के लिये यह लाजिमी ( अनिवार्य ) अथवा जरूरी नहीं है कि उसके साथमे इच्छा, बुद्धि तथा प्रेरणादिक भी हो, वह उनके विना भी हो सकता है और होता है / माथ ही, यह भी स्पष्ट हो जाता है कि किसी वस्तुको अपने हाथसे उठाकर देने या किसीको उसके देने की प्रेरणा करके अथवा आदेश देकर दिला देनेसे ही कोई मनुष्य दाता नहीं होता बल्कि ऐसा न करते हुए भी दाता होता है, जब कि उसके निमित्तसे, प्रभावसे, प्राश्रयमें रहनेसे, सम्पर्कमें पानेसे, कारणका कारण बनने से कोई वस्तु किसीको प्राप्त हो जाती है। ऐसी स्थितिमें परमवीतराग श्रीमहन्तादिदेवोंमें कर्तृत्वादि-विषयका प्रारोप व्यर्थ नहीं कहा जा सकता-भले ही वे अपने हाथसे सीधा ( direct) किसी का कोई कार्य न करते हों, मोहनीय कर्म के प्रभावसे उनमें इच्छाका प्रस्तित्व तक न हो और न किसीको उस कार्यकी प्रेरणा या पाशा देना ही उनसे बनता Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रकी स्तुतिविद्या 351 हो / क्योंकि उनके पुण्यस्मरण, चिन्तन, पूजन, कीर्तन, स्तवन और आराधनसे जब पापकर्मोका नाश होता है, पुण्यकी वृद्धि और प्रात्माकी विशुद्धि होती हैजैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चुका है-तब फिर कौन कार्य है जो अटका रह जाय * ? सभी कार्य सिद्धिको प्राप्त होते हैं, भक्त जनोंकी मनोकामनाएं पूरी होती है, और इसलिये उन्हें यही कहना पड़ता है कि 'हे भगवन् आपके प्रसादसे मेरा यह कार्य सिद्ध हो गया; जैसे कि रसायनके प्रसादसे प्रारोग्यका प्राप्त होना कहा जाता है / रसायन-औषधि जिस प्रकार अपना सेवन करनेवालेपर प्रसन्न नहीं होती और न इच्छापूर्वक उसका कोई कार्य ही सिद्ध करती है उसी तरह वीतराग भगवान् भी अपने सेवकपर प्रसन्न नहीं होते और न प्रसन्नताके फलस्वरूप इच्छापूर्वक उसका कोई कार्य सिद्ध करनेका प्रयत्न हो करते है। प्रसन्नतापूर्वक मेवन-पाराधनके कारण ही दोनोंमें-रसायन और वीतरागदेवमें - प्रसनन्ताका आरोप किया जाता है और यह अलंकृत भाषाका कथन है / अन्यथा, दोनोंका कार्य वस्तुस्वभावके वशवर्ती, संयोगोंकी अनुकूलताको लिये हुए, स्वतः होता है-उसमें किसीकी इच्छा अथवा प्रसन्नतादिकी कोई बात नहीं है / यहाँ पर कर्मसिद्धान्तकी दृष्टिसे एक बाप्त और प्रकट कर देनेकी है और वह यह कि, संसारी जीव मनसे वचनसे या कायसे जो क्रिया करता है उसमे प्रान्मामें कम्पन (हलन-चलन ) होकर द्रव्यकर्मरूप परिणत हुए पुद्गल परमारगुभोंका आत्म-प्रवेश होता है, जिसे 'मानव' कहते हैं / मन-वचन-काय की यह क्रिया यदि शुभ होती है तो उससे शुभकर्मका और अशुभ होती है तो अशुभ कर्मका प्रास्रक होता है। तदनुसार ही बन्ध होता है / इस तरह कर्म शुभअगुभके भेदमे दो भागोंमें बंटा रहता है। शुभकार्य करनेकी जिसमें प्रकृति होती है उसे शुभकर्म प्रथवा पुण्यप्रकृति पौर अशुभ कार्य करनेकी जिसमें प्रकृति होतो है उसे प्रशुभकर्म अथवा पापप्रकृति कहते हैं / शुभाऽशुभ-भावोंकी तर ममता पौर कषायादि परिणामोंकी तीव्रता-मन्दतादिके कारण इन कर्मप्रकृतियों में बगबर परिवर्तन, ( उलटफेर ) अथवा संक्रमण हुमा करता है / जिस - 'पुण्यप्रभावात् किं किं न भवति'-'पुण्यके प्रभावसे क्या-क्या नहीं होता' मी लोकोक्ति भी प्रसिद्ध है। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश समय जिस प्रकारको कर्मप्रकृतियोंके उदयका प्राबल्य होता है उस समय कार्य प्रायः उन्हींके अनुरूप निष्पन्न होता है / वीतरागदेवकी उपासनाके समय उनके पुण्यगुणोंका प्रेमपूर्वक स्मरण एवं चिन्तन करने और उनमें अनुराग बढ़ानेसे शुभभावों (कुशलपरिणामों की उत्पत्ति होती है, जिससे इस मनुष्यकी पापपरिणति झूटती मोर पुण्य-परिणति उसका स्थान लेती है। नतीजा इसका यह होता है कि हमारी पापप्रकृतियोंका रस ( अनुभाग) सूखता पौर पुण्यप्रकृतियोंका रस बढ़ता है। पापप्रकृतियोंका रस सूखने पोर पुण्यप्रकृतियोंमें रस बढ़नेसे 'अन्तरायकर्म' नामकी प्रकृति, जो कि एक मूल पापप्रकृति है और हमारे दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य (शक्ति-बल) में विघ्नरूप रहा करती है उन्हें होने नहीं देती-यह भग्नरस होकर निर्बल पड़ जाती है और हमारे इष्ट कार्यको बाधा पहुंचानेमें समर्थ नहीं रहती / तब हमारे बहुतसे लौकिक प्रयोजन अनायास ही सिद्ध हो जाते है, विगड़े हुए काम भी सुधर जाते हैं मोर उन सबका श्रेय उक्त उपासनाको ही प्राप्त होता है। इसीसे स्तुति-बन्दनादिको इष्टफलकी दाता कहा है; जैसा कि तत्त्वार्थश्लोकवातिकादिमें उद्धृत एक प्राचार्यमहोदयके निम्न वाक्यसे प्रकट है " नेष्टं विहन्तु शुभभाव-मग्न-रसप्रकर्षः प्रभुरन्तरायः / ___ तत्कामचारेण गुणानुरागान्नुत्यादिरिष्टाथकदाईदादेः।।" जब भले प्रकार सम्पन्न हुए स्तुति-वन्दनादि कार्य इष्ट-फलको देनेवाले है और वीतरागदेवमें कर्तृत्व-विषयका मारोप सर्वथा असंगत तथा व्यर्थ नहीं है बल्कि ऊपरके निर्देशानुसार संगत पौर सुषटित है-वे स्वेच्या-बुद्धि-प्रयत्नादिकी दृष्टिसे कर्ता न होते दुए भी निमित्तादिकी दृष्टिसे कर्ता जरूर है और इस. लिये उनके विषयमें प्रकापनका सर्वथा एकान्त पक्ष घटित नहीं होता; तब उनसे तद्विषयक प्रथवा ऐसी प्रार्थनामोंका किया जाना भी असंगत नही कहा जा सकता जो उनके सम्पर्क तथा शरणमें मानेसे स्वयं सफल हो जाती है मषवा उपासना एवं भक्ति के द्वारा सहज-साध्य होती है। बास्तबमें परमवीतरागदेवसे प्राधना एक प्रकारकी भावना है अपना यों कहिये कि प्रकारकी भाषामें देवके समक्ष अपनी मनःकामनाको व्यक करके यह प्रकट करना है कि में प्रापके परण Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 353 समन्तभद्रकी स्तुतिविद्या शरणमें रहकर मोर उससे पदार्थपाठ लेकर भात्मशक्तिको जागृत एवं विकसित करता हुमा अपनी उस इच्छाको पूरा करने में समर्थ होना चाहता हूँ।' उसका यह प्राशय कदापि नहीं होता कि, 'हे वीतराग देव ! पाप अपने हाथ-पर हिलाकर मेरा मसुक काम करदो, अपनी जबान चलाकर या अपनी इच्छाशक्ति. को काममें लाकर मेरे कार्यके लिये किसीको प्रेरणा कर दो, आदेश दे दो अथवा सिफ़ारिश कर दो; मेरा प्रज्ञान दूर करनेके लिये अपना ज्ञान या उसका एक टुकड़ा तोड़कर मुझे दे दो; मैं दुखी हूँ, मेरा दुख प्राप ले लो और मुझे अपना सुख दे दो; मैं पापी हूँ, मेरा पाप माप अपने सिरपर उठालो-स्वयं उसके जिम्मेदार बन जाप्रो-पौर मुझे निष्पाप बना दो।' ऐसा प्राशय असम्भाव्यको सम्भाव्य बनाने जमा है और देवके स्वरूपसे अनभिज्ञता व्यक्त करता है। ग्रन्थकारमहोदय देवरूपके पूर्णपरीक्षक और बहुविज्ञ थे। उन्होंने अपने स्तुत्यदेवके लिये जिन विशेषरगपदों तथा सम्बोधनपदोंका प्रयोग किया है और अपने तथा दूसरोंके लिये जैसी कुछ प्रार्थनाएँ की है उनमें असम्भाव्य-जैमी कोई बात नहीं है- सब जंचे तुले शब्दों में देव गुणों के अनुरूप, स्वाभाविक, सुसंभाव्य, युक्तिसंगत और मुसंघटित है / उनसे देवके गुणोंका बहुत बड़ा परिचय मिलता है और देवकी साकार मूर्ति सामने आ जाती है / एमी ही मूर्तिको अपने हृदय-पटलपर अंकित करके ग्रन्थकारमहोदय उसका ध्यान, भजन तथा पाराधन किया करते थे; जैसा कि उनके "स्वचित्तपटयालिख्य जिनं चारु भजत्ययम" (१०१)इम व क्यमे जाना जाता है / मैं चाहता था कि उन विशेषगादिपदों तथा प्रार्थनामोंका दिग्दर्शन कराते हुए यहां उनपर कुछ विशेष प्रकाश डालू और इसके लिये मैने उनकी एक सूची भी तय्यार की थी; परन्तु यह कृति धारणासे अधिक लम्बी होती चली जाती है अत: उस विचारको यहाँ छोड़ना ही इष्ट जान पड़ता है / मैं समझता हूँ ऊपर इस विषयमें जो कुछ लिखा गया है उसपरसे सहृदय पाठक स्वयं ही उन सबका सामंजस्य स्थापित करने में ममर्थ हो सकेगे। वोरसेवामन्दिरमे प्रकाशित ग्रंथके हिन्दी अनुवादमें कही-कहीं कुछ बातोंका स्पष्टीकरण किया गया है, जहाँ नही किया गया और सामान्यत: पदोंका अनुवाद मात्र दे दिया गया है वहाँ भी अन्यत्र कथनके अनुरूप उसका प्राशय समझना चाहिये। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 354 जैनसाहित्य और इतिहसपर विशन प्रकाश ग्रन्थटीका और टीकाकार इस ग्रन्थरत्नपर वर्तमानमें एक ही संस्कृत टीका उपलब्ध है, जिसके कर्ताका विषय कुछ जटिलसा हो रहा है / माम-तौरपर इस टीकाके कर्ता नरसिंह नामके कोई महाकवि समझे जाते है, जिनका विशेष परिचय अज्ञात है, और उसका कारण प्रायः यही जान पड़ता है कि अनेक हस्तलिखित प्रतियोंके अन्तमें इस टीकाको 'श्रीनरसिंहमहाकविभन्योत्तमविरचिता' लिखा है। स्व. पं० पन्नालालजी बाकलीवालने इस ग्रन्थका 'जिनशनक' नामसे जो पहला संस्करण सन् 1912 में जयपुरकी एक ही प्रतिके प्राधारपर प्रकट किया था उसके टाइटिलपेजपर नरसिंह के साथ 'भट्ट' शब्द और जोड़कर इपे 'नरसिंहभट्टकृतव्याख्या' बना दिया था और तबो यह टीका नरसिंह भट्टकृत समभी जाने लगी है। परन्तु 'भट्ट' विशेषण की जयपकी किसी प्रतिमें तथा देहली धर्मपुराके नयामन्दिरकी प्रतिमें भी उपलब्धि नहीं हुई और इसलिये नरसिंहका यह 'भट्ट' विशेषगा तो व्यर्थ ही जान पडता है / अब देखना यह है कि इस टीकाके का वास्तव में न मिह ही हैं या कोई दूसरे विद्वान् / ___ श्री पं० नाथूरामजी प्रेमीने अपने 'जनसाहित्य और इतिहास' नामक ग्रन्थके ३२वें प्रकरण में इस चर्चाको उठाया है और टीकाके प्रारम्भमें दिये हुए सात पद्योंकी स्थिति और अर्थ पर विचार करते हा पपना जो मत व्यक्त किया है उसका सार इस प्रकार है बाबा दुलीचन्दजी जयपुर के शास्त्रभण्डारकी प्रति नं० 216 पौर 266 के अन्त में लिखा है-'इति कविगमकवादिवाग्मित्वगुणालंकृतस्य श्रीसमनभद्र. स्य कृतिरियं जिनशतालंकारनाम समाप्ता | टीका श्रीनरसिंहमहाकविभव्योतमविरचिता समाप्ता / / + बाबा दुलीचन्दजी जयपुरके भंडारकी मूल ग्रन्थकी दो प्रतियों नं०४१५, 454 में भी ये सातों पद्य दिये हुए हैं, जो कि लेखकोंकी असावधानी और नासमझीका परिणाम है; क्योंकि मूलकृतिके ये पद्य कोई अंग नहीं है। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'समन्तभद्रकी स्तुतिविद्या (1) इस टीकाके कर्ता 'नरसिंह' नहीं किन्तु 'वसुनन्दि' जान पड़ते है अन्यथा ६ठे पद्यमें प्रयुक्त 'कुरुते वसुनन्द्यपि' वाक्यकी संगति नहीं बैठती। (2) एक तो नरसिंहकी सहायतासे और दूसरे स्वयं स्तुतिविद्याके प्रभावसे वसुनन्दि इम टीकाको बनानेमें समर्थ हुए। (3) पद्योंका ठीक अभिप्राय समझमें न पानेके कारण ही भाषाकार (पं० लालाराम) ने इस वृत्तिको अपनी कल्पनासे 'भव्योतमनरसिंहभट्टकृत' छपा दिया। इस मत की तीसरी बातमें तो कुछ तथ्य मालूम नही होता; क्योंकि हस्तलिखित प्रतियों में टीकाको भव्योतमनरसिंहकृत लिखा ही है और इसलिये 'भट्ट विशेषणको छोड़कर वह भाषाकारकी कोई निजी कल्पना नहीं है। दूसरी बातका यह अंग ठीक नहीं जंचता कि वमुनन्दिने नरसिंहकी सहायतासे टीका बनाई; क्योंकि नरसिंहके लिये परोक्षभूतकी क्रिया 'बभूव' का प्रयोग किया गया है, जिसमे मालूम होता है कि वमुनन्दिके समय में उसका अस्तित्व नहीं था / अब रही पहनी बात, वह प्रायः ठीक जान पड़ती है। क्योंकि टीकाके नरसिंहकृत होनेमे उसमें छठे पद्यकी ही नहीं किन्तु चौये पद्यकी भी स्थिति ठीक नही बैठती / ये दोनों पद्य प्राने मध्यवर्ती पद्यसहित निम्न प्रकार है: तस्याः प्रबोधकः कश्चिन्नास्तीति विदुपां मतिः / यावत्तावबभूवैको नरसिंहो विभाकरः / / 4 / / दुर्गमं दुर्गमं काव्यं श्रूयते महतां वचः। नरसिंह पुनः प्राप्तं सुगम सुगमं भवेत् // 5 // स्तुतिविद्यां ममाश्रित्य कस्य न क्रमते मतिः ! तवृत्ति येन जाड्य तु कुरुते वसुनन्द्यपि // 6 // यहां ४थे पद्यमें यह बतलाया है कि 'जब तक एक नरसिंह नामका सूर्य उस भूतकालमें उदित नहीं हना था जो अपने लिये परोक्ष है, तब तक विद्वानोंका यह मत था कि ममन्तभद्रकी 'स्तुतिविद्या' नामकी सुपमिनीका कोई प्रबोधकउसके अर्थको खोलने-खिलाने वाला नहीं है।' इस वाक्यका, जो परोअभूतके क्रियापद 'बभव' को साथ में लिये हुए है, उस नरसिंहके द्वारा कहा जाना नहीं Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश बनता जो स्वयं टीकाकार हो / पांचवें पचमें यह प्रकट किया गया है कि 'महान् पुरुषोंका ऐसा वचन सुना जाता है कि नरसिंहको प्रास हुमा दुर्गमसे दुर्गम काव्य भी सुगमसे सुगम हो जाता है। इसमें कुछ बड़ोंकी नरसिंहके विषयमें काव्यमर्मज्ञ होने विषयक सम्मतिका उल्लेखमात्र है और इसलिये यह पच नरसिंहके समयका स्वयं उसके द्वारा उक्त तपा उसके बादका भी हो सकता है। शेष छठे पद्यमें स्पष्ट लिखा ही है कि स्तुतिविद्याको समाधित करके किसकी बुद्धि नहीं चलती ? -जरूर चलती और प्रगति करती है। यही वजह है कि जडमति होते हुए वसुनन्दी भी उस स्तुतिविद्याकी वृत्ति कर रहा ऐसी स्थिति में यही कहना पड़ता है कि यह वृत्ति (टीका ) वसुनन्दीकी कृति है-नरसिंहको नहीं / नरसिंहको वृत्ति वसुनन्दीके सामने भी मालूम नहीं होती, इसलिये प्रस्तुत वृत्तिमें उसका कही कोई उल्लेख नहीं मिलता। जान पड़ता है वह उस समय तक नष्ट हो चुकी थी और उसकी 'किंवदन्ती' मात्र रह गई थी / प्रस्तु; इस वृत्तिके कर्ता वसुनन्दी संभवतः वे ही वसुनन्दी आचार्य जान पड़ते हैं जो देवागमवृत्तिके कर्ता है; क्योंकि वहां भी 'वसुनन्दिना जडमतिना' जैसे शब्दोंद्वारा वसुनन्दीने अपने को 'जडमति' सूचित किया दोनों वृत्तियोंका ढंग भी समान है-दोनोंमें पद्योंके पदक्रममे अर्थ दिया गया है और 'किमुक्तं भवति', 'एतदुक्तं भवति'-जैसे वाक्योंके साथ अर्थका समुच्चय अथवा सारसंग्रह भी यथारुचि किया गया है / हाँ, प्रस्तुत वृत्तिके अन्तमें समाप्ति-मूचक वैसे कोई गद्यात्मक या पद्यात्मक वाक्य नहीं है जैसे कि देवागमवृत्तिके अन्तमें पाये जाते हैं / यदि वे होते तो एकको वृतिको दूसरेकी वृत्ति समझ लेने-जैसी गड़बड़ ही न हो पाती / बहुत संभव है कि वृत्तिके मन्तमें कोई प्रशस्ति-पद्य रहा हो और वह किसी कारणवश प्रति-लेखकोंसे छूट गया हो; जैसा कि अन्य अनेक ग्रन्थोंकी प्रतियोमें हुमा है और खोजसे जाना गया है / उसके छूट जाने अथवा खण्डित होजानेके कारण ही किसीने उस पुष्पिकाकी कल्पना की हो जो प्राधुनिक (100 वर्षके भीतरकी) कुछ प्रतियोंमें पाई जाती है / इस ग्रन्थकी अभी तक कोई प्राचीन प्रति सामने नहीं माई / प्रतः Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तमद्रकी स्तुतिवधिा प्राचीन प्रतियोंकी खोज होनी चाहिये, तभी दोनों वृत्तियोंका यह सारा विषय स्पष्ट हो सकेगा। ___ यह टीका यद्यपि साधारण प्राय: पदोंके अर्थबोधके रूपमें है-किसी विषयके विशेष व्याख्यानको साथमें लिये हुए नहीं है फिर भी मूल ग्रन्थमें प्रवेश पानेके इच्छुकों एवं विद्यार्थियोंके लिये बड़ी ही काम की चीज है। इसके सहारे ग्रन्थ-पदोंके सामान्यार्थ तक गति होकर उसके भीतर (अन्तरंगमें) संनिहित विशेषार्थको जाननेकी प्रवृत्ति हो सकती है मौर वह प्रयत्न करनेपर जाना तथा अनुभवमें लाया जा सकता है। अन्यका सामान्यार्थ भी उतना ही नहीं है जितना कि वृत्तिमें दिया हमा है, बल्कि कहीं कहीं उससे अधिक भी होना संभव है; जैसाकि अनुवादक साहित्याचार्य पं०पन्नालालजीके उन टिप्पणोंमे जाना जाता है जिन्हें पद्य नं. 53 और 87 के सम्बन्धमें दिया है / हो सकता है कि इस ग्रन्थपर कवि नरसिंहकी कोई वृहत् टोका रही हो और अजितसेनाचार्यने अपने प्रलंकार-चिन्तामणि ग्रन्थमें, ५३वें पद्यको उद्धृत करते हुए, उसके विषयका स्पष्टीकरण करनेवाले जिन तीन पद्योंको साथ दिया है वे उक्त टीकाके ही मंश हो / यदि ऐसा हो तो उस टीकाको पद्यात्मक अथवा गद्य-पद्यात्मक समझना चाहिये / ____ अलंकारचिन्तामणि ग्रंथ इस समय मेरे सामने नहीं है / देहलीमें खोजने पर भी उसकी कोई प्रति नहीं मिल सकी इसीसे इस विषयका कोई विशेष विचार यहाँ प्रस्तुत नहीं किया जा सका। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 समन्तभद्रका स्वयम्भस्तोत्र ग्रन्थ-नाम इस ग्रन्थका सुप्रसिद्ध नाम 'स्वयम्भूस्तोत्र' हैं / 'स्वयम्भूशब्दसे यह प्रारम्भ होता है, जिसका तृतीयान्तपद 'स्वयम्भुवा' पादिमें प्रयुक्त हुआ है / प्रारम्भिक शब्दानुसार स्तोत्रोंका नाम रखने की परिपाटी बहुत कुछ रूट है / देवागम, सिद्धिप्रिय, भक्तामर, कल्याणमन्दिर और एकीभाव जैसे स्तोत्र-नाम इसके ज्वलन्त उदाहरण है-ये सब अपने अपने नामके शब्दमे ही प्रारम्भ होते हैं। इस तरह प्रारम्भिक शब्दकी दृष्टि से 'स्वयम्भूस्तोत्र' यह नाम जहां सुघटित है वहाँ स्तुति-पात्रकी दृष्टिमे भी यह मुघटित है; क्योंकि इसमें स्वयम्भुवोंकीस्वयम्भू-पदको प्राप्त चतुर्विशति जैनतीथंकरोंकी-स्तुति की गई है। दूसरोंके उपदेश-विना ही जो स्वयं मोक्षमार्गको जानकर और उमका अनुष्ठान करके अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्त सुख और अनन्तवीर्यम्प प्रात्मविकामको प्राप्त होता है उसे 'स्वयम्भू' कहते है / वृषभादिवीरपर्यन्न चौबीम जननीर्थङ्कर ऐसे अनन्तचतुष्टयादिरूप आत्मविकासको प्राप्त हुए है, स्वयम्भू-पदके स्वामी है और इसलिये उन स्तुत्योंका यह स्तोत्र 'स्वयम्भूस्तोत्र' इम मार्थक संजाको भी प्राप्त है। इसी दृष्टिसे चतुर्विशति-जिनकी स्तुतिरूप एक दूमग म्तोत्र भी, जो 'स्वयम्भू' शब्दसे प्रारम्भ न हो कर 'येत स्वयं बोधमयेन' जैसे शब्दोंसे प्रारम्भ होता है, 'स्वयम्भूस्तोत्र' कहलाता है। + "स्वयं परोपदेशमन्तरेण मोक्षमार्गमवबुद्धध अनुष्ठाय वाऽनन्तचतुष्टयतया भवतीति स्वयम्भूः।"-प्रमाचन्द्राचार्य: Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 356 समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र ___ग्रन्थकी अनेक प्रतियों में इस ग्रन्थका दूसरा नाम 'समन्तभद्रस्तोत्र' भी पाया जाता है ! अकेले जैनसिद्धान्त-भवन पारामें ऐसी कई प्रतियां है / दूसरे भी शास्त्रभंडारोंमें ऐसी प्रतियां पाई जाती है / जिस समय सूचियोंपरसे 'समन्तभद्रस्तोत्र' यह नाम मेरे सामने आया तो मुझे उसी वक्त यह खयाल उत्पन्न हुअा कि यह गालबन समन्तभद्रकी स्तुतिमे लिखा गया कोई अन्य है मौर इसलिये उसे देखनेको इच्छा तीव्र हो उठी / मंगानेके लिये लिखा पढ़ी करने पर मालूम हुमा कि यह समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र ही है-दूसरा कोई प्रन्थ नहीं, और इसलिये 'समन्तभद्रस्तोत्र' को समन्तभद्र-कृत स्तोत्र माननेके लिये वाध्य होना पड़ा। एसा मानने में स्तोत्रका कोई मूल विशेपरण नहीं रहता / परन्तु समन्तभद्रकृत स्तोत्र तो पीर भी है उनमेसे किसीको 'समन्तभद्रस्तोत्र' क्यों नहीं लिखा और इसी को कों लिखा ? इममें लेखकोंकी गलती है या अन्य कुछ, यह बात विचारणीय है। इस सम्बन्धमे यहां एक बात प्रकट कर देने की पोर है वह यह कि स्वामी समन्तभद्र के ग्रन्थ प्राय: दो नामोको लिये हुए है; जैमे देवागमका दूसरा नाम 'प्राप्तमीमांसा', स्तुतिविद्याका दूसरा नाम "जिनगतक' और समीचीनधर्मशास्त्रका दूसरा नाम 'रत्नकरण्ड' है। इनमेंसे पहला पहला नाम ग्रन्थ के प्रारम्भमें और दूसरा दूसरा नाम ग्रन्थके अन्तिम भागमें मूचित किया गया है / युक्त्यनुशासनग्रंथ के भी दो नाम है-दूसरा नाम 'वीरजिनम्तोत्र' है, जिसकी सूचना प्रादि और अन्त के दोनों पद्योंमें की गई है। ऐसी स्थितिमे बहुत संभव है कि स्वयम्भूस्तोत्रके अन्तिम पद्य में जो 'समन्तभद्रं' पद प्रयुक्त हुप्रा है उसके द्वारा स्वयम्भूस्तोत्रका दूसरा नाम 'ममन्तभद्रस्तोत्र' मूचित किया गया हो। 'समन्तभद्रं पद वहां वीरजिनेन्द्र के. मत-शामन के विशेषणरूपमे स्थित है और उसका अर्थ है सब मोरमे भदरूप -- यथार्थता, निर्बाधता और परहित-प्रतिपादननादि गुणोंकी शोभासे सम्पन्न एवं जगतके लिये कल्याणकारी'। यह स्तोत्र वीरके शासनका प्रतिनिधित्व करता है-उसके स्वरूपका निदर्शक है-पौर सब पोरसे भद्ररूप है अत: इसका 'समन्तभद्रस्तोत्र' यह नाम भी सार्थक जान पड़ता है, जो समन्तात् भद्रं इस पदच्छेदकी दृष्टिको लिये हुए है और उसमे श्लेषालंकारसे ग्रन्थकारका नाम भी उसी तरह समाविष्ट हो जाता है जिस तरह कि वह उक्त Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 जैनसाहित्य और इतिहासपर विराद प्रकाश 'समन्तभद्र' पद में संनिहित है / पोर इसलिये इस द्विवीय नामोल्लेखममें लेखकोंकी कोई कर्तृत या गलती प्रतीत नहीं होती। यह नाम भी प्रायः पहलेसे ही इस ग्रन्थको दिया हुआ जान पड़ता है। ग्रन्थका सामान्य परिचय और महत्व स्वामी समन्तभद्रकी यह 'स्वयम्भूस्तोत्र' कृति समन्तभद्रभारतीका एक प्रमुख अंग है और बड़ी ही हृदय-हारिणी एवं प्रपूर्वरचना है / कहनेके लिये यह एक स्तोत्रग्रंथ है-स्तोत्रकीपद्धतिको लिये हए है और इसमें वपभादि चौवीस जिनदेवोंकी स्तुति की गई है; परन्तु यह कोरा स्तोत्र नहीं, इममें स्तुतिके बहाने जैनागमका सार एवं तत्त्वज्ञान कूट कूट कर भरा हमा है / इसीसे टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द्र ने इसे 'निःशेष-जिनोक्त-धर्म-विषय.' ऐपा विशेषण दिया है और 'स्तवोऽयमसमः' पदोंके द्वारा इसे अपना सानी (जोड़ा) न रखनेवाला अद्वितीय स्तवन प्रकट किया है। साथ ही, इसके पदोंको 'मूक्तार्थ', 'अमल', 'स्वल्प' और 'प्रसन्न विशेषण देखकर यह बतलाया है कि 'हे मूतहमें ठीक प्रयंका प्रतिपादा करनेवाले है, निर्दोष हैं, अल्पाक्षर हैं और प्रसादगुण-विशिष्ट है / सचमुच इस स्तोत्र का एक एक पद प्राय: बीजपतजैसा मूत्रवाक्य हैं, और इसलिये इसे 'जैनमार्गप्रदीप' ही नहीं किन्तु एकप्रकारसे जैनागम' कहना चाहिये / प्रागम ( श्रुति ) रूपसे इसके वाक्योंका उल्लेख मिला भी है। इतना ही नही, स्वयं ग्रन्थकारमहोदयने 'त्वयि वरदाऽगम. + "मूक्तार्थे रमलः स्तवोऽयसमः स्वल्पः प्रमन्न: पदैः।' जैसा कि कवि वाग्भटके काव्यानुशासनमें पीर जटासिंहनन्दी प्राचार्य के वरांगचरितमें पाये जानेवाले निम्न उल्लेखोंसे प्रकट है (क) प्रागमं प्राप्तवचनं यथा'प्रजापतियः प्रति(य)मं जिजीविषूः शशास कृष्यादिमु कर्मसु प्रजाः / प्रबुद्धतत्त्वः पुनरगुतोदयो ममत्वतो निर्विवदे विदविरः।।" [स्व. 2] -काव्यानुशासन Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 361 समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र दृष्टिरूपतः गुणकुशमपि किञ्चनोदितं' (105) इस वाक्यके द्वारा ग्रन्थके कथनको प्रागमहष्टिके अनुरूप बतलाया है / इसके सिवाय, अपने दूसरे ग्रन्थ युक्त्यनुशासनमें 'दृष्टाऽगमाभ्यामविरुद्धमर्थप्ररूपणं युक्त्यनुशासनं ते' इस वाक्यके द्वारा युक्त्यनुशामन (युक्तिवचन) का लक्षण व्यक्त करते हुए यह बतलाया है कि 'प्रत्यक्ष प्रौर मागमसे पविरोधरूप-प्रबाधित-विपय-स्वरूप-अर्थका जो पर्थ से प्ररूपण है-अन्यथानुपपत्येकलक्षण साधनरूप अर्थसे साध्यरूप अर्थका प्रतिपादन है-उसे 'युक्त्यनुशासन' कहते हैं और वही (हे वीरभगवन् ! ) मापको अभिमत है'। इससे साफ़ जाना जाता है कि स्वयम्भूस्तोत्रमें जो कुछ युक्तिवाद है और उसके द्वारा अर्थका जो प्ररूपण किया गया है वह सब जैनागमके अनुकूल है / जैनागमके अनुकूल होनेमे पागमकी प्रतिष्ठाको प्राप्त है / और इस तरह यह अन्य भागमके-प्राप्तवचनके-तुल्य मान्यताकी कोटिमें स्थित है / वस्तुनः समन्तभद्र महान के वचनोंका ऐसा ही महत्व है। इसीसे उनके 'जीवमिद्धि' और 'युक्त्यनुशासन' जैसे कुछ ग्रन्थोंका नामोल्लेख साथमें करते हा विक्रमकी हवीं शताब्दीके प्राचार्य जिनसेनने, अपने हरिवंशपुराणमें, ससन्त भद्रके वचनको श्रीवीरभगवानके वचन (प्रागम) के समान प्रकाशमान एवं प्रभावादिकमे युक्त बतलाया है / और ७वीं शताब्दीके प्रकलंकदेव-जैसे महान विद्वान् प्राचार्यने, देवागमका भाष्य लिखते समय, यह स्पष्ट घोषित किया है कि 'समन्तभद्रके वचनोम उस स्याद्वादरूपी पुण्योदधितीर्थका प्रभाव कलिकाल में भी भव्यजीवोके प्रान्तरिक मलको दूर करनेके लिये सर्वत्र व्याप्त (ख) अनेकान्तोऽपि चैकान्त: स्यादित्येवं वदेत्परः / __ "मनेकान्तोऽप्यनेकान्त" [स्व० 103] इति जनी श्रुतिः स्मृता / -वरांगचरित इस पद्यमें स्वयम्भूस्तोत्रके "अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः' इस वाक्यको उद्धत करते हुए उसे 'जनी श्रुतिः' अर्थात् जैनागमका वाक्य बतलाया है / ॐ जीवसिद्धि-विधायीह कृत-युक्त्यनुशासनं / वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विजृम्भते // --हरिवंशपुराण Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश हुमा है, जो सर्व पदाथों पौर तत्वोंको अपना विषय किये हुए है / इसके सिवाय, समन्तभद्रभारतीके स्तोता कवि नागराजने सारी ही. ममन्तभद्रवारपीके लिये 'वर्द्धमानदेव-बोध-बुद्ध-चिद्विलासिनी' और 'इन्द्रभूति-भाषित-प्रमेयजालगोचरा' जैसे विशेषणोंका प्रयोग करके यह सूचित किया है कि समन्तभद्रकी वाणी श्रीवर्धमानदेवके बोधसे प्रबुद्ध हुए चंतन्यके विलासको लिये हुए है और उसका विषय वह सारा पदार्थसमूह है जो इन्द्रभूति (गौतम) गणधरके द्वारा प्रभाषित हुआ है-द्वादशांगश्रुतके रूप में गूथा गया है / प्रस्तु। इस ग्रन्थमें भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोगकी जो निर्मल गंगा अथवा त्रिवेणी बहाई है उसमें अवगाहन-स्नान किए ही बनता है और उस अवगाहनसे जो शान्ति-सुख मिलता अथवा ज्ञानानन्दका लाभ होता है उसका कुछ पार नहीं-वह प्रायः अनिर्वचनीय है। इन तीनों योगों का अलग अलग विशेष परिचय आगे कराया जायगा। इस स्तोत्रमें 24 स्तवन है और वे भरतक्षेत्र सम्बन्धी वतमान अवपिणीकालमें अवतीर्ण हुए 24 जैन तीर्थंकरोंफी अलग घलग स्तुतिको लिये हुए है। स्तुति-पद्योंकी संख्या सब स्तवनोंमें ममान नहीं है। 18 वे स्तवनकी पद्य संख्या 20, 22 वें की 10 और 24 वे की पाठ है, जब कि होप 21 स्तवनामेमे प्रत्येक की पद्यसंम्या पांच पांचके रूपमे समान है। और इस तरह ग्रन्थके पद्योंकी कुल संख्या 143 है। ये सब पद्य अथवा स्नबन एक ही छन्दमें नहीं किन्नु भिन्न भिन्न रूपमे तेरह प्रकार के छन्दोंमें निर्मित हुए है, जिनके नाम हैवंशस्थ, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रव ना, उप जानि, रथोद्धना, वमन्ततिलका, पथ्यावश्य अमुष्टुप, मुभद्रामालती-मिश्र-यमक, वानवासिका, वैतालीय, शिखरगी, उद्गता प्रार्यागीति (स्कन्धक ) / कहीं कहीं एक स्तवनमें एकमे अधिक छन्दों का भी प्रयोग किया गया है। किम स्तवनका कोनसा पद्य किस छन्द में रचा गया है + तीर्थ सर्वपदार्थ-तत्त्व-विषय-स्याद्वाद-पुण्योदघे. भंव्यानामकलंकभावकृतये प्रामावि काले कली। येनाचार्य-समन्तभद्र-यतिना तस्मै नमः सन्ततं कृत्वा विवियते स्तवो भगवतां देवागमस्तस्कृतिः ।।-प्रष्टशती Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र 363 पौर उस छन्दका क्या लक्षण है, इसकी सूचना 'स्तवन-छन्द सूची' नामके एक परिशिष्टमें कर दी गई है, जिससे पाठकोंको इस ग्रन्थके छन्द-विषयका ठीक परिशान हो सके। * स्तवनोंमें स्तुतिगोचर-तीर्थकरोंके जो नाम दिये है वे सब क्रमश: इस प्रकार है 1 वृषभ, 2 प्रजित, 3 शम्भव, 4 अभिनन्दन, 5 सुमति, 6 पमप्रभ, 7 सुपार्श्व, 8 चन्द्रप्रभ, 6 सुविधि, 10 शीतल, 11 श्रेयांस, 12 वासुपूज्य, 13 विमल, 14 अनन्तजित्, 15 धर्म, 16 शान्ति, 17 कुन्थु, 18 अर, 16 मल्लि, 20 मुनिसुव्रत, 21 नमि, 22 अरिष्टनेमि, 23 पार्श्व, 24 वीर।। [ इनमेंसे वषभको इक्ष्वाकु-कुलका प्रादिपुरुष, अरिएनेमिको हरिवंशकेतु पोर पार्श्वको उग्रकुलाम्बरचन्द्र बतलाया है / शेष तीर्थक गेंके कुलका कोई उल्लेख नहीं किया गया है। उक्त सब नाम अन्वर्थ-संज्ञक है-नामानुकूल प्रथं विशेषको लिये हुए हैं। इनमेसे जिनकी अन्वर्थसंज्ञकता अथवा मार्थकताको स्तोत्रमें किसी-न-किसी तरह प्रकट किया गया है वे क्रमश: न० 2, 4, 5, 6, 8, 10, 11, 14, 15, 16, 17, 20 पर स्थित है / शेपमेमे कितने ही नामोंको मन्वर्थताको अनुवादमें व्यक्त किया गया है। स्तुत-तीर्थकरोंका परिचय इन तीर्थकरोंके स्तवनोंमें गुरणकीर्तनादिके साथ कुछ ऐसी बातों अथवा घटनामोंका भी उल्लेख मिलता है जो इतिहास तथा पुराणसे सम्बन्ध रखती हैं पौर स्वामी समन्तभद्र की लेखनीसे उल्लेखित होनेके कारण जिनका अपना विशेष महत्त्व है और इसलिए उनकी प्रधानताको लिये हुए यहाँ इन स्तवनोंमेंसे स्तुत-तीर्थकरोंका परिचय क्रमसे दिया जाता है: (1) वृषभजिन नाभिनन्दन ( नाभिरायके पुत्र ) थे, इक्ष्वाकुकुलके ग्रादिपुरुष ये मोर प्रथम प्रजापति थे। उन्होंने सबसे पहले प्रजाजनोंको कृष्यादिकर्मोमें सुशिक्षित किया था ( उनसे पहले यहां भोगभूमिकी प्रवृत्ति होनेसे लोग खेती-व्यापारादि करना अथवा मसि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प, Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश इन जीवनोपायरूप षट् कर्मोको नहीं जानते थे ), मुमुक्षु होकर और ममता छोड़कर वधू तथा वसुधाका त्याग करते हुए दीक्षा धारण की थी, अपने दोर्षोंके मूलकारण (घातिकर्मचतुष्क ) को अपने ही समाधितेज-द्वारा भस्म किया था (फलतः विश्वचक्षुता एवं सर्वज्ञताको प्राप्त किया था) और जगतको तत्वका उपदेश दिया था। वे सत्पुरुषोंसे पूजित होकर पन्तको ब्रह्मपदरूप प्रमृतके स्वामी बने ये भोर निरंजन पदको प्राप्त हुए थे। (2) अजितजिन देवलोकसे अवतरित हुए थे, अवतारके समयसे उनका बंधुवर्ग पृथ्वीपर अजेयशक्ति बना था / और उस बन्धुवर्गने उनका नाम 'अजित रक्खा था / आज भी (लाखों वर्ष बीत जानेपर) उनका नाम स्वसिद्धिकी कामना रखनेवालोंके द्वारा मंगलके लिये लिया जाता है। वे महामुनि बनकर तथा घनोपदेहसे (घातिया कर्मोके प्रावरणादिरूप दृढ उपलेपसे) मुक्त होकर भन्यजीवोंके हृदयोंमें संलग्न हुए कलंकों ( अज्ञानादिदोष तथा उनके कारणों) की शान्तिके लिए अपनी समर्थ-वचनादि-शक्तिकी सम्पत्तिके साथ उसी प्रकार उदयको प्राप्त हुए थे जिस प्रकार कि मेघों के प्रावरणसे मुक्त हुमा सूर्य कमलोंके अभ्युदयके लिये-उनके अन्त: अन्धकारको दूर कर उन्हें विकसित करने के लिये-अपनी प्रकाशमय समर्थशक्ति-सम्पत्तिके साथ प्रकट होता है / और उन्होंने उस महान् एवं ज्येष्ठ धर्मतीर्थका प्रणयन किया था जिसे प्राप्त होकर लौकिक जन दुःखपर विजय प्राप्त करते हैं / (3) शम्भव-जिन इस लोकमें तृष्णा-रोगोंसे संतप्त जनसमूहके लिए एक माकस्मिक वैद्यके रूपमें प्रवतीर्ण हुए थे और उन्होंने दोष-दूषित एवं प्रपीडित जगतको अपने उपदेशों-द्वारा निरंजना शान्तिकी प्राप्ति कराई थी। पापके उपदेशका कुछ नमूना दो एक पद्योंमें दिया है और फिर लिखा है कि 'उन पुण्यकीर्तिकी स्तुति करने में शक (इन्द्र ) भी असमर्थ रहा है। (4) अभिनन्दन-जिनने ( लौकिक वधूका त्याग कर ) उस दयावको अपने माश्रयमें लिया था जिसकी सखी क्षमा थी पौर समाधिकी सिद्धिके लिए बाह्याऽभ्यन्तर दोनों प्रकारके परिग्रहका त्याग कर निर्ग्रन्यताको धारण किया था। साथ ही, मिष्याभिनिवेशके वशसे नष्ट होते हुए जगतको हितका उपदेष Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र 365 देकर तत्वका ग्रहण कराया था। हितका जो उपदेश दिया गया था उसका कुछ नमूना 3-4 पद्योंमें व्यक्त किया गया है। (5) सुमति-जिनने जिस सुयुक्ति-नीत तत्त्वका प्रणयन किया है उसीका सुन्दर सार इस स्तवनमें दिया गया है। (6) पपप्रम-जिन पद्मपत्रके समान रक्तवर्णाभ शरीरके चारक थे / उनके शरीरकी किरणों के प्रसारने नरों और अमरोंसे पूर्ण सभाको व्याप्त किया था-सारी समवसरणसभामें उनके शरीरकी प्रामा फैली हुई थी। प्रजाजनोंकी विभूतिके -लिये-उनमें हेयोपादेयके विवेकको जागृत करने के लिये उन्होंने भूतलपर विहार किया था और विहारके समय ( इन्द्रादिरबिन ) महस्रदल-कमलों. के मध्यभागपर चलते हुए अपने चरण-कमलों द्वारा नभस्नलको पल्लवमय बना दिया था। उनकी स्तुतिमें इन्द्र असमर्थ रहा है। (7) मुपाश्व-जिन सर्वतत्त्वके प्रमाता ( ज्ञाता) और माताकी तरह लोकहितके अनुशास्ता थे। उन्होंने हितकी जो बातें कही है उन्होंका सार इस स्तवन में दिया गया है। (8) चन्द्रप्रभ-जिन चन्द्रकिरण-सम-गौरवणं थे, द्वितीय चन्द्रमाको समान दीप्तिमान थे। उनके शरीरके दिव्य प्रभामण्डलसे बाह्य अन्धकार और ध्यान. प्रदीपके प्रतिभयसे मानस अन्धकार दूर हुआ था। उनके प्रवचनम्प मिहनादोंको सुनकर अपने पक्षकी सुस्थितिका घमण्ड रखने वाले प्रवादिजन निर्मद हो जाते / और वे लोकमें परमेष्ठिके पदको प्राप्त हुए है। (8) सुविधि-जिन जगदीश्वरों ( इन्द्र-चक्रवादिकों) के द्वारा अभिवन्ध थे। उन्होंने जिस अनेकान्तशासनका प्रणयन किया है उसका मार पांचों पचोंमें दिया है। (10) शीतल-जिनने अपने सुखाभिलाषारूप अग्निके दाहसे मूर्छित हुए मनको कैसे मूर्छा-रहित किया और कैसे वे दिन-रात प्रात्मविशुद्धिके मार्गमें जागृत रहते थे, इन बातोंको बतलानेके वाद उनके तपस्याके उद्देश्य और व्यक्तित्वकी दूसरे तपस्वियों प्रादिसे तुलना करते हुए लिखा है कि 'इसीसे वे बुधजनश्रेष्ठ मापकी उपासना करते है जो अपने प्रात्मकल्याणकी भावनामें सत्पर है। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 366 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश (11) श्रेयो-जिनने प्रजाजनोंको श्रेयोमार्ग में अनुशासित किया था। उनके अनेकान्त-शासनकी कुछ बातोंका उल्लेख करनेके बाद लिखा है कि वे 'कैवल्यविभूतिके सम्राट् हुए हैं। (12) वासुपूज्य-जिन अभ्युदय क्रियानों के समय पूजाको प्राप्त हुए थे, त्रिदशेन्द्र-पूज्य थे और किसीकी पूजा या निन्दासे कोई प्रयोजन नहीं रखते थे। उनके शासनको कुछ बातोंका उल्लेख करके उनके बुधजन-अभिवन्ध होनेकी सार्थकताका द्योतन किया गया है। (13) विमल-जिनका शासन किस प्रकारसे नयोंकी विशेषताको लिये हए था उसका कुछ दिग्दर्शन कराते हुए लिखा है कि 'इसीसे वे अपना हित चाहने वालोंके द्वारा वन्दित थे' / कपाय नामके पीडनशील-शत्रुओंको, विशोपक कामदेवके दुरभिमानरूप अातंकको कैसे जीता और अपनी तृष्णानदीको कमे मुखाया, इत्यादि बातोंका इरा स्तवनमें उल्लेख है। (15) धर्म-जिन अनवद्य-धर्मतीर्थका प्रवर्तन करते हुए सत्पुरुपोके द्वारा 'धर्म' इम सार्थक संजाको लिए हुए माने गये है / उन्होंने तपरूप अग्नियों से अपने कर्मवनको दहन करके शाश्वत मुख प्राप्त किया है और इसलिये वे 'शङ्कर' है / वे देवों तथा मनुप्यके उत्तम समूहोंसे परिवेष्ठित तथा गणधरादि बुधजनोंमे परिचारित (मेवित) हुए (समवसरण-सभाम) उसी प्रकार शोभाको प्राप्त हुए थे जिसप्रकार कि प्राकाशमें तारकामोंमे परिवन निर्मल चन्द्रमा / प्रातिहार्यों मौर विभवोंसे विभूपित होते हुए भी वे उन्हींसे नहीं, किन्तु देहसे भी विरक्त रहे हैं / उन्होंने मनुष्यों तथा देवोंको मोक्षमार्ग सिखलाया, परन्तु शासनफलकी एषरगामे वे कभी पातुर नहीं हुए। उनके मन-वचन-कायकी प्रवृत्तियां इच्छाके बिना होते हुए भी मसमीक्ष्य नहीं होती थीं / वे मानुषी प्रकृतिका उल्लंघन कर गये थे, देवताओंके भी देवता ये मोर इसीसे 'परमदेवता'के पदको प्रात थे। (16) शान्ति-जिन शत्रुपोंसे प्रजाकी रक्षा करके अप्रतिम प्रतापके पार राजा हुए थे और भयंकर चकसे सर्वनरेन्द्र-समूहकों जीतकर चक्रवर्ती राजा Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र. 360 बने थे। उन्होंने समाधिचक्र से दुर्जय मोहचक्रको--मोहनीय कर्मके मूलोतरप्रकृति-प्रपंचको-जीता था और उसे जीतकर वे महान् उदयको प्राप्त हुए थे, पाहंन्त्यलक्ष्मीसे युक्त होकर देवों तथा असुरोंकी महती (समवरण ) सभामें सुशोभित हुए थे। उनके चक्रवर्ती राजा होने पर राजचक, मुनि होनेपर दयादीधिति-धर्मचक, पूज्य ( तीर्थ-प्रवर्तक ) होने पर देवचक्र प्राञ्जलि हुप्रा-- हाथ जोड़े खड़ा रहा प्रथवा स्वाधीन बना--और ध्यानोन्मुख होने पर कृतान्तचत्र-कर्मोका प्रवशिष्टममूह-नाशको प्राप्त हुआ था। (17) कुन्थु-जिन कुन्थ्वादि सकल प्राणियोंपर दयाके अनन्य विस्तारको लिये हए थे। उन्होंने पहले चक्रवर्ती राजा होकर पश्चात् धर्मचक्रप्रवर्तन किया था, जिसका लक्ष्य लोकि रूजनोंके ज्वर-जरा-मरणको उपशान्ति और उन्हें प्रात्म विभूति की प्राप्ति कराना था / वे विषय-सौख्यसे पराङ्मुख कैसे हुए, परमदुश्वर बाह्य तपका आचरण उन्होंने किम लिये किया, कोनसे ध्यानोंको अपनाया मोर कोनसी सानिमय अग्नि में अपने (घातिया) कर्मोंकी चार प्रकृतियोको भस्म करके वे शक्तिसम्पन्न हुए और सकल-वेद-विधिके प्रणेता बने, इन सब बातोंको इस स्तवनमें बतलाया गया है। साथ ही, यह भी बनलाया गया है कि लोकके जो पिनामहादिक प्रसिद्ध है वे आपकी विद्या. पौर विभूतिकी एक कणिकाको भी प्राप्त नहीं हुए है, और इसलिये प्रात्महितकी धुनमें लगे हुए श्रेष्ठ मुधीजन ( गणधरादिक ) उनअद्वितीय स्तुत्यकी स्तुति करते है। (18) प्रर-जिन चक्रवर्ती थे, मुमुक्ष होनेपर चक्रवर्तीका सारा साम्राज्य उनके लिये जीणेतृणके समान हो गया और इसलिए उन्होंने निःसार समझकर उसे त्याग दिया। उनके रूा-सौन्दर्यको देखकर द्विनेत्र इन्द्र तृप्त न हो सका और इसलिए ( विक्रियाऋद्धिसे ) महस्रनेत्र बन कर देखने लगा और बहुत ही विस्मयको प्राप्त हुमा / उन्होंने कराय-भटोंकी सेनासे सम्पन्न पापी मोहशत्रुको दृष्टि संविद् और उपेक्षारूप अस्त्रोंसे पराजित किया था और अपनी तृष्णानदीको विद्या नौकासे पार किया था। उनके सामने कामदेव लज्जित तथा हतप्रभ हुमा था और जगत्को रुलानेवाले अन्तकको अपना स्वेच्छ व्यवहार बन्द करना पड़ा था और इस तरह वह भी पराजित हुपा था। उनका रूप Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 368 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश प्राभूषणों, वेषों तथा मायुधोंका त्यागी और विद्या, कषायेन्द्रियजय तथा दयाकी उत्कृष्टताको लिये हुए था। उनके शरीरके वृहत प्रभामण्डलसे बाह्य अन्धकार और ध्यानतेजसे आध्यात्मिक अन्धकार दूर हुअा था। समवरणसभामें व्याप्त होनेवाला उनका वचनामृत सर्वभाषामोंमें परिणत होनेके स्वभावको लिए हुए था तथा प्राणियोंको तृप्ति प्रदान करनेवाला था। उनकी दृष्टि अनेकान्तात्मक थी। उस सती दृष्टि के महत्वादिका ध्यायन तथा उनके स्याद्वादशासनादिका कुछ विशेष कथन सात कारिकाप्रोंमें किया गया है। (19) मल्लि-जिनको जब सकल पदार्थोका साक्षात् प्रत्यवबोध (केवलज्ञान ) हा था तब देवों तथा मयंजनोंके साथ सारे ही जगत्ने हाथ जोड़कर उन्हें नमस्कार किया था। उनकी शरीराकृति सुवर्ण-निर्मित-जैसी थी और स्फुरित माभासे परिमण्डल किये हुए थी। वाणी भी यथार्थ वस्तुतत्वका कथन करनेवाली और साधुजनोंको रमानेवाली थी। जिनके सामने गलितमान हुए प्रतितीथिजन ( एकान्तवादमतानुयायी) पृथ्वीपर कहीं विवाद नहीं करते थे। और पृथ्वी भी ( उनके बिहारके समय ) पद-पदपर विकसित कमलोंसे मृदु-हासको लिये हुए रमणीय हुई थी। उन्हें सब ओरसे (प्रचुरपरिमाणमे ) शिष्य साधुनोंका विभव (ऐश्वर्य) प्राप्त हुआ था और उनका तीर्थ (गासन) भी संसार-समुद्रसे भयभीत प्राणियोंको पार उतारनेके लिये प्रधान मार्ग बना था। (20) मुनिसुव्रत-जिन मुनियोंकी परिषद्में-गणधरादिक शानियोंकी महती सभा (समवरण)में-उसी प्रकार शोभाको प्राप्त हुए है जिस प्रकार कि नक्षत्रोंके समूहले परिवेष्टित चन्द्रमा शोभाको प्राप्त होता है / उनका शरीर तपसे उत्पन्न हुई तरुण मोरके कण्ठवर्ग-जमी प्रामामे उसी प्रकार शोभित था जिस प्रकार कि चन्द्रमाके परिमण्डलकी दीसि शोभती है। साथ ही, वह चन्द्रमाकी दीप्तिके समान निर्मल शुक्न रुधिरसे युक्त. मति मुगंधित, रजरहित शिवस्वरूप (स्व-पर-कल्याणमय) तथा प्रति प्राश्चर्यको लिए हुए था। उनका यह वचन कि 'चर और प्रचर जगत् प्रतिक्षण स्थिति-जनन-निरोध- लक्षणको लिये हुए है'-प्रत्येक समयमें घोव्य, उत्पाद और व्यय (विनाश) स्वरूप हैसर्वशताका घोतक है / वे अनुपम योगबलसे पापमलरूप पाठों कलंकोंको Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्रं 366 (ज्ञानावरणादि कर्मोको) भस्मीभूत करके संसारमें न पाये जानेवाले सौख्यकोपरम अतीन्द्रिय मोक्ष-सौख्यको-प्राप्त हुए थे। ' (21) नमि-जिनमें विभवकिरणोंके साथ केवलज्ञान-ज्योतिके प्रकाशित होनेपर अन्यमती-एकान्तवादी-जन उसी प्रकार हतप्रभ हुए ये जिस प्रकार कि निर्मल सूर्यके सामने खद्योत (जूगनू) होते हैं। उनके द्वारा प्रतिपादित अनेकान्तात्मक तत्वका गंभीर रूप एक ही कारिका 'विधेयं वार्य' इत्यादिमें इतने अच्छे ढंगसे सूत्ररूपमें दिया है कि उस पर हजारों-लाखों श्लोकोंकी व्याख्या लिखो जा सकती है / उन्होंने परम करुणाभावसे सम्पन्न होकर अहिंसा-परमब्रह्मकी सिद्धि के लियेब ह्याम्यन्तर दोनों प्रकारके परिग्रहका परित्याग कर उस प्राश्रविधिको ग्रहण किया था जिसमें प्ररणुमात्र भी प्रारम्भ नहीं है। क्योंकि जहाँ प्रणुमात्र भी प्रारम्भ होता है वहीं अहिंसाका वास नहीं मथवा पूर्णतः वास नहीं बनता / जो माधु यथाजातलिङ्गके विरोधी विकृत वेपों और उपधियों में रत है, उन्होने वस्तुत: बाह्याभ्यन्तर परिग्रहको नहीं छोड़ा हैऔर इसलिए ऐसोंसे उस परमब्रह्मकी सिद्धि भी नहीं बन सकती / उनका भाभूषण वेष तथा व्यवधान ( वस्त्र-प्रावरणादि) से रहित और इन्द्रियोंकी शान्तताको लिये हुए (नग्न दिगम्बर ) शरीर काम-क्रोध और मोह पर विजयका सूचक या (22) अरिष्टनेमि-जिनने परमयोगाग्निसे कल्मषन्धनको-ज्ञानावरगादिरूप कर्मकाष्ठको-भस्म किया था और मकल पदार्थोको जाना था। वे हरिवंशकेतु थे, विकसित कमलदल के समान दीर्घनेत्रके धारक थे, और निर्दोष विनय तथा दमतीर्थ के नायक हुए है / उनके चरणयुगल त्रिदशेन्द्र-वन्दित थे / उनके चरणयुगलको दोनों लोकनायकों गरुडध्वज ( नारायण ) और हलघर (बलभद्र ) ने, जो स्वजनभक्ति से मुदितहृदय थे मौर मं तथा विनयके रसिक थे, बन्धुजनों के साथ बार-बार प्रणाम किया है। गरुडध्वजका दीप्तिमण्डल दुनिमद्रथांग (सुदर्शन चक्र) रूप रविबिम्बकी किरणों में जटिल था और शरीर नीले कमलदलोंकी राशिके प्रयया सजलमेघके समान श्यामवर्ण था। इन्द्रद्वारा लिखे गये नेमिजिनके लक्षणों (चिह्नों) को वह लोकप्रसिद्ध ऊर्जयन्तगिरि (गिरनार ) पर्वत धारण करता है जो पृथ्वीका ककुद है, विद्याधरोंकी स्त्रियोंसे Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ ~ ~ ~~~. . .. . 370 जैनसाहित्य और इतिहसपर विशद प्रकाश सेवित-शिखरोंसे अलंकृत है, मेघपटलोंसे व्याप्त तटोंको लिये हुए है, तीर्थस्थान है और आज भी भक्ति से उल्लसितचित्त-ऋषियोंके द्वारा सब पोरसे निरन्तर अतिसेवित है / उन्होंने उस अखिल विश्वको सदा करतलस्थित स्फटिकमणिके समान युगपत् जाना था और उनके इस जानने में बाह्यकरण-चक्षुरादिक और अन्तःकरण-मन ये अलग-अलग तथा दोनों मिलकर भी न तो कोई बाधा उत्पन्न करते थे और न किसी प्रकारका उपकार ही सम्पन्न करते थे। (23) पार्श्व:जिन महामना थे, वे वरीके वशवर्ती-कमठशत्रुके इशारेपर नाचनेवाले-उन भयंकर मेघोंसे उपद्रवित होनेपर भी अपने योगसे ( शुक्लध्यानसे ) चलायमान नहीं हुए थे, जो नीले-श्यामवर्ण के धारक, इन्द्रधनुष तथा विद्यु द्-गुणोंसे युक्त और भयंकर वज्र वायु तथा वर्षाको चारों ओर बखेरनेवाले थे / इस उपसर्गके समय धरण नागने उन्हें अपने बृहत्फरणामोंके मण्डलरूप मण्डपसे वेष्ठित किया था और वे अपने योगरूप खङ्गवी तीक्ष्ण धारसे दुर्जय मोहशत्रुको जीत कर उस पार्हन्त्यपदको प्राप्त हुए थे जो अचिन्त्य है, अद्भुत है और त्रिलोककी सातिशय-पूजाका स्थान है / उन्हें विधूतकल्मष (घानिकर्म-चतुष्टयरूप पापमलसे रहित), शमोपदेशक ( मोक्षमार्गके उपदेष्टा ) और ईश्वर (सकल-लोकप्रभु ) के रूप में देखकर वे वनबासी तपम्वी भी शरण में प्राप्त हुए थे जो अपने श्रमको-पंचाग्नि-साधनादिरूप प्रयासको - विफल ममझ गये थे और भगवान पार्श्व-जैसे विधूतकल्मष ईश्वर होने की इच्छा रखते थे / पार्श्वप्रभु ममग्रबुद्धि थे, सच्ची विद्यानों तथा तपस्यायों के प्रणेता थे, उपकुलरूप प्राकागके चन्द्रमा थे और उन्होंने मिथ्यामागोंकी दृष्टियोसे उत्पन्न होनेवाले विभ्रमोंको विनष्ट किया था। (24) वीर-जिन अपनी गुण-समुत्थ-निर्मलकीर्ति अथवा दिव्यवाणीमे पृथ्वी (समवसरणभूमि) पर उसी प्रकार शोभाको प्राप्त हुए थे जिस प्रकार कि चन्द्रमा प्राकाशमें नक्षत्र सभास्थित उस प्रभासे शोभता है जो सब प्रोरसे धवल है / उनका शासनविभव कलिकाल में भी जयको प्राप्त है और उसकी वे निर्दोष सानु (गणधरा दिकदेव) स्तुति करते है जिन्होंने अपने ज्ञानादि-तेजसे पासन-विभुत्रोंको-लोकके प्रसिद्ध नायकोंको-निस्तेज किया है। उनका Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र 371 स्माद्वादरूप प्रवचन दृष्ट और इष्टके साथ विरोध न रखनेके कारण निर्दोष है, जब कि दूसरों का-प्रस्याद्वादियोंका-प्रवचन उभय विरोषको लिए हुए होनेसे वसा नहीं है / वे सुरासुरोंसे पूजित होते हुए भी ग्रन्थिक सत्वोंके-मिथ्यात्वादिपरिग्रहसे युक्त प्राणियोंके-(प्रभक्त) हृदयसे प्राप्त होनेवाले प्रणामोंसे पूजित नहीं है। ओर अनावरणज्योति होकर उस धामको-मुक्तिस्थान अथवा सिद्धशिलाको-प्राप्त हुए हैं जो अनावरण-ज्योतियोंसे प्रकाशमान है / वे उस गुणभूषणको-सर्वश-वीतरागतादि-गुगणरूप प्राभूषण-समूहको-धारण किए हुए थे जो सभ्यजनों अथवा समवसरण-सभा-स्थित भव्यजनोंको रुचिकर था मौर श्रीमे-अष्टप्रातिहार्यादिरूप-विभूतिसे-ऐसे रूपमें पुष्ट था जिससे उसकी शोभा और भी बढ़ गई थी। साथ ही उनके शरीरका सौन्दर्य और प्राकर्षण पूर्णचन्द्रमासे भी बढ़ा चढ़ा था। उन्होंने निष्कपट यम प्रौर दमका-महावतादिके अनुष्ठान और कपायों तया इन्द्रियोंके जयका-उपदेश दिया है / उनका उदार विहार उस महाशक्ति-सम्पन्न गजराजके समान हुमा है जो करते हुए मदका दान देते हुए और मार्गमें बाधक गिरिभित्तियोंका विदारण करते हुए (फलत: जो बाधक नहीं उन्हें स्थिर रखते हुए) स्वाधीन चला जाता है / वीरजिनेन्द्रने अपने विहारके समय सबको हिसाका-प्रभयका-दान दिया है, शमवादोंकी-रागादिक दोपोंकी उपशान्तिके प्रतिपादक प्रागमोंकी-रक्षा की है और वैषम्यस्थापक, हिंसाविधायक एवं सर्वथा एकान्त-प्रतिपादक उन सभी वादोंका-मतोंका-खण्डन किया है जो गिरिभित्तियोंकी तरह सन्मार्गमें बाधक बने हुए थे। उनका शासन नयोंके भङ्ग अथवा भक्तिरूप अलंकारोंसे अलंकृत है-अनेकान्तवादका प्राश्रय लेकर नयोंके सापेक्ष व्यवहारकी सुन्दर शिक्षा देना है-और इसतरह यथार्य वस्तुतत्त्वके निरूपण और परहित-प्रतिपादनादि में समर्थ होता हुमा बहुगुण-सम्पत्तिमे युक्त है, पूर्ण है और समन्तभद्र है-सब भोर से भद्ररूप, निर्बाधतादि-विशिष्ट-शोभासे सम्पन्न एवं जगतके लिये कल्याणकारी है; जब कि दूसरोंका-एकान्तवादियोंका-शासन मधुर वचनोंके विन्याससे मनोज्ञ होता हुमा भी बहुगुणोंकी सम्पतिसे विकल है-सत्यशासनके योग्य जो यथार्थवादिता, और परहित-प्रतिपादनादिरूप बहुतसे गुण है उनकीशोमाते रहित है। . , . . Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- 372 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश _ स्तवनोंके इस परिचय-समुच्चय-परसे यह साफ़ जाना जाता है कि सभी जैन तीर्थकर स्वावलम्बी हुए है / उन्होंने अपने प्रात्मदोषों और उनके कारणों. को स्वयं समझा है , पोर समझकर अपने ही पुरुषार्थसे-अपने ही ज्ञानबल और योगबलसे-उन्हें दूर एवं निर्मूल किया है। अपने प्रात्मदोंषोंको स्वयं दूर तथा निर्मूलकरके और इस तरह अपना प्रात्म-विकास स्वयं सिद्ध करके वे मोह, माया, ममता और तृष्णादिसे रहित 'स्वयम्भू' बने है-पूर्ण दर्शन ज्ञान एवं सुख-शक्तिको लिये हुए 'महत्पदको' प्राप्त हुए हैं। और इस पदको प्राप्त करनेके बाद ही वे दूसरोंको उपदेश देने में प्रवृत्त हुए हैं। उपदेशके लिये परमकरुणा-भावसे प्रेरित होकर उन्होंने जगह-जगह विहार किया है और उस बिहारके अवसर पर उनके उपदेशके लिये बड़ी बड़ी सभाएं जुड़ी हैं, जिन्हें 'समवसरण' कहा जाता है। उन सबका उपदेश, शासन अथवा प्रवचन अनेकान्त और अहिंसाके प्राधारपर प्रतिष्ठित था और इसलिये यथार्थ वस्तुतत्वके अनुकूल और सबके लिये हितरूप होता था। उन उपदेशोंसे विश्वमें तत्त्वज्ञानकी जो धारा प्रवाहित हुई है उसके ठीक सम्पर्क में आनेवाले असंख्य प्राणियोंके मज्ञान तथा पापमल धुल गए हैं और उनकी भूल-भ्रांतियां मिटकर तथा असत्यप्रवृत्तियां दूर होकर उन्हें यथेष्ट सुख-शान्तिको प्राप्ति हुई है। उन प्रवचनोंसे ही उस समय सत्तीर्षकी स्थापना हुई है और वे संसारसमुद्र अथवा दुःखसागरसे पार उतारनेके साधन बने हैं। उन्हींके कारण उनके उपदेष्टा 'तीर्थङ्कर' कहलाते हैं और वे लोकमें सातिशय-पूजाको प्राप्त हुए है तथा प्राज भी उन गुणज्ञों और अपना हित चाहनेवालोंके द्वारा पूजे जाते हैं जिन्हें उनका यथेष्ट परिचय प्राप्त है। अर्हद्विशेषण-पद-- स्वामी समन्तभद्रने, अपने इसस्तोत्रमें तीर्थर प्रहन्तोंके लिये जिन विशेषणपदोंका प्रयोग किया है उनसे प्रहस्स्वरूपपर अच्छा प्रकाश पड़ता है और वह नय-विवक्षाके साथ अर्थपर दृष्टि रखते हुए उनका पाठ करनेपर सहजमें ही अवगत हो जाता है। अत: वहां पर उन विशेषणपदोंका स्तवनक्रमसे एकत्र संग्रह किया जाता है / जिन पदों का मूलप्रयोग सम्बोधन तथा Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र 13 द्वितीयादि विभक्तियों और बहुवचनादिके रूपमें हुमा है उन्हें अर्थावबोधकी सुविधा एवं एकरूपताकी दृष्टिसे यहां प्रथमाके एक वचनमें ही रक्खा गया है, साथमें स्थान-सूचक्र पद्याडू भी पद्य-सम्बन्धी विशेषणों के अन्तमें दे दिये गये हैं। और जो एक विशेषण अनेक स्तवनोंमें प्रयुक्त हुमा है उसे एक ही जगह-प्रथम प्रयोगके स्थानपर-ग्रहण किया गया है, अन्यत्र प्रयोगकी सूचना उसके मागे ब्रेकटके भीतर पद्याङ्क देकर कर दी गई है: (1) स्वम्भूः, भूतहित :, समञ्जस-ज्ञान-विभूति-चक्षुः, तमो विधुन्वन् 1; प्रबुद्धतत्त्वः, अद्भनोदयः, विदांवरः 2; मुमुक्षः (88), आत्मवान् (82), प्रभुः ( 20, 28,66), सहिष्णुः, पच्युतः 3; ब्रह्मपदामृतेश्वरः 4; विश्वचक्षुः, वृषभः, सतामचितः, समग्रविद्यात्मवपुः, निरञ्जनः, जिन: ( 36, 45, 50, 51, 57, 80, 81, 112, 114, 130, 137, 141 ), अजित-शुल्लकवादि-गासनः 5 / (2) अजितशासनः, प्रणेता 7; महामुनि: (70) मुक्तघनोपदेहः 8; पृथुज्येष्ठ-धर्मतीर्थ-प्रणेता 6; ब्रह्मनिष्ठः, सम-मित्र-शत्रुः, विद्या-विनिर्वान्त-कषायदोपः लब्धात्म-लक्ष्मीः, अजितः, अजितात्मा, भगवान् ( 18, 31 40, 66, 80, 117, 121) 10 / (3) शम्भवः, पाकस्मिकवद्यः 11; स्याद्वादी, नाथ: (25, 57, 75, 66, 126 ), शास्ता 14: पुण्यकीति: (87), प्राय: (48, 68) 15 / (4) अभिनन्दनः, समाधितन्त्र: 16; सतां गतिः 20 / (5) मुमतिः, मुनिः (46, 61, 74, 76 ) 21 / (6) पद्मप्रभः, पद्मालयालिङ्गित-चारसूतिः, भव्यपयोरुहारणां पद्मबन्धुः 26; विभुक्तः, 27; पातित-मार-दर्पः 26; गुणाम्बुधिः प्रजः (50,85), ऋषि: (60, 121) 30 / __ (7) सुपार्श्वः 31; सर्व-तत्त्व-प्रमाता, हितानुशास्ता, गुणावलोकस्य जनस्य नेता 35 / (8) चन्द्रप्रभः, चन्द्रमरीचि-गौरः, महतामभिवन्द्यः, ऋषीन्द्रः, जितस्वान्तकषाय-बन्धः 36; सर्वलोक-परमेष्ठी, अद्भुत-कर्म-तेजाः, अनन्तधामाऽक्षर-विश्व Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 374 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश चक्षुः. समन्त-दुःख-क्षय-शासनः 36; विपन्न-दोषाऽभ्र-कलङ्क-लेपः, व्याकोशवाङ्-न्याय-मयूख-मालः, पवित्रः 40 / (6) सुविधिः 41, जगदीश्वराणामभिवन्धः, साधु: 45 / (10) अनघः (191) 46; नक्त दिविमप्रमतवान् 48; समयी: 46; उत्तमज्योतिः, निर्वृतः, शीतल: 50 / (11) श्रेयान, प्रजेयवाक्यः५१ कंवल्यविभूतिसम्राट्, महंन्, स्तवाह 55 / (12) शिवास्वभ्युदय-क्रियासु पूज्यः, विदशेन्द्र-पूज्य:, मुनीन्द्रः (85) 56; वीतरागः, विवान्त-वैरः 57; पूज्य: 58, बुधानामभिवन्य: 60 / (13) विमल: 61; प्रार्य-प्रणत: 65 / (14) तत्वरुची प्रसीदन्, अनन्तजित् 66; प्रशेषवित् 67; उदासीनतमः६६ / (15) अनघ-धर्मतीर्थ-प्रवर्तयिता, धर्मः, गङ्कर:७१; देव-मानव-निकायसत्तमैः परिवृतः, बुधवंत:७२; प्रातिहार्य-विभवः परिष्कृत:, देहतोपि विरतः, शासन-फलंपणाऽनातुरः 73; धीरः (20,61, 64) 74; मानुषी प्रकृतिमभ्यतीतवान्, देवतास्वरुपि देवता, परमदेवता, जिनवृपः 75! (16) दयामूर्ति: 76. महादयः 77; प्रात्मतन्त्रः 78; स्वदोपगान्त्या विहितात्म-शान्ति :, शरणं गतानां शान्तविधाता, गान्तिः, शरण्य: 80 / (17) कुन्थु-प्रभत्यखिल-सत्व-दयकतानः, कुन्युः, धर्म-चकवयिता 81; विषय सौख्य-पराङ्मुखः 82, रत्नत्रयाऽतिशयतेजमि जान वीर्यः, सबलवेद-विधविनता 84; अप्रतिमेयः, स्तुत्य: (116) 85 / (18) भूषा-वेषाऽऽशुध-त्यागी, विद्या-दम-दयापरः, दोष-विनिग्रहः 64; सर्वज्ञज्योतिषोद्भूत-महिमोदय: 66; अनेकान्तारमष्टिः 68; निरुपम युक्तशामनः, प्रियहित-योग-गुरगानुशासनः, पर-जिनः, दम-नीधनायक: 104; वरदः 105 / (16) महर्षिः 106; जिन-शिशिरांशुः 109; जिसिंह:, करणीयः, मल्लिः, प्रशल्यः 110 (20) अधिगत-मुनि-सुव्रत-स्थितिः, मुनिवृषमः, मुनिमुवतः, 111: कृत-मद Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... 375 समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र निग्रह-विग्रहः 112; शशि-रुचि-शुचि-शुक्ल-लोहित-वपुः, सुरभितर-विरजवाः, यति: 113; वदतांवर: 114; प्रभवसौख्यंवान् 115 / / (21) सततमभिपूज्य:, नमि-जिनः 116; धीमान, ब्रह्म-प्ररिणधिमनाः, विदुषां मोक्ष-पदवी 117: सकल-भुवन-ज्येष्ठ-गुरु: 118; परमकग: 116; भूषा-वेष-व्यवधि-रहित-वपुः, शान्तकरणः, निर्मोहः, शान्तिनिलय: 120 / (22) परम-योग-दहन-हुत-कल्मपन्धन: 121; अनवद्य-विनय-दम-तीर्यनायकः, शीलजलधि:, विभवः, अरिष्टनेमिः, जिनकुञ्जरः, प्रजर: 122; बुधनुतः 130 / (23) महामना 131: ईश्वरः, विधूत-कल्मपः, शमोपदेशः 134; मत्यविद्या-तपसां प्रणायकः, समग्रधी:, पार्वजिन:, विलीनमिय्यापथ-दृष्टिविभ्रम: 135 / (24) वीर: 136; मुनीश्वर : 138; मुरासुर-महितः, ग्रन्थिक-सत्वाऽशयप्रगामा:हिनः, लोक जय-परम-हित:, अनावरण-ज्योति:, उज्ज्वलधामहित: 136; गत-मर-मायः, मुमुक्ष-कामदः 141, गम-बादानवन्, अपगत. प्रमा-दानवान 142: देवः, ममन्तभद्र-मन: 143 / इन विशेषण-पदाको पाठ समूहो अथवा विभागोमें विभाजित किया जा सकता है; जमे 1 कम कला और दोपों पर विजय के मूचक, 2 ज्ञानादि गुग्गीकर्ष व्य नक, 3 परहित-प्रतिपादनादिरूप लोकहितपिनामूलक, 4 पूज्यताऽभिव्यंजक, 5 भासतकी महनाके प्रदर्शक, . शारीरिक स्थिति पोर अभ्युदयके निदर्शक, साधनाकी प्रधानताके प्रकाशक, और = मिश्रित-गुणांक वाचक / ये सब विशेषाद एक प्रकारसे अहंन्नोंके नाम है जो उनके किसी-किसी गुण अथवा गुग्गममूहकी अपेक्षाको साथमें लिये हुए है। यद्यपि इन विशेषण. पदों में कितने ही विशेषगरद-मे माधः, मुनिः, यति: ग्रादिक-साधारण अथवा मामान्य जान पड़ते है। क्योंकि वे अहं पदसे रहित दूसरों के लिए भी प्रयुक्त होते है। परन्तु उन्हें यहा साधारण नहीं समझना चाहिये; क्योकि मसाधारण व्यक्तित्वको लिये हुए महान पुरुषों के लिए जब साधारण विशेषण प्रयुक्त होते है तब वे 'माश्रयाज्जायते लोक नि:प्रभोऽपि महाद्युति:' की उक्तिके अनुमार मायके माहात्म्यसे असाधारण प्रथंके घोतक होते है-उनका प्रर्थ अपनी Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 376 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश चरमसीमाको पहुँचा हुमा ही नहीं होता बल्कि दूसरे भोंकी प्रभाको भी अपने साथमें लिये हुए होता है। जैनतीर्थकर अहंद्गुणोंकी दृष्टि से प्राय: समान होते हैं, इसलिए व्यक्तित्वविशेषकी कुछ बातोंको छोड़कर महत्सदकी दृष्टिसे एक तीर्थकरके जो गुण अथवा विशेषरण हैं वे ही दूसरेके है-भले ही उनके साथमें उन विशेषणोंका प्रयोग न हुना हो या प्रयोगको अवसर न मिला हो / और इस तरह अन्तिम तीर्थकर श्रीवीरजिनेन्द्र में उन सभी गुणोंकी परिसमाप्ति एवं पूर्णता समझनी चाहिये जिनका अन्य वृषभादि तीर्थकरोंके स्तवनों में उल्लेख हमा प्रथवा प्रदर्शन किया गया है / और उनका शासनतीर्थ उन सब गुगणोंसे विशिष्ट है जो अन्य जैन तीर्थकरोंके शासनमें निर्दिष्ट हुए हैं / तीथंकर नामोंके सार्थक, मन्वयार्थक प्रथवा गुगगार्थक होनेमे एक तीर्थकर का जो नाम है यह दूमगेका विशेषगग अथवा गुरगार्थक पद हो जाता है और इसलिए उन्हें भी विशेषणपदोंमे मंगृहीत किया गया है। * इसी दृष्टिको लेकर द्विमंधानादि चतुर्विमतिमंधान-जैसे काव्य रचे गए है। चतुर्विशतिसंधानको पं० जगन्नाथने एक ही पद्यमे रचा है, जिममें 24 तीर्थंकरोंके नाम पा गए है, और एक-एक तीर्थ करकी अलग-अलग स्तुतिक रूपमें उसकी 24 व्याख्याएँ की गई है और 25 वी व्याख्या ममुच्चय-स्तुतिके रूपमें है ( देखो, वीरसेवामन्दिरमे प्रकाशित 'जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह पृ० 78 ) / हालमें 'पंचवटी' नामका एक ऐमा ही ग्रन्थ मुझे जयपुरसे उपलब्ध हुपा है जिसके प्रथम स्तुतिपद्य में 24 तीर्थंकरोंके नाम पा गए हैं और संस्कृत व्यास्पानमें उन नामोंके अर्थको वृषभजिनके सम्बन्धमें स्पष्ट करते हा अजितादिशेष तीर्थकरोंके सम्बन्धमें भी घटित करलेनेकी बात कही गई है। वह पद्य इस प्रकार है श्रीधर्मोवृषभोऽभिनन्दन परः पमप्रभः शीतलः गान्तिः संभव वामपूज्य अजितश्चन्द्रप्रभः सुव्रतः / श्रेयान् कुन्युरनंतवीर विमल: श्रीपुष्पदन्तो नमिः श्रीनेमिः सुमतिः सुपार्वजिनराट् पाश्वों मलिः पातु वः // 1 // Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र 377 भक्तियोग और स्तुति-प्रार्थनादि-रहस्य जैनधर्मके अनुसार, सब जीव द्रव्यदृष्टि से अथवा शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा परस्पर समान है-कोई भेद नहीं-सबका वास्तविक गुण-स्वभाव एक ही है। प्रत्येक स्वभावसे ही अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, मनन्तसुख और अनन्तवीर्यादि मनन्तशक्तियोंका प्राधार है-पिण्ड है। परन्तु अनादिकालसे जीवोंके साथ कर्ममल लगा हुआ है, जिसकी मूल प्रकृतियाँ पाठ, उत्तर प्रकृतियां एकसौ मडतालीम मोर उत्तरोत्तर प्रकृतियां असंख्य है / इस कर्म-मलके कारण जीवोंका असली स्वभाव प्राछादित है, उनकी वे शक्तियां प्रविपित है और वे पर. तंत्र हए नाना प्रकार की पर्यायें धारण करते हुए नजर पाते हैं। अनेक अवस्थानों को लिए हुए संसारका जितना भी प्राणिवर्ग है वह सब उसी कम मलका परिणाम है - उसीके भेदसे यह सब जीवजगत् भेदरूप है, और जीवकी इम अवस्थाको विमाव-परिणति' कहते है / जबतक किसी जीवकी यह विभावपरिणिति बनी रहती है तब तक वह 'समारी' कहलाता है और तभी तक उसे संसारमें कर्मानुमार नाना प्रकारके रूप धारण करके परिभ्रमण करना तथा दुःख उठाना होता है / जब योग्य-माधनों के बलपर यह विभाव-परिणति मिट जाती है-प्रात्मामें कर्म-मनका सम्बन्ध नहीं रहना-और उमका निज स्वभाव साङ्गरूपसे अथवा पूर्णतया विमित हो जाता है, तब वह जीवात्मा संमारपरिभ्रमगामे छूटकर मुक्तिको प्राप्त हो जाता है और मुक्त, सिद्ध अथवा परमात्मा कहलाता है, जिमकी दो प्रवम्पाए है-एक जीवन्मुक्त पोर दूसरी विदेहमुक्त / इस प्रकार पर्यायप्टिमे जीवोंके 'समारी' पौर सिद्ध' ऐसे मुख्य दो भेद कहे जाते है; अथवा पविकमिन, मल्पविकमिन, बहविकमित पोर पूर्ण-विकसित ऐसे चार भागोंमें भी उन्हें बांटा जा सकता है। और इमलिये जो अधिकाधिक विक. सित है वे स्वरूपसे ही उनके पूज्य एवं माराध्य है जो पविकसित या महाविकसित है क्योंकि पारमगुरणोंका विकास सबके लिये इष्ट है। ऐमो स्पिति होते हुए यह स्पष्ट है कि संसारी जीवोंका हित इसी में है कि वे अपनी विभाव-परिगतिको छोड़कर स्वभावमें स्थिर होने पर्थात् सिद्धिको प्रास करनेका यत्न करें। इसके लिये पात्म-गुणोंका परिचय चाहिये गुणोंमें Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 378 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश वर्धमान अनुराग चाहिये और विकासमार्गकी दृढ श्रदा चाहिए / बिना अनुरागके किसी भी गुणकी प्राप्ति नहीं होती-अनुरागी अथवा प्रभक्त-हृदय गुणग्रहणका पात्र ही नहीं, बिना परिचयके मननुराग बढ़ाया नहीं जा सकता मौर बिना विकासमार्गकी दृढ़ श्रद्धाके गुरगों के विकासको मोर यथेष्ट प्रवृत्ति ही नहीं बन सकती। और इसलिये अपना हित एवं विकास चाहनेवालोंको उन पूज्य महापुरुषों प्रथवा सिद्धात्मामोंकी शरण में जाना चाहिये, उनकी उपासना करनी चारिये, उनके गुणोंमें अनुराग बढ़ाना चाहिए और उन्हें अपना मार्ग-प्रदर्शक मानकर उनके नक़शे कदमार-पदचिन्होंपर-चलना चाहिये, अथवा उनकी शिक्षामोंपर अमल करना चाहिये, जिनमें प्रात्माके गुणोंका अधिकाधिक रूपमें प्रयवा पूर्णरूपमे विकास हुमा हो; यही उनके लिये कल्याणका मुगम मार्ग है। वास्तवमें ऐसे महान मात्मानोंके विकमिन मात्मस्वरूपका भजन और कीर्तन ही हम संमारी जीवों के लिये अपने प्रामाका अनुभवन और मनन है; हम 'मोह' की भावना-द्वारा उसे अपने जीवन में उतार सकते हैं और उन्हीके-प्रथवा परमात्मस्वरूपक-प्रादर्शको सामने रख कर अपने चरित्रका गठन करते हुए अपने प्रात्मीय-गुग्गोंका विकाम मिद्ध कर के तद्रप हो सकते हैं / इस सब अनुष्ठान में उन मिद्धात्माओंकी कृक्ष भी गरज नहीं होती और न इसपर उनकी कोई प्रमग्नता ही निर्भर है-यह मब माधना अपने ही उत्थानके लिए की जाती है। इमीमे मिद्धि ( स्वात्मोपलब्धि ) के साधनोंमें 'भक्ति-योग' को एक मुख्य स्थान प्राप्त है, जिम 'भक्ति-मार्ग' भी कहते है। सिद्धिको प्राप्त हुए शुद्धात्मामाको भक्तिद्वारा प्रात्मोकपं साधने का नाम ही 'भक्तियोग' अथवा भक्ति मार्ग' है और 'भक्ति' उनके गुणों में अनुरागको, तद्नुकूल वर्तनको अथवा उनके प्रति गुग्णानुरागपूर्वक पादरसत्काररूप प्रवृत्तिको कहते है, जो कि शुद्धात्मवृत्तिकी उत्पति एवं रक्षाका साधन है / स्तुति, प्रार्थना, वन्दना, उपासना, पूजा. सेवा, श्रद्धा पौर प्राराधना ये सब भक्तिके ही रूप अथवा नामान्तर है। स्तुति-पूजा-वन्दनादिके रूप में इस भक्तिक्रिया को 'सम्यक्त्वदिनी क्रिया' बतलाया है, 'शुभोपयोगिचारित्र' लिखा है और साथ ही 'कृतिकर्म भी लिखा है, जिसका अभिप्राय है 'पापकर्म-छंदन Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रकी स्तुतिवधिा का अनुष्ठान' / सद्भक्तिके द्वारा प्रौदस्य तथा प्रहंकारके त्यागपूर्वक गुणानुराग बढ़नेसे प्रशस्त मध्यवसायको अथवा परिणामोंकी विशुद्धिसे संचित कर्म उसी तरह नाशको प्राप्त होता है जिस तरह काष्ठके एक सिरेमें पग्निके लगनेसे वह सारा ही काष्ठ भस्म हो जाता है। इधर संचित कर्मोके नाशसे अथवा उनकी शक्तिके शमनसे गुणावरोधक कर्मोकी निर्जरा होती या उनका बल क्षय होता है तो उपर उन अभिलषित गुणोंका उदय होता है, जिससे प्रात्माका विकास सधता है। इसीसे स्वामी समन्तभद्र-जम महान् प्राचार्योने परमात्माकी स्तुतिरूपमें इस भक्तिको कुशल-परिणामकी हेतु बतलाकर इसके द्वारा श्रेयोमार्गको मुलभ और स्वाधीन बनलाया है / अपने तेजस्वी तथा मुकृति मादि होनेका कारण भी इसीको निर्दिष्ट किया है मौर इसीलिये स्तुति-वन्दनादिके रूपमे यह भक्ति अनेक नैमित्तिक क्रियानों में हो नहीं, किन्तु नित्यकी षट् पावश्यक क्रियानोंमें भी शामिल की गई है, जो कि सब माध्यत्मिक क्रियाएं है और अन्तष्टिपुरूषों ( मुनियों तथा श्रावकों) के द्वारा प्रात्मगुरगोंक विकासको लक्ष्यमें रखकर ही नित्य की जाती है और तभी वे प्रारमोत्कर्षकी साधक होती है। अन्यथा, लौकिक लाभ, पूजा-प्रतिष्ठा, यश, भय, रूढि प्रादिक वश होकर करनेसे उनके द्वारा प्रशस्त प्रध्यवमाय नहीं बन सकता मोर न प्रशस्त मध्यवसायके बिना संचित पापों प्रथवा कर्मोका नाग होकर प्रात्मीय-गुरगोंका विकास ही सिद्ध किया जा सकता है। अन. इम विषयमें लक्ष्यशुद्धि एवं भावद्धिपर दृष्टि रखनेकी खास जरूरत है, जिसका सम्बन्ध विवेकसे है / बिना विवेकके कोई भी क्रिया यथेष्ट फलदायक नहीं होनी और न बिना विवेककी भक्ति मद्भक्ति ही कहलाती है। स्वामी समन्तभद्रका यह स्वयम्भू अन्य ‘म्नात्र' होनेसे स्तुतिपरक है और इसलिए भक्तियोगकी प्रधानताको लिये हा है, इसमे सन्देहके लिये कोई स्थान नहीं है। सच पूछिये तो अब तक किसी मनुष्यका अहकार नहीं मरता तब तक उसके विकासको भूमिका ही तय्यार नहीं होती। बल्कि पहलेसे यदि कुछ + देखो, स्वयम्भूस्तोत्रकी कारिका नं. 116 * देखो, स्तुतिविधाका पर नं०११४ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 380 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश विकास हुमा भी होता है तो वह भी किया कराया सब गया जब माया हुंकार' की लोकोक्तिके अनुसार जाता रहता अथवा दूषित हो जाता है। भक्तियोगसे महंकार मरता है, इसीसे विकास-मार्गमें सबसे पहले भक्तियोगको अपनाया गया है और इसीसे स्तोत्रग्रन्थोंके रचनेमें समन्तभद्र प्रायः प्रवृत्त हुए जान पड़ते है। प्राप्तसुरुषों प्रयवा विकासको प्राप्त शुदात्मामों के प्रति माचार्य समन्तभद्र कितने विनम्र थे और उनके गुणोंमें कितने अनुरागी थे यह उनके स्तुनि-ग्रन्थोंसे भले प्रकार जाना जाता है। उन्होंने स्वयं 'स्तुतिविद्या में अपने विकासका प्रधान श्रेय 'भक्तियोग'को दिया है (पघ११४ ); भगवान जिनदेवके स्तवनको भव-वनको भस्म करने वाली अग्नि लिखा है; उनके स्मरणको कनेश-समुद्रसे पार करनेवाली नौका बनलाया है (10 115) पोर उनके भजनको लोहेसे पारसमरिण के स्पर्श-समान बतलाते हुए यह घोषित किया है कि उसके प्रभावसे मनुष्य विशदशानी होता हुमा तेजको धारण करता है और उसका व वन भी सारभूत हो जाता है (80) / अब देखना यह है कि प्रस्तुत स्वयम्भूग्रन्थमें भक्तियोगके मङ्गम्वरूप 'स्तुति' मादिके विषयमें क्या कुछ कहा है और उनका क्या उद्देमा, लक्ष्य प्रयवा हेतु प्रकट किया है: लोकमें 'स्तुति' का जो रूप प्रचलित है उमे बतलाते हुए और वमी स्तुति करने में अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए, स्वामी जी लिखते है गुण-स्तोकं मदुल्लध्य तय हुव-कथा स्तुतिः / श्रानन्यात्ते गुणा वक्तुमशक्यास्त्वयि सा कथम् // 86 // तथाऽपि ते मुनीन्द्रस्य यतो नामाऽपि कीर्तितम् / पुनाति पुण्यकीतेर्नस्ततो अयाम किश्चन // 7 // अर्थात-नियमान गुणोंकी अल्पताको उल्लङ्घन करके जो उनके बहुत्वकी कथा की जाती है-उन्हें बड़ा-चढ़ाकर कहा जाता है-उसे लोकमें 'स्तुति' कहते है / वह स्तुति ( हे जिन ! ) मागमें कैसे बन सकती है ? नहीं बन सकती / क्योंकि मापके गुण अनन्त होनेसे पूरे तौर पर कहे ही नहीं जा सकतेबढ़ा-चढ़ाकर कहनेकी तो बात ही दूर है। फिर भी पाप पुण्यकीति मुनीन्द्रका Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र 381 एकि नाम-कीर्तन भी-भक्ति-पूर्वक नामका उच्चारण भी.-हमें पवित्र करता है, इस लिए हम प्रापके गुणोंका कुछ-लेशमात्र-कथन ( यहाँ ) करते हैं / _इससे प्रकट है कि समन्तभद्रकी जिन-स्तुति यथार्थताका उल्लंघन करके गुणोंको बढ़ा-चढ़ाकर कहनेवानी लोकप्रसिद्ध स्तुति-जैसी नहीं है, उसका रूप जिनेन्द्र के अनन्त गुणोंमेंसे कुछ गुणोंका अपनी शक्तिके अनुसार प्रांशिक कीर्तन करना है और उसका उद्देश्य अथवा लक्ष्य है प्रात्माको पवित्र करना / प्रात्माका पवित्रीकरण पापोंके नाशसे-मोह, कषाय तथा राग-द्वेषादिकके प्रमावसेहोता है / जिनेन्द्र के पुण्य-गुणोंका स्मरण एवं कीर्तन प्रात्माको पाप-परिणतिको छुड़ाकर उसे पवित्र करता है, इस बातको निम्न कारिकामें व्यक्त किया गया है न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ ! विवान्त-वैरे: तथाऽपि ते पुण्य-गुग्ण-स्मृतिर्नः पुनाति चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः // 5 // इसी कारिकामें यह भी बतलाया गया है कि पूजा-स्तुतिसे जिनदेवका कोई प्रयोजन नहीं है; क्योकि वे वीतराग है-रागका अंश भी उनके मात्मामें विद्यमान नहीं है, जिससे किसीकी पूजा, भक्ति या स्तुतिपर वे प्रसन्न होते : वे तो सच्चिदानन्दमय होनेसे सदा ही प्रमन्नस्वरूप है, किसीकी पूजा प्रादिकसे उनमें नवीन प्रसन्नताका कोई मंचार नहीं होता और इसलिये उनकी पूजा भक्ति या स्तुतिका लक्ष्य उन्हें प्रमन्न करना तथा उनकी प्रसन्नता-वारा अपना कोई कार्य सिद्ध करना नहीं है मोर न वे पूजादिकमे प्रसन्न होकर या स्वेच्छासे किसीके पापोंको दूर करके उसे पवित्र करने में प्रवन होते है, बल्कि उनके पुण्य- गुरगोके स्मरणादिम पाप स्वयं दूर भागते हैं और फलतः पूजक या स्तुतिकर्ताके प्रात्मामें इसी माशयको 'युक्त्यनुशासन' को निम्न दो कारिकामों में भी व्यक्त किया गया है: याधात्म्यमुलंध्य गुणोदयाल्या लोके स्तुतिभूरिगुणोदधेस्ते / मणिष्टमप्यंशमशक्नुवन्तो वक्तु जिन ! स्वो किमिव स्तुवाम // 2 // तथापि वैम्पास्यम्पेत्य भक्त्या सोमास्मि से शरत्यनुरूप-वाक्यः / इष्टे प्रमेयेऽपि यथास्यक्ति किन्मोत्सहस्से पुरुषाः क्रियामिः // 3 // Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश पवित्रताका संचार होता है / इसी बातको और मच्छे शब्दों में निम्नकारिकाद्वारा स्पष्ट किया गया है स्तुतिः स्तोतुः साधोः कुशलपरिणामाय स तदा भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सत.. किमेवं स्वाधीन्याजगति सुलभे श्रायसपथे स्तुयान त्या विद्वान्सततमभिपूज्यं नमिजिनम् // 116 / / इसमें बतलाया है कि-'स्तुतिके समय और स्थानपर स्तुत्य चाहे मौजूद हो या न हो और फलकी प्राप्ति भी चाहे सीधी (Direct) उसके द्वारा होती हो या न होती हो, परन्तु आत्मसाधनामें तत्पर साधुस्तोताकी-विवेकके साथ भक्तिभावपूर्वक स्तुति करनेवालेकी-स्तुति कुशलपरिणामकी-पुण्यप्रसाधक या पवित्रता-विधायक शुभभावोंकी-कारण जरूर होती है; और वह कुशलपरिणाम अथवा तज्जन्य पुण्यविशेष श्रेय फलका दाता है। जब जगतमें इस तरह स्वाधीनतामे श्रेयोमार्ग मुलभ है-स्वयं प्रस्तुत की गई अपनी स्तुतिके द्वारा प्राप्य है-तब हे सर्वदा अभिपूज्य नमि-जिन ! ऐमा कोन विद्वान्-परीक्षापूर्वकारी अथवा विवेकी जन-है जो पापकी स्तुति न करे? करे ही करे। अनेक स्थानोंपर समन्तभद्रने जिनेन्द्रकी स्तुति करने में अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए अपनेको अज (15), बालक (30) तथा अल्पधी (56) के रूपमें उल्लिखित किया है; परन्तु एक स्थानपर तो उन्होने अपनी भक्ति तथा विनम्रताकी पराकाष्ठा ही कर दी है, जब इतने महान् ज्ञानी होते हुए मोर इतनी प्रौढ स्तुति रचते हुए भी वे लिखते है त्वमीरशस्तादृश इत्ययं मम प्रलाप-लेशोऽल्प-मतेमहामुने ! अशेष-माहात्म्यमनीरयन्नपि शिवाय संस्पर्श इवाऽमृताम्बुधेः / / 7 / / (हे भगवन् ! ) पाप ऐसे है, वैसे हैं-पापके ये गुग हैं, वे गुण हैइस प्रकार स्तुतिरूपमें मुझ अल्पमतिका-यथावत् गुणोंके परिशानसे रहित स्तोताका-यह थोड़ासा प्रलाप है। ( तब क्या यह निष्फल होगा ? नहीं।) अमृतसमुद्रके प्रशेष माहात्म्यको न जानते और न कथन करते हुए भी जिस प्रकार उसका संस्पर्श कल्याणकारक होता है उसी प्रकार हे महामुने ! मापके Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र 383 मशेष माहात्म्यको न जानते और न कथन करते हुए भी मेरा यह थोडासा प्रलाप मापके गुणोंके संस्पर्शरूप होनेसे कल्याणका ही हेतु है।' / इससे जिनेन्द्र-गुणोंका स्पर्शमात्र थोड़ासा अधूरा कीर्तन भी कितना महत्त्व रखता है यह स्पष्ट जाना जाता है / जब स्तुत्य पवित्रात्मा, पुण्य-गुणोंकी मूर्ति पौर पुण्यकीर्ति हो तब उसका नाम भी, जो प्रायः गुगण -प्रत्यय होता है, पवित्र होता है और इसीलिये ऊपर उद्घत 87 वी कारिकामें जिनेन्द्रके नाम-कीननको भी पवित्र करनेवाला लिखा है तथा नीचेकी कारिकामें, अजितजिनकी स्तुति करते हुए, उनके नामको 'परमपवित्र' बतलाया है पोर लिखा है कि प्राज भी अपनी सिद्धि चाहनेवाले लोग उनके परमपवित्र नामको मंगलके लिये-पापको गालने अथवा विघ्नबाधा पोको टालने के लिये-जड़े प्रादरके साथ लेते हैं अद्यापि यस्याऽजिन-शामनस्य मनां प्रणेतुः प्रतिमंगलार्थम / प्रगयते नाम परम-पवित्रं म्वसिद्धि-कामेन जनेन लोके // 7 // जिन महलोंका नाम-कीर्तन तक पापोंको दूर करके प्रात्माको पवित्र करता है उनके शरगामे पूर्ण हृदयमे प्रास होने का तो फिर कहना ही क्या है-वह तो पाप-नापको और भी अधिक मान्न करके प्रात्माको पूर्ण निर्दोष एवं मुख-शान्तिमय बनाने में समर्थ है / इसी में स्वामी ममन्नभद्रने अनेक स्थानोंपर 'ततस्त्वं निर्माह: शरणमसि नः शान्नि-निलयः (120) जैसे वाक्यों के माथ अपने को प्रहन्नोंकी शरण मे अपंग किया है / यहाँ इस विषयका एक खास वाक्य उद्धृत किया जाता है. जो शरण-प्राप्ति में कारण के भी स्पष्ट उल्लेख को लिये हुए हैम्वदीप-शान्या विहितात्म-शान्ति: शान्तर्विधाता शरणं गतानाम् / भूगाव-क्लेश-भयोपशान्त्यै शान्तिनिनो मे भगवान् शरण्यः / / 8 / / इममे बतलाया है कि वे भगवान् शानिजिन मेरे शरण्य है-में उनकी शरगा लेता है-जिन्होने अपने दोगेकी-मजान, मोह तथा राग-द्वेष-काम- . क्रोधादि-विकारोंकी-शान्ति करके प्रात्मामे परमशान्ति स्थापित की है-पूर्ण मुखस्वरूपा स्वाभाविकी स्थिति प्रात की है-प्रौर इसलिये जो शरणागोंको शान्तिके विषाता है-उनमें अपने प्रात्मप्रभावसे दोपोंकी शान्ति करके शान्ति Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 384 जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश सुखका संचार करने मथवा उन्हें शान्ति-सुखरूप परिणत करने में सहायक एवं निमित्तभूत हैं। प्रतः (इस शरणागतिके फलस्वरूप) वे शान्तिजिन मेरे संसार-परिभ्रमणका अन्त और सांसारिक क्लेशों तथा भयोंकी समातिमें कारणीभूत होंवें।' ___यहां शान्तिजिनको शरणागतोंकी शान्तिका जो विधाता ( कर्ता) कहा है उसके लिये उनमें किसी इच्छा या तदनुकूल प्रयत्नके प्रारोपकी जरूरत नहीं है, वह कार्य उनके 'विहितात्म-शान्ति' होनेसे स्वयं ही उस प्रकार हो जाता है जिस प्रकार कि अग्निके पास जानेसे गर्मीका पोर हिमालय या शीतप्रधान प्रदेशके पास पहुंचनेसे सर्दीका संचार अथवा तद् प परिणमन स्वयं हुमा करता है और उसमें उस अग्नि या हिममय पदार्थकी इच्छादिक-जैसा कोई कारण नहीं पड़ता। इच्छा तो स्वयं एक दोष है और वह उस मोहका परिणाम है जिसे स्वयं स्वामीजीने इस ग्रन्यमें 'अनन्तदोषाशय-विग्रह' (66) बतलाया है / दोषोंकी शान्ति हो जानेसे उसका अस्तित्व ही नहीं बनता। और इसलिए अहंन्तदेवमें विना इच्छा तथा प्रयत्नवाला कर्तृत्व सुघटित है। इसी कर्तृत्वको लक्ष्यमें रखकर उन्हें 'शान्तिके विधाता' कहा गया है-इच्छा तया प्रयत्नवाले कर्तृत्वकी दृष्टिसे वे उसके विधाता नहीं है। और इस तरह कर्तृत्व-विषय में अनेकान्त चलता हैसर्वथा एकान्तपक्ष जनशासनमें ग्राह्य ही नहीं है / यहां प्रसंगवश इतना और भी बतला देना उचित जान पड़ता है कि उक्त पद्यके तृतीय चरणमें सांसारिक क्लेगों तथा भयोंकी शान्तिमें कारणीभूत होनेकी जो प्रार्थना की गई है व जंनी प्रार्थनाका मूलरूप है, जिसका और भी स्पष्ट दर्शन नित्य की प्रार्थनामें प्रयुक्त निम्न प्राचीनतम गाथा में पाया जाता है दुक्ख-खो कम्म-स्वरो समाहि-मरणं च बोहिलाही य / मम होउ तिजगबंधव ! तव जिणवर चरण-सरणेण // इसमें जो प्रार्थना की गई है उसका रूप यह है कि-हे त्रिजगतके (निनि'मिड) बन्बु जिनदेव ! पापके चरण-शरणके प्रसादमे मेरे दुःखोंका क्षय, कर्मोका क्षय, समाधिपूर्वक मरण और बोषिका-सम्यग्दर्शनादिकका-लाम होवे / ' इससे यह प्रार्थना एक प्रकारसे प्रारमोत्कर्षकी भावना है और इस बातको सूक्ति करती है कि जिनदेवकी चरण प्रात होनेसे प्रसन्नतापूर्वक जिनदेवके चरणोंका Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 385 समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र माराधन करनेसे-दुःखोंका भय और कोका क्षयादिक सुख-साध्य होता है। यही भाव समन्तभद्रकी प्रार्थनाका है। इसी भावको लिए हुए ग्रन्थमें दूसरी प्रार्थनाएं इस प्रकार है "मति-प्रवेकः स्तुवतोऽस्तु नाथ !!" (25) "मम भवताद् दुरितासनादितम्" (105) "भवतु ममाऽपि भवोपशान्तये' (115) परन्तु ये ही प्रार्थनाएं जब जिनेन्द्रदेवको साक्षातरूपमें कुछ करने-कराने के लिये प्रेरित करती हुई जान पड़ती है तो वे प्रल कृतरूपको धारण किये हुए होती है। प्रार्थनाके इस अलंकृतरूपको लिये हुए जो वाक्य प्रस्तुत ग्रन्थमें पाये जाते है वे निम्न प्रकार है 1. पुनातु चेतो मम नाभिनन्दनः (5) 2. जिनः श्रिय मे भगवान विधत्ताम् (10) 3. ममाऽऽर्य देया: शिवतातिमुच्चैः (15) 4. पूयात्पवित्रो भगवान् मनो में (40) 5. श्रेयसे जिनयुप ! प्रसीद नः (75) ये सब प्रार्थनाएँ चित्तको पवित्र करने, जिनधी तथा शिवसन्ततिको देने पौर कल्याण करने की याचनाको लिये हुए है, मात्मोत्कर्प एवं ग्रामविकासको लक्ष्य करके की गई हैं, इनमें प्रमंगतता तथा प्रभाव-जंसी कोई बात नही है-सभी जिनेन्द्र देवके सम्पर्क तथा शरण में प्रानमे स्वय सफल होने वाली अथवा भक्ति उपासनाके द्वारा सहजसाध्य है - और इमलिये अलंकारकी भापामे की गई एक प्रकारको भावनाएँ दी है। इनके ममंको अन्यके अनुवादमे स्पष्ट किया गया है। वास्तवमें परम वीतरागदेवसे विवेकी जनकी प्रार्थनाका प्रथं देवके समक्ष अपनी भावनाको व्यक्त करना है प्रषात यह प्रकट करना है कि वह मापके भरण-शरण एवं प्रभाव में रहकर भोर कुछ पदार्थपाठ लेकर प्रात्मशक्तिको जागृत एवं विकसित करता हुमा मपनी उस इच्छा, कामना या भावनाको पूरा करने में समर्थ होना चाहता है / उसका यह प्राशय कदापि Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश नहीं होता कि वीतरागदेव भक्तकी प्रार्थनासे द्रवीभूत होकर अपनी इच्छाशकि एवं प्रयत्नादिको काममें लाते हुए स्वयं उसका कोई काम कर देंगे अथवा दूसरोंसे प्रेरणादिके द्वारा करा देंगे / ऐसा माशय मसम्भाव्यको संभाव्य बनाने-जसा है और देवके स्वरूपसे अनभिज्ञता व्यक्त करता है। प्रस्तु, प्रार्थनाविषयक विशेष ऊहापोह स्तुतिविद्याकी प्रस्तावना या तद्विषयक निबन्धमें वीतरामसे प्रार्थना क्यों ?' इस शीर्षकके नीचे किया गया है और इसीलिए उसे वहींसे जानना चाहिये। इस तरह भक्तियोग, जिसके स्तुति, पूजा, वन्दना, माराधना, शरणागति, भजन-स्मरण और नामकीर्तनादिक अंग है, प्रात्मविकासमे सहायक है / और इसलिए जो विवेकी जन प्रथवा बुद्धिमान पुरुष मात्मविकासके इच्लुक तथा अपना हितसाधनमें सावधान है वे भक्तियोगका माश्रय लेते है। इसी बातको प्रदर्शित करनेवाले ग्रन्थके कुछ वाक्य इस प्रकार है 1. इति प्रभो ! लोक-हितं यतो मतं ___ ततो भवानेव गतिः सता मतः (28) / 2. ततः स्वनिश्रेयस-भावना-परै बुधप्रवेकैर्जिन ! शीतलेडयसे (50) / 3. ततो, भवन्तमार्याः प्रणता हितैपिणः (35) / 4. तस्माद्भवन्तमजमप्रतिमेयमार्या: स्तुत्यं स्तुवन्ति सुधियः स्वहितंकतानाः (85) / 5, स्वार्थ-नियत-मनसः सुधियः प्रणमन्ति मन्त्रमुखरा महर्षयः (124) / स्तृतिविद्यामें तो बुद्धि उसीको कहा है जो जिनेन्द्र का स्मरण करती है, मस्तक उसीको बतलाया है जो जिनेन्द्र के पदों में नत रहता है, सफलजन्म उसीको घोषित किया है जिसमें संसार-परिभ्रमणको नष्ट करनेवासे जिन-चरणोंय प्राश्रय लिया जाता है, वाणी उसीको माना है जो जिनेन्द्रका स्तवन (गुणकीर्तन) करती है, पवित्र उसीको स्वीकार किया है जो जिनेन्द्रके मतमें रत है और पंडितवन उन्हींको अंगीकार किया है. जोगिन परणों Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र 387 सदा नम्रीभूत रहते 164 (113) / इन्हीं सब बातोंको लेकर स्वामी समन्तभद्रने अपनेको महंजिनेन्द्रकी भक्ति के लिए अर्पण कर दिया था। उनकी इस भक्तिके ज्वलन्त रूपका दर्शन स्तुति विद्याके निम्न पचमें होता है, जिसमें वे वीरबिनेन्द्रको लक्ष्य करके लिखते है 'हे भगवन् मापके मसमें प्रथवा आपके विषयमें मेरी सुश्रद्धा है-अन्ध श्रद्धा नहीं; मेरी स्मृति भी मापको ही अपना विषय बनाये हुए है-सदा मापका ही स्मरण किया करती है; में पूजन भी प्रापका ही करता हूँ, मेरे हाथ भापको ही प्राणामांजलि करने के निमित्त है, मेरे कान पापकी ही गुण-कथाको सुनने में लीन रहते है, मेरी प्रा प्रापके ही सुन्दर रूपको देखा करती है, मुझे जो व्यसन है वह भी प्रापकी सुन्दर स्तुतियोके रचने का है और मेरा मस्तक भी पापको ही प्रणाम करने में तत्पर रहता है / इस प्रककारी चूंकि मेरी सेवा है-में निरन्तर ही पापका इस तरह माराधन किया करता हूं- इसीलिए है तेजःपते ! (केवलज्ञानस्वामिन् ) मैं तेजस्वी हूं, सुजन है और सुकृति (पुण्यवान ) हूँ सुश्रद्धा मम ते मते स्मृतिरांप त्वय्यर्चनं चाऽपि ते हम्तावजलये कथा-श्रुति-रतः कर्णोऽक्षि संप्रेक्षते / सुम्तुत्यां व्यसन शिरोनतिपरं सेवेटशी येन ते तेजस्वी सुजनोऽहमेव मुकृती तेनैव तेजःपते // 114 // यहां सबसे पहले 'सुत्र / ' को जो बात कही गई है वह बड़े महत्वकी है मोर प्रगनी सब बातों अथवा प्रवृत्तियों की जान-प्राण जान पड़ती है। इससे जहाँ यह मालूम होता है कि समन्तभद्र जिनेन्द्रदेव तथा उनके शासन मत के विषयमें अन्धश्रद्धालु नहीं थे वहाँ यह भी जाना जाता है कि भक्तियोगमें पधश्रताका ग्रहण नहीं है-उसके लिये सुश्रना चाहिये, जिसका सम्बन्ध विवेकसे - -- - .. mummenst... ----- -mawwamirman 1. प्रज्ञा सा स्मरतीति या तव शिरस्तचन्नतं हे पदे जन्माद: सपलं परं भवभिदी यत्राधिवे ते पड़े। मांगल्यं च सयो.रसस्तव मते गी: सैव या स्वा शुदे .. तेशा ये प्रणता जनाः कमयुगे देवाधिदेवस्य ते // 113 // ". : . Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 388 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश है / समन्तभद्र ऐसी ही विवेकवती सुश्रदासे सम्पन्न थे। पन्धी भक्ति वास्तवमें उस फलको फल ही नहीं सकती जो भक्तियोगका लक्ष्य और उद्देश्य है। इसी भक्त्यर्पणाकी बातको प्रस्तुत ग्रन्थमें एक दूसरे ही तुंगसे व्यक्त किया गया है और वह इस प्रकार है अतएव ते बुधनुतस्य चरित-गुणमतोदयम / न्यायविहितमवधार्य जिने स्वयि सुप्रसन्नमनसः स्थिता षयम् / / इस वाक्यमें स्वामी समन्तभद्र यह प्रकट करते है कि 'हे दुषजनस्तुत. जिनेन्द्र ! मापके चरित गुण पोर अद्भुत उदयको न्यायविहित-युक्तियुक्तनिश्चय करके ही हम बड़े प्रसन्नचित्तसे पापमें स्थित हुए है-मापके भक्त बने है और हमने पापका प्राश्रय लिया है।' इससे साफ़ जाना जाता है कि समन्तभद्रने जिनेन्द्रके चरित गुणकी और केवलज्ञान तथा समवसरणादि-विभूतिके प्रादुर्भावको लिये हुए प्रभुत उदयकी पांच की है-परीक्षा की है-और उन्हें न्यायकी कसोटीपर कसकर ठीक एवं युक्तियुक्त पाया है तथा अपने प्रात्मविकासके मागमें परम-सहायक समझा है, इसीलिये वे पूर्ण-हृदयसे जिनेन्द्र के भक्त बने है और उन्होंने अपनेको उनके चरण शरणमें मर्पण कर दिया है / अत: उनका भक्तिमें कुलपरम्परा, रूढिपालन और कृत्रिमता (बनावट-दिखावट )-जैसी कोई बात नहीं थी-वह एक दम शुद्ध विवेकसे संचालित यी मोर ऐसा ही भक्तियोगमें होना चाहिये / हाँ, समन्तभद्रका भक्तिमार्ग, जो उनके स्तुति-प्रन्योंसे भले प्रकार जाना जाता है, भक्तिके सर्वथा एकान्तको लिये हुए नहीं है। स्वयं समन्तभद्र भक्ति. योग, ज्ञानयोग भोर कर्मयोग तीनोंकी एक मूर्ति बने हुए थे-इनमेंसे किसी एक ही योगके वे एकान्त पक्षपाती नहीं थे। निरी या कोरी एकान्तता. तो उनके . .जो एकान्तता नयोंके निरपेक्ष व्यवहारको लिए हुए होती है उसे 'निरी' 'कोरी' अथवा 'मिथ्या' एकान्तता कहते है / समन्तभद्र इस मिथ्याएकान्ततासे रहित थे; इसीसे 'देवागममें, एक पापत्तिका निरसन करते हुए, उन्होंने लिखा है-"न मिथ्र्यकान्तताऽस्ति नः / निरपेक्षा नवा मिया: सापेक्षा पस्तु तेश्यकृत् // " Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र 386 पास तक भी नहीं फटकती थी वे सर्वथा एकान्तवादके सख्त विरोधी थे और उसे वस्तुतत्त्व नहीं मानते थे। उन्होंने जिन खास कारणोंसे पहंजिनेन्द्रको अपनी स्तुतिके योग्य समझा और उन्हें अपनी स्तुतिका विषय बनाया है उनमें, उनके द्वारा एकान्तदृष्टिके प्रतिषेधकी सिद्धिरूप न्यायबारण भी एक कारण है। महन्तदेव अपने इन एकान्तदृष्टि-प्रतिषेधक प्रमोघ न्यागबाणोंसे-तत्त्वज्ञानके सम्यक् प्रहारोंसे-मोहशत्रुका अथवा मोहकी प्रधानताको लिये हुए भानावरणादिरूप शत्रु-समूहका नाश करके कैवल्य-विभूतिके-केवलज्ञानके साथ-साथ समवसर. णादि-विभूतिके-सम्राट् हुए है, इसीलिये समन्तभद्र उन्हें लक्ष्य करके प्रस्तुत अन्यके निम्नवाक्यमें कहते हैं कि 'पाप मेरी स्तुतिके योग्य है-पात्र है'। एकान्तदृष्टि-प्रतिषेध-सिद्धि-न्यायेषुभिर्मोहरिपु निरस्य / असिस्म कैवल्य-विभूति-सम्राट ततस्त्वमहनसि मे स्तवाहः / / इससे समन्तभद्रकी परीक्षा-प्रधानता, गुणज्ञता और परीक्षा करके सुश्रद्धाके साथ मक्ति में प्रवृत होनेकी बात पर भी स्पष्ट हो जाती है। साथ ही, यह भी मालूम हो जाना है कि जब तक एकान्तदृष्टि बनी रहती है तब तक मोह नहीं जीता जाता, जब तक मोह नहीं जीना जाता तब तक प्रात्म-विकास नहीं बनता और न पूज्यनाकी ही प्राप्ति होती है। मोहको उन न्याय-बारणोंसे जीता जाता है जो एकान्तप्टिके प्रतिरोधको सिद्ध करनेवाले है-सर्वथा एकान्तरूप दृष्टिदोषको मिटाकर अनेकान्तदृष्टिकी प्रतिष्ठारूप सम्यग्दृष्टित्वका मात्मामें संचार करनेवाले है। इससे तत्त्वज्ञान और तत्वश्रदानका महत्व सामने भाजाता है, जो अनेकान्तहप्टिके माश्रित है, और इसीमे समन्तभद्र भक्तियोगके एकान्तपक्षपाती नहीं थे। इसी तरह ज्ञानयोग तथा कर्मयोगके भी वे एकान्त-पक्षपाती नहीं थे-एकका दूसरेके साथ अकाटय सम्बन्ध मानते थे। शान-योग जिस समीचीन ज्ञानाम्यासके द्वारा इस संसारी जीवात्माको अपने शुद्धस्वरूपका, परस्पका, परके सम्बन्धका, मम्बन्धसे होनेवाले विकारका-दोषका अथवा विभावपरिणतिका-विकारके विशिष्ट कारणोंका और उन्हें दूर करने, निर्विकार (निर्दोष ) बनने, बन्धनरहित (मुक्त) होने तथा अपने निजरूपमें Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश सुस्थित होनेके साधनोंका परिज्ञान कराया जाता है, और इस तरह हृदयान्धकारको दूरकर-भूल-भ्रान्तियोंको मिटाकर-मास्मविकास सिद्ध किया जाता है, उसे 'ज्ञानयोग' कहते है। इस ज्ञानयोगके विषयमें स्वामी समन्तभद्रने क्या कुछ कहा है उसका पूरा परिचय तो उनके देवागम, युक्त्यनुशासन मादि सभी अन्योंके गहरे अध्ययनसे प्राप्त किया जा सकता है / यहाँपर प्रस्तुत ग्रन्यमें स्पष्टतया सूत्ररूपसे, सांकेतिक रूपमें प्रथवा सूचनाके रूपमें जो कुछ कहा गया है उसे, एक स्वतंत्र निबन्धमें संकलित न कर, स्तवन-क्रमसे नीचे दिया जाता है, जिससे पाठकोंको यह मालूम करने में सुविधा रहे कि किस स्तवनमें कितना मोर क्या कुछ तत्त्वज्ञान सूत्रादिरूपसे समाविष्ट किया गया है / विज्ञजन अपने बुद्धिबलसे उसके विशेष रूपको स्वयं समझ सकेंगे-व्याख्या करके यह बतलानेका यहाँ अवसर नहीं कि उसमें और क्या-क्या तत्त्वज्ञान छिपा हुमा है अथवा उमके साथमें अविनाभावरूपसे सम्बद्ध है / उसे व्याख्या करके बतलानेसे प्रस्तुतनिबन्धका विस्तार बहुत बढ़ जाता है, जो अपनेको इष्ट नहीं है | तत्त्वज्ञान-विषयक जो कथन जिस कारिकामें पाया है उस कारिकाका नम्बर भी साथमें नोट कर दिया (1) पूर्ण विकासके लिये प्रबुद्धतत्त्व होकर ममत्वसे विरक्त होना, वधूवित्तादि-परिग्रहका त्याग करके जिनदीक्षा लेना-महावतादिको ग्रहण करना, दीक्षा लेकर भाए हुए उपसर्ग-परिषहोंको समभावसे सहना और प्रतिज्ञात सद्बतनियमोंसे चलायमान नहीं होना आवश्यक है ( 2, 3) / अपने दोपोंके मूल कारणको अपने ही समाधि-तेजमे भस्म किया जाता है मौर तभी ब्रह्मपदरूप अमृतका स्वामी बना जाता है (4) / (2) जो महामुनि धनोपोहसे-घातिया कमौके प्रावरणादिरूप उपसेपसेरहित होते हैं वे भव्यजनोंके हृदयोंमें संलग्न हुए कलकोंकी-प्रशानादि दोषों तथा उनके कारणीभूत ज्ञानावरणादि कोकी--शान्तिके लिये उसी प्रकार निमित्तभूत होते है जिस प्रकार कि कमलोंके अभ्युदयके लिये मूर्य (८)[यह शान भक्तियोगमें सहायक होता है ] 1 उत्तम पौर महान् पर्मतीर्यको पाकर भव्यजन दुःलॉपर उसी प्रकार विजय प्राप्त करते है जिस प्रकार कि धामसे संतप्त हुए हाथी शीतल गंगादहमें प्रवेश करके अपना सब माताप मिटा डालते Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र 6 (6) / जो ब्रह्मनिष्ठ (अहिंसातत्पर ), सम-मित्र-शत्रु और कषाय-दोषोंसे रहित होते है वे ही प्रात्मलक्ष्मीको-प्रनन्तज्ञानादिरूप जिनधीको-प्राप्त करने में समर्थ होते हैं (10), (3) यह जगत भनित्य है, प्रशरण है, अहंकार-ममकारकी क्रियाओंके द्वारा संलग्न हुए मिथ्याभिनिवेशके दोपसे दूषित है और जन्म-जरा-मरणसे पीड़ित है, उसे निरंजना शान्तिकी जरूरत है (12) / इन्द्रिय-विषय-सुख बिजलीकी चमकके समान चंचल है-क्षणभर भी स्थिर रहनेवाला नहीं है--ौर तृष्णारूपी रोगकी वृद्धि का एकमात्र हेतु है-इन्द्रिय विषयोंके अधिकाधिक सेवनसे दृप्ति न होकर उलटी तृष्णा बढ़ जाती है, तृष्णाकी वृद्धि ताप उत्पन्न करती है मोर यह ताप जगतको (कृषिवाणिज्यादि क्लेशकर्मोमें प्रवृत्त कराकर ) अनेक दुःख-परम्परासे पीडिन करता रहता है (13) / बन्ध, मोक्ष, दोनों के कारण, बद्ध, मुक्त और मुक्तिका फल, इन मबकी व्यवस्था स्याद्वादी-प्रकान्तप्टिके मतमें ही ठीक बैटनी है--कान्त दृष्टियो अथवा सर्वथा एकान्तवादियोके मतोंमें नहीं-मोर 'शास्ता' ( तन्वोपदेष्टा ) पदके योग्य स्याद्वादी प्रहन्त-जिन ही होते है-उन्हीका उपका मानना चाहिये (14) / (4) समाधिकी मिद्धि के लिये उभयप्रकार के नै ग्रन्थ्य-गुरगसे-बाह्याभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रहके त्यागसे- युक्त होना आवश्यक है-विना इसके समाधिकी सिद्धि नहीं होनी; परन्तु क्षमा मखीवाली दयावधूका त्याग न करके दोनोंको अपने प्राश्रयमें रखना जरूरी है (16) / प्रचेतन शरीरमें पोर शरीर-सम्बन्धमे अथवा शरीर के साथ किया गया प्रान्माका जो कमश बन्धन है उससे उत्पन्न होनेवाले मुख-दुःखादि तथा स्त्री-पुत्रादिकमें 'यह मेग है' इस प्रकारके प्रमिनिवेशको लिये हुए होनेसे तथा क्षणभंगुर पदार्थों में स्थायित्वका निश्चय कर लेनेके कारण यह जगत नष्ट हो रहा है-प्रात्महित-साधनमे विमुख होकर अपना प्रकल्याण कर रहा है (17) / धादि दु:खोंके प्रतिकारमे और इन्द्रिय. विषय-जय स्वल्प सुखके अनुभवमे देह पोर देहधारीका मुखपूर्वक अवस्थान नहीं बनता। ऐसी हालत में क्षुधादि-दुःखों के इम क्षरणस्थायी प्रतीकार ( इलाज) मौर इन्द्रिय-विषय-जन्य स्वल्प मुखके सेवनसे न तो वास्तवमें इस शरीरका कोई उपकार बनता है और न शरीरधारी प्रात्माका ही कुछ भला होता है प्रतः इन Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362 . जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश के प्रतीकारादिमें प्रासक्ति (प्रतीव रागकी प्रवृत्ति) व्यर्थ है (18) जो मनुष्य मासक्तिके इस लोक तथा परलोक-सम्बन्धी दोषों को समझ लेता है वह इन्द्रियविषयसुखोंमें प्रासक्त नहीं होता; अत: आसक्तिके दोषको भले प्रकार समझ लेना चाहिये (16) / मासक्तिसे तृष्णाकी अभिवृद्धि होती है और इस प्राणीकी स्थिति सुखपूर्वक नहीं बनती. इसीसे वह तापकारी है। ( चौथे स्तवनमें वर्णित ) ये सब लोक-हितको बातें हैं (20) / (5) अनेकान्त-मतसे भिन्न शेष सब मतोंमें सम्पूर्ण क्रियानों तथा कर्ता, कर्म, करण प्रादि कारकोंके तत्त्वकी सिद्धि --उनके स्वरूपकी उत्पत्ति अथवा ज्ञप्तिके रूपमें प्रतिष्ठा-नहीं बनती, इसीसे अनेकान्तात्मक वस्तुतत्त्व ही मुयुक्ति-नीत है (21) / वह सुयुक्ति-नीत वस्तुतन्त्रभेदाऽभेद-ज्ञानका विषय है और अनेक तया एकरूप है, पौर यह वस्तुको भेद-प्रभेदके रूपमें ग्रहण करनेवाला जान ही मत्य है / जो लोग इनमेंसे एकको ही सत्य मानकर दूसरे में उपचारका व्यवहार करते हैं वह मिथ्या है; क्योंकि परस्पर अविनाभावसम्बन्ध होनेमे दोनोंमेंसे एकका प्रभाव हो जानेमे वस्तुतत्त्व अनुपास्यनिःस्वभाव हो जाता है (22) / जो सत् है उसके कश्चित् प्रसत्व-यक्ति भी होती है; जैगे पुष्प वृक्षोंपर तो अस्तित्वको लिए हुए प्रसिद्ध है परन्तु प्राकाशपर उसका अस्तित्व नहीं है. प्राकाशकी अपेक्षा वह प्रमत्म्प है। यदि वस्तुतत्त्वको सर्वया स्वभावच्युत माना जाय तो वह अप्रमाण ठहरता है। इमीमे सर्वजीवादितत्त्व कथञ्चित् सत्-असत्रूप अनेकान्तात्मक है। इम मतसे भिन्न जो एकान्त मत है वह स्ववचन-विरुद्ध है (23) / यदि वस्तु सर्वथा नित्य हो तो वह उदय-अस्तको प्राप्त नहीं हो सकती और न उसमें क्रियाकारककी योजना ही बन सकती है। ( इसी तरह ) जो मवंथा प्रसत् है उसका कभी जन्म नहीं होता और जो सर्वया सत् है उसका कभी नाश नहीं होता / दीपक भी बुझ जानेपर मर्वथा नाशको प्राप्त नहीं होता, किन्तु उस समय अन्धकाररूप पुद्गल पर्यायको धारण किये हुए अपना अस्तित्त्व रखता है (24) / ( वास्तव में ) विधि पौर निषेध दोनों कथञ्चित् इष्ट हैं / विवक्षासे उनमे मुख्य-गौण की व्यवस्था होती है (25) / इस तत्वज्ञानकी कुछ विशेष व्याख्या अनुवादपरसे जानने योग्य है। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका स्वयम्भस्तोत्र 363 (6) जो केवलज्ञानादि लक्ष्मीसे पालिगित चारुमूर्ति होता है वही भव्यजीवरूप कमलोंको विकसित करने के लिये सूर्यका काम देता है (26) / (7) प्रात्यन्तिक स्वास्थ्य-विभावपरिणति मे रहित अपने अनन्तज्ञानादिस्वरूप में प्रविनश्वरी स्थिति-ही जीवात्मानोंका स्वार्थ है-क्षणभंगुर भोग स्वार्थ न होकर प्रस्वार्थ है / इन्द्रियविषय-सुख के सेवनसे उत्तरोत्तर तृष्णाकीभोगाकांक्षाकी--वृद्धि होती है और उससे तापकी-शारीरिक तथा मानसिक दुःखको-शान्ति नहीं होने पाती (31) / जीवके द्वारा धारण किया हुमा शरीर प्रजंगम, जंगम-नेय-यन्त्र, बीभत्सु, पूति, क्षयि, और तापक है भोर इसलिये इसमें अनुराग व्यर्थ है, यह हितकी बात है (32) / हेतुद्वयसे प्राविकृत-कार्य-लिला भवितव्यता प्रलंध्यशक्ति है, इस भवितव्यताको अपेक्षा न रखनेवाला प्रहंकारसे पीड़ित हमा संसारी प्राणी (यंत्र-मंत्र-तंत्रादि ) अनेक सहकारी कारणों को मिलाकर भी सुसादिक कार्योको वस्तुतःसम्पन्न करने में समर्थ नहीं होता (33) / यह संसारी प्राणी मृत्युसे डरता है परन्तु ( प्रलंध्य. शक्ति-भवितव्यता-वश) उस मृत्युमे छुटकारा नहीं, नित्य ही कल्याण चाहता है परन्तु ( भावीकी उसी मलध्यशक्तिवश ) उसका लाभ नहीं होता, फिर भी यह मूढप्रागी भय तथा इच्छाके वशीभूत हुमा स्वयं ही वृथा तप्तायमान होता है अथवा भवितव्यता-निरपेक्ष प्राणी तथा ही भय और इच्छाके वश हुपा दुःख उठाता है (34) / () जिन्होंने अपने प्रत्त.करण के कषाय-बन्धनको जोता है-सम्पूर्णक्रोधादि-कषायोंका नाश कर प्रकपार-पद प्राप्त किया है-वे 'जिन' होते हैं (36) / ध्यान-दीपके प्रतिशयमे-परमशुक्लध्यान के तेज-द्वारा-प्रचुर मानसप्रन्धकार-झानावरणादि-कमजन्य मात्माका समस्त प्रज्ञानान्धकारदूर होता है (37) (6) तत्व वह है जो सत्-प्रसत् मादिरूप विवक्षिताऽविवाक्षिन स्वभावको लिये हुए है और एकान्तदृष्टिका प्रतिषेधक है तथा प्रमाण सिद्ध है (41) / वह तत्त्व कपंचित् तद्रप मोर कचित् मतदूप है; क्योंकि वैसी ही सत्-प्रसत् मादि रूपकी प्रतीति होती है। स्वरूपादि-चतुष्टयरूप विधि मोर पररूपादिचतुष्टयरूप निषेषके परस्परमें अत्यन्त (सर्वथा) भिनता तथा अभिन्नता नहीं Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364 . जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश है, क्योंकि सर्वथा भिन्नता या अभिन्नता माननेपर शून्य-दोष माता है-वस्तुके सर्वथा लोपका प्रसंग उपस्थित होता है (42) / यह वही है, इस प्रकारकी प्रतीति होनेसे वस्तुतव नित्य है और यह वह नहीं-प्रन्य है, इस प्रकारकी प्रतीतिकी सिद्धि से वस्तुतत्त्व नित्य नहीं-प्रनित्य है / वस्तुतत्त्वका नित्य भोर मनित्य दोनों रूप होना विरुद्ध नहीं है क्योंकि वह बहिरंग निमित्त-सहकारी कारण--अन्तरंग निमित्त-उपादान कारण-पौर नैमित्तिक-निमित्तोंसे उत्पन्न होनेवाले कार्य के सम्बन्धको लिये हुए है (43) / पदका वाच्य प्रकृति ( स्वभाव ) से एक और अनेक रूप है, 'वृक्षा:' इस पदज्ञानको तरह। अनेकान्तात्मक वस्तुके 'अस्तित्त्वादि किसी एक धर्मका प्रतिपादन करने पर उस समय गौणभूत नास्तित्वादि दूसरे धर्मके प्रतिपादनमें जिसकी माकांक्षा रहती है ऐसे आकांक्षी-सापेक्षवादी अथवा स्याद्वादीका स्यात्' यह निपातस्यात् शब्दका साथमें प्रयोग-गौरणकी अपेक्षा न रखनेवाले नियममें--सर्वथा एकान्तमतमें-बाधक होता है (44) / 'स्यात्' पदरूपसे प्रतीयमान वाक्य मुख्य और गौणकी व्यवस्थाको लिये हुए है और इसलिये अनेकान्तवादसे उप रखनेवालोंको प्रपथ्य रूपमे अनिष्ट है-~~-उनको सैद्धान्तिक प्रकृतिके विरुद्ध है (45) / इस स्तवनमें तत्वज्ञानकी भी कुछ विशेष व्याख्या अनुवादपरमे जानने योग्य है। (10) सांसारिक सुखोंकी भभिलापारूप अग्निके दाहमे मूर्थिन हुमा मन ज्ञानमय अमृतजलोंके सिञ्चनसे मूर्छा-रहित होता है (47) / प्रान्मविशुद्धि के मार्गमें दिन रात जागृत रहनेकी--पूरणं सावधानर हनेकी-जरूरत है, तभी वह विशुद्धि सम्पन्न हो सकती हैं (48) / मन-वचन-कायकी प्रवृत्तिको पूर्णतया रोकनेसे पुनर्जन्मका अभाव होता है और साथ ही जरा भी टल जाती है (65) (11) वह विधि-स्वरूपादि-चतुष्टयसे अस्तित्त्वरूप-प्रमाण है जो कथंचित् तादात्म्य-सम्बन्धोंको लिए हुए प्रतिषेधरूप है-पररूपादि-चतुष्टयकी अपेक्षा नास्तित्त्वरूप भी है। इन विधि प्रतिषेध दोनोंमेंसे कोई प्रधान होता है (वक्ताके भभिप्रायानुसार, न कि स्वरूपसे)। मुख्यके नियामका-'स्वरपादि चतुष्टयसे विधि और पररूपादि चतुष्टयसे ही 'निषेष' इस नियमका-जो हेतु है वह नय है और वह नय दृष्टान्त समर्थन दृष्टान्तसे समर्पित पथवा दृष्टान्त Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र 365 समर्थक होता है / (52) / विवक्षित मुख्य होता है और अविवक्षित गौरण / जो प्रविवक्षित होता है वह निरात्मक (प्रभावरूप) नहीं होता / मुख्य-गोरगकी व्यवस्थासे एक ही वस्तु शत्रु, मित्र तथा उभय अनुभय-शक्तिको लिये रहती है / वास्तवमें वस्तु दो प्रवधियों(मर्यादामों)से ही कार्यकारी होती हैविधि-निषेष, सामान्य-विशेष, द्रव्य-पर्यायरूप दो दो धर्मोंका प्राश्रय लेकर ही प्रक्रिया करने में प्रवृत्त होती है और अपने यथार्थ स्वरूपकी प्रतिष्ठापक बनती है (53) / वादी-प्रतिवादी दोनोंके विवादमें दृष्टान्तकी सिद्धि होनेपर साध्य प्रसिद्ध होता है; परन्तु वसी कोई दृष्टान्तभूत वस्तु है नहीं जो सर्वया एकान्तकी नियामक दिखाई देती हो ! अनेकान्त दृष्टि मबमें-माध्य, साधन पौर दृष्टान्नादिमें-प्रपना प्रभाव डाले हुए है-वस्तुमात्र अनेकान्त्वसे व्याप्त है / इसीसे सर्वथा एकान्तवादियोके मतमें ऐमा कोई दृष्टान्त ही नहीं बन सकता जो उनके सर्वया एकान्तका नियामक हो और इमलिये उनके मर्वथा नित्यत्वादि साध्यकी सिद्धि नहीं बन सकती (54) एकान्नदृष्टिके प्रतिपेधकी मिद्धिरूप न्याय-बाग्गोंमे-स्वजानके सम्यक प्रहारोंमे-मोहशत्रुका अथवा मोहकी प्रधानताको लिये हुए शत्रसमूहका -नाग किया जाना है (55) / (12) जो राग पोर षसे रहित होते है उन्हें यद्यपि पूजा तथा निन्दासे कोई प्रयोजन नहीं होता,फिर भी उनके पुण्यगुणों का स्मरण चित्तको पाप-मलोंमे पवित्र करता है (57) / पूज्य-जिनकी पूजा करते हुए जो ( मराग-परिगति अथवा प्रारम्भादि द्वारा ) लेशमात्र पापका उपार्जन होता है वह (भावपूर्वक को हुई पूजासे उत्पन्न होनेवाली) बहुपुण्यरागिमें उसी प्रकार दोषका कारण नहीं बनता जिस प्रकार कि विषकी एक कणिका शीत-शिवाम्बुराशिको-ठडे कल्याणकागे जलसे भरे हुए समुद्रको-दूषित करनेमें समर्थ नही होती (58) / जो बाह्य वस्तु गुण-दोषकी उत्पतिका निमित होती है वह अन्तरंग में वन्नेवाले गुणदोषों की उत्पत्तिके अभ्यन्तर मूलहेनुको अंगभूत होती है / बाह्य वस्नुकी अपेक्षा म रखना हुमा केवल अभ्यन्तर कारण भी गुरण-दोषकी उत्पत्ति में समर्थ नहीं है (59) / बाह्य और पम्पन्तर दोनों कारणोंको यह पूर्णता ही द्रव्यगत स्वभाव है, अन्यथा पुरुषों में मोक्षकी विधि भी नहीं बन सकती (60) / (13) जो नित्य-मणिकादिक नय परस्परमें पनपेक्ष ( स्वतंत्र) होनेसे Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 366 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश स्व-पर-प्रणाशी (स्व-पर-वैरी ) है (और इसलिये 'दुर्नय' है) वे ही नय परस्परापेक्ष ( परस्परतंत्र ) होनेसे स्व-परोपकारी है और इसलिये तस्वरूप सम्यक् नय हैं (61) / जिस प्रकार एक-एक कारक शेष प्रन्यको अपना सहायकरूप कारक अपेक्षित करके प्रर्थकी सिद्धिके लिए समर्थ होता है उसी प्रकार सामान्य और विशेषसे उत्पन्न होनेवाले अथवा सामान्य मौर विशेषको विषय करनेवाले (द्रव्याथिक, पर्यायाधिक मादिरूप ) जो नय है वे मुख्य मोर गोरणकी कल्पनासे इष्ट ( अभिप्रेत ) है (62) / परस्परमें एक-दूसरेकी अपेक्षाको लिए हुए जो प्रभेद और भेदका-प्रन्वय तथा व्यतिरेकका-शान होता है उससे प्रसिद्ध होनेवाले सामान्य और विशेषको उसी तरह पूर्णता है जिस तरह कि ज्ञान-लक्षण-प्रमाण स्व-पर-प्रकाशक रूपमें पूर्ण है / सामान्यके विना विशेष मौर विशेषके विना सामान्य अपूर्ण है अथवा यों कहिये कि बनता ही नहीं (63) / वाच्यभूत विशेष्यका-सामान्य अथवा विशेषका-वह वचन जिससे विशेष्यको नियमित किया जाता है 'विशेषण' कहलाता है और जिसे नियमित किया जाता है वह 'विशेष्य' है। विशेषण और विशेष्य दोनोंके सामान्यरूपताका जो प्रतिप्रसंग पाता है वह स्थाद्वादमतमें नहीं बनता; क्योंकि विवक्षित विशेषगा-विशेष्यसे अन्य प्रविवक्षित विशेषण-विशेष्यका स्यात्' शब्दसे परिहार हो जाता है जिसकी उक्त मतमें सर्वत्र प्रतिष्ठा रहती है (64) / जो नय स्यात्पदरूप सत्यसे चिह्नित है वे रसोपविद लोह-धातुपोंकी तरह अभिप्रेत फलको फलते हैं -यथास्थित वस्तुतत्त्वके प्ररूपणमें समर्थ होकर सन्मार्गपर ले जाते (14) मोह पिशाच, जिसका शरीर पनन्त दोषोंका प्राधार है पोर जो चिरकालमे प्रात्माके साथ सम्बद्ध होकर उसपर प्रपना मातङ्क जमाए हुए है, तत्त्वश्रद्धामें प्रसन्नता धारण करनेसे जीता जाता है (66) / कषाय पीडनशील शत्रु है, उनका नाम नि:शेष करनेसे-पात्माके साथ उनका सम्बन्ध पूर्णत: विच्छेद कर देने से मनुष्य अशेषवित् (सर्वश) होता है। कामदेव विशेष रूपसे शोषक-संतापक एक रोग है, जिसे समाषिरूप पोषषके गुणोंसे विलीन किया जाना है (67), तृष्णा नदी परिश्रम-जलसे भरी है और उसमें भयरूप तरंग-मालाएं उठती है। वह नवी अपरिग्रहरूप ग्रीष्मकालीन सूर्यको किरणोंसे Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तीत्र 367 सुखाई जाती है-परिग्रहके संयोगसे वह उलरोत्तर बढ़ा करती है (68) / (15) तपश्चरणरूप अग्नियोंसे कर्मवन जलाया जाता है और शाश्वत सुख प्राप्त किया जाता है (71) / (16) दयामूर्ति बननेसे पापको शान्ति होती है 76; समाधिचकसे दुर्जय मोहचक-मोहनीय कर्मका मूलोत्तर-प्रकृति-प्रपंच-जीता जाता है 77; कर्मपरतंत्र न रहकर मारमतन्त्र बननेपर माहंन्त्य लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है 78; ध्यानोन्मुख होनेपर कृतान्त(कर्म)-चक्र जीता जाता है 66; अपने राग-द्वेषकाम-क्रोधादि दोष-विकार ही मात्मामें प्रशान्तिके कारण है, जो अपने दोपोंको शान्त कर प्रात्मा शान्तिको प्रतिष्ठा करनेवाला होता है वही गरमागतोंके लिये शान्ति का विधाता होता है और इसलिये जिसके प्रात्मामें स्वयं शान्ति नहीं यह शरणागतके लिये शान्तिका विधाता भी नहीं हो सकता 80 / (17) जिनदेव कुन्थ्वादि सब प्राणियोंपर दयाके अनन्य विस्तारको लिये हए होते हैं और उनका धर्मचक्र ज्वर-जरा-मरणको उपशानिके लिए प्रतित होता है (81) / तृषापा (विषयाकांक्षा ) रूप मग्नि ज्वालाएँ स्वभावसे ही संगापित करती है। इनकी शान्ति अभिलषित इन्द्रि-विषयों की सम्पत्तिसे-प्रचुर परिमाण में सम्प्रालिसे---नहीं होती. उलटी वृद्धि ही होती है, ऐमी ही वस्तुस्थिति है / सेवन किये हुए इन्द्रिय-विषय ( मात्र कुछ समयके लिये ) गरीरके संतापको मिटाने में निमित्तमात्र है-तृष्णा रूप पग्निज्वालामोंको शान्त करने में समयं नहीं होते (82) / बाह्य दुदंर तप प्राध्यात्मिक ( अन्तरंग ) तपकी वृद्धिके लिये विधेय है। चार ध्यानोंमेंमे मादिके दो कलुषित ध्यान (प्रात-रौद्र ) हेप ( ताज्य) है और उत्तरवर्ती दो सातिशय ध्यान (घH, शुक्ल) उपादेय है (86) कोकी (पाठ मूल प्रकृतियोंमेंसे ) चार मूल प्रकृतियां (जानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय अन्तराय) कटुक (पातिया) है और वे सम्यग्दर्शनादिस्प सातिशय रत्नत्रयाग्निसे भस्म की जाती है, उनके भस्म होनेपर ही प्रास्मा पातवीर्य-शक्तिसम्पन्न अथवा विकसित होता है और सकल-वेद-विषिका दिनेता बनता है (84) / (18) पुग्यकीति मुनीन्द्र (जिनेन्द्र ) का नाम-कीर्तन भी पवित्र करता है (17) / मुमुनु होनेपर पापीका बारा विभव पीर साम्राज्य भी पीएं पूरक Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 368 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश समान निःसार जान पड़ता है (88) / कषाय-भटोंकी सेनासे युक्त जो मोहम्म शत्रु है वह पापात्मक है, उसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान मौर उपेक्षा (परमौदासीन्यलक्षण सम्यकचारित्र) रूप अस्त्र-शस्त्रोंसे जीता जाता है (60) / जो धीर वीर मोहपर विजय प्रास किये होते हैं उनके सामने त्रिलोक-विजयी दुर्दर कामदेव भी हतप्रभ हो जाता है (61) / तृष्णा नदी इस लोक तथा परलोकमें दुःखोंकी योनि है, उसे निर्दोषज्ञान-नौकासे पार किया जाता है (62) / रोग और पुनर्जन्म जिसके साथी है वह पन्तक (यम) मनुष्योंको रुलानेवाला है; परन्तु मोह-विजयीके सन्मुख उसकी एक भी नहीं चलती (63) / माभूषणों, वेषों तथा प्रायुधोंका त्यागी और ज्ञान, कषायेन्द्रिय-जय तथा दयाकी उत्कृष्टताको लिये हए जो रूप है वह दोषों के विनिग्रहका सूचक है (64) / ध्यान-तेजसे प्राध्यात्मिक ( ज्ञानावरणादिरूप भीतरी) अन्धकार दूर होता है। (65) / सर्वज्ञज्योतिमे उत्पन्न हुमा महिमोदय सभी विवेकी प्राणियों को नतमस्तक करता है (16) / सर्वज्ञकी वाणी सर्वभाषानी में परिणत होनेके स्वभावको लिये हुए होती है और अमृत के समान प्राणियों को सन्तुष्ट करती है (97) / अनेकान्तदृष्टि सती है-सत्स्वरूप सच्ची है और उसके विपरीत एकान्तदृष्टि शून्यरूप असती है -सच्ची नहीं है। अतः जो कथन मनेकान्तदृष्टिसे रहित है वह मब मिथ्या कथन है; क्योंकि वह अपना ही- सत् या प्रसत् प्रादिस्प एकान्तका ही-घातक है-प्रनेकान्तके विना एकान्तकी स्वरूप प्रतिष्ठा बन ही नहीं सकनी (68) / जो प्रात्मघाती एकान्तवादी अपने स्वघाति-दोषको दूर करने में असमर्थ है, स्याद्वादसे द्वेष रखते हैं मोर यथावत् वस्तु-स्वरूपसे अनभिज्ञ है उन्हीने तत्वको प्रवक्तव्यताको प्राश्रित किया है-वस्तुतत्त्व सर्वपा प्रवक्तव्य है ऐसा प्रतिपादन किया है (100) / ___ सत्, प्रसत. एक, अनेक, नित्य, प्रनित्य, वक्तव्य पोर प्रवक्तव्यरूपमें जो नयपक्ष है वे सर्वया रूपमें तो प्रतिक्षित है--मिथ्या नय है-स्वेष्टमें बाधक है और स्यात् रूपमें पुष्टिको प्राप्त होते है--सम्यक्नय है अर्थात् स्वकीय भयंका निर्वाधरूपसे प्रतिपादन करने में समर्थ है (101) / ... 'स्यात्' शब्द सर्वथारूपले प्रतिपादन के नियमका स्यागी और यथारष्टको Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रकास्वयम्भूस्तोत्र 366 जिस प्रकार सत् असत् पादि रूपमें वस्तु प्रमाण-प्रतिपन्न है उसको-प्रपेक्षामें रखनेगला है / यह शब्द एकान्तवादियोंके न्यायमें नहीं है। एकान्तवादी अपने वैरी प्राप है (102) / स्याहादरूप पाहत-मतमें सम्यक् एकान्त ही नहीं किन्तु अनेकान्त भी प्रमाण पौर नय-साधनों ( दृष्टियों) को लिये हुए अनेकान्तस्वरूप है, प्रमाणकी दृष्टिसे अनेकान्रूतप और विवक्षित नयकी दृष्टि से अनेकान्तमें एकान्तरूप-प्रतिनियतधर्मरूप--सिद्ध होता है (103) / (16) महत्प्रतिपादित धर्मतीर्थ संसार-समुद्रसे भयभीत प्राणियोंके लिये पार उतरनेका प्रधान मार्ग है (106) / शुक्लध्यानरूप परमतपोग्नि ( परम्परासे चले पाने वाले ) अनन्त-दुरितरूप कमष्टिकको भस्म करने के लिए समर्थ (20) 'चर और प्रचर जगत प्रत्येक क्षण में ध्रौव्य उत्पाद और व्ययलक्षणको लिए हुए है' यह वचन मिनेन्द्रको सर्वजताका चिह्न है (114) / पाठों पापमलरूप कलङ्कोंको ( जिन्होंने जीवात्माके वास्तविक स्वरूपको आच्छादित कर रचा है ) अनुपम योगबल मे--परमशुक्लध्यानाग्निके तेजमे-~-भस्म किया जाता है और ऐसा करके ही प्रभव-सौख्यको-संसारमें न पाए जानेवाले प्रतीन्द्रिय मोक्ष-मुखको--प्राप्त किया जाता है (115) / (21) साधु सोताकी स्तुति कुशल-परिणामकी कारण होती है और उसके द्वारा श्रेयोमार्ग सुलभ होता है (116) / परमात्म-स्वरूप अथवा शुद्धात्मस्वरूपमें चित्तको एकाग्र करनेसे जन्म निगडको समूल नष्ट किया जाता है (117) / वस्तुनत्त्व बहुत नयोंकी विवक्षाके वशमे विधेय, प्रतिषेध्य, उभय, प्रनुभय तथा मियभंग-विधेयानुभय, प्रतिषेध्यानुभय पोर उभयानुभय--रूप है, उसके अपरिमित विशेषों ( धर्मो ) मेंसे प्रत्येक विशेष सदा एक दूसरेकी अपेक्षाको लिए रहना है पौर सप्तमङ्गके नियमको प्रपना विषय किये रहता है (118) / महिमा परमब्रह्म है। जिस प्राधमविधिमें प्रयुमात्र भी प्रारम्भ म हो वहीं मािसाकी पूर्णप्रतिष्ठा होती है-प्रन्यत्र नहीं। महिंसा परमब्रह्मकी सिटिक लिए उभय प्रकारके परिग्रहका स्याम मावश्यक है। जो स्वाभाविक वेषको छोड़कर विकृतवेश तथा उपधिमें रत होते हैं उनसे परिग्रहका वह त्याग नहीं बनता Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400 जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश (119) / मनुष्यके शरीरका इन्द्रियों को शान्तताको लिये हुए माभूषण, वेष तथा (वस्त्र प्रावरणादिरूप ) व्यवधानसे रहित प्रपने प्राकृतिक (दिगम्बर) रूप होना और फलतः काम-कोषका पासमें न फटकना निर्मोही होनेका सूचक है पोर जो निर्मोही होता है वही शान्ति-सुखका स्थान होता है (120) / (22) परमयोगरूप शुक्लध्यानाम्निसे कल्मपन्धनको-मानावरणादिरूप कर्मकाष्टको-भस्म किया जाता है, उसके भस्म होते ही मानकी विपुलकिरणे प्रकट होती है, जिनसे सकल जगतको प्रतिबुद्ध किया जाना है (121) / और ऐसा करके ही अनवद्य (निदोष) विनय और दमरूप तीर्थका नायकत्व प्राप्त होता है (123) / केवलज्ञान द्वारा पखिल विश्वको युगपत् करतमामलकवत् जानने में बाह्यकरण चक्षुरादिक इन्द्रियों और अन्त:करण मन ये ममग-अलग तथा दोनों मिलकर भी न तो कोई बाधा उत्पन्न करते हैं और न किसी प्रकार. का उपकार ही सम्मन्न करते है (130) / (23) जो योगनिष्ठ महामना होते है वे घोर उपद्रव मानेपर भी पावं. जिनके समान अपने उस योगमे चलायमान नहीं होने (1) / अपने योग(शुक्लध्यान) रूप खड्गकी तोक्षणधारमे दुय मोहनका पान करके वह पाहंन्त्यपद प्राप्त किया जाता है जो अद्भुत है पोर त्रिलोकको पूजानिमयका म्यान है (133) / जो समग्रवी (सर्वज ) मच्ची विद्यापों तथा तपस्यापोंका प्रणायक पौर मिथ्यादर्शनादिरूप कुमागोको रपियोंये उत्पन्न होनेवाले विभ्रमांका विनाशक होता है वह सदा वन्दनीय होना है (130) / (24) गुण-समुत्य-कीति गोभाका कारण होमी 1 (139) / जिनद गुणों में जो अनुशासन प्राप्त करते है--- उन्हें अपने प्रारमा विकसित करनक लिये प्रात्मीय दोषों को दूर करनेका पूर्ण प्रयत्न करते है-वे विगत-भव होने है। -संसार परिभ्रमणसे सदाके लिए छूट जाते है / होप पावककी तरह पीटन शील है (137) / 'स्यात्' शब्द-पुरस्सर कपनको लिए हए को 'स्वाहा:-प्रकान्तारमा प्रवचन है-यह निदोष है, क्योंकि इष्ट (प्राय) और (भागमारिक) प्रमाणोंके साथ उसका कोई विरोध नहीं है। 'म्यात्म -पूर्वक बनते रहिम जो सर्वथा एमन्छयाय है यह नियाव प्रपन महीकि रट और राष्ट Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र दोनों के विरोधको लिए हुए है-प्रत्यक्षादि प्रमाणोसे बाधित ही नहीं किन्तु अपने इष्ट अभिमतको भी बाधा पहुँचाता है पीर मे किमी तरह भी सिद्ध एवं प्रमाणित करने में समर्थ नहीं होता (138) / वीरजिनेन्द्रका स्थावादम्प गासन (प्रवचन-ती) श्रीसम्पन्न है--हेयोपादेय-तस्व-परिमान-मरण-लक्ष्मीसे विभूषित है-निष्कपट यम (हिमादि महाव्रतोंके अनुष्ठान) पोर दम (इन्द्रिय-जय तथा कपाय-निग्रह) को शिक्षाको लिए हुए है. नयोंके भाप अथवा भक्तिरूप अलङ्कारोंसे पनकत है. यथार्थवादिता एव परहित प्रतिपादननादिक गुण-मनिसे युक्त है, पूर्ण है और सब पारमे भद्रप है ~~-कल्याणकारी है (141, 143) / नम्बत्रान-विषयक ज्ञानयोगको इन सब बातांक मलावा 24 नवनों में नीयंकर प्रलोके गुणांका ओपरिचय पाया जाना है पोर निमे प्राय: प्रदि. शेषण-पदों में ममाविष्ट किया गया है वह मब भी ज्ञानयोगमे सम्बन्ध रखना है। उन महंगोका नास्विर परिचय प्राप्त करना, उ है भारमगुण गमझना पोर पार्ने प्रामामें उनक विकासको डाक्य जानना. हम मानान्याम भो भानपांगमे भिन्न नहा है। भक्तियोग-द्वाग उन गुणों में अनुगग माया जाना है और उनकी माप्रालिको निहाको परने मामा एक पूर्ण पाटन को मामने रखकर जामन पोर पर किया जाना है। यही दोनोमे भेद है। जान और छाक बार जाप्रपा बनना और मदन पाचरणादिक द्वारा उन गुलोमा पामा विकसित किवा माता, तो वह मंयोगका विषय बन जाता है। इस प्रकार याबगत पोम स्तबनो प्रलग-अलग पमे जो बानयोग विकया तपमान भराहुपा है यह मा पहंदगुग्गोंकी रवीमिनेन्द्रका नम्बान है. ऐसा समझना चाहिये। ग्वारसी में सीबह प्रकार वीरका हो यमन. सोस समय प्रतिससे बीर-शामन और शोर तम्बमानको कितनी हो सार बातोंका परि मापने पाजाता है, जिनमे उनी गहनाको भने प्रकार पाया जा सकता. माब ही पामविकासको पारी के लिए एक ममूषित प्राधार भी मिल पाता है। वस्तुतः मानयोग feोष और प्रयोग होबों में सहायक पोर मामान्य Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 402 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश विशेषादिको दृष्हिसे कभी उनका सापक होता है तो कभी उनके द्वारा साध्य भी बन जाता है। जैसे सामान्यज्ञानसे भक्तियोगादिक यदि प्रारम्भ होते हैं तो विशेषज्ञानका उनके द्वारा उपार्जन भी किया जाता है। ऐसी ही स्थिति दूसरे योगोंकी है, और इसीसे एक को दूसरे योगके साथ सम्बन्धित बनाया गया है-मुरुष-गौण की व्यवस्थासे ही उनका व्यवहार चलता है। एक योग जिस समय मुख्य होता है उस समय दूसरे योग गोग्ग होते है-उन्हें सर्वथा छोड़ा नहीं जाता / तीनोंके परस्पर सहयोगसे ही प्रास्माका पूर्ण विकाम मघता अथवा सिद्ध होता है / कर्म-योग___ मन-वचन-काय-नारन्धी जिम विद्या प्रति अपना निवृझिमे पात्म. विकाम मधना है उसके लिये तदनुरूप को भी पुरुषायं किया मागे 'कर्म योग' कहते है / और इलिये कमयोग दो प्रकारका है - किसकी निवृनिका पुरुषार्थ को लिये हा और दूसरा किपाकी प्रतिमा पापाको लिये हुए / निवृत्ति प्रधान मंशेगमें मन-वचन-काय में किसी भी कियाकानीमा की क्रियाका अथवा प्रशुभक्रियाका निरोध होता है और प्रवृति प्रधान समागमे शुभकर्मोंमें त्रियोग-कियाकी प्रवृत्ति होती है---प्रशुभमें नहीं, क्योकि अशुभर में विकासमें साधक न होकर बाधक होने है। स-पादिम सहित प्रमाणप प्रवृत्ति भी इमीके अन्तर्गत है / मन पूछिये तो प्रवृति बिना निवृतिकोर निर्यात बिना प्रवृत्तिके होती ही नहीं.--एकका दूसरेके माय घनिष्ट सम्बन्ध है। दोनो मुख्य-गौण की समस्याको नियमितिम प्रतिको मोर प्रतिशेगमें निवत्तिकी गौणता / सर्वया प्रकृति या मया निवनिका एकान्त नहीं बनता। पोर इसलिये भानयोगमें जो बाने किसी-न-किमी अपने विषय हाई गई है. उचित तथा पावत्रफ बतलाई अपवा जिनका किसी भी तीर बाग स्वविकाम के लिये किया जाना विाि सबका विधान एवं अनुहान कर्मयोगमें गति है। इसी तरह जिन बातोंको दोबादिकके पो हेय बनाया गया है, विय तथा प्रकरणीय मूचित किया गया है किसी भी करके द्वारा निका बोड़ना-गजला या उनसे बिहिवारण करना चादि कहा Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 403 समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र गया है उन सबका त्याग एवं परिहार भी कर्मयोग में दाखिल(न.मिम) है / पार इसलिये कर्मयोग-सम्बन्धी उन सब बातोंको पूगेल्लिखित बानयोगये ही जान सेना और समझ लेना चाहिये। उदाहरण के तौरपर प्रथम जिन-स्तवनके मानयोगमें ममत्वसे विरक्त होना, बधू.वितादि परिग्रहका त्याग करके मिन-मीक्षा लेना, उपमर्ग-परीपहोंका समभावमे सहना मोर सदनस-नियमोंसे चलायमान न होगा-जमी बिन बानोंको पूर्णविकासके लिये प्रावश्यक बनलाया गया है उनका और उनकी इस पाकताका परिमान शानयोग समन्ध रखता है मोर उनपर अमल करना नया उन्हें अपने जीवन में उतारना यह कर्मयोगका विषय है। माथ ही, 'मग्न द्वापर मूनकारगको परने ही समाधितेजमे भस्म किया जाता है. यह जो विधिवयर दिया गया है इसके ममंगो समझना, इसमें अनिलम्बिन दायो, उनके भूनकारगों, ममापिने और उसकी प्रकिया मानूम बचपनुभवमे लाना, यह, मन जानयोगका विप पोर उन दोषों तथा उनसे कारको उग प्रकार भाम करनेका जो प्रयत्न, पमन पपया अनुष्ठान है वह गव मयोगी नहत्य नवनीक शानयोगमेमे भी कमोग-ममन्धी वाभाविण कर. पनगमे समझ लेना चाहिये. और यह बहुत कुछ मन्द-मा है। हमीम उन फिर यहा कर निबन्धमा वितार देनेकी जननी ममभी गई . सवन-कमकोसकर, मंगंगका उमके मादि म.न पीर पोष्टिनात मार पहोना अचित जान पहना है भोर वर पाठार लिए fron पाचकर हो / पन मारे प्रन्थकारन व मन करकम देने का प्रागे प्रपन्न किया जाता है। प्रत्यके म्याकी यथावस्यक बना कर भीनर पचाकोमें रहेगी। कर्मयोगका माप और भन्न कमयोगका परमात्माका पूर्णत: विका। पापा हम पूर्ण विकामको सम्मो-NATIR (, हारथा, पारनलक्ष्मीको नब्धि, बिनश्री नवा पायनापीकी प्रालि (.., 8), पाहंन्य-पदावाति (133), भारम्तिक स्वास्थ्य = मस्त (31). पाम विद्युत (16), कंवल्योपम्पि (55). मुक्ति मिति (20), निति (50.68), मोक्ष (60, 73, Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश 117), श्रायस (116), श्रेयस् (51, 75), निःश्रेयस (50), निरंजना शान्ति (12), उच्चशिवताति (15), शाश्वतशर्मावाति (71), भवरलेश-भयोपशान्ति (80) और भवोपशान्ति तथा प्रभव-सौख्य-संप्राप्ति (115) जैसे पदवाक्यों अथवा नामोंके द्वारा उल्लिखित किया है। इनमेंसे कुछ नाम तो शुद्धस्वरूपमें स्थितिपरक अथवा प्रवृत्तिपरक हैं, कुछ पररूपसे निवृत्तिके द्योतक है और कुछ उस विकासावस्था में होनेवाले परम शान्ति-सुखके सूचक है। 'जिनश्री' पद उपमालंकारको दृष्टिसे 'प्रात्मलक्ष्मी' का ही वाचक है; क्योंकि घातिकर्मसे रहित शुद्धात्माको अथवा प्रात्मलक्ष्मी के सातिशय विकासको प्राप्त प्रात्माको ही 'जिन' कहते हैं। 'जिनश्री' का ही दूसरा नाम 'निजश्री' है / 3 'जिन' और अर्हत्पद समानार्थक होनेसे पार्हन्त्यलक्ष्मीपद भी प्रात्मलक्ष्मीकाही वाचक है। इसी स्वात्मोपलब्धिको -पूज्यपाद प्राचार्यने, सिद्धभक्ति में, "सिद्धि' के नाममे उल्लेखित किया है / अपने शुद्धस्वरूप में स्थितिरूप यह मात्माका विकास ही मनुष्योंका स्वार्थ है-असली स्वप्रयोजन है-क्षरणभंगुरभोग-~-इन्द्रिय-विषयोंका मेवन-उनका स्वार्थ नहीं हैं; जैसा कि ग्रन्थके निम्न वाक्यसे प्रगट है स्वास्थ्यं यदात्यान्तिकमेष पुंसां स्वार्थो न भोगः परिभंगुरात्मा तृषोऽनुषंगान्न च तापशान्तिरितीदमाख्यद्भगवान्सुपार्वः // 3| और इसलिये इन्द्रिय-विषयोंको भोगनेके लिये-उनसे तृप्ति प्राप्त करनेके लिए-जो भी पुरुषार्थ किया जाता है वह इस ग्रन्यके कर्मयोगका विषय नहीं है। उक्त वाक्यमें ही इन भोगोंको उत्तरोतर तृष्णाकी-भोगाकांक्षाकी-वृद्धिके कारण बनलाया है, जिससे शारीरिक तथा मानसिक तापकी शान्ति होने नहीं पाती। अन्यत्र भी ग्रन्थमें इन्हें तृष्णाकी अभिवृद्धि एवं दु.ख-संतापके कारण बतलाया है तथा यह भी बतलाया है कि इन विषयों में प्रासक्ति होनेसे मनुष्योंकी सुखपूर्वक स्पिति नहीं बनती और न देह अथवा देही (प्रात्मा) का ॐ स्तुतिविद्याके पार्श्वजिन-स्तवनमें 'पुरुनिजश्रियं' पदके द्वारा इमी नामका उल्लेख किया गया है। * + "सिद्धिः स्वास्मोपलब्धि: प्रगुणगुणगणोच्छादि-दोषापहारात्।" Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र 485 कोई उपकार ही बनता है (13, 18, 20, 31, 82) / मनुष्य प्राय: विषयसुखकी तृष्णाके वश हुए दिन भर श्रमसे पीड़ित रहते हैं और रातको सो जाते है-उन्हें प्रात्महितकी कोई सुधि ही नहीं रहती (48) / उनका मन विषयसुखकी अभिलाषारूप अग्निके दाहसे मूलित-जैसा हो जाता है (47) / इस तरह इन्द्रिय-विषयको हेय बतलाकर उनमें प्रासक्तिका निषेध किया है, जिससे स्पष्ट है कि वे उम कर्मयोगके विषय ही नहीं जिसका चरम लक्ष्य है प्रात्माका पूर्णतः विकास / पूर्णतः प्रात्मविकासके अभिव्यञ्जक जो नाम ऊपर दिये हैं उनमें मुक्ति और मोक्ष ये दो नाम प्रधिक लोकप्रसिद्ध हैं और दोनों बन्धनसे छूटनेके एक ही पागयको लिये हुए है / मुक्ति अथवा मोक्षका जो इच्छुक है उसे 'मुमुक्षु' कहते है / मुमुक्षु होनेसे कर्मयोमका प्रारम्भ होता है-यही कर्मयोगकी प्रादि अथवा पहली सीढ़ी है / मुमुक्षु बननेसे पहले उस मोक्षका जिसे प्राप्त करनेकी इच्छा हृदयमे जागृत हुई है, उस बन्धनका जिससे छूटनेका नाम मोक्ष है, उस वस्तु या वस्तु-ममूहका जिससे बन्धन बना है, बन्धनके कारणोंका, बन्धन जिसके साथ लगा है उस जीवात्माका, बन्धनसे छूटनेके उपायोंका और बन्धनसे छूटनेमें जो लाभ है उसका अर्थात् मोक्षफनका सामान्य ज्ञान होना अनिवार्य है-उस ज्ञानके बिना कोई मुमुक्षु बन ही नहीं सकता। यह ज्ञान जितना यथार्थ विस्तृत एवं निर्मल होगा अथवा होता जायगा और उसके अनुसार वन्धनसे छूटनेके समीचीन उपायोंको जितना अधिक तत्परता और सावधानीके साथ काममें लाया जायगा उतना ही अधिक कर्मयोग सफल होगा, इसमें विवादके लिये कोई स्थान नहीं है / बन्ध, मोक्ष तथा दोनोंके कारण, बद्ध, मुक्त और मुक्तिका फल इन सब बातोंका कथन यद्यपि अनेक मतोंमें पाया जाता है परन्तु इनकी समुचित व्यवथा स्याद्वादी प्रहन्तोंके मतमें ही ठीक बैठती है, जो अनेकान्तदृष्टिको लिये होता है / सर्वथा एकान्तदृष्टिको लिये हुए नित्यत्व,मनित्यत्व, एकत्व,प्रनेकत्वादि एकान्तपक्षोंके प्रतिपादक जो भी मत है, उनमेंसे किसी में भी इनको समुचित व्यवस्था नहीं बनती। इसी बातको ग्रन्थको निम्न कारिकामें व्यक्त किया गया है - बन्धश्च मोक्षश्च वयोश्च हेतू बद्धश्च मुक्तश्च फलं च मुक्तः। Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश स्याद्वादिनो नाथ ! तवैव युक्तं नैकान्त दृष्टेस्वमतोऽसि शास्ता // 14 // और यह बात बिल्कुल ठीक है। इसको विशेषरूपमें सुमति-जिन प्रादिके स्तवनोंमें पाये जानेवाले तत्त्वज्ञानसे, जिसे ऊपर ज्ञानयोगमें उद्धृत किया गया है, और स्वामी समन्तभद्र के देवागम तथा युक्त्यनुशासन-जमे अन्योंके अध्ययनमे और दूसरे भी जैनागमोंके स्वाध्यायसे भले प्रकारअनुभूत किया जा सकता है / अस्तु / प्रस्तुत ग्रन्थमें बन्धन को 'अचेतनकृत' (17) बतलाया है और उस प्रचेतनको जिससे चेतन (जीव) बँधा है 'कर्म' (71,84 ) कहा है, 'कृतान्न' (76) नाम भी दिया है और दुरित ( 185, 110), दुरिताञ्जन (57) दुरितमल (115), कल्मप (121), तथा 'दोषमूल' (4) जैसे नामोंसे भी उल्लेखित किया है / वह कर्म अथवा दुरितमल पाठ प्रकारका (115) हैआठ उसकी मूल प्रकतियाँ हैं, जिनके नाम है-१ ज्ञानावरण, : दर्शनावरण, 3 मोहनीय (मोह), 4 अन्तराय, 5 वेदनीय, 6 नाम, गोत्र, 8 प्रायु / इनमसे प्रथम चार प्रकृतियाँ कटुक (84) है-बड़ी ही कड़वी है, प्रात्माके स्वरूपकी घात करनेवाली है और इसलिये उन्हें 'घातिया' कहा जाता है, शेष चार प्रकृतियां 'अघातिया' कहलाती है / इन पाठों जड कर्ममलोंके अनादि-सम्बन्धमे यह जीवात्मा मलिन, अपवित्र, कलंकित, विकृत और स्वभावमे च्युत होकर विभावपरिणतिरूप परिणम रहा है; अज्ञान, अहंकार, राग, द्वे प, मोह, काम, क्रोध, मान, माया, लोभादिक असख्य-अनन्त दोपोंका कीड़ास्थल बना हुआ है, जो तरह तरह के नाच नचा रहे हैं; और इन दोपोंके नित्यके ताण्डव एवं उपद्रवसे सदा प्रशान्त, उद्विग्न अथवा बेचंन बना रहता है और उसे कभी सच्ची मुख-शान्ति नहीं मिल पाती। इन दोषोंकी उत्पत्तिका प्रधान कारण उक्त कर्ममल है, और इसीसे उसे 'दोषमूल' कहा मया है / वह पुद्गलद्रव्य होनेसे 'द्रव्यकर्म' भी कहा जाता है और उसके निमित्तसे होनेवाले दोनों को 'भावकर्म' कहते है। इन द्रव्य-भाव-रूप उभय प्रकारके कर्मोका सम्बन्ध जब मात्मासे नहीं रहता-उसका पूर्णतः विच्छेद हो जाता है-तभी प्रात्माको Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र 407 असली सुख-शान्तिकी प्राप्ति होती है और उसके प्राय: सभी गुण विकसित हो उठते है / यह सुख-शान्ति प्रात्मामें बाहरसे नहीं पाती और न गुरणोंका कोई प्रवेश ही बाहरसे होता है, प्रात्माकी यह सब निजी सम्पत्ति है जो कर्ममलके कारण प्राच्छादित और विलुप्तसी रहती है और उस कर्ममलके दूर होते ही स्वतः अपने असली रूपमें विकासको प्राप्त हो जाती है / प्रतः इस कर्म मलको दूर करना अथवा ज ना कर भस्म करदेना ही कर्मयोगका परमपूरपार्थ है / वह परमपुरुषार्थ योगवलका सातिशय प्रयोग है, जिसे निरुपमयोगबल' लिखा है और जिसके उस प्रयोगसे समूचे कर्ममलको भस्म करके उस प्रभव- सौख्पको प्राप्त करने की घोषणा की गई है जो ससारमें नहीं पाया जाता (115) / इस योगके दूसरे प्रसिद्ध नाम प्रशस्त ( सातिशय ) ध्यान (82), शुक्लध्यान (110) और समाधि (8,77) है / कर्म-दहन-गुण-सम्पन्न होनेसे इस योग ध्यान अथवा समाधिको, जो कि एक प्रकारका तप है, अग्नि (तेज) कहा गया है / इपी अग्निमे उक्त पुरुषार्थ-द्वारा कममलको जलाया जाता है; जैगा कि ग्रन्थके निम्न वाक्योंसे प्रकट है-- म्व दीप-मूलं स्व-समाधि-तेजसा निनाय यो निदयभस्मसाक्रियाम् (4) / कम-कक्षमदत्तपोऽग्निभिः (71) / ध्यानोन्मुखे ध्वंसि कृनान्तचक्रम् (76) / यस्य च शुक्लं परमतपाऽग्निध्योनमनन्तं दरितमधानीन् (110) / से कम छेदन की शक्तिमे भी मम्पन्न होने के कारण इन योगादिकको कही कही खड्ग तया चक्रकी भी उपमा दी गई है। यथा:"समाधि चक्रेण पुजिगाय महोदयो दुर्जय-मोह-चक्रम् (77) / " "स्व-योग-निस्त्रिश-निशात-धारया निशात्य यो दुर्जय-मोह-विहिपम् (133)" एक स्थान पर समाधिको कर्मरोग-निर्मूलनके लिये 'भैषज्य' (प्रमोव. औषधि ) की भी उपमा दी गई है 'विशोषणं मन्मय-दुर्मदाऽऽमयं समाधि-भैपज्य-गुणव्य॑लीनयत् (67) Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 408 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश परमयोग-दहन-हुत-कल्मषन्धनः (121) / यह योगाग्नि क्या वस्तु है ? इसका उत्तर ग्रन्थके निम्न वाक्यपरसे ही यह फलित होता है कि 'योग वह सातिशय अग्नि है जो रत्नत्रयकी एकाग्रताके योगसे सम्पन्न होती है और जिसमें सबसे पहले कर्मोकी क्टुक प्रकृतियोंकी आहुति दी जाती है' - हुत्वा स्व-कर्म-कुटुक-प्रकृतीश्चतस्रो रत्नत्रयातिशय-तेजसि-जात-वीर्यः / (84) 'रत्नत्रय' सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको कहते है। जैसा कि स्वामी समन्तभद्रके 'रत्नकरण्ड' ग्रन्थसे प्रकट है। इस ग्रन्थ में भी उसके तीनों अंगोंका उल्लेख है और वह दृष्टि, संविद् एवं उपेक्षा-जैसे शब्दोके द्वारा किया गया है (60) , जिनका पागय सम्यग्दर्शनादिकसे ही है। इन तीनोंकी एकाग्रता जब प्रात्माकी ओर होती है-प्रात्माका हो दर्शन, प्रात्माका ही ज्ञान, प्रात्मामें ही रमण होने लगता है-और परमें आसक्ति छूटकर उपेक्षाभाव प्राजाता है तब यह अग्नि सातिशयरूप में प्रज्वलित हो उठती है और कर्मप्रकृतियोंको सविशेष रूपसे भस्म करने लगती है / यह भस्म-क्रिया इन त्रिरत्नकिरणों की एकाग्रतामे उसी प्रकार सम्पन्न होती है जिस प्रकार कि सूर्य रश्मि. योंको शीशे या काँच-विशेषमें एकाग्र कर शरीरके किसी अंग अथवा वस्त्रादिक पर डाला जाता है तो उनसे वह अङ्गादिक जलने लगता है / सचमुच एकाग्रतामें बड़ी शक्ति है / इधर उधर बिखरी हुई तथा भिन्नाग्रमुख-शक्तियां वह काम नहीं देती जो कि एकत्र और एकाग्र ( एकमुख) होकर देती हैं। चिन्ताके एकाग्रनिरोधका नाम ही ध्यान तथा समाधि है / प्रात्म-विषयमें यह चिन्ता जितनी एकाग्र होती जाती है सिद्धि अथवा स्वात्मोपलब्धि भी उतनी ही समीप अाती जाती है। जिस समय इस एकाग्रतासे सम्पन्न एवं प्रज्वलित 'दृष्टि संविदुपेक्षाऽस्त्रस्त्वया धीर पराजित:' इस वाक्यके द्वारा इन्हें 'अत्र' भी लिखा है, जो प्राग्नेय अस्त्र हो सकते हैं अथवा कर्मछेदनकी शकिसे सम्पन्न होने के कारण खड्गादि-जैसे प्रायुध भी हो सकते हैं। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र 406 योगानलमें कर्मोकी चारों मूल कटुक प्रकृतियां अपनी उत्तर और उत्तरोत्तर शाखा-प्रकृतियोंके साथ भस्म हो जाती है अथवा यों कहिए कि सारा घातिकर्ममल जलकर आत्मासे अलग हो जाता है उस समय प्रात्मा जातवीर्य (परमशक्ति-सम्पन्न) होता है-उसकी अनन्तदर्शन, मनन्तज्ञान, अनन्तमुख और अनन्तवीर्य नामकी चारों शक्ति माँ पूर्णत: विकसित हो जाती हैं और सबको देखने-जानने के साथ साथ पूर्ण-सुख-शान्तिका अनुभव होने लगता है। ये शक्तियाँ ही आत्माकी श्री हैं, लक्ष्मी है, शोभा है और यह विकास उसी प्रकारका होता है जिस प्रकारका कि सुवर्ण-पाषाणसे सुवर्णका होता है / पापारास्थित सुवर्ण जिस तरह अग्नि-प्रयोगादिके योग्य साधनोंको पाकर किट्टकालिमादि पापाणमलसे अलग होता हुअा अपने शुद्ध सुवर्णरूपमें परिणत हो जाता है उसी तरह यह संसारी जीव उक्त कर्ममलके भस्म होकर पृथक् होजानेपर अपने शुद्धात्मस्वरूपमें परिणत हो जाता है / घातिकर्ममलके प्रभावके साथ प्रादुर्भूत होनेवाले इस विकासका नाम ही 'पार्हन्त्यपद' है, जो बड़ा ही अचिन्त्य है, अद्भत है और त्रिलोककी पूजाके अतिशय (परमप्रकर्ष)का स्थान है (133) / इमीको जिनपद, कैवल्यपद तथा ब्रह्मपदादि नामोंसे उल्लेखित किया जाता है। ब्रह्मपद प्रात्माकी परमविशुद्ध अवस्था के सिवा दूसरी कोई चीज़ नहीं है। स्वामी समन्तभद्रने प्रस्तुत ग्रन्यमें 'अहिसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं (116) इस वाक्यके द्वारा हिमाको 'परमब्रह्म' बतलाया है और यह ठीक ही है; क्योंकि अहिंसा प्रात्मामें राग-द्वेष-काम-क्रोधादि दोषोंकी निवृत्ति अथवा अप्रादुर्भूतिको कहते है * / जब प्रात्मामें रागादि-दोषोंका समूलनाश + मिद्धि: स्वात्मोपलब्धि: प्रगुण-गुणगणोच्छादि-दोषापहारात् / योग्योपादान-युक्त्या दृषद् इह यथा हेमभावोपलब्धिः // 1 // -पूज्यपाद-सिद्ध भक्ति * अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिसेति / तेषामेवोत्पत्तिहिन्सेति जिनागमस्य संक्षेपः // 44 // -- पुरुषार्थसिद्धय पाये, अमृतचन्द्रः / Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश होकर उसकी विभाव-परिणति मिट जाती है और अपने शुद्धस्वरूपमें चर्या होने लगती है तभी उसमें अहिंसाकी पूर्णप्रतिष्ठा कही जाती है, और इसलिए शुद्धात्म-चर्यारूप अहिंसा ही परमब्रह्म है-किसी व्यक्ति-विशेषका नाम ब्रह्म या परमब्रह्म नहीं है / इसीसे जो ब्रह्मनिष्ठ होता है वह प्रात्मलक्ष्मीकी सम्प्राप्तिके साथ साथ 'सम-मित्र-शत्रु' होता तया 'कषाय-दोषोंसे रहित' होता है; जैसा कि ग्रन्यके निम्न वाक्यसे प्रकट है: सब्रह्मनिष्ठः सम-मित्र-शत्रु-विद्या-विनिर्वान्त-क.पायदोपः। लब्धात्मलक्ष्मीरनितोऽजितात्मा जिनश्रियं मे भगवान्वित्ताम् / / यहां ब्रह्मनिष्ठ अजित भगवानसे 'जिनश्री' की जो प्रार्थना की गई है उसो स्पष्ट है कि ब्रह्म' और 'जिन' एक ही है, और इसलिये जो 'जिनधी' है वही 'ब्रह्मश्री' है-दोनोंमें तात्त्विक दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है / यदि अन्तर होता तो ब्रह्मनिष्टमे ब्रह्मश्रीको प्रार्थना की जाती, न कि जिनश्रीकी / अन्यत्र भी, वृषभतीर्थङ्करके स्तवन (4) में, जहां 'ब्रह्मपद' का उल्लेख है वहाँ उसे 'जिनमद' के अभिप्रायमे सर्वया भिन्न न समझना चाहिये / वहाँ अगले ही पद्य (5) में उन्हें स्पष्टतया 'जिन' रूपसे उल्लेखित भी किया है। दोनों पदो में थोड़ा-सा हष्टिभेद है-'जिन' पद कर्मके निपेधकी दृष्टिको लिए हुए है और 'ब्रह्म' पद स्वरूपमें अवस्थिति अथवा प्रवृत्तिको दृष्टिको प्रधान किये हुए है / कर्मके निषेध-विना स्वरूपमें प्रवृत्ति नहीं बनती और स्वरूपमें प्रवृत्ति के विना कर्मका निषेध कोई अर्थ नहीं रखता। विधि और निपंध दोनोंमें परम्पर अविनाभाव सम्बन्ध है-एकके विना दुसरे का अस्तित्त्व ही नही बनता, यह बात प्रस्तुत ग्रन्थमें खूब स्पष्ट करके समगाई गई है / अत: संज्ञा प्रथवा शब्दभेदके कारण सर्वथा भेदकी कल्पना करना न्याय-संगत नही है। अस्तु / जब घाति-कर्ममल जलकर अथवा शक्तिहीन होकर प्रात्मासे बिल्कुल अलग हो जाता है तब शेष रहे चारों अघातियाकर्म, जो पहले ही प्रात्माके स्वरूपको घातने में समर्थ नहीं थे, पृष्ठबलके न रहनेपर गौर भी अधिक प्रधातिया हो जाते एवं निर्बल पड़ जाते हैं और विकसित आत्माके मुखोपभोग एवं ज्ञानादिककी प्रवृत्तिमें जरा भी अडचन नहीं डालते। उनके द्वारा निमित, स्थित पीर संचालित शरीर भी अपने बाह्यकरण-स्पर्शनादिक इन्द्रियों और Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र 411 अन्तःकरण-मनके साथ उसमें कोई बाधा उपस्थित नहीं करता और न अपने उभयकरणोंके द्वारा कोई उपकार ही सम्पन्न करता है। उन अघातिया प्रकृतियोंका नाश उसी पर्याय में अवश्यंभावी होता है-पायुकर्मको स्थिति पूरी होते होते अथवा पूरी होने के साथ साथ ही वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मोकी प्रकृतियां भी नष्ट हो जाती हैं अथवा योग-निरोधादिके द्वारा सहज ही नष्ट कर दी जाती है / और इसलिये जो घातिया कर्मप्रकृत्तियोंका नाश कर मात्मलक्ष्मीको प्राप्त होता है उसका आत्मविकास प्रायः पूरा ही हो जाता है, वह शरीर-सम्बन्धको छोड़कर अन्य सब प्रकारसे मुक्त होता है और इसीसे उसे जोवन्मुक्त' या 'सदेहमुक्त' कहते हैं- सकलपरमात्मा' भी उसका नाम इसी शारीरिक दृष्टिको लेकर है-उसके लिये उसी भवसे मोक्ष प्राप्त करना, विदेहमुक्त होना और निष्कल परमात्मा बनना असन्दिग्ध तथा अनिवार्य हो जाता है-उसकी इस सिद्ध पद-प्राप्तिको फिर कोई रोक नहीं सकता। ऐमी स्थितिमें यह स्पष्ट है कि घाति-कर्ममलको प्रात्मामे सदाके लिये पृथक कर देना ही मबसे बड़ा पुरुषार्थ है और इसलिये कर्मयोग में सबसे अधिक महत्व इमीको प्राप्त है / इसके बाद जिस अन्तिम समाधि अथवा शुक्लध्यानके द्वारा प्रवशिष्ट मघातिया कर्मप्रकृतियों मूलत: विनाश किया जाता है और सकलकर्ममें विमुक्तिरूप मोक्षपदको प्राप्त किया जाता है उसके माथ ही कर्मयोगकी समाप्ति हो जाती है और इसलिये उक्त प्रन्तिम समाधि हो कर्मयोगका अन्त है, जिसका प्रारम्भ 'मुमुक्ष' बनने के साथ होता है। कर्मयोगका मध्य__अब कर्मयोगके 'मध्य' पर विचार करना है जिसके प्राश्रय-विना कर्मयोगकी अन्तिम तथा अन्तसे पूर्वको अवस्थाको कोई अवसर ही नहीं मिल सकता पोर न प्रात्माका उक्त विकास ही सध सकता है। मोक्ष-प्रासिकी सदिच्छाको लेकर जब कोई सच्चा मुमुक्षु बनता है तब उसमें * जैसाकि ग्रन्थगत स्वामी समन्तभद्रके निम्न वाकासे प्रकट हैबहिरन्तरप्युभयथा च करणमविघाति नाऽर्थकृत् / नाथ ! युगपदखिलं च सवा त्वमिदं तलामलफवद्विवेदिय / / 126 / / Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 412 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश बन्धके कारणोंके प्रति अरुचिका होना स्वाभाविक हो जाता है / मोक्षप्रासिकी इच्छा जितनी तीव्र होगी बन्ध तथा बन्ध-कारणोंके प्रति अरुचि भी उसकी उतनी ही बढ़ती जायगी और वह बन्धनोंको तोडने, कम करने, घटाने एवं बन्धकारणोंको मिटानेके समुचित प्रयत्नमें लग जायगा,यह भी स्वाभाविक है / सबसे बड़ा बन्धन और दूसरे बन्धनोंका प्रधान कारण 'मोह' है / इस मोहका बहुत बड़ा परिवार है / दृष्टि-विकार ( मिथ्यात्व ), ममकार, अहंकार, राग, द्वेष, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, शोक, भय और घृणा ( जुगुप्सा ) ये सब उस परिवार के प्रमुख अंग है अथवा मोहके परिणाम-विशेष हैं, जिनके उत्तरोत्तर भेद तथा प्रकार असंख्य हैं। इन्हें अन्तरंग तथा प्राभ्यन्तर परिग्रह भी कहते हैं / इन्होंने भीतरसे जीवात्माको पकड़ तथा जकड़ रक्खा है / ये ग्रहकी तरह उसे चिपटे हुए हैं और अनन्त दोषों, विकारों एवं प्रापदाओंका कारण बने हुए हैं। इसीसे ग्रन्थमें मोहको अनन्त दोपोंका घर बतलाते हुए उस ग्राहको उपमा दी गई है जो चिरकालसे प्रात्माके साथ संलग्न है-चिपटा हुमा है / साथ ही उसे वह पापी शत्रु बतलाया है जिसके क्रोधादि कषाय सुभट है (65) / इस मोहसे पिण्ड छुडाने के लिये उसके अगोंको जैसे-तैसे भंग करना, उन्हें निर्बलकमजोर बनाना, उनकी प्राज्ञामें न चलना अथवा उनके अनुकूल परिणमन न करना ज़रूरी है। सबसे पहले दृष्टिविकारको दूर करनेकी जरूरत है। यह महा-बन्धन है, सर्वोपरि बन्धन है और इसके नीचे दूसरे-बन्धन छिपे रहते हैं। दृष्टिविकारकी मौजूदगीमें यथार्थ वस्तुतत्त्वका परिज्ञान ही नहीं हो पाता-बन्धन बन्धनरूपमें नज़र नहीं पाता और न शत्रु शत्रुके रूपमें दिखाई देता है। नतीजा यह होता है कि हम बन्धनको बन्धन न समझकर उसे अपनाए रहते हैं, शत्रुको मित्र मानकर उसकी प्राज्ञामें चलते रहते है और हानिकरको हितकर समझनेकी भून करके निरन्तर दु.खों तथा कष्टोंके चक्कर में पड़े रहते है-कभी निराकुल एवं सच्चे शान्तिसुखके उपभोक्ता नहीं हो पाते। इस दृष्टि विकारको दूर करनेके लिये 'अनेकान्त' का माश्रय लेना परम पावश्यक है / अनेकान्त ही इस महा -- ----- - अनन्त-दोषाशय-विग्रहो ग्रहो विषंगवान्मोहमयश्चिरं हृदि (66) / Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र 413 रोगकी प्रमोघ पौषधि है / भनेकान्त ही इस दृष्टिविकारके जनक तिमिर-जालको छेदनेकी पैनी छैनी है। जब दृष्टि में अनेकान्त समाता है-अनेकान्तमय अंजनादिक अपना काम करता है-तब सब कुछ ठीक-ठीक नज़र आने लगता है। दृष्टिमें अनेकान्तके संस्कार विना जो कुछ नज़र आता है वह सब प्राय: मियां, भ्रमरूप तथा प्रवास्तविक होता है / इसीसे प्रस्तुत ग्रन्थमें दृष्टिविकारको मिटानेके लिये अनेकान्तकी खास तौरसे योजना की गई है-उसके स्वरूपादिकको स्पष्ट करके बतलाया गया है, जिससे उसके ग्रहण तथा उपयोगादिकमें मुविधा हो सके। साथ ही, यह स्पष्ट घोषणा की गई है कि जिस दृप्टिका प्रात्मा अनेकान्त है-जो दृष्टि अनेकांतसे संस्कारित अथवा युक्तहै-वह सती सच्ची अथवा समीचीन दृष्टि है, उसीके द्वारा सत्यका दर्शन होता है; और जो दृष्टिग्रनेकान्तात्मक न हो कर सर्वथा एकान्तात्मक है वह असती झूठी अथवा मिथ्यादृष्टि है और इसलिये उसके द्वारा सत्यका दर्शन न होकर असत्यका ही दर्शन होता है। वस्तुतत्त्वके भनेकान्तात्मक होनेसे अनेकान्तके बिना एकान्तकी स्वरूप-प्रतिष्ठा बन ही नहीं सकती / प्रत: सबसे पहले दृष्टिविकारपर प्रहार कर उसका मुधार करना चाहिये और तदनन्तर मोहके दूसरे अंगोंपर, जिन्हें दृष्टि-विकारके कारण अभी सक अपना सगा समझकर अपना रक्खा था, प्रतिपक्ष भावनामोंके बलपर अधिकार करना चाहिये-उनसे शत्रु-जैसा व्यवहार कर उन्हें अपने प्रात्मनगरसे निकाल बाहर करना चाहिए अयवा यों कहिये कि क्रोधादिम्प न परिणमनेका दृढ संकल्प करके उनके बहिष्कारका प्रयत्न करना चाहिये / इसीको अन्तरंग परिग्रहका त्याग कहते हैं। अन्तरंग परिग्रहको जिसके द्वारा पोषण मिलता है वह बाह्य परिग्रह है पोर उसमें संसारकी सभी कुछ सम्पत्ति और विभूति गामिल है / इस बाद्यसम्पत्ति एवं विभूतिके सम्पर्क में अधिक रहनेसे रागादिककी उत्पत्ति होती है, ममत्व-परिणामको अवसर मिलता है, रक्षण-वर्द्धन और विघटनादि-सम्बन्धी भनेक प्रकारको चिन्ताएँ तथा माकुलताएँ घेरे रहती है, भय बना रहता है, जिन ॐ अनेकान्तात्मदृष्टिस्ते सती शून्यो विपर्ययः / ततः सवं मुषोक्तं. स्यात्तदयुक्तं स्वघाततः / / 68 // Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 414 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश सबके प्रतिकारमें काफी शक्ति लगानी पड़ती है तथा प्रारम्भ से सावध कर्म करने पड़ते हैं और इस तरह उक्त सम्पत्ति एवं विभूतिका मोह बढ़ता रहता है / इसीसे इस सम्पत्ति एवं विभूतिको बाह्यपरिग्रह कहा गया है। मोहके बढ़नेका निमित होनेसे इन बाह्यपदार्थो के साय अधिक सम्पर्क नहीं बढ़ाना चाहिये, पावश्यकतासे अधिक इनका संचय नहीं करना चाहिये / मावश्यतामों को भी बराबर घटाते रहना चाहिये / मावश्यकतामोंकी वृद्धि बन्धनोंकी ही वृद्धि है ऐसा समझना चाहिये और मावश्यतानुसार जिन बाह्य चेतन-अचेतन पदार्थोके साथ सम्पर्क रखना पड़े उनमें भी प्रासक्तिका भाव तथा ममत्व-परिणाम नहीं रखना चाहिये। यही सब बाह्यारिग्रहका एकदेश भौर सर्वदेश त्याग है। एकदेश त्याग गृहस्थियों के लिये पौर सर्वदेश त्याग मुनियोंके लिये होता है। इन दोनों प्रकारके परिग्रहोंके पूर्ण त्याग-विना वह समाधि नहीं बनती जिसमें चारों घातिया कर्मप्रकृतियोंको भस्म किया जाता है और न उस अहिमाकी मिद्धि ही होती है जिसे 'परमब्रह्म' बतलाया गया है / अतः समावि और अहिसा परमब्रह्म दोनोंकी सिद्धि के लिये दोनों प्रकारके परिग्रहका, जिन्हें 'ग्रन्य' नाममे उल्लेखित किया जाता है, त्याग करके नैन्थ्य-गुण अथवा अपरिग्रह-वतको अपनानेकी बड़ी जरूरत होती है। इसी भावको निम्न दो * इसी बातको लेकर विप्रवंशाग्रणी श्रीपात्रकेसरी स्वामीने, जो स्वामी समन्तभद्रके 'देवागम' को प्राप्त करके जैनधर्म में दीक्षित हुए थे, अपने स्तोत्रके निम्न पद्य में परिग्रही जीवोंकी दशाका कुछ दिग्दर्शन कराते हुए, लिखा है कि 'ऐसे परिग्रहवशति-कलुपात्मामोंके शुक्लरूप सध्यानता बनती कहां है ?' परिग्रहवतां सतां भयमवश्यमापयते प्रकोर-परिहिंसने च परुषाऽनृत-व्याहृती / ममत्वमथ चोरत: स्वमनसश्च विभ्रान्तता कुतो हि कलुवात्मनां परमशुक् नसध्यानता ||42 / / (पात्रकेसरी) + उभय-परिग्रह-वर्जनमाचार्याः सूचपस्यहिंसेति / द्विविध-परिग्रह-वहन हिंसति जिन-प्रवचननाः // 118 / / -पुरुषार्थसिद्ध्युराये, प्रमतचन्द्रसूरिः Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र 415 कारिकाओं में व्यक्त किया गया है गुणाभिनन्दादभिनन्दनो भवान्दयावधू' क्षान्तिसखीमशिश्रियत् / समाधितंत्रस्तदुपोपपत्तये द्वयेन नम्रन्थ्यगुणेन चाऽयुजत् / / 16 / / अहिंसा भूनानां जगति विदितं ब्रह्म परम न सा तत्राऽऽम्भोऽस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ / ततस्त सिद्धयर्थ परमकरुणो ग्रन्थमुभयं / भवानेवाऽत्याक्षीन्न च विकृत-वेषोपधिरतः // 11 // यह परिग्रह त्याग उन साधुनोंमे नहीं बनता जो प्राकृतिक वेषके विरुद्ध विकृत वेष तथा उपधिमें रत रहते हैं। और यह त्याग उस तृष्णा-नदीको मुखाने के लिये ग्रेष्मकालीन मूर्य के समान है, जिसमें परिश्रमरूपी जल भरा रहता है और अनेक प्रकारके भयोंकी लहरें उठा करती है। दृष्टिविकारके मिटनेपर जब बन्धनोंका ठीक भान हो जाता है, शत्रु-मित्र एवं हितकर-अहितकरका भेद साफ़ नज़र आने लगता है और बन्धनों के प्रति प्रचि बढ़ जाती है तथा मोक्षप्राप्तिको इच्छा तीवमे तीव्रतर हो उठनी है तब उम मुमुक्षुके मामने चक्रवर्तीका सारा साम्राज्य भी जीर्ग तगके ममान हो जाता है, उमे उममें कुछ भी रस अथवा सार मालूम नहीं होता, और इसलिए वह उससे उपेक्षा धारण कर -दधू-वित्तादि सभी सुखरूप समझी जानेवाली सामग्री एवं विभूतिका परित्याग कर-जगलका रास्ता लेता है और अपने ध्येयकी सिद्धिके लिये अपरिग्रहादि-व्रतस्वरूा 'दगम्बरी' जिनदीक्षाको अपनाता है-मोक्षकी साधनाके लिये निर्ग्रन्थ साधु बनता है। परममुमुक्षु के इसी भाव एवं कर्तव्यको श्रीषभजिन और परजिनकी स्तुतिके निम्न पद्योंमें समाविष्ट किया गया है विहाय यः सागर-वारिवाससं वधूमिवेमां वसुधा-वधू सतीम् / मुमुक्षुरिक्ष्वाकु-कुलादिरात्मवान प्रभुः प्रवबाज सहिष्णुरच्युतः / / 3 / / लक्ष्मी विभव-सर्वस्वं मुमुक्षोश्चक्रलांचनम् / साम्राज्यं सार्वभौम ते जरत्तृणमिवाऽभवत् // 8 // समात बाह्य परिम्ह भोर गृहस्थ-जीवनकी सारी सुख-सुविधामोंको त्याग कर साधु-मुनि बनाना यह मोक्ष मार्गमें एक बहुत बड़ा कदम उठाना Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 416 . जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश होता है / इस कदमको उठानेसे पहले मुमुक्षु कर्मयोगी अपनी शक्ति और विचारसम्पत्तिका खूब सन्तुलन करता है और जब यह देखता है कि वह सब प्रकारके कष्टों तथा उपसर्ग-परिषहोंको समभावसे सह लेगा तभी उक्त कदम उठाता है और क़दम उठादेने के बाद बराबर अपने लक्ष्यकी ओर सावधान रहता एवं बढ़ता जाता है। ऐसा होनेपर ही वह तृतीय-कारिकामें उल्लेखित उन 'सहिष्णु तथा 'अच्युत' पदोंको प्राप्त होता है जिन्हें ऋषभदेवने प्राप्त किया था, जबकि दूसरे राजा, जो अपनी शक्ति एवं सम्पत्तिका कोई विचार न कर भावुकताके वश उनके साथ दीक्षित हो गये थे, कष्ट-परिषहोंके सहने में असमर्थ होकर लक्ष्यभ्रष्ट एवं व्रतच्युत हो गये थे। एसी हालतमें इस वाह्य-परिग्रहके त्यागसे पहले और बादको भी मन-सहित पाँचों इन्द्रियों तथा लोभादिक कपायोंके दमनकी-उन्हें जीतने अथवा स्वात्माधीन रखनेकी--बहुत बड़ी ज़रूरत है / इनपर अपना (Control) होनेसे उपसर्ग-परिषहादि कष्टके अवसरोंपर मुमुक्षु अडोल रहता है, इतना ही नहीं बल्कि उसका त्याग भी भले प्रकार बनता है और उस त्यागका निर्वाह भी भले प्रकार सधता है। मच पूछिये तो इन्द्रियादिके दमन-विना--उनपर अपना काबू किये बगैर-सच्चा त्याग बनता ही नहीं, और यदि भावुकताके वश बन भी जाये तो उसका निर्वाह नहीं हो सकता। इसीसे ग्रन्थमें इस दमनका महत्व ख्यापित करते हुए उसे 'तीर्थ' बतलाया है-ससारसे पार उतरनेका उपाय सुझाया है-और 'दम-तीर्थनायकः' तथा 'अनवद्य-विनय-दमतीर्थ-नायकः' जैसे पदों-द्वारा जनतीर्थंकरोंको उस तीर्थका नायक बतलाकर यह घोषित किया है कि जैनतीर्थकरोंका शासन इन्द्रिय-कषाय-निग्रहपरक है (104,122) / साथ ही, यह भी निर्दिष्ट किया है कि वह दम (दमन ) मायाचार रहित निष्कपट एवं निर्दोष होना चाहिए-दम्भके रूपमें नहीं (141) / इस दमके साथी-सहयोगी एवं सखा ( मित्र ) हैं यम-नियम, विनय, तप और दया / अहिंसादि व्रतानुष्ठानका नाम 'यम' है। कोई व्रतानुष्ठान जब यावग्जीवके लिये न होकर परमित कालके लिए होता है तब वह नियम कहलाता है। यमको नियमः परिमितकालो यावज्जीवं यमो ध्रियते / ---रत्नकरण्ड 87 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- - - - Hiसमन्तभद्रा स्वयम्भूस्तोत्रमही .. ग्रन्थ संप्रयामदमायः' (14) पदके द्वारा 'याम' शब्दसे उल्लेखित किया है जो स्वायिक 'अण' 'प्रत्यके कारण यमका ही वाचक है और 'प्र' उपसर्गके साथ में रहनेसे महायम ( महावतार्नुष्ठान ) का मूचक हो जाता है / इस यम अंथवा महायमको ग्रन्थमें, 'अधिगन-मुनि-सुव्रत-स्थितिः (111)' पदके द्वारा 'सुव्रत' भी सूचित किया है और वे सुव्रत अहिमादिक महावत ही है, जिन्है कर्मयोगीको भले प्रकार अधिगन और अधिकृत करना होता है। विनयमें अहंकारका त्याग और दूसरा भी कितना ही सदाचार शामिल है। नपमै सांसारिक इच्छापोंके निरोधकी प्रमुखता है और वह बाह्य तथा अभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकारका है / बाह्यतप अनशनांदिक-रूप हैं. और वह अन्तरंग तपकी वृद्धि के लिए ही किया जाता है (८३)-वही उसका लक्ष्य और ध्येय है। मात्र शरीर को 'सुखाना, कृश करना अथवा कष्ट पहुँचाना उसका उद्देश्य नहीं है। अन्तरंग लप प्रायश्चित्तादिरूप है। जिसमें ज्ञानाराधन और ध्यानसाधनकी प्रधानता है-प्रायश्चित्तादि प्राय: उन्हीकी वृद्धि और सिद्धिको लक्ष्यमें लेकर किये जाते हैं / ध्यान प्रात, रांद्र, धर्म्य और शुक्लके भेदसे चार प्रकारका होता है, जिनमे पहले दो भेद अप्रशस्त (कलुषित) और दूसरे दो प्रशस्त (सातिशय ) ध्यान कहलाते हैं। दोनों अप्रशस्त ध्यानोंको छोड़कर प्रशस्त ध्यानों में प्रवृत्ति करना ही इस कर्मयोगीके लिये विहित है (83) / यह योगी तप साधनाकी प्रधानताके कारण 'तपस्वी' भी कहलाता है; परन्तु इसका तप दूसरे कुछ तपस्वियोंकी तरह सन्तनिकी, धनसम्पत्तिकी तथा परलोक में इन्द्रासनादि-प्राप्तिकी प्रांशा तृष्णाको लेकर नहीं होता बल्कि उसका शुद्ध लक्ष्य स्वात्मोपलब्धि होता है-वह जन्म-जरा-मरगणरूप संसार-परिम्रमणसे छूटने के लिये ही प्रग्ने मन-वचन और कायकी प्रवृत्तियोंको तपश्चरण-द्वारा स्वाधीन करता है (48) इन्द्रिय-विषय-सौख्यसे पराङ्मुख रहता है (81) और इतनां * अनशनाऽवमोदर्य-व्रतपरिसंख्याम-रसपरित्याग-विविक्तशय्यासन-कायक्लेशा बाह्य तपः / -तस्त्रार्थ सूत्र-१६ :: + प्रायश्चित्त-विनय-यावृत्त्य स्वाध्यायव्युत्सर्ग-ध्यानान्युत्तरम् / Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410 जैनसाहित्य और इतिहासार विशर प्रकाश निस्पृह हो जाता है कि अपने देहमे भी विरत रहता है (७३)-उसे धोना, मांजना, तेल लगाना, कोमल-शय्यापर मुलाना, पौष्टिक मंजन कराना, शृङ्गारित करना और सी-गर्मी प्रादि की परीपहोंसे अनावश्यकरूपमें बचानाजैसे कार्यो में वह कोई रुचि नहीं रखता। उसका शरीर प्राभूषणों, वेपों, प्रायुषों और वस्त्र प्रावरणादिरूप व्यवधानोंसे रहित होता है पोर इन्द्रियों की शान्तताको लिये रहता है (46,120) / ऐसे तपस्वीका एक सुन्दर संक्षिप्तलक्षण अन्थकार-महोदयने अपने दूसरे ग्रन्थ 'समीचीनधर्मशास्त्र' (ग्नकरण्ड) में निम्न प्रकार दिया हैं: विषयाशा-बशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः / ज्ञान-ध्यान-तपो रक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते // 10 // 'जो इन्द्रिय-विषयों की प्राशातकके दशवर्ती नहीं है, पारम्भों से-कृषिवाणिज्यादिरूप सावद्यकर्मोसे-रहित है, बाह्याभ्यन्तर परिग्रहसे मुक्त है और मान-ध्यानकी प्रधानताको लिये हए त स्यामें लीन रहना है वह तपस्वी प्रशमनीय है।' भब रही दयाकी बात, वह तो सारे धर्मानुष्ठानका प्रारण ही है / इमोमे 'मुनी दया-दीधित-धर्मचक्र" वाक के द्वारा योगी माधुके सारे धर्म समूहको क्ष्याकी किरणोंगला बतलाया है (58) मोर मच्चे मुनिको दयामूतिक रूपमे पापोंकी शान्ति करनेवाला (76) पौर अखिल प्राणियों के प्रति अपनी दयाका विस्तार करजेवाय.(८१) लिखा है / उमका प शरीरको रक्त स्थिति के साथ विद्या, दम पोर दयाकी तत्परताको लिए हुए होता है (64) / दया के बिना न दम बनता है, न यम-नियमादिक पोरन रिग्रहका त्याग ही सुघटित होता है। फिर समाधि और उसके द्वारा कर्मबन्धनोको काटने अथवा भस्म करनेकी तो बात हो दूर है। इससे समाधि की सिके लिये जहाँ उभय प्रकारके परिग्रह-त्यागको प्रावश्यक बतलाया है वह भमा-सबीवामी दया-वधूको अपने पाश्रयमें रखनेकी बात भी कही गई। (16) और पहिसा-परमपहाकी सिविनिये जहाँ उस प्रायविधिको अपनाने की बात करते हुए जिसमें अणुमार भीरम्भ न हो, विविध-परिवार वानका विधान किया है वहा उस परिसह-स्या परमवार परमकम्पाभाबसे-असाधारण Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र बका-सम्पतिसे-सम्पन्न भी सूचित किया है। इस तरह बम, त्याग, और समाधि (तया उनसे सम्बन्धित यम-नियमादित) सबमें दयाकी प्रधानता है। इसीसे मुमुक्षके लिये कर्मयोगके अंगोंमें 'दया' को अलग ही रखा गया है और पहला स्थान दिया गया है। स्वामी समन्तभद्र ने अपने दूसरे महान अन्य 'युश्यनुशासन' में कर्मयोगके इन चार मङ्गों दया, दम, त्याग मोर समाधिका इसी क्रमसे उल्लेख किया है। पौर साथ ही यह निर्दिष्ट किया है कि वीर जिनेन्द्रका शासन ( मत ) नयप्रमाणके द्वारा बस्तु-तत्त्वको स्पष्ट करने के साथ साथ इन चारों की तत्परताको लिये हुए है, ये सब उसकी खास विशेषताएं है और इन्हींके कारण वह अद्वितीय है तथा प्रखिन प्रवादियों के द्वारा मवृष्य है-प्रजय्य है। जैसा कि उक्त अन्धकी निम्न कारिका से प्रकट है: दया-दम-त्याग-समाधि-निष्ठं नय-प्रमाण-प्रकृताजसार्थम् / अधृष्यमन्यैरखिलैः प्रवादर्जिन ! त्वदीयं मतमद्वितीयम् // 6 // यह कारिका बड़े महत्त्वकी है। इसमे वीरजिनेन्द्रक शासनका बीजपदोंमें मूत्ररूपसे सार संकलन करते हुए भक्तियोग और कर्मयोग तीनोंका मुन्दर ममावेश किया गया है। इसका पहला चरण कर्मयोगकी, दूसरा चरण जानयोगकी पौर शेष तीनों चरण प्राय: भक्तियोगकी मंसूचनाको लिये हुए है। पोर इसमे यह स्पष्ट जाना जाता है कि क्या, दम, त्याग और ममाधि इन चारों में वीरशासनका सारा कर्मयोग समाविष्ट है। यम, नियम, संयम, प्रत, विनय, शील, तप, ध्यान, चारित्र, इन्द्रियजय, पायजय, परीपहजय, मोहविजय, कर्मविजय, गुप्ति, समिति, अनुप्रेक्षा, त्रिदण्ड, हिनदिविरित और क्षमादिकके रूपमें जो भी कर्मयोग अन्यत्र पाया जाता है वह सब इन चारोंमें * श्री विद्यानन्दाचार्य इस कमकी म.पंकना बतलाते हुए टीकामें लिखते है-निमित-नैमित्तिक-भाव-निबन्धन: पूर्वोत्तर-वचन-कम: / दण हि निमित्त दमस्य, तस्यां सस्यां तदुपरोः / दमश्च त्यागस्य (निमित्त) तस्मिन्सति तद्घटनात् / त्यागश्व समापेस्तस्मिन्सस्येव विक्षेपादिनिवृत्ति-सिटेरेकाप्रस्थ समामिविशेषस्योरात: मन्यथा तनुपपत्तेः।" Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 420 जैनसाहित्य और इतिहासपर-विशद प्रकाश अन्तर्भूत..है-इन्हींकी व्याख्यामें उसे प्रस्तुत किया जा सकता है / चुनाँचे प्रस्तुत ग्रन्थमें भी इन चारोंका अपने कुछ प्रभिन्न संगी-साधियोंके साथ स्वर उधर प्रसृत निर्देश है; अंसा कि ऊपर के संचयून और विवेचनसे स्पष्ट है / . इस प्रकार यह ग्रन्थके सारे शरीरमें व्यास कर्मयोग-रसका निजोड़ हैसत है अथवा सार है, जो अपने कुछ उपयोग-प्रयोगको भी साप लिए तीनों योगोंके इस भारी कथरको लिये हुए प्रस्तुत स्तोत्रपरसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि स्वामी समन्तभद्र कसे मोर कितने उचकोटिके भक्तियोगी, ज्ञानयोगी और कर्मयोगी थे और इसलिये उनके पद-चिहोंपर चलनेके लिये हमागमाचार-विचार किस प्रकारका होना चाहिए मौर केमे हमे उनके पथका पथिक बनना अथवा प्रात्मतिकी साधनाके माथ साथ लोक-हिलको साधनामें तत्पर रहना चाहिये। Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 . समन्तभद्रका युक्त्यनुशासन ग्रन्थ-नाम इम ग्रन्थका सुप्रसिद्ध नाम 'युक्त्यनुशासन' है। यद्यपि ग्रन्थके प्रादि तथा अन्तके पचों में इस नामका कोई उल्लेख नहीं है-उनमें स्पष्टतया वीर-जिनके स्तोत्रकी प्रतिज्ञा मोर उमीको परिममाप्तिका उल्लेख है और इससे ग्रन्थका मून प्रथवा प्रथम नाम ' वीजनस्तोत्र' जान पड़ता है-फिर भी ग्रन्थकी उपलब्ध प्रतियों तथा गास्त्र भण्डारों की मूचियों में 'युक्त्यनुशासन' नाममे ही इसका प्रायः उल्लेख मिलता है / टीकाकार श्रीविद्यानन्दाचार्यने तो बहुत स्पष्ट शब्दों में टीकार मंगलपद्य, मध्यपद्य प्रौर प्रन्यपद्यमे इसको समन्तभद्रका 'युक्त्यनुशासन' नामका स्तोत्रग्रन्थ उद्घोषित किया है: जमा कि उन पद्योंके निम्न वाक्योंसे प्रकट है: 'जीयात्समन्तभद्रस्य स्तोत्र युक्त्यनुशासनम" (1) "स्तोत्रे युक्त्यनुशासने जिनपतेारस्य निःशेषतः (2) "श्रीमद्वीरजिनेश्वराऽमलगुणस्तोत्रं परीक्षेक्षणैः साक्षात्स्वामिसमन्तभद्रगुरुभिस्तत्वं समीक्ष्याऽखिलम् / प्रोक्तं युक्त्यनुशासनं विजयिभि: म्याद्वादमार्गानुगैः" (6) + "स्तुतिगोचरत्वं निनोपवः स्मो वयमद्य वीर' (1); "नरामनः स्तोत्रं भवति भवपाशच्छिदि मुनी" (63); .: "इति "स्तुतः शक्त्या श्रेयः पदमधिगतस्त्वं जिन: मया। महावीरो बोरो दुरितपरसेनाभिविजये..." (64) / Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 422 . जैन साहित्य और इतिहासपर विषद प्रकाश यहां मध्य पोर मन्त्यके पोंसे यह भी मालूम होता है कि अन्य वीरजिनका स्तोत्र होते हुए भी 'युवरयनुशासन' नामको लिये हुए है प्रर्यात् इसके दो नाम है-एक 'वीरजिनस्तोत्र' और दूसरा 'युक्त्यनुशासन' / समन्तभद्रके अन्य उपलन्ध ग्रन्थ भी दो-दो नामोंको लिय हुए है; जैसा कि मैने 'स्वयम्भूस्तोत्र' की प्रस्तावनामें व्यक्त किया है पर स्वयम्भूस्तोत्रादि अन्य चार प्रन्योंमें ग्रन्थका पहला नाम प्रथम पद्य द्वारा और दूसरा नाम अन्तिम पच द्वारा सूचित किया गया है और यहां मादि-मन्तके दोनों ही पद्यों में एक ही नामकी सूचना की गई है; तब यह प्रश्न पैदा होता है कि क्या 'युक्त्यनुशासन' यह नाम बारको श्री विद्यानन्द या दूसरे किसी पाचायके द्वारा दिया गया है अथवा अन्यके अन्य किसी पद्यसे इसकी भी उपलब्धि होती है ? श्रीविद्यानन्दाचार्य के द्वारा यह नाम दिया हुमा मालूम नहीं होता; क्योकि वे टीकाके प्रादिम मगल पद्यमें 'युक्त्यनुशासन'का जयघोष करते हुए उसे स्पष्ट रूपमें समन्तभद्रकृत बतला रहे है और भन्निम पद्यमें यह साफ घोषणा कर रहे है कि स्वामी समन्तभद्रने अखिल तत्त्वको समीक्षा करके श्रीवीरजिनेन्द्र के निर्मल गुग्गों के स्तोत्ररूपमें यह 'युक्त्यनुशासन' ग्रन्थ कहा है। ऐसी स्थितिमें उनके द्वारा इस नामकरण की कोई कपना नहीं की जा सकती। इसके सिवाय, शकसंवत् 705 ( वि० सं०८४0) में हरिवंशपुगगाको बनाकर समाप्त करनेवाले श्रीजिनसेनाचार्यने 'जीवमिद्धिविधायीह कुनयुक्त्यनुशासनम्, वचः समन्तभद्रस्य' इन पदोंके द्वारा बहुत स्पष्ट शब्दों में समन्तभद्रको 'जीवसिद्धि' ग्रन्थका विधाता और 'युक्त्यनुशासन' का कर्ता बतलाया है। इसमे भी यह साफ़ जाना जाता है कि 'युक्त्यनुशासन' नाम श्रीविद्यानन्द अथवा श्रीजिनसेनके द्वारा बादको दिया हुमा नाम नहीं है, बल्कि ग्रन्थकार-द्वारा स्वयंका ही विनियोजित नाम है। अब देखना यह है कि क्या ग्रन्यके किमी दूसरे पक्षसे इस नामकी कोई सूचना मिलती है ? सूचना जार मिलती है / स्वामीजीने स्वयं पन्धको 18 वीं कारिकामें 'युक्रभुशासन' का निम्न प्रकारले उल्लेख किया है "ष्टिागमाभ्यामविरुद्धमर्थप्ररूपणं युक्त्यनुशासन ते।" इसमें बतलाया है कि 'प्रत्यक्ष मोर प्रागमसे भविरोधरूप जो भका पर्षमे प्ररूपण है उसे ज गासन' कहते है और वही ( हे वीर भगवान् ! ) मापको Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका युक्त्यनुशासन 423 AN अभिमत है-अभीष्ट है / " अन्यका सारा पर्यप्राण युक्त्यनुशासनके इलक्षणसे ललित है, इसीसे उसके सारे शरीरका निर्माण हुमा है और इसलिये 'युक्त्यनुशासन' यह नाम ग्रन्थकी प्रकृतिके अनुरूप उसका प्रमुख नाम है। चुनांचे ग्रंथ. कार-महोदय, 63 वी कारिकामें ग्रन्यके निर्माणका उद्देश्य व्यक्त करते हुए, लिखते हैं कि 'हे वीर भगवन् ! यह स्तोत्र आपके प्रति रागभावको अथवा दूमरों के प्रति द्वेषभावको लेकर नहीं रचा गया है, बल्कि जो लोग न्याय-अन्यायको पहचानना चाहते हैं और किसी प्रकृतविषयके गुण-दोषोंको जानने की जिनकी इच्छा है उनके लिये यह रितान्वेषणके उपायस्वरूप प्रापकी गुण-कथाके साथ कहा गया है / इसमे माफ जाना जाता है कि ग्रन्थका प्रधान लक्ष्य भूने-भटके जीवोंको न्याय-अन्याय, गुग-दोष और हित-प्रहितका विवेक कगकर उन्हें वीरजिन-प्रदर्शित सन्मार्गपर लगाना है और वह यक्तिोंके अनुगामन-द्वारा ही साध्य होता है. प्रतः ग्रन्थका मूलत: प्रधान नाम 'युक्त्यनुगासन ठीक जान पड़ता है। यही वजह है कि वह इसी नाम से अधिक प्रसिद्धि को प्राप्त हुप्रा है। 'वीजनस्तोत्र' यह उसका दूसरा नाम है, जो स्तुनिपात्रकी दृष्टि में है, जिसका और जिसके शासनका महत्व इम अन्यमें रूपापित किया गया है। ग्रन्थके मध्य में प्रयुक्त हुए किसी पदपरने भी ग्रन्थ का नाम रम्बने की प्रथा है, जिसका एक उदाहरण धनंजय कविका व्यापहार' स्तोत्र है, जो कि न नो 'विपा रहार' शब्दसे प्रारम्भ होता है और न प्रादि-प्रन्तके पद्योंमें हो उसके 'विपापहार' नामकी कोई मुचना की गई है, फिर भी मध्य में प्रयुक्त हुए 'विषापहारं मरिणमौषधानि' इत्यादि वारसगरमे वह विपापहार' नामको धारण करता है। उसी तरह यह स्तोत्र भी 'युक्पनुशासन' नामको धारण करता हुमा जान पड़ता है। इस तरह अन्य के दोनों ही नाम युक्तियुक्त है और वे ग्रन्थकार-द्वारा ही प्रयुक्त हुए सिद्ध होते है / जिसे जमी कचि हो उसके मनुमार वह इन दोनों नामोंमेंमे किसीका भी उपयोग कर सकता है / ग्रन्थका संघिम परिचय और महत्व यह अन्य उन प्राप्तों अथवा 'सवंश' कहे जानेवालोंकी परीक्षाके बाद रचा गया है, जिनके पामम किसी-न-किसी रूपमें उपलब्ध है और जिनमें बुद्ध-कपि. Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 423 जैन साहित्य और इतिहासपर, विषद प्रकाश लादि के साथ घोर जिनेन्द्र भी शामिल है / परीक्षा युक्ति-शालाविरोधिवाक्त्व हेतुसे की गई है अर्थात् जिनके बनन युक्ति और शास्त्रसे पविरोधरूप पाये गये उन्हें ही भाप्तरूपमें स्वीकार विया गया है-शेषका पास होना बाधित ठहराया गया है / ग्रन्थकारमहोदय स्वामी समन्तभद्रकी इस परीक्षामें, जिसे उन्होंने अपने 'माप्त. मीमांसा' ( देवागम ) ग्रन्थमें निबद्ध किया है, स्याद्वादनायक श्रीवीरमिनेन्द्र, जो अनेकान्तवादि-प्राप्तोंका प्रतिनिधित्व करते हैं, पूर्णरूपसे समुत्तीर्ण रहे हैं और इसलिये स्वामीजीने उन्हें निर्दोष माप्त ( सर्वज्ञ ) पोषित करते हुए पोर उनके अभिमत अनेकान्तशासनको प्रमाणाबाधित बतलाते हुए लिखा है कि आपके शासनाऽमृतसे बाह्य जो सर्वथा एकान्तवादी है वे प्राप्त नहीं प्राप्ताभिमानी दग्ध हैं; क्योंकि उनके द्वारा प्रतिपादित इष्ट तत्त्व प्रत्यक्ष-प्रमाणसे बाधित है -- स त्वमेवाऽसि निर्दोपी युक्ति-शास्त्राऽविरोधिवाक् / अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धन न बाध्यते // 6 // त्वन्मताऽमृत-वाद्यानां सर्वथैकान्तवादिनाम / आमाऽभिमान-दग्धानां स्वेष्टं इप्टेन बाध्यते / / 7 / / -प्राप्तमीमांसा इस तरह वीरजिनेन्द्र के गले में प्राप्त-विषयक जयमाल डालकर प्रौर इन दोनों कारिकाओं में वगित अपने कथनका स्पष्टीकरण करनेके अनतर प्राचार्य म्वामी समन्तभद्र हम स्तोत्रद्वारा वीरजिनेन्द्रका स्तवन करने बैठे हैं, जिसकी सूचना इस ग्रन्थकी प्रथम कारिकामें प्रयुक्त हुए 'प्रद्य' शब्दके द्वारा की गई है। टीकाकार श्रीविद्यानन्दाचार्य ने भी 'पद्य' शब्दका अर्थ 'प्रयाऽस्मिन काले परीक्षावसानसमये दिया है / माथ ही, कारिकाके निम्न प्रस्तावनावाक्य-द्वारा यह भी मूचित किया है कि प्रस्तुत ग्रन्थ प्राप्तमीमामाके बाद रचा गया है "श्रीमत्समन्तभद्रस्वामिभिराममीमांसायामन्ययोगव्यवच्छेनाद् ज्यवस्थापितेन भगवता श्रीमताईतान्त्यतीर्थरपरमदेवेन मां परीक्ष्य किं चिकीषवो भवन्तः ? इति ते पृष्टा इव पाहुः।" . . Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - समन्तभद्रका युक्त्यनुशासन : 425 स्वामी समन्तभद्र एक बहुत बड़े परीक्षा अधानी प्राचार्य थे, वे यों ही किसीके धागे मस्तक टेकनेकाले अथवा किसीकी स्तुतिमें प्रवृत्त होनेवाले नहीं थे। इसीसे वीरजिनेन्द्र को महानता-विषयक जब ये बातें उनके सामने आई कि 'उनके पास देव पाते हैं, प्राकाशमें बिना किसी विमानादिकी सहायताके उनका गमन होता है और चॅवर-त्रादि प्रष्ट प्रातिहार्योंके रूपमें तया समवसरणादिके रूप में अन्य विभूतियोंका की उनके निमित्त प्रादुर्भाव होता है तो उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि ये बातें तो मायात्रियों में-इन्द्रजालियों में भी पाई जाती हैं, इनके कारगा पार हमारे महान-पूज्य अथवा ग्रान-पुरुा नहीं है / और जव गरीगदिके अन्तर्बाह्य महान उदयकी बात बतलाकर महानता जतलाई गई तो उसे भी अस्वीकार करते हुए उन्होंने कर दिया कि शरीराका यह महान् उदय रागादिके वशीभूत देवताग्री में भी पाया जाता है। अत: यह हेतु भी व्यभिचारी है. इसमे महानता (प्राप्तता) सिद्ध नहीं होती। इसी तरह तीर्थकर होने में महानताकी बात जब मामने लाई गई तो प्रापने साफ कह दिया कि 'तीर्थकर' तो दूसरे मुगतादिक भी कहलाते है और वे भी संगारसे पार उत्तरने अथवा निवनि प्राप्त करने के उपआयरूप प्रागमतीर्थ के प्रवर्तक माने जाते है तब वे सब भी पान-मर्वज ठहरते हैं, और यह वान बनती नहीं; क्योकि तीर्थङ्करों के प्रागमोमें परस्पर विरोध पाया जाता है। प्रन. उनमे कोई एक ही महान हो सकता है. जिसका नाम नीर्थ करन हेतु नहीं, कोई दूसरा ही हेतु होना चाहिए / एसो हालत में पाठकजन यह जानने के लिये ज़रूर उत्सुक होगे कि स्वामीजी ने इस स्तोत्र वीरांजनकी महानताका किस रूपमे सद्योतन किया है / वीर* देवागम-नभोवान-चामरादि-विभूतयः / मायाविध्वनि दृश्यन्ते नाजस्वमसि नो महान् // 1 // 1 अध्यात्म बहिरप्येष विग्रहादिमहोदयः / दिव्यः सत्यो दिवौकस्स्वप्यस्ति रागादिमत्सु स: / / 2 / / * तीर्थ कृत्समयानां च परस्पर-विरोधतः / सर्वेषामाप्तता नास्ति कश्चिदेव भवेद्गुरुः ॥३॥-प्राप्तमीमांसा . Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 426 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश , जिनकी महानताका संबोतन जिस रूप में किया गया है, उसका पूर्ण परिचय तो पूरे अन्यको बहुत दत्तावधानके साथ अनेक बार पढ़ने-पर ही ज्ञात हो सकेगा, यहाँ पर संक्षेपमें कुछ थोड़ा-सा ही परिचय कराया जाता है और उसके लिये ग्रन्थकी निम्न दो कारिकाएं खास तौरसे उल्लेखनीय हैत्वं शुद्धि-शक्त्योरुदयस्य काष्ठां तुला-व्यतीतां जिन ! शान्तिरूपाम / प्रयापिथ ब्रह्मपथस्य नेता महानितीयत्प्रतिवक्तुमाशा: // 4 // दय-दम-त्याग-समाधि-निष्ठं नय-प्रमाण - प्रकृताऽऽनसाथम / अधष्यमन्यैर खिलैः प्रवाद-निन ! त्वदीयं मतमद्वितीयम् // 6 // ___इनमेंसे पहली कारिकामें श्रीवीरकी महानताका प्रोर दूसरी में उनके शासनकी महानताका उल्लेख है। श्रीवीरकी महानताको इम रूपमें प्रदर्शित किया है कि 'वे अतुलिन शान्तिके माथ शुद्धि और शक्तिको पराकाष्ठाको प्राप्त हुए है-उन्होंने मोहनीयकमका प्रभाव कर अनुपम मुख-शान्तिकी, ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्मोका नाश कर मनन शानदर्शनरूप शुद्धि के उदयकी और मन्नराय कर्मका विनाश कर अनन्तवीर्यमा शक्तिके उत्कर्षको नरम सीमाको प्राप्त किया है-और साथ ही ब्रह्मपथके--हिसात्मक प्रामविकासपद्धति अथवा मोक्षमार्गके वे नेता बने हैं--उन्होंने अपने प्रादगं एवं उपशादि द्वारा दुमगेको उस सन्मार्ग पर लगाया है जो शुद्धि, शक्ति तथा शान्ति के परमोदयरूपमें मात्मविकासका परम सहायक है।' और उनके शासनकी महानताके विषयमें बतलाया है कि वह दया (अहिंसा), दम (संयम), न्यान (परिग्रह-न्यजन) और समाधि (प्रशस्तध्यान) की निष्ठा-तत्परताको लिये हुए है, नयों तथा प्रमारणोंके द्वारा वस्तुतत्त्वको बिल्कुल स्पष्ट-मुनिश्चित करने वाला है और (भनेकान्तवादसे भिन्न ) दूसरे सभी प्रवादोंके द्वारा प्रा है-कोई भी उसके विषयको संडित अथवा दूषित करने में समर्थ नहीं है / यही सब उसकी विशेषता है और इसलिये वह अद्वितीय है। प्रगली करिकामोंमें सूत्ररूपसे वरिणत इस वीरशामनके महत्त्वको पोर उसके द्वारा वीरजिनेन्द्रकी महानताको स्पष्ट करके बतलाया गया है-खास तोरसे यह प्रदर्शित किया गया है कि बीरजिन-द्वारा इस शासनमें परिणत Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका युक्त्यनुशासन वस्तुतस्य कैसे नय-प्रमाणके मारा निर्वाध सिद्ध होता है और दूसरे सर्वथैकान्तशासनोंमें निर्दिष्ट हुमा वस्तुनस्व किस प्रकारमे प्रमारणबाधित तथा अपने अस्तित्त्वको सिद्ध करने में असमर्थ पाया जाता है। सारा विषय विश पाठकोंके लिये बड़ा ही रोचक है और वीरजिनेंद्रकी कीतिको दिग्दिगन्त-व्यापिनी बनानेवाला है / इसमें प्रधान-प्रधान दर्शनों और उनके प्रवान्तर कितने ही वादोंका सूत्र अथवा संकेतादिकके रूपमें रहत कुछ निर्देश और विवेक पा गया है। यह विषय 36 वीं कारिका तक चलता रहा है। श्री विद्यानन्दाचार्यने इस कारिकाको टीकाके अन्त में वहां तकके वणित विषयकी संक्षेपमें मूचना करते हुए लिखा है-- स्तोत्रे युक्त्यनुशासने जिनपतेर्वीरस्य निःशेषतः सम्प्राप्तस्य विशुद्धि-शक्ति-पदवीं काष्ठां परामाश्रिनाम / निर्णीनं मतमद्वितीयममलं संक्षेपतोऽपाकृतं तबाह्य वितथं मतं च सकलं सद्धोधनैर्बुध्यताम / / अर्थात्--यहांतकके इस युक्त्यनुशासन स्तोत्रमें शुद्धि और गविनकी पराकाष्ठाको प्रारा हा वीराजनंद्रके अनेकानात्मक ग्याद्वादमन (शासन) को पूर्णत: निदोष मोर पद्विनीय निश्चित किया गया है और उममे वाह्य जो मया एकान्नके प्राग्रहको लिये हए मिथ्यामनोंका ममह है उम सबका संक्षेपमे निराकरण किया गया है, यह बात मद्धिमालियोंको भने प्रकार समझ लेनी चाहिए / इमके पागे, ग्रंथके उनराधमें, वीर-शासन गिन तत्वज्ञा के ममंकी कुछ ऐसी गुह्य तथा मूहम बातोंको स्पष्ट करके बतलाया गया है जो ग्रंथकारमहोदय स्वामी समनभद्रसे पूर्वके ग्रंथों में प्राय: नहीं पायी जाती, जिनमे एव' तथा 'स्यान्' शब्दके प्रयोग-प्रप्रयोगके रहायकी बातें भी शामिल है और जिन सबसे वीरके तत्वज्ञानको समझने तथा परखोकी निर्मल दृष्टि अथवा कसोटी प्राप्त होती है। वीरके इस अनेकान्तास्मक शासन (प्रवचन) को ही पंपमें 'सर्वोदयीय' बतलाया है-संसार सम इसे पार उतरने के लिये वह समीचीन पाट अथवा मार्ग मूचित किया है जिसका प्राश्रय लेकर सभी Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशा प्रकाश पार उतर जाते हैं। और सबोंके उदय उत्कर्ष में प्रथवा पात्माके पूण विकासमें सहायक है-पौर यह भी बतलाया है कि वह सर्वान्तवान् है-सामान्यविशेष, द्रव्य-पर्याय, विधि-निषेध और एकत्व-अनेकत्वादि अशेष धोको अपनाये हुए है-, मुख्य-गौणकी व्यवस्थासे मुव्यवस्थित है और मब दुखोंका अन्त करने वाला तथा स्वयं निरन्न है-अविनाशी तथा प्रखंडनीय है / साप ही, यह भी घोषित किया है कि जो शासन धर्मों में पारस्परिक अपेक्षाका प्रतिपादन नहीं करता है उन्हें सर्धया निरपेक्ष बतलाना है-वह मवंधोसे शुन्य होना है-उसमें किमी भी धमका अस्तित्व नहीं बन सकता और न उसके द्वारा पदार्थ-व्यवस्था ही ठीक बैठ सकती है; ऐगी हालतमें सर्वथा एकान्तशामन 'सर्वोदयनीयं' पदके योग्य हो ही नहीं सकता / जैसा कि ग्रंथफे निम्न वाक्यमे प्रकट है सर्वान्तवत्तद्गुग्ग-मुख्य-कल्पं सर्वान्त-शून्यं च मिथोऽनपेक्षम्। सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदय तीर्थमिदं तवैव / / 6 / / वीरके इस गासनमें बहुत बड़ी खूबी यह है कि 'इस गामनसे यथेष्ट प्रथवा भरपेट देप रखनेवाला मनुष्य भी, यदि समष्टि हुमा उपयनि-चक्षुमे-मान्मयं के त्यागपूर्वक ममाधानको दृष्टिमे-वीरमामनका अवलोकन और परीक्षगा करता है तो अवश्य ही उसका मानग व डिन हो जाता है-सर्वथा एकान्तरूप मिथ्यामनका प्राग्रह टूट जाता है.---ौर वह अभद्र अथवा मिथ्या-ष्टि होता हुप्रा भी मत्र और से भद्रग एव मम्यगद्दष्टि बनजाता है। ऐसी इस प्रन्यके निम्न वाक्य में स्वामी समन्तभद्र ने जोरों के माथ घोषणा की है कामं द्विपम्रप्युपपत्ति चक्षुः ममोक्षनां न ममटिरियम / त्वयि ध्रुवं खण्डित-मान-शृङ्गा भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः // 6 // इम घोपणामें सत्यका कितना अधिक साक्षात्कार और प्रात्म-विश्वास संनिहित है उसे बतलानेकी जरूरत नहीं, जरूरत है यह कहने पौर बतलानेकी कि एक समर्थ प्राचार्यको प्रेमी प्रबल घोपरणाके होते हुए भोर बोर शासनको 'सर्वोदयतीर्य' का पद प्राप्त होते हुए भी आज वे लोग क्या कर रहे है। जो तीर्थके उपासक कहलाते हैं, पण्डे-सुजारी बने हुए है और जिनके हाथों Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ - समबमनका युबत्यनुशासन 426 सह तीर्थ पहातमा है। कहा.वे इस तीर्थ के सन्ने उपासक है ? इसकी गुणगरिमा एवं अक्तिसे भले प्रकार परिचित है ?, और लोकहित कीष्टिसे इसे प्रचारमें लाता चाहते है ? उत्तर में यही कहना होगा कि नहीं। यदि ऐसा न ोता तो मात्र इसके प्रचार और प्रसारको दिशामें कोई खास प्रपल होता दुपा देखने में प्रात, जो नहीं देखा जा रहा है / खेद है कि ऐसे महान् प्रभावक अन्योंको हिन्दी प्रादिक विशिष्ट अनुवादादिके साथ प्रचारमें लानका कोई स्वास प्रयत्न भी पाज तक नहीं हो सका है, जो वीरनासनका सिक्का लोक हृदयोंगर अंकित कर उन्हें सन्मार्ग की पोर लगाने वाले हैं। / प्रस्तुत ग्रंथ कितना प्रभावशानी और महिमामय है, इसका विशेष अनुभव तो विज्ञपाठक इसके गहरे अध्ययनमे ही कर सकेंगे। यहापर मिर्फ इतना ही बतना देना उचित जान पडता है कि श्रीविद्यानन्द प्राचार्यने युक्त्यनुशासनका जयघोष करते हुए उसे 'प्रमाण-नय-निर्गीत-वस्तु-नत्त्वमबाधित' (1) विशेषगके द्वारा प्रमाण-नयके प्राधार पर वन्नुनत्वका प्रबाधित रूपमे निर्णायक बनलाया है / साय ही. टोकाके अन्तिम पद्यमे यह भी बतलाया है कि स्वामी ममन्नभद्रने पम्बिल तत्वममूहकी माक्षात् ममीक्षा कर हमकी रचना की है।' और श्री. जिनमनाचायने, अपने हरिवगपुगण में, 'कृतयुक्त्यनुमामन' पदके माथ वच:' समन्तभद्रस्य बीरस्येव विजम्भत हम वाक्यकी योजना कर यह घोषित किया है कि समन्मभद्रका युमन्यनुगामन अन्य वीरभगवानके वचन (प्रागम) के समान प्रकाममान एवं प्रभावादिक मे युन है। और इसमें साफ़ जाना जाता है कि यह ग्रन्थ बहुत प्रामाणिक है, प्रागमकी कोटि में स्थित है और इसका निर्माण बीजपदो अथवा गम्भीरार्थक और बह्वथंक सूत्रों द्वारा हमा है / मचमुच इम अन्यकी कारिकाएं प्राय: प्रोक गद्यसूत्रोंसे निर्मित हुई जान पड़ती है, जो बहुत ही गाम्भीर्य नथा पर्थ-गौरवको लिये हर है। उदाहरण के लिए ७वीं कारिकाको लीजिये, इसमें निम्न चार सूत्रोंका समावेश है 1 अभेद-भेदात्मकमर्थतत्त्वम् / 2 स्वतन्त्राऽन्यतरत्स्व पुष्पम् / 3 प्रवृत्तिमत्वात्समवायवृत्तेः (संसर्गहानिः ) / 4 संसर्गहाने: सकलाऽर्थ-हानिः / Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 430 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश इसी तरह दूसरी कारिकामोंका भी हाल है / मैं चाहता था कि कारिकाभोंपरसे फलित होनेवाले गचसूत्रोंकी एक सूची अन्यके प्रथम संस्करणके साथ अलगसे दी जाती, परन्तु उसके तैयार करने योग्य मुझे स्वयं अवकाश नहीं मिल मका और दूसरे एक विद्वान् जो उसके लिये निवेदन किया गया तो उनसे उसका कोई उत्तर प्राप्त नहीं हो सका। और इसलिए वह सूची फिर किमी दूसरे संस्करण के अवमरपर ही दी जा सकेगी। ___ माशा है ग्रन्यके इस संक्षिप्त परिचय और 12 पेजी विषयसूची परसे पाठक अन्यके गौरव और उसको आदेयताको समझ कर सविशेषरूपमे उसके अध्ययन और मननमें प्रवृत्त होंगे। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय रत्नकरण्ड श्रावकाचारके कर्तृत्व-विषयकी वर्तमान चर्चाको उठे हुए चार वर्ष हो धुवे-प्रोफेसर हीरालाल जी एम०ए० ने 'जतदतिहासका विलुप्त अध्याय' नामक निबन्धमें इसे उठाया था, जो जनवरी सन् 1944 में होनेवाले अखिल भारतवर्षीय प्राच्य सम्मेलनके 12 वें अधिवेशनपर बनारस में पढा गया था। उस निबन्धमे प्रो० सा० ने, अनेक प्रस्तुत प्रमाणोंसे पृष्ट होती हुई प्रचलित मान्यताके विद्ध अपने नये मनको घोषणा करते हुए, यह बतलाया था कि रत्नकरण्ड उन्ही ग्रन्थकार (स्वामी समन्तभद्र)की रचना कदापि नहीं हो सकती जिन्होंने प्राप्तमीमामा लिखी थी; क्योंकि उसके 'क्षुत्पिपासा नामक परमे दोपका जो स्वरूप समझाया गया है वह प्राप्तमीमांसाकारके अभिप्रायानुमार हो ही नहीं सकता।' साथ ही यह भी सुझाया था कि इस प्रन्यके कर्ता रत्नमालाका कर्ता शिवकाटिका गुरु भी हो सकता है। इमी घोषणा के प्रतिवादरूपमे न्यायाचायं 50 दरबारीलालजी कोठियाने जुलाई सन् 1644 मे 'क्या गलकर श्रावकाचार स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं हैं नामका एक लेख लिखकर मनेकातमें इस चर्चाका प्रारम्भ किया था प्रोर नबमे यह चर्चा दोनों विधानों के उत्तर-प्रत्युत्तररूपमें बराबर चली मा रही है। कोटियाजीने अपनी लेखमालाका उपसंहार अनेक तकी 8 वर्षकी किरण 10-11 में किया है और प्रोफेसर साहब अपनी लेखमालाका उपसंहार हवें वर्षकी पहली किरणमें प्रकाशित 'रत्नकरण्ड और भाप्तमीमांसाका भिन्नकर्तुत्व लेख में कर रहे है। दोनों ही पक्षके लेसोंमें ययपि कहीं कहीं कुछ पिष्टपेष ग तथा खींचतानसे भी काम लिया गया है और एक दूसरेके प्रति माक्षेपपरक भाषाका भी प्रयोग हुमा है, जिससे कुछ कटुताको अवसर Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 432 . जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश मिला। यह सब यदि न हो पाता तो ज्यादह अच्छा,रहता। फिर भी इसमें संदेह नहीं कि दोनों विद्वानोंने प्रकृत विषयको सुलझाने में काफ़ी दिलचस्पीमे काम लिया है और उनके अन्वेषणात्मक परिश्रम एवं विवेचनात्मक प्रयत्नके फलस्वरूप कितनी ही नई बातें पाठकोंके सामने प्राई है। अच्छा होता यदि प्रोफेसर साहब न्यायाचार्यजीके पिछने लेखकी नवोद्भावित-युक्तियोंका उत्तर ईते हुए अपनी लेखमालाका उपसंहार करते. जिससे पाठकों को यह जाननका अवसर मिलता कि प्रोफेसर साहब उन विशेष नियोंके सम्बन्ध में भी क्या कुछ कहना चाहते है। हो सकता है कि प्रो० सा के मामने उन युक्तियों के सम्बन्धमें अपनी पिछली बातोंके रिपेषण के सिवाय अन्य कुछ विशेष एवं समुचित कहने के लिए प्रवशिष्ट न हो और इमलिए उन्होंने उनके उभरमें न पड़कर अपनी उन चार प्रापनियों को ही स्थिर घोषित करना उचित समझा हो. जिन्हे उन्होंने अपने पिले लेख ( अनेकान्त वर्ष : किरण 3) के अन्त में प्रपनो युनियोंके उपसंहार में प्रकट किया था। और मभवत. इमी बातको दृष्टिमं रखते हा उन्होंने अपने वर्तमान लेनमें निम्न वाक्यों का प्रयोग किया हो:-- "इम विषयार में जैन इनिजाम का एक घिनुन अध्यायनीक निबन्ध लगाकर अभीतक मेरे और पं० दरबारीलालजी कोठिया रदह मेख प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें उपलब्ध मावक-वाचक प्रमागाका विवेचन frजानुका है। 'अब कोई नई बात मन्मुष मानेकी प्रोक्षा रिप्टपेरण ही अधिक होना प्रारम्भ हो गया है मौलिकता केबल कट गानों के प्रोगमें जी रह गई है।" (आपनियोंके नगल्लेबानन्तर ) "दम प्रकार करण्यासाचार और प्राप्तमीमांसाके एक कर्तृत्व के विरुद्ध पूऑक्त चारों प्रापनियां बांकी न्यों प्राज भी खड़ी है, और कुछ उहापोह अबतक हमा है उसमें वे पोर भी प्रमख व प्रकाटप सिद्ध होती है। - कुछ भी हो और दूसरे कुछ ही समझते रहे, परन्तु इतना सार है कि प्रो० साहब पानी उस चार प्रापसियोंमें किमीका भी पर न ममाधान अथवा समुचित प्रतिवाद हुमा नहीं मान्ने; कि वर्नमा उहापोहके कलाकार उन्हें में और भी प्रबल एपकोटय समझने ममेत प्रस्तु- T . Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डके कर त्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय 433 अपने वर्तमान लेखमें प्रो० साहबने मेरे दो पत्रों और मुझे भेजे हुए अपने एक पत्रको उद्धृत किया है / इन पत्रोंको प्रकाशित देख कर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई-उनमेसे किसी भी प्रकाशनसे मेरे कद होने जैसी तो कोई बात ही नहीं हो साती थी, जिसकी प्रोफेसर साहबने अपने लेखमें कल्पना की है; क्योंकि उनमें प्राइवेट जैसी कोई बात नहीं है, मैं तो स्वयं ही उन्हें 'समीचीनधर्मशास्त्र की अपनी प्रस्तावनामें प्रकाशित करना चाहता था-चुनाचे लेखके साथ भेजे हुए पत्रके उत्तरमें भी मैंने प्रो० साहवको इस बातकी सूचना करदी थी। मेरे प्रथम पत्र को, जो कि रत्नकरण्डके 'क्षुत्पिपासा' नामक छठे पथके सम्बन्धमें उसके ग्रंथका मौलिक भंग होने-न-होने-विषयक गम्भीर प्रश्नको लिये हुए है, उद्धत करते हुए प्रोफेसर माहबने उसे अपनी 'प्रथम प्रापनिके परिहारका एक विशेष प्रयत्न' बतलाया है. उममें जो प्रश्न उठाया है उसे 'बहुत ही महत्वपूर्ण' तया रत्नकरण्डके कर्तृत्वविषयमे बहन घनिष्ठ सम्बन्ध रखनेवाला घोषित किया है और 'तीनों ही पत्रों को अपने लेख में प्रस्तुत करना वर्तमान विषयक निर्णयार्थ प्रत्यन्त प्रावश्यक मूचित किया है। साथ ही मुझसे यह जानना चाहा है कि मैंने अपने प्रथम पत्रके उत्तर में प्राप्त विद्वानोंके पत्रों मादिक प्राधारपर उन पद्यक विषयमें मूलका अंग होने. न-होने की बाबत प्रौर ममूने ग्रन्थ ( रत्नकरपट ) के कर्तृत्व विषयमें क्या कुछ निर्णय किया है / इमी निजामाको, जिमका प्रो० मा० के शब्दों में प्रकृत-विषयमे व रखनेवाले दूसरे हृदयों में भी उत्पन्न होना स्वाभाविक है, प्रधानतः लेकर ही में इस लेख लिखने में प्रवृत हो रहा है। ___ सबमे पहने में मग्ने पाठकों को यह बतला देना चाहता हूं कि प्रस्तुन चर्चा बादी-प्रतिवादी रूपमें स्थित दोनों विद्वानोंके लेखोंका निमिन पाकर मेरी प्रवृत्ति रस्नकरण्डके उक्त छठे पचपर सविशेषणरूपसे विचार करने एवं उसकी स्थितिको जॉबनेकी पोर हुई और उसके फलस्वरूप ही मुझे बह दृष्टि प्राप्त हुई जिसे मैंने अपने उस पत्रमें व्यक्त किया है जो कुछ विद्वानोंको उनका विवार मार्य करने के लिये भेजा गया था-पोर जिसे प्रोफेसर साहबने विशेष महत्त्वपूर्ण एवं निर्णयापं मावश्यक समझकर अपने वर्तमान मेसमें उपत किया है। निदानोंको उक्त पत्रका भेगा जाना पोफ़ेर साहबकी परम पतिके Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 434 . जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश परिहारका कोई खास प्रयत्न नहीं था, जैसा कि प्रो० साहाने समझा है बल्कि उसका प्रधान लक्ष्य अपने लिये इस बातका निर्णय करना था कि 'समीचीन धर्मशास्त्र में जो कि प्रकाशनके लिये प्रस्तुत है, उसके प्रति किस प्रकारका व्यवहार किया जाय-उसे मलका पङ्ग मान लिया जाय या प्रक्षिप्त / क्योंकि रत्नकरण्डमें 'उत्सन्नदोष प्राप्त' के लक्षणरूपमें उसकी स्थिति के स्पष्ट होनेपर अथवा 'प्रकोत्यंते' के स्थानपर 'प्रदोपमुक' जमे किसी पाठका प्राविर्भाव होनेपर में प्राप्तमीमांसाके साथ उसका कोई विरोध नहीं देखता हूँ। और इसी लिये तत्सम्बन्धी अपने निर्णयादिको उस समय पत्रों में प्रकाशित करने की कोई जरूरत नहीं समझी गई, वह सब समीचीनधर्मशास्त्रकी अपनी प्रस्तावनाके लिये सुर. भित रखा गया था। हाँ, यह बात दूसरी है कि उक्त 'क्षुत्पिपासा' नामक पद्यक प्रक्षिप्त होने अथवा मूल ग्रन्थका वास्तविक अंग मिद्ध न होनेपर प्रोफेसर साहवकी प्रकृत-चर्चाका मूलाधार ही समाप्त हो जाता है; क्योंकि रत्नकरण्डक इम एक पद्यको लेकर ही उन्होने प्राप्तमीमामा-गत दोष-स्वरूपके साथ उसके विरोधकी कल्पना करके दोनों ग्रन्यांक भिन्न-पतृत्वकी चर्चाको उठाया थामेष तीन आपत्तियां तो उसमें बादको पुष्टि प्रदान करने के लिये शामिल होनी रही है / और इम पुष्टिमे प्रोफसर माहबने मरे उम पर पणादिको यदि अपनी प्रथम आपत्ति के परिहार का एक विशेष प्रयत्न ममझ लिया है तो वह स्वाभाविक है, उसके लिये में उन्हें कोई दोष नही देना / मैने प्रानी दृष्टि और स्थितिका स्पष्टीकरण कर दिया है। मेरा उक्त पत्र जिन विद्वानों को भेजा गया था उनमेंमे कुछका तो कोई उनर ही प्राप्त नहीं हुग्रा, कुछने मनवकागादिके कारण उतर देने में अपनी असमर्थता व्यक्त की, कुछ ने अपनी सहमति प्रकट की और शेषने असहमति / जिन्होंने महमति प्रकट की उन्होंने मेरे कयनको 'बुद्धिगम्य नकंपूर्ण तथा युक्तिवादको 'निप्रबल' बतलाते हुए उक्त छठे पद्यको संदिग्धम्पमें नो स्वीकार किया है; परन्तु जब तक किसी भी प्राचीन प्रतिमें उसका प्रभाव न पाया जाय तब तक उसे 'प्रक्षिप्त' कहने में अपना संकोच व्यक्त किया है। पौर जिन्होंन असहमति प्रकट की है। उन्होंने उक्त पचको पन्यका मौलिक अंग बवलाते हुए उसके विषयमें प्राय: इतनी ही सूचना की है कि वह पूर्व-पथमें Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण के कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय 435 वरिणत पासके तीन विशेषणों मेंसे 'उरसन्न-दोष' विशेषणके स्पष्टीकरण अथवा व्याख्यादिको लिये हुए है / और उस सूचनादि परसे यह पाया जाता है कि वह उनके सरसरी विचारका परिणाम है-प्रश्न के अनुरूप विशेष ऊहापोहसे काम नहीं लिया गया प्रथवा उसके लिये उन्हें यथेष्ट अवसर नहीं मिल सका / चुनांचे कुछ विद्वानोंने उसकी मूचना भी अपने पत्रों में की है जिसके दो नमूने इस प्रकार है "रत्नकरण्डश्रावकाचारके जिस श्लोकको भोर मापने ध्यान दिलाया है। उसपर मैंने विचार किया मगर मैं अभी किसी नतीजेपर नहीं पहुँच सका। इलोक 5 में उच्छिन्नदोष, सनंज पोर प्रागमेशीको प्राप्त कहा है, मेरी दृष्टिमें उच्छिन्नदोष की व्याख्या एवं पुष्टि श्लोक 6 करता है और भागमेशीकी व्याख्या लोक करता है। रही सर्वशता, उसके सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा है इसका कारण यह जान पड़ता है कि प्राप्तमीमांसामें उसकी पृथक विस्तार से चर्चा की है इमनिये उसके सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा / श्लोक 6 में यद्यपि सब दोष नहीं प्राते, किन्तु दोषों की संख्या प्राचीन परम्परामें कितनी थी यह खोजना चाहिये। इनोककी शब्दरचना भी समन भद्रके अनुकूल है, अभी पौर विचार करना चाहिये।" ( यह पूरा उत्तर पत्र है)। ''इस समय बिल्कुल फुरमतमें नहीं हैं...... यहां तक कि दो तीन दिन बाद प्रापके पत्रको पूरा पढ़ सका / ...... पद्य के बारेमें अभी मैंने कुछ भी नहीं मोचा था, जो समस्यायें प्रापने उसके बारे में उपस्थित की है वे प्रापके पत्रको देखने के बाद ही मेरे सामने पाई है, इलिये इसके विषय में जितनी गहराईके साथ माप सोच सकते है मै नही, और फिर मुझे इस समय गहराईके साय निश्चित होकर सोचनेका अवकाश नही इमलिये जो कुछ में लिख रहा हूँ उसमें कितनी दृढता होगी यह मैं नहीं कह सकता फिर भी माशा है कि पाप मेरे विचारों पर ध्यान देंगे।" हाँ, इन्हीं विद्वानों से सीनने के पचको संदिग्ध प्रभा प्रक्षिप्त करार दिये जाने पर अपनी कुछ शंका प्रथवा चिन्ता भी व्यक्त की है, जो इस प्रकार है Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 436 : जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश "(छठे पद्यके संदिग्ध होनेपर ) ७वें पद्यकी संगति प्राप किस तरह विठलाएंगे और यदि 73 की स्थिति संदिग्ध होजाती है तो ८वा पच भी अपने माप संदिग्धताकी कोटिमें पहुँच जाता है।" "यदि पद्य नं०६ प्रकरणके विरुद्ध है, तो 7 प्रौर 8 भी संकटमें ग्रस्त हो जायेगे।" "नं०६ के पचको टिप्पणीकारकृत स्वीकार किया जाय तो मूलगन्धकारद्वारा लक्षणमें 3 विशेषरण देखकर भी 7-8 में दोका ही समर्थन या स्पष्टीकरण किरा गया पूर्व विशेषणके सम्बन्धमें कोई स्पष्टीकरण नहीं किया यह दोषापत्ति होगी।" __ इन तीनों प्राशंकामों अथवा प्रापसियोंका प्राशय प्राय: एक ही है और वह यह कि यदि छठे पचको प्रसंगत कहा जावेगा तो 7 वें तथा 8 वें पचको भी प्रसंगत कहना होगा / परन्तु बात ऐसी नहीं है / छठा पच अन्यका अग न रहने पर भी 7 वें तथा 8 पद्यको प्रसंगत नही कहा जा सकता; क्योंकि वे पद्यमे सर्वजकी, मागमेशीकी अथवा दोनो विशंपरगोंकी व्याख्या या स्पष्टीकरण नहीं है, जैसाकि अनेक विद्वानोने भिन्न-भिन्न रुपमे उसे समझ लिया है। उसमें तो उपलक्षणरूपसे प्राप्तकी नाम-मालाका उल्लेख है, जिसे 'उपलाल्यते' पदके द्वारा स्पष्ट घोषित भी किया गया है, और उसमें प्राप्तके तीनों ही विशेषणोंको लक्ष्यमें रखकर नामोंका यथावश्यक भंकलन किया गया है। इस प्रकारको नाम. माला देनेकी प्राचीन समयमें कुछ पति जान पड़ती है, जिसका एक उदाहरण पूर्ववर्ती प्राचार्य कुन्दकुन्दके 'मोक्खपाहुड' में और दूसरा उत्तरवर्ती प्राचार्य पूज्यपाद ( देवनन्दी) के समाधितंत्र' में पाया जाता है। इन दोनों ग्रन्थोंमे परमात्माका स्वरूप देनेके अनन्तर उसकी नाममालाका जो कुछ उल्लेख किया है वह ग्रन्थ-कमसे इस प्रकार है "मनरहिओ कहाचतो अणिदिनो केवलो विसुद्धप्पा / परमेट्ठी परमनिणो सिर्वकरो सासमो सिद्धी // 6 // " "निर्मलः केवलः शुतो विविक्त: प्रमुरम्ययः / परमेष्ठी परात्मेति परमात्मेश्वरो जिनः // 6." Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय 437 इन पद्योंमें कुछ नाम तो समान अथवा समानार्थक है और कुछ एक दूसरेसे भिन्न है, और इससे यह स्पष्ट सूचना मिलती है कि परमात्माको उपलक्षित करनेवाले नाम तो बहुत है, ग्रन्यकारोंने अपनी-अपनी रुचि तथा प्रावश्यकताके मनुसार उन्हें अपने-अपने ग्रन्थमें यथास्थान ग्रहण किया है। समाधितंत्र-ग्रन्थके टीकाकार भाचार्य प्रभाचन्द्रने, 'तद्वाचिका नाममालां दर्शयन्नाह' इस प्रस्तावनावाक्यके द्वारा यह सूचित भी किया है कि इस छठे श्लोकमें परमात्माके नामकी वाचिका नाममालाका निदर्शन है। रत्नकरण्डकी टीकामें भी प्रभाचन्द्राचार्यने 'प्राप्तस्य वाचिका नाममालां प्ररूपयन्नाह' इस प्रस्तावना-वाक्यके द्वारा यह सूचना की है कि ये पद्य में प्राप्तको नाममालाका निरूपण है / परन्तु उन्होंने साथमें प्राप्तका एक विशेषण 'उक्तदोविजितस्य' भी दिया है, जिसका कारण पूर्व में उत्सन्नदोषकी दृष्टि में प्राप्तके लक्षगात्मक पद्यका होना कहा जा सकता है; अन्यथा बह नाममाला एकमात्र 'उत्मन्नदोषप्राप्स' की नहीं कही जा सकती; क्योंकि उसमें 'परंज्योति' और 'मवंज' जमे नाम मर्वज्ञ प्राप्तके, 'माव:' भोर 'शास्ता' जैसे नाम प्रागमेगी (परमहिनोपदेशक ) प्राप्तके स्पष्ट वाचक भी मौजूद है। वास्तव में वह प्राप्तके तीनों विशेषरणोंको लक्ष्यमें रखकर ही संकलित की गई है. और इसलिये 7 पद्यकी स्थिति ५वें पद्यके अनन्नर ठीक बैठ जाती है, उसमें प्रसंगति जैसी कोई भी बात नहीं है। ऐसी स्थितिमें वें पद्यका नम्बर 6 होजाता है और तब पाठकोंको यह जानकर कुछ प्राश्चर्यमा होगा कि इन नाममालावाने पचोंका तीनों ही प्रन्थोंमें छठा नम्बर पड़ना है, जो किसी पाकस्मिक अथवा रहस्यमय घटनाका ही परिणाम कहा जा सकता है। इस तरह छठे सके प्रभावमें जब 7 वा पद्य प्रसंगत नहीं रहता तब ८वां पच असंगत हो ही नहीं सकता, क्योंकि वह ७वें पदमें प्रयुक्त हुए 'विराग, और 'शास्ता' जैसे विशेषण-पदोंके विरोधकी शंकाके समाधानरूपमें है / इसके सिवाय, प्रयत्न करने पर भी रत्नकरण्डकी ऐसी कोई प्राचीन प्रतियां मुझे अभी तक उपलब्ध नहीं हो सकी हैं, जो प्रभाचन्द्रकी टीकासे पहलेकी प्रपा विक्रमकी 11 वीं शताब्दीकी या उससे भी पहलेकी लिखी हुई हों। अनेकवार कोल्हापुरके प्राचीनशास्त्रमण्डारको टटोलनेके लिये डा० ए० एन० Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 438 जेनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश . उपाध्येजीसे निवेदन किया गया; परन्तु हरवार यही उत्तर मिलता रहा कि भट्टारकजी मठमें मौजूद नहीं है, बाहर गये हुए है-दे अक्सर बाहर ही धूमा करते हैं-मोर बिना उनकी मौजूदगी के मठके शास्त्रभण्डारको देखा नहीं जा सकता। ऐसी हालतमें रत्नकरण्डका छठा पद्य अभी तक मेरे विचाराधीन ही चला जाता है। फिलहाल, वर्तमान चर्चा के लिये, मैं उसे मूलग्रन्थका अंग मानकर ही प्रोफेसरमाहबकी चारों भापत्तियोंपर अपना विचार और निर्णय प्रकट कर देना चाहता हूँ / मोर वह निम्न प्रकार है: (1) रत्नकरण्डको प्राप्तमीमांसाकार स्वामी समन्तभद्रकी कृति न बतलाने में प्रोफेसर साहबकी जो सबसे बड़ी दलील है वह यह है कि 'रत्नकरण्डके क्षुत्पिपासा' नामक पद्यमें दोषका जो स्वरूप समझाया गया है वह प्राप्तमीमांसाकारके अभिप्रायानुसार हो ही नहीं सकता-प्रर्थात् प्राप्तमीमांसाकारका दोषके स्वरूपविषयमें जो अभिमत है वह गलकरण्डके उक्त पद्यमें वगित दोष-स्वरूपके साथ मेल नहीं खाता-विरुद्ध पड़ता है, और इसलिये दोनों अन्य एक ही प्राचार्यकी कृति नहीं हो सकते' / इस दलीलको चरितार्थ करनेके लिये सबसे पहले यह मालूम होने की जरूरत है कि प्राप्तमीमांसाकारका दोषके स्वरूप-विषयमें क्या अभिमत अथवा अभिप्राय है और उसे प्रोफेसर साहबने कहाँ से अवगत किया है ?-मूल प्राप्तमीमांसापरसे ! प्राप्नमीमांसाको टीकापोंपरसे ? अथवा प्राप्तमीमांसाकारके दूमरे ग्रन्थोंपरसे ? और उसके बाद यह देखना होगा कि वह रत्नकरण्डके 'क्षुत्पिपामा' नामक पचके माथ मेल खाता अषवा संगत बंटना है. या कि नहीं। प्रोफेसर साहबने प्राप्तमीमांसाकारके द्वारा अभिमत दोषके स्वरूपका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं किया-अपने अभिप्रायानुसार उसका केवल कुछ सकेत ही किया है / उसका प्रधान कारण यह मालूम होता है कि मूल प्राप्तमीमांमामे कहीं भी दोषका कोई स्वरूप दिया हुमा नहीं है। 'दोष' भन्दका प्रयोग कुल पॉपकारिकानों नं. 4, 6, 56, 62, 80 में दमा है जिनमेसे पिछली तीन कारिकामोंमें बुद्ध घसंचरदोष, वृतिदोष और प्रतिमा तथा हेतु-दोषका क्रमशः उल्लेख है, माप्तदोषसे सम्बन्ध रखनेवाली केवल 4 थी तथा ६ठी कारिकाएं ही Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय ..436 है और वे दोनों ही 'दोष' के स्वरूप-कथनसे रिक्त है। मोर इसलिये दोषका अभिमत स्वरूप जाननेके लिये प्राप्तमीमांसाकी टीकामों तथा प्राप्तमीमांसाकारकी दूसरी कृतियोंका पाश्रय लेना होगा। साथ ही अन्यके सन्दर्भ अथवा पूर्वापरकथन-सम्बन्धको भी देखना होगा / टीकामोंका विचार प्रोफेसर साहबने ग्रन्थसन्दर्मके साथ टीकामोंका प्राश्रय लेते हुए, अष्टसहस्रीटीकाके माधारपर, जिसमें प्रकलदेवकी अष्टशती टीका भी शामिन है, यह प्रतिपादित किया है कि 'दोषावरणयोहानिः' इस चतुर्थ-कारिका-गत वाक्य और 'स त्वमेवासि निदोप:' इस छठी कारिकागत वाक्यमें प्रयुक्त 'दोष' शब्दका अभिप्राय उन प्रज्ञान तथा राग-द्वेषादिक वृत्तियोंसे है जो ज्ञानावरणादि घातिया कोमे उत्पन्न होती है और केवलीमें उनका प्रभाव होनेपर नष्ट हो जाती है / इस इष्टिमे रत्नकरण्डके उक्त छठे पचमें उल्लेखित भय, स्मय, राग, द्वेष पौर मोह ये पांच दोष तो पापको प्रसङ्गत प्रथवा विरुद्ध मालूम नहीं पड़ते; शेष क्षुधा, पिपासा, बरा, पात (रोग), जन्म और पन्तक (मरण) इन ग्रह दोषोंको माप असंगत समझते हैं-उन्हें सर्वथा असाता वेदनीयादि प्रघातिया कर्मजन्य मानते है और उनका प्राप्त केवलीमें प्रभाव बतलानेपर प्रघातिया कोका सत्व तथा उदय वर्तमान रहनेके कारण सैद्धान्तिक कठिनाई महसूस करते है। परन्तु मप्टसहस्रीमें ही द्वितीया कारिकाके अन्तर्गत "विग्रहादिमहोदयः' पदका जो अर्थ 'शश्वन्निस्वेदत्वादि' किया है और उसे 'पातिमवज:' बतलाया है उसपर प्रो० साहबने पूरीतोरपर ध्यान दिया पासून नहीं होता / 'शश्वन्नि: स्वेदत्वादि:' पदमें उन 34 अतिशयों तथा जातिहार्यों का समावेश है जो श्रीपूज्यपादके 'नित्यं निःस्वेदत्वं इस भक्तिपाठगत महत्स्तोत्रमें वर्णित है / इन पतिशयोंमें महंत-स्वयम्भूकी देह- "दोषास्तावदज्ञान- राग-पादय उक्ताः" / (प्रष्टसहनी का० 6, पृ० 62) .. प्रिनेकान्त वर्ष कि० 7-8, 30 62 * पनेकान्त वर्ष 7. कि० 3-4, पृ० 31 Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 440 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश सम्बन्धी जो 10 प्रतिशय है उन्हें देखते हुए जरा और रोगके लिये कोई स्थान नहीं रहता और भोजन तथा उपसर्गके प्रभावरूप (भुक्त्युपसर्गाभाव:) जो दो अतिशय है उनकी उपस्थितिमें क्षुधा और पिपासाके लिये कोई अवकाश नहीं मिलता / मेष 'जन्म' का अभिप्राय पुनर्जन्मसे और 'मरण' का मभिप्राय अपमृत्यु अथवा उम मरणसे है जिसके अनन्तर दूसरा भव (संसारपर्याय) धारण किया जाता है / घातिया कर्मके क्षय हो जानेपर इन दोनोंकी सम्भावनाभी नष्ट हो जाती है / इस तरह घातिया कर्मोके भय होनेपर क्षुत्पिपासादि शेष छहों दोषोंका प्रभाव होना भी प्रप्टसहस्त्री-सम्मत है, ऐसा समझना चाहिये / वमुनन्दि-वृत्तिमें तो दूसरी कारिकाका अर्थ देते हुए, “क्षुत्पिपासाजरारुजाऽपमृन्यवाद्यभावः इत्यर्थः" इस वाक्यके द्वारा शुषा-पिपासादिके प्रभावको साफ, तौर पर विग्रहादिमहोदयके अन्तर्गत किया है, विग्रहादि-महोदयको समानुपातिशय लिखा है तथा अतिशयको पूर्वावस्थाका अतिरेक बतलाया है। मोर छठी कारिकामें प्रयुक्त हुए 'निर्दोप' शब्द के अर्थ में प्रविद्या-रागादिके साथ क्षुधादिक प्रभावको भी मूचित किया है / यथा___“निर्दोष अविद्यारागादिविरहितः सुदादिविरहितो या अनन्तज्ञानादिसम्बन्धेन इत्यर्थः / " ___ इस वाक्यमें 'अनन्तज्ञानादि-मम्बन्धन' पद 'क्षुदादिविरहितः' पदके साथ अपनी खास विशेषता एवं महत्त्व रखता है और इस बातको सूचित करता है कि जब प्रात्मामें अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तमुख मोर मनन्सबीयंकी प्राविभूति होती है तब उसके सम्बन्धमे क्षुधादि दोषोंका स्वत; मभाव हो जाता है अर्थात उनका अभाव होजाना उमका प्रानुङ्गिक फल है-उसके लिये वेदनीयकर्मका प्रभाव-जैसे किमी दूसरे साथमके जुटने जुटाने की जरूरत नहीं रहती / और यह ठीक ही है; क्योंकि मोहनीयकमके साहवयं अपना सहायके विना वेदनीयकर्म अपना कार्य करने में उसी तरह मममर्थ होता है जिस तरह मानावरण. कर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुमा जान बीर्यान्तरायकर्मका अनुकूल क्षयोपशम साथमें न होनेसे अपना कार्य करने में समर्थ नहीं होता है; अथवा चारों धातिया कर्मोका प्रभाव होजानेपर वेदनीयकर्म अपना दुःखोत्पानादि कार्य करने में उसीप्रकार असमर्थ होता है जिस प्रकार कि मिट्टी और पानी प्रादिके विना बीन Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय 441 अपना कुरोत्पादन कार्य करनेमें असमर्थ होता है / मोहादिकके प्रभावमें वेदनीयकी स्थिति जीवितशरीर-जैसी न रहकर मृतशरीर-जैसी हो जाती है, उसमें प्रारण नहीं रहता अथवा जली रस्सीके समान अपना कार्य करनेकी शक्ति नहीं रहती / इस विषयके समर्थन में कितने ही शास्त्रीय प्रमाण माप्तस्वरूप, सर्वार्थसिदि, तत्त्वार्यवातिक, श्लोकवातिक, प्रादिपुराण और जयधवला-जैसे ग्रन्थोंपरसे पण्डित दरवारीलालजीके लेखोंमें उद्धृत किये गये है , जिन्हें यहाँ फिरसे उपस्थित करने की जरूरत मालूम नहीं होती। ऐसी स्थितिमें क्षुत्पिपासा-जैसे दोषोंको सर्वथा वेदनीय-जन्य नहीं कहा जा सकतावेदनीयकम उहें उत्पन्न करने में मथा स्वतन्त्र नहीं है। पौर कोई भी कार्य किसी एक ही कारण से उत्पन्न नही हुआ करता, उपादन कारगणक साथ अनेक सहकारी कारणों को भी उसके लिये जरूरत हुप्रा करती है, उन सबका संयोग नहीं मिलता तो कार्य भी नहीं हुमा करता। मोर इमलिये केवलीमें क्षुधादिका प्रभाव माननेपर कोई भी संद्धान्तिक कठिनाई उत्पन्न नहीं होती। वेदनीयका सन्य और उदय वर्तमान रहते हुए भी, मान्मामें मनन्तज्ञान-मुख वीर्यादिका सम्बन्ध रथापित होनेसे देदनीयकर्मका पुद्गल-परमारगुपुञ्ज क्षुधादि दोषोंको उत्पन्न करने में उसी तरह पसमय होता है जिस तरह कि कोई विषद्रव्य, जिमको मारण शक्तिको मन्त्र तथा प्रोपधादिके बलपर प्रक्षीण कर दिया गया हो, मारने का कार्य करनेमें प्रममर्थ होता है / निःसत्व हुए विषद्रव्यके परमाणुओंको जिस प्रकार विषद्रव्यके ही परमाणु कहा जाता है उसी प्रकार निःसत्व हुए वेदनीयकर्मके ही परमारगु कहा जाता है इस दृष्टि से ही मागममें उनके वेदनीयकर्मके परमाणुप्रोंको उदयादिककी व्यवस्था की गई है। उसमें कोई भी बाधा अथवा संद्धान्तिक कठिनाई नहीं होती-पोर इमलिये प्रोफेसर साहबका यह कहना कि 'शुधादि दोषोंका प्रभाव मामनेपर केवलीमें अषातियाकर्मोके भी नागका प्रसङ्ग माता है उमी प्रकार युक्तिसङ्गन नहीं है जिस प्रकार कि धूमके प्रभावमें अग्निका भी प्रभाव बतलाना अथवा किसी पौषध-प्रयोगमें विषद्रव्यकी * भनेकान्त वर्ष 8, किरण 4-5, 1.0 156-161 भनेकान्त वर्ष 7, किरण 7-8, पृ० 62 Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 442 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश मारणशक्तिके प्रभावहीन हो जाने पर विषद्रव्यके परमाणपोंका ही प्रभाव प्रतिपादन करना / प्रत्युत इसके, पातिया कोका प्रभाव होनेपर भी यदि वेदनीकर्मके उदयादिवश केवलीमें क्षुधादिकी वेदनामोंको और उनके निरसनार्थ भोजनादिके ग्रहणकी प्रवृत्तियोंको माना जाता है तो उसमे कितनी ही दुनिवार सैदान्तिक कठिनाइयों एवं बाधाएं उपस्थित होती है, जिनमें से दो तीन नमूने के तौर पर इस प्रकार है (क) भसातावेदनीयक उदय वश केवलीको यदिभूख-प्यासकी वेदनाएँ सताती है, जोकि संक्लेश परिणामकी प्रविनाभाविनी है , नो केवलीमें अनन्तमुखका होना बाधित ठहरता है / मोर उस दु:खको न सह सकनेके कारण जब भोजन ग्रहण किया जाता है तो अनन्तवीयं भी बाधित हो जाता है-उसका कोई मूल्य नहीं रहता-प्रथवा बीयंन्तरायकर्मका प्रभाव उसके विम्ब पड़ता है। (ख) यदि क्षुषादि वेदनामोंके उदय-श केवलीमें भोजनादिकी इच्छा उत्पन्न होती है तो केवलीके मोहकमका प्रभाव हुपा नहीं कहा जा सकता; क्योंकि इच्छा मोहका परिणाम है पौर मोहके सदभावमें केवलित्व भी नही बनता / दोनो परस्पर विरुद्ध है। (ग) भोजनादिकी इच्छा उत्पन्न होनेपर केवलीमें नित्य-ज्ञानोपयोग नहीं बनता, और नित्यज्ञानोपयोगके न बन सकनेपर उमकाजान छुपस्यों (पमवंशो) के समान शायोपशमिक ठहरता है-मायिक नहीं। पोर तब भानावरण तथा उसके साथी दर्शनावरण नामके घानियाकोका प्रभाव भी नहीं बनता। (घ) वेदनीयकमंके उदयजन्य जो सुख-दुःना होता है वह सब इन्द्रियजन्य होता है और केवलोके इन्द्रियशानकी प्रवृत्ति रहनी नहीं / यदि केवलीमें क्षुधातृषादिकी वेदनाएं मानी जाएंगी तो इन्द्रियज्ञानकी प्रवृत्ति होकर केवलज्ञानका विरोष उपस्थित होगा; क्योकि केवलज्ञान और मतिजानादि युगपत नहीं होते / (क) क्षुधादिकी पीड़ाके वश भोजनादिको प्रवृत्ति ययाख्यातचारित्रकी विरोधनी है। भोजन के समय मुनिको प्रमत्त (छठा) पुरणस्थान होता है और केवली भगवान् 132 गुणस्थानवर्ती होते है जिससे फिर मठेमें लौटना नहीं (r) संकिलेसाविणामावरणीए भुसाए बममाणस (धवला) Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय 443 बनता। इससे यथास्यातचारित्रको प्राप्त केवली भगवान्के भोजनका होना उनकी चर्या और पदस्थके विरुद्ध पड़ता है। इस तरह क्षुधादिकी वेदनाएँ और उनकी प्रतिक्रिया मानने पर केवलीमें घातियाकोका प्रभाव ही घटित नहीं हो सकेगा, जो कि एक बहुत बड़ी संद्धान्तिक बाषा होगी। इसीसे क्षुषादिके प्रभावको 'पातिकर्मक्षयज:' तथा 'अनन्तज्ञानादिसम्बन्धजन्य' बतलाया गया है, जिसके मानने पर कोई भी सैद्धान्तिक गधा नहीं रहती। और इसलिये टीकामोंपरसे क्षुधादिका उन दोषों. के रूपमें निर्दिष्ट तथा फलित होना सिट है जिनका केवली भगवान्में प्रभाव होता है। ऐसी स्थितिमें रनकरण्डके उक्त छठे पचको क्षुत्पिपासादि दोपोको दृष्टिमे भी प्राप्तमीमांसाके माय असंगत अथवा विरुद्ध नहीं कहा जा सकता। अन्थके सन्दर्भकी जाँच अब देखना यह है कि क्या ग्रन्थका सन्दर्भ स्वयं इसके कुछ विरुद्ध पड़ता। है ? जहाँ तक मैंने अन्यके सन्दर्भ की जांच की है और उसके पूर्वापर-कथनसम्बन्धको मिलाया है मुझे उसमें कहीं भी ऐमी कोई बात नहीं मिली जिसके प्राधारपर के गली में क्षुतिसपासादिक समावको स्वामी समन्तभद्र की मान्यता कहा जा सके / प्रत्युत इसके, अन्यकी प्रारम्भिक दो कारिकामोंमें जिन अतिशयोंका देवागम-नभायान-चामरादि विभूतियोंके तथा अन्तर्वाहा-विग्रहादि महोदयोंके रूपमें उल्लेख एव सकेत किया गया है और जिनमें धातिक्षय-जन्य होनेसे क्षुत्पिपासादिके प्रभावका भी समावेश है उनके विषय में एक भी शब्द अन्यमें ऐसा नहीं पाया जाता जिमसे पन्थकारको दृष्टिमें उन प्रातिशयोंका केवली भगवान में होना प्रमान्य समझा जाय। अन्धकारमहोदयने 'मायाविष्वपि दृश्यन्ते तथा 'दिव्यः सत्यः दिवौकस्स्वप्यन्ति' इन वाक्यों में प्रयुक्त हुए 'पपि' शब्दके द्वारा इस बातको स्पष्ट घोषित कर दिया है कि वे प्रहकेवलीमें उन विभूतियों सपा विग्रहादिमहोदय-रूप अतिशयोंका सद्भाव मानते हैं परन्तु इतनेसे ही वे उन्हें महान् (पूज्य) नहीं समझते; क्योंकि ये अतिशय अन्यत्र मायावियों (इन्द्रजालियों) तथा रागादि-युक्त देवोंमें भी पाये जाते है Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 444 जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश भले ही उनमें वे वास्तविक मथवा उस सत्यरूपमें न हों जिसमें कि वे क्षीणकषाय महत्केवली में पाये जाते है। और इसलिये उनकी मान्यताका मापार केवल मागमाश्रित श्रद्धा ही नहीं है बल्कि एक दूमरा प्रबल माघार वह गुरपज्ञता अथवा परीक्षाकी कसौटी है जिसे लेकर उन्होंने कितने ही प्राप्तोंकी जांच की है और फिर उस परीक्षाके फलस्वरूप वे वीर-जिनेन्द्र के प्रति यह कहने में समर्थ हुए है कि 'वह निदर्षो प्राप्त पाप ही हैं। (सत्वमेवासि निर्दोषः)। साथ ही 'युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्' इस पदके द्वारा उस कसौटीको भो व्यक्त कर दिया है जिसके द्वारा उन्होंने मातोंके वीतरागता और सर्वजता जैसे प्रसाधारण गुणोंकी परीक्षा की है जिनके कारण उनके वचन युक्ति पोर शास्त्रसे अविरोधरूप यथार्थ होते है, और मागे संक्षेपमें परीक्षाको तफ़सील भी दे दी है। इस परीक्षामें जिनके प्रागम-वचन युक्ति-शास्त्रमे प्रविरोधला नहीं पाये गये उन सर्वथा एकान्तवादियोंको प्राप्त न मान कर 'प्राप्ताभिमानदग्ध' घोषित किया है। इस तरह निर्दोष-वचन-प्रणयनके साथ सर्वज्ञता पौर वीतरागता-जैसे गुणोंको प्राप्तका लक्षण प्रतिपादित किया है। परन्तु इसका यह अर्थ नही कि प्राप्तमें दूसरे गुगा नहीं होते, गुण तो बहुत होते है किन्तु वे लक्षणात्मक अथवा इन तीन गुगोंकी तरह खास तौरसे व्यावर्तात्मक नहीं, और इसलिये प्राप्तके लक्षणमें वे भले ही ग्राह्य न हों परन्तु मासके स्वरूप-चिन्तनमे उन्हे प्रमाह्म नहीं कहा जासकता। लक्षण और स्वरूपमें बड़ा अन्तर है-लक्षण-निर्देशर्म जहां कुछ प्रसाधारगग गुणोंको ही ग्रहण किया जाता है वहां स्वरूपके निर्देश अथवा चिन्तनमें प्रशेष गुरगोंके लिए गुञ्जाइश रहती है / मतः असहनीकारने 'विग्रहादिमहोदयः' का जो पर्ष गश्वनिस्वेदत्वादिः' किया है और जिसका विवेचन ऊपर किया जा चुका है उस पर टिप्पणी करते हुए प्रो० सा०ने जो यह लिखा है कि "शरीर-सम्बन्धी गुणधर्मोका प्रकट होना न-होना मासके स्वरूप-चिन्तनमें कोई महत्व नहीं रखता"• वह ठीक नहीं है। क्योंकि स्वयं स्वामी समन्तभद्रने अपने स्वयम्भूस्तोत्रमें ऐसे दूसरे कितने ही गुणोंका चिन्तम किया है जिनमें शरीर अनेकान्त वर्ष 7, किरण 7-8, पृ० 62 Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय 445 सम्बन्धी पुण-धर्मोके साथ अन्य अतिशय भी आगये है * / और इससे यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि स्वामी समन्तभद्र अतिशयोंको मानते थे और उन के स्मरण-चिन्तनको महत्व भी देते थे। __ ऐसी हालतमें प्राप्तमीमांसा अन्यके सन्दर्भको दृष्टिसे भी प्राप्तमें क्षुत्पिपासादिकके प्रभावको विरुद्ध नहीं कहा जा सकता और तब रत्नकरण्डका उक्त छठा पद भी विरुद्ध नहीं ठहरता / हो, प्रोफ़ेसर साहबने प्राप्तमीमांसाकी ६३वीं गावाको विरोधमें उपस्थित किया है, जो निम्न प्रकार है पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःखात्पापं च सुखतो यदि / वीतरागो मुनिविद्वांस्ताभ्यां युञ्ज्यानिमित्ततः / / 13 / / इस कारिकाके सम्बन्धमें प्रोट सा० का कहना है कि 'इसमेंवीतराग सबंशके दुःखकी वेदना स्वीकार की गई है जो कि कमसिद्धान्तको व्यवस्थाके अनुकूल है; जब कि रत्नकरण्डके उक्त छठे पथमें पिपासादिकका प्रभाव बतसाकर दुःख की वेदना अस्वीकार की गई है जिसकी मंगति कमसिद्धान्तकी उन * इस विषयके मूचक कुछ वाक्य इस प्रकार है (क) शरीरश्मिप्रसरः प्रभोस्ते बाल:करश्मिच्छविरालिलेप 8 / यस्यालक्ष्मीपरिवभिन्नं तमस्तमोगेरिव रश्मिभिन्नं, ननाश बाह्य बहुमानमे च 37 / समन्ततोऽङ्गभामा ते परिवेषण भूयसा, तमो बाह्यमपाकोगंमध्यात्म ध्यानतेजसा 65 / यस्य च मूर्ति: कनकमयीव स्वस्फुरदाभाकृतपरिवेषा 107 / शशिर्जाचविशुक्लोहित मुरभितरं बिरयो निजं वपुः / तव शिवमतिविस्मय यते यदपि च बाङ्मनसीय मीहितम् 113 / (ब) नमस्तलं पल्लवर्याभव त्व सहस्रपत्राम्बुजगभंचार: पादाम्बुज: पातितमारदपों भूमी प्रजाना विजयं भूत्यै 26 प्रतिहार्यविभवः परिष्कृतो देहतोऽपि बिरतो भवानभूत 73 / मानुषी प्रकृतिमभ्यतीतवान् देवतास्वपि च देवता यतः 75 पूज्ये मुहुः प्रामबलिदेवचकम् 76 / सर्वत्रज्योतिषोद्भूतस्नावको महिमोदयः कं न कुर्यास्प्रणम्र ते सत्वं नाप सचेतनम् 66 / तव वागमृतं श्रीमत्सर्वभाषापमापकं प्रीपयत्यमृतं यत्प्राणिनो प्यापि संसदि 17 / भूरपि रम्या प्रतिपरमासीग्मातविकोमामुग्माहासा 108 / Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 446 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश व्यवस्थापोंके साथ नहीं बैठती जिनके अनुसार केवलीके भी वेदनीयकर्म-जन्य वेदनाएं होती है, और इसलिये रत्नकरण्डका उक्त पद्य इस . कारिकाके सर्वथा विरुद्ध पड़ता है-दोनों ग्रन्थोंका एककर्तृत्व स्वीकार करने में यह विरोष बाधक हैं' * / जहां तक मैंने इस कारिकाके अर्थपर उसके पूर्वापर-सम्बन्धकी दृष्टिसे और दोनों विद्वानोंके ऊहापोहको ध्यानमें लेकर विचार किया है, मुझे इसमें सर्वज्ञका कहीं कोई उल्लेख मालूम नहीं होता / प्रो० साहबका जो यह कहना है कि 'कारिकागत' 'वीतरागः' और 'विद्वान्' पद दोनों एक ही मुनिव्यक्तिके वाचफ है और वह व्यक्ति 'सर्वज्ञ' है, जिसका द्योतक विद्वान् पद साथ में लगा है' है वह ठीक नहीं है / क्योंकि पूर्वकारिकामें X जिस प्रकार अचेतन और अकषाय ( वीतराग ) ऐसे दो प्रबन्धक व्यक्तियोंमें बन्धका प्रसंग उपस्थित करके परमें दुःख:सुखके उत्पादनका निमित्तमात्र होनेसे पाप-पुण्यके बन्धकी एकान्त मान्यताको सदोष सूचित किया है उसी प्रकार इस कारिकामें भी वीतराग मनि और विद्वान् ऐसे दो प्रबन्धक व्यक्तियों में बन्धका प्रसंग उपस्थित करके स्व (निज) में दुःख-सुखके उत्पादनका निमित्तमात्र होनेसे पुण्य-पापके बन्धकी एकान्त मान्यताको सदोष बतलाया है; जैसा कि प्रष्टसहस्रीकार श्रीविद्यानन्दयाचार्यके निम्न टीका-वाक्यसे भी प्रकट है:- . - "स्वस्मिन् दुःखोत्पादनात पुण्यं सुखोत्पादनात्तु पापमिति यदीप्यते तदा वीतरागो विद्वांश्च मुनिस्ताभ्यां पुण्यपापाभ्यामात्मानं युज्यान्निमित्तसद्भावान्, वीतरागस्य कायक्लेशादिरूपदुःखोत्पत्तेषिदुषस्तत्वज्ञानसन्तोषलक्षणसुखोत्पत्तेस्तन्निमित्तत्वात् / " इसमें वीतरागके कायक्लेशादिरूप दुःखकी उत्पत्तिको और विद्वान्के तत्त्वज्ञान-सन्तोष लक्षण सुखकी उत्पत्तिको अलग-अलग बतलाकर दोनों ( वीतराग पौर विद्वान ) के व्यक्तित्वको साफ तौरपर अलग घोषित कर दिया है / भोर * अनेकान्त वर्ष 8, किरण 3, पृ० 132 तथा वर्ष 6, कि० 1, पृ० 6 भनेकान्त वर्ष 7, कि० 3.4, पृ० 34 x पापं ध्र परे दुःखात् पुण्यं च सुखतो यदि / प्रचेतनाकषायो च बध्येयातां निमित्ततः // 9. .: Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय 447 इसलिये वीतरागका अभिप्राय यहाँ उस प्रस्थ वीतरागी मुनिसे है जो रागद्वेपकी निवृत्तिरूप सम्यकचारित्रके अनुष्ठानमें तत्पर होता है-केवलीसे नहींऔर अपनी उस चारित्र-परिणति के द्वारा बन्धको प्राप्त नहीं होता। और विद्वान् का अभिप्राय उस सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा से है जो तत्त्वज्ञानके अभ्यास-द्वारा सन्तोष-सुखका अनुभव करता है और अपनी उस सम्यग्ज्ञान-परिगतिके निमित्तसे बन्धको प्राप्त नहीं होता। वह अन्तरात्मा मुनि भी हो सकता और गृहस्थ भी; परन्तु परमात्मस्वरूप सर्वज्ञ अथवा प्राप्त नहीं है। प्रतः इस कारिकामें जब केवली प्राप्त या सर्वज्ञका कोई उल्लेख न होकर दूसरे दो सचेतन प्राणियोंका उल्लेख है तब रत्नकरण्डके उक्त छठे पद्यके साथ इस कारिकाका सर्वथा विरोध कसे घटित किया जा सकता है ? नहीं किया जा सकता-खासकर उ म हालत में जबकि मोहादिकका प्रभाव और अनन्तज्ञानादिकका सद्भाव होनेमे केवली में दु खादिक्की वेदनाएँ वस्तुत: बननी ही नहीं और जिसका ऊपर कितना ही स्पष्टीकरण किया जा चुका है / मोहनीयादि कर्मोके अभावमें साता-असाता वेदनीय-जन्य सुख दुःख की स्थिति उस छायाके समान श्रौपचारिक होती है-वास्तविक नहीं-जो दूसरे प्रकाशके सामने पाने ही विलुप्त हो जाती है और अपना कार्य करने में समर्थ नहीं होती / और इमलिये प्रोफेसर साहबका यह लिखना कि "यथार्थत: वेदनीयकर्म अपनी फलदायिनी शक्ति में अन्य प्रघातिया कर्मोंके समान सर्वथा स्वतन्त्र है" समुचित नहीं है / वस्तुनः अघातिया क्या, कोई भी कर्म अप्रतिहतरूपसे अपनी स्थिति तथा अनुभागादिके अनुरूप फलदान कार्य करने में सर्वथा स्वतन्त्र नहींहै। किसी भी कर्मकलिये अनेक कारणों की जरूरत पड़ती है और अनेक निमित्तोंको पाकर अन्तरात्माके लिये 'विद्वान्' शब्दका प्रयोग प्राचार्य पूज्यपादने अपने समाधितन्त्रके 'त्यक्त्वारोप पुनर्विद्वान् प्राप्नोति परमं पदम्' इस वाक्यमें किया है और स्वामी समन्तभद्रने 'स्तुत्यानत्वा विद्वान् सततमभिपूज्यं नमिजिनम्' तथा 'स्वमसि बिदुषां मोक्षपदवी' इन स्वयम्भूस्तोत्रके वाक्योंद्वारा जिन विद्वानोंका उल्लेख किया है वे भी अन्तरात्मा ही हो सकते है / +भनेकान्त वर्ष 8, किरण 1, पृष्ठ 30. Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 448 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश कों में संक्रमण-व्यतिक्रमणादि कार्य हुमा करता है, समयसे, पहले उनकी निजरा भी हो जाती है भोर तपश्चरणादिके बलपर उनकी शक्तिको बदला भी जा सकता है / अतः कोको सर्वथा स्वतन्त्र कहना एकान्त है / मिथ्यात्व है और मुक्तिका भी निरोधक है। यहां 'धवला' परसे एक उपयोगी शखा-समाधान उद्धृत किया जाना है, जिससे केवलीमें क्षुवा-तुषाके प्रमावका सकारण प्रदर्शन होनेके साथ साथ प्रोफेसर साहब की इस शङ्काका भी समाधान हो जाता है कि यदि केवलीके सुख-दुःखकी वेदना माननेपर उनके अनन्तसुख नहीं बन सकता तो फिर कर्म सिद्धान्तमें केवलीके माता और प्रसाता वेदनीय कर्मका उदय माना ही क्यों जाता ' पौर वह इस प्रकार है "सगसहाय-घादिकम्माभावेण हिस्सत्तिमायएण-प्रसादावेदणीयउद यादो भुक्त्वा-तिसाणमणुपत्तीए गिफलस्स परमाणुजरस समयं पडि परिसद(ड)तम्स कथमुदय-ववएसो ? ण, जीव-कम्म-विवेग मेनफलं दळूण उदयास फजत्तमभुवगमादो।' -वीरसेवामन्दिर प्रति पृ. 375, पारा प्रति प० 641 शा-अपने सहायक घातिया कोका पभाव होने के कारण नि:शक्तिको प्राप्त हुए प्रसानावेदनीयकमके उदयमे जा ( कंबलीमे) धुषा-तृषाको उत्पनि नहीं होती तब प्रतिममय नाशको प्राप्त होनेवाले (प्रसातादेनीयकमक) निष्फन परमाणु एका कैमे उदय कहा जाता है ? समाधान-यह शहर ठीक नहीं; क्योंकि जीव और कर्मका विवेक-मात्र फल देखकर उदयके फनपना माना गया है। ऐमी हालतमें प्रोफेसर साहसक वीतराग मयंजक दुबकी वेदनाके पीकार. को कर्मसिद्धान्तके अनुकूल भोर प्रस्वीकारको प्रतिकूल प्रथया प्रसंगत बतलाना किसी तरह भी युक्ति-संगत नहीं ठहर मकता और इम वरह सम्पसन्दर्भ अन्तर्गत उक्त १३वीं कारिकाकी इष्टिमे भी रत्नकरण उक्त छठे पयको विस्ट नहीं कहा जा सकता। . अनेकान्त वर्ष 8, किरण 2,10 86 / Aname.ruwnaraum a ar ate awaren Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डके कतत्व विषयपर मेरा विचार और निर्णय 446 समन्तभद्र के दूसरे ग्रन्थोंकी छानबीन अब देखना यह है कि क्या समन्तभद्रके दूसरे किसी अन्यमें ऐसी कोई बात पाई जाती है जिससे रत्नकरण्डके उक्त 'क्षुत्पिपासा' पचका विरोध घटित होता हो अथवा जो प्राप्त केवली या महत्परमेष्ठी में क्षुधादि दोषोंके सद्भावको मूचित करती हो / महोतक मैंने स्वयम्भूस्तोत्रादि दूसरे मान्य ग्रन्थोंकी छानबीन की है, मुझे उनमें कोई भी ऐसी बात उपलब्ध नहीं हुई जो रत्नकरण्डके उक्त छठे गचके विरुद्ध जाती हो अथवा किसी भी विषयमें उसका विरोध उपस्थित करती हो / प्रत्युत इसके, ऐमी कितनी ही बात देखनेम प्राती है जिनमे प्रहं केवलीमें बुधादिवेदनाओं अथवा दोषोंके प्रभावकी सूचना मिलती है। यहां उनमेसे दो चार नमूनेके नौरपर नीचे व्यक्त की जाती है: (क) 'म्वदीप-शान्या विहिनात्मशान्तिः' इत्यादि शान्ति-जिनके स्तोत्रमें यह बतलाया है कि शानि-जिनेन्द्रने प्रश्ने दोषोंकी शान्ति करके प्रान्मामें शान्ति स्थापित की है पौर इमीमे वे शरणागनों के लिये शान्तिके विधाता है / चकि क्षधादिक भी दोष है और वे प्रात्मामें प्रशानिके कारण होने हैं-कहा भी है कि "दुधासमा नास्ति शरीरवंटना। प्रत: प्रान्मामें जानिकी पूर्ण-प्रनिहाके निये उनको भी शान्त किया गया है, तभी शान्तिजिन शान्तिके विधाना बने है पोर नभी संसार सम्बन्धी क्लेशों तथा भयोंसे शान्ति प्राप्त करने के लिये उनसे प्रार्थना की गई है। और यह ठीक ही है जो स्वयं रागादिक दोषों प्रथवा पालिवेदनाघोम पीडित है--प्रशान्त है-वह दूसरों के लिये शान्तिका विधाता कम हो सकता है ? नही हो मकता। (ख) 'त्य शुद्धि-शमन्यातल्यम्य काष्ठां तुलाव्यतीता जिन-शान्तिरूपामयापिथ' इस यात्पनुशासनके वाक्यमे वीरजिनेन्द्रको शुद्धि, शक्ति मोर शाम्निकी परालको पहवाहपा बतलाया है जो पान्तिकी पराकाष्ठा (चरमसोमा) को पहुंचा हुमा हो उसमे धुपायि बेबनानोको सम्भावना नहीं बनती / (ग)'शर्म शाश्वतमवापस इस धर्म-जिनके सबनमें यह बतलाया है कि धर्मनाम बईत्परमेष्ठीने धावत सुबकी प्राति की है और इसीसे वे श. पर-मुखके करनेवाले सावतसुनको अवस्थामें एक मलके लिये भी क्षुपादि Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 450 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश दुःखोंका उद्भव सम्भव नहीं / इसीसे श्रीविद्यानन्दाचार्यने श्लोकवार्तिकमें लिखा है कि "क्षुधादिवेदनोद्भूतो नाहतोऽनन्तशर्मता" अर्थात् क्षुधादि वेदनाकी उद्भूति होनेपर महंन्तके अनन्तमुख नहीं बनता / (घ) 'त्वं शम्भवः सम्भवतपरागैः सन्तप्यमानस्य जनस्य लोके इत्यादि म्नवनमें शम्भवजिनको सामारिक तृपा-रोगोंमे प्रपीडित प्राणियोंके. लिये उन रोगोंकी शान्ति के प्रथं प्राकस्मिक वद्य बनलाया है। इसमे स्पप्ट है कि अहंज्जिन स्वयं-तृषा रोगों में पीडित नहीं होते, तमी वे दूसरोंक तृणारोगोंको दूर करने में समर्थ होते हैं / इसी तरह 'इदं जगजन्म-जरान्तकात निरऊजना शान्तिमजीगमस्त्वं' इम वाक्यके द्वारा उन्हें जन्म-जरा-मरगामे पीडिन जगतको निरजना शान्ति की प्राप्ति कराने वाला लिम्बा है, जिसमे स्पष्ट है कि वे स्वयं-जन्म-मरणमे पीडित न होकर निरजना शान्तिको प्राप्त थे। निरजना शान्ति में क्षुधादि वेदना प्रोक लिए अवकाश नहीं रहना / (ङ) 'अनन्तदापाशय-विग्रहो-ग्रही विषयान्मोहमयविदरं हृदि' इत्यादि अनन्तजित-जिनके स्नोत्रमे जिस मोहविनाचको पराजित करने का उल्लेख है उसके शरीरको अनन्त दापोका प्राधारभूत बताया है। इसमें स्पष्ट है कि दोषार: मम्या कुछ इनी गिनी ही नहीं है बल्कि बहन वडीची-मननदोष ना माहनीय कम के ही प्राधिन रहने है / अधिकांश दोपोम मारकी पुट ही काम किया करता है / जिन्होंने मोहकर्म का नाम कर दिया है उन्होने अनन्नताका नाम कर दिया है। उन दोयाममोहक महकार में होने वाली सुधादिकी वेदना भी शामिल है, हमीमे मोहनीयक प्रभाव हो जानेपर वंदनीय कमको धादि वंदनाांक उपन्त करनेम असमर्थ बनलाया है। इस तरह मूल प्राप्तमीमामा रथ. उसके वी कारिका महिला प्रय सन्दर्भ, प्राटमहमी आदि टीकाग्रो प्रोर ग्रन्यकारके दूमर प्रन्योक उपयंत विवेचनपरमे यह भने प्रकार स्पष्ट है कि रत्नकरणका उक्त शुधियामादि-पद्य स्वामी ममन्तभद्रक किमी भी ग्रन्थ ना उसके प्राशयकं साथ काई विगंध नही रम्बना अर्थात् उसमें दोपका क्षुत्पिपासादिके प्रभावरूप जो बाप समझाया गया है वह प्राप्तमीमांसाकं ही नहीं, किन्तु प्राप्तमीमामाकारकी दूमगे भी किमी कृति के विरुद्ध नहीं है बल्कि उन सबकं माप सङ्गन है / और इसलिये Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व विषयपर मेरा विचार और निर्णय 451 उक्त पद्यको लेकर प्राप्तमीमांसा और रत्नकरण्डका भिन्न-कर्तृत्व सिद्ध नहीं किया जा सकता / मत: इस विषयमें प्रोफेसर साहबकी प्रथम प्रापत्तिके लिये कोई स्थान नहीं रहता-वह किमी तरह भी समुचित प्रतीत नहीं होती। प्रब में प्रो० हीरालालजीकी शेष तीनों प्रापतियोंपर भी अपना विचार पौर निर्णय प्रकट कर देना चाहता है। परन्तु उसे प्रकट कर देने के पूर्व यह बनला देना चाहता है कि प्रो० माहबने, अपनी प्रथम मूल प्रापत्तिको "जनमाहित्यका एक विलुम प्रध्याय' नामक निवन्ध प्रस्तुत करने हा. यह प्रतिपादन किया था कि 'रत्नकरण्डश्रावकाचार कुन्दकुन्दाचायके उपदंगों के पश्चात उन्हों के समर्थन में लिखा गया है, और इलिये इमके कर्ता व ममन्न. भद्र होमरते है जिनका उल्लेख मिलालेख व पट्टानियोंमें कन्दकन्दके पानात पाया जाता है / कुन्दकुन्दाचार्य पोर उमास्वामीका ममय वीरनिर्वाण मे लगभग 650 वर्ष पश्चात ( वि. म. 18. ) मिद्ध होता है-फरन: ग्ल. करण्श्रावकाचार भोर उमक कर्ता ममन्नमहमा समय विक्रपकी इमरी गाना. ब्दीका प्रन्तिम भाग प्रथना नीमरी सताक्षी का पूर्वाधं होना चाहिये ( यही ममय जैन समाज में ग्रामनौर पर माना भी जाना है)।' माथ ही यह भी बनाया था कि उनकार का ये समभद्र उन शिवकोटिक गुम भी हो सकते हैं जो र नमानाके बना है। इस चिटनी बातपर प्रानि करते हमा 0 दरबारीलालजीने अनेक युक्तियों के प्राधारपर जब यह प्रदान किया निरन्नमाला एक प्रानिक अन्य है, जबरगटर बनानारमे मतादिदी बादकी र नना है, विक्रमको 51 वी शतानीक पूर्व की ना यह हो नहीं मानी पोर न ना रहश्रावकाचार के कर्मा समन्तभद्र के माशात् नियमो कृति होमकी है। नब प्रा- माह बने उतरकी धुन में कुछ बल्पित युक्तियों के आधार पर यह तो लिम्व दिया कि "रत्नकररका ममय विद्यानन्दक समय (ईमबो मन् के लगभग) के पश्चात् मोर वादिराक ममय अर्थात् गक मं०६४७ (60 मन् 15) के पूर्व सिट होता है। इस समयावधि के प्रकाशमे रत्नकरण्ड बाकाचार जैन-इतिहामका एक विलुप्त प्रयाय पृ.१८, 20 अनेकान्त वर्ष 6, किरण 1, पृ३८०.३८२ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 452 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश पौर रत्नमालाका रचनाकाल समीप माजाते है और उनके बीच शताब्दियोंका अन्तराल नहीं रहता"*। साथ ही प्रागे चलकर उसे तीन मापत्तियोंका रूप भी दे दिया है परन्तु इस बातको भुला दिया कि उनका यह सब प्रयत्न पोर कथन उनके पूर्वकथन एवं प्रतिपादनके विरुद्ध जाता है। उन्हें या तो अपने पूर्वकथनको वापिस ले लेना चाहिये था पोर या उसके विरुद्ध इस नये कथनका प्रयत्न तथा नई मापतियोंका मायोजन नही करना चाहिये था / दोनों परस्पर विरुद्ध बाते एक साथ नहीं चल सकी। अब यदि प्रोफेसर साहब अपने उम पूर्व कथनको वापिस लेते है तो उनकी वह थियोरी ( Theory ) अथवा मत-मान्यता ही हिगड जाती है जिसे लेकर वे 'जैन-साहित्यका एक विलुप्त अध्याय' लिखने में प्रवृत्त हुए हैं और यहाँ तक लिख गये हैं कि 'बोडिक-मडके मंस्थापक शिवभूति, स्थविराली में उल्लिखित मायं शिवभूति, भगवती पाराधनाके कर्ता शिवायं और उमारवानिके गुरुके गुरु शिवश्री ये चारों एक ही व्यक्ति है। इमी तरह शिवभूतिके शिष्य एवं उत्तराधिकारी भद्र, नियुक्तियों के कर्ता भद्रबाहु, द्वादश-वर्षीय भिक्षकी भविष्यवारणीके कर्ता व दक्षिणापथको विहार करने वाले भद्रकाहकुन्दकुन्दाचार्य के गुरु भद्रबाहु, वनवासी सडके प्रस्थापक ममनभद्र पोर प्राप्तमीमांसाके कर्ता ममन्तभद्र ये सब भी एक ही व्यक्ति है।' और यदि प्रोफेसर साहब अपने उम पूर्वकयनको वापिस न लेकर पिछली तीन युक्तियोंको हो वापिस लेते हैं तो फिर उनपर विचार की जरूरत ही नहीं रहती-प्रथम मूल प्रापत्ति ही विचारके योग्य रह जाती है भोर उमपर ऊपर विचार किया ही जा चुका है। यह भी हो सकता है कि प्रो० साहबके उस विलुप्त प्रध्यायके विरोध में जो दो लेख (1 क्या नियुक्तिकार भद्रबाहु और स्वामी समन्तभद्र एक है ?, 2 शिवभूति, शिवायं पौर शिवकुमार ) बीग्मेवामन्दिर के विद्वानों द्वारा लिखे * अनेकान्त वर्ष 7, किरण 5-6, पृ० 54 अनेकान्त वर्ष 8, कि० 3 पृ०१३२ तथा वर्ष 6. कि० 1 पृ. 1, 10 Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व विषयपर मेरा विचार और निर्णय 453 जाकर अनेकान्तमें प्रकाशित हुए है। पौर जिनमें विभिन्न प्राचार्योके एकीकरणकी मान्यताका युक्तिपुरस्सर खण्डन किया गया है तथा जिनका प्रभीतक कोई भी उत्तर साढ़े तीन वर्षका ममय बीत जानेपर भी प्रो० साहबकी तरफसे प्रकाश में नहीं पाया, उनपरसे प्रो० साहबका विलुप्त-अध्याय-सम्बन्धी अपना अधिकांश विचार ही बदल गया हो और इसीमे वे भिन्न कथन-द्वारा शेष तीन भापतियोंको खड़ा करने में प्रवृत्त हाए हों। परन्तु कुछ भी हो, ऐमी अनिश्चित दशामें मुझे तो शेष तीनों प्रापत्तियोंपर भी अपना विचार एवं निर्णय प्रकट कर देना ही चाहिये / तदनुमार ही उमे मागे प्रकट किया जाता है। (2) रत्नकरण्ड पोर प्राप्तमीमांसाका भिन्नकर्तृत्व सिद्ध करनेके लिये प्रो० साहबकी जो दूसरी दलील (युक्ति) है वह यह है कि "रत्नकरण्डका कोई उल्लेख गक संवत् 647 (वादिराज के पाश्वनाथचरितके रचनाकाल ) से पूर्वका उपलब्ध नहीं है तथा उमका प्राप्तमीमामाके माथ एककर्तृत्व बतलानेवाला कोई भी मुप्राचीन उल्लेख नहीं पाया जाता।' यह दलील वास्तव में कोई दलील नहीं है; क्योंकि उल्नेखानुपलब्धिका भिन्नकतत्यके साथ कोई अविनाभावी सम्बन्ध नहीं है-उल्लेखक न मिलने पर भी दोनों एक कर्ता होने मे स्वरूपसे कोई बाधा प्रतीत नहीं होती। दमके मिवाय. यह प्रश्न पैदा होता है कि रत्नकरण्डका वह पूर्ववर्ती उल्लेख प्रो. मा० को उपलब्ध नहीं है या किसीको भी उपलब्ध नहीं है अथव। वर्तमान में कही उसका अस्तित्व ही नहीं प्रोर पहले भी उमका पस्तित्व नहीं था ? यदि प्रो. माहरको वह उल्लेम्प उपलब्ध नहीं और किसी दूसरेको उपलब्ध हो तो उसे अनुपलब्ध नहीं कहा जामकताभले ही वह उसके द्वारा प्रभी तक प्रकाश न लाया गया हो। मीर यदि किमीके द्वारा प्रकाशमें न लाये जाने के कारण ही उमे दूमरीके द्वारा भी अनुपलब्ध कहा जाय और वर्तमान साहित्य में उसका अस्तित्व हो तो उसे सर्वथा अनुपलन्ष प्रथवा उस उल्लेखका प्रभाव नहीं कहा जा मकता / मौर वर्तमान साहित्य में उम उल्लेख के अस्तित्वका प्रभाव तभी कहा जा सकता है जब सारे साहित्यका भले प्रकार अवलोकन करने पर वह उनमें न पाया भनेकान्त वर्ष 6, कि० 10.11 प्रौर वर्ष 7, कि० 1-2 Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454 जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश जाता हो / सारे वर्तमान जनसाहित्यका अवलोकन न तो प्रो० साहबने किया है पोर न किसी दूसरे विद्वान् के द्वारा ही वह अभी तक हो पाया है / पौर जो साहित्य लुप्त हो चुका है उसमे वैसा कोई उल्लेख नहीं था इसे तो कोई भी दृढ़ताके साथ नहीं कह सकता। प्रत्युत इसके, वादिराजके सामने शक सं० 647 में जब रत्नकरण्ड खूब प्रमिद्धिको प्राप्त था और उससे कोई 30 या 35 वर्ष बाद ही प्रभाचन्द्राचार्यने उसपर संस्कृत टीका लिखी है और उसमें उसे साफ तौरपर स्वामी ममन्नभद्रकी कृति घोषित किया है, तब उमका पूर्व साहित्य में उल्लेख होना बहुत कुछ स्वाभाविक जान पड़ता है। वादिराजके सामने कितना ही जनमाहि-य मा उपस्थित था जो प्राज हमारे मामने उपस्थित नहीं है और जिसका उल्लेख उनके ग्रन्थो में मिलता है। ऐसी हालतमे पूर्ववर्ती उल्लेखका उपलब्ध न होना कोई खाम महत्व नहीं रखता और न उसके उपलब्ध न होने मात्रमे रत्नकरण्डकी रचनाको वादिगज के मम मामयिक ही कहा जा सकता है, जिसके कारण प्राप्तमीमामा और रत्नकरण्डके भिन्न कर्तृत्वकी कल्पनाको बल मिलता। दुमरी बात यह है कि उसने व दो प्रकार का होता है-एक ग्रन्यनामका और दूसरा ग्रन्थ के माहित्य तथा उसके किमी विषय-विपका / वादिगजमे पूर्वका जो साहित्य प्रभीतक अपने को अनन्ध है उममें गदि ग्रन्थका नाम का उपलब्ध नहीं होता तो उसमें क्या ? रत्नकराया पद-वाक्यादिक पम माहित्य और उमका विषय विभंग नो उपलब्ध हो रहा है नब यह कंग कहा जा सकता है कि तकरगढका गाई उन्म्ब उपलब्ध नहीं हैं ? नहीं कहा जा जा सकता / प्रा० पूज्यगदने प्रपती माधमिद्धिम स्वामी ममन्समद के प्रन्यो पर. से उनके द्वारा प्रतिरादित प्रर्थको कही शब्दानुमगाके, वही पदानुमरमा के. कही वाक्यानुसरणके, कही अर्थानमरणके, कही भावानुमणके, कही उदाहरण के, कहीं पर्यायान्दप्रयोगके प्रौर कही याम्यान-विवेचनादिक कामे पूर्णत: अथवा अंशत: अपनाया है - ग्रहण किया है-पोर किमका प्रदर्शन मैंने 'सर्वार्थ सिटिपर समन्तभद्रका प्रभाव' नामक अपने लेख में किया है। उसमें भनेकान्त वर्ष 5, किरण 10-11, पृ० 346-352 (लेखनं. 16) Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व विषयपर मेरा विचार और निर्णय 455. प्राप्तमीमांसा, स्वयंभूस्तोत्र और युक्त्यनुशासनके अलावा रत्नकरण्डश्रावकाचारके भी कितने ही पद-वाक्योंको तुलना करके रक्खा गया है जिन्हें सर्वार्थसिद्धि काकारने अपनाया है, और इस तरह जिनका सर्वार्थसिदिमें उल्लेख पाया जाता है। प्रकल कूदेवके तत्वार्थ राजवातिक और विद्यानन्दके श्लोकवातिकमें भी ऐम उल्लेखों की कमी नहीं है। उदाहरणके तौरप' तन्वार्थ-मूत्रगत व अध्यायके 'दिग्देशानथंदण्ड' नामक 21 वे मूत्रमे सम्बन्ध रखने वाले "भोगपरिभोग-संख्यानं पञ्चविध सघान-प्रमाद-बहुवधाऽनिष्ठाऽनुपमेव्यविपयभेदान" इम उभय-वानिक-गन वाक्य और इमकी व्याख्यानोको रत्नकरण्डक 'सहतिपरिहरणार्थ, 'अल्पफल बहुविघातात.' 'यदनिष्ट तद् व्रतयेन' इन तीन पद्यों ( नं. 81 85, 86) के माथ तुलना करके देखना चाहिए, जो इस विषयमे अपनी वाम विशेषता रखते है। परन्तु मरे उक्त नेस्वपरमे जब गन्नकरण्ड पोर सर्वार्थमिद्धिके कुछ तुलनात्मक अंश उदाहरण के तौरपर प्रो. माहब के मामने बनाने के लिए रवन गये कि 'रत्नकरण्ड गर्वामिक्केि का पूज्यपादसे भी पूवकी कृति है और इमनिये रत्नमालाके कर्ता शिवकोटि के गुरु उसके कर्ता नहीं हो सकते ना उन्होंने उत्तर देते हुए लिख दिया कि "मायद्धिकाग्ने उहं नकरण्ड म नहीं लिया, किन्तु मम्भव है. रत्नकरगर कारने ही अपनी रचना सर्वार्थसिद्धिके माधाग्में की हो" / माय हो, नकरण्ड के उपान्यपद्य येन स्वयं योनकलविद्या' को लेकर एक नई कम्पना भी कर डाली और उसके प्राधारपर यह घोषित कर दिया कि 'नकर पडवी रचना न केवल पूज्यपादने पस्नातकालीन है, किनु प्रकला और विद्यानन्दम भी पीछे की है / और इमोको प्रागे चमकर चोधी प्रापनिका कप दे दिया / यहाँ भी प्रोफेसर माहब ने इस बात को भुना दिया कि गिलानेम्वोंके उन्नेखानुसार कुन्दकुन्दाचार्य के उत्तरवर्ती जिन ममन्तभद्रको ग्लक रण्डका कर्ता बनला पाए है उन्हें नो गिलालेखों में भी पूज्यपाद, प्रकलङ्क और विद्यानन्दके पूर्ववर्ती लिखा है, नर उनके रत्नकरण्ड की रचना प्रपने उत्तरवर्ती पूज्यपादादिके बादकी प्रथवा सर्वार्थसिदिके माधारपर को हुई कैसे हो सकती है ?' प्रस्तु; इस विषयमें विशेष विचार गोषी मापत्ति के विचाराऽयमरपर ही किया जायगा। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 456 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश यहाँ पर मैं साहित्यिक उल्लेखका एक दूसरा स्पष्ट उदाहरण ऐसा उपस्थित कर देना चाहता हूँ जो ईसाकी ७वीं शताब्दीके ग्रन्थमें पाया जाता है और वह है रत्नकरण्डश्रावकाचारके निम्न पद्यका सिद्ध सेनके न्यायावतार में ज्योंका त्यों उद्धृत होना प्राप्तोपशमनुल्ल ध्यमदृष्टेष्ट-शिरोधकम् / तत्त्वोपदेशकृत्सा शास्त्र कापथ-घट्टनम् / / 6 / / यह पद्य रत्नकरण्डका एक बहुत ही प्रावश्यक प्रग है और उसमें यथास्थानयथाक्रम मूलरूपसे पाया जाता है / यदि इस पद्यको उक्त ग्रन्थसे अलग कर दिया जाय तो उसके कथनका सिलसिला ही बिगड़ जाय / पोंकि ग्रन्थमें, जिन प्राप्त आगम (शास्त्र) और तपोभूत् ( तपस्वी ) के प्रष्ट प्रगसहिन पोर त्रिमूढतादिरहित श्रद्धानको सम्यग्दर्शन बतलाया गया है उनका क्रमश: स्वरूप-निदंग करते हए, इस पद्यमे पहले 'माप्त' का और इसके प्रनन्तर 'तपोभूत' का स्वरूप दिया है; यह पद्य यहां दोनोके मध्यमे अपने स्थानपर स्थित है, और अपने विपक्षका एक ही पद्य है / प्रत्युत इमके, न्यायावतारमे. जहाँ भी यह नम्बर पर ग्थित है, इस पद्यकी स्थिति मौलिकताकी दृष्टिम बहुत ही सन्दिग्ध जान पड़ती हैयह उसका काई प्रावश्यक प्रत मालूम नहीं होता और न इमको निकाल देने से वहां ग्रन्थके मिलमिलेमे अथवा उसके प्रतिपाद्य विषयमें ही कोई बाधा पाती है / न्यायावतारमे परोक्ष प्रमाण के 'अनुमान' और 'मान्द' से दो भेदोका कथन करते हुए, स्वार्थानुमानका प्रतिपादन और समर्थन करने के बाद इस पद्यम ठीक पहले 'शाम' प्रमाणके लक्षणका यह पद्य दिया हुप्रा है * दृप्टेष्टाव्याहताद्वाक्यात् परमार्थाभिधायिनः / तत्वमाहितयात्पन्नं मानं शाब्द प्रकीर्तितम् // 8 // इस पद्यकी उपस्थिति में इसके बादका उपयुक्त पर, जिसमें शास्त्र (पागम) का लक्षण दिया हमा है, कई कारणों से व्यथं पड़ता है। प्रथम तो उसमें शास्त्र •सिद्धपिकी टीकामें इस पचसे पहले यह प्रस्तावना-वाक्य दिया हुमा है-- "तदेवं स्वानुमानलक्षणं प्रतिपाय सद्वता भ्रान्तताविप्रतिपत्ति च निराकृत्य अधुना प्रतिपादितपरार्यानुमानलक्षणं एवाल्पवक्तव्यत्वात् तावच्याम्बमक्षणमाह'। Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व विषयपर मेरा विचार और निर्णय 457 का लक्षण प्रागम-प्रमाणरूपसे नहीं दिया-यह नही बतलाया कि ऐसे शास्त्रसे उत्पन्न हुमा ज्ञान + प्रागमप्रमाण अथवा शान्दप्रमारण कहलाता है; बल्कि सामान्यतया प्रागमपदार्थ के रूप में निर्दिष्ट हुअा है, जिसे 'रत्नकरण्डमें सम्यग्दर्शनका विषय बतलाया गया है / दूसरे, शान्दप्रमाणमे शास्त्रप्रमाण कोई भिन्न वस्तु भी नही है, जिमकी शाब्दप्रमाणके बाद पृथक रूपमे उल्लेख करनेकी जरूरत होती, बल्कि उसी में अन्नभून है। टीकाकाग्ने भी, शान्दके 'लौकिक' पौर 'शास्त्रज' मे दो भेदोंकी कल्पना करके, यह मूचित किया है कि इन दोनोंका ही लक्षण इस पाठवें पद्यमें प्रागया है / इममे व पद्यमें शाब्दके 'मास्त्रज' भेदका उल्लेग्य नहीं. यह और भी स्पष्ट होजाता है। तीमरे, ग्रन्थभरमें, इससे पहले, 'शास्त्र' या 'पागम-शब्दका कहीं प्रयोग नहीं हुप्रा जिसके म्वरूपका प्रतिपादक ही यह 6 वा पद्य ममझ लिया जाता, पोर न 'शास्त्रज' नाम के भेदका ही मूलगन्यमे कोई निर्देश है, जिसके एक अवयव ( शास्त्र ) का लक्षण-प्रतिपादक यह पद्य हो सकता। चोथे, यदि यह कहा जाय कि वे पद्यमे 'शान्द' प्रमाणको जिस वाक्यमे उत्पन्न हपा बतलाया गया है उसीका नाव नाममे प्रगले पद्य में स्वम्प दिया गया है तो यह बात भी नही बनती: क्योकि व पद्यमे ही 'दृष्टेष्टाव्याहती' प्रादि विशेषणोके द्वारा वाक्यका स्वरूप दे दिया गया है और वह स्वरूप प्रगले पचमें दिये हुए शास्त्रक स्वरूप प्राय: मिलता-जुलता है-उसके 'दृष्टेपटाव्याहत' का 'प्रदृप्टंष्टाविरोधक के साथ साम्य है और उसमें 'मनुल्लघ्य' तथा 'प्राप्तोपज विशेषणोंका भी ममावेग हो सकता है. परमार्थाभिधायि' विशेषण कापयघटन' और 'मा' विशेषणोंके भावका द्यानक है. पोर शान्दप्रमाणको तन्वमाहितयोत्पान' प्रतिपादन करनेसे यह स्पष्ट स्वनित है कि वह वाक्य 'तत्वोपदेशकृत' माना गया है-इस तरह दोनों पचों में बहुत कुछ माम्य पाया जाता है। ऐसी हालत में समर्थनमे उद्धरण के सिवाय + स्व-परावमामी निर्वाध ज्ञानको ही न्यायावतार के प्रथम पचमें प्रमाणका अक्षण बतलाया है, इसलिये प्रमाणके प्रत्येक भेदमें उसकी व्याति होनी चाहिये / * “शाम्दं द्विषा भवति-लोकिक शास्त्रजं चेति / तत्र द्वयोरपि माधारण लक्षणं प्रतिपारितम्"। Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 458 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश ग्रन्थ-सन्दर्भके साथ उसकी दूसरी कोई गति नहीं; उसका विषय पुनरुक्त ठहरता है। पांचवें, ग्रन्थकारने स्वयं प्रगले पद्यमें वाक्यको उपचारमे 'परार्थानुमान' बतलाया है / यथा स्व-निश्चयवदन्येषां निश्चयोत्पादनं बुधैः / परार्थ मानमाख्यान वाक्यं तदुपचारतः / / 10 / / इन सब बातों अथवा कारणोंमे यह स्पष्ट है कि न्यायावतारमें 'मामीपज' नामका : वें पद्यकी स्थिति बहुत ही मन्दिग्ध है, वह मूल ग्रन्थका पद्य मालूम नही होता / उसे मूल ग्रन्थकार-विरचित ग्रन्थका प्रावश्यक प्रङ्ग माननेमे पूर्वोत्तर पद्योंके मध्यमें उमकी स्थिति व्ययं पड़ जाती है, ग्रन्थको प्रतिपादन-शैली भी उमे स्वीकार नहीं करती , और इसलिये वह अवश्य ही वहां एक उद्धन पच जान पड़ता है, जिसे 'वाक्य' के स्वरूपका ममथर करनेके लिये रत्नकरणपरमे 'उक्तन' मादिक पमें पर किया गया है / उद्धरणका यह कार्य यदि मूलग्रन्थकारके द्वाग नही दार है तो वह; अधिक ममय वादका भी नहीं है क्योकि विक्रमकी, वी शताब्दीके विद्वान् प्रानायं मिषिको टोकामें यह मूकम्पले परिवार है, जिमगे यह मालूम होता है कि उन्हें अपने समयमें न्यायावतार जो प्रतियां उपलब्ध थी उनमें यह पद्य मूनका मन बना पाया। जबतक मिद्धपिसे पूर्व को किमी प्राचीन प्रतिमे उक पद्य प्रनाल नही नवर। प्रो० माहब नो प्रानी विनार-पद्धति' के अनुसार यह कर ही नही मी वह ग्रन्थका अङ्ग नहीं - -अन्य कारक द्वारा योजित नहीं दृप्रा प्रयया प्रा. में कुछ अधिक समय बाद उसमें प्रविय या पक्षिम दृपा है। नान " . माहबनं वैमा कुछ कहा भी नहीं पोर न म पके पापावार उ र . प्रो साहबकी इम विचारपद्धतिमा दर्शन उम पारम भले प्रहार होगा। है जिमे उन्होंने मेरे उस पत्रके उनमे लिखा था जिसमें उनमे कर उन मात पद्यों की बाबत मयुक्तिक राय मागो गई थी जिन्हें मैंने ग्नकरण 3 : प्रस्तावनामें सन्दिग्ध करार दिया था और जिस पत्रको उन्होंने मेरे पत्र-मा। अपने पिछले लेख (अनेकान्त वर्ष 6 कि०१ पृ० 10) में प्रकाशित किया है। Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डके कतृत्व विषयपर मेरा विचार और निर्णय 456 की बातका स्पष्ट शब्दोंमें कोई युक्तिपुरस्सर विरोध ही प्रस्तुत किया हैउसपर एकदम मौन हो रहे है। अतः ऐसे प्रबल साहित्यिक उल्लेखोंकी मौजूदगी में रत्नकरगडको विक्रमकी ११वीं शताब्दीकी रचना अथवा रत्नमालाकारके गुम्की कृति नहीं बतलाया जा सकता और न इम कल्पित ममयके प्राधार पर उसका प्राप्तमीमांसामे भिन्नकर्तृत्व ही प्रतिपादित किया जा सकता है। यदि प्रो० माहव माहित्यक उल्लेवादिको कोई महत्व न देकर ग्रन्थके नामोल्लेख को ही उमका उल्लेख समझते हों तो वे प्राप्तमीमामाको कुन्दकुन्दाचायंम पूर्वकी तो क्या, ग्रकलङ्कके ममयमे पूर्व की अथवा कुछ अधिक पूर्वकी भी नहीं कह सकेगे; क्योकि प्रकलङ्कम पूर्वके माहित्य में उसका नामोल्लेख नहीं मिल रहा है / प्रेमी हालत में प्रो० माहवकी दूसरी प्रापनि का कोई महत्व नहीं रहना, वह भी ममुचित नहीं कही जा सकती और न उसके द्वारा उनका अभिमत ही सिद्ध किया जा सकता है। (3) गन्न करा, और प्रातमीमामाका भिन्नमव सिद्ध करने के लिये प्रोफेसर हीरालाल जी की जो नीमगे दलील (युनि) है, उसका मार यह कि 'वादिगज-मूरिक पाम्वनाथ वाग्लम प्राममीमामाका ना दवागम' नामस उलेम्व करते हा 'स्वामि कृत' कहा गया है और रहकरण्टको ग्व मिकत न कहकर 'योगीन्द्रकत' बतलाया है। स्वामी का अभिप्राय म्वामी ममन्नभन में और 'योगीन्द्र' का अभिवाय उम नामक किमी प्राचार्य में प्रयवा ग्राममीमामाकान्ये भिन्न किमो दूसरे ममन्तभदमे है। दोनो ग्रन्योर एक ही ममन्नमा नदी हो सकने अथवा यो कहिये कि वादिराज-मम्मत नहीं हो मम्ने, क्योय दानों मन्योंक उल्लेब-सम्बन्धी दोनों पक्षों म यमे 'विन्य-महिमादेव: नाममा एक पग पसा हुमा है जिसके देव गन्दका अभिप्राय देवनन्दी पूज्यपादन है और जो उनके गदगास्त्र (जने..) की गवनाको सायमें लिए हा है। जिन पद्योपरसे इम युक्तिवाद अथवा नकर और प्राप्तमीमामाने पर सपर भापत्तिका जन्म हुमा है वे इस प्रकार है: "स्वामिनिश्चरितं तस्य कस्य नो विस्मयावहम् / / देवागमेन सर्वज्ञो येनाऽगापि प्रदर्श्यते // 17 / / Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 460 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश अचिन्त्यमहिमा देवः सोऽभिवन्द्यो हितैषिणा / शब्दाश्च येन सिद्धयन्ति साधुत्व प्रतिलम्भिताः // 28 // त्यागी स एव योगीन्द्रो येनाऽक्षय्यसुखावहः / अर्थिने भव्यसार्थाय दिटो रत्नकरण्डकः // 1 // इन पद्यों मेसे जिन प्रथम और तृतीय पद्योंमें प्रन्योका नामोल्लेख है उनका विषय स्पष्ट है और जिसमें किसी ग्रन्थका नामोल्लेख नहीं है उस द्वितीय पयका विषय अस्पष्ट है, इस बातको प्रोफेसर साहबने स्वयं स्वीकार किया है / पौर इसीलिये द्वितीय पद्यके प्राशय तथा अर्थ-विषयमें विवाद है-एक उसे स्वामी समन्तभद्र के साथ सम्बन्धित करते है तो दूमरे देव नन्दी पूज्यपादके माय / यह पद्य यदि क्रमम तीमरा हो और तीसरा मरे के स्थानपर हो, और ऐमा होना लेखकोंकी कृपासे कुछ भी असम्भव या अस्वाभाविक नहीं है, तो फिर विवाद के लिये कोई स्थान ही नहीं रहता; तब देवागम (माप्तमीमांमा) और ग्लकरण्ड दोनों निर्विवादम्पमे प्रचलित मान्यताके अनुरूप स्वामी समन्तभद्र के साथ सम्भधित हो जाते हैं और शेष पद्यका मम्बन्ध देवनन्दी पूज्यपाद पोर उनके शन्दशास्त्रसे लगाया जा सकता है / चकि उत्त. पानाथरित-मम्बन्धी प्राचीन प्रतियों की खोज अभी तक नहीं हो पाई है, जिसमें पद्योंकी कमभिन्नताका पता चलता और जिसकी कितनी ही मम्भावना जान पड़ती है, प्रत. उपलब्ध क्रमको लेकर ही इन पद्योंके प्रतिपाद्य विषय अथवा फलितार्थपर विचार किया जाता है: पद्योंके उपलब्ध क्रमपरसे दो बाने फलित होनी है-एक तो यह कि तीनों पद्य स्वामी समन्तभद्रकी स्तुतिको लिये हए है और उनमें उनकी तीन कृतियोंका उल्लेख है; और दूसरी यह कि तीनों पद्योंमें क्रमश: तीन प्राचार्यों और उनकी नीन कृतियोंका उल्लेख है। इन दोनोंमेंसे कोई एक बात ही ग्रन्थकारके द्वारा अभिमत और प्रतिपादित हो सकती है-दोनों नहीं / वह एक बात कोनमी होसकती है, यही यहाँ पर विचारणीय है / तीमरे पद्यमें उल्लिखित 'रत्नकरणक' यदि वह रत्नकरण्ड या रत्नकरण्डश्रावकाचार नहीं है जो स्वामी समन्त भद्रकी कृतिरूप में प्रसिद्ध और प्रचलित है, बल्कि योगीन्द्र' नामके प्राचार्य-द्वारा रचा हुमा उमी नमा Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डके कत्व विषयपर मेरा विचार और निर्णय 461 का कोई दूसरा ही ग्रन्थ है, तब तो यह कहा जा सकता है कि तीनों पद्योंमें तीन माचार्य और उनकी कृतियों का उल्लेख है- भले ही वह दूमग रत्नकरण्ड कहीं पर उपलब्ध न हो अथवा उमके अस्तित्वको प्रमाणित न किया जा मके / और तब इन पद्योंको लेकर जो विवाद खड़ा किया गया है वही स्थिर नहीं रहता-समाप्त हो जाता है अथवा यो कहिये कि प्रोफेसर माहब की नीमरी भापति निराधार होकर बेकार हो जाती है / परन्तु प्रो० साहबको दूमग रत्न. करण्ड इष्ट नही, तभी उन्होंने प्रचलित रत्नकरण्डके ही छटे पद्य 'पिपामा' को मातमीमामाके विरोधमें उपस्थित किया था, जिमका ऊपर परिहार किया जा चुका है / और इमलिये तीमर पद्यमे उल्लिखित 'रत्नकरण्डक' यदि प्रचलित रलकरण्श्रावकाचार ही है तो नीनों पद्योंको स्वामी समन्तभद्रके माय ही सम्बन्धित कहना होगा, जबतक कि कोई स्पष्टबाधा इसके विरोधमे उपस्थित न की जाय / इसके मिवाय, दूमरी काई गति नहीं; क्योंकि प्रचालन र नकरण्डको माप्तमीमांसाकार स्वामी समन्नभद्रकृत माननेमे कोई बाधा नहीं है, जो बाधा उपस्थित की गई थी उसका ऊपर दो प्रापत्तियोंका विचार करते हुए भले प्रकार निरसन किया जा चुका है और यह नीमरी प्रापत्ति अपने स्वरूपमे ही स्थिर न होकर प्रमिद नया मदिग्ध बनी हुई है। पोर इमलिये प्रो० साहब के अभिमतको सिद्ध करने में असमर्थ है / जब प्रादि-ग्रन्नके दोनों पद्य म्वामी ममन्तभद्रम सम्बन्धित हों तब मध्यके पद्यको दूमरेके साथ सम्बद्ध नहीं किया जा सकता। उदाहरण के तौरपर कल्पना कीजिये कि रत्नकरण्डके उल्लेम्ब वाने नीमरे पद्यक स्थानपर स्वामी समन्तभद-प्रणीत स्वयमूम्नोत्रके उस्लेखको लिये हा निम्न प्रकारके प्राशयका कोई पद्य है:-- 'स्वयम्भन्तुतिकर्तारं भम्मव्याधि-विनाशनम। विराग-द्वेष-वादादिमनेकान्तमत नुमः / / ' ऐसे पचकी मौजूदगी में क्या दितीय परमें उल्लिखित 'देव' शब्दको देवनन्दी पूज्यपादका वाचक कहा जा सकता है ? यदि नहीं कहा जा सकता तो रत्नकरणके उस्लेखवाले पथकी मौजूदगी में भी उसे देवनन्दी पूज्यवादका वारक नहीं कहा जा सकता, उम वक्त तक जब तक कि यह मिड न Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 462 जैनसाहित्य और इतिहासपर विषद प्रकाश कर दिया जाय कि रत्नकरण्ड स्वामी समन्तभद्रकी कृति नहीं है। क्योंकि प्रसिद्ध साधनोंके द्वारा कोई भी बात सिद्ध नहीं की जा सकती। इन्हीं सब बातोंको ध्यान में रखते हुए, पाजसे कोई 23 वर्ष पहले रत्नकरण्श्रावकाचारको प्रस्तावनाके सायमें दिये हुए स्वामी समन्तभद्रके विस्तृत परिचय (इतिहास) में जब मैंने 'स्वामिनश्चरितं तस्य' और 'त्यागी म एव योगीन्द्रो' इन दो पद्योंको पाश्र्वनाथचरितमें एक माथ उद्धत किया था तब मैने फटनोट (पादटिप्पणी) में यह बतला दिया था कि इनके मध्य में प्रचिन्न्यमहिमा देवः' नामका एक तीमरा पद्य मुद्रित प्रतिमें और पाया जाता है जो मेरी राय में इन दोनों पद्यके बाद होना चाहिये-तभी वह देवनन्दी आचार्यका वाचक हो सकता है। साथ ही, यह भी प्रकट कर दिया था कि "यदि यह तीमग पद्य सचमुच ही ग्रन्थकी प्राचीन प्रनियों में इन दोनों परीके मध्यम ही प या जाना है पोर मध्यका ही पद्य है तो यह कहना पडेगा नि वादिगजने ममनभद्र को अपना हिन चाहने वालोके द्वाग वन्दनीय और प्रचिन्य महिमावाला देव प्रतिदिन किया है माथ ही, यह लिखकर कि उनके द्वारा सद भने प्रकार सिद्ध होते है, उनके किमी व्याकरण ग्रन्थका उल्लेख किया है। अपनी इस दृष्टि पोर रायके अनुरूप ही में प्रचिन्यमरिमा देव.' पद्यम प्रधानतः देवागम' मोर 'रत्नकरण्ड के उलनेखवाने पद्यके उन रवी सीमा पद्य मानता पारहा है और नदनुमार ही उसके 'देव पदका देवनदी प्रथ करनेमे प्रवृन हमा हैं। प्रतइन तीनों पद्योंके कमविश्यमे मगे दृष्टि पोर मान्यताको छोड़कर किमीको भी मेरे उस प्रथका दुपयोग नहीं करना चाहि जो समाधिजन्यकी प्रस्तावना नया मामाधु-म्मरगण-मङ्गल-पाठ में दिया हुप्रा है।। क्योंकि मुदिनप्रतिका पद्य - कम ही ठीक होनेपर में उस पर 'देव'परको समनभद्रका ही वावक मानता हूँ और इस तरह तीनों पद्योंकी ममतमा के स्सुनि. विषयक समझता है / अनु। अब देखना यह है कि क्या उक्त तीनों पद्यों को स्वामी समनभरके माथ प्रो० साहबने अपने मतकी पुष्टि उमे पेश करके सबपुष ही उसका दुरुपयोग किया है। Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व विषयपर मेरा विचार और निर्णय 463 सम्बन्धित करने अथवा रत्नकरण्डको स्वामी समन्तभद्रकी कृति बतलाने में कोई दूसरी बाधा पाती है ? जहाँ तक मैने इस विषय पर गंभीरताके माथ विचार किया है, मुझे उममें कोई बाधा प्रतीत नहीं होती। तीनों पद्यों में क्रमश: तीन विशेषणों स्वामी, देव और योगीन्द्र के द्वारा ममन्नभद्रका स्मरण किया गया है। उक्त कपगे रखे हुए नोनों पद्यों का अर्थ निम्न प्रकार है.___ 'उन म्वामी ( मनन्तभद्र ) का चरित्र किमके लिये विस्मयकारक (ग्राइचर्यजनक ) नहीं है जिन्होंने 'देवागम' ( प्रातमीमामा ) नामके अपने प्रवचन-द्वारा प्राज भी मवजको प्रदगित कर रकम्वा है / व अचित्यहिमा-युन देव (ममन्तभद्र) अपना हित चाहनेवालों के द्वारा गदा वन्दनीय है, जिनके द्वारा ( मयंज ही नहीं किन्तु ) पद भी * भने प्रकार सिद्ध होते है / वे ही योगीन्द्र (ममन्तभद्र ) मनचे प्रयमित्यागी (म्यागभावगे यन, अथवा दाना हा है जिन्होंने मम्वार्थी भव्यगमू के लिए प्रक्षयम्बका कारगाभन धर्मरत्नों का विदाग-'मलकर' नामका धर्मगाव-दान किया है। इम प्रथं परसे स्पष्ट है कि दम नया नीमरे पद्यमी कोई बात नही जा स्वामी समन्तभद्र के गाथ रहन न थेटनी हो। ममनभटकं लिए 'देव विभाग का प्रयोग कोई अनावी अथवा उनके पदने का अधिक नीज नहीं है / वागमकी वमनदि-वनि, गन प्रसाधरको मागारधमान-टीका, प्राचार्य जपंगेनको समयमार-टीका, नगेन मानायक सिद्धान्तमार-मग्रह मोर पाममीमामामूली एक वि० मबत 12 को प्रतिको अन्तिम पटियकामे समन्तभद्रक माय 'हव' पदका खुला प्रयोग पाया जाता है. जिन मरके प्रवण प० दरबारीलालजी कोठियाके नम्बम घृन हो चुके है +1 इसके मिनाय वादिगजके पावनायग्निमे 47 वर्ष पूर्व शक म०१.० में लिखें गये चामुण्डरायके विष्ठिशलाका महापराया में भी 'देव' उपपदके माथ ममन्नभद्रका स्मरण किया गया है और उन्हें तन्वायंभारयादिका का लिखा है। * मूल में प्रयक्त हा 'च' दामका प्रयं / + अनेकान्त वर्ष 8 कि. 10-11. पृ. 110-11 प्रनेकान्त वर्ष कि० 110 33 Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 464 जैनसाहित्य श्रीर इतिहासपर विशद प्रकाश ऐसी हालतमें प्रो० साहबका समन्तभद्रके साथ देव' पदकी असतिकी कल्पना करना ठीक नहीं है-वे साहित्यिकोमें 'देव' विशेषण के साथ भी प्रसिद्धि को प्राप्त रहे हैं। और अब प्रो० साहबका अपने अन्तिम लेखमें यह लिखना तो कुछ भी अर्थ नही रखता कि जो उल्लेख प्रस्तुत किये गये हैं उन सबमें 'देव' पद समन्त. भद्रके साथ-साथ पाया जाता है / ऐमा कोई एक भी उल्लेख नहीं जहाँ केवल 'देव' शब्दसे समन्तभद्रका अभिप्राय प्रकट किया गया हो।" यह वास्तवमें कोई उत्तर नहीं, इसे केवल उत्तरके लिये ही उत्तर कहा जा सकता है; क्योंकि जब कोई विशेषरण किसीके माथ जुड़ा होता है तभी तो वह किसी प्रमंगपर संकेतादिके रूपमें अलगसे भी कहा जा सकता है, जो विशेषण कभी माथमें जुड़ा ही न हो वह न तो अलगसे कहा जा सकता है और न उमका वाचक ही हो सकता है। प्रो० साहब ऐमा कोई भी उल्लेख प्रस्तुत नहीं कर सकेगे जिसमें समन्तभद्रके साथ स्वामी पद जुड़ने से पहले उन्हें केरल 'स्वामी' पदके द्वारा उल्लेखित किया गया हो / अत: मूल बात ममन्नभद्रके माय 'देव' विशेषरणका पाया जाना है, जिसके उल्लेख प्रस्तुत किये गये हैं और जिनके प्राधारपर द्वितीय पद्यमें प्रयुक्त हुए 'देव' विशेपण अथवा उपपदको ममन्तभद्रके माथ संगत कहा जा सकता है। प्रो० माहब वादिराजके इमी उल्लेखको वैमा एक उल्लेख ममम, मकते हैं जिममें 'देव' शब्दसे ममन्तभद्रका अभिप्राय प्रगट किया गया है; क्योंकि वादिराजके सामने अनेक प्राचीन उल्लेखोंके रूपमें समन्तभद्रको भी 'देव' पद के द्वाग उल्लखित करनेके कारण मौजूद थे। इसके सिवाय, प्रो. माहबने श्लेषार्थको लिये हुए जो एक पद्य 'देवं स्वामिनममलं विद्यानन्दं प्रणम्य निजभक्त्या' इत्यादि उदाहरण के रूपमें प्रस्तुत किया है उसका प्रर्थ जब स्वामी समन्तभद्रपरक किया जाता है तब 'देव पद स्वामी समन्तभद्रका, प्रकलङ्क परक अर्थ करने से अकलंकका और विद्यानन्द परक अर्थ करने से विद्यानन्दका ही वाचक होता है / इससे समन्तभद्र नाम माथमें न रहते हुए भी समन्तभद्रके लिये 'देव' पदका अलगसे प्रयोग अवटित नहीं है, यह प्रो० साहब-द्वारा प्रस्तुत किये गये पद्यमे भी जाना जाता है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि वादिराज 'देव' शब्दको एकान्ततः Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय 465 'देवनन्दी' का वाचक समझते थे और वैमा समझने के कारण ही उन्होंने उक्त पद्यमें देवनन्दीके लिये उसका प्रयोग किया है, क्योंकि वादिराजने अपने न्याय-विनिश्चय-विवरणमें अकलंकके लिये 'देव' पदका बहुत प्रयोग किया है। इतना ही नहीं बल्कि पार्श्वनाथचरितमें भी वे 'तर्कभूवल्लभो देवः स जयत्यकलंकधीः' इस वाक्यमें प्रयुक्त हुए 'देव' पदके द्वारा अकलकका उल्लेख कर रहे है / और जब अकलकके लिये वे 'देव' पदका उल्लेख कर रहे हैं तब अकलंकसे भी बड़े और उनके भी पूज्यगुरु समन्तभद्रके लिये 'देव' पदका प्रयोग करना कुछ भी अस्वाभाविक अथवा अनहोनी बात नहीं है / इसके सिवाय, उन्होंने न्यायविनिश्चयविवरणके अन्तिम भागमें पूज्यपादका देवनन्दी नामसे उल्लेख न करके पूज्यपाद नामसे ही उल्लेख किया है, जिससे मालूम होता है कि यही नाम उनको अधिक इष्ट था। ऐमी स्थितिमें यदि वादिराजका अपने द्वितीय पद्यमे देवनन्दि-विषयक अभिप्राय होना तो वे या तो पूरा देवनन्दी नाम देते या उनके 'जैनेन्द्र' व्याकरणका साथ में स्पष्ट नामोल्लेख करते अथवा इस पद्यको रत्नकरण्डके उल्लेव वाले पद्यके बादमें रखते, जिसमे समन्तभद्रका स्मरण-विषयक प्रकरण समाप्त होकर दूसरे प्रकरणका प्रारम्भ ममझा जाता। जब ऐमा कुछ भी नहीं है तब यही कहना ठीक होगा कि इस पद्यमें देव' विशेषणके द्वारा समन्तभद्रका ही उल्लेख किया गया है। उनका अचिन्त्य महिमासे युक्त होना और उनके / जैसा कि नीचे के उदाहरणोंमे प्रकट है:''देवस्तार्किकचकवूडामणिभूयात्स वः श्रेयसे" | पृ० 3 "भूयो मेदनयावयाहगहनं देवस्य यद्वाडमयम्" / "तथा च देवस्यान्यत्र वचनं “व्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रत्यक्षं स्वत एव न"। प्रस्ताव 1 " देवस्य शासनमतीवगभीरमेतत्तात्पर्यत: क इव बोद्धमतीव दक्षः / " प्रस्ताव 2 * "विवानन्दमनन्तवीर्यसुखदं श्रीपूज्यपादं दयापालं सन्मतिसागर ....... वन्दे जिनेन्द्र मुंदा"। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 466 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश द्वारा शब्दोंका सिद्ध होना भी कोई प्रसंगत नहीं है / वे पूज्यपादसे भी अधिक महान् थे, प्रकलंक और विद्यानन्दादिक बड़े-बड़े प्राचार्योंने उनकी महानताका खुला गान किया है, उन्हें सर्वपदार्थतत्त्वविषयक स्याद्वाद-तीर्थको कलिकालमें भी प्रभावित करनेवाला, और वीरशासनकी हजारगुणी वृद्धि करनेवाला, 'जनशासनका प्रणेता' तक लिखा है। उनके असाधारण गुणोंके कीर्तनों औरमहिमाअोंके वर्णनोंसे जनसाहित्य भरा हुआ है, जिसका कुछ परिचय पाठक 'सत्साधु स्मरण-मंगलपाठ' में दिये हुए समन्तभद्रके स्मरणोंपरसे सहजमेंही प्राप्त कर सकते हैं। समन्तभद्रके एक परिचय-पद्यसे मालूम होता है कि वे 'सिद्धसारस्वत थे-सरस्वती उन्हें सिद्ध थी; वादी सह जैसे प्राचार्य उन्हें 'सरस्वतीकी स्वच्छन्द-विहारभूमि' बतलाते हैं और एक दूसरे ग्रन्धकार समन्तभद्र-द्वारा रचे हए ग्रन्थममूहरूपी निर्मलकमल-सरोवरमें,जो भावरूप हमोंमे परिपूर्ण है, सरस्वतीको क्रीडा करती हुई उल्लेखित करते हैं * / इससे समन्तभद्र के द्वारा शब्दोंका सिद्ध होना कोई अनोखी बात नही कही जा मकती। उनका 'जिनशतक' * उनके अपूर्व व्याकरण पाण्डित्य और शब्दोंके एकाधिपत्यको सूचित करता है। पूज्यपादने तो अपने जैनेन्द्रव्याकरण मे 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' यह सूत्र रखकर समन्तभद्र-द्वारा होनेवाली शब्दसिद्धि को स्पष्ट मूचित भी किया है, जिसपरसे उनके व्याकरण-शास्त्रकी भी सूचना मिलती है। और श्रीप्रभाचन्द्राचार्यने अपने गद्यकथाकोशमें उन्हें तर्कशास्त्रकी तरह व्याकरण -शास्त्रका भी व्या- ख्याता (निर्माता) लिखा है / इतने पर भी प्रो 0 साहबका अपने पिछले लेख में यह लिखना कि “उनका बनाया हुप्रा म सो कोई गन्दशास्त्र उपलब्ध है और न उसके कोई प्राचीन प्रामाणिक उल्लेख पाये जाते है" व्यर्थकी * अनेकान्त वर्ष 7 किरण 3-4 पृ० 26 . .. * सत्साधुस्मरणमंगलपाठ, पृ० 34, 56 . अनेकन्त वर्ष 8 किरण 10-11 पृ० 416 'जैनग्रन्थावली में रायल एशियाटिक सोसाइटीकी रिपोर्ट के माधारपर समन्तभद्रके एक प्राकृत व्याकरणका नामोल्लेख है और उसे 1200 श्लोकपरिमारण मूचित किया है। Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -~~ - ~-~ ~ - ~~ रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय 467 खींचतानके सिवाय और कुछ भी अर्थ नहीं रखता। यदि प्राज कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है तो उसका यह प्राशय तो नहीं लिया जा सकता कि वह कभी था ही नहीं। वादिराजके ही द्वारा पार्श्वनाथचरितमें उल्लिखित 'सन्मतिसूत्र की वह विवृति और विशेषवादीकी वह कृति प्राज कहां मिल रही है ? यदि उनके न मिलने मात्रसे वादिराजके उल्लेख विषयमें अन्यथा कल्पना नहीं को जा सकती तो फिर समन्तभद्र के शब्दशास्त्रके उपलब्ध न होने मात्रसे ही वैसी कल्पना क्यो की जाती है ? उममें कुछ भी पौचित्य मालूम नही होता / अतः वादिराजके उक्त द्वितीय पद्य नं० 18 का यथावस्थित क्रमकी दृष्टिसे समन्तभद्र-विषयक अर्थ लेने में किसी भी बाधाके लिये कोई स्थान नहीं है। रही तीसरे पद्यकी बात, उसमें 'योगीन्द्रः' पदको लेकर जो वाद-विवाद अथवा कमेला खड़ा किया गया है उसमें कुछ भी सार नहीं है / कोई भी बुद्धिमान् ऐसा नहीं हो सकता जो ममन्तभद्रको योगी अथवा योगीन्द्र मानने के लिये तैयार न हो, खासकर उस हालत में जब कि वे धर्माचार्य थे-सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्यरूप पञ्च प्राचारोंका स्वयं प्राचार करनेवाले और दूसरोको पाचरण करानेवाले दीक्षागुरुके रूपमें थे-'पद्धिक' थे-तपके बलपर चारण ऋद्धिको प्राप्त थे--और उन्होंने अपने मंत्ररूप वचनबलसे शिवपिण्डी में चन्द्रप्रभकी प्रतिमाको बुला लिया था ('स्वमन्त्रवचन-वाहतचन्द्रप्रभः')। योग-साधना जैनमुनिका पहला कार्य होता है और इसलिये जैनमुनिको 'योगी' कहना एक सामान्य-सी बात है, फिर धर्माचार्य अथवा दीक्षागुरु मुनीन्द्रका तो योगी अथवा योगीन्द्र होना और भी अवश्यंभावी तथा अनिवार्य ही जाता है। इसी ते जिम वीरशासनके स्वामी समन्तभद्र अनन्य उपासक थे उसका स्वरूप बतलाते हुए, युक्त्यनुशासन ( का० 6) में उन्होंने दया, दम और त्यागके साथ समाधि ( योगसाधना ) को भी उसका प्रधान अंग बतलाया है। तब यह कैसे हो सकता है कि वीरशासनके अनन्यउपासक भी योग-साधना न करते हों और इसलिये योगी न कहे जाते हों ? ' सबसे पहले मुहृदर पं० नाथूरामजी प्रमीने इस योगीन्द्र -विषयक चर्चाको 'क्या रत्नकरण्डके कर्ता स्वामी समन्तभद्र ही है. ?' इस शीर्षकके अपने लेखमें उठाया था और यहाँ तक लिख दिया था कि “योगीन्द्र-जैसा विशेषण तो उन्हें Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 468 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाशं . (समन्तभद्रको) कहीं भी नहीं दिया गया . ' इसके उत्तरमें जब मैंने 'स्वामी समन्तभद्र धर्मशास्त्री, ताकिक और योगी तीनों थे' इस शीर्षकका लेखा लिखा और उसमें अनेक प्रमाणोंके प्राधार पर यह स्पष्ट किया गया कि समन्तभद्र योगीन्द्र थे तथा 'योगी' और 'योगीन्द्र' विशेषणोंका उनके नामके साथ स्पष्ट उल्लेख भी बतलाया गया तब प्रेमीजी तो उस विषय में मौन हो रहे, परन्तु प्रो० साहबने इस चर्चाको यह लिखकर लम्बा किया कि " मुख्तार माहब तथा न्यायाचार्यजीने जिस प्राधार पर 'योगीन्द्र' शब्दका उल्लेख प्रभाचन्द्र-कृत स्वीकार कर लिया है वह भी बहुन कथा है / उन्होंने जो कुछ उसके लिये प्रमाण दिये हैं उनमें जान पड़ता है कि उक्त दोनों विद्वानोंमेसे किसी एकने भी अभी तक न प्रभाचन्द्रका कथाकोष स्वयं देखा है और न कही यह स्पष्ट पढ़ा या किमीमे सुना कि प्रभाचन्द्रकृत कथाकोषमे समन्तभद्रके लिये 'योगीन्द्र' शब्द पाया है। केवल प्रेमीजीने कोई बीस वर्ष पूर्व यह लिख भेजा था कि "दोनों कथानों में कोई विशेष फर्क नहीं है, नेमिदत्तकी कया प्रभाचन्द्रकी गयकथाका प्राय: पूर्ण अनुवाद है'। उसीके प्राधारपर मात्र उक्त दोनों विद्वानोंको "यह कहने में कोई प्रांपत्ति मालूम नहीं होती कि प्रभाचन्द्र ने भी अपने गद्य-कथाकोपमें स्वामी समन्त मद्रको 'योगीन्द्र' रूपमें उल्लेखित किया है।" इसपर प्रभचन्द्रके गयकपाकोपको मंगाकर देखा गया और उसपरमे समनभद्रको 'योगी' तथा 'योगीन्द्र' बतलाने वाले जब डेढ दर्जनके करीब प्रमाण न्यायाचार्यजीने अपने अन्तिम लेख में : उद्धृत किये तब उसके उत्तरमें प्रो. साहब अब अपने पिछने लेख में यह कहने बैठे है, जिसे वे नेमिदत-कयाकोपके अनुकूल पहले भी कह सकते थे, कि "कथानकमें समन्तभद्रको केवल उनके कपटवेषमें ही योगी या योगीन्द्र कहा है, उनके जैनवेषमें कहीं भी उक्त शब्दका प्रयोग नहीं पाया जाता"। यह उत्तर भी वास्तवमें कोई उत्तर नहीं है। इसे भी केवन * अनेकान्त वर्ष 7 किरण 3-4, पृ० 26,30 अनेकान्त वर्ष 7 किरण 5-6, पृ० 42, 48 अनेकान्त वर्ष 8 किरण 10-1110 420-21 Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरएडके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय 466 उत्तरके लिये ही उत्तर कहा जा सकता है / क्योंकि समन्तभद्रके योग-चमत्कारको देखकर जब शिवकोटिराजा, उनका भाई शिवायन और प्रजाके बहुतसे जन जैनधर्ममें दीक्षित होगये तब योगरूपमें समन्तभद्रकी ख्याति तो और भी बढ़ गई होगी और वे प्राम तौरपर योगिराज कहलाने लगे होगे, इसे हर कोई समझ सकता है। क्योंकि वह योगचमत्कार समन्तभद्रके साथ सम्बद्ध था न कि उनके पाण्डुराङ्ग-तपस्वीवाले वेषके साथ / ऐसा भी नहीं कि पाण्डुराङ्गतपस्वीके वेषवाले ही 'योगी' कहे जाते हों जैनवेषवाले मुनियोंको योगी न कहा जाता हो। यदि ऐसा होता तो रत्नकरण्डके कर्ताको भी 'योगीन्द्र' विशेषणसे उल्लेखित न किया जाता / वास्तवमे 'योगी' एक सामान्य शब्द है जो ऋषि, मुनि, यति, तपस्वी प्रादिकका वाचक है; जैसा कि धनञ्जय-नाममालाके निम्न वाक्यसे प्रकट है ऋपियतिमुनिभिक्षुस्तापसः संयतो व्रती। तपस्वी संयमी योगी वर्णी साधुश्च पातु वः / / 3 / / जनसाहित्य में योगीकी अपेक्षा यति-मुनि-तपस्वी जैसे शब्दोंका प्रयोग अधिक पाया जाता है, जो उसके पर्याय नाम हैं। रत्नकरण्डमें भी यति, मुनि और तपस्वी शब्द योगीके लिये व्यवहृत हुए है / तपस्वीको प्राप्त तथा आगमकी तरह सम्पग्दर्शनका विषयभूत पदार्थ बतलाते हुए उसका जो स्वरूप एक पद्य 8 में दिया है वह खासतौर से ध्यान देने योग्य है / उसम लिखा है कि- 'जो इन्द्रियविषयों तथा इच्छाओंके वशीभूत नहीं है, प्रारम्भों तथा परिग्रहोंसे रहित है और ज्ञान, ध्यान एवं तपश्चरणोंमें लीन रहता है वह तपस्वी प्रशंसनीय है।' इस लक्षणसे भिन्न योगीके और कोई सींग नहीं होते / एक स्थानपर सामायिकमें स्थित गृहस्थको 'चेलोपसष्टमुनि' की तरह यतिभावको प्राप्त हुआ लिखा है / / चेलोपसृष्टमुनिका पभिप्राय उस नग्न दिगम्बर जैन योगीसे है जो मौन-पूर्वक * विषयाशा-वशाऽतीतों निरारम्भोऽपरिग्रहः।। मान-ध्यान-तपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते // 10 // + सामयिके सारम्भा: परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि / चेलोरसृष्टमुनिरिव गृही तदा याति यतिभवाम् // 102 // Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 470 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश योग-साधना करता हुआ ध्यानमग्न हो और उस समय किसीने उसको वस्त्र प्रोढा दिया हो, जिसे वह अपने लिये उपसर्ग समझता है। सामायिकमें स्थित वस्त्रसहित गृहस्थको उस मुनिकी उपमा देते हुए उसे जो यतिभाव-योगीके भावको प्राप्त हुप्रा लिखा है और अगले पद्यमें उसे 'प्रचलयोग' भी बतलाया है उससे स्पष्ट जाना जाता है कि रत्नकरण्डमें भी योगीके लिये 'यति' शब्दका प्रयोग किया गया है / इसके सिवाय, प्रफलंकदेवने अष्टशती ( देवागम-भाष्य )के मंगल-पद्यमें प्राप्तमीमांसाकार स्वामी समन्तभद्रको 'यति' लिखा है जो सन्मार्गमें यत्नशील अथवा मन-वचन-कायके नियन्त्रगणरूप योगकी साधनामें तत्पर योगीका वाचक है, और श्रीविद्यानन्दाचार्यने अपनी अष्ट-सहस्रीमें उन्हें 'यतिभून' और 'यतीश' तक लिखा है, जो दोनों ही 'योगिराज' अथवा 'योगीन्द्र' अर्थ. के द्योतक है, और 'यतीश' के साथ 'प्रथिततर' विशेषण लगाकर तो यह भी मुचित किया गया है कि वे एक बहुत बड़े प्रसिद्ध योगिराज थे। ऐसे ही उल्लेखोंको दृष्टिमें रखकर वादिराजने उक्त पद्यमें ममन्तभद्रके लिये 'योगीन्द्र' विशेषणका प्रयोग किया जान पड़ता है। और इमलिये यह कहना कि 'समन्तभद्र योगी नही थे अथवा योगीरूपसे उनका कही उल्लेख नहीं किसी तरह भी समुचिन नही कहा जा सकता / रत्नकरण्डकी अब तक ऐमी कोई प्राचीन प्रति भी प्रो. साहबकी तरफसे उपस्थित नहीं की गई जिसमें ग्रन्थकर्ता 'योगीन्द्र'को नामका कोई विद्वान् लिखा हो अथवा म्वामी ममन्तभद्रमे भिन्न दूसरा कोई ममन्तभद्र उसका कर्ता है ऐसी स्पष्ट मूचना माथमे की गई हो। ममन्तभद्र नामके दुमरे छह विद्वानोंकी खोज करके मैने उसे रत्नकरण्डश्रावकाचारकी अपनी प्रस्तावनामें पाजमे कोई 23 वर्ष पहले प्रकट किया थाउसके बादसे और किसी समन्तभद्रका अब तक कोई पता नहीं चला। उनमें से एक 'लुघु', दूसरे 'चिक्क', तीसरे 'गेम्मोप्पे', चौथे 'अभिनव', पांचवें 'भट्टारक', छठे गृहस्थ विशेषणसे विशिष्ट पाये जाते हैं। उनमेंसे कोई भी अपने समयादिक 8 "येनाचार्य-समन्तभद्र-यतिना तस्मै नमः संततम् / " * "स श्रीस्वामिसमन्तभद्र-यतिभृद्-भूयादिभुर्भानुमान् / " "स्वामी जीयात्स शवरत्प्रथिततरयतीशोऽकल बोरुकीतिः।" Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व विषयमें मेरा विचार और निर्णय 471 की दृष्टिसे 'रत्नकरण्ड' का कर्ता नहीं हो सकता है। और इस लिये जब तक जैनसाहित्यपरसे किसी ऐसे दूसरे समन्तभद्रका पता न बतलाया जाय जो इस रत्नकरण्डका कर्ता हो सके तब तक 'रत्नकरण्ड' के कर्ताके लिये 'योगीन्द्र' विशेषरणके प्रयोग-मात्रसे उसे कोरी कल्पनाके प्राधारपर स्वामी ममन्तभद्रसे भिन्न किसी दूसरे समन्तभद्रकी कृति नहीं कहा जा सकता। मी वस्तुस्थितिमें वादिराजके उक्त दोनों पद्योंको प्रथम पद्यके साथ स्वामिसमन्तभद्र-विषयक समझने और बतलाने में कोई भी बाधा प्रतीत नहीं होती * / प्रत्युत इसके, वादिराजके प्राय: समकालीन विद्वान् प्राचार्य प्रभाचन्द्रका अपनी टीकामें 'रत्नकरण्ड' उपासकाध्ययनको साफ़ तौरपर स्वामी समन्तभद्रकी कृति घोषित करना उसे पुष्ट करता है / उन्होंने अपनी टीकाके केवल संधि-वाक्योंमें ही 'समन्तभद्रस्वामि-विरचित' जैसे विशेषणों-द्वारा वैसी घोषणा नहीं की बम्कि टीकाकी प्रादिमें निम्न प्रस्तावना-वाक्य-द्वारा भी उसकी स्पष्ट सूचना की है "श्रीसमन्तभद्रस्वामी रत्नानां रक्षणोपायभूतरत्नकरण्डकप्रख्यं सम्यग्दर्शनादिरत्नानां पालनोपायभूतं रत्नकरण्डकाख्यं शास्त्रं कर्तु कामो निविघ्नतः शास्त्रपरिसमाप्यादिकं फलमभिलपनिटदेवताविशेषं नमस्कुबन्नाह / " हाँ, यहाँपर एक बात और भी जान लेने की है और वह यह कि प्रो.साहब +देखो,माणिकचन्द-ग्रन्थमालामें प्रकाशित रत्नकरण्डश्रावकाचार,प्रस्तावना पृ० 5 से है। * सन् 1912 में तंजोरसे प्रकाशित होनेवाले वादिराजके 'यशोधर-चरित' की प्रस्तावनामें, टी० ए० गोपीनाथराव एम० ए० ने भी इन तीनों पद्योंको इसी क्रमके साथ समन्तभद्रविषयक सूचित किया है। इसके सिवाय, प्रस्तुत चरितपर शुभचन्द्रकृत जो 'पंजिका' है उसे देखकर पं० नाथूरायजी प्रेमीने बादको यह मूचित किया है कि उसमें भी ये तीनों पद्य समन्तभद्रविषयक माने गये हैं। और तीसरे पद्यमें प्रयुक्त हुए 'योगीन्द्रः' पदका अर्थ 'समन्तभद्र' ही लिखा है। इससे बाघाकी जगह साधकप्रमाणकी बात और भी सामने मा जाती है। Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 472 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश ने अपने "विलुप्त अध्याय मे यह लिखा था कि "दिगम्बरजैन साहित्यमें जो भाचार्य स्वामीकी उपाधिसे विशेषत: विभूषित किये गये हैं वे प्राप्तमीमांसाके कर्ता समन्तभद्र ही है।" मोर भागे श्रवणबेल्गोलके एक शिलालेखमे भद्रबाह द्वितीयके साथ 'स्वामी' पद जुड़ा हुआ देखकर यह बतलाते हुए कि “भद्रबाहुको उपाधि स्वामी थी जो कि साहित्य में प्रायः एकान्ततः समन्तभद्रके लिये ही प्रयुक्त हुई है" समन्तभद्र और भद्रबाहु द्वितीयको "एक ही व्यक्ति" प्रतिपादन किया था। इस परसे कोई भी यह फलित कर सकता है कि जिन समन्तभद्र के साथ 'स्वामी' पद लगा हुआ हो उन्हें प्रो० साहबके मतानुसार प्राप्तमीमांसाका कर्ता समझना चाहिये / तदनुसार ही प्रो०साहबके सामने रत्नकरण्डकी टीकाका उक्त प्रमाण यह प्रदर्शित करने के लिये रक्खा गया कि जब प्रभाचन्द्राचार्य भी रत्नकरण्डको स्वामी समन्तभद्रकृत लिख रहे है और प्रो० साहब 'स्वामी' पदका असाधारण सम्बन्ध प्राप्तमीमांसाकारके साथ जोड़ रहे है तब वह उसे प्राप्तमीमांसाकारसे भिन्न किसी दूसरे समन्तभद्र की कृति कैसे बतलाते हैं ? इसके उत्तर में प्रो०माहबने लिखा है कि 'प्रभा चन्द्रका उल्लेख केवल इतना ही तो है कि रत्नकरण्डके का स्वामी समन्तभद्र है उन्होने यह तो प्रकट किया ही नहीं कि ये ही रत्नकर ण्डके कर्ता प्राप्तमीमांसाके भी रचयिता है / " परन्तु साथमें लगा हुप्रा 'स्वामी' पद तो उन्हीके मन्तव्यानुसार उमे प्रकट कर रहा है यह देखकर उन्होंने यह भी कह दिया है कि 'रलकरण्डके कर्ता समन्तभद्र के साथ 'स्वामी' पद बादको जुड़ गया है-चाहे उसका कारण भ्रान्ति हो या जान-बूझकर ऐसा किया गया हो।' परन्तु अपने प्रयोजनके लिये इस कह देने मात्रसे कोई कम नही चल सकता जबतक कि उसका कोई प्राचीन प्राधार व्यक्त न किया जाय-कमसे कम प्रभाचन्दाचार्यसे पहलेकी लिखी हुई रत्नकरण्डकी कोई ऐसी प्राचीन मूलप्रति पेश होनी चाहिये थी जिसमें समन्तभद्रके साथ स्वामी पद लगा हमा न हो। लेकिन प्रो० साहबने पहले की ऐसी कोई भी प्रति पेश नहीं की तब वे वादको भ्रान्ति मादिके वश स्वामी पदके जुड़ने की बात कैसे कह सकते है ? नहीं कह सकते, उसी तरह जिस तरह कि मेरे द्वारा सन्दिग्ध करार दिये हुए रत्नकरण्ड अनेकान्त वर्ष 8, किरण 3, पृ० 126 / Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व विषयमें मेरा विचार और निर्णय 473 के सात पद्योंको प्रभावन्द्रीय टीकासे पहलेकी ऐसी प्राचीन प्रतियोंके न मिलनेके कारण प्रक्षिप्त नहीं कह सकते जिनमें वे पद्य सम्मिलित न हों। इस तरह प्रो०साहबकी तीसरी आपत्तिमें कुछ भी सार मालूम नहीं होता। युक्तिके पूर्णतः सिद्ध न होने के कारण वह रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाके एककर्तृत्वमे बाधक नहीं हो सकती, और इसलिये उसे भी समुचित नहीं कहा जा सकता। (4) अब रही चौथी आपत्ति की बात, जिसे प्रो० साहबने रत्नकरण्डके निम्न उपान्त्य पद्यपरसे कल्पित करके रक्खा है येन स्वयं वीतकलङ्क-विद्या-दृष्टि-क्रिया-रत्नकरण्डभावं / नीतस्तमायाति पतीच्छयेव सर्वार्थसिद्धिरित्रषु विष्टपेषु / / ___ इस पद्य में ग्रन्थका उपसंहार करते हुए यह बतलाया गया है कि जिस ( भव्यजीव ) ने प्रात्माको निर्दोष-विद्या, निदोप-दृष्टि और निर्दोष-क्रियारूप. रत्नोंके पिटारेके भावमें परिणत किया है-अपने प्रात्मामें सम्यग्दर्शन, सम्यग्जान और सम्यकचारित्ररूप रत्नत्रय-धर्मका प्राविर्भाव किया है-उसे तीनों लोकोमे सर्वार्थसिद्धि-धर्म-अर्थ काम-मोक्षरूप सभी प्रयोजनोंकी सिद्धिस्वयंवरा कन्याकी तरह स्वयं प्राप्त हो जाती है, अर्थात् उक्त सर्वार्थ सिद्धि उसे स्वेच्छासे अपना पति बनाती है, जिससे वह चारों पुरुषार्थोका स्वामी होता है और उसका कोई भी प्रयोजन सिद्ध हुए बिना नहीं रहता।' इस अर्थ को स्वीकार करते हुए प्रो० साहबका जो कुछ विशेष कहना है वह यह है "यहाँ टीकाकार प्रभाचन्द्रके द्वारा बतलाये गये वाच्यार्थके अतिरिक्त श्लेरूपसे यह अर्थ भी मुझे स्पष्ट दिखाई देता है कि "जिसने अपनेको भकलङ्क और विद्यानन्दके द्वारा प्रतिपादित निर्मल ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूपी रत्नोंकी पिटारी बना लिया है उसे तीनों स्थलोंपर सर्व प्रोंकी सिदिरूप सर्वार्थसिद्धि स्वयं प्रास हो जाती है, जैसे इच्छामात्रसे पतिको अपनी पत्नी।" यहाँ नि:सन्दे___® भनेकान्त वर्ष 6, किरण 110 12 पर प्रकाशित प्रोफ़ेसर साहबका उत्तर पत्र / Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 474 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश हतः रत्नकरण्डकारने तत्त्वार्थसूत्रपर लिखी गई तीनों टीकामोंका उल्लेख किया है / सर्वार्थसिद्धि कहीं शब्दशः और कहीं अर्थत: प्रकलङ्ककृत राजवातिक एवं विद्यानन्दिकृत श्लोकवार्तिकमें प्रायः पूरी ही प्रथित है / अत: जिसने अकल कृत और विद्यानन्दिकी रचनामोंको हृदयङ्गम कर लिया उसे सर्वार्थसिद्धि स्वयं प्राजाती है / रत्नकरण्डके इस उल्लेखपरसे निर्विवादत: सिद्ध होजाता है कि यह रचना न केवल पूज्यपादसे पश्चात्कालीन है, किन्तु प्रकलङ्क और विद्यानन्दिसे भी पीछेकी है / " ऐसी हालतमें रत्नकरण्डकारका प्राप्तमीमांमाके कर्तामे एकत्व सिद्ध नहीं होता।" यहाँ प्रो० साहब-द्वारा कल्पित इस इलेषार्थ के मुघटित होने में दो प्रबल बाधाएं हैं-एक तो यह कि जब 'वीतकलंक' से अकलंकका प्रौर विद्यासे विद्यानन्दका अर्थ लेलिया गया तब दृष्टि' और 'क्रिया' दो ही रत्न शेष रह जाते हैं और वे भी अपने निर्मल-निर्दोष प्रयवा सम्यक जैसे मौलिक विशेषगणमे गून्य / ऐसी हालत में श्लेषार्थ के साथ जो "निर्मल ज्ञान" अर्थ भी जोड़ा गया है वह नहीं बन सकेगा और उसके न जोड़नेपर वह श्लेघार्य * ग्रन्थ-सन्दर्भके साथ अमङ्गत हो जायगा; क्योंकि ग्रन्थभरमें तृतीय पद्यसे प्रारम्भ करके इम पद्य के पूर्व तक सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप तीन रन्नोंका ही धर्मरूपमे वर्णन है, जिसका उपसंहार करते हुए ही इस उपान्त्य पद्यमें उनको अपनानेवालेके लिये मर्व अर्थकी सिद्धिरूप फलको व्यवस्था की गई है, इसकी तरफ किसीका भी ध्यान नहीं गया / दूसरी बाधा यह है कि 'त्रिषु विष्टपेषु' पदोंका प्रथं जो "तीनों स्थलोंपर किया गया है वह मङ्गन नहीं बैठता; क्योंकि प्रकलंकदेवका राजवार्तिक और विद्यानन्दका इलोकवातिक ग्रन्थ ये दो ही स्थल ऐसे है जोपर पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि ( तत्स्वार्थवृत्ति) शब्दशः तथा प्रर्थतः पाई जाती है तीसरे स्थलकी बात मूलके किमी भी शब्दपरसे उसका प्राशय व्यक्त न करने के कारण नहीं बनती। यह बाधा जब प्रो० साहबके सामने उपस्थित की गई मोर पूछा गया कि 'त्रिषु विष्टपेषु' का श्लेषार्थ जो 'तीनों स्थलोंपर' किया गया ॐ अनेकान्त वर्ष 7 किरण 5.6 पृ० 53 भनेकान्त वर्ष 8 किरण 3 10 132 Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय 475 है वे तीन स्थल कौनसे हैं जहाँपर सर्व अर्थकी सिद्धिरूप 'सर्वार्थसिद्धि' स्वयं प्राप्त हो जाती है ? तब प्रोफेसर साहब उत्तर देते हुए लिखते हैं "मेरा खयाल था कि वहाँ तो किसी नई कल्पनाकी आवश्यकता ही नहीं क्योंकि वहाँ उन्ही तीन स्थलोंकी सङ्गति सुस्पष्ट है जो टीकाकारने बतला दिये हैं अर्थात् दर्शन, ज्ञान और चरित्र, क्योंकि वे तत्त्वार्थसूत्रके विषय होनेमे सर्वार्थसिद्धि में तथा प्रकलङ्कदेव और विद्यानन्दिकी टोकात्रों में विवेचिन हैं और उनका ही प्ररूपण रत्नकरण्डकारने किया है " यह उत्तर कुछ भी मगत मालूम नही होता; क्योंकि टीकाकार प्रभाचन्द्रने "त्रिषु विष्टपेषु' का स्पष्ट अर्थ 'त्रिभुवनेषु' पदके द्वारा 'तीनों लोकमें' दिया है। उसके स्वीकारकी घोषणा करते हुए और यह आश्वासन देते हुए भी कि उस विषयमें टीकाकारसे भिन्न “किमी नई कल्पनाकी आवश्यकता नहीं' टीकाकारका अर्थ न देकर 'अर्थात् ' गब्दके साथ उसके अर्थकी निजी नई कल्पनाको लिये हुए अभिव्यक्ति करना और इस तरह 'त्रिभुवनेषु' पदका अर्थ "दर्शन, ज्ञान और चारित्र'' बतलाना अर्थका अनर्थ करना अथवा खीचतानकी पराकाष्ठा है / इमसे उत्तरकी संगति और भी बिगड़ जाती है, क्योंकि तब यह कहना नहीं बनता कि सर्वार्थ सिद्धि प्रादि टीकाग्रोमे दर्शन ज्ञान और चारित्र विवेचित हैंप्रतिपादिन हैं; बल्कि यह कहना होगा कि दर्शन, ज्ञान और चारित्रमें सर्वार्थसिद्धि प्रादि टीकाएँ विवेचित है-प्रतिपादित है, जो कि एक बिल्कुल ही उल्टी बात होगी / और इस तरह आधार-प्राधेय सम्बन्धादिकी सारी स्थिति बिगड़ जायगी; और तब इलेषरूपमें यह भी फलित नही किया जा सकेगा कि अकलङ्क और विद्यानन्दकी टीकाएं ऐसे कोई स्थल या स्थानविशेष है जहाँपर पूज्यपादको टीका सर्वार्थसिद्धि स्वयं प्राप्त हो जाती है। इन दोनों बाधामोंके सिवाय श्लेषकी यह कल्पना अप्रासंगिक भी जान पड़ती है। क्योंकि रत्नकरण्डके साथ उसका कोई मेन नहीं मिलता, रत्नकरण्ड तत्त्वार्थसूत्रकी कोई टीका भी नहीं जिससे किसी तरह खींचतान कर उसके साथ कुछ मेल बिउलाया जाता, वह तो मागमकी ख्यातिको प्राप्त एक स्वतन्त्र भनेकान्त वर्ष 8, किरण 3 पृ० 130 Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 476 जैनसाहित्य और इतिहासपर विषद प्रकाश मौलिक ग्रन्थ है, जिसे पूज्यपादादिकी उक्त टीकापों का कोई प्राधार प्राप्त नहीं है और न हो सकता है। और इमलिये उसके साथ उक्त श्लेषका पायोजन एक प्रकारका असम्बद्ध प्रलाप ठहरता है अथवा यों कहिपे कि 'विवाह तो किसीका और गीत किसीके' इस उक्तिको चरितार्थ करता है / यदि विना सम्बन्धविशेषके केवल शब्दछलको लेकर ही श्लेषकी कल्पना अपने किसी प्रयोजनके वश की जाय और उसे उचित समझा जाय तब बहुत कुछ अनयोंके मटित होनेको सम्भावना है। उदाहरणके लिये स्वामिसमन्तभद्र-प्रणीत 'जिनशतक' के उपान्त्य पद्य (नं० 115) में भी प्रतिकृति: सर्वार्थसिद्धि : परा' इस वाक्यके अन्तर्गत 'सर्वार्थ सिद्धि' पदका प्रयोग पाया जाता है और 61 वें पद्यमें तो 'प्राप्य सर्वार्थसिद्धि गा' इस वाक्य के साथ उसका रूप और स्पष्ट होजाता है उसके साथवाले गां' पदका अर्थ वाणी लगा लेनेसे वह वचनात्मिका 'सर्वार्थमिद्धि' होजाती है / इस 'सर्वार्थसिद्धि' का वाच्यार्थ यदि उक्त श्लेषार्थ की तरह पूज्यपादकी 'सर्वार्थसिद्धि' लगाया जायगा तो स्वामी समन्तभद्रको भी पूज्यपादके बादका विद्वान् कहना होगा और तब पूज्यपादके 'चतुष्टयं ममन्तभद्रस्य' इस व्याकरणसूत्र में उल्लिखित समन्तभद्र चिन्ताके विषय बन जायेंगे तथा और भी शिलालेखो, प्रशस्तियों तथा पट्रावलियों प्रादिकी कितनी ही गड़बड़ उपस्थित हो जायगी। अतः सम्बन्धविषयको निर्धारित किये विना केवल शब्दोके समानार्थको लेकर ही श्लेषार्थ की कल्पना व्यर्थ है। इस तरह जब श्लेषाथ ही मुघटित न होकर बाधित ठहरता है तब उसके प्राधारपर यह कहना कि ''रत्नकरण्डके इस उल्लखपरसे निर्विवादन: सिद्ध होजाता है कि वह रचना न केवल पूज्यपादके पश्चात्कालीन है, किन्तु प्रकलंक और विद्यानन्दिसे भी पीछे की है" कोरी कल्पनाके सिवाय पोर कुछ भी नहीं है। उसे किसी तरह भी युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता-रत्नकरण्डके 'अ.प्लोजमनुल्लं' पद्यका न्यायावतारमें पाया जाना भी इसमें बाधक है। वह केवल उत्तरके लिये किया गया प्रयासमात्र है और इसीसे उसको प्रस्तुत करते हुए प्रो० साहबको अपने पूर्वकथनके विरोधका भी कुछ खयाल नहीं रहा। जसा कि में इससे पहले द्वितीयादि भापत्तियोंके विचारकी भूमिकामें प्रकट कर चुका हूँ। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय 477 यहांपर एक बात और भी प्रकट कर देनेकी है और वह यह कि प्रो० साहब श्लेषकी कल्पनाके बिना उक्त पद्यकी रचनाको अटपटी और अस्वाभविक समझते हैं। परन्तु पद्यका जो अर्थ ऊपर दिया गया है और जो प्राचार्य प्रभाचन्द्रसम्मत है उसमे पद्यकी रचनामें कहीं भी कुछ अटपटापन या अस्वाभाविकताका दर्शन नहीं होता है। वह दिना किमी इन्नेषकल्पनाके ग्रन्थके पूर्वकथनके साथ भले प्रकार सम्बद्ध होता हुप्रा ठीक उसके उपसंहाररूपमें स्थित है। उसमें प्रयुक्त हुए विद्या, दृष्टि जैसे शब्द पहले भी ग्रन्यमें ज्ञान-दर्शन जैसे अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं, उनके प्रथं में प्रो० माहबको कोई विवाद भी नहीं है / हाँ, 'विद्या' से श्लेषरूपमें 'विद्यानन्द' अर्थ लेना यह उनकी निजी कल्पना है, जिसके समर्थनमें कोई प्रमाण उपस्थित नहीं किया गया केवल नामका एक देश कहकर उसे मान्य कर निया है / तब प्रो० साहब की दृष्टि में पद्यकी रचनाका अटपटापन या अस्वाभाविकपन एकमात्र 'वीतकलंक' शब्दके साथ केन्द्रित जान पड़ता है, उसे ही सीधे वाच्य-वाचक-मम्बन्धका बोधक न समझकर आपने उदाहरण प्रस्तुत किया है / परन्तु मम्यक् शब्दके लिये अथवा उसके स्थानपर 'वीतकलंक' शब्दका प्रयोग छन्द तथा स्पष्टार्थ की दृष्टि से कुछ भी अटपटा, असंगत या अस्वाभाविक नही है; क्योंकि 'कलंक' का सुप्रसिद्ध अर्थ 'दोष' है। मोर उसके साथमे 'वीत विशेषरण विगत, मुक्त, त्यक्त, विनष्ट अथवा 29 जहाँतक मुझे मालूम है संस्कृत साहित्य में इलेपरूपसे नामका एकदेश ग्रहण करते हुए पुरुपके लिये उमका पुलिंग अंश और स्त्रीके लिये स्त्रीलिंग अंश ग्रहण किया जाता है; जैसे 'सत्यभामा' नामकी स्त्रीके लिये 'भामा' अंशका प्रयोग होता है न कि सत्य' अंशका / इसी तरह 'विद्यानन्द' नामका 'विद्या' अंश, जोकि स्त्रीलिंग है, पुरुषके लिये व्यवहृत नहीं होता / चुनाँचे प्रो० साहबने श्लेषके उदाहरणरूपमें जो 'देवं स्वामिनममलं विद्यानन्दं प्रणम्य निजभक्तघा' नामका पद्य उद्धृत किया है उसमें विद्यानन्दका 'विद्या' नामसे उल्लेख न करके पूरा ही नाम दिया है। विद्यानन्दका 'विद्या' नामसे उल्लेखका दूसरा कोई भी उदाहरण देखनेमें नहीं पाता। 'कलंकोड कालायसमले दोषापवादयोः / विश्वकोश। दोषके अर्थ में Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 478 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश रहित जैसे अर्थका वाचक है, जिसका प्रयोग समन्तभद्रके दूसरे ग्रन्थोंमें भी ऐसे स्थलोंपर पाया जाता है जहाँ श्लेषार्थका कोई काम नहीं; जैसे प्राप्तमीमामा के 'वीतराग:' तथा 'वीतमोहतः' पदोंमें, स्वयम्भूस्तोत्रके 'वीतघन:' तथा 'वीतरागे' पदोंमें, युक्त्यनुशासनके 'वीतविकल्पधीः' और जिनशतकके 'वीतचेतोविकाराभिः' पदमें / जिसमें से दोष याकलंक निकल गया अथवा जो उससे मुक्त है उसे वीतदोष,निर्दोप. निष्कलंक, अकलंक तथा वीतकलंक जैसे नामोंसे अभिहित किया जाता है, जो सब एक ही प्रथके वाचक पर्याय नाम हैं / वास्तव में जो निर्दोष है वही सम्यक् (यथा') कहे जाने के योग्य है--दोषोंमे युक्त अथवा पूर्गको सम्यक् नही कह सकते / रत्नकरण्ड में सत्, सम्यक्, ममीचीन, शुद्ध और वीतकलंक इन पांचों शब्दोंको एक ही अर्थमें प्रयुक्त किया है और वह है यथार्थता-निर्दोपना, जिसके लिये स्वयम्भूस्तोत्रमें 'समञ्जम' शब्दका भी प्रयोग किया गया है। इनमें 'वीतकलंक' शब्द सबसे अधिक-शुद्ध मे भी अधिक स्पष्टार्थ को लिये हुए है और वह अन्त मे स्थित हमा अन्तदीपककी तरह पूर्वमे प्रयुक्त हुए. 'सत्' आदि सभी शब्दोंकी प्रथहष्टि पर प्रकाश डालता है, जिसकी जरूरत थी; क्योकि 'मत' सम्यक् जसे शब्द प्रशंसादिक भी वाचक है / प्रशंसादि किस चीजमें है ? दोपोंके दूर होने में है। उसे भी 'बीतकलंक' शब्द व्यक्त कर रहा है। दर्शनमें दोष शकामूढतादिक, ज्ञानमें मशय-विपर्ययादिक और चारित्रमे राग-द्वंपादि होते है। इन दोषोंमे रहिर जो दर्शन-ज्ञान और चात्रि है, वे ही बीतकलक प्रथवा निदोप दर्शन-ज्ञान-चारित्र है, उन्ही रूप जो अपने प्रात्माको परिणत करता है उसे ही लोक-परलोक के मर्व अर्थोकी मिद्धि प्राप्त होती है / यही उक्त उपान्त्य पद्यका फलितार्थ है, और इससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि पद्यमे 'सम्यक् के स्थानपर 'वीतकलंक' शब्दका प्रयोग बहुत सोच-समझकर गहरी दूरदृष्टिके साथ किया गया है / छन्दकी दृष्टिने भी बहाँ सत्, सम्यक् ममीचीन, शुद्ध या समक्षस जैसे कलंक शब्दके पयोगका एक सुस्पष्ट उदाहरण इस प्रकार है अपाकुर्वन्ति यद्वाच: काय-वाक् वित्त-सम्भवम् / कलंकमंगिनां सोऽयं देवनन्दी नमस्यते ।।-ज्ञानार्णव . Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय 476 शब्दोमेंसे किसीका प्रयोग नहीं बनता और इसलिये 'वीतकलंक' शब्दका प्रयोग श्लेषार्थ के लिये अथवा द्राविडी प्राणायामके रूपमें नहीं है जैसा कि प्रोफेसर साहब समझते है / यह बिना किसी श्लेषार्थकी कल्पनाके ग्रन्थसन्दर्भके साथ मुसम्बद्ध और अपने स्थानपर सुप्रयुक्त है। ___ अब मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूं कि ग्रन्थका अन्तःपरीक्षण करनेपर उसमें कितनी ही बातें ऐमी पाई जाती है जो उसकी अति प्राचीनताकी द्योतक है, उमके कितने ही उपदशों-प्राचारों, विधि-विधानों अथवा कियाकाण्डोंकी तो परम्परा भी टीकाकार प्रभाचन्द्रके समयमें लुप्त-हुई-मी जान पड़ती है, इमीमे वे उनपर यथेष्ट प्रकाश नहीं डाल सके और न बादको ही किसी के द्वारा वह डाला जा सकता है; जैसे 'मूर्ध्वम्ह-मुष्ठि-बासो-बन्ध' और 'चतुरावतंत्रितय' नामक पद्यों में वर्गिगत प्राचार की बात / अप्ट-मूल गुणोंमें पञ्च अणुव्रतोंका समावेश भी प्राचीन परम्पराका द्योतक है, जिसमे समन्तभद्रमे शताब्दियों बाद भारी परिवर्तन हुआ और उसके अणुव्रतोंका स्थान पञ्चदम्बरफलोंने ले लिया / एक चाण्डालपत्रको 'देव' अर्थात् अाराध्य बतलाने और एक गृहस्थको मुनिसे भी श्रेष्ठ बतलाने जैसे उदार उपदेश भी बहुत प्राचीनकालके संसूचक है, जब कि देश और समाजका वातावरण काफी उदार और सत्यको ग्रहण करनेमे सक्षम था। परन्तु यहाँ उन सब बातोंके विचार एवं विवेचनका अवसर नहीं है-वे तो स्वतन्त्र लेखके विषय है, अथवा अवसर मिलनेपर 'ममीचीन-धर्मशास्त्र' की प्रस्तावनामे उनपर यथेष्ट प्रकाश डाला जायगा / यहाँ मै उदाहरणके तौरपर मिर्फ दो बातें ही निवेदन कर देना चाहता हूं और वे इस प्रकार है (क) रत्नकरण्डमें सम्पग्दर्शनको तीन मूढतानों से रहित बतलाया है और उन मृढतामोंमें पाखण्डिमूढताका भी समावेश करते हुए उसका जो स्वरूप दिया है ___ इंम विषयको विशेषतः जानने के लिये देखो लेखकका 'जैनाचार्योका शासन भेद' नामक ग्रन्यं पृष्ठ 7 से 15 / उसमें दिये हुए 'रत्नमाला' के प्रमाणपरसे यह भी जाना जाता है कि रत्नमालाकी रचना उसके बाद हुई है जबकि मूलगुरषों में अणुव्रतोके स्थानपर पञ्चोदम्बरकी कल्पना रूढ होचुकी थी और इस लिये भी वह रत्नकरण्ड से शताब्दियों बादकी रचना है। . . Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 480 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकारा वह इस प्रकार है समन्थाऽऽम्म-हिंसानां संसाराऽऽवर्त-वर्तिनाम् / पाखण्डिनां पुरस्कारो शयं पाखडि-मोहनम् // 4 // ___जो सपन्थ है-धन-धान्यादि परिग्रहसे युक्त है-,प्रारम्भ सहित है - कृषि-वाणिज्यादि सावयकम करते है--हिमामें रत है और संसारके प्रायमि प्रवृत हो रहे है-भवभ्रमण में कारणीभूत विवाहादि कोदाग दुनियाके चकर अथवा गोरखधन्धे में फंसे हुए है, ऐसे पाखण्डियों का-वस्तुतः पापके खण्डन में प्रवृत्त न होनेवाले लिगी मानुषोंका जो ( पाखण्डीके का पथवा मा-गुरु बुद्धि मे) मादर-सत्कार है उसे 'पाण्डित्र' समझना चाहिए।' इमपरसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि रत्नकरण प्रत्यकी रचना उम समय हई है जबकि 'पाखण्डीशन्द पपने मूल प्रमे-पाप बयतीति पावती' इस नियुक्ति के अनुमार -पापका वणन करने के लिए प्रवृन हग नाम्बी माधुपीके लिये मामतौरपर व्यवहृत होता था, चाहे व सा समार हों या परमन के चनांचे मूलबार (म. 5) में 'रसरगताम्मपरिहत्तादीयग्रहमपामंडा' वाक्यके द्वारा रसपटादिक मापोंको अन्यमनके पायमो बतलाया है, जिमम माफ़ ध्वनित है, कि तब स्वमत (जेनो) के तपस्वी साधु भी पाबी क.. लाते थे। और इसका समर्थन कुन्दकुन्धावायं ममयमार प्रन्यकी शिवसिंगाणिव गिलिगाणिय बहुपयारगियादि माया न. 108 प्रामा भी होता है, जिनमें पावडीलिगको पनगार-माधुमो (निपंवार नियो) ! लिंग बनमाया है। परन्तु पावसी' गमके अपंकी यह स्थिति मात्रम : दशों शतानियों पहनेमे बान पुकी है। प्रोर तब यह 'मम प्राय: . अपना दम्मी-कपटी' जैसे विकत पाहाहा पाहामा रखकरके उक्त पचमें प्रयुक हुए पानमित' शब्द के माष गई म नहीं है। यही 'गरी समके प्रयोगको यति , मीकपटी पा भोमिया) साधु सय मिया बाप. जैसा कि न. गारको प्रमश माधुनिक दृष्टिसे में लिया है, तो पंग न हो भाव और पानी-मोहनम' पर पापा शामिद मक और प्रबर हरे / गोंकि इस परका पर्व -पाशा Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय 481 विषयमें मूठ होना' अर्थात् पाखण्डीके वास्तविक स्वरूपको न समझकर अपाखणियों अथवा पाखण्डघाभासोंको पाखण्डी मान लेना और वैसा मानकर उनके साथ तद्रूप प्रादर-सत्कारका व्यवहार करना / इस पदका विन्यास पन्यमें पहलेमें प्रयुक्त वनामूढम्' पदके समान ही है, जिसका प्राशय है कि 'जो देवता नहीं है-रागढ़ पमे मलीन देवनाम.म है-उन्हें देवता समझना और वैसा समझकर उनकी उपासना करना / ऐसी हालनमें पाखडिन्' भन्दका प्रथं 'धूनं' जमा करनेपर इस पदका ऐमा प्रथ हो जाता है कि धूनकि विषयमे मूड होना अर्थात् जो भूनं नहीं है उन्हें धनं ममझना और वैमा ममझकर उनके माप मादर-सत्कार का व्यवहार करना' और यह प्रथं किमी तरह भी संगत नहीं कहा जा सकना / प्रतः सना में 'पावदिन' द अपने मूल पुगतन अयं में ही व्यवहुन हुमा है, इममे जग भी मदद के लिये स्थान नहीं है। इम पथ की विकृति विक्रम म. 8 पहले हो नुकी थी और वह धूनं जमे प्रयं में व्यवहृत होने लगा था इसका पता उक्त सवन् अथवा वोर्गनवांगण म० 1.8 में बनकर ममाप्त हा श्रीर. विग्णाचार्य-कृत पपरितकनिम्न वाक्यमे चलना है-जिसमें भरन चक्रवर्गीक प्रति यह कहा गया है कि नि। ब्रह्मगोको मष्टि प्रापने की है. वे वर्द्धमान जिनेन्द्रका निर्माण के बाद कनियुगमे महाउद्धन पावडी हो जायेगे। पौर अगले में उन्हें 'महा पापति गोयना: विशेषण भी दिया गया है - वर-मान-जिनम्याऽन्ने भविष्यन्त वली यंगे। से ये भघता मष्टा: पास्वरिडना महाचताः // 4-19311 मी हालत में सलकर की रचना उन विद्यानन्द प्राचार्य के वादको नही हो मकी जिनका समय प्रो. माहबने. मन विक गंवत् 2) बगभग बतलाया है। +पासडोन वास्तविक या वही है जिसे प्रत्यकार मांदवन नगरी' के निम्न सबमें समाविष्ट किया है। महो वी मा पापोका बन करने में समर्थ होते है: विपाशा-मामीनो निगराभांजरिग्रहः / शान-ध्यान-तपोरक्तस्तपस्वी स प्रसस्यते // 1 // Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 482 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश (ख) रत्नकरंड में एक पद्य निम्न प्रकारसे पाया जाता है गृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य / भैयाऽशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेल-खण्ड-धरः / / 147 // इसमें, 11 वी प्रतिमा ( कक्षा) स्थित उत्कृष्ट श्रावकका स्वरूप बतलाते हुए, घरसे 'मुनिवन' को जाकर गुरुके निकट व्रतोंको ग्रहण करनेकी जो बात कही गई है उसमे यह स्पष्ट जाना जाता है कि यह ग्रन्थ उम ममय बना है जब कि जैन मुनिजन मामलोग्पर वनोमे रहा करते थे-वनों में ही यन्याश्रम प्रतिष्ठित ये-पोर वही जाकर गुरु (माचार्य) के पाम उत्कृष्ट श्रावकपदको दीक्षा ली जानी थी। और यह स्थिति उम ममपकी है जबकि चन्धवाम-मन्दिरमठोंमें मुनियों का प्रामौर पर निवाग--प्रारम्भ नहीं हुप्रा था। चत्यवाय विक्रमकी थी. वी शताब्दी में प्रतिष्ठित हो चुका था-या उममा प्रारम्भ उममें भी कुछ पहले हमा था--मा तद्विपयक इतिहामगे जाना जाता है। प० नायूगमजी प्रेमी के 'बनवामी पौर चंन्यवामी मम्प्रदाय' नामक निबन्धमे भी दम विषयपर कितना ही प्रकार पडता है . और इस निय भी रनकर गडकी रचना विद्यानन्द प्राचार्य बादकी नहीं हर मकनी पोरन उम रम्नमालाकार के मममामयिक प्रयवा उमके गुरुकी कृति हो सकती है जो पायोमें जैन मुनिया लिये बनवायला निगध कर रहा है-उमे उनम मुनियों द्वारा जिन बनना रहा है-पोर न्यबाममा खुना पोषण कर रहा है। वह तो उसी स्वामी ममनभद्रको कृति होनी चाहिए जो प्रमिद वनमामी थे, जिन्हें प्रोफमर मारकन देवनाम्बर पदावनियोंक प्रापार वनवामी र प्रगना महके प्रमाण 'मामन्नभद्र' लिम्बा है जिनका वेताम्बर-मान्य समय भी दिगम्बर-मान्य ममः (विक्रमी दमननादी) प्रनान है और जिनका प्राप्तमीमामा एकल मानने में प्रो. मा को को पानि भी नही। ग्वाइन मब उसमोसी रोगनीम प्रो: मानकी चौथी प्रा. * जैन मारिन्योर इतिहाग पृ. 24 मे +कलो काले बने वामो वयं ने मूनिमनमः / स्थापित च निागारे प्रामाणि यिन: --म्नमामा Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नकरण्ड के कई व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय 483 पौर भी नि:मार एवं निस्तेज हो जाती है और उनके द्वारा ग्रन्यके उपान्त्य पद्यमें की गई श्लेपार्थकी उक्त कल्पना बिल्कुल ही निमूल ठहरती है-उसका कहीसे भी कोई ममर्थन नहीं होता। रन्न करगर के ममयको जाने-अनजाने रत्नमालाके रचनाकाल (विक्रमकी 11 वी शताब्दी के उनगधं या उसके भी वाद ) के समीप लाने का प्राग्रह करनेपर यानिलक के अन्तर्गत मोमदेवमूरिका 46 कलमोंमें वगित उपासकाध्ययन (वि० सं० 1016) और श्रीचामुण्डरायका चारित्रमार (वि० सं० 1035 के लगभग ) दोनों गन्नकराडके पूर्ववर्ती ठहरेंगे. जिन्हें किमी तरह भी न करके पूर्ववर्ती मिद्ध नहीं किया जा सकता: क्योंकि दोनों रनकारगर के कितने ही शब्दादिके अनुमणको लिये हा है, . -चारित्रमारमें नो नवराटका 'सम्यग्दर्शनादा.' नामका एक पूग पद्य भी 'उक्तं च' म्पमे उदा है। पौर नन प्रो गाहबका यह कथन भी कि 'श्रावकाचार-विषयका मवम प्रधान और प्रानीन अन्य स्वामी ममन्नभद्रकृत रत्नकरण्ध्रावकाचार है उनके विरुद्ध जायगा, जिसे उन्होने पवना की ननवं पम्नक (वपन अनु की प्रस्तावनाम श्यत किया है और जिसका उन्हें उनके नरम पडकर कुछ धान रहा मानम नहीं होना धारयेयक निम्ब गये है कि 'गन्नापडको रचनाका ममयम (वद्यानन्दममय नि:म: :) पत्रान पोर वादिराजके समय प्रर्यात भर में 18 ! . म. 10 ) में पूर्व सिद्ध होता है। इस समयावधिक प्रा में लापरवशावार धोरबमालाका रचनामान समीप माजाने पर उनके बीच मायाका ग्रनगल नहीं रहना।' :मनाह गाभी गग और उदार पालीननके गाय विचार करनेपर प्रो. मारकी नागेनीलं प्रयवा प्रापनियोम में एक भी इस योग्य नही ठहरनी जो नकारावर चार और प्रमोमागाका भिन्नत मिल करने अथवा दोनोरे एककत में कोई बाधः सन्न करने में समर्थ हा मरे पोर इसलिये बाधक प्रमागोके प्रभाव एव गायक प्रमागरमदान में यह कहना न्याय-प्रास है किनकररावकाचार उन्ही म भ. पानायकी कृमि है, जो मातमीमांसा (देवागमक रचयिता है। पोरया मगनिर्णय है। - प्रकाव , farm..6.1. 9 Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 भगवती आराधना यह मम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और मम्यक नपरूप चार प्रा. धनामों पर, जो मुक्तिको प्रास कगनेवाली है, एक बड़ा ही अधिकारपूर्ण प्राचीन ग्रन्य है. जनसमाजमें सवंत्र प्रसिद्ध है और प्राय: निधर्मसे सम्बन्ध रखता है। धर्ममें समाधिपूर्वक मग्ग की मगिरि विशेषता है-मुनि हो या धावक मसका लक्ष्य उसकी पोर रहता है, निन्यकी प्रार्थना उमके लिये भावना को जाती है और उसकी मफलतापर जीवनको सफलतातया मुन्दर भविष्यको प्राशा निर्भर रहती है / इस ग्रन्थारसे ममाविंक मरगणकी पर्याप्त शिक्षामामग्री तथा व्यवस्था मिलती है-माग ग्रंथ मरमा के भेद-प्रभेदों और तत्सम्ब. न्धी शिक्षाओं नया व्यवस्थापोंसे भरा हुपा है। इसमें मरगा के मुख्य पान में किये है-१ पंडितांडित, 2 पनि 3 बालपान, 4 बाल पोर 5 गल-बाल / इनमें पहले तीन प्रगस्त और शेष अप्रगत है। बाल-बालमरण मिध्या जीबोका, बालगरा प्रधिरत-मम्परिटयों का. बालपरितमण विरतातिर (देशवतीधावकोंका,पण्डितमरण म कलम पमी मापोका पोर पनि पण्डिनमा ! क्षीणकपाय के गलियोंका होना है। मायही. परिनमरण ? भलमन्यास अङ्गिनी और 3 प्रायोपगमन से तीन भेकरके भन्यायानक सतना। भक्त-प्रग्याम्यान पोर प्रविचार मठ-प्रत्याभ्यान ऐसे दो भव किये है पोरकर मविचारमतरयास्यानका 'हं' दिवालीम प्रधिका विस्तारक ग वर्णन किया है। तदनन्तर पशिधार मतप्रयाम्यान. धिनी, प्रायोगगमनमा बामपरितमरण पोर परिस परितमरणका मक्षेपम: निपण किया है। विषयक इतने अधिक विस्तृत और म्यवस्थित विपनको लिए हम मराभ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधना 485 ग्रंथ जनसमाजमें उपलब्ध नहीं है / अपने विषयका प्रसाधारण मूलग्रंथ होनस जनसमाजमें यह खूब ख्यातिको प्राप्त हुआ है। इसकी गाथासंख्या सत्र मिलाकर 2170 है, जिनमें 5 गाथाए 'उक्त च' प्रादि रूपमे दी हई है। भगवती प्राराधनाके कर्ना शिवायं प्रपत्रा शिवकोटि नामके प्राचार्य है, जिन्हों. ने अन्यके अन्तमें प्रायजिननन्दिगरणी मवंगुप्त गर्ग और प्रार्थमित्रनन्दिका अपने विद्या अथवा शिक्षा-गुरुके रूपमें हम प्रकारसे उल्लेख किया है कि उनके पादमूल में बैठकर सम्म मूत्र और उसके प्रयंको प्रथवा मूत्र और अर्थ की भने प्रकार जानकारी प्राम कीगई और पूर्वाचायं अथवा प्राचार्यों के द्वारा निबद्ध हुई प्रागघनानोका उपयोग करके यह माराधना स्वशक्ति के अनुमार रची गई है। माथ ही, अपनंको 'पागि-दल-भोजी' (करपात्र. माहारी) लिखकर श्वेताम्बर सम्प्रदायमे भिन्न दिगम्बर मम्प्रदायका प्राचार्य मूचित किया है। इसके मिवाय, उन्होंने यह भी निवेदन किया है, कि छयस्थता (जानकी प्रपूर्णता) के कारण मुझमे कही कृष्ट प्रवचन (भागम) के विरुद्ध निबद्ध हो गया हो तो उसे मुगीतार्थ (मागमजान में निपुग्णा) साधु प्रवचनवत्मलताकी प्टिस गुट कर मेवे ! और यह भावना भी की है कि मनिमे वर्णन को हुई यह भगवनी पाराधना मपको नया (मुझ) शिवरायंको उनम समाधि-वर प्रदान करे-इम के प्रमादम मग तथा मघक मभी प्राणियोंका ममाधिपूर्वक मरण हो / हम पंचपर मम्कन, पान और हिन्दी प्रादिकी कितनी ही टीका-टिप * प्रगजिगणदिग:ग-मनगुनगग्गि-प्रग्नमित्तगण दीरगं / प्रवर्गामय पादमूरे सम्म मुन च प्रत्य न / 21:5 // पूबायरियग्गिवडा उपजीविताइमा ममनोर। पागहणा मिवाजेगा पारिणदालभाडगा रहा / / 2166 / / प्रदुमावदाए सस्पद जंबई होज पत्रण-दिष्टं / मोषनु मुगीदत्या वयग. वचनलदाए दु॥ 2167 // पाराहणा भगवदी एवं धर्म.ए वरिषदा मती। संघस्स सिवरजस्म य ममाहिवरमुत्तमं दे3 // 2168 // Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ~ 486 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश रिणयां लिखी गई है मनुवाद भी हुए हैं और वे सब ग्रंथकी ख्याति, उपयोगिता, प्रचार और महताके योतक है। प्राकृतकी टीका-टिप्परिणयां यद्यपि प्राज उपलब्ध नहीं है, परन्तु संस्कृत टीकामों में उनके स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध होते है / और वे ग्रंथकी प्राचीनताको मविशेषरूपसे मूचित करते है। जयनन्दी पौर श्रीचन्द्रके दो टिप्पण मोर एक अज्ञातनाम विद्वानका पद्यानुवाद भी अभी तक उपलब्ध नहीं हुए, जिनका पं० पागाधरको टीका में उल्लेख है / भोर भी कुछ टीका-टिप्पणियाँ अनुपलब्ध है। उपलब्ध टीकाप्रीम मभवत: विक्रमकी 8 वी शताब्दीके विद्वान प्राचार्य अपराजितमूरिकी विजयोदया' टीका, १३वी शताब्दी के विद्वान् पं० पागाधरको 'मूलाराधनादांग' नामकी टोका पोर 11 वीं शताब्दीके विद्वान् प्रमितगतिको पद्यानुवाद पर 'मंस्कृत प्रागधना' ये तीनों कनियां एक साथ न हिन्दी टीका महित र हो चुकी है। प. सदामुम्बजीकी हिन्दी टीका इनमें भी पहले दिन है ! और 'माराधनापत्रिका' नया निवजोलानकन 'भावार्थदीपिका' टीका ! पूना के भण्डारकर प्राच्य विद्या- मशाधक मदिरमें कई जानी है, मा. नाथूरामजी प्रेमीने प्रपन लेम्बो मे मचित किया है। Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25 भ० आराधनाकी दमरी प्राचीन टीका-टिप्पणियाँ 'भगवती पाराधना पोर उमकी टीका' नामका एक विस्तृत लेख 'अनेकान के प्रथम वर्षकी किरण:. 8 में प्रकाशित हना था। उसम मुहार पं० नाथूगमजी प्रेमीनं शिवाचाय-प्रगान "भगवनी अाराधना' नामक महान् अन्यकी चार मम्मत टीकापाका परिनय दिया था-१ अपगजितमूरिकी 'विजयादया' : पं. प्रामाधी मूलागवना-दांगग', प्रजातकर्तृका 'पागधनापजका पोर 4 50 मिव जीलानको भावार्थ-दीपिका' टीका / प. सदामुम्ब जीकी भाषावनिका के अतिरिक्त उभ वक्त तक ही चार टोका पोका पता चला था / हालमं मूलागधना-दांगको देखने हा मुझे इस ग्रन्थी कुछ दूरी प्राचीन टीका-टिप्पणियांका भी पता चला है और यह मालुम हमा है कि इस ग्रन्थ पर दो मस्कृत टिपग के मनिक प्रावन भापानी भी एक टीका थी, जिमकहानकी बहन बडी सम्भावना थी. क्योकि मनग्राय अधिक प्राचीन है। माय ही, यह भी पार हो गया कि प्रागजिनमुग्मिी टीकाका नाम विजयोदया' ही है जैसा कि मेने परन सम्पादकीय नोट में मुचित किया था निनयो. दया नही, जिम के होने पर प्रेमी जाने जार दिया था। करिशेष बात भोर भी ज्ञान हई है और वह यह कि अपराजिसमृरिका दमग नाम "विजय पवा श्रीविजय था। 50 प्रासापर जीने जगह-जगह उन्हें श्रीविषयाचायं के नाम उम्बिन किया है और प्राय इमी नामके माथ उनकी उक्त सस्कृत टीकाक वाक्यों को मतभेदादिक प्रदर्शनम्पमें उदधृत किया है प्रपया फिमी मायाको प्रमान्यनादि-विषयमे उनके इस नामको पेश किया है। देखो. 'अनेकान्त, 'प्रथम वर्ष, किरण 4 पृ० 210 Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश पौर इसलिये टीकाकारने टीकाको अपने नामालित किया है, यह बात स्पष्ट होजाती है / स्वयं 'विजयोदया' के एक स्थल परसे यह भी जान पड़ता है कि अपराजितसूरिने दशवकालिक सूत्रपर भी कोई टीका लिम्वी है और उसका भी नाम अपने नामानुकूल 'विजयोदया' दिया है / यथा: "दशवकालिकटीकायां श्रीविजयोदयायां प्रपंचिता उद्गमादिदोषा इति नेह प्रतन्यते।" -'उग्गमउपायगादि' गाथा नं. 1167 अर्थात्-दशवकालिकको 'श्रीविजयोदया' नामकी टीकामें उद्गमादि दोषोंका विस्तारके माथ वर्णन किया गया है, इमीमे यहां पर उनका विस्तृत कथन नहीं किया जाता। __ हां, मूलाराधना-दपंगण परमे यह मालूम नहीं हो सका कि प्राकृतटीकाके रचयिता को प्राचार्य हा है - पागाधरणीने उनका नाम मायमें नहीं दिया / शायद एक ही प्राकृतटीका होनेके कारण उमके रचयिताका नाम देनेको जमरत न मममी गई हो। परन्तु कुछ भी हो, इतना स्पष्ट है कि 50 प्रागाधरजीने प्राकृतटीकाके रचपिनाक विषयमें अपने पाठकों को अंधोमे रक्वा है / दोनों टिप्पणियों के कर्नापोंका नाम उहोंने फका दिया है, जिनमेगे एक है 'जयनन्दी और दूसरे 'श्री चन्द्र / श्रीचन्द्राचार्य के दूसरे टिपण प्रसिद्ध है-एक पुष्पदनकविके प्राकृत उतरणका ferm है और दूमग विषेणके पपग्निका / पहना टिपण वि. म. 1080 में पोर मग वि० मं. 108, में बनकर ममात हा है। भगवती प्रागपनाका टिणण भी मंभवत: + "श्रीविक्रमादिन्यमनपरे वर्षाणामधीत्यधिकमही महापगण-विषम पदविवरण मागरमेनमंडलायरिजाय मूनटिपण बालोश्य कृतमिद ममुच्चय - टिपणं प्रपातभीतेन श्रीमहलाकारगरणधीनन्यायाय-मत्कविशिष्येण श्रीम.द. मुनिना, निजदोर्दशभिभूनारपुराग्यविजयिनः श्री मोबदेवम्य (र ज्ये)|१०२।। इति उत्तरपुराणटिप्पणकम " ! "बनाकारगण श्रीश्रीनन्यायाधमाकविशिष्येण धीचन्द्रमुनिना, श्रीमतिकमादित्यसंवत्मरे सप्ताशीत्यषिकवर्षसह श्रीमदागया श्रीमनो राज्यभोजदयम्य पपरिते / इति पपपरिमे 123........... !" Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधनाकी दूसरी प्राचीन टीका-टिप्पणियाँ 488 इन्हीं श्रीचन्द्रका जान पड़ता है, जिमके गुरुका नाम श्रीनन्दी या और जिन्होंने वि० सं० 1870 में 'पुरागासार' नामका ग्रन्थ भी लिखा है। जयनन्दी नामके यों तो अनेक मुनि हो गये हैं; परन्तु पं० मामाघरजीसे जो पहले हुए हैं ऐसे एक ही जयनन्दी मुनिका पता मुझे अभी तक चला है, जो कि कनडी भाषाके प्रधान कवि मादिपममे भी पहले होगये है क्योंकि प्रादिपम्पने अपने 'पादिपुराण' पोर 'भाग्नच' में, जिमका रचनाकाल शक सं. 863 (वि. म. 668 ) है, उनका स्मरण किया है। बहुत सम्भव है कि ये ही 'जयनन्तो मुनि भगवती प्राराधनाके टिपणकार हो / यदि मा हो तो इनका ममय वि० की 10 वी मनामीके करीबका जान परता है; क्योंकि प्रादिपुराणमें बहनमे प्राचार्यो स्मरणानन्तर इनका जिमप्रकारमे स्मरण किया गया है उमपरमे ये प्रादिपणके प्राय: ममकालीन प्रथदा घोड़े ही पूर्ववर्ती जान पड़ते है। प्रस्तु, विद्वानोको विशेष खोज करके इस विषयमें प्रपना निश्चितमत प्रकट करना चाहिये। जारन है प्राकृतटीका मोर दोनो टिगोंको माम्मभण्डागेकी कालकोटरियोंसे योजकर प्रकागम लाने की / ये मब ग्रन्थ 10 प्राशाधरजीके अस्तित्वकाल १३वी थी शताब्दी में मौजूद थे और इमलिये पगने भण्डारोंकी खोन द्वारा इनका पता लगाया जा सकता है / देखते है.कोन मज्जन इन लुप्तप्राय ग्रन्थोंकी खोजका धंय पोर यश प्राप्त करते है। भर में मनाराधना दपंग उन बायोमे से कुछको नीच उद्धत कर देना चाहता है जिन परमे उक्त टीका-टिपण मादि बातो पता चलता है:टीका-टिप्पसक उल्लेख (1) "पत्रिंशद्गुणा यथा--अप्टी ज्ञानाचारा अप्टी दर्शनाचाराच नपा द्वादश यिधं पसमितम्तिस्रो गुप्रयश्चेति संस्कनटीकायां, * धागया पुरि भोजदेवनृपते राज्ये जयात्युन्न: श्रीमरसागरसेनतो यतिपतत्विा पुगणं महत् / मुक्त्यथं भवमोतिभोगजगतां श्रीनन्दिशिष्यो बुधो कु चाराराणसारममान श्रीचन्द्रनामा मुनिः / / 1 / / श्रीविक्रमादित्यसंवत्सरे सप्तत्यधिकवर्षसहने पुराणसाराभिधानं समासम् / Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 460 जैनसाहित्य और इतिहासपर विपन प्रकाश प्राकृनटीकायां तु अष्टाविंशतिमूलगुणाः प्रचारवत्वादयश्चाष्टी इति षट्त्रिंशत् / यदि वा दश बालोचनागुणा दश प्रायश्चित्तगुणा दशस्थितिकल्पा: पडजीतगुणाश्चेति पत्रिंशत् ।"-प्रायारवामादीयागाथा.नं. 506 (2) "किमिरागकंबलम्सव (गा०५६७) कृमिभुक्ताहारयर्णतंतुभिमतः कंबलः कृमिरागकंबलम्तस्ये ते संस्कन टीकायां व्याख्यानं / टिप्पणके तु कमिरात्यतरनाहाररंजिततंतुनिष्पादिन कंपलभ्येति(?)। प्राकृत टीकायां पुनरिदमुक्तं उत्तरापथे चर्मरंगम्लेच्छविषये म्जेरछा जलोकाभिर्मानुयमधिर गृहीत्वा भंडकेषु स्थापयन्ति / ततस्तेन रुधिरेण कतिपयनियमापनविपन्नकृमिकरणोमूत्र रंजयिन्वा कंबलं वयन्ति। मोऽयं कृमिरागकंगलं इत्युच्यते / स चातीवरूधिरवर्णा भवति / तम्य हिचन्हिना दग्धम्यापि स कृमिरागो नापगच्छतीति / " (3) "कृर भन / श्रीचन्द्रष्टिपणके स्वेवमुक्तं / अत्र कथयार्थप्रतिपत्तिर्यथा-चन्द्रनामा सूपकारः (इत्यादि ) / " -मनाहादी गा...। (5) "एवं सति द्वादशमृत्री नेन (मंस्कृतरीकाकारंग) नमी झायने / अम्माभिस्तु प्राकृतटीकाकारादिमने नैव मारयायते / / बमरीबाल, दगलमुन, 10 न. 1 0 5.1 - 10 (5) कम्मेन्यादि (गान ) अत्र म कर्ममनः मिन्यायादि. स्तोककर्मागि। मिद्धि मर्वामिद्धिमिनि जयदि टिपणे गाया। प्राकून टीकायां तु कम्ममलविष्पमुको कम्ममलेग मेल्लिदो / मिद्धि णिचागं / " -काममनविणो मिदिमा: 16 (6) "मम्मि ममभूमिदेशभ्यिने यागा बानोदय इति जगनन्दी; अन्ये तु वागवितरी इत्यनेन ध्यनरमात्रमाहुः / " -बेमाग्गिप्रो थनगतो. गाथा : अपगजितरि और श्रीविजयकी एकताके उन्लेख (7) श्रीविजयाचार्यस्तु मिध्याग्यसेवामतिचार नेति / तथा च Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती आराधनाकी दूसरी प्राचीन टीका-टिप्पणियाँ 461 तान्यो-“मिथ्यात्वमश्रद्धान तत्मेवायां मिथ्याटिरेवासाविति नातिचारिता" इति / -सम्मत्तादीचारागा०४८ (8) "एतां (गवमम्मिय जं पुव्वं० गा०५६५) श्रीविजयो नेच्छति / ' (6) एते (सल्लेहणाग 681, पगम्मि भवग्गहणे० 682) श्रीविजयाचार्यो नेच्छति / " (10) "श्रीविजयाचार्याऽत्र प्राणापायविवागविचयोनामधर्मध्यानं 'प्राणापाय' इत्यस्मिनराटं त्यायविचयो नामति व्याख्यन्।" -कल्लागावगाग्ग गा०१:१२ (11) "श्रीविन यस्तु 'दिम्मदि दंता व व्यरोनि' पाठं मन्यमाना ज्ञायते / " -जदिनम्म उनमग गा०१९हर उपयुक्त उम्ने खाम विजयानायके नामम जिन वाक्योका अथवा विशेषताप्राका कथन किया गया है वे मन प्रगजिनमरिकी उक्त टीकामे व्यों की त्यो पाई जाती है। जिन गाथाग्रीको प्रागजिनमरि ( श्रीविजय ) ने न मानकर उनको टीका नही दी है उनके विजय प्राय टम प्रकार के वाक्य दिये है"अत्रं यं गाथा मूत्र ऽनुश्रयने", अत्रं में गाथे मृत्र ऽनुश्रयेन / ' सो हाल में श्रीविजय प्रोर प्रागजिनको नाम कोई मादेश नहीं हना। प्रामा है माहित्य-प्रेमी मोर जिनवागीके भक्त महाशय गोघ्र ही उक्त प्राकृनटीका मोर दोनो टिम प्राने प्रश्न यहाँके शास्त्र-भण्डागर्म खोजनेका पूरा प्रयत्न करेंगे। जो भाई बोजार पन अन्योको देखने के लिये मेरे पास भेजेंगे उनका में बहुत प्रभागेगा पोर उन ग्रन्यो परमे और नई नई नपा निदिचन बान बोल कर उनके मामने रसगा / अपने पुरातन माहिन्यकी रक्षा पर सबको ध्यान देना चाहिये / यह हम समय बहुत ही बड़ा पुण्य कार्य है / मन्यांके नष्ट होजाने पर किमी मूल्य पर भी उनकी प्रामि नहीं हो सकेगी पोर फिर मिवाय पचनान के मोर कुछ भी पशिष्ट नहीं रहेगा / अनः ममय रहते मयको पेन जाना चाहिए। Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा और स्वामिकुमार यह अनुप्रेक्षा अध्र वादि बारह भावना प्रोपर, जिन्हें भव्यजनोंके लिये पानन्दकी जननी लिखा है (गा० 1). एक बरा ही मुन्दर, मरल तथा मार्मिक पथ है और 486 गाथामन्याको लिये हुए है / इसके उपदेश हे ही हृदय. ग्राही है, उक्तियाँ अन्तरवलको स्पर्श करती है और इमीमे यह जैन समाजमें मवत्र प्रचलित है तथा बरे ही मादर एव प्रेमको दृष्टिम देखा जाता है। इसके कर्ता ग्रंथकी निम्न गाथा 10 487 के प्रनमार स्वामिकुमार' है, जिन्होंने जिनवचनको भावनाके लिये पोर चचल मनको गोकने के लिये परमश्रद्धाके माय इन भावनामोंकी रचना की है. जिग्ण-ययण-भावगट्ठ सामिकुमारण रममताए। रड्या अपेक्वानो चंचलमण-कभा च / / 'कुमार' शन्न पृष, बालक, राजकुमार, युवराज, प्रविवाहित, ब्रह्मचारी प्रादि प्रोंके माय 'कानिकय' प्रयमे भी प्रयुक्त होता है, जिसका एक पाशय कृतिकाका पुत्र है और दूमग प्राशय हिन्दप्रोंका वह परानन देवना है जो शिवजीके उम बोयं में उत्पन्न मा था जो पहले अग्निदेवनाको प्राप्त हमा, अग्निमें गंगामें स्नान करती हुई छाकृनिकायोक गर्गग्मे प्रविष्ट हमा. जिसमें उन्होंने एक एक पुत्र प्रमव किया मोर वे छहों पुत्र बारको विचित्र रूपमें मिकर एक पुत्र कात्रिय हो गा, जिसके छह मुख और 1 भुना नया 12 मंत्र बतलाये जाते है / और जो इमी शिवपुष, अग्निपुत्र, गगापुत्र तथा कृतिका प्रादिका पुत्र कहा जाता है। कुमारके इस कार्तिकेय प्रर्थको कर ही यह मन्प स्ममिकार्तिकेय कृत का Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा और स्वामिकुमार जाता है तथा कार्तिकेयानुप्रेक्षा जैसे नामोंसे इमकी मर्वत्र प्रसिद्धि है / परन्तु ग्रंथभरमें कहीं भी ग्रंथकारका नाम कार्तिकेय नहीं दिया और न ग्रंथको कातिकयानुप्रेक्षा अथवा स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा जैसे नामसे उल्लेखित ही किया है। प्रत्युत इसके, प्रतिज्ञा मोर ममाप्ति-वाक्योंमें ग्रन्थका नाम ममान्यत: 'प्रगुपेहा' या 'मणुपेक्खा' (अनुप्रेक्षा) पौर विशेषत: 'बारमप्रणुदेवखा दिया है / बन्दकुन्द. के इस विषयक ग्रंथका नाम भी 'वारस अणुपेवावा' है। तब 'कानिकयानुयक्षा' यह नाम किसने और कब दिया, यह अनुमन्धानका विषय है / ग्रंथपर एकमात्र संस्कृत टीका जो उपलब्ध है वह भट्टारक गृभचन्द्रकी है और विक्रम संवत् 1613 में बनकर ममाप्त हुई है / इस टीकामें प्रनक स्थानों पर ग्रंयका नाम 'कार्तिकेयानुप्रंक्षा' दिया है और ग्रंथवार का नाम 'कातिकेय' मुनि प्रकट किया है तथा कुमारका प्रथ' भी पाति कय बतलाया है। इसमे मंभव है कि शुभचन्द्र भट्टायके द्वारा ही यह नामकरण किया गया -टीकामे पूर्वके उपलब्ध साहित्यमें ग्रन्यकाररूपमें इम नामको उपलब्धि भी नहीं होती। __ 'कोण जी गनप्पलियादि गाथा नं. 118 को टोकामें निमन समाको उत्साहत करने हा घोर उपमोको महन करनेवाले मनजनोके कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये गये है. बिनमें सक उदाहरण कार्तिकेय मुनिका भी निम्न प्रकार है बोनस प्रहाम्रो (गा०): बाग प्रावधानो भगिया इ जिग्गागमा मारेरण (गा. 880) / * यथा -(1) कार्तिक यानुप्राकाष्टीया व माश्रये / (पादिमान) (2) कातिक यानुप्रक्षाया निविचिना वग (प्रशस्ति :) (:) म्यामिवानिके यो मुनी यो अनुप्रेक्षा पायात काम: नगामन-मंगलावामि-लक्षण-[मगन] मानाटं / ( गा ) (4) केन निनः स्वामिकुमारगण भयवर-पुरीक श्रीस्वामि कातिकेयमुनिना प्राममधीलधारिणा अनुप्रेक्षा: रविता. / (गा० 487) (5) मह श्रीकातिकेयमाधुः मम्नुवे (486) देहली नयामन्दिर प्रति, वि० संवत् 1806) Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 464 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश "सामिकार्तिकेयमुनि-क्रौं चराज-कृतोपसर्ग सोढ्या साम्यपरिणामेन समाधिमरणेन देवलोकं प्राप्यः (प्तः?)।" इसमें लिखा है कि 'स्वामीकानिकेय मुनि क्रौचराजकृत उपसर्गको समभाव से महकर समाधिपूर्वक मरणके द्वारा देवलोक को प्राप्त हुए।' नत्वार्थ राजवातिकादि ग्रंथोंमें 'अनुतगेपपाददागांग' का वर्णन करते हुए वढं मान तीर्थकरके तीर्थ में दारूण उपमोको महकर विजयादिक पनुनर विमानों (देवलोक) मे उत्पन्न होनेवाले दम पनगार-माधुग्रोके नाम दिये है. उनमें कार्तिक अथवा कानिकेयका भी एक नाम है: परन्तु किसके द्वारा वे उपमगंको प्राप्त हुए ऐसा कुछ उल्नेम्व मायमें नही है। हां, भगवती प्राराधना जैसे प्राचीन ग्रन्थकी निम्नगाया नं. 1586 में क्रौचके द्वारा उपमर्गको प्राप्त हुए एक व्यक्तिका उल्लेख जार है - माथमे उपमगम्थान गरडक' और 'शक्ति' हथियारका भी उस है ---परन्तु कानिकेय नामका स्पष्ट उल्लेख नहीं है / उस व्यक्तिको मात्र 'अग्निदयित.' लिम्बा है, जिसका प्रथं होता, अग्निप्रिय, अग्निमा प्रेमी अथवा प्रग्निता 'याग-प्रमात्र - रोहयम्मि मत्ती होकाचा अग्गियनो वि / नं वडामधियामिय पडिया उत्तम अg // गुलागमनादांगा' टाकाम नपाशाधजीने 'गियो' (अग्निदयिन ) पदका अर्थ. 'अग्नि राजनानो गनः परः कानिक यमन:-अग्निनाम के गजामा 15 कातिन यमजा--दिया है / कानिकग मुनिकी एक कथा भी हग्गि . श्रीचन्द्र मोर नमिदनके कथाको पाई जाती है और उसमें कानिकयको कृतिका मानामे जान अग्निगजामा पत्र बनाया है। माय ही. यह भी लिखा है कि कनियनं राजकान मेंमागवम्याम-झी मुनिटीना ली थी. जिसका प्रमुक कारण था, मोर कारिकपको वान गो१ नगाके रम को बगनाको ही पी लिगको शनि मारत होकर पवा जिसके कियादाण उमगंगे मीनार कानिकर देवनांक मित्रार। म काक पात्र कालिकय प्रौर भगवती प्रागमनाको उक्त गापा पात्र 'अग्निपत्र Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा और स्वामिकुमार 465 465 को एक बतलाकर यह कहा जाता है और प्रामतौर पर माना जाता है कि यह कार्तिकेयानुप्रेक्षा उन्हीं स्वामी कार्तिकेयकी बनाई हुई है जो कौंच राजाके उपमर्गको समभावमे महकर देवलोक पधारे थे, और इमलिये इस ग्रन्यका रचनाकाल भगवती पागधना तथा श्री कुन्दकुन्दकं ग्रंथोंमे भी पहले का हैभले ही इस ग्रंथ तथा भ० पाराधनाकी उक्न गाथामें कार्तिकेयका स्पष्ट नामोल्लेख न हो पोर न कथामें इनकी इस ग्रंथरचना का ही कोई उल्लेख हो। परन्तु डाक्टर न. उपाध्ये मo To कोल्हापुर इम मतम महमत नहीं है / यद्यपि वे अभी तक इम ग्रयके का और उसके निर्माणकालके मम्बन्ध में अपना कोई निस्निन एकमत स्थिर नहीं कर सके फिर भी उनका इतना कहना है कि यह प्रय उतना (विक्रम दोमो या तीनमो वर्ष परका ) प्राचीन नही है जिनना कि दनकथाग्रीवे. प्राधार पर माना जाता है. जिन्नान ग्रंथकार कुमार के व्यक्तित्वका अन्धकार में डाल दिया है और हमके मुभ्र दो कारण दिये है. जिन का मार इस प्रकार है:(१) कुमारका धनुप्रेक्षा ग्रंथ में बारह भावना ग्रीकी गणनाका जो क्रम वह यह नही है जो कि वटकर, शिवाय पोर कुन्दकुन्द के ग्रन्यों (मूनाचार. भ० प्रागमन ना बाग्म प्रगुपकवा) में पाला जाता है, बल्कि उसमे र मित्र व बारा मावनिक नवा मूत्रमें उपलब्ध होता है। (2) कुमारको यह अनुप्रेक्षा अपभ्रंश मायाम नहीं लिखी गई, फिर भी उमी 29 वी गाथाम लिमुगहि पोर 'भावनि ( Prerably हि ) ये प्राध के दो पद पाया है जो कि वनमान काल तृतीय पुरुष बहुवचनके है / यह पाया जाइन्द ( योगीन्द) के योगमारके ६५वे दाह के साथ मिनती जलनी है.. एक ही मायनो लिया है और उन दोहे परमे परितिन करके सी गई है। परिवानादिका यह कार्य किमी बादके प्रति लेखक +1: मालालजी चाकरीवाल को प्रस्तावना पृ: / Cataloguc of SK, ind PK, Manuscrips, in the C. P. and Berar p. XIV; 791 Winterniir. Allistery of Indian Literaunt, Tol. Ip.57 Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 466 जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश / द्वारा संभव मालूम नहीं होता, बल्कि कुमारने ही जान या अनजानमें जोइन्दुके दोहेका अनुसरण किया है ऐसा जान पड़ना है / उक्न दोहा और गाथा इस प्रकार है : विरलाजारणहिं तत्तु बहु विरला णिमुगणहि तत्तु / विरला झायहि तत्तु जिय विरला धारहि तनु / / 6 / / -योगमार विरला णिमुणहि तब विरला जागणनि नबदी तक। विरला भावहि तब विरलागण धारणा रादि // 3 // -कानियानुप्रसा और इसलिये ऐसी स्थितिम . माहसका यह मत है कि कानिकयानुप्रेक्षा उबत कुन्नकुन्दादिके बाद की ही नही बल्कि परमात्मप्रकास तथा योगसारके का योगेन्दु प्राचार्य के भी बादकी बनी हुई है, जिसका समय उन्होंने पूज्यपादके ममाधिनत्रमे वादका और चारव्याकरण पूर्वका प्रधान ईसा की त्री प्रोर वी शताब्दी के मध्यका निर्धारित किया है. क्योंकि परमात्मप्रकाशमें ममाधितंत्रका बहुत कुछ अनुमण किया गया है, प्रौर चषध्याकरणमे परमात्मप्रकागके प्रथम अधिकारका ८५वा दाहा ( कान नहावरण जोडया' इत्यादि ) उदाहरण के रूपमें उदत है। इममें गन्देह नहीं कि मूलाचार. भगवती प्रागधना और वारगयामामें बारह भावनापीका कर एक है. हना ही नही बल्कि दन भावनापाक नाम नया क्रमकी प्रतिपादकगाया भी एक ही है और यह एक खास विशेषता है ! गाथा तथा उसमें अगित भावनामोंके कमकी भपिक. प्राचीनताको मना करनी है। वह गाथा इस प्रकार है अधुवमसरण गत्तम-मंमार लांगममुगिन / श्रामय संवर गिजर धम्म याहि व विनिते)ो / परमात्मप्रकाशको पनी प्रस्तावना पृ. ६४-६५प्रतावना: हिन्दीमार 011-115 / Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा और स्वामिकुमार उमास्वातिके तत्वार्थमूत्र में इन भावनापोंका क्रम एक स्थानपर ही नहीं बल्कि तीन स्थानोंपर विभिन्न है। उममें प्रशरणके मनन्तर एकत्व-अन्यत्व भावनामोंको न देकर संमार भावनाको दिया है और संसाग्भावनाके अनन्तर एकरस- अन्यत्व भावनामों को क्या है: लोकभावनाको समारभावनाके बाद न वकर निलंगभावनाके बाद क्या है और धर्मभावनाका बोधि-दुलंभमे पहले स्थान न देकर उमके अन्त में स्थापित किया है; जैम:कि निम्न मूत्रमे प्रकट है "अनिल्याऽर-ममारकत्वाऽन्यायाऽशुच्याऽऽनव-संवर निर्जरा. लोक बधिदुलभ-धमम्याग्याततत्यानुचिन्न नमनुप्रक्षाः / / 1.7 / / और इससे मा जाना जाता है कि भावनाप्रोका यह कम, जिसका पूर्व साहित्यपरम ममर्थन नही होना, बादको उमास्वाति के द्वारा प्रति हुया है। या िकयानुप्रेक्षाम इमी कमका पनाया गया है / अत: यह ग्रन्थ उमाम्वनिम पूर्वका नही बनता पोर जब उमाम्बाम का न बनना नव यह उन स्वामिक निकेयकी कृति भी नही हो सकता जो हरिपणादिनाथापकी उन तयाके मुख्य पात्र है, भगवती प्रारापना की गाथा न. 1586 मे 'अग्निदायन अग्निपुत्र) के नाममे उन्नति है प्रयवा अनुन रोपपादाङ्गमे गिन-दहा धनगागमे जिनका नाम है। इसमें अधिक प्रत्यकार मोर सन्यक समय-मम्बन्धमे दम प्रमविभिन्नमापरमे पोर कुछ फलित नहीं होता। प्रब रही दूसरे कारणकी गन, जहाँ तक उसपर विचार दिया और पत्यकी पूर्वापर चिनिको देवा उमपरमे मुझे यह करने में कोई मकाच नहीं होता कि ग्रन्वमें उक्त गाथा न को स्थिति बहुत ही दिग्ध प्रौर वह पडती है। क्योंकि उक्त गाया 'मोकभावना' अधिकारके पन्नगत है, जिसमें मोर मचान, सोकयनी जीवाट यह दस्य, जीवके मामगुण पोर धनज्ञानके विकल्परूप नेगमारि सात नय. इन सबका मंक्षेपमें ही सुन्दर व्यवस्थित वर्णन नापा 0 115 मे 278. नक पाया जाता है। 2.8 वी मायामे नयों के कपनका उपसंहार इस प्रकार किया गया है: Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश एवं विविह-णएहिं जो वत्थू ववहरेदि लायम्मि / दसण-गाण-चरितं सो साहदि सग्ग-मोवस्वं च / / 7 / / इसके मनन्तर विरला णिमुहि तच्चं' इत्यादि गाथा नं० 276 है, जो मोपदेशिक ढंगको लिये हा है और अन्यको तया इस अधिकारकी कथन-लीके साथ कुछ संगत मालूम नहीं होती-खामकर क्रमप्राप्त गाथा नं० 280 की उप. स्थितिम, जो उमकी स्थितिको और भी सदिग्ध कर देती है, और जो निम्न प्रकार है: तमचं कहि जमागं गिच्चलभावेण गिरे जो हि। तं चि य भावइ सया सा वि य तच्च वियागई / / 280 // इसमें बतलाया है कि, 'जो उपयुकतन्यको--जीवादि-विषयक तत्त्वज्ञान - को प्रधवा उसके ममको-स्थिरभाव--हसताके माय-ग्रहण करता है पोर सदा उसकी भावना रम्बना है वह तन्त्रको मविशेगमपम जानने में ममर्थ होता है। इसके अनन्तर दो गाथा और देकर एव लोयमहावं जो भायदि इत्यादि. रूपमे ग था नं. 283 दी हुई है. जो लोम्भावनाक. उपमहारको लिये हु" उसकी ममाभिमुचक है और अपने म्यानपर श्रीक गम ग्थिन है / व दो गाथा इस प्रकार है: को ग वमो इन्धिजग कम्म गा मया वडियं माग। को इंदिगण जिग्री की गा क.माह मंतन // 1 // मोगा वमोत्थिजगणे माण जिश्री इंदिहि मांगा। जाण य गिद्ददि गंथ अन्भनर बाहिर सव्यं / / 2 / / इनमें पहली गाथा में चार प्रस्न रिये गा है...कोन त्रिीजनोंक वाम नहीं होना? मदन-कामदेवरी किमम मान बरिन नाह'.३ कोन इन्दियोंके द्वारा जीता नही जाता ?, 8 कोन कषायोमे मतम नहीं होता ? दूगर गायाम केवल दो प्रनोका ही उत्तर दिया गया है जो कि एक बटन वान बात है, और वह उत्तर यह है कि 'स्त्री अनारे बगम वा नहीं होता, प्र यह इन्द्रियों से जीता नही जाता जा माहम बाप पोर प्राभ्यन्तर समस्त ना. ग्रहको ग्रहण नहीं करता है।' . Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्तिकेयानुप्रेक्षा और स्वामिकुमार 466 इन दोनों थामोंकी लोक भावनाके प्रकरण के साथ कोई संगति नहीं बैठती पोर न अन्य में अन्यत्र ही कथनकी ऐसी शैलीको अपनाया गया है / इससे ये दोनोंही गाथा सपृ रूपने प्रक्षिप्त जान पड़ती है और अपनी इस प्रक्षिप्तताक कारण उक्त विरलागि माहि नच्च नामको गाथा नं० 276 की प्रक्षिमता. की सभावनाको प्रौर दृढ करती है। मेरी रायमे इन दोनों गाथानों की तरह 276 नम्बरको गाथा भी प्रक्षिप्त है. जिन किसीने मपनी अन्य प्रतिमें अपने उपयोग के लिए मभवन. गाया न 80 के ग्रामगाम हाशियेपर. उसके दिग्गके में नोट कर रवाना होगा, मोर जो प्रनिलेम्बकको प्रमावधानीमे मूलम प्रवित हो गई है। प्रवेशका यह कार्य भ. शुभचन्दकी टीकासे पहले ही हमा है. इमा। इन तीनों गाया प्रोपर भी शुभ चन्द्र की टीका उपलब्ध है और उसमें (नदनमार जयनन्दजीवी भ पाटाका मे भी) बी पोचानानी के माथ इनका मम्बा जोनी चाटा की गई है, परन्ध जुमला नहीं है / मी यिनिमें उक्त गायाकी उपस्थिति परमे यह पता करना उसे स्वामिकमारने ही योगमारक दोहको परिवन करने बनाया है मचित प्रनीत नही होताखासकर उम हालत में जब कि ग्रन्थ भर मे मा भाषाक! और कोई प्रयोग भी न पाया जाना हो / वन रभव है कि किमी दूसरे विद्वनने दोको गावाका कप देकर उसे अपनी प्रन्यप्रनिमें नोट किया हो। और यह भी मम्भव है कि यह गाथा माघाराम पाठ-भेदके माथ अधिक प्राचीन हो और योगन्दने हो हमपरम घोडे में परिवन के साथ अपना उक्त दोहा बनाया हो, योनि योगीदक परममप्रकाश ग्रादि प्रथोम और भी कितने ही दोई गे पाये जाते है जो भावाहट तथा समातित्रादिके परमे परिवर्तन करके बनाये गये हैं और जिगेडाबटर माहबने स्वय स्वीकार किया है। जबकि स्वामिमारके इस प्रकी मी कोई बात अ तक. म.मने नहीं पाई-~कुछ गाधामी र दम्बन में पाती है जो कुन्दकुन्द तथा शिवार्यजैस प्राचार्याक प्रथाम भी ममान में पाई जाती है मार से प्रौर भी प्राचीन स्रोत मम्मन्ध रखने वाली हा मकती है, जिसका (क नमूना भावनापोंके नाम वाली गायाका कर दिया जा चुका है। अतः इस विवामपन्न गाथाके सम्बन्ध उस कल्पना करके यह नतीजा निकालना शि, यह प्रथ जोइन्दुके योगसारसे Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500 जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश ईसाको प्रायः छठी शताब्दीसे-बादका बना हुमा है, ठीक मालूम नहीं देता। मेरी समझमें यह अथ उमास्वतिके तत्त्वार्थ मूत्रसे अधिक बादका नहीं- उसके निकटवर्ती किसी समयका होना चाहिये / और उसके कर्ता वे अग्निपुत्र कातिकेय मुनि नही हैं जो प्रामतौर पर इसके कर्ता समझ जाते है और कोच राजाके द्वारा उपसगको प्राप्त हुए थ, बल्कि स्वामिकुमारनामकं प्राचार्य ही है जिस नाम का उल्लख उन्हान स्वय अन्तमगलकी निम्न गाथाम इलेपम्पम भी किया है तिहुयण-पहाण-सामि कुमार-काल वि त वय तवयरगं / यमुपुज्जमुयं मल्लि चरम नियं मथुव णिच // 486 / / इनमे यमपूज्यमुत-वामपूज्य, माल और अन्तके तीन नमि, पाच्य नया वर्द्धमान ऐमें पोर कुमार-धमग नीमको वदना की गई है, जिन्होंने मागवस्थामे ही जिनदीक्षा लेकर नपश्चगा किया है और जो तीन लान के प्रधान म्वामी है। और इसमे मा अनिन होता है कि ग्रन्थकार भी कुमारचमगा थ, बाल ब्रह्मचारी थे और उन्होने बाल्यावस्था हो जिनतीक्षा लेकर नाना किया है-जैमाकि उनके विषय में प्रसिद्ध है, और इमाम इन्होंने अपनीरूप में इष्ट पांच कुमार तीर्थङ्कनकी यह स्तुति की है। म्वामी-गन्दका व्यवहार दक्षिण देशमं अधिक है, और वह व्यक्तिक माथ उनकी प्रतिष्ठाका द्योतक होना है। कुमार, कुमारमेन, कुमारमन्दी और कुमारम्नाम' जैसे नामोके पानायं भी दक्षिण में हाहै। दक्षिण देशमे बात प्राचीन कालसे क्षेत्रपालकी पूजाका प्रचार रहा है और इम ग्रन्यकी गाथा - 25 में 'क्षेत्रान' का स्पष्ट नामाने व करके उमर विषयमं फैली हर सासम्बन्धी मिथ्या धारणाका निबंध भी किया है / इन मब बनोरम दायका महोदय प्राय: दक्षिण देशके पानायं मालूम होते है. जैसा कि हास्टर उगायन भी अनुमान किया है। Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्र और मिद्धमेन 'मनमतिमूत्र' जनवाङमय में एक महन्यका गौरवपूर्ण ग्रन्थगन है, जो दिगम्बर पोर श्वेताम्बर दोनो मम्प्रदायाम ममानम्पम माना जाता है / श्वेताम्बरा यह 'सम्मतिनक', 'मम्मतितकं प्रकरगा' तथा 'सम्मति प्रकरण' जैसे नामोम प्रधिक प्रमिद्ध है. जिनमें म:मति की जगह 'सम्मान' पद प्रशुद्ध है और वह प्राकृत 'सम्मह पदका गलत मकर रहै / पं. मृग्वलालजी प्रोर पर बेचरदामजीने ग्रन्थका गुजराती अनुगद प्रस्तुत करते हुए, प्रस्तावन में इम गलतीर घट प्रक, टला है और यह बतलाया है कि 'मनमति' भगवान महावीरका नामाना है, प्रा दिगम्बर-परपरामं प्राचीनकालमें अमिट तथा 'धनजयनाममा!' में भी उल्लेखित है. ग्रन्थ-नामके माय उमकी योजना होनेगे वह महावीर के मिलानोके माथ जहां ग्रन्धके मम्मन्यकोशाता है वहा इलेपम्प अंशमान प्रथं का मनन करता हुमा किनकि योग्य स्थानको भी मत है और इसलिये प्रोचियकी हाथमे 'मम्मनि म्यानार मन्मति' नाम ही टीच बंटना है / तदनुमार हो उन्होंने प्रत्यका नाम 'मन्मनि-प्रकरण प्रस्ट किया है दिगाबर-परम्पराके भवलादिक प्राचीन ग्रंथों में यह मामनिमत्र ( सम्ममन ) नामसे ही उल्लेखित मिलता है और यह नाम मन्मति-प्रकरगा नाममे भी अधिक पौचिन्य रखता 1"भरणेण मम्मामुनग मह कवधिः वयागा गण विज्झदे ? इदि गण, तप पग्जायस साबरण बागो भान्भुवगमायो।" (धवला 1) "रण र सम्मामुनेण मह विरोहो उसुमुद-गाय-विमय-भावरिणखेवमस्सिदूरण ताउत्तीदो।' (जयपवला ) Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5.2 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश है; क्योंकि इसकी प्रायः प्रत्येक गाथा एक सूत्र है अथवा भनेक मूत्र-वाक्योंको साथ में लिये हुए है। पं. सुख लालजी प्रादिने भी प्रस्तावना (पृ०६३) में इस बातको स्वीकार किया है कि 'मभूरणं सन्मतिग्रंथ मूत्र कहा जाता है पौर इसकी प्रत्येक गाथाको भी मूत्र कहा गया है / ' भावनगरको श्वेताम्बर मभामे सं० 1965 में प्रकाशित मूलप्रतिमें भी श्रीमतिमूत्रं ममासमिति भद्रम्" वाक्यके द्वारा इसे मूत्र नामके माथ ही प्रकट किया है-तकं प्रथवा प्रकरगा नाम के साथ नहीं / इमकी गणना जैनशासनके दर्शन-प्रभावक ग्रंथोंमें है / श्वेताम्बगेके 'जीतकल्पचगि' ग्रंथकी श्रीचन्द्रमुरि-विरचित 'विषमपदव्याम्या' नामको टीका. में श्रीप्रकलंकदेवके मिद्धिविनिश्चय' ग्रंथके साथ इस 'मन्मनि' प्रथका भी दर्शनप्रभावक ग्रन्यों में नामो लेख किया गया है और लिखा है कि. मे दर्शनप्रभावक शास्त्रोंका अध्ययन करने हा साधको मकपिन प्रनिमेवाका दोप भी लगे तो उमका कुछ भी प्रायश्चित नहीं है, वह माधु शुद्ध है / यथा--- दसण ति-दमग-पभावगाणि सत्याणि मिद्धिविगिन्छयमम्मन्यादि गिण्हताऽसंथरमागो ज अकापयं पमिय: जयगाए तत्थ मो मुद्धोऽप्रायश्चिन इत्यय: * / ' इसमें प्रथमोल्लम्बिन मिद्धिविनिश्चियकी नर यह ग्रन्थ भी कितने अमाधारध महत्वका है दम विजपाठक स्वय गमभ, मरते हैं। प्राय जैनदर्शनकी प्रतिष्ठाको म्व-पर-हुस्यों में पकिन करनेवाले होते है / तदनुमार यः ग्रन्थ भी अपनी कोतिको प्रमाण बनाये हुए है। इस प्रयके नीन विभाग है जिन्हें 'कागर' मंशा दी गई है। प्रथम काण्डवः कुछ हम्नलिखित तथा मुद्रित मनियों में 'नयका' बननाया है--निम्मा / "नयकंड मम्मत'-और यह ठीक ही है; क्योंकि सारा कापर नयके हो ___* श्वेतामरोंके निशीथ ग्रन्यकी चगिमें भी ऐमा ही उल्लेख है: 'दसणगाही-दमणरणाणपभावगाणि मत्थाणि सिदिविणिजय-ममति. मादि गेण्हतो प्रसंथरमाणे जं प्रकपिथं पहिमेवदि जपणाए तत्थ सो मुदी अप्रायश्चित्ती भवतीत्यर्थः।" ( उद्देशक 1) Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन 02 विषयको लिये हुए है और उसमें द्रव्याथिक तथा पर्यायाधिक दो नयोंको मूलाधार बनाकर और यह बतलाकर कि 'तीर्थकर-वचनोंके सामान्य और विशेषरूण प्रस्तारके मूलप्रतिपादक ये ही दो नय है-शेष सब नय इन्हीके विकल्प है *, उन्हीके भेर-प्रभेदों तथा विषयका अच्छा मुन्दर विवेचन और संमूवन किया गया है। दूमरे काको उन प्रतियोंमे 'जीवकाण्ड' बतलाया हैरिखा है "जीवकंडय मम्मत"। 10 मुखलालजी पोर पं. बेचरदामजीकी गयमें यह नामकरण ठीक नहीं है, इसके स्थानपर 'ज्ञानकाण्ड' या 'उपयोगकाण्ड' नाम होना चाहिये; क्योंकि इसकाण्ड में, उनके कथानानुमार, जीवनयकी चर्चा ही नही है-पूग्णनया मुख्य चर्चा ज्ञानको है / यह ठीक है कि इस काण्डमें मानकी पर्वा एक प्रकार मुम्ए हैं परन्तु वह दर्शनको चर्चाको भी माथों लिए हुए है-उमीमे चर्चा का प्रारम्भ है-पोर ज्ञान तथा दर्शन दोनों जीवदय्यकी पर्याय है, जीवद्रव्यम् भिन्न उनकी कही कोई मना नहीं, पोर इस निये उनकी चर्चाको जीवद्रव्यमी ही नर्चा कहा जा मकना है। फिर भी ऐमा नहीं है कि हममें प्रकटरूपम नोवतन्वकी काई चना ही न हो--दूसरी गाया में व्यानो वि होऊण दमणे ज्जवटियां होई. इ-यादिमागे जीवद्रव्यका कापन किया गया है. जिमन: मुम्बनानी मादिने भी अपने अनुवादमे 'ग्रामा दर्शन वम्बते" इत्यादिम्पम स्वीकार किया है। पनेक गाथापामें कथन-सम्बन्धको निये हम मन. केवनीपल नया जिन मे अर्थपदाका भी प्रयोग है जो जोवर ही विशेष है। पोर पन्तको जीवा प्ररमाइग्गिहनों से प्रारम्भ होकर 'पणे बिय जीव जाया' पर ममाम होने वाली मात गायापोमे नो जीवका स्पष्ट ही नामोल्लेखपूर्वक कपन है...वही बचांका विषय बना हमा है। एमी स्थिति में यह कहना ममुक्ति प्रतीत होता किम कारमें जोबतत्वको पा ही नहीं है' पोर न जीकाण्ड' इम नामकरणको सवधा मनुचित अथवा पाच ही कहा जा माना है। कितने ही प्रन्थों में प्रेमी परिपाटी देखनेमे पानी है कि पर्व तथा अधिकारादिके पन्नमें जो विषय चचित होता सित्वपर-पण-मंगह-विमेम-पत्यारमूलवागरणी। दबदिपो ग पसरणपो य सा वियप्पासि // 3 // Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 504 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशन प्रकाश है उसी परसे उस पर्वादिकका नामकरण किया जाता है *, इस दृष्टिमे भी काण्डके अन्त में पचित जीवद्रव्यको चर्चाके कारण उमे 'जीवकाण्ड' कहना मनुचित नहीं कहा जा मकना / मज रही तीसरे काण्डकी बात, उसे कोई नाम दिया हुप्रा नहीं मिलता। जिस किमीने दो काण्डोंका नामकरण किया है उसने तीसरे काण्डका भी नामकरण कर किया होगा. सभव है खोज करते हुए किमी प्राचीन प्रतिपरमे वर उपलब्ध हो जाय / डाक्टर पी० एल. वंद्य एम० ए० ने, न्यायावतारकी प्रस्तावना ( Introduction) में इम काण्डका नाम प्रमंदिग्धगमे 'अनेकान्तवादकाण्ड' प्रकट किया है / मालूम नहीं यह नाम उन्हें किस प्रतिपरमे उपलब्ध हुपा है। काण्डके अन्तमें चचित विषयादिककी दृष्टिमे यह नाम भी ठीक हो सकता है / यह काण्ड भनेकानपिको लेकर अधिकागमें मामान्य-विशेषरूपमे प्रर्थको प्रगा पोर विवेचनाको निये हुए है, और इसलिये इसका नाम 'मामान्य-विशेगकाण्ड' अथवा 'द्रव्य. पर्याय-काण्ड' जमा भी कोई दो मकरा है / 20 मनाली मोर 10 बेवरदामजीने इसे 'जय-का' मूचित किया है, जो पूर्वकारको 'शानकार' नाम देने और दोनों काण्डाक नामामे श्रीकन्दकन्दा नार्य-प्रणीत प्रवचनसारक मानयाधिकारनामों के माय मानना नानी दिने मम्मद जार परता है। इम ग्रन्थकी गाथा-मम्मा 54. 43, 70 के क्रममे कुल 167 है। परन्तु पं० मुम्बनालजी मोर 10 बेचदासजी उमे पब 166 मानते हैं, क्योंकि तीमरे कार में अन्तिम गाया के पूर्व जो किन गाथा लिखित तथा मुद्रित मूलनियों में पाई जाती है जमे व ममि बादको पनि हुई ममझते हैं कि उसपर अभयदेवमरिकी टीका नी है: जेगा विणा लोगम्म वि ववहारो मवहाल रिणव्यस। तम्म भुवणेगुरुगा गामी अणेगनवायम्म / / 66 / / इसमें बतलाया है कि जिसके बिना नोकका व्यवहार भी सवंधा बन नहीं * जमे जिनमेनकृत हरिवंशपुराणके ननीय सर्गका नाम 'लिकप्रश्नवर्णन', जब कि प्रश्नके पूर्वमें वीरके विहारादिका और तस्वोपदेशका कितना ही विगंध वर्णन है। Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन 505 सकता उम लोकके अद्वितीय (प्रसाधारण) गुरु अनेकान्लयादको नमस्कार हो / ' इस तरह जो अनेकान्तवाद इस मारे ग्रन्थकी प्राधार मिला है और जिसपर उसके कथनोंकी ही पूरी प्राण-प्रतिष्ठा अवलम्बिन नही है बल्कि उस जिन, वचन, जैनागम प्रथवा जनगासनको भी प्रागा-प्रतिष्ठा अवलम्बित है, जिसकी प्रगली (अन्तिम) गाथामे मंगल-कामना की गई है और ग्रन्थकी पहली (प्रादिम ) गाथामें जिसे 'मिदनामन' घोषित किया गया है, उसीको गौरवगरिमाको इम गाथा में अन्रे युनिपरम्पर गमे प्रदमित किया गया है। और इम लिये यह गाया अपनी कथनगली पोर कुशल-माहित्य-योजनापरम ग्रन्थका प्रग होने के योग्य जान पाती है नया ग्रन्यकी अन्य मगल-कारिका मालूम होनी है। इसपर एकमात्र प्रमुक टीकाके न होने से ही यह नहीं कहा जा सकता कि वह मूलकार के दाग योजित न हुई होगी; क्योकि दूसरे ग्रन्थोंकी कुछ टीका मी भी पाई जाती है जिनमें में एक टीकामें कुछ पद्य मूलरूपमे टीका-माहित है नो मगम के नहीं पाये जाने हो और गका कारण प्राय : टीकाकारको गमी मूल प्रतिका ही उपलब्ध होना कहा जा सकता है जिसमें वे पद्य न पाये जाते हो / दिगम्बगनाय गमति ( मामन ) देवकी टीका भी इस ग्रन्यपर बनी है. जिमका उमेद वादिगजन पान पानाथरिन (कम 68 ) के निम्न पचमें किया है ... नमः मन्मनय ताम्मे भव-कृप-निपातिनाम् / सम्मतिविना येन मुस्वधाम-प्रवशिनी / / यह टीका भी ता उपलब्ध नहीं ह-योजका कोई सास प्रयत्न भी नहीं हो सका। इसके सामने पाने पर उन गाथा नया पोर भी अनेक बातोपर प्रकाश पर सकता है क्योकि यह टीका मनिदेवको कृति होने। ११वी शताब्दी के येनावरीय पासा भयको टोकामे कोई मान ताली पहले की बनी हुई होनी चाहिये / नेतासरावायं मल्लवादीको भी एक टीका इम पन्यपर पहले बनी है, जो भाग उपनाम नहीं है और बिमा उल्लेख हरिभद्र तथा मे समयसागदि बन्योंकी अमृतवन्द्रमूरिकन तथा जयनाचार्यकृत टीका, जिनमें कतिपय गाथायोकी न्यूनाधिबता पाई जाती है। Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 506 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश उपाध्याय यशोविजयके ग्रन्थों में मिलता है / ___इस ग्रन्यमें, विचारको दृष्टि प्रदान करनेके लिये, प्रारम्भमे ही द्रव्याथिक (द्रव्यास्तिक ) मोर पर्यायाथिक ( पर्यायास्तिक ) दो मूल नयोंको लेकर नयका जो विषय उठाया गया है वह प्रकारान्तरसे दूसरे तथा तीसरे काण्डमें भी चलना रहा है और उसके द्वारा नयवादपर अच्छा प्रकाश डाला गया है / यहाँ नयका थोड़ा-मा कथन नमूने के तौरपर प्रस्तुत किया जाता है, जिससे पाठकोंको इम विषयकी कुछ झोकी मिल सके: प्रथम काण्ड में दोनों नयों के सामान्य-विशेषविषयको मिश्रित दिखलाकर उम मिश्रितपनाको चर्चाका उपसंहार करते हुए लिखा है दव्यट्रिनो नि नम्हा स्थि यात्री नियम मुद्धजाईश्रो। ण य पज्जवट्टिो गाम कोई भयग्णाय उ विमेमो / / / / 'प्रत: कोई द्रव्याथिक नय ऐमा नहीं जो नियम में युद्ध जातीय हो- अपने प्रति-पक्षी पर्यायाथिकनयकी प्रोक्षा न रखना हुमा उमके विषय मे मृन हो / इमी तरह पर्यायाथिक नय भी कोई ऐमा नहीं जो शुद्धजानीय हो-अपने विपक्षी द्रव्याथिकनयकी अपेक्षा न रम्बना हुमा उसके विषय पर्शमे रहित हो / विमाको लेकर ही दोनोंका भेद है-विवक्षा सम्य-गोग के भावको लिये दा होती है द्रव्याथिकमें द्रग-मामान्य समय पर पर्याय-विशेष गोण होता है प्रोर . याथिक में विशेष मुख्य तथा सामान्य गोग होता है।' इसके बाद बतलाया है कि-'पर्यायाचिकनयकी निमें दध्यायिकनमा बक्तव्य ( मामान्य ) नियममे अवस्तु है। इमी तरह द्रव्याथिकनयकी zip पर्यायाथिकनयका वक्तव्य (विशेष) प्रवस्तु है। पर्यायाधिकनयकी दृष्टि में गर्व पदार्थ नियममे उत्पन्न होते है और नायको प्राप्त होते है। द्रव्याथिक नगमा दृष्टि में न कोई पदार्थ उत्पन्न होता है और न नाचको प्राप्त होगा + "उक्तं च वादिमुम्येन श्रीमम्मवादिना मम्मतो' (अनेकालजयपताका ) "इहाथै कोटिया भला निर्दिष्टा मल्लवादिना / मूलसम्मति-टीकायामिदं दिमात्रदर्शनम् ॥"-(भटमहवी-टिपण ! स.प्र. 104. Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन है। द्रव्य पर्याय ( उत्पाद-व्यय ) के विना पोर पर्याय द्रव्य (घोव्य ) के विना नहीं होते; क्योंकि उत्पाद.व्यय और धोव्य ये तीनों द्रव्य-मत्का अद्वितीय लक्षण हैं.। ये तीनों एक दूसरेके साथ मिलकर ही रहते हैं, अलग-अलगरूपमें ये द्रव्य ( मन् ) के कोई लक्षण नहीं होने और इमलिये दोनों मूलनय अलग-अलग रूपमें-एक दूसरेको अपेक्षा न रखते हए-मिथ्यादृष्टि है / नीमरा कोई मूलनय नही है / और मा भी नहीं कि इन दोनों नयोंमें यथार्थपना न ममाता हो-वस्नुके यथार्थ बम्पको पूर्णत: प्रतिपादन करने में ये असमर्थ हो- ; क्योंकि दोनों एकान्त ( मिथ्याष्टियां ) अपक्षाविशेषको लेकर ग्रहण किये जाने हो अनेकान्त ( मम्यम्हष्टि ) बन जाते है / अर्थात् दोनो नयों मेमे जब कोई भी नय एक दूसरे सोमपेक्षा न बना हमा अपने ही विषयको मतम्प प्रतिपादन करनेका पाग्रह करना है तब वह अपने दाग ग्राह्य वनके एक अंगमें पूर्णताका मानने वाला होने मे मिथ्या है और जब वह अपने प्रतिपक्षी नयकी अपेक्षा रखता हमा प्रवर्तना है -उमा विषयका निग्मन न करता हया तटम्यरूपमे अपने विषय ( वतन ) का प्रतिपादन करता है-र वह अपने द्वारा ग्राह्य वस्तुके एक पाको प्रमाही। पूगंगामें नही ) मानने के नाग मम्यक व्यपदेशको प्राम होता है। हम मब पागयकी पान गाथा निम्न प्रकार है इल्यट्ठिय-यसव्यं यथ गिय मेगण पजवणयम्म / नह जयत्य अवयमेव व्यद्रियगायम्म // 10 // उपानि विति य भावा पजवरण सम्म / वाट्रियम्म म मया अप्परगामविगा।।१।। * "पजविन्द अविना य प गरिय। दोह परमार भाव ममता पविति // 1-1 // " -नाम्निकाये, श्रीकुन्दमन्दः / "सदायमाणम् / / || उपाययोयुक्त मन् // 30 // " तस्वायंमूत्र प्र०५॥ 1 नीमरे कागमें गुणाधिक ( पुग्णास्तिक ) नयको कल्पनाको उठाकर स्वयं उसका निरमन किया गया है ( गा०९ से 15) / Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनसाहित्य और इतिहास र विशा प्रकाश दव्यं पज्जव-विज्यं व्व- विमा य पज्जवा स्थि। उप्पाय-दिइ-मंगा हंदि दवियलक्खणं एयं // 12 // ए पुण मंगहनो पाडिकमल स्वर्ण दुवेण्हं पि / तम्हा मिच्छादिट्ठी पत्तेयं दो वि मृल-गया // 13 // गग य तइया अस्थि रण श्री ण य सम्मनं ग नेम पडिपुगगां / जेण दवे एगना विभाजमारणा प्रणेगंतो / / 14 / / इन गाथामोके अनन्तर उत्तर नयों की चर्चा करते हुए और उन्हें भी मूलनयोंके समान दुन्य नथा मुनय प्रनिगदन करते हा पोर यह बतलाते हए कि किमी भी नयका एकमात्र पक्ष लेनेपर मंमार, मुम्ब, दाम्य, बन्ध और मोक्षको कोई व्यवस्था नहीं बन सकती, मभी नयों के पिया नया मापक रूपको स्पष्ट करते हुए लिखा है तम्हा मध्य वि या मिच्छादिदी मपक्वपडियद्धा। अण्ण परिणम्मिश्रा उग्ण यति सम्मत्तममाया | 'प्रतः सभी नय-नाह वे मूल, उना या उनगेना कोई भी नय को न हों-जो एकमात्र प्राने ही पक्षके साथ प्रतिबद्ध है वे मियाह है--वनको यथार्थ रूपमे देखन-प्रतिगादन करने में प्रममय है। परल जो नय परम्पग्में अपेक्षाको लिय हुए प्रबनने हैं वे सब गम्यष्टि है-वनको यथायंकामे देखनेप्रतिपादन करने में ममर्थ है। ___ तीसरे काण्डमें, नयबादकी चर्चाको एक दूसरे ही नंगमे उठाने हा नयवादके परिशुद्ध पौर प्रारमुख ऐमे दो भेद मुचित किये हैं, जिनमें परिशुद्ध नयवादको प्रागममात्र प्रथंका-केवल श्रमप्रमाग विषयका-माधक बनलाया है. प्रोर यह ठीक ही है, क्योंकि परिशुद्धनगरमापेक्षनय बाद होने अपने पक्षकाअंशोंका-प्रतिपादन करता हा परपक्षका-दुमा प्रशोंका --निगकरण नही करता और इसलिये दूसरे नयवादके माप विरोध न रखने के कारण पन्तको श्रुनप्रमाणके समय विषयका ही माधक बनता है और अपरिगुट नयवादको ‘दुनिक्षिप्त' विशेषण के द्वारा उल्लेखित करते हुए स्वाक्ष तथा परपक्ष दोनों का विधानक लिखा है और यह भी ठीक ही है क्योंकि वह निरपेभनयवाद होनेमे एकमात्र Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन 506 अपने ही पक्षका प्रतिपादन करता हुमा अपने मे भिन्न पक्षका मवंथा निगकरण करता है-विरोधवृत्ति होनस उसके द्वारा शुनप्रमाण का कोई भी विषय नहीं सघता मोर इस तरह वह अपना भी निगकरण कर बैठना है। दूसरे शब्दों में यों कहना चाहिये कि वस्तुका पूर्णरूप अनेक मापेक्ष अंगो-धममि निर्मित है, ओ परस्पर प्रविनाभाव-मम्बन्धको लिये हुए है, एकके अभावमे दुमका अस्तित्व नहीं बनना, और इमलिये जा नयवाद परपक्षका मर्वया निषेध करता है वह माना भी निषधक होता है-परके प्रभाव में प्रपने म्वम्पको किसी तरह भी मिट करने में समर्थ नहीं हो सका। नयवादके इन भेदों पोर उनके स्वरूपनिदेमके प्रनन्तर बतलाया है. कि 'जितने वचनमागं है उसने ही नयवाद है और जितने ( परिशुद्ध प्रथवा परस्पर निगरोसा विगंधी ) नयाद है उतने ही परममय-जननरदर्शन-हैं / उन दमंगोमें कपिलका मापदर्शन द्रव्यापिकनयका वक्तव्य है। मुद्धोदनके पुत्र बुटका दर्शन परिशुद्ध पर्यापनय का विकला है। उनूक प्रांत कपादन प्राना शास्त्र ( वगेषिक दर्शन ) यद्यपि दोनो नयांक द्वारा प्रापित किया है फिर भी वह मिथ्याता है-प्रमाण है; क्योंकि ये दोनों नयहष्टियां उक्त दर्शनमें अपने अपने विषपको प्रधानता के लिये परम्पर में एक-दूसरे को कोई प्रपंक्षा नहीं रखती। इस विषय में मम्बन्ध रम्बनेवानी गाथा निम्न प्रकार है परिमुद्रा णयवानो भागममेनाथ माधको होइ / मोचव दरिणगिरणी दोरिण विपकव विधम्मेइ / / 46 / / जावाया वयायहा नावइया चेव हाति एयवाया। जायाया गयवाया नावल्या चव परममया // 17 // जे काबिल हरिमां एवं दयट्रियम्म वत्तस्वं। मात्रा-नगान र परिमा पनवविअप्पा ||18|| कोहि विगाहगीय मन्थमुलगा न मिच्छत्तं। जमयिमहामणे प्रगणोगा रिणरवेक्वा / / 46|| इनके पनन्ना निम्न दो गावापो पर प्रतिपादन किया है कि 'मांपोंके बहाद पा र पौरभेषिक जन जो दोष देते हैं तथा बौदों पोर शे Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - -- - 510 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश पिकोंके प्रमद्वाद पक्ष में सांप जन जो दोष देते हैं तथा बौद्धों और वैशेषिकोंके प्रसद्वाद पक्षमें मारूपजन जो दोष देते हैं वे सब सत्य है-सर्वथा एकान्तवादमें वैसे दोष पाते ही है / ये दोनों मवाद और प्रमदाद दृष्टियां यदि एक दूसरे की अपेक्षा रखते हुए मयोजित हो जाय-ममन्ययपूर्वक अनेकान्तदृष्टि में परिणत हो जायें-तो मतिम सम्यग्दर्शन बनता है: क्योंकि ये सत्प्रसत्मा दोनों दृष्टियां मना अलग ममारके दुःवमे छुटकाग दिलाने में ममर्थ नहीं है -दोनों के मापेक्ष मंगोगमे ही एक-दूसरे की कमी दूर होकर ममारके दु.म्वान मानि मिल सकती है जे मंतवाय-दमे मकालूया भरगंनि संस्थागं / मंस्वा य अमव्याप तमि मब्व वि ने मचा / / 5 / / ने उ भयगवणीया सम्ममगमगुगु नरहनि / जं भव-दरव-विमाकवं दा विगा प्रीति पाडिक्कं // 1 // इम मब कथनसम्म मियादर्शनो पोर सम्यमनमानन्ध मनोगमभमे प्राजाता है और यह मालूम हो जाता है कि कंग मभी मिथ्यादान मिलकर सम्यग्दर्शन के मे परिगान हो जाते है। मियादशंड अथवा जननदर्शन जब तक अपने प्राने वनव्या प्रतिपादन में कालनाको प्रारार पविगंधका लक्ष्य रखते है तब तक ये सम्यग्दशनमें परिणत नही होने, और जब विरोधका नःश छोड़कर पारम्परिक प्रपाको लिये हए मम यकी टिकी अपना है तभी सम्यग्दर्शन में परिगान हो जाते है पोर जनदमन कहलाने के योग्य हाने / / जैनदमन अपने प्याट्टादन्याय द्वारा समन्वयकी टिका लिया है-समावरही उमा नियामक तत्व है, न कि विगंध-पोर इमानये ममी मियादान अपने अपने विधलभुलाकर उममे ममा जाने है। मांग प्रत्यको अन्तिम गाथा में जिनवचनमप जिनशामन प्रथवा जनदमनकी मानकामना मन उमे मिच्या दांनोका ममत्रमय बतलाया। 4 गाथा इस प्रकार :--- भर मिच्छामण-महमइयम्स प्रमयसारम / जिणवयस्म भगवा मंयिम्गमहाहिगम्मम्म / / 70 // इममें जनदर्शन ( शासन ) के तीन बाम विशेषणों का उल्लेख किया गया है-पला विरोपण मिथ्यावर्शनसमूहमय, दूसरा प्रमृतमार और तीसरा Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन संविग्नमुखाधिगम्य है। मिध्यादर्शनोंका समूह होते हुए भी वह मिथ्यात्वरूप नहीं है, यही उसकी सर्वोपरि विशेषता है और यह विशेषता उसके मापेक्ष नयवादमें मंनिहित है-मापेक्षनयमिथ्या नहीं होते,निरपेक्ष नय ही मिथ्या होते है। जब सारी विरोधी दृष्टियां एकत्र स्थान पाती है तब फिर उनमे विरोध नहीं ग्रता और वे महज ही कार्य-माधक बन जाती है / इमीपरमे दुसरा विशेषण ठीक घटित होना है,जिसमें उसे अमृतका अर्थात् भवदुःखा प्रभावमा प्रविनासी मोगका प्रदान करनेवाला बतलाया है। क्योंकि वह मुम्ब प्रयया भवदःखविनाश मियादर्शनासे प्राप्त नही होता, इमे हम ५५वी गायामे जान चुके है। तीसरे विगंगा के द्वारा यह मझागा गया है कि जो लोग ममारके दुखों-कने गोंमें उद्विग्न हाकर मवेगको प्राप्त हुए है- मन मुमुक्षु बने है- लिये जैनदगंन प्रथया जिनमामन मबम मममम पाने योग्य है.--कोई यटन नहीं है। इममे परमवा गाया 'प्रत्याई उग गायवाय गदग नीगा दुर्गभगम्मा' वायर द्वारा की जिस प्रगतिको नयवाद गहन-वन में लीन प्रोर दुर. भिगम्प बनाया या उमीन पर अधिक रिपोर निये यह सुगम घागिन किया गया है. र मब अनेरानाष्टकी महिमा है। अपने गे गुगण के कारण ही जिनकपन नगवामा प्राप्त है - .. 'स्य है। निम गया जिम प्रसार जिन्सामनका गमगा किया गया है उसी प्रकार का प्रतिम गाया में किया गया। प्रादिम गाथा किन fuuri. माघ स्मरण रिपा गया है यह भी पाटकोंक जानने योग्य है और इसलिये उम गाथा को भी यहा दान किया जाना है. -- सिद्ध मित्याग दागमाग बममह उवगया / कममय-विमामगं माम जिग्गागं भवजिणागां // इसमें भी जीवामी - मान-प्रागम के चार विशेषण faगये?- गिट, मिनायो म्यान. : शरणागतोंके लिये मनुाम •fमामशान मकाननाननः / निरक्षा नया मिया मात्रा वायंगत् / / 108 / / -देशागमे, स्वामिममन्तभद्रः / Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 512 जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश सुखस्वरूप, 4 समयों-एकान्तवादरूप मिथ्यामतोंका निवारक / प्रथम विशेषणके द्वारा यह प्रकट किया गया है कि जैनशासन अपने ही गुणोंसे प्राप प्रतिष्ठित है। उसके द्वारा प्रतिपादित सब पदार्थ प्रमागणसिद्ध है.-कल्पित नहीं है-यह दूसरे विशेषणका अभिप्राय है और वह प्रथम विशेषण मिद्धवका प्रधान कारण भी है। नीमरा विशेषरण बहुत कुछ स्पष्ट है, और उसके द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि जो लोग वास्तव में जनगामनका प्राश्रय नेते है उन्हें अनुपम मोक्ष-मुख तक की प्राप्ति होती है / वौथा विशेपण यह बन जाता है कि जनगायत उन सब कुमामनों-मिथ्यादांनोंके गर्वको चूर चर करनेको शक्तिम सम्पन्न है जो मया एकन्नवादका प्राश्रय लेकर बामनारूद बने हा है और मिथ्यात्वोंके प्रमाण-द्वार जगतमै दम्बका जाल फैलाये हुए है। इस तरह प्रादि-अन्नकी दोनों गाशाम्रो जिनगामन अथवा जिन वचन (जैनागम) के लिये जिन विशेषगांका प्रयोग किया गया है उनमें एम सागर (दर्शन) का अमाधारमा महत्व और माहात्म्य च्यापिन होता है / और यद केवल कहने की ही बात नहीं है बल्कि मारे प्रत्यक इमे प्रदगित कर के बनानामा गया है। स्वामी ममनभरी दो प्रजान अन्धकारको पाप्ति (प्रमार / ' सचिन रूपमे दूर करके जिनमामन के माहात्म्यको जो प्रकाशित करना है - का नाम प्रभावना है। यह ग्रन्थ अपने विषय-वर्णन पोर विवेचनादिका इम प्रभावनाका बन कुछ माधक है मोर इमीलिये इसकी भी गाना प्रभाव ग्रन्थों में की गई है / यह प्रन्य जननका ध्ययन करनेवाली पोर जनदानम जैनेनर दर्शनोंक भेदको ठीक अनुभव करनको इच्छा रखने वालोंके लिये 31 कामकी चीज है और उनके द्वारा बाम मनोयोगके मापदं जाने तथा मनन किये जानेके योग्य है। इसमें अनेकान्नक प्रगम्बार जिम नयवादको प्रमय चर्चा है और जिसे एक प्रकारमें भिगम्य गहना बन' बसलाया गया है -- "प्रजन-तिमिर-व्याप्तिमपाकृन्य यथायथम् / जिन-शाशन-माहात्म्य-प्रकाम: स्यात्प्रभावना // 18 // " -रलकरणया० Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन अमृतचन्द्रसूरिने भी जिसे 'गहन' और 'दुगमद' लिखा है -उसपर जैन वाङ्मयमें कितने ही प्रकरण अथवा 'नय चक्र' जैसे स्वतन्त्र ग्रन्थ भी निर्मित हैं, उनका मायमें अध्ययन अथवा पूर्व परिचय भी इम प्रथके समुचित अध्ययन में सहायक है। वास्तवमें यह ग्रंथ मभी तत्वजिज्ञामुत्रों एवं प्रात्महितपियोंके लिये उपयोगी है। अभी तक इसका हिन्दी अनुवाद नहीं हुअा है। वीरमवामन्दिरका विचार उमे प्रस्तुत करने का है। (क) ग्रन्थकार मिद्धमेन और उनकी दूसरी कृतियां इम रिमति' ग्रन्यके का प्राचार्य मिदन है. इसमें किमीको भी कोई विवाद नहीं है / अनेक प्रयोमे ग्रंथनामके माय सिद्धमेनका नाम उल्लेम्बित है और हम ग्रन्यके वाक्य भी मिद्धमेन नामके माथ उदघन मिलने है; जम जयपवलामे प्राचार्य वीरमेनने गमवग्गा दांवयः नामकी छटी गाथाको 'उक्त च सिद्धसेरणेगा, इम वापक माय उद्घन किया है और पचवम्तम प्राचार्य हरिभटने ''प्राग्यमिति गणेग मम्मा पट्टि प्रजमेग' वाक्यके द्वाग 'मम्मान' को सिद्धिमेनकी निपम निदिध किया है, माथ हो काली सहाव गिगयई' नामकी एक गाया भी उमको उद्धन की है। परन्तु ये मिदमन कोनमे है-किम विशंग परिचयको निये हुए है ? कौनमे सम्प्रदाय अथवा प्राम्नायसे सम्बन्ध रखते हैं, इनके गुम कौन थे ?, इनकी दूमर्ग कृतियों कौन-सी है ? और इनका ममय क्या है ? ये सब बानं एमी है जो विवादका विषय बकर है क्योकि जैनममाजमे सिद्ध मेन नामके अनेक प्राचार्य और प्रवर ताकिक विद्वान् भी हो गये है भोर इम अप में प्रथकारने अपना कोई परिचय दिया नही. न रचनाकाल ही दिया है.---.की प्रादिम गाथामें प्रयुक्त हुए सिर' पदके द्वारा श्लेषरूपमें अपने नामका मूचनमात्र किया है, इतना ही समझा जा सकता है। कोई प्रशस्ति भी किसी दूसरे विद्वानके द्वारा निर्मित हो कर ग्रन्थ के अन्त लगी हुई नही है / दूसरे जिन ग्रन्धो-खासकर द्वात्रिॐ देखो, पुरुषार्थसिद पुपाय "ति विविषम-गहने मुदुस्लरे मागंमूढदृष्टी- नाम्"। (58) "अत्यन्तनिशितधारं दुरासदं जिनवरस्य नयचकम्" / (56) Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 514 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश शिकामों तथा न्यायावतार-को इन्हीं प्राचार्यकी कृति समझा जाता और प्रतिपादन किया जाता है उनमे भी कोई परिचय-पद तथा प्रशस्ति नही है / पौर न कोई ऐसा स्पष्ट प्रमाण अथवा युक्तिवाद ही सामने लाया गया है जिसमे उन सब ग्रन्थोंको एक ही सिद्ध मेनकृत माना जासके / पोर इस लिये अधिकांशमें कल्पनामों तथा कुछ भ्रान्त धारणाप्रोके माधार पर ही विद्वान लोग उक्त बातोंके निर्णय तथा प्रतिपादन में प्रवृत्त होते रहे है। इसीसे कोई भी ठीक निर्णय अभी तक नहीं हो पाया-वे विवादापन ही चली जाती है और मिद्ध मेनके विषय में जो भी परिचय-लेख लिखे गये है वे सब प्राय: खिचड़ी बने हुए है और कितनी ही गलतफहमियोंको जन्म दे रहे तथा प्रचारमे ला रहे है / प्रतः इस विषयमे गहरे अनुमन्धानके साथ गम्भीर विचारको जरूरत है और उसीका यहाँ पर प्रयत्न किया जाना है। दिगम्बर प्रौर श्वेताम्बर दोनो मम्प्रदायोमे मिदसेनके नामपर जा अन्य चढ़े हुए है उनमें से कितने ही ग्रन्थ तो हम है जो निश्चिनपमे दुसरे उनरवती मिद्धसे नोंकी कृतियां हैं: जमे 1 जीनकगि 2 तन्वाधिगममूत्रकी टोका, 3 प्रवचनमागेद्धारकी वृनि, 4 विनिम्यानप्रकरगा / प्रा०) मोर 5 मिदिघे यसमुदय (शकस्तव) नामका मंत्रभिन गाम्नांत्र / कृय पथ मे है जिनका मिद्धमेन नामके माथ उल्लेख ना मिलता है, परन्त प्राज वे उपलब्ध नहीं है, जैसे 1 वहनषड्दर्शनममृत्नयल (जैनग्रन्यावली पृ० 14), 2 विषोग्रग्रहशमनविधि, जिसका उल्लेख उग्रादिन्याचायं (वि.म.वी तादी) के 'कल्याणकारक' बंधक ग्रन्थ (24-85 / म पाया जाता है और 3 नीतिमार. * हो सकता है कि यह प्रथ हरिभद्रमूरिका 'पडदर्शनममुपर ही हो और किसी गलतीमे मूरनके उन मेठ भगवानमाम कल्याणदामकी प्राइवेट रिपोर्ट में, जो पिटसन साहबकी नौकरी में थे, दर्ज हो गया हो, जिमपरमे जैनगन्यावलीमें लिया गया है ? क्योंकि इसके साथमें जिस टीकाका उल्लेख है उसे 'गुग्गरत्न' की लिखा है पौर हरिभद्रके पार्शमसमुचयपर गुणरत्नकी टीका है। __ "शालाग्यं पूज्यपाद-प्रकटितमधिकं शल्यतंत्र र पात्रस्वामि-प्रोक्त वियोगग्रहशमनविधिः सिढसेन: प्रमि।" Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन . पुराण, जिसका उल्लेख केशवसेनमूरि-(वि० सं० 1688) कृत कर्णामृतपुराणके निम्न पदोंमें पाया जाता है और जिनमें उसकी इलोकसंख्या भी 15630. दी हुई है-- मिद्धोन-नीनिसारादिपुराणोद्भूत-मन्मति / विधाम्यामि प्रमन्नार्थ प्रन्थ सन्दर्भगर्भितम् // 16 // स्ववाग्निरमवारणेन्द्र (153300) लोकसंख्या प्रमृत्रिता / नीनिमारपुराणम्य मिद्धमेनादिमृरिभिः // 28 // उपलब्ध न होने के कारगा ये नीनों ग्रन्थ विचारमें कोई महायक नहीं हो मकने / इन माठ ग्रन्योके पलावा चार ग्रन्थ पोर है.-१ द्वात्रिंगवात्रशिका, * प्रम्मन मन्मतिमत्र. 3 न्यायावतार और 4 कल्यागादिर / 'कन्यागणमन्दिा' नामका स्तोत्र ऐमा है. जिसे वताम्बर सम्प्रदायमें मिद्ध मेनश्विाकरको कृति ममझा और माना जाता है, जबकि दिगम्बर-परम्परामे वह स्तोत्र अन्तिम पद्यम मुक्ति किये हा कुमुदचन्द्र नामके अनुमार कुमुदचन्द्रा बायको कति माना जाता है। इस विषयमे बराबर मम्प्रदायका यह कहना है कि मिद्धमेनका नाम दीक्षाके ममय मुन्द्र मना गया था प्राचार्य पदके ममय उनका पुराना नाम हो उहद दया गया था, मा प्रभानन्दमूरिक प्रभावकारित (म. 1934) में जाना जाता है प्रोर समलिये कल्याणमन्दिरमे प्रयुक्त हमा 'कुमुदचन्द्र' नाम मिदमनका ही नामानर है।' दिगम्बर समाज इसे पीछेकी कल्पना और एक दिगम्बर कतिको हपियानको योजनामात्र ममझता है; क्योंकि प्रभावकाग्नि के परम मिद्धसेन-विषयक जो दो प्रबन्ध लिखे गये है उनमें कुमुदचन्द्र नामका कोई उल्लेम्ब नही है.-५० मुम्बलालजी पोर पं० वेचरदामनीने पपनी प्रस्तावनामें भी इस बातको व्यक्त किया है। बादक बने हा मेस्तुगाचार्य के प्रबन्धचिन्तामणि (म० 1361) अन्य में प्रोर जिनपभूमूरिके विविधनीपाल्प ( म० 1386 ) में भी उसे पपनाया नहीं गया है / राजशेखर के प्रबन्धकोश प्रारनाम चविशनि-प्रत्र (मं० 1405) में कुमुदचन्द्र नामको वपनाया जरूर गया है परन्तु प्रभावकरिसके विरुद्ध कल्याणदिरस्तोत्रको 'पायनापहारिशिका के रूपमें व्यक्त किया है और साथ ही यह भी Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश लिखा है कि वीरकी द्वात्रिंशद्वात्रिशिका स्तुतिमें जब कोई चमत्कार देखनमें नहीं पाया तब यह पाश्र्धनाथद्वात्रिशिका रची गई है, जिसके ११वें पचसे नहीं किन्तु प्रथम पद्यसे ही चमत्कारका प्रारम्भ हो गया / ऐसी स्थितिमें पाश्वं. नाथद्वात्रिशिकाके रूप में जो कल्याणमन्दिरस्तोत्र रचा गया वह 32 पद्यों का कोई दुमरा ही होना चाहिगे, न कि वर्तमान कल्याणमन्दिरस्तोत्र, जिसकी रचना 44 पद्योंमें हुई है और इससे दोनो कुमुदचन्द्र भी भिन्न होने चाहिये। इसके मिवाय वर्तमान कल्याणामन्दिरम्तोत्रमे 'प्राग्भाग्मभृतनमामि रजामि रोपात्' इत्यादि तीन पद्य ऐसे हैं जो पाश्र्वनाथको देयकृत उपसगंसे युन प्रकट करते है, जो दिगम्बर-मान्यता अनुकून पोर म्वताम्बर मान्यताके प्रति. कूल है; क्योंकि श्वेताम्बरीय प्राचागग-नियुक्तिम वदमानको छोडकर शेष .: तीर्थक गेंके तप:कर्मको निम्पमग वग्गिन किया है / इममें भी प्रस्नुन बन्याणमन्दिर दिगम्बर कृति होनी चाहिये। प्रमुम्ब श्वेताम्बर विद्वान् प. मुखलालजी पोर प. बदामजीने ग्रन्थको गुजराती प्रस्तावना विविधनीयकम्पको छोटकर गांव प्रबन्धोंका मिन विषयक मार बहाई धमके माय दिया है और उमकिना हो परम्पर विराधी तथा मौलिक मतभेडको बानाका भी उल्लम्ब किया है, और माथ ही यह निएकप निकाला है कि सिद्धमेन दिवाकरका नाम पूनम कुमुदचन्द्र नहीं था, होताना दिवाकर-विशेषणकी तरह यह अतिप्रिय नाम भी किसी-न-... प्राचीन ग्रथ "इत्यादिश्री वीरद्वात्रिगात्रिशिका कृता / पर तम्मानाहक्ष चमत्कारमना लोक्य पश्चात् श्रीगश्वनाथद्वाविगिकामभिमन कल्याणमन्दिरस्तव वर्ष प्रयमश्लोके एव प्रासादस्थितान् शिबिगियापादिव लगाद धूमतिदनिष्टत / " नाटनकी हेम चन्द्राचार्य प्रथावली में प्रकाशित प्रबन्धकोग। + "सब्वेसि तवो कम्म निरुवमग वाभिमाय जिगणाग / नवरं तु वड्माणस्म मोवमग मुरणेयम्व / / 276 // * यह प्रस्तावना मन्पके गुजराती अनुवाद-भावार्थक माप सन् १९३०म प्रकाशित हुई है और ग्रंथका यह गुजराती सस्करण बादको पजीमे पनुवालि होकर 'सन्मतितकं' के नामसे सन् 1936 में प्रकाशित हुपा है। Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन में सिद्धसेनकी निश्चित कृति प्रथवा उसके उद्धृत वाक्योंके साथ जरूर उल्ले. खिन मिलता-प्रभावकचरितसे पहले के किसी भी ग्रंथमें इसका उल्लेख नहीं है और यह कि कल्यागामन्दिरको मिद्धमेनकी कृति सिद्ध करनेके लिये कोई निश्चित प्रमाण नही है.-~-वह मन्देहास्पद है।' ऐमी हालनमें कल्याणमन्दिरको बानको यहां छोड़ ही दिया जाता है। प्रकृत-विषयके निर्णयमें वह कोई विशेष माधक-बाधक भी नहीं है। प्रब रही दात्रिशददातिपिका, मन्मतिमूत्र और न्यायावतारकी बात / न्यायावतार एक 32 श्लोकोका प्रमागगनयविषयक लघग्रन्थ है, जिसके मादिग्रन्नमें कोई मंगलाचरण तथा प्रगम्ति नहीं है, जो आमतौरपर स्वेताम्बगनायं सिद्ध मेनदिवाकरको कृति माना जाता है और जिमपर व. सिद्धपि (मं० 662) की विनि पोर उम विवृतिपर दवभद्रकी टिप्पणी उपलब्ध है और ये दोनों टीकाएँ रास पोलवैद्यके द्वारा सम्पादित होकर मन 1928 में प्रकाशित हो चुकी है। मामनिमूत्र का परिचय कर दिया ही जानुका है। उमगर अभयदेवमूरिकी .' हजार इनोक-परिमागा जो मस्कृतटीका है. वह उन दोनों विद्वानोके द्वाग ममादित होकर मवन् 198: में प्रकाशित हो चुकी है। द्वात्रिंशद्वाविगिका 1.32 पोको 32 कनिया बननाई जारी है, जिनमे मे 21 उपलब्ध है। उपनन्ध द्वात्रिशिका भावनगरकी जनधमंप्रमारक मभाकी तरफमे विक्रम मंवत् 1965 में प्रकाशित हो चुमी है। ये जिम क्रम में प्रकाशित हुई है उमी क्रममे निमित हुई हो या उन्हें देखने में मादम नहीं होता-वे बादको किमी लेखक प्रथया पाटक-द्वारा उम क्रममे मद की प्रथवा कगई गई जान परती है। इस बातको सम्बलालजी पादिने भी प्रस्तावनामें व्यन किया है / माथ ही यह बसनाया है कि ये मभीविकिमि मेनने नदीक्षा स्वीकार करने के पीछे ही रवीमा नहीं कहा जा मकना, इनमेमे कितनी हीद त्रि. शिका (बत्तीमिया) उनके पूर्वाधम में भी रची हुई हो सकती हैं। और यह टकहै. परन्तु ये मभी द्वाविशिका नही मिद मेनकी रची हुई हों ऐमा भी नहीं कहा जा सकता मनाचे 21 वी द्वाधिशका विषयमें पं० मस्खलालजी पादिने प्रस्तावनामें यह स्पप स्वीकार भी किया है कि 'उसकी भाषारचना पौर वरिणत वस्तुको दूसरी बत्तीसियोंके माथ तुलना करने पर ऐसा मालूम Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 518 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश होता है कि वह बत्तीसी किसी जुरे ही मिद्ध सेनकी कृति है और चाहे जिस कारणसे दिवाकर (सिद्ध सेन) की मानी जानेवाली कृतियोंमें दाखिल होकर दिवाकरके नामपर चढ़ गई है।' इसे महावीरद्वात्रिशिका लिखा है-महावीर नामका इसमें उल्लेख भी है; जबकि और किसी द्वात्रिमिकामें 'महावीर' नामका उल्लेख नहीं है-प्राय: 'वीर' या 'वईमान' नामका ही उल्लेख पाया जाता है। इसकी पद्यसंख्या 33 है पोर 33 पद्यमें स्तुतिका माहात्म्य दिया हमा है; ये दोनों बातें दूसरी सभी द्वात्रिशिकायोंमे विलक्षण हे पोर उनमें इसके भिन्नकर्तृत्वको द्योतक है / इमपर टीका भी उपलब्ध है जब कि पोर किमी द्वात्रिशिकापर कोई टीका उपलब्ध नहीं है / चन्द्रप्रभमूरिने प्रभावकचरितम न्यायाबनारकी, जिमपर टीका उपलब्ध है. गगणना भी 32 द्वात्रिगिकामोमे की है एमा कहा जाता है; परन्तु प्रभावकरितमे वंमा कोई उल्लेख नहीं मिलता पोरन उमका समर्थन पूर्ववर्ती तया उनम्वर्ती प्रन्य किमी प्रबन्ध हो होना है। टीका कारोंने भी उसके द्वात्रिमदत्रिविकाका प्रग होने की कोई बात चित नहीं की. मोर इलिये न्यायावतार एक स्वतंय ही प्रय होना चाहिये नया मी माम प्रमिटिको भी प्राप्त है। २१वी द्वात्रिशिकाके अन्त में मिद्धमेन नाम भी लगा हपा है. जक वा द्वात्रिमिकाको छोडकर और किसी द्वाविधिकाम वह नही पाया जाता रहा सकता है कि ये नामवाली दाना द्वात्रियिका पपने ग्यापार में एक नहीं किया दो अलग अलग मिद्धमेनीस मानन्ध रखनी हो पोर शेर बिना नामवाली हात्रि शिकाएं इनमे भिन्न मरे ही मिद्धमेन प्रथवा मिद मेनोंकी कृतिय हो / मुखलालजी और पं. बनारदामजीने पहली पाच द्वाबिभिकानाको, जो न / भगवानको म्नुतिपरक है, एक ग्रप ( ममुदाय में रखा है पोर उम पूर (मात्र (r) यह द्वात्रिशिका अलग ही है ऐमा ताडपत्रीय प्रतिमे भी जाना 'जाता है, जिसमें 20 ही द्वात्रिशिकार किन है और उनके अनमें "प्रथा 80 मंगलमस्तु ' लिखा है, जो ग्रन्थको समाप्ति के माय उसकी इलोकमम्याका भी घोतक है। जैनग्रन्यावली (पृ. 281) में उल्लेखित तापत्रीयप्रतिमें भी / द्वात्रिशिकाएं हैं। Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन 511 शिकापंचक) का स्वामी समन्तभद्रके स्वयम्भूम्त्रोत्र के साथ साम्य घोषित करके तुलना करते हुए लिखा है कि 'स्वयम्भूस्तोत्रका प्रारम्भ जिस प्रकार स्वयम्भू शब्दमे हाता है और अन्तिम पद्य (143) में ग्रन्थकारने श्लेषरूपमे अपना नाम समन्तभद्र भूचित किया है उसी प्रकार इस द्वाविगिकापंचकका प्रारम्भ भी स्वयम्भू शम्से होता है और उनके अन्तिम पद्य ( 5, 32 ) में भी प्रन्यकारने श्लेषरूपमें अपना नाम मिटमेन दिया है।' इममे शेप 15 द्वात्रिशिकाएँ भिन्न ग्रप अथवा प्रपोंमे मम्बन्ध रखती है और उन में प्रथम ग्राको पद्धतिको न मपनाये जाने अथवा अन्नमें ग्रन्थकारका नामोल्लेख नक न होने के कारण वे दूसरे मिद्धमेन या मिद मेनोंकी कृतियां भी हो सकती है / उन मेमे ११वा किसी राजाकी म्नतिको लिा हप है, छटी नया पाठवी ममीक्षात्मक है पोर गंप बारह दार्शनिक तथा वस्तुस वाली है। इन मन द्वात्रिशिकागो के सम्बन्धमे यहां दो बाते प्रोर भी नोट किये जाने के योग्य है ..एक यह फिद्वत्रिनिका ( बनीमी) होने के कारण जब प्रत्येकको पद्यसंख्या 32 होनी चाहिये थी तब वह घट-बदर में पाई जाती है। 10 वामें दो पद्य तया 21 वीमें एक पच बहती है, और वीमे दह पद्यारी. ११वी में नारकी तथा १५वी में एक पार पटनी है / यह घट-बढ भावनगरको उक्त मुदित प्रतिमें ही नहीं पाई जाती व पूनाके भारदारकर मिट्यूट और कनकनाकी एशियाटिक मामाइटीकी हम्मालग्विन प्रतियोम भी पाई जाती है। रचना-गमयकी नो यह रट- प्रीतिका विषय नही-५० मुम्बलालजी ग्रादिने भी लिया है कि 'बद-पटकी यर घालमेन रनना के बाद ही किसी कारगम होनी चाहिये।मका एक कारण लेनकोको प्रगावधानी हो सकती है जग वो प्राप्रिमिकामें एक पराकी कमी था व पूना पोर बलवनाकी प्रतियोंग पूरी हो गई। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि किमाने प्रने प्रजनके वा यह घाममेल की हो / कुछ भी हो सर उन दाक्षिकाप्राक पूर्णरूपका नमझने पादिमें बाधा पर रही है. म ११वी नाकामे यह मालूम ही नहीं होता कि यह कोनमे रामाको स्मृति है, पोर इममें उसके रचयिता नथा रचना-कानको जानने में भारी बाण उपस्थित है। यह नही हो सकता कि किसी विशिष्ट राजाकी स्तुति की जाय और उममें उसका नाम तक भी न हो-दूसरी स्तुन्या Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकश स्मक द्वात्रिंशिकामोंमें स्तुत्यका नाम बराबर दिया हुअा है, फिर यही उसमे शून्य रही हो यह कैसे कहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता। अत: जरूरत इस बातकी है कि द्वात्रिशिका-विषयक प्राचीन प्रतियों की पूरी खोज की जाय / इससे अनुपलब्ध द्वात्रिशिकाएं भी यदि कोई होंगी तो उपलब्ध हो सकेंगी और उपलब्ध द्वात्रिशिकानोंसे वे प्रशुद्धियां भी दूर हो सकेंगी जिनके कारण उनका पठन-पाठन कठिन हो रहा है और जिसकी पं० सुखलालजी प्रादिको भी भारी शिकायत है। दूसरी बात यह कि द्वात्रिमिकामों को स्तुनियां कहा गया है और इनके अवतारका प्रसङ्ग भी स्तुनि-विषयका ही है। क्योंकि श्वेताम्बरीय प्रबन्धोके अनुमार विक्रमादित्य गजाकी पोरमे शिलिगको नमस्कार करनेका अनुरोध होनेपर जब सिद्धमेनाचार्य ने कहा कि यह देवता मेग नमस्कार महन करने में समर्थ नहीं है-मेरा नमस्कार महन करनेवाले दूसरे ही देवता है-तब राजाने कोतुकया. परिणामकी कोई पर्वाह न करने हा नमस्कार के लिये विशेष प्राग्रह किया। इमपर मिद्धमेन गिर्वानगके मामने प्रामन जमाकर बैट गये और उन्होंने अपने इष्टदेव की स्तुति उन्चम्बर प्रादिके माथ प्रारम्भ करदी: जमा कि निम्न वाक्यांम प्रकट है:* "मिद्धगणेगा पारद्धा बनीमियाहि जिणथुई' x x -(गद्यप्रबन्ध-कथावली) 'तम्मागयम्म तेग पारद्धा जिगणधुई मम माहि। बनीमाहि बत्तीमियाहि उद्दाममग ।।-(पराप्रबन्ध म०प्र० पृ० 56) न्यायावतारमूत्रं च श्रीवीरस्तुतिमायथ / द्वात्रिगच्छ लोकमानाच विगदन्या: स्तुनीरपि // 143 / / -प्रभावकग्न ये म-प्रणाममोढारस्ते देवा प्रपरे ननु / कि भावि प्रगम व द्राक् प्राह गजेति कोनुकी // 135 / / देवान्निजप्रणम्यांश्च दर्शय वं वदन्निति / भूपतिर्जल्पितस्तेनोत्पाते दोषो न मे ना / / 136 / / Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन "श्रुत्वेति पुनरासीनः शिवलिंगस्य स प्रभुः। उदाजह स्तुतिश्लोकान् तारस्वरकरम्तदा / / 138 / / -प्रभावकचरित तत: पद्मासनेन भूत्वा द्वात्रिशद्वात्रिशिकाभिदेवं स्तुतिमुपचक्रमे।" -विविधतीर्थकल्ल, प्रबन्धकोश परन्तु उपलब्ध 21 द्वात्रिनिकायों में स्तुतिपरक द्वाविशिकाएँ केवल सान ही है, जिनमें भी एक राजाकी स्तुति होनम देवताविषयक स्तुतियोंकी कोटिसे निकल जाती है और इस तरह छह द्वात्रिशिकाणे ही ऐमी रह जाती है जिनका श्रीवीरवदमानकी स्तुतिम सम्बन्ध है और जो उस अवसरपर उच्चरित कही जा सकती है-१४ द्वात्रिशकाए न तो स्तुति विषयक है, न उक्त प्रमगके योग्य है और इसलिये उनकी गणना उन द्वात्रिशिकाग्रीमे नहीं की जा मकती जिनकी रचना अथवा उच्चारणा सिद्धसेनन गिलिगके मामने बैठकर की थी। यहाँ इतना भोर भी जान लेना चाहिये कि प्रभावकारतके अनुसार स्तुतिका प्रारम्भ "प्रकागिनं स्वयं केन यथा सम्यग्जगत्यय / ' इत्यादि इलाकाम हुमा है. जिनमेंमे "नया हि" गन्दके माथ चार लोकोंको उद्धृत करके उनके + चागलोकग प्रकार हैंप्रकाशित वय केन यथा मम्यजगत्त्रयम् / ममम्मे नी नाय ! वग्नीयाधिस्तथा / / 136 / / विग्रोनयति वा लोक यधको पि निगाकरः / / समृगन: ममनोऽपि तथा कि तार कागगा: / / 140 / / डायपि पाविदोष इनि मद्धम् / भानामंगबर: कम्य नाम नालोकहेनवः / / 141 / / नो वादनमुलूकस्य प्रकृस्या क्लिष्टचेतसः / स्वमा पपि तमम्त्वेन भामन्ते भास्वतः करा: / / 142 / / लिखित पचप्रबन्धमे भी ये ही चारों श्लोक 'तस्मागयस्य तेरणं पारदा जिसपुई इत्यादि पके मनन्तर 'यषा' शम्द के साथ दिये है। -(म. प्र. पृ० 54 टि०५८) Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 522 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश मागे "इत्यादि' लिखा गया है / और फिर 'न्यायावतारमूवं च' इत्यादि श्लोकद्वारा 32 कृतियोंकी और सूचना की गई है. जिनमेमे एक न्यायावतारसूत्र, दूसरी श्रीवीरस्तुति और 30 बत्तीस-तीस श्लोकोंवाली दूसरी स्तुतियां है। प्रबन्धचिन्तामसिके अनुसार स्तुतिका प्रारम्भ "प्रशान्त दशेनं यस्य मवेभूनाऽभयप्रदम् / मांगल्यं च प्रशस्तं च शिवस्तेन विभाव्यते // " इस इलोकसे होता है, जिसके अनन्तर "इति द्वाविशददात्रिशिका कृता' लिखकर यह सूचित किया गया है कि वह दारिशद्वात्रिशिका स्तुनिका प्रथम श्लोक है। इस श्लोक तथा उक्त चारों इलाकोंगेसे किसी भी प्रस्तृत द्वात्रिशिकानोंका प्रारम्भ नही होता है, न ये इलोक किमी द्वात्रिविका में पाये जाते है और न इनके साहित्यका उपलब्ध प्रथम 20 द्वात्रिशिकाग्रीक साहित्यके साथ कोई मेल ही खाता है। मी हालतमें इन दोनों प्रबन्धों नया लिखित पद्यप्रबन्ध उल्लेम्बित द्वात्रिमिका स्तुतिया उपलब्ध त्रिमिकामा भिन्न कोई दूसरी ही होनी चाहिये। प्रभावकचरितके उन्लेम्बपरमे इसका ग्रा भी ममर्थन होना है; कोंकि उममे 'श्रीवीरस्तति' के बाद जिन 3. दात्रशिकानों को प्रत्या: स्तुती:' लिखा है वे धीवोरमे भिग्न दूमर हो नायकदिकी स्तुनियां जान पड़ती है और इमलिये उपलब्ध द्वात्रिमिकाप्राक प्रथम पर द्वात्रिशिकापञ्चकमें उनका समावेश नहीं किया जा सकता. भिमकी प्रोर द्वाविधिका श्रीवीगभगवानमे ही मम्बन्ध रखती है। उक्त नीनी प्रबन्धाक वाद बने इस विविधतीथंकल्प पोर प्रबन्धकोप ( चविशनिबन्ध) में न प्रारम्भ 'स्वयंभुवं भूतमहननेत्र' इत्यादि पथमे होता है. जो उपलप दापशिकानोंके प्रथम ग्रपका प्रथम पद्य है, हम देकर "न्यादि श्रीबीरदाधिःद्वात्रिशिका कृता" ऐसा लिखा है। यह 13 प्रबन्धगिगत त्रिशिराप्रोमा सम्बन्ध उपलब्ध द्वात्रिंगकामोंके माय जोड़ने के लिये बादको अपनाया गया मालूम होता है; क्योंकि एक नो पूर्व रचित प्रबन्धोंमे इसका कोई समर्थन नही होता, और उक्त तीनों प्रबन्धोंमे हमका स्पष्ट विरोध पाया जाता है। दूसरे, इन दोनों अन्यों में द्वात्रिंशद्वात्रिशिकाको एकमात्र श्रीवीरमे सम्बन्धित किया गया है और उसका विषय भी "देवं स्तोतुमुपचक्रमे" मन्दोंके द्वारा 'स्तृति' Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन 523 ही बतलाया गया है परन्तु उस स्तुतिको पढनेसे शिलिगका विस्फोट होकर उसमेंसे वीरभगवान की प्रतिमाका प्रादुर्भूत होना किसी ग्रन्थमे भी प्रकट नहीं किया गया-विविधतीथंकल्पका कर्ता मादिनाथकी और प्रबन्धकोषका कर्ता पार्श्वनाथकी प्रतिमाका प्रकट होना बतलाता है। और यह एक अमंगत-मी बात जान पड़नी है कि स्तृति तो किमी तीर्यकरकी की जाय और उन करने हए प्रतिमा किमी दूमरे हो नीर्थकरको प्रकट होवे / इस तरह भी उपलब्ध द्वात्रिशिकामोंमें उक्त 14 द्वात्रिनिका, जो स्तुतिविषय तथा वीरकी स्तुतिम मम्बन्ध नही रम्बनीं, प्रवन्धर्वागत द्वात्रिगि. कामोंमें परिगणित नहीं की जा सकती। पोर इमलिए 60 मुम्बलालजी तथा पं० चरदामजीका प्रम्नावनामें यह लिम्बना कि 'प्रातमें दिवाकर (मिद्धमेन) के जीवनवनान्नमें म्यात्मक बनीमियों (दात्रिनिकायों) को ही स्थान देने की जरूरत मालूम हाई प्रोर इनके माथमें मम्कन भाषा तया पा-मम्यामे ममानना रखने वाली परन्तु म्लन्यात्मक नहीं प्रेमी दुमरी धनी बनीमियाँ इनके जीवनवमानमें तयारमक नपि हीद बिन हो गई और पीछे किगीने हम हकीकत को देवा तथा खोना ही नही कि हो जाने वाली बनीय अथवा उपलब्ध सोम वनामियोमे कितनी पोर योन स्तृतिकर है प्रोर कोन कोन स्तुतिका नहीं है. पोर :म नगद सभी प्राघरा प्राचार्योको रोमी माटी भूल के शिकार बतलाना कम भी जोर लगने वाली बात मालूम नहीं होनो / मे उपलब्ध कापा मगन विटलाने या प्रयन्नमात्र ही कहा जा सकता है, जो निगमार हान म गनिन प्रतीत नहीं होना / द्वात्रिमिकामांकी हम मार्ग दान-पान परमे निम्न बा पालन होती है -- 1. द्वात्रिमिकाएं जिम कमने सपो हे उमी क्रमम निमित नहीं हुई है। 2. उपसम्म त्रिशिकाएं एक ही मित्रसेनके द्वाग निर्मित हई मालूम नहीं होती। 3. न्यायावतारकी गणना प्रायोसिम्बित द्वात्रिशिकामोंमें नही को जा सकती। Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 524 जेनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश 4. द्वात्रिंशिकामोंकी पसंख्यामें जो घट-बढ़ पाई जाती है वह रचनाके बाद हुई है और उसमें कुछ ऐसी घट-बढ़ भी शामिल है जो कि किमीके द्वारा जान बूझकर अपने किसी प्रयोजनके लिये की गई हो। ऐसी द्वात्रिशिकामोंका पूर्णरूप प्रभी प्रनिश्चित है / __5. उपलब्ध द्वात्रिशिकामोंका प्रबन्धोंमें वगित द्वात्रिगिकामोंके साथ, जो मब स्तुत्यात्मक है और प्राय: एक ही स्तुतिग्रन्थ 'द्वाविवात्रिशिका' की अंग जान पड़ती है, सम्बन्ध ठीक नहीं बैठता। दोनों एक दुमरेमे भिन्न तथा भिन्नकतुं क प्रतीत होती है। ऐमी हालतमे किमी द्वात्रिशिकाका कोई वाक्य यदि कही उद्धत मिलता है तो उसे उमी द्वात्रिशिका तथा उमफे कर्ना तक ही मीमित मममता चाहिये, शेष द्वात्रियिकापोमेमे किमी दूमरी द्वात्रिशिकाके विषय के माथ उसे जोडकर उसपर से कोई दूसरी बात उम वस. तक फनित न की जानी चाहिये जब तक कि यह माबित न कर दिया जाय कि वह मर्गशिका भी उसी द्वात्रिशिकाकारकी कृति है / अस्तु / अब देखना यह है कि इन द्वात्रिमिकाप्रो और न्यायावतार में कौन-सी ग्वना सन्मतिमूत्रके कर्ता मिद्धमेन प्राचार्य की कृति है प्रथवा हो सकती है ? इस विषयमें पं० मुखलालजी और प. बेचरदामजीने प्रपनी प्रम्नावनामें यह प्रतिपादन किया है कि * 1 वी द्वात्रिशिकाको छोडकर शेष 20 द्वात्रिशिकाएं न्यायावतार और मम्मनि ये सब एक ही मिद्धमेनकी कृतियां है पोर ये मिद्धसेन वे है जो उक्त श्वेताम्बरीय प्रबन्धोंके अनमार वृद्धवादीके शिष्य थे और 'दिवाकर' नामके माथ प्रमिति को प्राप्त है। दूसरे श्वेताम्बर विहानोका बिना किसी जांच-पड़तालके अनुमग्ण करने वाले कितने ही जनेतर विद्वानोंकी भी ऐमी ही मान्यता है और यह मान्यता ही उम मारी भूल-भ्रानिका मूल है जिसके कारण सिद्धमेन-विषयक जो भी परिचय-लेख प्रन तक लिखे गये थे सब प्राय: खिचड़ी बने हुए है. कितनी ही गलतफहमियोंको फैला रहे है और उनके द्वारा सिटमेनके समयादिकका ठीक निर्णय नहीं हो पाता। इमी मान्यताको लेकर विद्ववर पं० सुखलालजीकी स्थिति सिद्ध मेनके समय-सम्बन्ध Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 525 सन्मतिसूत्र और सिद्ध मेन में बराबर डावाहोल चली जाती है। अाप प्रम्नन सिद्ध मेनका समय कभी विक्रमकी छठी शताब्दीमे पूर्व 5 वी शताब्दी बतलाते हैं, कभी छठी शताब्दीका भी उत्तरवर्ती समय X कह डालते हैं. कभी सन्दिग्धरूपमें छठी या मानवीं शताब्दीनिदिष्ट करने हैं और कभी 5 वी तथा 6 ठी शता. ब्दीका मध्यवर्ती काल प्रतिपादन करते है / और बड़ी मजे की बात यह है कि जिन प्रबन्धों के प्राधारपर मिदमेनदिवाकरका परिचय दिया जाता है उनमें 'न्यायावतार' का नाम तो किमी तरह एक प्रबन्धम पाया भी जाता है परन्न सिटसनकी कृनिम् में सन्मतिमूत्रका कोई उल्लम्ब कही भी उपलब्ध नहीं होना / इतने पर भी प्रबन्ध-वग्गिन मिद्धमेनकी कृनिया में उम भी शामिल किया जाना है !! यह कितने प्राचार्य की बात है इसे विन पाठक स्वयं समझ सकते है। प्रत्यकी प्रस्तावनाम 50 मुम्बलालजी प्रादिन, यह प्रतिपादन करते हुए कि 'उक्त प्रबन्योन के द्वात्रिविका भी जिनमे किमीकी म्नति नही है और जो अन्य दर्शनो तया वरनके मन यो निगा नया ममालोचनको लिए डा है स्तुनिष्प में परिगणित है पोर र दिवाकर (मिद्धमेन) के जीवन में उनकी कृतिरूपमे स्थान मिला है,' गएक. पली' ही बनाया है जो म्वदर्शनका निम्पण करनेवाले और दामिकामाय न उतरनेवाले (नीचा दर्जा न रखनेबाने ) गन्मतिप्रकरण की दिवाकरक जीवनजनान्त और उनकी कृतियों में स्वान क्यों नहीं मिला / परन्न रम पहनीका कोई ममुचित हल प्रस्तुत नहीं किया गया, प्राय: इतना कहार ही मन्तोष धारण किया गया है कि सन्मानप्रकरण पर बनीग लोकपरिमाण होता तो वह प्राकृतभाषामे होते हा भी मन्मतिप्रकरण-प्रस्तावना पृ० 16, .6464 / * . x जानबिन्दु परिचय प० / मन्मतिप्रकरणके मजी सस्करणका फोरवर (Forword ) और भारती विद्यामें प्रकाशित 'श्रीसिद्धसेन दिवाकरना ममयनो प्रस्न' नामक लेख-भा० वि० तृतीय भाग 10 152 / + प्रतिभामूति सिरमेन दिवाकर' नामक लेख -मारतीयविद्या तृतीय भाग 10 11 / Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 526 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश दिवाकरके जीवनवृत्तान्तमें स्थान पाई हुई संस्कृत बत्तीसियों के साथ में परिगणित हुए बिना शायद ही रहता / ' पहेलीका यह हल कुछ भी महत्त्व नहीं रखता। प्रबन्धोंसे इसका कोई समर्थन नहीं होता और न इस बातका कोई पता ही चलता है कि उपलब्ध जो द्वात्रिशिकाएं स्तुत्यात्मक नहीं है वे सब दिवाकर मिद्धमेनके जीवनवृतान में दाखिल हो गई है और उन्हें भी उन्ही सिद्ध मेनकी कृतिरूपसे उनमें स्थान मिला है. जिसमे उक्त प्रतिपादनका ही समर्थन होताप्रबन्धरिणत जीवनवृत्तान्तमें उनका कहीं कोई उल्लेख ही नहीं है। एकमात्र प्रभावकचरितमें 'न्यायावतार' का जो असम्बद्ध, असथिन पोर प्रममजस उल्लेख मिलता है उसपरमे उसकी गणना उस द्वात्रिशद्वात्रिशिकाक अगरूपम नहीं की जा सकती जो सब जिन-सुतिपरक थी, वह एक जुदा ही म्वतन्त्र प्रथ है, जैसा कि ऊपर व्यक्त किया जा चुका है / पोर म-मतिप्रकरणका वनीम इलोकपरिमाण न होना भी मिद गनक जीवनवृतान्त मे सम्बद्ध कृतियोम उसके परिगणित होने के लिये कोई बाधक नहीं कहा जा सकना-खामकर उस हालतमे जबकि चवालीम पद्यमध्यावाले कल्याणमन्दिरस्तोत्रका उनकी कृतियोमे परिगणित किया गया है और प्रभावक चरितम इमं पद्यमस्याका मष्ट उल्लेम भी माथमें मौजूद है / वास्तवमे प्रबन्धोपरम यह मन्थ उन मिद्धपनदिवाकर की कृति मालूम ही नहीं होता, जो वृद्धवादीक शिष्य थे और जिन्हें पागम प्रायोका मस्कृत अनुवादित करने का अभिप्रायमात्र व्यक्त करनेपर पाक्षिकप्रायश्चितके पौ बारह वर्ग तक श्वेताम्बरमधमे बाहर रहनेका कठोर दर दिया जाना बनलाया जाता है। प्रस्तुत ग्रंथको उन्हीं मिद्ध मेनकी कृति बतलाना,यह सब बादकी कल्पन और योजना ही जान परनी है। पं० सुखलालजीने प्रस्तावनामें तथा अन्यत्र भी द्वात्रिशिकामों, न्यायावतार और मन्मतिसूत्रका एककर्तृत्व प्रतिपादन करने के लिये कोई खाम हेतु प्रस्तुत नही किया, जिससे इन सब कृतियोंको एक ही प्राचार्यकृत माना जा सके, ततश्चनुश्चत्वारिंशद्वृत्तां स्तुतिमा बगी। कल्याणमन्दिरेत्यादिविख्यातां जिनशासने // 14 // * - माविका प०१०१ / Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन 52. प्रस्तावनामें केवल इतना ही लिख दिया है कि 'इन सबके पीछे रहा हुमा प्रतिभाका समान तत्व ऐसा मानने के लिए ललचाता है कि ये सब कृतियां किसी एक ही प्रतिभाके फल है।' यह सब कोई समर्थ युक्तिवाद न होकर एक प्रकारसे अपनी मान्यताका प्रकाशनमात्र है; क्योकि इन सभी ग्रन्थोंपरसे प्रतिमाका ऐमा कोई समाधारण समान तत्व उपलब्ध नहीं होता जिसका अन्यत्र कही भी दर्शन न होता हो / स्वामी समन्तभद्रके मात्र स्वयम्भूम्तोत्र पौर प्राप्तमीमांसा ग्रन्थों के साथ इन ग्रन्थों की तुलना करते हुए स्वय प्रस्तावनालेखकोंने दोनोंमें 'पुष्कल साम्य' का होना स्वीकार किया है और दोनो प्राचार्योकी ग्रन्थनिर्माणादि-विषयक प्रतिभाका कितना ही चित्रण किया है / और भी प्रकलंकविद्यानन्दादि कितने ही प्राचार्य एम है जिनकी प्रतिभा इन ग्रन्थोके पीछे रहने. वाली प्रतिभासे कम नहीं है, तब प्रतिभाकी समानता एमी कोई बात नहीं रह जानी जिमकी अन्यत्र उपलब्धि न हो मके और इसलिये एकमात्र उसके आधारपर इन सब प्रत्योंको, जिनके प्रतिपादन में परस्पर कितनी ही विभिन्नताएँ पाई जाती है, एक ही पाचायंकृत नहीं कहा जा सकता। जान पड़ता है समानप्रतिभाक उक्त लालच मे पडकर ही बिना किमी गहरी जांच-पड़तालके इन सब ग्रन्थोको एक ही प्राचार्यकृत मान लिया गया है, अथवा किसी साम्प्रदायिक मान्यताको प्रश्रय दिया गया है जबनि वस्तुस्थिति बनी मालूम नहीं होती। गम्भीर गवेषग्गा पोर इन प्रत्याको पन्त परीक्षादिपम मुझे इस गानका पता चला है कि मम्मतिमूत्र कमिटमेन पनेफ द्वात्रिमिकाप्रोके कर्मा मिद्धमेनमे भिन्न है / यदि २१वा वात्रशिकाको ठोसर शेष 20 त्रिशिकाएं एक ही सिद्धमेनकी कृतियां हों तो वे उनमे किमी भी द्वात्रिमिकाके कर्ता नहीं हैं. अन्यथा द्वात्रिशिकायोके कर्ता हो सकते है / न्यायावतार के कर्ता मिद्धमेनकी भी ऐसी ही स्थिति है सम्मतिमूत्र के कर्ता मिटमेनमे जहां भिन्न है वहा कुछ त्रिशिकामोंके कर्ता सिटमेनसे भी भिन्न है और उक्त 20 द्वात्रि शिकाएं यदि एकमे अधिक सिरसेनोंकी कृतियो हों तो वे उनसे कुछके कर्ता हो सकते है, अन्यथा किसी भी कर्ता नहीं बन सकते / इस तरह सन्मतिबके कर्ता, न्यायावतारके कर्ता और कतिपय हाधिभिकामोंके कर्ता तीन सिङसेन अलग अलग है-- शेष नात्रिशिकायोंके का इन्हीमेसे कोई एक या दो अथवा तीनों हो सकते Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 528 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश हैं मोर यह भी हो सकता है कि किसी दावि शिकाके कर्ता इन तीनोसे भिन्न कोई अन्य ही हों। इन तीनों सिद्ध सेनाका पस्तित्वकाल एक दूसरेसे भिन्न अथवा कुछ अन्तरालको लिये हुए है और उनमें प्रयम सिट सेन कतिपय द्वात्रिशिकामोंके कर्ता, द्वितीय सिद्ध मेन सन्मतिमूत्रके कर्ता और तृतीय मिड मेन न्यायावतारके कर्ता है / नीचे अपने अनुसन्धान-विषयक इन्ही सब बातोंको मक्षेपमें स्पष्ट करके बतलाया जाता है : (1) सन्मनिमूत्रके द्वितीय कापरमे केवलीके ज्ञान-दर्शन-उपयोगांको क्रमवादिता और युगपट्टादिताम दांप दिखाते हुए प्रभदवादिता प्रथवा एकोपयागवादिताका स्थापन किया है। माथ ही, ज्ञानावरण और दर्शनावरणका युगपत क्षय मानते हुए भी यह बतलाया है कि दो उपयोग एक माथ कही नही हात और केवलीमे वे क्रमशः भी नहीं होते। इन ज्ञान और दर्शन उपयोगोका भेद मन:पयं यज्ञान पयंन्त अथवा अस्थावस्था तक ही चलता है, केवलज्ञान हाजानेपर दोनों में कोई भेद नही रहना--नब मान कहो पथवा दमन एक है। बात है. दोनोंमें कोई विषय-भेद चरितार्थ नहीं होता / इमक लिए प्रयवा आगमग्रन्थोंमे अपने इस कथनकी मङ्गनि बिउलान के दिनकी 'प्रविशंपरहित निगकार सामान्यग्रहणरूप' जो परिभाषा है उसे भी बदल कर रखा है अर्थात् यह प्रतिपादन किया है कि मस्पृष्ट तथा प्रविषयम्प पदार्थम अनुमानजानको छोड़कर जो ज्ञान होता है वह दर्शन है। इस विषयमे सम्बन्ध रखनेवाली कुछ गाथा नमूने के तौर पर इस प्रकार है मणपज्जवणाणं ती गणाणम्स दरिसाम्स य विममी। केवलणाणं पुग्ण दमण नि गाणं ति य समारणं / / 3 / / कई भणंति 'जच्या जागा नया ण पासा जिणी' ति। सुनमवलंबमाणा तित्थ यरामायणाभीरू // 4 // केवलणाणावरणस्वयजाय केवल जहा गाणं। तह दंसरणं पि जुनाणियावरणस्वयम्सते // 5 // सुत्तम्मि चेव 'साइ अपजयसियंति केवल वृत्तं / सुत्तासायणभीरूहि त च ददुश्वयं सह // // Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन 50 संतम्मि केवल दसम्म रणायाम्म संभवा गस्थि / केवलणागम्मि य इमाणम्स तम्हा महिणाई // 8 // दसणणाणावरणखए ममाग्गम्मि कम्म पुठ्य पर। होउन ममं उपाश्री हंदि दुवं गाथि उवोगा / / || अण्णायं पामंता अद्धिच अरहा वियागना। कि जाण किं पामइ कह मन्चरण नि वा होइ / / 13 / / गाण अप्पुढे अविमा य अम्मि दमणं हाइ / मोत्तमा लिंगी जं अगागयाई विमाएमु / / 5 / / जं प्रापर्ट भाव जागाइ पामह य कंवला गाथमा। तम्हा न गाणं दंमग न अविममा मिद्धा / / 3 / / नीम मनमनिमय के कना किमान अभेद वादक परमया माने जाते है / टीकाकार अभदवार पोर नाबन्दुक का आध्यान यमाविजयन नामा ही प्रादन किया है / नविन्द नायक मन्मत-माया योनी व्यान्या करना उनकम वादका नाममना रहन-मन: सिद्धमनको यादीही मुझचन प्रथा उपना नया मानस नाव ? / जान बन्दका परिचयात्मक प्रमावना पादिमे म. गबनाननीन भी होगा की / (1) पानी. दुमरी र पारः गदाद मान्यताको लिये दुप. जगा कि निम्न बायाम हैक.-जगन्ने कायम्य युगपत खिलानिन्नविषय गहना प्रत्यक्ष नव न च भयान कस्यचिदपि / अनेनेवाऽनित्य-प्रकृति रम-सिद्धम्न विदपां ममोहयतवार नव गुण वयं का वयमपि / / - / / व - नानि विविरममि नवम्याम नायवेत्सी मजातवानाम न तेऽच्युत : वंदामस्ति / त्रैकाल्य-नित्य-विपमं युगपच्च विश्व पश्यस्यचिन्त्य-चरिताय नमोऽस्तु तुभ्यम् // 2.30 // ग-अनन्त मेक युगपन त्रिकाल शन्दादिभिनिप्रति घातनि / / 5-2|| Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 530 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश दुरापमाप्तं यदचिन्त्य-भूति-ज्ञान त्यया जन्म-जराऽन्तक / तेनाऽसि लोकानभिभूय सर्वान्सर्वज्ञ ! लोकोत्तमतामुपेतः।।५-२२।। इन पद्योंमें ज्ञान और दर्शनके जो भी त्रिकालवर्ती अनन्त विषय हैं उन सबको युगपत् जानते-देखने की बात कही गई है अर्थात् त्रिकालगत विश्वके सभी साकार-निराकार, व्यक्त-अव्यक्त, सूक्ष्म-स्थूल, दृष्ट-प्रदृष्ट, जात-अज्ञात, व्यवहितप्रव्यवहित प्रादि पदार्थ अपनी-अपनी अनेक-मनन्त प्रवस्थानों अथवा पर्यायोंसहित वीरभगवान्के युगपत् प्रत्यक्ष हैं, ऐमा प्रतिपादन किया गया है। यहां प्रयुक्त हुपा 'युगपत्' शब्द अपनी खास विशेषता रखता है और वह ज्ञान-दर्शनके योगपद्यका उसी प्रकार द्योतक है जिस प्रकार स्वामी समन्तभद्रप्रणीत पासमीमांसा ( देवागम )के तत्त्वज्ञानं प्रमाग ते युगपत्सवंभासनम्' (का० 101) इम वाक्यमें प्रयुक्त हुअा 'युगपन्' शब्द, जिसे ध्यान में लेकर पोर पादटिप्पणीम पूरी कारिकाको उद्धृत करते हुए प० मुखलालजीने ज्ञान बिन्दुके परिचयमे लिखा है-दिगम्बराचार्य ममन्तभद्र ने भी अपनी 'प्राप्तमीमामा में एकमात्र योगपद्यपक्षका उल्लेख किया है।' माथ ही, यह भी बताया है कि "भट्ट प्रकलङ्कन इम कारिकागत प्रपनी 'अष्टशनी' व्याख्या में योगपद्य पक्षका स्थापन करते हुए कमिक पक्षका, सक्षेपमं पर स्पटपमे, वण्डन किया है, जिसे पादटिप्पणी में निम्न प्रकारसे उधृत किया है: "तज्ज्ञान-दर्शनयोः क्रमवृत्ती हि सर्वज्ञत्वं कादाचित्कं म्यान / कुन. स्तत्सिद्धिरिति चन सामान्य-विशेष-विपययाविंगतावरगायोरयुगपत्प्रनिभासायोगान प्रतिवन्धकान्तराऽभावान / ' ऐसी हालतमें इन नीन द्वात्रिगिकामोके कर्ता वे सिद्धमेन प्रनीत नहीं होने जो सन्मतिमूत्रके कर्ता और प्रभेदवादके प्रस्थापक प्रयवा पुरस्कर्ता है, बल्कि ये सिद्धमेन जान पड़ते है जो केवलोके जान और दर्शनका युगपत् होना मानते थे। ऐसे एक युगपद्वादी मिड मेनका उल्लेख विक्रमकी ८त्री.वी शताब्दीके विद्वान् प्राचार्य हरिभद्रने अपनी 'नन्दीवृत्ति' में किया है / नन्दीवृत्तिमें 'केई भगानि जुगवं जाणइ पासइ य केवली नियमा' इत्यादि दो गाथामोको उद्धृत करके. जो कि जिन भद्रक्षमाश्रमणके विशेषणवती' प्रत्यकी है, उनकी व्याख्या करते हुए लिखा है Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन 531 ___"केचन सिद्धसेनाचार्यादयः भरणंति, किं ? 'युगपद्' एकस्मिन्नेव काले जानाति पश्यति च, कः ? केवली, न त्वन्यः, नियमान् नियमेन / " नन्दीसूत्रके ऊपर मलयगिरिसूरिने जो टोका लिखी है उसमें उन्होंने भी युगपद्वादका पुरस्कर्ता सिद्धसेनाचार्यको बतलाया है / परन्तु उपाध्याय यशो. विजयने, जिन्होंने सिद्धसेनको प्रभेदवादका पुरस्कर्ता बतलाया है, ज्ञानबिन्दु में यह प्रकट किया है कि 'नन्दीवृत्तिमें मिद्ध सेनाचार्यका जो युगपत् उपयोगवादित्व कहा गया है वह अभ्युपगमवाद के अभिप्रायने है, न कि स्वतन्त्र सिद्धान्नके अभिप्रायमे; क्योंकि कमोपयोग और प्रक्रम ( युगपत् ) उपयोगके पर्यनुयोगाऽनन्तर ही उन्होंने मन्मतिमें अपने पक्षका उद्भावन किया है. +', जो कि ठीक नहीं है। मालूम होता है उपाध्यायजी की दृष्टि मे सन्मतिक कर्ता मिद्धमेन ही एकमात्र सिद्ध मेनाचार्य के रुपमे रहे हैं और इमोसे उन्होंने सिद्ध येन-विषयक दो विभिन्न वादोंके कथनों में उत्पन्न हुई प्रमङ्गतिको दूर करने का यह प्रयत्न किया है, जो ठीक नहीं है। चुनांच प०मुम्बलाल जीने उपाध्याय जीके इस कथनको कोई महत्त्व न देते हुए और हभिर जैसे बहुश्रुत प्राचार्य के इस प्राचीनतम उल्लेख की महत्ताका अनुभव करते हु / ज्ञानबिन्दुक परिचय (प.६०) मे अन्तको पह लिखा है कि "समान नामवाले प्रनेक प्राचार्य होने प्राण है / इसलिये असम्भव नहीं कि सिद्धसेनदिवाकरमे भिन्न कोई दूसरे भी सिद्ध मन हुए हों जो कि! युगपद्वादक समर्थक हुए हो या माने जाते हों।' वे दूसरे मिद्ध सेन अन्य कोई नही, उक्त तीनों द्वात्रिनिकायों में से किमीक भी कर्ता होन चाहियं / अत: इन तीनों द्वात्रिशिकायोको सन्मतिमूत्रके कर्ता मावार्य मिद्धमेनकी जो कृनि माना जाता है वह ठीक और सगत प्रतीत नहीं होना / इनके कर्ता दूसरे ही मिद्धमेन है जो केवली के विषय मे युगपद्-उपयोगवादी पे और जिनकी युगपद-उपयोगवादिताका समर्थन हरिभद्राचार्य के उक्त प्राचीन उल्लेखमे भी होता है। ."यतु युगपदुपयोगवादित्वं सिद्ध मेनाचार्यागां नन्दिवृत्तावुक्त तदम्युपगमवादाभिप्रायेगा, न तु स्वतन्त्र सिद्धान्ताभिप्रायेण, क्रमाऽक्रमोपयोगदयपर्यनुयोगानन्तरमेव स्वपक्षस्य सम्मती उद्भावितत्वादिति दृष्टव्यम् / " - ज्ञानबिन्दु 10 33 / Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 532 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश (3) १६वीं निश्चयद्वात्रिशिकामें 'सर्वोपयोग-द्वविध्यमनेनोक्तमनक्षरम्' इस वाक्यके द्वारा यह सूचित किया गया है कि 'सब जीवोंके उपयोगका द्वं विध्य मविनश्वर है / ' अर्थात् कोई भी जीव संमारी हो अथवा मुक्त, छयस्थज्ञानी हो या केवली सभीके ज्ञान और दर्शन दोनों प्रकारके उपयोगोंका मत्व होता है-यह दूसरी बात है कि एक में वे क्रमले प्रवृत(चरितार्थ)होते हैं और दूसरे में प्रावरण.भावके कारण युगपत् / इससे उम एकोपयोगवादका विरोध प्राता है जिसका प्रतिपादन सन्मतिसूत्र में केवलीको लक्ष्यमे लेकर किया गया है और जिसे अभेदवाद भी कहा जाता है / ऐसी स्थितिमे यह १६वीं द्वात्रिगिका भी सन्मतिसूत्रक कर्ता सिद्ध मेनकी कृति मालूम नही होती। (4) उक्त निश्चयहात्रि शिका(१६)में श्रुनजानको मतिज्ञानमे अलग नहीं माना है-निग्वा है कि मतिज्ञानमे अधिक अथवा भिन्न श्रुतज्ञान कुछ नही है,श्रुतज्ञानको अलग मानना व्यर्य तथा प्रतिप्रगङ्ग दोषको लिये हा है / और इस तरह अवधिज्ञानमे भिन्न मनः पर्य यज्ञान की मान्यताका भी निषेध किया है.-लिखा है कि या तो द्वीन्द्रियादिक जीवों के भी. जो कि प्रार्थना और प्रतिघातके कारण चेष्टा करते हुए देखे जाते हैं .मन पर्ययविज्ञानका मानना युक्त होगा अन्यथा मन:पर्य यज्ञान कोई जुदी वस्तु नही है। इन दोनों मन्नव्योंके प्रतिपादक वाक्य इम प्रकार है: 'वैयाऽतिप्रसंगाया न म यधिक श्रनम् / मर्वेभ्यः केवलं चतुम्तमःक्रम विककृत / / 17 / / " "प्रार्थना-प्रतिघानाम्यां चपन्तद्वीन्द्रियाद य:। मनःपर्यायविज्ञानं युक्तं तप न वाऽन्यथा // 17 // " यह मव कथन मन्मतिमूत्रके विरुद्ध है: क्योकि उसमें अनजान और मन पयंयज्ञान दोनोंको अलग ज्ञानोके गम म्पष्ट रूपमं स्वीकार किया गया है-जंगा कि उसके द्वितीय काण्डगत निम्न वाक्योंसे प्रकट है --- "मणपज्जवणाणंता गाशाम्म यदरिसरणम्म य पिमेमा // 3 // "जेण मणोविसयगयागा दमणं रणथि दबजायागं / तृतीयकाण्डमें भी भागमथुतज्ञानको प्रमाणरूपमें स्वीकार किया है। Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन तो मणपउजवणाणं णियमा णाणं तु णिहिट्ठं / / 16 / / " "मणपजजवणाणं दसणं ति तेणेह होइ ण य जुत्तं / भएणइ णाणं गाइदियम्मि ण घडादा जम्हा रा" "मइ-सुय-रणाणिमित्ता छदमाथे हाइ अत्थ उचलंभो। एगयरम्मि वि तेमि रण इंसां दसगणं कत्तो ? ||27|| जं पच्चखगहणं णं इंति मयगागा-मम्मिया अत्था / तम्हा दंमाग मह। गा हाइ सयले वि सुयणाणे // 28 // ऐसी हालतमें यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि निश्चयद्वात्रिगिका (16) उन्ही मिद्धमेनाचार्य की कृति नहीं है जो कि ममनिमूत्रके कर्ता है-दोनोंके कर्ता सिद्धमेननामकी ममानताको धारण करने हा भी एक दूसरेमे एकदम भिन्न हैं / माय हो, यह कहने में भी कोर्ट मकोच नहीं होता कि न्यायावतारके कर्ता सिद्धमेन भी निश्चयात्रिशिका काम भिन्न है; क्योकि उन्होंने श्रुतनानके भेदको स्पष्ट रूप में माना है और उसे अपने अन्य में गब्दप्रमाग अथवा प्रागम (धन-शास्त्र) प्रमाग में रखवा है, जैसा कि न्यायावतारके निम्न वाक्योंसे प्रकट हे : "इप्टेप्टाऽव्याहताद्वाक्यापरमार्थाऽभिधायिनः / तत्व-प्राहिन यात्पन्नं भानं शादं प्रकीर्तितम / / / / ॐ पानापन मनुल्लव्यमहष्ट-विरोधकम् / तत्वोपदेशकामा शास्त्र कापथ-बट्टनम् / / 3 / / " "नयानामेकनिष्ठानां प्रवृत्त: श्नवत्मनि। सम्पूर्णावविनिश्चायि स्याद्वादश्रुतमुच्यते // 30 // " इम मम्बन्धमें पं० मुख लालजीने ज्ञानबिन्दकी परिचयात्मक प्रस्तावनामें, यह बतलाते हुए कि निश्चयद्वात्रिशिका के कर्ता मिद्धनने मति और थ तमें ही नहीं किन्तु प्रवधि और मन: पर्याय में भी प्रागमिद्ध भेद-रेखाके विरुद्ध तर्क ॐ यह पद्य मूलमें स्वामी समन्तभद्रकृत रत्नकरण्ड (समीचीनधर्मशास्त्र)का है. वहीसे उद्धत किया गया है / Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 534 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश करके उसे अमान्य किया है। एक फुटनोट-द्वारा जो कुछ कहा है वह इस प्रकार है: 'यद्यपि दिवाकरश्री (मिद्धमेन) ने अपनी बत्तीसी (निश्चय० 16) में मति भोर श्रुतके पभेदको स्थापित किया है फिर भी उन्होंने चिरप्रचलित मति. श्रुनके भेदकी मर्वया अवगणना नहीं की है। उन्होंने न्यायवतार में पागमप्रमाणको स्वतन्त्र रूपसे निर्दिष्ट किया है। जान पड़ता है इस जगह दिवाकर श्रीने प्राचीन परम्पराका अनुसरण किया पौर उक्त बत्तीमी प्रपना सनत्र मत व्यक्त किया। इस तरह दिवाकर श्री के ग्रन्यों में प्रागमप्रमागको स्वतन्त्र अतिरिक्त मानने पोर न माननेवाली दोनों दर्शनान्तरीय धागा देम्बी जानी है जिनका म्बीकार ज्ञानविन्दुमें उपाध्यायजीने भी किया है।" (108) इम फुटनोटमे जो बान निश्चयाविधिका पोर न्यायाय नारके मनिषाविषयक विरोधके ममन्वयमें कही गई है वही उनकी तरफ निम्बयद्वत्रिवि / और मन्मनिक गघिमनापर्यय-विषयक विरोध ममय में भी कही जागा है और ममझनी चाहिये / परन्तु यर मर कथन एकमात्र नो अन्योकी कर. मुंव-मान्यतापर प्रवम्बिा है, जिसका माम्प्रदायिक मानाकारगर कोई भी प्रबल प्राधार नही है पोर मनिये जवना मा. पायाचना और मम्मतिमात्र तीनों को एक ही मिटमेनकन मि न कर दिया जाय दर इम कथनका कुछ भी मूल्य नही है / नाना पाका मन्य पभी ना. मि.: नही है। प्रन्युन इमक द्वात्रिमिका और अन्य ग्रन्पोंके पर विरोधी कायम कारण उनका विभिप्रकक होना पाया जामा)। जान पता है 60 सम्मन्न 2. जीके हृदय में यहाँ विभित्र गिद्धमनीको वनाही उगान नही पोर लिये वे उन ममन्वयको कल्पना करने में नहा है. पाठीक नही।. या मन्मति के कर्ता मिद मेन में बनात विचार नियतिका. .. होते तो उनके निये कोई वजह नही थी कि अन्य प्रभिन अपन बना। विचारों को खाकर दूसरे प्रत्यमे पाने वाड पर विचागेका पनगम करते, बामकर उम हालत में अमिमनिमें उपयोग-मयपी युगादा: की प्राचीन-परम्पराका बन करके अपने पदया-विषयक नये म्यतर विचारोंको प्रकट करने हा देखे जाने है-वहीगर वे धनमान और मन:पयंय - Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्र और मिद्धमेन 535 ज्ञान-विषयक अपने उन स्वतन्त्र विचारों को भी प्रकट कर सकते थे, जिनके निये ज्ञानोपयोगका प्रकरण होने के कारण वह स्थल (मन्मतिका द्वितीय काण्ड) उपयुक्त भी था; परन्तु वैसा न करके उन्होंने वहां उन द्वात्रिशिकाके विरुद्ध अपने विचारोंको रक्या है और इनिये उमसम्म यही फलित होता है कि वे उक्त द्वात्रिमिकाके कर्ता नहीं है ---उम के कर्ता काई दूमर ही मिद्धमेन होने चाहिये। उगाय यगोविजयजी ने विलिकाका पायावतार प्रौर मन्मनिके माय जो उन विगंध वैठना है. उसके गम्वन्धमे कुछ भी नहीं कहा। यही इतना प्रौर भी जान लेना चाहिये कि धनको घमान्यनारूप इन प्रावियिकाके कथनका विरोध न्यायावतार और मम्मनिक माय ही नहीं है बल्कि प्रयम दविमिकाके साथ भी है. जिसके. 'मनिनन न. टन्यादि ३०वे पचमें ‘जगारमाण जिनवावविध प:' जर गदादाग प्रवचनम्प धनको प्रमाण माना गया है / () निम्न पदात्रिकाको दो वन पोर भी पहा प्रकट कर देने की है, जो मन्मतिक माय पत्र विगे रखती है मोर वे निम्न प्रकार है: --- "झान-दर्शन-चारित्राग युपायाः शिवह नवः / अन्याऽस्य-प्रनिपतवान्द्रद्वावगम-शनयः ।।दा इम प में जान, दान नया चारित्रको मोक्ष-हेमोके मरमे तीन उपाय (मार्ग) बनलाया है-नीनोक मिनाकर मोक्षका एक उपाय निर्दिष्ट नहीं किया; जमा कि तन्वाधमत्रक प्रथममप मे मोक्षमाग ' म एकवचनामक परके प्रयोगबाग किया गया है। पर ये तीनो यही ममम्ता में नही किन्न पान (अलग अलग) में मोसो मागं निर्दिष्ट का है ग्रोर उसे एक दमरे के प्रतिपक्षी निबा है / माय ही नीनों मम्गक विशेगन्ध है पोर दगंन को ज्ञानकं पूर्व न रखकर उसके प्रनन्तर रखा गया है, जो कि ममूना शिकार प्रदान प्रर्थका वाचक भी प्रतीत नहीं होता। यह मब कयन मन्मनिमने निम्न वाक्योंके विध जाता है, जिनमें मम्मम्मान-शान चारित्रको प्रतिनिमे मारत भव्यजीवको मारके दुःखों का मनकाम्पमे उन्न त किया है पीर कयनको हेनुबादमम्मत बतलाया है ( 3-4 . ) तथा दन गन्दका प्रथं जिनगीत पदार्थोंका श्रदान ग्रहण किया है। माय हो सम्यग्दर्शनके उतरवर्ती सम्यग्नानको सम्यग्दर्शन Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 536 . जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश से युक्त बतलाते हुए वह इस तरह सम्यग्दर्शनरूप भी है, ऐसा प्रतिपादन किया है (2-32, 33 ): "एवं जिणपण्णत्ते सद्दहमाणस्स भावओ भावे / पुरिसस्साभिणिबोहे दसणसहो हवाइ जुत्ता / / 2-32 / / सम्मण्णाणे णियमेण दसगं दसणे उ भयणिज्ज / सम्मएगणाणं च इमं ति अत्थी हाइ उववरणं / / 2-33 // " "भविश्रो सम्मइंसण-कारण-चरित्त-पडियत्ति-संपएणो / णियमा दक्खंतकडो त्ति लक्खणं हे उवायरस / / 3-54 // " निश्चयात्रिशिकाका यह कथन दूसरी कुछ द्वात्रिशिकानोंके भी विरुद्ध पड़ता है, जिसके दो नमूने इस प्रकार है"क्रियां च संज्ञान-वियोग-निष्फलां क्रिया-विहीनां च विवोधमपदम् / निरभ्यता क्लेश-ममूह-शान्तये त्वया शिवायालिखितव पद्धतिः।।१-२६|| "यथाऽगद-परिज्ञानं नालमाऽऽमय-शान्तये। प्रचारित्रं तथा ज्ञानं न बुद्ध्यध्य(व्य)वमायतः // 17-2 // " इनमें पहली द्वात्रिशिकाके उद्धरामे यह मूचित किया है कि 'वीरजिनेन्द्रने सम्यग्जानमे रहिन क्रिया (चारित्र) को और किपासे विहीन सम्यग्ज्ञानकी मम्पदाको क्लेशममूहको शान्ति अथवा गिवप्राप्तिके लिये निष्फल एवं असमर्थ बतलाया है और इसलिये ऐसी क्रिया तथा ज्ञानसम्बदाका निषेध करते हुए ही उन्होंने मोक्षपद्धतिका निर्माण किया है।' और १७वी द्वात्रिशिकाके उद्धरणमें बनलाया है कि 'जिस प्रकार रोगनाशक औषधिका परिज्ञानमात्र रोगको शान्तिकं लिये समर्थ नहीं होता उसी प्रकार चारिवरहितज्ञानको समझना चाहिए.- वह भी अकेला भवरोगको शान्त करने में ममर्थ नही है। ऐसी हालत में ज्ञान, दर्शन और चारित्रको अलग-अलग मोक्षकी प्राप्तिका उपाय बतलाना इन द्वात्रिनिकायोंके भी विरुद्र ठहरता है। "प्रयोग-विसमाकर्म तदभावस्थितिस्तथा / लोकानुभाववृत्तान्तः किं धर्माऽधर्मयोः फलम् / / 16-24 / / Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन 537 आकाशमवगाहाय तदनन्या दिगन्यथा / तावप्येवमनुच्छेदात्ताभ्यां वाऽन्यमुदाहृतन // 16-25 / / प्रकाशवदानिष्टं स्यात्साध्ये नार्थम्तु न श्रमः / जीव-पुद्गलयोरेव परिशुद्धः परिग्रहः / / 16-26 // " इन पद्योमें द्रव्योंकी चर्चा करते हुए धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्योंकी मान्यताको निरर्थक ठहराया है तथा जीव और पुद्गलका ही परिशुद्ध परिग्रह करना चाहिए अर्थात् इन्ही दो द्रव्योंको मानना चाहिए, प्रेमी प्रेरणा की है / यह मब कथन भी मन्मतिमूत्रके विरुद्ध है; क्योकि उसके तृतीय काण्ड हव्यगत उत्पाद तथा व्यय (नाग)के प्रकारांको बतलाते हुए उत्पादके जो प्रयोगजनित (प्रयन्त जन्य) तथा वैनसिक ( स्वाभाविक ) ऐसे दो भेद किये है उनमें वैनसिक उत्पाद के भी समुदायकृत तथा ऐकत्विक ऐमे दो भेद निर्दिष्ट किये हैं और फिर यह बतलाया है कि एकत्विक उत्पाद प्राकामादिक तीन द्रव्यों ( प्राकाग, धर्म, अधमं ) में पनिमित्तम होता है और इसलिये अनियमित होता है / नाशकी भी ऐसी ही विधि बतलाई है / इमसे सन्मतिकार मिद्धमेनकी इन तीन ग्रमूर्तिक द्रव्योंके, जो कि एक एक है अस्तित्व-विषयमें मान्यता स्पष्ट है / यथा "प्पाश्रा वियप्पा पागज शिणी य विस्समा चेव / नन्थ उ पागजगिश्रो समुदयवायो अपरिसुद्धा / / 3 / / माभाविप्रो वि समुदयको व्य एगत्तिओ व्व हो जाहि / आगासाईप्राणं तिराह परपञ्चोऽणियमा / / 33 / / विगमम्म वि एम विही ममुदय जनियम्मि सो उ वियप्यो। समुदयविभागमेत्तं अत्यंतरभावगमणं च // 34 // " इस न ह यह निश्चयद्वात्रिशिका कतिपय द्वात्रिशिकानों, न्यायावतार और सन्मतिके विरुद्ध प्रतिपादनोंको लिए हए है। सन्मतिके विरुद्ध तो वह सबसे अधिक जान पड़ती है और इसलिये किसी तरह भी सन्मतिकार सिद्धसेनकी कृति नही कही जा सकती। यही एक द्वात्रिशिका ऐमी है जिसके अन्त में उसके कर्ता Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 538 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश सिद्ध सेनाचार्यको अनेक प्रतियोंमें श्वेतपट (श्वेताम्बर) विशेषणके साथ 'दुष्य' विशेषरणमे भी उल्लेखित किया गया है, जिसका अर्थ द्वषयोग्य, विरोधी अथवा शत्रुका होता है और यह विशेषण मम्भवतः प्रसिद्ध जैन मैद्धान्तिक मान्यनामोंके विरोधके कारण ही उन्हे अपनी ही मम्प्रदायके किसी प्रमाहिष्णु विद्वान् - द्वारा दिया गया जान पड़ता है। जिस पिकावावपके साथ हम विशेषण पदका प्रयोग किया गया है वह भाण्डारकर इन्स्टिटयूट पूना और नियाटिक सामाइटी बङ्गाल (कलकता) की प्रतियों में निम्न प्रकारमे पाया जाता है:'द्वेष्य-श्वेतपट मिद्धमेनाचार्यस्य कृनिः निश्चय द्वात्रिशिकैकोनविंशतिः / " दूसरी किसी द्वात्रिशिका अन्न में ऐमा कोई पुषिकावाक्य नहीं है। पूर्वको 18 और उनरवर्ती 1 मे 16 द्वात्रिशिकामों के अन्नमें तो क का नाम तक भी नहीं दिया है-द्वात्रिशिका की मम्यामूना एक पंक्ति पनि' शब्द पुक्त अथवा वियुक्त प्रौर कही कही द्वाविगिका नामके माथ भी दी हुई है। (6) दात्रिविकानोंको उपयुन स्थिनिमें यह कहना किसी तरह भी ठीक प्रतीत नहीं होता कि उपलब्ध मभी द्राबिगिका प्रयवा / यी को छारकर बीम द्राविधिका मन्मनिकार मिटमेनकी ही कतिया है: क्योंकि पहली इमरी. पांचवी प्रौर उन्नीसवी मेमो नार द्वात्रिविकानों की बाबत हम कार दम्य नक है कि वे मन्मनके विरद्ध जाने के कारण मानिकारकी कनिया नहीं बनना / शेष द्वात्रिशिकार यदि इन्ही नार द्वात्रिशिकाग्रोक का मिसनोममे निमार या एकमे अधिक मिद मेनोंको निनाई नो भिन्न व्यक्तित्वक भाग उनमेम कोई भी मन्मतिकार मिद्ध मेनको कति नही हो सकती / मोर पतिमान है तो उनमम अनेक त्रिविका मन्मतिकार मिद्ध मेनकी भी शनि हो सकती है: परन्तु है और अमुक अमुक है यह निचितपम उम वक्त ना नहीं कहा जा मकता जब तक इस विषयका कोई स्पट प्रमाण मामने न पाजाय। (7) प्रब रही न्यायावतारकी बात, यह अथ मन्मानमत्रमे कोई एकानाम्दीमे भी अधिक बादका बना हुपा है क्योकि इसपर ममानभद्रस्यामीक नरकालीन पात्रस्वामी (पात्रकमा) जस जैनाचार्योका ही नहीं किन्तु धमंकीति और धर्मोत्तर जैसे बौद्धाचार्योंका भी स्पष्ट प्रभाव है। ग.हमंन जैकोबीके मना Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मति सूत्र और सिद्धसेन 536 नुसार धर्मकीतिने दिग्नागके प्रत्यक्षलक्षण में 'कल्पनापोत्र' विशेपणके माथ 'प्रभ्रान' विशेषणकी वृद्धि कर उसे अपने अनुरूप सुधारा या प्रयवा प्रगम्तरूप दिया था और इमलिये "प्रत्यक्ष कल्पनापानमभ्रान्तम्' यह प्रत्यक्षका धर्मकीतिप्रतिपादिन प्रसिद्ध लक्षण है जो उनके न्यायविन्दु ग्रन्यमें पाया जाता है और जिम में 'प्रभ्रान्त' पद अपनी ग्वाम विगंपता रखता है। न्यायावतारके चौथे पद्यमें प्रत्यक्षका लक्षण, प्रकलदेव की तरह, 'प्रत्यक्षं विगदं ज्ञानं' न देकर, जो "अपरोक्षनशाम्य ग्राहकं ज्ञानमणि प्रत्यक्षम्" दिया है और अगले पद्यमे, अनुमानका लक्षण देने हए. 'नदम्रानं प्रमाण वात्ममत्रवत" वाक्य के द्वारा उसे (प्रत्यक्षको) 'प्रधाल' विशेषामे विपित भी सूचित किया है उसने यह माफ वनित होता है कि मिद्धमेनके मामने-उनके व यम-धर्मकीतिका उक्त लक्षण भी स्थित था और उन्होंने अपने लक्षगमे ग्राहक' पदके प्रयोग-दाग जहाँ प्रत्यक्षको व्यवमायामक ज्ञान बनाकर धमकीनिक कल्पनापो' विपणका निरमन अथवा बंधन किया है वहीं उनके प्रभ्रान्न' विशेषगको प्रकागलर. से स्वीकार भी किया है। यायावनार के टीकाकार सिद्धार भी 'ग्राहक पदके द्वारा बोद्धा (धमक निबन लक्षणका निग्मन होना बतलाते है। था___ "ग्राहकमिनि च निगायक दव्यं, निणयाभावेऽर्थग्रहगायोगान / तेन यन नाथागर्न प्रत्यादि प्रत्यन कल्पनापीढमभ्रान्तम [ न्या. वि. 4] इनि. नदपान्तं भवनि / नभ्य गृक्ति रक्तवान / इसी तरह प्रिलिजायद मेदे जान तदनुमान' यह धमकीनिक अनुमानका लक्षण है। एमग त्रिसपान पके दाग लिङ्गको त्रिरूपात्मक बनानाकर अनुमानो माशारण लक्षणको एक विप दिया गया है / यह "म अनुमानमानको मान्न या भ्रानोमा कोई विशेषण नहीं दिया गया; परन्तु न्याबिन्दुको टोकामे धमनिग्ने प्रत्यक्ष लक्षणको मस्या करने और उसमें देखो 'ममगनाहा' को जंकावीकृत प्रनावना तथा न्यायावतारको रा. पी. एम. खकन प्रानावना / (r) "प्रत्यक्ष कल्पनापोडं नाममायाम युनम् / " (प्रमाणममन्वय) / "प्रत्यक्ष कामापीर यग्नान नाममात्यादिकल्पनाहितम् / ' (न्यायप्रवेश)। Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 540 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश प्रयुक्त हुए 'मभ्रान्त' विशेषणकी उपयोगिता बतलाते हुए "भ्रान्तं घनुमानम्" इस वाक्यके द्वारा अनुमानको भ्रान्त प्रतिपादित किया है। जान पड़ता है इस सबको भी लक्ष्यमें रखते हुए ही सिद्धसेनने अनुमान के "साध्याविनाभुनो (वो) लिंगात्साध्यनिश्चायकमनुमान'' इस लक्षणका विधान किया है और इसमें लिंग का 'साध्याविनाभावी' ऐसा एकरूप देकर धर्मकीतिके 'त्रिरूप'का-पक्षधर्मत्व, सपक्षेसत्व तथा विपक्षासत्वरूपका निरयन किया है। साथ ही, 'तदभ्रान्तं समक्षवत्' इस वाक्यकी योजनाद्वारा अनुमानको प्रत्यक्षकी तरह प्रम्रान्त बतलाकर बौद्धोंकी उमे भ्रान्त प्रतिपादन करनेवाली उक्त मान्यताका खण्डन भी किया है / इसी तरह "न प्रत्यक्षमपि भ्रान्तं प्रमाणत्वविनिश्चयात्' इत्यादि छठे पद्यमें उन दूसरे बौद्धोंकी सान्यताका खण्डन किया है जो प्रत्यक्षको अभ्रान्त नहीं मानते। यहाँ लिंगके इस एकरूपका और फलत: अनुमानके उक्त लक्षगणका प्राभारी पात्र स्वामीका वह हेतृलक्षरण है जिसे न्यायावतारकी २२वीं कारिकामें अन्यथानुपपन्नत्वं हेनोर्लक्षणमीरितम्" इस वाक्यके द्वारा उद्धृत भी किया गया है और जिसके आधार पर पात्रम्वामीने बौद्धोंके विलक्षणहेतुका कदर्थन किया था तथा 'विलक्षगणकदर्थः।" नामका एक स्वतन्त्र ग्रन्थ ही रच डाला था, जो आज अनुपलब्ध है परन्तु उसके प्राचीन उल्लेख मिल रहे है। विक्रमको ८वीं-६वीं शताब्दीके बौद्ध विद्वान् शान्तरक्षितने सत्त्वमंग्रहमें त्रिलक्षणकदर्थनसम्बन्धी कुछ श्लोकोंको उद्धन किया है और उनके शिष्य कमलशीलने टीकामें उन्हें "अन्यथेत्यादिगा पात्रस्वामिमतमाशङ्कने” इत्यादि वाक्योंके साथ दिया है। उनमें से तीन श्लोक नमूने के तौर पर इस प्रकार है अन्यथानुपपन्नत्वे ननु दृष्टा मुहेतुता। नाऽसति व्यंशकस्याऽपि तम्मान क्लीवास्त्रिलक्षणाः // 1364 // अन्यथानुपपन्नत्वं यस्य तस्यैव हेतुता। दृष्टान्ती द्वावपिस्ता वा मा या तो हि न कारणम् // 136 // * महिमा स पात्रकेसरिगुरोः परं भववि यस्य भक्तमासीत् / पद्मावती सहाया त्रिलक्षणकदर्थन कर्तुम् // -मल्लिपेणप्रशस्ति (10 शि० 54 ) Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र त्रयेण किम् ? / नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र येण किम् ? // 1366 / / इनमेंमे तीसरे पद्यको विक्रमकी ७वीं-८वीं शताब्दीके विद्वान् अकलंकदेवने अपने 'न्यायविनिश्चिय' (कारिका 323) में अपनाया है और सिद्धिविनिश्चय (प्र. 6) में इसे स्वानीका 'अमलालीढ पद' प्रकट किया है तथा वादिराजने न्यायविनिश्चय-विवरणमें इस पद्यको पात्रकेसरीसे सम्बद्ध 'अन्यथानुपपत्तिवातिक' बतलाया है। धर्मकीनिका समय ई० सन् 625 मे 650 अर्थात् विक्रमकी ७वीं शतान्दोका प्राय: चतुर्थ चरण, धर्मोनका समय ई. सन् 725 से 75. अर्थात् विक्रमकी ८वीं शताब्दीका प्राय: चतुर्थ चरण और पात्रस्वामीका समय विक्रमको की गताब्दीका प्राय: तृतीय चरा पाया जाता है; क्योंकि वे अलककदेवमे कुछ पहने हुए हैं। तब मन्मतिकार मिद्ध मेनका ममय वि० संवत् 666 मे पूर्वका मुनिश्चित है जमा कि अगले प्रकरण में स्पष्ट करके बतलाया जायगा / ऐसी हालत में जो मिद्धमेन मन्मनिके वर्ग हैं वे ही न्यायावतारके कर्ता नहीं हो सकने-ममयको दृष्टिले दोनों ग्रन्थोंके का एकदूसरेसे भिन्न होने चाहिये। __ दम विषय में पं० सुग्ख लाल जी प्रादिका यह कहना है कि 'पो० टुनी ( Tousi ) ने दिग्नागमे पूर्ववर्ती बौद्व न्यायके ऊपर जो एक निवन्ध रॉयल एशियाटिक मोमाइटीके जुलाई सन् 166 के जर्नल में प्रकाशित कराया है उस में बौद्ध-संस्कृत-ग्रन्थोंके चीनी तथा निव्वनी अनुवादके प्राधार पर यह प्रकट किया है कि योगाचार्य भूमिशास्त्र और प्रकरणार्यवाचा नामके ग्रन्थोंमें प्रत्यक्ष की जो व्याख्या दी है उसके अनुसार प्रत्यक्षको अपरोक्ष. कल्पनापोड, विक्रममवत 700 में प्रकलंकदेवका बौद्धोके साथ महान् वाद हुमा है, जैसा कि प्रकलंकचरितके निम्न पद्यसे प्रकट हैविक्रमार्क-शकाब्दीय-शतमप्त-प्रमा जुपि / कालेऽकलंक-यतिनो बौद्धर्वादो महानभूत् / / *देखो, सन्मतिके गुजराती संस्करण की प्रस्तावना पृ० 41, 42, मौर अंग्रेजी संस्करण की प्रस्तावना पृ. 12, 14 / Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 542 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश निर्विकला और भूल विनाका अभ्रान्त प्रथवा अव्यभिचारी होना चाहिये / साथ ही प्रभ्रान्त तथा मव्यभिचारी शब्दोंपर नोट देते हुए बतलाया है कि ये दोनों पर्यायशब्द है, और चीनी तथा तिब्बती भाषाके जो शब्द अनुवादों में प्रयुक्त है उनका अनुबाद मभ्रान्त तथा प्रव्यभिचारी दोनों प्रकारसे हो सकता है / और फिर स्वयं 'प्रभ्रान्त' शब्दको ही स्वीकार करते हुए यह अनुमान लगाया है कि धर्मकीतिने प्रत्यक्षकी व्याख्यामें मभ्रान्त' शब्दको जो वृद्धि की है वह उनके द्वारा की गई कोई नई वृद्धि नहीं है बल्कि सौत्रान्तिकोंकी पुरानी व्याख्याको स्वीकार करके उन्होंने दिग्नाग की व्याख्यामें इस प्रकारसे सुधार किया है। योगाचार्य-भूमिशास्त्र प्रसङ्गके गुरु मंत्रयको कृति है, प्रसङ्ग (मंत्रेय ?) का समय ईसा की चौथी शताब्दीका मध्यकाल है, इससे प्रत्यक्षके लक्षण में 'मभ्रान्त' शब्दका प्रयोग तथा प्रभ्रान्तपना का विचार विक्रमको पांचवीं शताब्दीके पहले भले प्रकार ज्ञात था प्रर्थात् यह (प्रभ्रान्त ) शब्द मुप्रसिद्ध था / अतः सिद्धसेनदिवाकरके न्यायावतारमें प्रयुक्त हुए मात्र 'प्रभ्रान्त' पदपरमे उसे धर्मकीतिके बादका बतलाना जरूरी नहीं। उसके कर्ता सिद्धसेनको प्रसङ्गके बाद और धर्मकीतिके पहले मानने में कोई प्रकारका अन्तराय (विघ्न-बाधा) नहीं है।' ___ इस कथनमें प्रो. टुचीके कपनको लेकर जो कुछ फलित किया गया है वह ठीक नहीं है। क्योंकि प्रथम तो प्रोफेसर महाशय अपने कथनमें स्वयं भ्रान्त हैवे निश्चयपूर्वक यह नहीं कह रहे हैं कि उक्त दोनों मूल संस्कृत ग्रन्थोंमे प्रत्यक्षकी जो व्याम्या दी अथवा उसके लक्षणका जो निर्देश किया है उसमें 'प्रभ्रान्त' पदका प्रयोग पाया ही जाता है बल्कि साफ तौरपर यह सूचित कर रहे है कि मूल ग्रन्थ उनके सामने नही, चीनी तथा तिब्बती अनुवाद ही सामने हैं और उनमें जिन शब्दों का प्रयोग हुमा है उनका प्रयं प्रधान्त तथा अव्यभिचारि दोनो रूपसे हो सकता है। तीसरा भी कोई अर्थ अथवा संस्कृत शब्द उनका वाच्य हो सकता हो तो उसका निषेष भी नहीं किया। दूसरे, उक्त स्थितिमें उन्होंने अपने प्रयोजनके लिये जो सभ्रान्त पद स्वीकार किया है वह उनकी रुचिकी बात है न कि मूल में प्रधान्त पदके प्रयोगकी कोई गारंटी है और इसलिए उसपरसे निश्चितरूपमें यह फलित कर लेना कि Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन 'विक्रमकी पांचवीं शतानीके पहले प्रत्यक्ष लक्षरणमें अभ्रान्त पदका प्रयोग भले प्रकार ज्ञात तथा सुप्रसिद्ध था' फलितार्थ तथा कथनका अतिरेक है और किसी तरह भी समुचित नहीं कहा जा सकता। तीसरे, उन मूल संस्कृत ग्रन्थोंमें यदि 'प्रश्यभिचारि' पदका ही प्रयोग हो तब भी उसके स्थानपर धर्मकीतिने 'प्रभ्रान्त' पदकी जो नई योजना की है वह उसीकी योजना कहलाएगी और न्यायावतारमें उसका अनुसरण होनेमे उसके कर्ता सिद्धसेन धर्मकीतिके बादके ही विद्वान् ठहरेंगे। चोथे, पात्रकेसरीस्वामीके हेतु-लक्षणका जो उद्धरण न्यायावतारमें पाया जाता है और जिसका परिहार नही किया जा सकता उससे सिद्धसेनका धर्मकीर्तिके बाद होना और भी पुष्ट होता है / ऐसी हालतमें न्यायावतारके कर्ता सिद्धसेनको प्रसङ्गके बादका और धर्मकीतिके पूर्वका बतलाना निरापद् नही है-उसमें अनेक विघ्न-बाधाएं उपस्थित होती हैं। फलतः न्या. यावतार धमकीर्ति और पात्रस्वामी के बादकी रचना होनेसे उन सिद्धसेनाचार्यकी कृति नही हो सकता जो सन्मतिसूत्रके कर्ता है। जिन अन्य विद्वानोंने उसे अधिक प्राचीनरूपमें उल्लेखित किया है वह मात्र द्वात्रिंशिकानों, सन्मति और न्यायावतारको एक ही सिद्धसेनकी कृतियां मानकर चलनेका फल है। इस तरह यहाँ तकके इस सब विवेचनपरसे स्पष्ट है कि सिद्धसेनके नामपर जो भी ग्रन्थ चढ़े हुए है उनमें से सन्मतिमूत्रको छोड़कर दूसरा कोई भी ग्रन्थ सुनिश्चितरूपमें सन्मतिकारकी कृति नहीं कहा जा सकता-प्रकेला सन्मतिसूत्र ही असपत्नभावसे अभीतक उनकी कृतिरूपमें स्थित है। कलको प्रविरोधिनी द्वात्रिशिकामोंमेसे यदि किसी द्वात्रिशिकाका उनकी कृतिरूपमें सुनिश्चय हो गया तो वह भी सन्मतिके साथ शामिल हो सकेगी। (ख) सिद्धसेनका समयादिक अब देखना यह है कि प्रस्तुत ग्रन्थ 'सन्मति' के कर्ता सिद्धसेनाचार्य कब हुए हैं और किस समय अथवा समयके लगभग उन्होंने इस अन्यकी रचना को है। प्रत्यमें निर्माणकालका कोई उल्लेख भौर किसी प्रशस्तिका प्रायोजन म होनेके कारण दूसरे साधनोंपरसे ही इस विषयको जाना जा सकता है और वे दूसरे साधन है अन्यका अन्तःपरीक्षण-उसके सन्दर्भ-साहित्यकी जांच. Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 554 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश द्वारा बाह्य प्रभाव एवं उल्लेखादिका विश्लेषण-, उसके वाक्यों तथा उसमें चचित खास विषयोंका अन्यत्र उल्लेख, प्रासोचन-प्रत्यालोचन, म्वीकारअस्वीकार अथवा खण्डन-मण्डनादिक और साथ ही सिद्ध सेनके व्यक्तित्व-विषयक महत्त्वके प्राचीन उद्गार / इन्हीं सब साधनों तथा दूसरे विद्वानोंके इस दिशामें किय गये प्रयत्नोंको लेकर मैंने इस विषय में जो कुछ अनुसंधान एवं निर्णय किया है उसे ही यहार प्रकट किया जाता है: (1) सन्मतिके कर्ता सिद्धसेन केवलीके ज्ञान-दर्शनोपयोग-विषय में अभेदवादके पुरस्कर्ता हैं यह बात पहले ( पिछन्ने प्रकरण में) बतलाई जा चुकी है / उनके इस प्रभेदवादका खण्डन इधर दिगम्बर सम्प्रदाय में सर्वप्रथम प्रकलंक देवके गजवानिकभाष्यमे और उधर श्वेताम्बर-सम्प्रदायमें मर्वप्रथम जिनभद्रक्षमाश्रमरणके विशेषावश्यकभाप्य तथा विशेषगावती नामक ग्रन्थोंम मिलता है। साथ ही तृतीय काण्डकी 'गन्थि पुढवीविगिट्टा' और 'दोहि वि गएहि गीय' नामकी दो गाथाएं ( 52, 46 ) विशेषावश्यकभाप्यमें क्रमश: गा० नं० 21842165 पर उद्धृत पाई जाती है / इसके सिवाय, विशेषावश्यकभाकी स्वोपाटीकामे * 'गामाइतियं दबोट्टयम्स' इत्यादि गाया ७५वीं की व्याख्या करते हुए ग्रन्थकारनं म्वयं "दन्यास्तिकनयावनम्बिनी मग्रहव्यवहारी ऋजमूत्रादयस्तु पर्यायनयमतानुमारिगाः प्राचार्यामद्धमनाभिप्रायान' इस वाक्यके द्वारा मिद मेनाचार्यका नामोलादपूर्वक उनके मन्मतिमूत्र-गत मतमा उल्लेख किया है, ऐमा मुनि पुण्यविजयजीके मामर मुदि १०मी म०.०० के एक पत्रमे मालूम हुया है। दोनों ग्रन्थकार विक्रमकी ७वीं शताब्दी के प्राय: * गजवा० भा० अ० 6 मु० 10 वा 14-16 / * विशेष/० भा० गा० 3086 से (काटयाचार्य की निमें गा. 37 ) तथा विशंपणवती गा० 184 से 280; मन्मति-प्रस्तावना पृ० 75 / + उद्धरण-विषयक विशेष ऊहापोह के लिए देखो, मन्मति- प्रस्तावना पृ. 68, 66 / * इस टीकाके अस्तित्वका पता हालमें मुनि पुण्यविजयजीको बलाहै। देवी, श्री पात्मानन्दप्रकाश पुस्तक 45 प्रक पृ० 142 पर उनका तविषयक लेख। Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....... 545 सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन उत्तरार्धके विद्वान् है। प्रकलंकदेवका विक्रम सं० 700 में बोडोंके साथ महान् बाद हुआ है जिसका उल्लेख पिछले एक फुटनोटमें प्रकलंकचरितके प्राधारपर किया जा चुका है, और जिनमद्रक्षमाश्रमणने अपना विशेषावश्यकभाष्य शंक सं०५३१ प्रर्यात वि० सं० 666 में बनाकर समाप्त किया है। ग्रन्थका यह रचनाकाल उन्होंने स्वयं ही ग्रन्यके अन्त में दिया है, जिसका पता श्रीजिनविजयजीको जैसलमेर भण्डारकी एक प्रतिप्राचीन प्रतिको देखते हुए चला है। ऐमी हालनमें सन्मतिकार सिद्ध मेनका ममय विक्रम सं० 666 मे पूर्वका सुनिशिवत है परन्तु वह पूर्वका समय कौन-सा है ?-कहाँ तक उमकी कममे कम सीमा है ?-यही भागे विचारणीय है। (2) सन्मतिसूत्रमें उपयोग-द्वपके क्रमवादका जोरोंके माथ खण्डन किया गया है, यह बात भी पहने बतलाई जा चुकी तथा मूत्र ग्रन्थके कुछ वाक्योंको उद्धृत करके दर्शाई जा चुकी है। उस क्रमवादका पुरस्कर्ता कौन है और उस का ममय क्या है ? यह बात यहां वाम नौरमे जान लेने की है। हरिभद्रमूरिने नन्दिनिमें तथा अभयदेवमूरिने सन्मतिको टीकामें यद्यपि जिनभद्रक्षमाश्रमणको क्रमवादके पुरस्कर्तारूपमें उल्लेखित किया है परन्तु वह ठीक नहीं है; क्योंकि वे तो सन्मतिकारके उत्तरवर्ती है, जब कि होना चाहिए कोई पूर्ववर्ती / यह दूसरी बात है कि उन्होंने क्रमवादका जोरोंके माथ समर्थन और व्यवस्थित रूप से स्थापन किया है, मभवन: इसीसे उनको उस वादका पुरस्कर्ना समझ लिया जान पड़ता है / पन्यथा, क्षमाश्रमगाजी स्त्रयं विशेषणवतीमें अपने निम्न वाक्यों-द्वारा यह सूचित कर रहे हैं कि उनसे पहले युगपद्वाद्, कनवाद तथा अभेदवादके पुरस्कर्ता हो चुके है केई भणंति जुगवं जाणइ पासह य केवलो रिणयमा। अण्णे एगतरियं इमछति सुनोवएसेणं // 184 // अरणे ए चे। वो इंसाणमिच्छति जिणवरिंदस्स। जं वि य केवलणाणं तं चि य से दरिसणं विति // दशा प. मुबलालजी धादिने भी कथन-गिरोधको महसूस करते हुए प्रस्तावनामें यह स्वीकार किया है कि जिनमद और सिडसेनके पहले करवादके पुरस्कर्ता Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 546 - जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश रूपमें कोई विद्वान् होने ही चाहिये जिनके पक्षका सन्मतिमें खण्डन किया गया है; परन्तु उनका कोई नाम उपस्थित नहीं किया / जहाँ तक मुझे मालूम है वे विद्वान् नियुक्तिकार भद्रबाहु होने चाहिये, जिन्होंने प्रावश्यकनियुक्तिके निम्न वाक्य-द्वारा क्रमवादको प्रतिष्ठा की है णाणंमि दसणंमिश्र इत्तो एगयरयंमि उवजुत्ता। सव्वस्स केवलिस्सा (स्स वि) जुगवं दो णस्थि उवमोगा / / 7 / / ये नियुक्तिकार भद्रबाहु श्रुतकेवली न होकर द्वितीय भद्रबाह है जो प्रष्टाङ्गनिमित्त तथा मन्त्र-विद्याके परगामी होने के कारण 'नैमित्तिक' कहे जाते है, जिनकी कृतियोंमे भद्रबाहसंहिता और उपमम्गहरस्तोत्रके भी नाम लिये जाते है प्रौर जो ज्योतिविद् वराहमिहरके सगे भाई माने जाते हैं। इन्होंने दशाश्रुतस्कन्ध. नियुक्ति में स्वयं अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहको 'प्राचीन विशेषगके साथ नमस्कार किया है. उत्तराध्ययननियुक्तिमें मरणविभक्ति के मभी द्वारोंका क्रमश: वर्णन करनेके अनन्तर लिखा है कि 'पदार्थोको सम्पूर्ण तथा विशदरीतिने जिन (केवलज्ञानी) और चतुर्दपूर्वी ( श्रुतकेवली) ही कहते हैं-कह सकते हैं. और पावश्यक प्रादि ग्रंथोंपर लिखी गई अनेक नियुक्तियोंमें प्रायवन, प्रायं. रक्षित, पादलिप्ताचार्य, कालिकाचार्य और शिवभूति प्रादि कितने ही ऐसे प्राचार्यों के नामों, प्रमगों. मन्तव्यों अथवा तत्सम्बन्धी अन्य घटनामोंका उल्लेख पावयणी' धम्मकही वाई गामित्तियो' तबस्सी" य / विज्जा सिद्धी य कई अटुं व पभावगा भणिया / / 1 / प्रजरक्ख' नदिमेलो मिरिगुत्तविणेय भवाह य / खवग ऽज्जखवुड समिया' दिवायरो' वा ऽहाऽऽहरणा // 2 // -'छेदसूत्रकार प्रने नियुक्तिकार' लेख में उदधृत / + वदामि महबाह पाईरणं परिमसगलमयसारिंग / सुत्तस्स कारगमिमि दसासु कप्पे य ववहारे // 1 // मने ए दाग मरगविभत्तीइ बधिया कमसो। गंगलणि उरणे पगत्ये जिणच उदमपुखि भासते // 233 / / Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन किया गया है जो भद्रबाहु-श्रुतकेवलीके बहुत कुछ बाद हुए है-किसी-किसी घटनाका समय तक भी साथमें दिया है; जैसे निह्नवोंकी क्रमश: उत्पत्तिका समय वीरनिर्वाणसे 60 वर्ष बाद तकका बनलाया है। ये सब बातें और इसी प्रकारकी दूसरी बातें भी नियुक्तिकार भद्रबाहको श्रुतकेवली बतलानेके विरुद्ध पड़ी है-भद्रबाहुश्रतकेवली-द्वारा उनका उस प्रकारसे उल्लेख तथा निरूपण किसी तरह भी नहीं बनता। इस विषयका सप्रमाण विशद एवं विस्तृत विवेचन मुनि पुण्यविजयजीने प्राजमे कोई सात वर्ष पहले अपने 'छेदमूत्रकार और नियुक्तिकार' नामके उस गुजराती लेखमें किया है जो 'महावीर-जनविद्यालय-रजतमहोत्सव-ग्रन्थ में मुद्रित है 8 . साथ ही, यह भी बतलाया है कि 'तत्थोगालिप्रकीर्णक, मावश्यकरिण, आवश्यक-हारिभद्रीया टोका. परिशिष्टपर्व मादि प्राचीन मान्य ग्रन्थोंमें जहाँ चतुर्दशपूर्वधर भद्रबाहु (थुतकेवली) का चरित्र वर्णन किया गया है वहाँ द्वादशवर्षीय दुष्काल......."छेदमूत्रोंकी रचना प्रादिका वर्णन तो है परन्तु वराहमिहरका भाई होना, नियुक्निग्रथों, उपसर्गहरस्तोत्र, भद्रबाहसहितादि ग्रंथोंकी रचनामे तया नैमित्तिक होनेम सम्बन्ध रखनेवाला कोई उल्लेख नहीं है / इमसे छः मूत्रकार भद्रबाहु और नियुक्ति प्रादिके प्रोता भद्रबाद एक दूसरेमे भिन्न व्यक्तियाँ है / ___ इन नियुक्तिकार भद्रबाहुका समय विक्रमको छठी शताब्दीका प्रायः मध्यकाल है; क्योकि इनके समकालीन सहोदर भ्राता वराहमिहरका यही समय मुनिश्चत है- उन्होंने अपनी 'पञ्चसिद्धान्तिका के अन्त में. जोकि उनके उपलब्ध ग्रंथोंमें अन्तकी कृति मानी जाती है, अपना ममय स्वयं निर्दिष्ट किया है और वह है शक संवत् 427 अर्थात् विक्रम संवत् 562 / यथा इससे में कई वर्ष पहले प्रापके गुरु मुनि श्रीचतुरविजयजीने श्रीविजयानन्दसूरीश्वरजन्मशताब्दि-स्मारकग्रंथमें मुद्रित अपने 'श्रीभद्रबाहुस्वामी' नामक गुजराती लेख में इस विषयको प्रदर्शित किया था और यह सिद्ध किया था कि नियुक्तिकार भद्रबाहु श्रुतकेवली भद्रबाहुसे भिन्न द्वितीय भद्रबाहु है और वराहमिहरके सहोदर होनेसे उनके समकालीन है / उनके इस लेखका हिन्दी अनुवाद अनेकान्त वर्ष 3 किरण 12 में प्रकाशित हो चुका है। Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mance 548... जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश "सप्ताश्विवेदसंख्यं शककालमपास्य चैत्रशुक्लादो। . अर्धास्तमिते भानौ यवनपुरे सौम्यदिवसाये // 8 // " जब नियुक्तिकार भद्रबाहुका उक्त समय सुनिश्चित हो जाता है तब यह कहने में कोई प्रापत्ति नहीं रहती कि सन्मतिकार सिद्धसेनके समयकी पूर्वसीमा विक्रमकी छठी शताब्दीका तृतीय चरण है और उन्होंने क्रमवादके पुरस्कर्ता उक्त भद्रबाहु अथवा उनके अनुसर्ग किसी शिष्यादिके क्रमवाद-विषयक कथनको लेकर ही सन्मतिमें उसका खण्डन किया है। ___ इस तरह सिद्धपेनके समयको पूर्वसीमा विक्रमकी छठी शताब्दीका तृतीय चरण और उत्तरमीमा विक्रमकी सातवीं शताब्दीका तृतीय चरण (वि० स० ५६२से 666) निश्चित होती है। इन प्रायः सौ वर्षके भीतर ही किसी समय सिद्धसेनका ग्रन्यकाररूपमें अवतार हुप्रा और यह ग्रन्थ बना जान पड़ता है। . (3) सिद्धसेनके समय-सम्बन्धमें पं० मुख लालजी संघवीकी जो स्थिति रही है उसको ऊपर बतलाया जा चुका है। उन्होंने अपने पिछले लेखमें, जो 'सिद्धसेनदिवाकरना समयनो प्रश्न' नाममे 'भारतीयविद्या के तृतीय भाग ( श्रीबहादुरसिंहजी सिंघी स्मृतिग्रन्थ ) में प्रकाशित हुपा है, अपनी उम गुजराती प्रस्तावना-कालीन मान्यताको जो सन्मतिके प्रजी संस्करण के अवसर पर फ़ोरवर्ड { foreword )+ लिखे जाने के पूर्व कुछ नये बौद्ध ग्रन्थों के सामने पाने के कारण बदल गई थी और जिसकी फोरवर्ड में सूचना की गई है फिरसे निश्चितरूप दिया है, अर्थात विक्रमकी पांचवी शताब्दीको ही सिद्ध सेनका समय निर्धारित किया है और उमीको अधिक सङ्गत बतलाया है। अपनी इस मान्यताके समर्थन में उन्होंने जिन दो प्रमाणोंका उल्लेख किया है उनका सोर इस प्रकार है, जिसे प्रायः उन्हींके शब्दोंके अनुवादरूपमें सकुलिन किया गया है: ___t फ़ोरवडंके लेखकरूपमें यद्यपि नाम 'दलसुख मालवणिया'का दिया हुमा है परन्तु उसमें दी हुई उक्त सूचनाको पणित सुखलालजीने उक्त लेसमें अपनी ही सूचना और अपना ही विचार-परिवर्तन स्वीकार किया है। Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन (प्रथम) जिनमद्रक्षमाश्रमणने अपने महान् ग्रन्थ विशेषावश्यक-भाष्यमें, जो विक्रम सवत् 666 में बनकर समाप्त हुआ है और लघुग्रन्थ विशेषणवतीमें सिद्ध सेनदिवाकरके उपयोगाऽभेदवादको तथैव दिवाकरकी कृति सन्मतितके टीकाकार मल्लवादीके उपयोग-योग-पद्यवादको विस्तृत समालोचना की है। इससे तथा मल्लवादीके द्वादशारनयचक्र के उपलब्ध प्रतीकोंमें दिवाकरका सूचन मिलने और जिनमद्रगगि का सूचन न मिलने से मल्लवादी जिनभद्रसे पूर्ववर्ती और सिद्धसेन मल्लवादीमे भी पूर्ववर्ती सिद्ध होते है / मल्लवादीको यदि विक्रमकी छठी शताब्दीके पूर्वाधं में मान लिया जाय तो सिद्धसेनदिवाकरका समय जो पांचवीं शताब्दी निर्धारित किया गया है वह अधिक सङ्गत लगता है। (द्वितीय) पूज्यपाद देवनन्दीने अपने जनेन्द्रव्याकरणके 'वेत्तेः सिद्धसेनस्य' इस सूत्रमे सिद्ध सेनके मतविशेषका उल्लेख किया है और वह यह है कि सिद्धसेनके मतानुसार 'विद्' धातुके '' का मागम होता है, चाहे वह धातु सकर्मक ही क्यों न हो। देवनन्दीका यह उल्लेख बिल्कुल सच्चा है क्योंकि दिवाकरकी जो कुछ थोड़ीमी संस्कृत कृतियां बची है उनमेमे उनकी नवमी द्वात्रिशिकाके २२वें पद्य में 'विद्रते: ऐसार प्रागम वाला प्रयोग मिलता है। अन्य व्याकरण जब 'सम्' उपसर्ग पूर्वक और अकर्मक 'विद्' धातुके '' प्रागम स्वीकार करते है तब सिद्ध मेनने अनुपसर्ग और सकर्मक 'विद्' धातुका 'र' प्रागमवाला प्रयोग किया है / इसके मिवाय, देवनन्दी पूज्यपादकी सर्वार्थमिद्धि नामकी तन्वार्थ-टीकाके सप्तम अध्यायगत १३वें सूत्रकी टीकामें सिद्धमेनदिवाकरके एक पद्यका अंश 'उत्तच गदके साथ उद्धृत पाया जाता है पौर वह है "वियोजयति चामभिनं च वधन संयुज्यते / ' यह पद्यांश उनकी तीसरी द्वात्रिशिकाके १६वे पद्यका प्रथम चरण है। पूज्यपाद देवनन्दीका समय वर्तमान मान्यतानुसार विक्रमकी छठी शताब्दीका पूर्वाध है अर्थात् पांचवीं शताब्दीके प्रमुक भागमे छठी शताब्दोके प्रमुक भाग तक लम्बा है / इसस सिद्धसेनदिवाकरकी पांचवी शताब्दीमें होने की बात जो अधिक संगत कही गई है उसका खुलासा हो जाता है। दिवाकरको देवनन्दीसे पूर्ववर्ती या देवनन्दीके वृद्ध समकालीनरूपमे मानिये तो भी उनका जीवनसमय पांचवीं शताब्दीसे पर्वाचीन नहीं ठहरता। Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 550 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश इनमेंसे प्रथम प्रमाण तो वास्तव में कोई प्रमाण ही नहीं है। क्योंकि वह 'मल्लवादीको यदि विक्रमकी छठी शताब्दीके पूर्वार्धमें मान लिया जाय तो इस भ्रान्त कल्पना पर अपना प्राधार रखता है। परन्तु क्यों मान लिया जाय अथवा क्यों मान लेना चाहिये, इसका कोई स्पष्टीकरण साथमें नहीं है / मल्लवादीका जिनभद्रसे पूर्ववर्ती होना प्रथमतो सिद्ध नहीं है, सिद्ध होता भी तो उन्हें जिनभद्रके समकालीन वृद्ध मानकर अथवा 25 या 50 वर्ष पहले मानकर भी उस पूर्ववर्तित्वको चरितार्थ किया जा सकता है. उसके लिये 100 वर्षसे भी अधिक समय पूर्वकी बात मान लेने की कोई जरूरत नहीं रहती। परन्तु वह सिद्ध ही नहीं है; क्योंकि उनके जिस उपयोग-योगपद्यवादकी विस्तृत समालोचना जिनभद्रके दो ग्रन्थों में बतलाई जाती है उनमें कही भी मल्लवादी अथवा उनके किसी ग्रन्यका नामोल्लेख नहीं है, होता तो पण्डितजी उस उल्लेखवाले अंशको उद्धृत करके ही मन्तोष धारण करते, उन्हें यह तर्क करनेकी जरूरत ही न रहतो और न रहनी चाहिये थी कि 'मल्लवादीके द्वादशारनयचक्र उपलब्ध प्रतीकोंमें दिवाकरका सूचन मिलने और जिनभद्रका सूचन न मिलनेमे मल्लवादी जिनभद्रसे पूर्ववर्ती है'। यह तर्क भी उनका अभीष्टसिद्धि में कोई सहायक नहीं होता; क्योंकि एक तो किसी विद्वान् के लिये लाजिमी नहीं कि वह अपने ग्रन्थमें पूर्ववर्ती अमुक अमुक विद्वानोंका उल्लेख करे ही करे / दूसरे, मूल द्वादशारनयचक्के जब कुछ प्रतीक ही उपलब्ध है-वह पूरा ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है-तब उसके अनुपलब्ध अंशोंमें भी जिनभद्रका अथवा उनके किसी ग्रंथादिका उल्लेख नहीं इसकी क्या गारण्टी ? गारण्टीके न होने और उल्लेखोपलब्धिकी सम्भावना बनी रहनेसे मल्लवादीको जिनभद्रके पूर्ववर्ती बतलाना तकदृष्टिसे कुछ भी अर्थ नहीं रखता / तीसरे, ज्ञानबिन्दुको परिचयात्मक प्रस्तावनामें पण्डित सुखलालजी स्वयं यह स्वीकार करते है कि "अभी हमने उस सारे सटीक नयचक्रका अवलोकन करके देखा तो उसमें कहीं भी केवलज्ञान और केवलदर्शन (उपयोगढय)के सम्बन्धमें प्रचलित उपयुक्त वादों (कम, युगपत् और अभेद) पर थोड़ी भी चर्चा नहीं मिली / यपि सन्मतितकंको मल्लवादि-कृत-टीका उपलब्ध नहीं है पर जब मल्लवादी अभेदसमर्थक दिवाकरके ग्रन्यपर टीका लिसें तब यह कैसे माना जा सकता है कि उन्होंने Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन दिवाकरके ग्रन्थकी व्याख्या करते समय उसीमें उनके विरुद्ध अपना युगपत् पक्ष किसी तरह स्थापित किया हो / इस तरह जब हम सोचते हैं तब यह नहीं कह सकते हैं कि अभयदेवके युगपद्वादके पुरस्कर्तारूपसे मल्लवादीके उल्लेखका प्राधारनयचक्र या उनकी सन्मतिटीकासे रहा होगा। साथ ही अभयदेवने सन्मतिटीकामें विशेषगवतीको “केई भरणंति जुगवं जाणइ पासइ य केवली रिणयमा" इत्यादि गाथाओंको उद्धत करके उनका अर्थ देते हुए 'केई' पदके वाच्यरूपमें मल्लवादीका जो नामोल्लेख किया है और उन्हें युगपद्वादका पुरस्कर्ता बतलाया है उनके उस उल्लेखकी अभ्रान्ततापर सन्देह व्यक्त करते हुए, पण्डित सुखलालजी लिखते हैं--"अगर अभयदेवका उक्त उल्लेखांश प्रभ्रान्त एवं साधार है तो अधिकम अधिक हम यही कल्पना कर सकते हैं कि मल्लवादीका कोई अन्य युगपत् पक्ष-समर्थक छोटा बड़ा ग्रन्थ अभयदेवके सामने रहा होगा अथवा ऐसे मन्तव्यवाला कोई उल्लेख उन्हें मिला होगा।" और यह बात ऊपर बतलाई ही जा चुकी है कि अभयदेवसे कई शताब्दी पूर्वक प्राचीन प्राचार्य हरिभद्रसूग्नेि उक्त 'केई' पदके वाच्यरूपमें सिद्धसेनाचार्यका नाम उल्लेखित किया है, पं० सुखलालजीने उनके उस उल्लेखको महत्त्व दिया है तथा सन्मतिकारसे भिन्न दूसरे सिद्धसेनकी सम्भावना व्यक्त की है, और वे दूसरे सिद्धसेन उन द्वात्रिशिकाओंके कर्ता हो सकते हैं जिनमें युगपदवादका समर्थन पाया जाता है, इसे भी ऊपर दर्शाया जा चुका है। इस तरह जब मल्लवादीका जिनभद्रमे पूर्ववर्ती होना सुनिश्चित ही नहीं है तब उक्त प्रमाण और भी निःसार एव बेकार हो जाता है। साथ ही, प्रभयदवका मल्लवादीको युगपद्वादका पुरस्कर्ता बतलाना भी भ्रान्त ठहरता है। ___ यहाँपर एक बात और भी जान लेने की है और वह यह कि हालमें मुनि श्रीजम्बूविजयजीने मल्लवादीके सटीक नयचक्रका पारायण करके उसका विशेष परिचय 'श्रीमात्मानन्दप्रकाश' (वर्ष 45 अंक 7 ) में प्रकट किया है, उसपरसे यह स्पष्ट मालूम होता है कि मल्लवादीने अपने नयचक्रमें पद-पदपर 'वाक्यपदीय' ग्रन्थका उपयोग ही नहीं किया बल्कि उसके कर्ना भर्तृहरिका नामोल्लेख मोर भर्तृहरिके मतका खण्डन भी किया है। इन भर्तृहरिका समय इतिहासमें चीनी यात्री इत्सिङ्गके यात्राविवरणादिके अनुसार ई. सन् 600 से 650 Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशन प्रकाश (वि० सं० 657 से 707) तक माना जाता है; क्योंकि इत्सिङ्गने जब सन् 661 में अपना यात्रावृत्तान्त लिखा तब भर्तृहरिका देहावसान हुए 40 वर्ष बीत चुके थे। और वह उस समयका प्रतिद्ध वैयाकरण था / ऐसी हातमें भी मल्लवादी जिनभद्रसे पूर्ववर्ती नही कहे जा सकते। उक्त समयादिककी दृष्टि से वे विक्रमकी प्रायः पाठवी-नवमी शताब्दीके विद्वान् हो सकते हैं और तब उनका व्यक्तित्व न्यायबिन्दुकी धर्मोत्तर -टीकापर टिप्पण लिखनेवाले मल्लवादीके साथ एक भी हो सकता है / इस टिप्पणमें मल्लवादीने अनेक स्थानोंपर न्यायबिन्दुकी विनीतदेव-कृत-टीकाका उल्लेख किया है और इस विनीतदेवका समय राहुलसांकृत्यायनने, वादन्यायकी प्रस्तावनामें, धर्मकीनिके उत्तराधिकारियोंकी एक तिब्बती सूचीपरसे ई. सन् 705 से 800 (वि० म० ८५७)तक निश्चित किया है। __इस सारी वस्तुस्थितिको ध्यान में रखते हुए ऐसा जान पड़ता है कि विक्रमकी १४वी शताब्दीके विद्वान् प्रभाचन्द्रन अपने प्रभावकचरितके विजर्यासहसूरि. प्रबन्ध बौद्धों और उनके व्यन्तरोंको वादमें जीतनेका जो समय मल्लवादीका वीरवत्सरसे 884 वर्ष बादका अर्थात् विक्रम सं० 414 दिया है / और जिसके कारण ही उन्हें श्वेताम्बर समाजमें इतना प्राचीन माना जाता है तथा मुनि जिनविजयने भी जिसका एकवार पक्ष लिया है उसके उल्लेखमें जरूर कुछ भूल हुई है / पं० सुखलालजीने भी उस भूलको महसूस किया है, तभी उसमें प्रायः 100 वर्षको वृद्धि करके उसे विक्रमकी छठी शताब्दीका पूर्वाधं (वि० सं० 550 ) तक मान लेनेकी बात अपने इस प्रथम प्रमाणमें कही है। डा० पी० एल० वैद्य एम० ए० ने न्यायावतारकी प्रस्तावनामें, इस भूल अथवा * बौद्धाचार्य धर्मोत्तरका समय पं० राहुलसांकृत्यायनने वादन्यायको प्रस्तावनामें ई० स० 725 से 750, (वि० सं० 782 मे 807) तक व्यक्त किया है। श्रीवीरवत्सरादथ शताष्टके चतुरशीति-संयुक्ते / जिग्ये स मल्लवादी बौद्धांस्तव्यन्तरांश्चाऽपि / / 83 // +देखो, जैनसाहित्यसंशोधक भाग 2 / Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -wrwwwwwwwwwwww सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन 553 गलतीका कारण 'श्रीवीरविक्रमात्' के स्थानपर 'श्रीवीरवत्सरात्' पाठान्तरका हो जाना सुझाया है / इस प्रकारके पाठान्तरका हो जाना कोई अस्वाभाविक अथवा असंभाव्य नहीं है किन्तु सहजसाध्य जान पड़ता है। इस सुझावके अनुसार यदि शुद्ध पाठ 'वीरविक्रमात्' हो तो मल्लवादीका समय वि० सं० 884 तक पहुँच जाता है और यह समय मल्लवादीके जीवनका प्राय: अन्तिम समय हो सकता है और तब मल्लवादीको हरिभद्रके प्राय: समकालीन कहना होगा; क्योंकि हरिभद्रने उक्त च वादिमुख्येन मल्लवादिना' जैसे शब्दोंके द्वारा अनेकान्तजयपताकाकी टीकामें मल्लवादीका स्पष्ट उल्लेख किया है। हरिभद्रका समय भी विक्रमकी हवी शताब्दीके तृतीय-चतुर्थ चरण तक पहुँचता है; क्योंकि वि० सं० 857 के लगभग बनी हुई भट्टजयन्तकी न्यायमञ्जरीका गम्भीरगजितारम्भ' नामका एक पद्य हरिभद्रके षडदर्शनसमुच्चयमें उद्धृत मिलता है, ऐमा न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमारजीने न्यायकुमुदचन्द्रके द्वितीय भागकी प्रस्तावनामें उद्घोपित किया है / इसके सिवाय, हरिभद्रने स्वयं शास्त्रवार्तासमुच्चयके चतुर्थस्तवन में 'एतेनैव प्रतिक्षिप्तं यदुक्त सूक्ष्मबुद्धिना' इत्यादि वाक्यके द्वारा बौद्धाचार्य शान्तरक्षितके मतका उल्लेख किया है और स्वोपज्ञटीकामें 'सूक्ष्मबुद्धिना' का 'शान्तरक्षितेन' अर्थ देकर उसे स्पष्ट किया है / शान्तरक्षित धर्मोत्तर तथा विनीतदेवके भी प्रायः उत्तरवर्ती है और उनका समय राहलसांकृत्यायनने वादन्यायके परिशिष्टोंमें ई० सन् 840 ( वि० स० 867) तक बतलाया है / हरिभद्रको उनके समकालीन समझना चाहिये। इससे हरिभद्रका कथन उक्त समय में बाधक नहीं रहता और सब कथनोंकी सङ्गति टीक बैठ जाती है / हवी शताब्दीके द्वितीय चरण तकका समय तो मुनि जिनविजयजीने भी अपने हरिभद्रके समय-निर्णयवाले लेख में बतलाया है। क्योंकि विक्रमसंवत् 835 (शक सं० 700) में बनी हुई कुवलयमालामें उद्योतनसूरिने हरिभद्रको न्यायविद्या में अपना गुरु लिखा है / हरिभद्रके समय, संयतजीवन और उनके साहित्यिक कार्योंकी विशालताको देखते हुए उनकी प्रायुका अनुमान सौ वर्षके लगभग लगाया जा सकता है और वे मल्लवादीके समकालीन होनेके साथ-साथ कुवलयमालाकी रचनाके कितने ही वर्ष बाद तक जीवित रह सकते हैं। Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 455 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश नयचक्रके उक्त विशेष परिचयसे यह भी मालूम होता है कि उस ग्रन्थ में सिद्धसेन नामके साथ जो भी उल्लेख मिलते हैं उनमें सिद्धसेन को 'प्राचार्य' और 'सूरि' जैसे पदोंके साथ तो उल्लेखित किया है परन्तु 'दिवाकर' पदके साथ कहीं भी उल्लेखित नहीं किया है, तभी मुनि श्रीजम्बूविजय जी की यह लिखने में प्रवृत्ति हुई है कि "प्रा सिद्व मेनसूरि सिद्वसेनदिवाकरज संभवत: होवा जोइये" अर्थात् यह सिद्धसेनसरि सम्भवतः सिद्ध पेनदिवाकर ही होने चाहिये-भले ही दिवाकर नामके माथ वे उल्नेखिन नहीं मिलते / उनका यह लिखना उनकी धारणा और भावनाका ही प्रतीक कहा जा सकता है; क्योंकि ' होना चाहिये' का कोई कारण साथमें व्यक्त नहीं किया गया। पं०सुखलालजीने अपने उक्त प्रमाणमें इन सिद्धसेनको 'दिवाकर' नामसे ही उल्लेम्बित किया है, जो कि वस्तुस्थितिका बडा ही गलत निरूपण है 'नोप अनेक भूल-भ्रान्तियोंको जन्म देनेवाला है-किसी विषयको विचारके लिये प्रस्तुत करनेवाले निष्पक्ष विद्वानोंके द्वारा अपनी प्रयोजनादि-सिद्धि के लिये वस्तुस्थितिका ऐमा गलन चित्रण नहीं होना चाहिये / हाँ, उक्त परिचयमे यह भी मालूम होता है कि सिद्धसेन नामके माथ जो उल्लेख मिल रहे हैं उनमेंसे कोई भी उल्लेख सिद्ध मेनदिवाकरके नामपर चढे हुए उपलब्ध ग्रन्थोंमेंसे किसी भी नहीं मिलता है। नमूनेके तौरपर जो दो उल्लेख परिचयमें उद्धृत किये गये हैं उनका विषय प्रायः गन्नशास्त्र (व्याकरण ) तथा शब्दनयादिसे सम्बन्ध रखता हुमा जान पड़ता है। इससे भी सिद्ध मेनके उन उल्लेखोंको दिवाकरके उल्लेख बतलाना व्यथं ठहरना है। रही द्वितीय प्रमाणकी बात, उससे केवल इतना ही सिद्ध होता है कि तीसरी और नवमी द्वात्रिशिकाके का जो मिद्धमेन है वे पूज्यपाद देवनन्दीम पहले हुए है-उनका समय विक्रमकी पांचवीं शताब्दी भी हो सकता है। इसमें अधिक यह सिद्ध नहीं होता कि सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेन भी पूज्यपाद देव * "तथा च प्राचार्यसिद्धसेन पाह“यत्र ह्यर्थों वाचं व्यभिचरति न (ना) भिधानं तत् // " (वि० 277) "प्रस्ति-भवति-विद्यति-वर्ततय: सन्निपातषष्ठा: सतार्था इत्यविशेषणोक्तस्वात् सिद्धसेनसूरिणा।" (वि. 166 ) Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ........ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन नन्दीमे पहले अथवा विक्रमकी ५वीं शताब्दीमें हुए हैं। इसको सिद्ध करनेके लिये पहले यह सिद्ध करना होगा कि सन्मतिमूत्र और तीसरी तथा नवमी द्वात्रिशिकाएं तीनों एक ही मिद्ध मेनकी कृतियां हैं। और यह सिद्ध नहीं है / पूज्यपादसे पहले उपयोगद्वयके क्रमवाद तथा प्रभेदवादके कोई पुरस्कर्ता नहीं हुए हैं, होते तो पूज्यपाद अपनी सर्वार्थ सिद्धि में सनातनसे चले आये युगपद्वादका प्रतिपादनमात्र करके ही न रह जाते, बल्कि उसके विरोधी वाद अथवा वादोंका खण्डन ज़रूर करते / परन्तु ऐसा नहीं है , , और इससे यह मालूम होता है कि पूज्यपादके समय में केवलीके उपयोग-विषयक क्रमवाद तथा अभेदवाद प्रचलित नहीं हुए थे-वे उनके बाद ही सविशेषरूपसे घोषित तथा प्रचारको प्राप्त हुए हैं, और इमीसे पूज्यपादके बाद प्रकलङ्कादिकके साहित्य में उनका उल्लेख तथा खण्डन पाया जाता है / क्रमवादका प्रस्थापन नियुक्तिकार भद्रबाहुके द्वारा और अभेदवादका प्रस्थापन सन्मतिकार सिद्ध सेनके द्वारा हुआ है / उन वादोंके इस विकासक्रमका समर्थन जिनभद्रके विशेषणवती ग्रंथकी उन दो गाथाओं ( 'केई भरणंनि जुगवं' इत्यादि नम्बर 184, 185) से भी होता है जिनमें युगपत्. क्रम पौर प्रभेद इन तीनों वादोंके पुरस्कर्तामोंका इसी क्रमसे उल्लेख किया गया है और जिन्हें ऊपर ( नं० २में ) उद्धृत किया जा चुका है। पं० मुखलालजीने नियुक्तिकार भद्रबाहुको प्रथम भद्रबाहु और उनका समय विक्रमकी दूसरी शताब्दी मान लिया है x, इसीसे इन वादोंके क्रम-विकासको समझने में उन्हें भ्रानि हुई है / और वे यह प्रतिपादन करने में प्रवृत्त हुए हैं कि पहले करवाद था, युगपत्वाद बादको सबसे पहले वाचक उमास्वाति-द्वारा जैन वाङमयमें प्रविष्ट हुप्रा और फिर उसके बाद अभेदवादका प्रवेश मुख्यत: "स उपयोगो द्विविधः / ज्ञानोपयोगी दर्शनोपयोगश्चेति ।....."माकारं जानमनाकारं दर्शन मिति / नच्छद्मस्थेषु क्रमेण वर्तते / निरावरणेषु युगपत् / ' x ज्ञानबिन्दु-परिचय पृ०५ पादटिप्पण। "मतिज्ञानादिचतुषु पर्यायेणोपयोगो भवति, न युगपत् / मंभिन्नज्ञानदर्शनस्य तु भगवतः केवलिनो युगपत्सर्वभावग्राहके निरपेक्षे केवलज्ञाने केवलदर्शने चानुसमयमुपयोगो भवति / " -तत्त्वार्थभाष्य 1-31 / Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 556 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश सिद्धसेनाचार्यके द्वारा हुमा है / परन्तु यह ठीक नही है क्योंकि प्रथम तो युगपत्वादका प्रतिवाद भद्रबाहकी आवश्यक नियुक्तिके "सव्वस्स केवलिस्स वि जुगवं दो रणस्थि उवमोगा" इस वाक्यमें पाया जाता है जो भद्रबाहुको दूसरी शताब्दीका विद्वान् माननेके कारण उमास्वातिके पूर्वका ठहरता है और इसलिये उनके विरुद्ध जाता है। दूसरे, श्रीकुन्दकुन्दाचार्य के नियमसार-जैसे ग्रंथों और भाचार्य भूतबलिके षट्खण्डागम में भी युगपत्वादका स्पष्ट विधान पाया जाता है / ये दोनों प्राचार्य उमास्वातिके पूर्ववर्ती है और इनके युगपद्वाद-विधायक वाक्य नमूने के तौरपर इस प्रकार हैं: 'जुगवं वइ णाणं केवलणाणिस्स दसणं च तहा। दिणयर-पयास-तावं जह कट्टइ तह मुणेयव्वं // " (णियम० 156) / "सयं भयवं उप्पण्ण-णाण-दरिमी मदेवाऽसुर-माणुसस्स लोगस्स श्रागदि गदि चयणोववादं बन्धं मोक्वं इद्धि ठिदि जुदि अणुभागं तक कलं मणोमाणसियं भुत्तं कदं पडिमविदं श्रादिकम्म अरहकम्म सव्यलोए सव्यजीवे सव्वभावे सव्वं समं जाणदि पस्सदि विहरदित्ति।"-( षट्वएडा० 4 पयडि श्र० सू० 78 ) / ऐसी हालतमे युगपत्वादकी सर्वप्रमम उत्पत्ति उमास्वातिमे बतलाना किसी तरह भी युक्तियुक्त नहीं कहा जा सकता, जैनवाङ मयमें इसकी पविकल धारा अतिप्राचीन कालमे चली आई है / यह दूसरी बात है कि क्रम तथा प्रभेदकी धाराएं भी उसमें कुछ बादको शामिल हो गई है। परन्तु विकास-क्रम युगपत्वादसे ही प्रारम्भ होता है, जिसकी सूचना विशेषणवतीको उक्त गाथाप्रो ('कई भगांति जुगवं' इत्यादि ) में भी मिलती है। दिगम्बराचार्य श्री कुन्दकुन्द, समन्नभद्र और पूज्यपादके ग्रन्थोंमें क्रमवाद तया प्रभेदवादका कोई ऊहापोह अथवा ॐ उमास्वातिवाचकको 50 सुखलालजीने तीसरीमे पांचवीं शताब्दीके मध्यका विद्वान् बतलाया है / (शा० वि० परि पृ० 54) / $ इस पूर्ववर्तित्वका उल्लेख श्रवणबेलगोलादिके शिलालेखों तथा अनेक ग्रंथप्रशस्तियोंमें पाया जाता है। Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन सम्न न होना प० सुखलालजीको कुछ प्रखरा है; परन्तु इसमें प्रखरनेकी कोई बात नहीं है / जब इन प्राचार्योंके सामने ये दोनों वाद पाए ही नहीं तब वे इन वादों का ऊहापोह अथवा खण्डनादिक कैसे कर सकते थे ? प्रकलङ्कके सामने जब ये वाद पाए तब उन्होंने उनका खण्डन किया ही हैं; चुनांचे 50 सुखलालजी स्वयं ज्ञानबिन्दुके परिचय में यह स्वीकार करते है कि "ऐसा खण्डन हम सबसे पहले प्रकलङ्ककी कृतियों में पाते हैं।" और इसलिये उनसे पूर्वकी-कुन्दकुन्द, समनभद्र तथा पूज्यपादकी-कृतियोंमें उन वादोंकी कोई चर्चाका न होना इस गतको और भी साफ तौरपर भूचित करता है कि इन दोनों वादोंकी प्रादुर्भूति उनके समय के बाद हुई है। सिद्धसेनके सामने ये दोनों वाद थे-दोनोंकी चर्चा . सन्मतिमें की गई है-अतः ये सिद्धसेन पूज्यपादके पूर्ववर्ती नहीं हो सकते। . पूज्यपादने जिन सिद्धसेनका अपने व्याकरणमें नामोल्लेख किया है वे कोई दूसरे ही सिद्धसेन होने चाहिये / यहाँपर एक खास बात नोट किये जाने के योग्य है और वह यह कि पं. सुखलाल जी मिद्धमेनको पूज्यपादसे पूर्ववर्ती सिद्ध करने के लिये पूज्यपादीय जनेन्द्र : व्याकरणका उक्त सूत्र तो उपस्थित करते है परन्तु उसी व्याकरणके दूसरे समकक्ष मूत्र "चतुष्टयं मन्मतभद्रस्य' को देखते हुए भी अनदेखा कर जाते हैंउसके प्रति गनिमीलन-जमा व्यवहार करते हैं-और ज्ञानबिन्दुकी परिचयात्मक प्रस्तावना (पृ० 55) मे विना किमी हेतुके ही यहाँ तक लिखनेका साहस करते है कि "पूज्यपादके उत्तरवर्ती दिगम्बराचार्य समन्तभद्र ने अमुक उल्लेख किया ! माथ ही, इस बातको भी भुला जाते हैं कि सन्मतिकी प्रस्तावनामें वे स्वयं पूज्यपदको समन्तभद्रका उत्तरवर्ती बतला प्राए हैं और यह लिख पाए है कि 'स्तुनिकाररूपमे प्रसिद्ध इन दोनों जैनाचार्योंका उल्लेख पूज्यपादने अपने व्याकरणाके उक्त सूत्रोंमें किया है उनका कोई भी प्रकार का प्रभाव पूज्यपादकी कृतियोंपर होना चाहिये / ' मालूम नहीं फिर उनके इस माहसिक कृत्यका क्या रहस्य है ! और किस अभिनिवेशके वशवी होकर उन्होने अब यों ही चलती कलमसे समन्तभद्रको पूज्यपादके उत्तरवर्ती कह डाला है !! इसे अथवा इसके मौचित्यको वे ही स्वय समझ सकते हैं। दूसरे विद्वान् तो इसमें कोई प्रौचित्य एवं न्याय नहीं देखते कि एक ही व्याकरण ग्रंथमें उल्लेखित दो विद्वानोंमेसे Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 558. जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश एकको उस ग्रंथकारके पूर्ववर्ती और दूसरेको उत्तरवर्ती बतलाया जाय और वह भी विना किसी युक्तिके / इसमें सन्देह नहीं कि पण्डित सुखलालजीकी बहत पहलेसे यह धारणा बनी हुई है कि सिद्ध सेन समन्नभद्रके पूर्ववर्ती है और वे जैसे तैसे उसे प्रकट करनेके लिये कोई भी मवसर चूकते नहीं हैं। हो सकता है कि उसीकी धुनमें उनसे यह कार्य बन गया हो, जो उस प्रकटीकरणका ही एक प्रकार है; अन्यथा वैसा कहने के लिए कोई भी युक्तियुक्त कारण नहीं है / पूज्यपाद समन्तभद्रके पूर्ववर्ती नहीं किन्तु उत्तरवर्ती है, यह बात जैनेन्द्रव्याकरण के उक्त "चतुष्टयं समन्तभद्रस्य" सूत्रसे ही नहीं किन्तु श्रवणबेल्गोलके शिखालेखों प्रादिसे भी भले प्रकार जानी जाती है।। पूज्यपादकी 'सर्वार्थसिद्धि' पर समन्तभद्रका स्पष्ट प्रभाव है, इसे 'सर्वार्थ सिद्धि पर समन्तभद्रका प्रभाव' नामक लेखमें स्पष्ट करके बतलाया जो चुका है / समन्तभद्रके 'रत्नकरण्ड' का 'पासोपज्ञमनुल्लंध्यम्' नामका शास्त्रलक्षणवाला पूरा पद्य न्यायावतारमें उद्धृत है, जिसकी रत्नकरण्ड में स्वाभाविकी और न्यायावतारमें उद्धरण-जैसी स्थितिको खूब खोलकर अनेक युक्तियोंके साथ अन्यत्र दर्शाया जा चुका है - उमके प्रक्षिप्त होनेकी कल्पना-जैसी बात भी अब नहीं रही: क्योंकि एक तो न्यायावतारका समय अधिक दूरका न रह कर टीकाकार सिद्धषिके निकट पहुँच गया है, दूसरे उसमें अन्य कुछ वाक्य भी समर्थनादिके रूपमें उद्धृत पाये +देखो, श्रवणबेलगोल-शिलालेख नं. 40(64); 108 (258); 'स्वामी समन्तभद्र' (इतिहास) पृ० 141-143; तथा 'जैनजगत' वर्ष 6 अङ्क 15-16 मे प्रकाशित 'समन्तभद्रका समय और डा० के० बी० पाठक' शीर्षक लेख पृ० 18.23 अथवा 'दि एनल्स प्रा. दि भाण्डारकर रिसर्च इन्स्टिटघट पूना वोल्यूम 15 पार्ट 1-2 में प्रकाशित Samantabhadra's date and Dr. K. B Pathak पृ० 81-88 / देखो, भनेकन्त वर्ष 5, किरण 10.11 पृ० 346-352 / (r) देखो, स्वामी समन्तभद्र' (इतिहास) पृ० 126-131 तथा अनेकान्त वर्ष 6, कि० १से ४में प्रकाशित 'रत्नकरण्डके कर्तृत्वविषयमें मेरा विचार और निर्णय' नामक लेख पृ० 5-140 / Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन जाते है / जैसे “साध्याविनामुवो हेतो:" जैसे वाक्यमें हेतुका लक्षण प्राजानेपर भी "प्रन्ययानुपपन्नत्वं हेतोलंक्षणमीरितम्" इस वाक्यमें उन पात्रस्वामीके हेतुलक्षणको उद्धृत किया गया है जो समन्तभद्रके देवागमसे प्रभावित होकर जैनधर्म में दीक्षित हुए थे। इसी तरह "दृष्टेष्टाव्याहताद्वाक्यात्" इत्यादि माठवें पद्यमें शब्द (मागम) प्रमाणका लक्षण माजाने पर भी अगले पद्यमे ममन्तभद्रका "पासोप्रशमनुल्लंघ्यमदृष्टेष्टविरोधकम्” इत्यादि शास्त्रका लक्षण समर्थनादिके रूपमें उदधृत हुआ समझना चाहिए। इसके सिवाय, न्यायावतार पर समन्तभद्रके देवागम (प्राप्तमीमांसा) का भी स्पष्ट प्रभाव है; जैसा कि दोनों ग्रन्यों में प्रमाणके अनन्तर पाये जानेवाले निम्न वाक्योंकी तुलनापरसे जाना जाता है "उपेक्षा फलमाऽऽद्यस्य शेपस्याऽऽदान-हान-धीः / पूर्वा() वाऽज्ञान-नाशो या सर्वम्याऽभ्य म्वगोचरे / / 102 / / " - देवागम "प्रमाणम्य फलं माक्षादज्ञान-विनिवर्तनम् / केवलस्य सुखोपेक्षे शेषस्याऽऽदान-हानधी: // 2 // " -न्यायावतार ऐसी स्थितिम व्याकरणादिके कर्ता पूज्यपाद और न्यायवतारके कर्ता सिद्ध मन दोनों ही स्वामी समन्तभद्रकं उत्तरवर्ती है, इसमें सन्देहके लिये कोई स्थान नहीं है / सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेन चोरि नियुक्तिकार एवं नैमित्तिक भद्रबाहु के बाद हुए हैं-उन्होंने भद्रबाहुके द्वारा पुरस्कृत उपयोग-क्रमवादका खंडन किया है-प्रौर इन भद्रबाहुका समय विक्रमकी छठी शताब्दीका प्रायः तृतीय चरण पाया जाता है, इमीसे यही समय सन्मनिकार सिद्धसेनके समयको पूर्वसीमा है, जैसा कि ऊपर सिद्ध किया जा चुका है। पूज्यपाद इम समयसे पहले गंगवंशी राजा अविनीत ( ई० सन् 430-482 ) तथा उसके उत्तराधिकारी दुविनीतके . यहाँ 'उपेक्षा के साथ सुखकी वृद्धि की गई है,जिमका अज्ञाननिवृत्ति तथा उपेक्षा (रागादिककी निवृत्तिरूप अनासक्ति )के साप प्रविनाभावी सम्बन्ध है / Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 560. जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश समयमें हुए हैं और उनके एक शिष्य वचनन्दीने विक्रम संवत् 526 में द्राविड. संघको स्थापना की है, जिसका उल्लेख देवसेनसूरिके दर्शनसार (वि० सं०६६०) ग्रन्थमें मिलता है / प्रतः सन्मतिकार सिद्धसेन पूज्यपादके उत्तरवर्ती है, पूज्यपादके उत्तरवर्ती होनेसे समन्तभद्रके भी उत्तरवर्ती है, ऐसा सिद्ध होता है / और इसलिये समन्तभद्रके स्वयम्भूस्तोत्र तथा प्राप्तमीमांसा ( देवागम ) नामक दो ग्रन्थोंकी सिद्धसेनीय सन्मतिसूत्रके साथ तुलना करके पं० सुखलालजीने दोनों भाचार्योंके इन ग्रन्यों में जिस 'वस्तुगत पुष्कल साम्य' की सूचना सन्मतिकी प्रस्तावना ( पृ० 66 ) में की है उसके लिये सन्मतिसूत्रको अधिकांशमें सामन्तभद्रीय ग्रन्थोंके प्रभावादिका प्राभारी समझना चाहिये / भने कान्त-शामनके जिस स्वरूप प्रदर्शन एवं गौरव-स्यापनकी प्रोर ममन्तभद्रका प्रधान लक्ष्य रहा है उसी. को सिद्ध सेनने भी अपने ढंगसे अपनाया है। साथ ही, मामान्य-विशेष-मातृक नयोंके सर्वथा-प्रसर्वथा, सापेक्ष-निरपेक्ष और सम्यक-मिथ्यादि-स्वरूपविषयक समन्तभद्रके मौलिक निर्देशोंको भी मात्मसात् किया है / सन्मतिका कोई-कोई कथन समन्तभद्रके कथनसे कुछ मतभेद अथवा उसमें कुछ वृद्धि या विशेष प्रायोजनको भी साथमें लिये हुए जान पड़ता है, जिसका एक नमूना इस प्रकार है दव्वं खित्तं कालं भावं पज्जाय-देस-संजोगे। भेदं च पडुनच समा भावारणं पएणवणपज्जा // 3.60 // इस गाथामें बतलाया है कि पदार्थोकी प्रापरणा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पर्याय, देश, संयोग और भेदको प्राश्रित कर के ठीक होनी है;' जब कि समन्तभद्रने "सदेव सर्व को नेच्छेत म्वरूपादिचतुष्टयात्" जमे वाक्योंके द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इस चतुष्टयको ही पदार्थप्ररूपरणका मुख्य साधन बतलाया है / इससे यह साफ जाना जाता है कि समन्तभद्रके उक्त चतुष्टयमें सिद्ध मेनने * "सिरिपुज्जपादसीसो दाविडसंघस्स कारगो दुट्ठो। णामेण वज्जणंदी पाहुडवेदी महासतो / / 24 // पंचसए छवीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स / दक्षिणमहराजादो दाविडसंघो महामोहो // 25 // " Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन 561 बादको एक दूसरे चतुष्टयकी और वृद्धि की है, जिसका पहलेमे पूर्वके चतुष्टयमें ही अन्तर्भाव था। ___ रही द्वात्रिशिकानोंक कर्ता सिद्धमेनको बात, पहली द्वात्रिशिकामें एक उल्लेख-वाक्य निम्न प्रकारसे पाया जाता है, जो इस विषयमे अपना खास महत्त्व रखता है: य एष पड्जीव-निकाय-विस्तरः परेरनालीढपथस्त्वयादितः / अनेन सर्वज्ञ-परीक्षण क्षमास्त्वयि प्रसादादयसोत्सवाः स्थिताः // 13 इसमें बतलाया है कि 'हे वीरजिन ! यह जो षट् प्रकारके जीवोंके निकायों ( समूहों ) का विस्तार है और जिसका मागं दूमरोंके अनुभवमें नहीं आया वह प्रापके द्वारा रदित हुप्रा-बतलाया गया अथवा प्रकाशमे लाया गया है। इसीमे जो सर्वज्ञकी परीक्षा करने में समर्थ हैं वे (पापको सर्वज्ञ जानकर ) प्रसन्नताके उदयरूप उत्सवके साथ आपमें स्थित हुए है-बड़े प्रसन्नचितसे आपके प्राश्रयमें प्राप्त हुए और प्रापके भक्त बने है।' वे समर्थ-सर्वज-परीक्षक कोन है जिनका यहाँ उल्लेख है और जो प्राप्तप्रभु वीरजिनेन्द्र की सर्वज्ञरूपमें परीक्षा करनेके अनन्तर उनके सुदृढ भक्त बने है? वे हे स्वामी ममन्तभद्र. जिन्होंने प्राप्तमीमांसाद्वारा सबस पहले सवज्ञकी परीक्षा * की है, जो परीक्षाके अनन्तर वीरकी स्तुतिरूपमे युक्त्यनुशासन' स्तोत्रक रचनेमे प्रवृत्त हुए है / और जो स्वयम्भू स्तोत्रके निम्न पद्योंमे सर्वज्ञका उल्लेख करते हुए उसमें अपनी स्थिति एवं भक्ति प्रकलदेवने भी प्रशती' भाष्य में प्राप्तमीमांसाको "सर्वज्ञविशेषपरीक्षा'' लिखा है और वाहिगजमूरिने पाश्वनाथचरितमें यह प्रतिपादित किया है कि 'उसी देवागम ( प्राप्तमीमासा ) के द्वारा स्वामी ( समन्तभद्र ) ने आज भी सर्वशको प्रदर्शित कर रखा है: "स्वामिनश्चरितं तस्य कस्य न विस्मयावहम् / देवागमेन सर्वजो येनाऽद्यापि प्रदश्यते // " + युक्त घनुशासनको प्रथमका रिकामें प्रयुक्त हुए 'पद्य' पदका अर्थ श्रीविद्यानन्दने टीकाम "पस्मिन् काले परीक्षाऽवसानसभरे" दिया है और उसके द्वारा माप्तमीमांसाके बाद युक्त्यनुशासनको रचनाको सूचित किया है / Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 562 / जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश को "त्वंयि सुप्रसन्नमनस: स्थिता वयम्" इस वाक्यके द्वारा स्वयं व्यक्त करते है, जो कि "त्वयि प्रसादोदयसोत्सवाः स्थिता:' इस वाक्यका स्पष्ट मूलाधार जान पड़ता है: बहिरन्तरप्युभयथा च, करणमविघाति नाऽर्थकृत् / नाथ ! युगपदखिलं च सदा, त्वमिदं तलाऽऽमलकवद्विवेदिथ / / 126 अत एव ते बुध-नुतस्य, चरित-गुणमद्भ तोदयम् / न्यायविहितमवधाये जिने त्वयि सुप्रसन्नमनसः स्थिता वयम् / / 130 इन्हीं स्वामी समन्तभद्रको मुख्यत: लक्ष्य करके उक्त द्वात्रिशिकाके अगले दो पद्य * कहे गये जान पड़ते हैं, जिनमेसे एकमें उनके द्वारा अन्तिमें प्रतिपादित उन दो दो बातोंका उल्लेख है जो सर्वज्ञ-विनिश्चियकी सूचक है और दूसरेमें उनके प्रथित यशकी मात्राका बडे गौरवके साथ कीर्तन किया गया है / अत: इस द्वात्रिंशिकाके कर्ता सिद्ध मेन भी ममन्तभद्रके उत्तरवर्ती हैं / समन्तभद्रके स्वयम्भूस्तोत्रका शैलीगत, शब्दगत और अर्थगत कितना ही साम्य भी इसमें पाया जाता है, जिसे अनुमरण कह सकते है और जिसके कारगा इम द्वात्रिशिकाको पढ़ते हुए कितनी ही बार इसके पदविन्यामादिपरमे ऐसा भान होता है मानों हम स्वयम्भूस्तोत्र पढ़ रहे हैं / उदाहरण के तौरपर स्वयम्भूस्तोत्रका प्रारम्भ जैसे उपजातिछन्दमें 'स्वयम्भुवा भूत' शब्दोसे होता है वैसे ही इस द्वात्रिज्ञिकाका प्रारम्भ भी उपजाति छन्दमे 'स्वयम्भुवं भूत' शब्दोंसे होता है / स्वयम्भूस्तोत्रमें जिस प्रकार समन्त, संहत, गत, उदित, ममीक्ष्य,प्रवादिन, अनन्त, अनेकान्त-जैसे कुछ विशेष शब्दोंका: मुने, नाथ, जिन, वीर-जैसे सम्बोधन-पदोंका और 1 जितक्षुल्लकवादिशासनः, 2 स्वपक्षसोस्थित्यमदावलिप्ता:, 3 नैतत्समालीढपदं त्वदन्यः, 4 शेरते प्रजाः, 5 प्रशेपमाहात्म्यमनीरयन्नपि, 6 नाऽसमीक्ष भवत: प्रवृत्त यः, 7 अचिन्त्यमीहितम्, पार्हन्त्यमचिन्त्यमद् तं 8 सहस्राक्षः, 6 स्वद्विषः, १०शशि ॐ "वपु: स्वभावस्यमरक्तशोणितं पराऽनुकम्पा सकनं च भाषितम् / न यस्य सर्वज्ञ-विनिश्चयस्त्वयि द्वयं करोत्येतदसौ न मानुषः // 14 // अलब्धनिष्ठाः प्रसमिद्धचेतसस्तव प्रशिष्या: प्रथयन्ति यद्यशः / न तावदप्येकसमूहसंहताः प्रकाशयेयुः परवादिपार्थिवाः // 15 // Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन. . . रुचिशुचिशुक्ललोहित वपुः, 11 स्थितावयं जैसे विशिष्ट पदवाक्योंका प्रयोग पाया जाता है उसी प्रकार पहली द्वात्रिशिकामें भी उक्त शब्दों तथा सम्बोधन पदोंके साथ 1 प्रपञ्चितक्षुल्लकतर्कशासन:, 2 स्वपक्ष एव प्रतिबद्धमत्सरा:, 3 परैरनालीढपथस्त्वयोदित:, 4 जगत् " शेरते, ५त्वदीयमाहात्म्यविशेषसंभली... भारती, 6 समीक्ष्यकारिणः, 7 अचिन्त्यमाहात्म्यं, 8 भूतसहस्रनेत्रं, ह त्वत्प्रतिघातनोन्मुखैः, 10 वपुः स्वभावस्थमरक्तशोणितं, 11 स्थिताबयं जैसे विशिष्ट पद-वाक्योंका प्रयोग देखा जाता है, जो यथाक्रम स्वयम्भूस्तोत्रगत उक्त पदोंके प्रायः समकक्ष है / स्वयम्भूस्तोत्रमें जिम तरह जिनस्तवनके साथ जिनशासनजिनप्रवचन तथा अनेकान्त का प्रगमन एव मह व ख्यापन किया गया है और वीरजिनेन्द्र के गायनमाहात्म्यको 'तव जिनशासनविभव: जर्यात कलावपि गुरणानुशासनविभव:' जैन शब्दों-द्वारा कलिकाल में भी जयवन्त बतलाया गया है उसो तरह इस द्वात्रिशिकामें भी जिनस्तुतिके साथ जिनशासनादिका संक्षेपमें कीर्तन किया गया है और वीर भगवानको ‘मच्छासनवर्द्धमान' लिखा है। इस प्रथम द्वात्रिशिकाके कर्ता सिद्ध मेन ही यदि अगली चार द्वात्रिशिकानोंके भी कर्ता है, जैसाकि पं . सुखलालजीका अनुमान है, तो पांचों ही द्वात्रिशिकाएं, जो वीरस्तुनिसे सम्बन्ध रखती हैं और जिन्हें मुख्यतया लक्ष्य करके ही प्राचार्य हेमचन्द्रने 'क्व मिद्धसेनस्तुतयो महार्थाः' जैसे वाक्यका उच्चारण किया जान पड़ता है, स्वामी समन्तभद्रके उत्तरकालीन रचनाग है। इन सभीपर समन्तभद्र के ग्रन्योंकी छाया पड़ी हुई जान पड़ती है। इस तरह स्वामी ममन्तभद्र न्यायावतारके कर्ता, सन्मतिके कर्ता और उक्त हात्रिशिका अथवा द्वात्रिशिका प्रोंके कर्ता तीनों ही मिद्धसेनोंसे पूर्ववर्ती सिद्ध होते है। उनका समय विक्रमकी दूसरी तीसरी शताब्दी है, जैसा कि दिगम्बर पट्टावली 8 में शकसंवत् 60 (वि० सं० 165) के उल्लेखानुसार दिगम्बर-समाजमें आमतौरपर माना जाता है / श्वेताम्बर पट्टावलियों में उन्हें सामन्तभद्र' नाम * देखो, हस्तलिखित संस्कृत ग्रन्थोंके अनुसन्धान-विषयक डा० भाण्डरकरको सन् 1883-84 की रिपोर्ट पृ० 320; मिस्टर लेविस राइसकी 'इस्क्रिपशन्स ऐट् श्रवणबेल्गोलको प्रस्तावना प्रौर कर्णाटक शब्दानुशासनको भूमिका / Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 564 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश से उल्लेखित किया है और उनके समयका पट्टाचार्यरुप में प्रारम्भ वीरनिर्वाणसंवत् 643 अर्थात् वि० सं० 173 से बतलाया है। साथ ही यह भी उल्लेखित किया है कि उनके पट्टशिष्यने वीर नि० स० 665 (वि० सं० 225) में एक प्रतिष्ठा कराई है, जिससे उनके समयकी उत्तरावधि विक्रमकी तीसरी शताब्दी के प्रथमचरण तक पहुँच जाती है / इसमे समय-सम्बन्धी दोनों सम्प्रदायोंका कथन मिल जाता है और प्रायः एक ही ठहरता है। __ ऐसी वस्तुस्थितिमें पं० सुखलालजीका अपने एक दूसरे लेख 'प्रतिभामूर्ति सिद्धसेनदिवाकर' में, जो कि 'भारतीयविद्या' के उसी अङ्क (तृतीय भाग) में प्रकाशित हुया है, इन तीनों ग्रन्थों के कर्ता तीन सिद्धमेनोंको एक ही सिद्धन बतलाते हुए यह कहना कि 'यही सिद्धसेन दिवाकर "प्रादि जैनतार्किक"-"जैन परम्परामें तर्कविद्याका और तर्कप्रधान संस्कृत वाङमयका प्रादिप्रणेता". "प्रादि जैनकवि", "आदि जैनस्तुतिकार", "प्राद्य जैनवादी / " और "प्राद्य जैनदार्शनिक" है' क्या अर्थ रखता है और कैसे सङ्गत हो सकता है ? इसे विज्ञ साठक स्वयं समझ सकते है / सिद्धसेनके व्यक्तित्व और इन सब विषयों में उनको विद्यायोग्यता एवं प्रतिभाके प्रति बहुमान रखते हुए भी स्वामी समन्तभद्रकी पूर्वस्थिति और उन 6 अद्वितीय-अपूर्व साहित्यको पहले से मौजूद जी मे मुझे इन सब उद्गारोंका कुछ भी मूल्य मालूम नहीं होता और न पं. मुखलालजीके इन कथनों में कोई सार ही जान पड़ता है कि-(क) 'सिद्धमनका सन्मति प्रकरण जैनदृष्टि और जैनमन्तव्योंको तर्कशैलीसे स्पष्ट करने तथा स्थापित करनेवाला जं वाङ्मयमें सर्वप्रथम ग्रन्थ है' तथा (ख) 'स्वामी समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र पोर युक्त यनुशासन नामक ये दो दार्शनिक स्तुतियां सिद्ध सेनकी कृतियोंका अनुकरण है।' तर्कादि-विषयोंमें समन्तभद्रकी योग्यता और प्रतिभा किसीमे भी कम नही किन्तु * कुछ पट्टावलियों में यह समय वी०नि० सं० 565 अथवा विक्रमसवत् 125 दिया है जो किसी गलतीका परिणाम है और मुनि कल्याणविजयने अपने द्वारा सम्पादित 'तपागच्छपट्टावली में उसके मुधारको सूचना की है। * देखो, मुनि श्रीकल्याणविजयजीके द्वारा सम्पादित 'तपागच्चपट्टावली' पृ० 76-81. Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन सर्वोपरि रही है, इसीसे प्रकलदेव और विद्यनन्दादि-जैसे महान् ताकिकोंदार्शनिकों एवं वादविशारदों आदिने उनके यशका खुला गान किया है; भगवजिनसेनने मादिपुराणमें उनके यशको कवियों, गमकों, वादियों तथा वादियोंके मस्तकपर चूड़ामरिणकी तरह मुशोभित बतलाया है (इसी यशका पहली द्वाशिशिकाके 'तव प्रशिष्याः प्रथयन्नि यद्यशः' जैसे शब्दों में उल्लेख है ) और साथ ही उन्हें कविब्रह्मा-कवियोंको उत्पन्न करनेवाला विधाता-लिखा है तथा उनके वचन-रूपी वज्रपातसे कुमतरूपी पर्वत खण्ड-खण्ड हो गये, ऐसा उल्लेख भी किया है / और इसलिये उपलब्ध जैनवाङमय में समयादिककी दृष्टिसे आद्य तार्किकादि होनेका यदि किसीको मान अथवा श्रेय प्राप्त है तो वह स्वामीसमन्तभद्रको ही प्राप्त है / उनके देवागम (प्राप्तमीमांसा). युक्त यनुशासन, स्वयम्भूस्नोत्र और स्तुतिविद्या (जिनशतक) जैसे ग्रन्थ माज भी जनसमाजमें अपनी जोड़का कोई ग्रन्थ नहीं रखते / इन्ही ग्रंथोंको मुनि कल्याणविजयजीने भी उन निग्रंन्यचडामणि श्रीसमन्तभद्रकी कृतियां बतलाया है जिनका समय भी श्वेताम्बरमान्यतानुसार विक्रपकी दूसरी शताब्दी है / तब सिद्धसेनको विक्रमकी ५वीं शताब्दीका मान लेनेपर भी समन्तभद्रकी किसी कृतिको सिद्धसेनकी कृतिका अनुकरण कैसे कहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता। इस सब विवेचनपरसे स्पष्ट है कि पं० मुवलालजीने सन्मतिकार सिद्धसेन को विक्रमकी पांचवी शताब्दीका विद्वान् मिद्ध करनेके लिये जो प्रमाण उपस्थित किये है वे उस विषयको सिद्ध करने के लिये बिल्कुल असमर्थ हैं। उनके दूसरे प्रमाणसे जिन सिद्धसेनका पूज्यपादसे पूर्ववर्तित्व एवं विक्रमकी पांचवीं शताब्दी में होना पाया जाता है वे कुछ द्वात्रिशिकाग्रोके कर्ता हैं न कि सन्मतिसूत्रके, जिसका रचनाकाल नियुक्तिकार भद्रबाहुके समयसे पूर्वका सिद्ध नहीं होता और इन भ: बाहुका समय प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान् मुनि श्रीचतुरविजयजी पौर मुनि श्रीपुण्यविजयजीने भी अनेक प्रमाणोंके आधारपर विक्रमकी छठी शतानीके प्राय: तृतीय चरण तकका निश्चित किया है . पं०सुखलालजी + विशेषके लिये देखो, 'सत्साघुस्मरण-मंगलपाठ' पृ० 25 से 51 / 8 तपागच्छपट्टावली भाग पहला पृ० 80 / Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 566 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश का उसे विक्रमकी दूसरी शताब्दी बतलाना किसी तरह भी युक्तियुक्त नहीं कहा जा सकता / अतः सन्मतिकार सिद्धसेनका जो समय विक्रमकोछठी शताब्दीके तृतीय चरण और सातवीं शताब्दीके तृतीय चरणका मध्यवती काल निर्धारित किया गया है वही समुचित प्रतीत होता है, जब तक कि कोई प्रबल प्रमाण उसके विरोध में सामने न लाया जावे। जिन दूसरे विद्वानोंने इस समयसे पूर्वकी अथवा उत्तरसमयकी कल्पना की है वह सब उक्त तीन सिद्धसेनोंको एक मानकर उनमें से किसी एकके ग्रन्थको मुख्य करके की गई है अर्थात् पूर्वका समय कतिपय द्वात्रिंशिकाओं के उल्लेखोंको लक्ष्यकरके और उत्तरका समय न्यायावतारको लक्ष्य करके कल्पित किया गया है / इस तरह तीन सिद्धसेनोंकी एकत्वमान्यता ही सन्मतिसूत्रकारके ठीक समय निर्णयमें प्रबल बाधक रही है. इसीके कारण एक सिद्धसेनके विषय अथवा तत्सम्बन्धी घटनामोंको दूसरे सिद्धसेनोंके साथ जोड़ दिया गया है, और यही वजह है कि प्रत्येक सिद्धसेनका परिचय थोड़ा-बहुत खिचड़ी बना हुआ है। (ग) सिद्धसेनका सम्प्रदाय और गुणकीर्तन अब विचारणीय यह है कि सन्मतिमूत्रके कर्ता सिद्ध सेन किस सम्प्रदायके प्राचार्य थे अर्थात् दिगम्बर सम्प्रदायसे सम्बन्ध रखते हैं या श्वेताम्बर सम्प्रदायसे और किस रूपमें उनका गुगग-कीर्तन किया गया है। प्राचार्य उमास्वाति(मी) और स्वामी समन्तभद्रकी तरह सिद्धसेनाचार्यकी भी मान्यता दोनों सम्प्रदायोंमें पाई जाती है। यह मान्यता केवल विद्वताके नाते सम्प्रदायोंमें आदर-सत्कारके रूपमें नहीं और न उनके किसी मन्तव्य अथवा उनके द्वारा प्रतिपादित किसी वस्तुतत्त्व या सिद्धान्त-विशेषका ग्रहण करनेके कारण ही है बल्कि उन्हें अपने अपने सम्प्रदायके गुरुरूप में माना गया है, गुर्वावलियों तथा पट्टावलियों में उनका उल्लेख किया गया है और उसी गुरुष्टिसे उनके स्मरण, अपनी गुणजताको साथमें व्यक्त करते हुए, लिखे गये है अथवा उन्हें अपनी श्रद्धाञ्जलियां अर्पित की गई है / दिगम्बर-सम्प्रदायमें सिद्धसेनको सेन-गण (संघ) का प्राचार्य माना जाता है और सेनगणको पट्टावली में उनका +देखो, जैनसिद्धान्तभास्कर किरण 1 पृ० 38 / Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन .. उल्लेख है। हरिवंशपुराणको शकसम्वत् 705 में बनाकर समाप्त करनेवाले श्रीजिनसेनाचार्यने, पुराणके अन्तमें दी हुई अपनी गुर्वावली में, सिद्धसेनके नामका भी उल्लेख किया है और हरिवंशपुराणके प्रारम्भ में समनभद्रके स्मरणानन्तर सिद्ध सेनका जो गौरवपूर्ण स्मरण किया है वह इस प्रकार है जगत्प्रसिद्धबोधस्य वृपभस्येव निस्तुषाः / बाधयन्ति सतां बुद्धिं सिद्धसेनस्य सूक्तयः ||30|| इसमें बतलाया है कि 'सिद्धसेनाचार्यको निमल मूक्तियाँ (सुन्दर उक्तियाँ) जगत्प्रसिद्धबोध (केवलज्ञान) के धारक (भगवान् ) वृषभदेवकी निर्दोष मूक्तियोंकी तरह सत्पुरुषोंकी बुद्धिको बाधित करती है-विकसित करती है।' यहां मूक्तियोंमें सन्मति के साथ कुछ द्वात्रिशिकानोंकी उक्तियां भी शामिल ममझी जा सकती है। उक्त जिनसेनके द्वाग प्रशंमित भगवजिनमेनने प्रादिपुगरण में मिद्धसेनको अपनी हार्दिक श्रद्धाञ्जलि अर्पित करते हुए उनका जो महत्वका कीर्तन एवं जयघोष किया है वह यहाँ खासतोरमे प्यान देने योग्य है "कवय सिद्धसेनाद्या वयं तु कवयो मताः / मणयः पद्मरागाद्या ननु काचोऽपि मेचकः / प्रवादि-करियूथानां केशरी नयकेशरः / सिद्धसेन-कविजीयाद्विकल्प-नखरांकुरः / / ' इन पद्योंमेंमे प्रथमपद्य में भगवजिनमेन, जो स्वयं एक बहुत बड़े कवि हुए है, लिखते है कि कवि तो (वास्तवमे) मिद्धमेनादिक है, हम तो कवि मान लिये गये हैं। (जैसे) मरिण तो वास्तव में पद्मरागादिक हैं किन्तु काच भी (कभी कभी किन्हींके द्वारा) मेचकमणि समझ लिया जाता है / ' और दूसरे पद्यमें यह घोषणा करते है कि 'जो प्रवादिरूप हाथियोंके समूहके लिये विकल्प रूप-नुकीले नसोंसे युक्त और नयरूप केशरोंको धारण किये हुए केशरी सिंह है वे सिद्धसेन कवि जयवन्त हों-अपने प्रवचन द्वारा मिथ्यावादियोके मतोंका निरसन करते हुए सदा ही लोकहृदयोंमें अपना सिक्का जमाए रक्खें-अपने * ससिद्धसेनोऽभय-भीमसेनको गुरू परो तो जिन-शान्तिमेनको // 66.26 / / Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 568. जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश वचन-प्रभावको अङ्कित किये रहें / यहाँ सिद्धसेनका कविरूपमें स्मरण किया गया है और उसीमें उनके वादित्वगुणको भी समाविष्ट किया गया है। प्राचीन समयमें कवि साधारण कविता-शायरी करनेवालोको नहीं कहते थे बल्कि उस प्रतिभाशाली विद्वान्को कहते थे जो नये नये सन्दर्भ, नई-नई मौलिक रचनाएं तय्यार करने में समर्थ हो अथवा प्रतिभा ही जिसका उज्जीवन हो, जो नाना वर्णनापोंमें निपुण हो, कृती हो, नाना अभ्यासोंमें कुगाग्रबुद्धि हो और व्युत्पत्तिमान (लौकिक व्यवहारोंमें कुशल) हो / दूसरे पद्यमें सिद्धसेनको केशरी सिहको उपमा देते हुए उसके माथ जो 'नय-केशरः' और विकल्प-नखराकुरः' जैसे विशेषण लगाये गए हैं उनके द्वारा खास तौरपर सन्मतिसूत्र लक्षित किया गया है. जिसमें नयोंका ही मुख्यत: विवेचन है और अनेक विकल्पों द्वारा प्रवादियोंके मन्तव्योंमान्यसिद्धान्तोंका विदारगा (निरमन) किया गया है। इसी सन्मतिमूत्रका जिनमेनने जयधवलामें और उनके गुरु वीरमेनन धवलामें उल्लेख किया है और उसके साथ घटित किये जानेवाले विरोधका परिहार करते हुए उमे अपना एक मान्य ग्रन्थ प्रकट किया है; जैसा कि इन सिद्धान्त ग्रन्थोंके उन वाक्योंमे प्रगट है जो इस लेखके प्रारम्भिक फुटनोटमे उद्धृत किये जा चुके हैं। नियमसारको टीकामें पद्मप्रभ मलधारिदेवने सिद्धान्तोद श्रीधवं सिद्धसेनं... ...वन्दे' वाक्यके द्वारा मिद्धमेनकी वन्दना करते हुए उन्हें 'सिद्धान्तकी जानकारी एवं प्रतिपादनकौशलरूप उच्चश्रीके स्वामी' मूचित किया है / प्रतापकीतिने प्राचार्यपूजाके प्रारम्भमें दी हुई गुर्वावलीमें "सिद्धान्तपायोनिधिलब्धपार: श्रीसिद्धसेनाऽपि गणस्य सारः' इस वाक्यके द्वारा सिद्ध सेनको 'मिद्धान्तसागरके पारगामी' और 'गणके सारभूत' बतलाया है / मुनिकनकामरने, 'करकंडचरिउ' में, सिद्धसेनको समन्तभद्र तथा प्रकल डूदेवके समकक्ष 'श्रुतजसके समुद्र' रूपमे "कविनूतनसन्दर्भः'। "प्रतिभोज्जीवनो नाना-वरणंना-निपुणः कविः। नानाऽभ्यास-कुशाग्रीयमतिव्यत्पत्तिमान् कविः / / " -प्रलकारचिन्तामणि * "तो सिद्धसेण सुसमन्तभद्द प्रकलंकदेव सुमजलसमुह / " 0 2 Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन ~ उल्लेखित किया है। ये सब श्रद्धांजलि-मय दिगम्बर उल्लेख भी सन्मतिकारसिद्धसेनसे सम्बन्ध रखते है, जो खास तौरपर सैद्धान्तिक थे और जिनके इस सैद्धान्तिकत्वका अच्छा माभास ग्रन्थके अन्तिम काण्डकी उन गाथाओं (61 प्रादि ) से भी मिलता है जो श्रतधर-शब्दसन्तुष्टों, भक्तसिद्धान्तज्ञों और शिष्यगणपरिवृत-बहुश्र तमन्योंकी पालोचनाको लिए हुए हैं। श्वेताम्बर-सम्प्रदायमें प्राचार्य सिद्धसेन प्राय: 'दिवाकर' विशेषण अथवा उपपद ( उपनाम ) के साथ प्रसिद्धिको प्राप्त है। उनके लिये इस विशेषण-पदके प्रयोगका उल्लेख श्वेताम्बर-साहित्यमें सबसे पहले हरिभद्रसूरिके 'पञ्चवस्तु' ग्रन्थमें देखनेको मिलता है, जिसमें उन्हें दुःषमाकालरूप रात्रिके लिये दिवाकर (मूर्य ) के समान होनेसे 'दिवाकर' की पाख्याको प्राप्त हुए लिखा है / इसके बादसे ही यह विशेषरण उधर प्रचारमें पाया जान पड़ता है; क्योंकि श्वेताम्बर चूरिणयों तथा मल्लवादीके नयचक्र-जैसे प्राचीन ग्रन्थो में जहाँ सिद्धसेनका नामो. ल्लेख है वहीं उनके साथ में 'दिवाकर' विशेपरणका प्रयोग नहीं पाया जाता है। हरिभद्रके बाद विक्रमकी ११वीं शताब्दीके विद्वान् अभयदेवसूरिने सन्मतिटीकाके प्रारम्भमें उसे उसी दु:षमाकालरात्रिके अन्धकारको दूर करनेवालेके अर्थ में अपनाया है / श्वेताम्बर-सम्प्रदायकी पट्टावलियोंमें विक्रमकी छठी शताब्दी मादिकी जो प्राचीन पट्टावलियां है-जैसे कल्पसूत्रस्थविरावली (थेरावली ), नन्दीसूत्रपट्टावली, दुःपमाकाल-श्रमणसंघस्तव-उनमे तो सिद्धसेनका कहीं कोई नामोल्लेख + पायरियसिद्ध सेणेण सम्मइए पइट्टिप्रजमेणं / दूसमरिणसा-दिवागर-कप्पन्तरणमो तदक्खेरणं / / 1048 / देखो, सन्मतिसूत्रको गुजराती प्रस्तावना पृ० 36, 37 पर निशीथचूणि ( उद्देश 4 ) मोर दशारिणके उल्लेख तथा पिछले समय-सम्बन्धी प्रकरणमे उद्धृत नयचक्रके उल्लेख / * "इति मन्वान प्राचार्यों दुषमाऽरसमाश्यामासमयोद्भतसमस्तजनाहार्दसन्तमसविध्वंसकत्वेनावाप्सयथार्थाभिधान: सिद्धसेनदिवाकरः तदुपा ग्भूतसम्मत्यास्यप्रकरणकरणे प्रवर्तमानः..............."स्तवाभिधायिकां गाथामाह।" Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 577 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश ही नहीं है / दुःषमाकालश्रमणसंघकी प्रवचरिमें, जो विक्रमकी हवीं शताब्दीसे बादकी रचना है, सिद्धसेनका नाम जरूर है किन्तु उन्हें 'दिवाकर' न लिखकर 'प्रभावक' लिखा है और साथ ही धर्माचार्यका शिष्य सूचित किया हैवृद्धवादीका नहीं "अत्रान्तरे धर्माचार्य-शिष्य-श्रीसिद्धसेन-प्रभावकः // " दूसरी विक्रमकी १५वीं शताब्दी प्रादिकी बनी हुई पट्टावलियों में भी कितनी ही पट्टावलियां ऐसी हैं जिनमें सिद्धसेनका नाम नहीं है-जैसे कि गुरुपर्वक्रमवर्णन, तपागच्छपट्टावलीसूत्र, महावीरपट्टपरम्परा, युगप्रधानसम्बन्ध ( लोकप्रकाश ) और सूरिपरम्परा / हाँ, तपागच्छपट्टावलीसूत्रको वृत्तिमें, जो विक्रमको १७वीं शताब्दी ( सं० 1648 ) की रचना है, सिद सेनका 'दिवाकर' विशेषणके साथ उल्लेख जरूर पाया जाता है / यह उल्लेख मूल पट्टावलीकी ५वी गाथाकी व्याख्या करते हुए पट्टाचार्य इन्द्रदिन्नसूरिके अनन्तर और दिन्नमूरिके पूर्वको व्याख्यामें स्थित है (r) / इन्द्रदिन्नसूरिको सुस्थित और सुप्रतिबुद्धके पट्टपर दसवाँ पट्टाचार्य बतलाने के बाद 'अत्रान्तरे" शब्दोके साथ कालकसूरि भायखपुट्टाचार्य और मार्यमंगुका नामोल्लेख समयनिर्देशके साथ किया गया है और फिर लिखा है. "वृद्धवादी पादलिपश्चात्र / तथा सिद्धसेनदिवाकरो येनोजयिन्यां महाकाल-प्रासाद-रुद्रलिंगस्फोटनं विधाय कल्याणमन्दिरस्तवेन श्रीपार्श्वनाथ बिम्बं प्रकटीकृतं, श्रीविक्रमादित्यश्च प्रतिबोधितस्तद्राज्यं तु श्रीवीरसप्ततिवर्षशतचतुष्टये 470 संजातं / " इसमे वृद्धवादी और पादलिप्तके बाद सिरसेनदिवाकरका नामोल्लेख करते हुए उन्हें उज्जयिनी में महाकालमन्दिरके रुद्रलिगका कल्याणमन्दिरस्तोत्रके द्वारा स्फोटन करके श्रीपार्श्वनाथके बिम्बको प्रकट करनेवाला और विक्रमादित्यराजाको प्रतिबोधित करनेवाला लिखा है / साथ ही विक्रमादित्यका राज्य वीरनिर्वाणसे 470 वर्ष बाद हुमा निर्दिष्ट किया है, और इस तरह सिद्धसेन दिवाकरको विक्रमको प्रथम शताब्दीका विद्वान् बतलाया है, जो कि उल्लेखित विक्रमादित्य 7 देखो, मुनि दर्शनविनय द्वारा सम्पादित 'पट्टाक्लीसमुचय' प्रथम भाग / Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्राऔर सिद्धसेन . 571 को गलतरूपमें समझनेका परिणाम है / विक्रमादित्य नामके अनेक राजा हुए है। यह विक्रमादित्य वह विक्रमादित्य नहीं है जो प्रचलित संवत्का प्रवर्तक है, इस बातको पं० सुखलालजी प्रादिने भी स्वीकार किया है। प्रस्तु; तपागच्छपदावलीकी यह वृत्ति जिन प्राधारोंपर निर्मित हुई है उनमें प्रधान पद तपागच्छको मुनि सुन्दरसूरिकृत गुर्वावलीको दिया गया है, जिसका रचनाकाल विक्रम संवत् 1466 है / परन्तु इस पट्टावलीमें भी सिद्धसेनका नामोल्लेख नहीं है / उक्त वत्तिसे कोई 100 वर्ष बादके ( वि० सं० 1736 के बादके ) बने हुए 'पट्टावलीसारोद्धार ग्रन्थमें सिद्ध मेनदिवाकरका उल्लेख प्रायः उन्हीं शब्दोंमें दिया है जो उक्त वत्ति में 'तथा' से 'संजातं' तक पाये जाते है। और यह उल्लेख इन्द्रदिन्नमूरिके बाद 'पत्रान्तरे' शब्दोंके साथ मात्र कालकमूरिके उल्लेखानन्तर किया गया है-आर्यखपुट्ट, प्रार्यमंगु, वृद्ध वादी और पादलिप्त नामके प्राचार्योका कालकसूरिके अनन्तर और सिद्धसेनके पूर्व में कोई उल्लेख ही नहीं किया है / वि०सं० 1786 मे भी बादकी बनी हुई श्रीगुरुपट्टावली में भी सिद्धसेनदिवाकरका नाम उज्जयिनीकी लिगस्फोटन-सम्बन्धी घटनाके साथ उल्लेखित है * / इस तरह श्वे० पट्टावलियों-गुर्वावलियोंमें सिद्ध सेनका दिवाकररूपमें उल्लेख विक्रमकी १५वीं शताब्दीके उत्तरार्धमे पाया जाता है कतिपय प्रबन्धों में उनके इस विशेषणका प्रयोग सौ-दो मौ वर्ष और पहलेमे हुमा जान पड़ता। रही स्मरणोंकी वात, उनकी भी प्रायः ऐसी ही हालत है-कुछ स्मरण दिवाकरविशेषणको साथमें लिये हुए हैं और कुछ नहीं है / श्वेताम्बर-साहित्यसे सिद्ध सेनके श्रद्धाञ्जलिरूप जो भी स्मरण अभी तक प्रकाशमें पाये है वे प्राय: "तथा श्रीसिद्ध सेनदिवाकरोपि जातो येनोज्जयिन्यां महाकालप्रामादे रुद्रलिंगस्फोटनं कृत्वा कल्याणमन्दिरस्तवनेन श्रीपाश्र्वनाथबिम्ब प्रकृटीकृत्य श्रीविक्रमादित्यराजापि प्रतिबोषितः श्रीवीरनिर्वाणात् सप्ततिवर्षाधिक शतचतुष्टये 470 ऽतिक्रमे श्रीविक्रमादित्यराज्यं संजातं // 10 // पट्टावलीसमुच्चय पृ० 150 . "तथा श्रीसिद्धसेनदिवाकरेणोजयिनीनगर्या महाकालप्रासादे लिंगस्फोटनं विषाय स्तुत्या 11 काव्ये श्रीपाश्र्वनाथबिम्ब प्रकृटीकृतं, कल्याणमन्दिरस्तोत्रं कृत.।' -पट्टा० स० पृ० 166 Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 572 जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश इस प्रकार है: (क) उदितोऽर्हन्मत-व्योम्नि सिद्धसेनदिधाकरः / चित्रं गोभिः क्षितौ जह कविराज-बुध-प्रभा॥ यह विक्रमकी १३वीं शताब्दी (वि० सं० 1252) के ग्रन्थ मममचरित्रका पद्य है / इसमें रत्नसूरि अलङ्कार-भाषाको अपनाते हुए कहते हैं कि 'प्रहन्मतरूपी माकाशमें सिद्धसेन-दिवाकर का उदय हुअा है, प्राश्चर्य है कि उसकी वचनरूप-किरणोंसे पृथ्वीपर कविराजकी-वृहस्पतिरूप 'शेष' कविकी-और बुधको-बुधग्रहरूप विद्वर्गकी-प्रभा लज्जित हो गई-फीकी पड़ गई है।' (ख) तमतोम स हन्तु श्रीमिद्धसेनदिवाकरः / __ यस्योदये स्थितं मूकैरुलूकैरिव वादिभिः // ___ यह विक्रमकी १४वीं शताब्दी. ( सं० 1324 ) के ग्रन्थ समरादित्यका वाक्य है, जिसमें प्रद्य म्नमूरिने लिखा है कि 'वे श्रीसिद्धसेन दिवाकर (प्रज्ञान) अन्धकारके समूहको नाश करें जिनके उदय होने पर वादीजन उल्लुरोंकी तरह मूक होरहे थे-उन्हें कुछ बोल नहीं पाता था / ' (ग) श्रीसिद्धसेन-हरिभद्रमुरवाः प्रसिद्धाः स्तसुरयो मयि भवन्तु कृतप्रसादाः / येपां विमृश्य सततं विविधानिवन्धान, शास्त्रं चिकीर्षति तनुप्रतिभोऽपि माइक् / / यह 'स्याद्वादरत्नाकर' का पद्य है / इसमें १२वीं-१३वीं शताब्दीके विद्वान् वादिदेवसूरि लिखते हैं कि 'श्रीसिद्ध मेन और हरिभद्र जैसे प्रसिद्ध प्राचार्य मेरे ऊपर प्रसन्न होवें, जिनके विविध निबन्धोंपर बार-बार विचार करके मेरे जैसा अल्प-प्रतिभाका धारक भी प्रस्तुत शास्त्रके रचने में प्रवृत्त होता है / ' (घ) क्व सिद्धसेन-स्तुतयो महा अशिक्षितालापकला क्व चैषा। तथाऽपि यूथाधिपते: पथस्थ: स्वलद्गतिस्तस्य शिशुन शोच्यः / / यह विक्रमकी १२वीं-१३वीं शताब्दीके विद्वान् प्राचार्य हेमचन्द्रकी एक द्वात्रिंशिका-स्तुतिका पद्य है / इसमें हेमचन्द्रमूरि सिद्धसेनके प्रति अपनी श्रद्धाजलि अर्पण करते हुए लिखते हैं कि 'कहाँ तो सिद्धसेनकी महान् पावली Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन गम्भीर स्तुतियां और कहाँ प्रशिक्षित मनुष्योंके पालाप-जसा भरी यह रचना? फिर भी यूथके अधिपति गजराजके पथपर चलता हया उसका बच्चा (जिस प्रकार) स्खलितगति होता हुआ भी शोचकीय नहीं होता-उसी प्रकार में भी अपने यूथाधिपति प्राचार्यके पथका अनुसरण करता हुआ स्खलित होनेपर शोचनीय नहीं हूँ।' यहाँ 'स्तुतयः' 'यूथाधिपतेः' और 'तस्य शिशुः' ये पद्य खास तौरसे ध्यान देने योग्य हैं / 'स्तुतयः' पदके द्वारा सिद्ध सेनीय ग्रन्थों के रूपमें उन द्वात्रिशिकाओंकी सूचना की गई है जो स्तुत्यात्मक हैं और शेष पदोंके द्वारा सिद्धसेनको अपने सम्प्रदायका प्रमुख प्राचार्य और प्रपनेको उनका परम्परा-शिष्य घोषित किया गया है। इस तरह श्वेताम्बर-सम्प्रदायके प्राचार्यरूप में यहां वे सिद्धसेन विवक्षित है जो कतिपय स्तुतिरूप द्वात्रिशिकायोंके कर्ता हैं, न कि वे मिद्ध सेन जो कि स्तुतिभिन्न द्वात्रिंशिकानोंके अथवा खासकर सन्मतिमूत्रके रचयिता हैं / श्वेताम्बरीय प्रबन्धोंमें भी,जिनका कितनाही परिचय ऊपर प्राचुका है, उन्हीं सिद्धसेनका उल्लेख मिलता है जो प्राय: द्वात्रिंशिकामों अथवा द्वाविशवात्रिंशिका-स्तुतियों के कर्तारूपमे विवक्षित है / सन्मतिमूत्रका उन प्रबन्धों में कहीं कोई उल्लेख ही नहीं है / ऐमी स्थिति में सन्मतिकार सिदमेनके लिये जिस 'दिवाकर' विशेषरणका हरिभद्रसूरिने उल्लेख किया है वह बादको नाम-साम्यादिके कारण द्वात्रिशिकायोक कर्ता सिद्धमेन एवं न्यायावतारके का सिद्धसेनके साथ भी जुड़ गया मालूम होता है और सम्भवत: इस विशेशरणके जुड़ जानेके कारण ही तीनों मिद्धसेन एक ही समझ लिये गये जान पड़ते हैं। अन्यथा, प० सुखलालजी प्रादिके शब्दों. (प्र० 10 103 ) में जिन द्वाविंशिकामोंका स्थान सिद्धसेनके ग्रन्थोंमें चढना हुमा है उन्हींके द्वारा मिद्धमेनको प्रतिष्ठिनयश बतलाना चाहिये था, परन्तु हरिभद्रसूरिने वैसा न करके सन्मतिके द्वारा सिद्धसेनका प्रतिष्ठतयश होना प्रतिपादित किया है और इससे यह माफ ध्वनि निकलती है कि सन्मतिके द्वारा प्रतिष्ठितयश होनेवाले सिद्धसेन उन सिद्धमेनसे प्राय: भिन्न हैं जो द्वात्रिशिकामोंको रचकर यशस्वी हुए है। हरिभद्रसूरिके कथनानुसार जब सन्मतिके कर्ता सिद्धसेन 'दिवाकर'को प्राख्याको प्रास पे तब वे प्राचीनसाहित्यमें सिद्धसेन नामके बिना 'दिवाकर' नामसे भी Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 574 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश उल्लेखित होने चाहिये, उसी प्रकार किस प्रकार समन्तभद्र 'स्वामी' नामले उल्लेखित मिलते हैं / खोज करनेपर, श्वेताम्बरसाहित्य में इसका एक उदाहरण' अजरक्खनंदिसेणो' नामकी उम गाथामें मिलता है जिसे मुनि पुण्यविजयजीने अपने 'छेदसूत्रकार और नियुक्तिकार' नामक लेख में 'पावयणी धम्मकही' नामकी गाथाके साथ उद्धृत किया है और जिसमें पाठ प्रभावक प्राचार्यों की नामावली देते हुए 'दिवायरो' पदके द्वारा सिद्धसेनदिवाकरका नाम भी सूचित किया है। ये दोनों गाथाएं पिछले समयादिसम्बन्धी प्रकरणके एक फुटनोट में उक्त लेखकी चर्चा करते हुए उद्धृत की जा चुकी है / दिगम्बर साहित्यमें 'दिवाकर' का यतिरूपसे एक उल्लेख रविषेरणाचार्यके पद्मचरितकी प्रशस्तिके निम्न वाक्यमें पाया जाता है, जिसमें उन्हें इन्द्र-गुरुका शिष्य, प्रर्हन्मुनिका गुरु और रविषेरण के गुरु लक्ष्मणसेनका दादागुरु प्रकट किया है: प्रासीदिन्द्रगुरोदिवाकर-यतिः शिष्योऽम्य चाहन्मुनिः / . तस्मालक्ष्मणसेन-सन्मुनिरदः शिष्यो रविस्तु स्मृतम् / / 123-167 / / इस पद्यमे उल्लेखित दिवाकरयतिका सिद्धमेनदिवाकर होना दो कारणोंसे अधिक सम्भव जान पड़ता है-एक तो समयकी दृष्टिले और दूसरे गुरु-नामकी दृष्टिसे / पद्मचरित वीरनिर्वाणसे 1203 वर्ष 6 महीने बीतनेपर अर्थात् विक्रमसंवत् 734 में बनकर समाप्त हुआ है , इससे रविषेणके पड़ दादा (गुरुके दादा') गुरुका समय लगभग एक शताब्दी पूर्वका अर्थात् विक्रमकी सातवीं शताब्दीके द्वितीय चरण (626-650) के भीतर प्राता है जो सन्मतिकार सिमेनके लिये ऊपर निश्चित किया गया है। दिवाकरके गुरुका नाम यहाँ इन्द्र दिया है, जो इन्द्रसेन या इन्द्रदत प्रादि किसी नामका संक्षिप्त रूप अथवा एक देश मालूम होता है। श्वेताम्बर-पट्टाबलियोंमें जहां सिद्धसेनदिवाकरका नामोल्लेख किया है वहाँ इन्द्रदिन्न नामक पट्टाचार्यके बाद 'पत्रान्तरे' जैसे शब्दोंके साथ उस नामकी वृद्धि की गई है। हो सकता है कि सिद्धमेनदिवाकर (r) देखो, माणिकचन्द्र-ग्रन्थमालामें प्रकाशित रस्नकरावकाचारकी प्रस्तावना पृ० 8 / | द्विशताभ्यधिके समासहस्र समतीते चतष्कवर्षयक्त / ": जिनभास्कर-वर्द्धमान-सिद्ध चरित मुनेरिद निवदन // 123-161 / / Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन 575 के गुरुका नाम इन्द्र-जेसा होने और सिद्धसेनका सम्बन्ध प्राद्य विक्रमादित्य अथवा संवत्प्रवर्तक विक्रमादित्यके साथ समझ लेनेकी भूलके कारण ही मिद्धसेनदिवाकरको इन्द्रदिन्न प्राचार्यको पट्टबाह्म-शिष्यपरम्परामें स्थान दिया गया हो / यदि यह कल्पना ठीक है और उक्त पद्यमें 'दिवाकरयतिः' पद्य सिद्धसेनाचार्यका वाचक है तो कहना होगा कि सिद्धसेनदिवाकर रविषणाचार्यके पड़दादागुरु होनेसे दिगम्बर-सम्प्रदायके प्राचार्य थे / अन्यथा यह कहना अनुचित न होगा कि सिद्धसेन अपने जीवन में 'दिवाकर'की प्राख्याको प्राप्त नही थे, उन्हें यह नाम अथवा विशेषण बादको हरिभद्रसूरि अथवा उनके निकटवर्ती कि पूर्वाचार्यन अलङ्कार की भाषामें दिया है और इसीसे सिद्धसेनके लिए उसका स्वतन्त्र उल्लेख प्राचीन साहित्य में प्राय: देखनेको नहीं मिलता। श्वेताम्बर-साहित्यका जो एक उदाहरगा ऊपर दिया गया है वह रत्नशेखर मूरिकृत गुरुगुणनिशिकाकी स्वोपज्ञवृत्तिका एक वाक्य होने के कारण 500 वर्षसे अधिक पुराना मालूम नहीं होता और इस लिये वह सिद्धसेनकी दिवाकररूपमें बहत बाद की प्रसिद्धि से सम्बन्ध रखता है / आजकल तो सिद्धसेनके लिये दिवाकर नामके प्रयोगकी वाद-सी प्रारही है, परन्तु अति प्राचीनकालमें वैसा कुछ भी मालूम नहीं होता। यहाँपर एक बात और भी प्रकट कर देने की है और वह यह कि उक्त श्वेताम्बर-प्रबन्धो तथा पट्टावलियों में सिद्धसेनके साथ उज्जयिनीके महाकालमन्दिरमें लिङ्गस्फोटनादि-सम्बन्धिनी जिस घटनाका उल्लेख मिलता है उसका वह उल्लेख दिगम्बर-सम्प्रदायमें भी पाया जाता है, जैसा कि सेनगरकी पदावलीके निम्न वाक्यसे प्रकट है : “(स्वस्ति) श्रीमदुज्जयिनीमहाकाल-संस्थापन महाकाललिंगमहीधरवाग्वनदण्डविष्ट्याविष्कृत-श्रीपार्श्वतीर्थेश्वर-प्रतिद्वन्द-श्रीसिद्धसेनभट्टारकाणाम् // 14 // " ऐसी स्थितिमें द्वात्रिशिकानोंके कर्ता सिद्धसेनके विषयमें भी सहज अथवा निश्चितरूपसे यह नहीं कहा जा सकता कि वे एकान्तत: श्वेताम्बर-सम्प्रदायके थे, सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेनकी तो बात ही जुदी है / परन्तु सन्मतिकी प्रस्तावनामें पं० मुखलालजी और पण्डित बैचरदासजीने उन्हें एकान्तत: श्वे. Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 576 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश ताम्बर-सम्प्रदायका प्राचार्य प्रतिपादित किया है-लिखा कि 'वे श्वेताम्बर थे, दिगम्बर नहीं' (पृ० 104) / परन्तु इस बातको सिद्ध करनेवाला कोई समर्थ कारण नहीं बतलाया, कारणरूपमें केवल इतना ही निर्देश किया है कि 'महावीरके गृहस्थाश्रम तथा चमरेन्द्रके शरणागमनकी बात सिद्धसेनने वर्णन की है जो दिगम्बरपरम्परामें मान्य नहीं किन्तु श्वेताम्बर मागमोंके द्वारा निर्विवादरूपसे मान्य है' और इसके लिये फुटनोट में ५वीं द्वात्रिशिकाके छठे और दूसरी द्वात्रिशिकाके तीसरे पद्यको देखने की प्रेरणा की है, जो निम्न प्रकार है - "अनेकजन्मान्तरमग्नमान: स्मरो यशोदाप्रिय यत्पुरस्ते / चचार नि_कशरस्तमर्थ त्वमेव विद्यासु नयज्ञ कोऽन्यः / / 5-6 / / " "कृत्वा नवं सुरवधूभयरोमहर्ष दैत्याधिपः शतमुख-भ्रकुटीवितानः / त्वत्पादशान्तिगृहसंश्रयलब्धचेता लज्जातनुद्युति हरेः कुलिशं चकार / / 2-3 . इनमेंसे प्रथम पद्यमें लिखा है कि 'हे यशोदाप्रिय ! दूसरे अनेक जन्मोमें भग्नमान हुप्रा कामदेव निर्लज्जतारूपी बारणको लिये हुए जो पापके सामने कुछ चला है उसके अर्थको प्राप ही नयके ज्ञाता जानते है, दूसरा और कौन जान सकता है ? अर्थात् यशोदाके साथ आपके वैवाहिक सम्बन्ध अथवा रहस्यको समझने के लिए हम असमर्थ है / ' दूसरे पद्य में देवाऽमुर संग्रामके रूप में एक घटनाका उल्लेख है, जिसमें दैत्याधिप असुरेन्द्रने सुरवधुपोंको भयभीतकर उनके रोंगटे खड़े कर दिये / इससे इन्द्रकी भ्रकुटी तन गई और उसने उसपर वज छोड़ा, असुरेन्द्रने भागकर वीरभगवानके चरणोंका आश्रय लिया जो कि शान्ति के धाम हैं और उनके प्रभावसे वह इन्द्रके वचको लज्जासे क्षीणा ति करने में समर्थ हुना।' ___ अलंकृत भाषामें लिखी गई इन दोनों पौराणिक घटनामोंका श्वेताम्बर. सिद्धान्तोंके साथ कोई खास सम्बन्ध नहीं है और इसलिए इनके इस रूपमें उल्नेम्व मात्रपरसे यह नहीं कहा जा सकता कि इन पद्योंके लेखक सिद्धसेन वास्तव में यशोदाके साथ भ० महावीरका विवाह होना और असुरेन्द्र ( चमरेन्द्र ) का सेना सजाकर तथा अपना भयकर रूप बनाकर युद्धके लिये स्वर्गमे जाना प्रादि मानते थे, और इसलिये श्वेताम्बर-सम्प्रदायके प्राचार्य थे; क्योंकि प्रथम तो श्वेताम्बरो. Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिसूत्र और सिद्धसेन के प्रावश्यकनियुक्ति प्रादि कुछ प्राचीन भागमोंमें भी दिगम्बर मागमोंकी तरह भगवान महावीरको कुमारश्रमणके रूपमें अविवाहित प्रतिपादित किया है , मोर प्रसुरकुमार-जातिविशिष्ट-भवनवासी देवोंके अधिपति चमरेन्द्रका युद्ध की भावनाको लिये हुए संन्य सजाकर स्वर्गमें जाना सैद्धान्तिक मान्यताओंके विरुद्ध जान पड़ता है। दूसरे, यह कथन परवक्तव्यके रूपमें भी हो सकता है और मागमसूत्रोंमें कितना ही कथन परवक्तव्यके रूपमें पाया जाता है इसकी स्पष्ट सूचना सिद्धसेनाचार्यने सन्मतिसूत्र में की है और लिखा है कि ज्ञाता पुरुषको (युक्तिप्रमाण-द्वारा ) प्रथंकी संगतिके अनुसार ही उनकी व्याख्या करनी चाहिए। ___ यदि किसी तरहपर यह मान लिया जाय कि उक्त दोनों पद्योंमें जिन घटनामोंका उल्लेख है वे परवक्तव्य या अलङ्कारादिके रूपमें न होकर शुद्ध श्वेताम्बरीय मान्यताएं है तो इससे केवल इतना ही फलित हो सकता है कि इन दोनों द्वात्रिशिकामों ( 2, 5 ) के कर्ता जो सिद्धसेन है वे श्वेताम्बर थे। इससे अधिक यह फलित नही हो सकता कि दूसरी द्वात्रिशिकानों तथा सन्मतिसूत्रके कर्ता सिद्धसेन भी श्वेताम्बर थे, जब तक कि प्रबल युक्तियोंके बलपर इन सब ग्रन्थोंका कर्ता एक ही सिद्धसेन सिद्ध न कर दिया जाय: परन्तु वह सिद्ध नहीं है जैसा कि पिछले एक प्रकरणमें व्यक्त किया जा चुका है। और फिर इस फलित होने में भी एक वाघा और भाती है और वह यह कि इन द्वात्रिशिकानों में कोई कोई बात ऐसी भी पाई जाती है जो इनके शुद्ध श्वेताम्बर कृतियाँ होनेपर नही बनती, जिसका एक उदाहरण तो इन दोनोंमें उपयोगढयके युगपत्वादका प्रतिपादन है, जिसे पहले प्रदर्शित किया जा चुका है और जो दिगम्बर-परम्पराका सर्वोपरि मान्य सिद्धान्त है तया श्वेताम्बर प्रागमोंकी क्रमवाद-मान्यताके विरुद्ध जाता है। दूसरा उदाहरण पांचवी द्वात्रिशिकाका निम्न वाक्य है: देखो, मावश्यकनियुक्ति गाथा 221,222, 226 तथा अनेकान्त वर्ष 4 कि० 11-12 10 576 पर प्रकाशित 'श्वेताम्बरों में भी भगवान् महावीरके अविवाहित होने को मान्यता' नामक लेख / परबत्तब्वयपक्खा प्रविसिठ्ठा ते तेसु सूत्तम् / " पत्थगई उ तेसि वियं जणं जाणो कुणइ / / 2-18|| .... Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 578 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश "नाथ त्वया देशितसत्पथस्थाः स्त्रीचेतसोऽप्याशु जयन्ति मोहम् / नैघाऽन्यथा शीघ्रगतिर्यथा गां प्राची यियासुर्विपरीतयायी // 25 // " इसके पूर्वार्धमें बतलाया है कि 'हे नाथ !-वीरमिन !-प्रापके बतलाये हुए सन्मार्गपर स्थित वे पुरुष भी शीघ्र मोहको जीत लेते है-मोहनीयकर्मके सम्बन्धका अपने प्रात्मामे पूर्णत: विच्छेद कर देते है-जो 'स्त्रीचेतसः' होते हैं-स्त्रियों-जैसा चित्त ( भाव ) रखते हैं अर्थात् भावस्त्री होते हैं / और इससे यह साफ़ ध्वनित है कि स्त्रियां मोहको पूर्णत: जीतने में समर्थ नहीं होती, तभी स्त्रीचित्तके लिये मोहको जीतनेकी बात गौरवको प्राप्त होती है। श्वेताम्बरसम्प्रदायमे जब स्त्रियाँ भी पुरुषोंकी तरह मोहपर पूर्ण विजय प्राप्त करके उसी भवसे मुक्तिको प्राप्त कर सकती है तब एक श्वेताम्बर विद्वानके इस कथनमें कोई महत्त्व मालूम नहीं होता कि 'स्त्रियों-जैसा चित्त रखनेवाले पुरुष भी शीघ्र मोहको जीत लेते हैं, वह निरर्थक जान पड़ता है / इस कथनका महत्त्व दिगम्बर विद्वानोंके मुखसे उच्चरित होने में ही है जो स्त्रीको मुक्तिकी अधिकारिणी नही मानते फिर भी स्त्रीचित्तवाले भावस्त्री पुरुषों के लिये मुक्तिका विधान करते हैं। अत: इस वाक्यके प्रणेता सिद्धमेन दिगम्बर होने चाहिये, न कि श्वेताम्बर, और यह समझना चाहिये कि उन्होंने इसी द्वात्रिंशिकाके छठे पद्यमें 'यशोदाप्रिय' पदके साथ जिस घटनाका उल्लेख किया है वह अलारकी प्रधानताको लिये हुए परवक्तव्यके रूपमें उसी प्रकारका कथन है जिस प्रकार कि ईश्वरको कर्ताहर्ता न माननेवाला एक जैनकवि ईश्वरको उलहना अथवा उसकी रचनामें दोष देता हग्रा लिखता है "हे विधि ! भूल भई तुमतें, समुझे न कहाँ कस्तूरि बनाई ! दीन कुरङ्गनके तनमें, तृन दन्त धरै करुना नहि आई / / क्यों न रची तिन जीभनि जे रस-काव्य करै परको दुखदाई। साधु-अनुग्रह दुर्जन-दण्ड, दुहूँ सधते बिसरी चतुराई / / " इस तरह सन्मतिके कर्ता सिद्धसेनको श्वेताम्बर सिद्ध करनेके लिये जो द्वात्रिशिकापोंके उक्त .दो पद्य उपस्थित किये गए है उनसे सन्मतिकार सिद्ध सेनका श्वेताम्बर सिद्ध होना तो दूर रहा, उन द्वात्रिशिकामोंके कर्ता सिद्धसेनका भी श्वाम्बर होना प्रमाणित नहीं होता जिनके उक्त दोनों पर Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन : 576 अङ्गरूप है / श्वेताम्बरस्वकी सिद्धि के लिये दूसरा और कोई प्रमाण उपस्थित नहीं किया गया और इससे यह भी साफ मालूम होता है कि स्वयं सन्मतिमूत्रमें ऐसी कोई बात नहीं है जिससे उसे दिगम्बरकृति न कहकर श्वेताम्बरकृति कहा जा सके, अन्यथा उसे जरूर उपस्थित किया जाता / सन्मतिमें ज्ञानदर्शनोपयोगके अभेदवाद की जो खास बात है वह दिगम्बर मान्यताके अधिक निकट है, दिगम्बरोंके युगपद्वादपरसे ही फलित होती है न कि श्वेताम्बरोंके क्रमवादपरसे, जिसके खण्डनमें युगपद्वादकी दलीलोंको सन्मतिमें अपनाया गया है / और श्रद्धात्मक दर्शन तथा सम्यग्ज्ञानके अभेदवादकी जो बात सन्मतिके द्वितीयकाण्डकी गाथा ३२-३३में कही गई है उसके बीज श्रीकुन्दकुन्दाचार्यके समयसार ग्रंथमें पाये जाते हैं। इन बीजोंकी बातको पं० सुखलालजी प्रादिने भी सन्मतिकी प्रस्तावना (पृ० 62) में स्वीकार किया है-लिखा है कि "सन्मतिना (कां० 2 गाथा 32 ) श्रद्धा-दर्शन अपने ज्ञानना ऐक्यवादनु बीज कुन्दकुन्दना समयसार गा० 1-13 मां + स्पष्ट छ।" इसके सिवाय, समयसारकी जो परमाद अप्पारणं' नामको १४वीं गाथामें शुद्ध नयका स्वरूप बतलाते हुए जब यह कहा गया है कि वह नय प्रात्माको अविशेषरूपसे देखता है तब उसमे ज्ञान-दर्शनोपयोग की भेद-कल्पना भी नही बनती और इस दृष्टिले उपयोग-द्वयकी अभेदवादताके बीज भी समयसारमें सन्निहित है ऐसा कहना चाहिये। हो, एक बात यहाँ और भी प्रकट कर देनेकी है और वह यह कि पं० सुखलाल त्रीने 'मिद्ध सेनदिवाकरना समयको प्रश्न' नामक लेखमें 8 देवनन्दी पूज्यपादको "दिगम्बरपरम्पराका पक्षपाती सुविद्वान्" बतलाते हुए सन्मतिके कता सिद्ध सेनदिवाकरको "श्वेताम्बरपरम्पराका समर्थक आचाय" लिखा 1 यहाँ जिस गाथाकी सूचना की गई है वह 'दसणणाणचरितारिण' नाम की १६वीं गाथा है / इसके अतिरिक्त 'ववहारेणुवदिस्सइ गाणिस्स चरित्त दंसरणं गाण' (7), 'सम्मइंसणणारणं एसो लहदि त्ति रणवरि ववदेस' (144), और 'गाणं सम्मादिटु दु संजमं सुत्तमंगपुन्वगयं' (404) नामकी गाथाओंमें भी प्रभेदवादके बीज संनिहित हैं / 9 भारतीयविचा, तृतीय भाग पृ० 154 / .. .. . Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 580 जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश है, परन्तु यह नहीं बतलाया कि वे किसरूपमें श्वेताम्बरपरम्पराके समर्षक है। दिगम्बर मोर श्वेताम्मरमें भेदकी रेखा खींचने वाली मुख्यत: तीन बातें प्रसिद्ध है-१ स्त्रीमुक्ति, 2 केवलिमुक्ति (कवलाहार) पोर 3 सबस्नमुक्ति, जिन्हें श्वेताम्बर-सम्प्रदाय मान्य करता पोर दिगम्बर-सम्प्रदाय अमान्य ठहराता है। इन तीनोंमेंसे एकका भी प्रतिगदन सिद्धसेनने अपने किसी ग्रन्थमें नहीं किया है पोर न इनके अलावा अलंकृत अथवा शृङ्गारित जिन प्रतिमामोंके पूजनादिका ही कोई विधान किया है, जिसके मण्डनारिककी भी सन्मतिके टीकाकार अभयदेवसूरिको जरूरत पड़ी है और उन्होंने मूलमें वैसा कोई खास प्रसङ्गन होते हुए भी उसे यों ही टीकामें लाकर घुसेड़ा है। ऐसी स्थितिमें सिरसेनदिवाकरको दिगम्बरपरम्परामे भिन्न एकमात्र श्वेताम्बर परम्पराका समयंक प्राचार्य कसे कहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता / सिद्धसेनने तो श्वेता. म्बरपरम्पराकी किसो विशिष्ट बातका काई समधन न करके उल्टा उसके उपयोग द्वय विषयक क्रमबादकी मान्यतामा सन्मतिम जोरोंके साप सहन किया है और इसके लिये उन्हें अनेक साम्प्रदायिक कट्टरनाक विकार श्वेतामर भाचार्यों का कोपभाजन एव निरस्कारका पात्र नक बनना पड़ा है। मुनि बिनविजयजाने 'सिद्ध मेनदिवाकर और स्वामी ममन्तभद्र'नामक लेख में उनके इस विचार-भेद का उल्लेख करते हुए लिखा है:___ "सिद्ध सेनजी के इस विचारभेदके कारण उस समयके मिडार-प्रन्थ-पाटी और मागमप्रवरण प्राचार्यगण उनको 'नकम्मन्य' जमे निरस्कार पत्रक विशेषणोन अलंकृत कर उनके परिवाना मामान्य प्रनादर-मार प्रकट किया करते थे।" "इस (विशेषावश्यक) भाष्य में क्षमाश्रमण (जिनभद्र)जीने दिवाकरजीक उक्त विचारभेदका खूब ही सारन किया है और उनको 'पागम-विष्ट-मापी * देखो, सन्मति-तृतीयकापडात गाथा ६५को टीका (10 754), जिसमें "भगवत्प्रतिमाया भूषणाचारोपणं कर्मयकार' स्पादि रूपसे मणन किया / गया है। जनसाहित्यसंगोषक, भाग 1 मा 1 पृ० 10,11 / Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिसूत्र पौर सिद्धसेन बसलाकर उनके सिद्धान्तोंको प्रमान्य बतलाया है।' "सिडसेनगणीने 'एकादीनि माज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्म:' (1-31) इस सूत्रकी व्याख्या दिवाकरजीके विचारभेदके ऊपर अपने ठीक वागण चलाये है / गणीजीके कुछ वाक्य देखिये --"यद्यपि केचित्पण्डितमन्या:: सूत्रान्यथाकारमर्थमाचक्षते तर्कबलानुविद्धबुद्धयो वारंवारेणोपयोगो नास्ति, तत्तु न प्रमाणयाम., यत प्राम्नाये भूयांसि सूत्राणि वारंवारेरणोपयोग प्रतिपादयन्ति / " दिगम्बर साहित्य में ऐसा एक भी उल्लेख नहीं जिसमें सन्मतिमूत्रके कर्ता सिद्ध सेनके प्रति अनादर अथवा निरस्कारका भाव व्यक्त किया गया होसत्र उन्हें बड़े ही गौरवके माप स्मरण किया गया है. जैसा कि ऊपर उद्धृत हरिवंशपुराणादिके कुछ वाक्यों में प्रकट है / प्रकलंकदेवने उनके प्रभेदवादके प्रति अपना मतभेद व्यस्त करते हग किमी भी कटु शन्दका प्रयोग नहीं किया, बल्कि बरे ही पादरके माथ लिखा है कि "यथा हि असद्भूनमनुपदिष्टं च जानानि तथा पश्यति किमत्र भवतो हीयते"-अर्थात् केवनी / सबंक) जिस प्रकार सदभूत पोर अनुपदिष्टको जानता है उसी प्रकार जनको देखना भी है हमके मानने में पापको क्या हानि होती है ?-वास्तविक बाततो प्राय: ज्योको स्यों एक ही रहती है। प्रकलंकदेवके प्रधान टीकाकार मावायं श्रीमनन्तत्रीय प्रोने मितिविनिदचयकी टीकामे 'असिद्धः सिद्धसेनस्य विरुदो देवनन्दिनः / द्वधा ममन्तभद्रभ्य हेतुरकान्तसाधने / ' इस कारिकाकी व्याख्या करते हर मिसनका महान भादरसूचक 'भगवान' बल के साथ उल्लेखित किया है और जब उनके किसी स्वयूप्पने-स्वसम्प्रदायके विद्वानने-यह भापति की कि सिटसेनने एकान्नके साधनमें प्रयुक्त हेतुको कहीं भी पसिब नही बनलाया है प्रतः एकानके माधनमे प्रयुन हेतु सिटसेन. की दृष्टि पसिद्ध है यह बबन का न होकर प्रयुक्त है. तब उन्होंने यह कहते हुए कि क्या उसने कभी सन्मनिमूत्रका यह वाक्य नहीं सुना है, 'चे संतवायदोम' इत्यादि कारिका (3.50) को उदषत किया है और उसके अरा एकान्त-साधनमें प्रयुक्त हेतुको सिडमेनकी दृष्टिमें 'पसिद्ध' प्रतिपादन करना सन्निहित बसलाकर उसका समाधान किया है। पवा: Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '582 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश . "प्रसिद्ध इत्यादि, स्वलक्षणैकान्तस्य साधने सिद्धावङ्गीक्रियमानायां सर्वो हेतुः सिद्धसेनस्य भगवतोऽसिद्धः / कथमिति चेदुच्यते ........ / तत: सूक्तमेकान्तसाधने हेतुरसिद्धः सिद्धसेनस्येति / कश्चित्स्वयूध्याऽत्राह-सिद्धसेनेन कचित्तस्याऽसिद्धस्याऽवचनादयुक्तमेतदिति / तेन कदाचिदेतत श्रुतं- 'जे संतवायदोसे समोल्लूया भणति सखाएं। संस्खा य असल्याए तेसिं सव्वे वि ते मया / " इन्हीं सब बातोंको लक्ष्यमें रखकर प्रसिद्ध श्वेताम्बर विद्वान स्वर्गीय श्रीमोहनलाल दलीचन्द देशाई बी. ए. एल.एल. बी., परलोकेट हाईकोर्ट बंबईन, अपने 'जैनमाहित्यनो मक्षिस निहाम' नामक गुजगती प्रन्य(पृ०११६ / में लिखा है कि "सिद्धमनमूरि प्रत्येनो पादर दिगो विद्वानोमा रहना देखाय छ' अर्थात् ( सन्यनिकार ) मिडमनाचार्य के प्रति पादर दिगम्बर विद्वानाम रहा दिखाई पडता है-श्वेताम्बगेम नहीं। माथ ही हरियापुराण राजवानिक, सितिविनिश्चय टीका, रत्नमाला. पाश्वनाथरिन पोर का खप्डन-जैसे दिगम्बर ग्रन्थो तथा उनके ग्य ता जिनसेन, प्रकलक. अनन्तबीय. शिवकोटि, वादिराज और नमीट (घर) जैस गियर विद्वानोंका नामाल्लेख करते हुए यह भी बतलाया है कि इन दिगम्भर विद्वानांनं मिमनमूरि-मरधी और उनके मम्मतितकं सवधी उल्लेम्ब निमावर विय, और उन उल्लेबासे यह जाना जाता है, कि दिगम्बर ग्रन्दकामे पना समय तक मिटमनक (उक्त ग्रन्थका प्रचार था और वह प्रचार इतना अधिक था कि उसपर उन्हान रीका भी रची है। इस मार्ग पर्गिम्यानपरमे यह माफ समझा जाता और पनुभवमें पाता है. कि यन्मतिमूत्रके कर्ता मिसन तक महान दिगम्बगचायं थे, पोर इसमय 3. श्वेताम्बर-परम्पगका प्रथवा वेताम्बर का समर्थक प्राचार्य बतलाना काग कल्पनाके मिवाय और कुछ भी नहीं है। वे अपने प्रवचन-प्रभाव पाक्षिके कारण श्वेताम्बर-सम्प्रदायमें भी उसी प्रकारमे अपनाये गये हैं जिस प्रकार कि स्वाम: समन्तभद्र, जिन्हें श्वेताम्बर पट्टायलियोमे पहानायं तकका पद प्रदान किया गया है और जिन्हें पं० मुखलाल, पं.सरदाम और मनि जिनपिवन पादियो. बड़े श्वेताम्बर विद्वान भी अब श्वताम्बर न मानकर गिभर मानने मने है। Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....... सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन .. .. कतिपय द्वानिक्षिकामों के कर्ता सिमेन इन सन्मतिकार सिद्धसेनसे भिन्न तथा पूर्ववर्ती दूसरे ही सिद्धसेन है, जैसा कि पहले व्यक्त किया जा चुका है, और सम्भवत: वे ही उज्जयिनीके महाकालमन्दिरवाली घटनाके नायक जान पड़ते हैं। हो सकता है कि वे गुरूसे श्वेताम्बर-सम्प्रदायमें ही दीक्षित हुए हो, परन्तु श्वेताम्बर भागमोंको संस्कृतमें कर देने का विचारमात्र प्रकट करनेपर जब उन्हें गरह वर्ष के लिये संघबाह्य करने जैसा कठोर दण्ड दिया गया हो तब वे सविशेषरूपसे दिसम्बर साधुपोंके सम्पर्क में पाए हों, उनके प्रभावसे प्रभावित तथा उनके संस्कारों एवं विचागेको ग्रहण करने में प्रवृत्त हुए हों-खासकर समन्तभद्रस्वामीके जीवनवृतान्नों और उनके साहित्यका उनपर सबसे अधिक प्रभाव पड़ा हो पौर इसी लिये वे उन्ही-जैसे स्तुन्यादिक कार्योंके करने में दत्तचित्त __इस प्रभावादिकी पुष्टि पहनी दाविशिकाम भने प्रकार होती है, उिसमें "अनेन सर्वज्ञपरीक्षणक्षमाम्वयि प्रसादादयमामवाः स्थिताः / " जैसे वाक्योंके द्वारा समन्तभदका सवंज-प्राप्त के समयं परीक्षा प्रादिके रूपमे गौरवपूर्ण पदों में उल्लेख ही नहीं किया गया बल्कि अन्नके निम्न पद्यमें वही 'सर्वजगनके युगपत् साक्षात्कारी सवंशकी बात उठाकर उसकी गुण-कथामें समन्तभद्रके अनुकरणको स्पष्ट मूचना भी की गई है -- लिखा है कि इस सर्वजद्वारको समीक्षा करके हम भी पापको गुग्ग-कयाके करनेमे उत्सुक हुए है - "जगन्नै कायम्थं युगपदविनाऽनन्तविपयं यहेनत्प्रत्यक्ष तव नच भवान्कस्यचिदपि / बोनेवाऽचिन्त्य-प्रकृनिरम-मिद्धम्नु विदुपां सनीयतदद्वार नयगुण-कोन्का वयमपि // 32 / / साथ ही यह भी संभव है कि उन्होके सम्पर्क एवं संस्कारों में रहते हुए हो मिसेनसे उबपिनीकी व महाकालमन्दिरवाली घटना बन पड़ी हो, जिससे उनका प्रभाव पारों ओर फैन गया हो और उन्हें भारी राजाश्रय प्रास हुमा हो / यह सब देखकर ही देतामारसंघको पानी मूल मालुम पड़ी हो, उसने प्रायश्चित्तकोष प्राषिको रद्द कर दिया हो मोर सिडसेनको अपना ही साधु Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 564 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशन प्रकाशं तथा प्रभावक प्राचार्य घोषित किया हो / अन्यथा, द्वात्रिंशिकायोंपरसे सिडसेन गम्भीर विचारक एवं कठोर समालोचक होने के साथ साथ जिस उदार स्वतन्त्र पौर निर्भय-प्रकृतिके समर्थ विद्वान् जान पड़ते हैं उससे यह माशा नहीं की जा सकती कि उन्होंने ऐसे मनुचित एवं प्रविवेकपूर्ण दण्डको यों ही चुपके-से गर्दन झुकाकर मान लिया हो, उसका कोई प्रतिरोध न किया हो अथवा अपने लिये कोई दूसरा मार्ग न चुना हो / सम्भवतः अपने साथ किये गये ऐसे किसी दुव्यंवहारके कारण ही उन्होंने पुराणपन्थियों अथवा पुरातनप्रेमी एकान्तियोंकी (डा. त्रिशिका ६में) कड़ी मालोचनाएं की है। यह भी हो सकता है कि एक सम्प्रदायने दूसरे सम्प्रदायकी इस उज्जयिनीवाली घटनाको अपने सिर सेनके लिये अपनाया हो अथवा यह घटना मूलतः कांची या काशी में घटित होनेवाली समन्तभद्रको घटनाको ही एक प्रकार कापी हो और इसके द्वारा सिद्धसेनको भी उमप्रकारका प्रभावक स्थापित करना अभीष्ट रहा हो / कुछ भी हो, उक्त द्वात्रिशिकामोंके का सिद्धसेन अपने उदार विचार एवं प्रभावादिके कारण दोनों सम्प्रदायोमें समानम्पसे पाने जाते है-चाहे वे किसी भी सम्प्रदायमें पहले अथवा पीछे दीक्षित क्यों न हुए हों। __परन्तु न्यायावतारके कर्ता मिसनकी दिगम्बर-सम्प्रदायों बंसी कोई बाम मान्यता मालूम नहीं होती और न उम ग्रन्थपर दिगम्बरोंकी किसी खास टीकाटिप्पणीका ही पता चलता है, इमोमे वे प्राय: श्वेताम्बर जान करते है / श्वेता. म्बरोंके अनेक टीका-टिप्पण भी न्यायावतारपर उपलब्ध होते है. उसके प्रमाण स्वपरामासि' इत्यादि प्रयम इलोकको लेकर तो विक्रमकी ११वी शताब्दीक विद्वान् जिनेश्वरसरिने उस पर 'प्रमालक्ष्म' नामका एक सटीक वार्तिक ही रच डाला है, जिसके अन्त में उसके रचने में प्रवृत्त होनेका कारण दुर्जनवाक्योंको बतलाया है जिनमें यह कहा गया है कि 'इन इवेताम्बरीक दलक्षरण और प्रमाणलक्षण-विषयक कोई अन्य अपने नहीं है-ये परलभरपोरंजीवी है-बौद्ध तथा दिगम्बरादि ग्रन्थों से अपना निर्वाह करनेवाले है-प्रत: ये प्राविसे नही-- किसी निमित्त से नये ही पैदा हुए पर्वाचीन है। साथ ही यह भी बताया है कि 'हरिभद्र, मल्लवादी और प्रभयदेवमूरि-जैसे महान् प्राचायोंकि वारा इन विषयोंकी उपेक्षा किये जानेपर भी हमने उसकारणसे यह प्रमानम' नामका Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्मतिसूत्र और सिखसेन 565 अन्य बातिकरूपमें अपने पूर्वाचार्यका गौरवप्रकाशित करने के लिये ( टीका"पूर्वाचायगौरव-दर्शना") रचा है और (हमारे भाई ) बुद्धिसागराचार्यने संस्कृत-प्राकृत-शब्दोंकी सिद्धि के लिये पोंमें व्याकरण पन्थकी रचना की है। इस तरह सन्मतिसूत्रके वर्ता सिद्धसेन दिगम्बर और न्यायवतार के कर्ता सिख सेन श्वेताम्बर जाने जाते है। द्वात्रिशिकामोंमेंसे कुछके कर्ता सिद्धसेन दिगम्बर मोर कुछ के कर्ता श्वेताम्बर जान पड़ते है और वे उक्त दोनों सिटमेनोंसे भित्र पूर्ववर्ती तथा उत्तरवर्ती अथवा उनमे अभिन्न भी हो सकते है। ऐसा मालूम होता है कि उज्जयिनीकी उस घटनाके साथ जिन सिद्धसेनका सम्बन्ध बतलाया जाता है उन्होंने सबसे पहले कुछ टात्रिशिकमोंकी रचना की है, उनके बाद दूसरे सिद्धसेनान भी कुछ द्वात्रिशिकाएँ रची है और वे सब रचयितामोंके नामसाम्यके कारण परस्परमें मिल जुल गई है, प्रतः उपलब्ध द्वात्रिशिकामों में यह निश्चय करना कि कोन मी द्वात्रिगिका किस सिद्धसेनकी कृति है विशेष अनुसन्धानमे मम्बन्ध रखना है। माधारणतौरपर उपयोगदयके युगपडादादिकी इष्टिमे. जिमे पीछे पट किया जा सका है. प्रथमादि पांचवात्रिशिकामाको दिगम्बर सिद्ध मेनकी. १९वीं तथा 21 वींद्वात्रिशिकामोंको वेताम्बर सिमेनकी और शेष द्वात्रिशिकानोंको दोनोंमेमे किसी भी सम्प्रदायके सिमेनकी प्रथवा दोनों ही सम्प्रदायोंके मिडमेनोंकी पलग अलग कृति कहा जा सकता है। यही इन विभिन्न मिढ मेनोंके सम्प्रदाय-विषयक विवेचनका सार है। MIN देखो, मासिक मं०४८१ से 405 और उनकी टीका अथवा जनहितैषी भाग 11 क १.१.में प्रकाशित मुनिजिनविजयजीका 'प्रमालारण नामक लेख। Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ तिलोयपप्णत्ती (त्रिलोकप्राप्ति ) तीन लोबके स्वरूप, माकार, प्रकार, विस्तार, क्षेत्रफल भोर युग-परिवर्तनादि-विश्यका निरूपक एक महत्वका प्रसिद्ध प्राचीन ग्रन्थ है-प्रसंगोपात जैनसिद्धान्त, पुराण मोर भारतीय इतिहासविषयको भी कितनी ही बातों एवं सामग्रोको यह साथमें लिये हुए है। इसमें 1. सामान्यजगत्स्वरूप, 2. नारकलोक, 3. भवनवामिलोक, 4. मनुष्यलोक. 5. तिर्यक्लोक, 6. अन्तरलोक, 7. ज्योतिर्मोक, 8. सुरमोक और 6. मिद्ध. लोक नामके हैं महाधिकार है। प्रवागार प्रधिकारों की संख्या 180 केसगभग है. क्योंकि द्वितीयादि महाधिकारोंके प्रवान्तर प्रधिकार कमश: 15, 24. 16.:. 17, 17, 21, 5 ऐसे 131 है और बोये महाधिकारके जम्बूद्वीप, धानको खण्डद्वीप और पुछारदीप नामके प्रवान्नर अधिकारों में प्रत्येक फिर सोलासोलह (1643%D48 ) प्रवान्तर अधिकार है / इस तरह यह पन्य अपन विषयके बहुत विस्तारको लिये हुए है। इसका प्रारंभ निम्न मंगलगापाम होना है, जिसमें सिद्धि-कामनाके साथ सिमोंका स्मरण किरा गया है: अट्टविह-कम्म-वियला णिद्वियकामा पण?-संसारा। दिटु-सयलटु-सारा सिदा सिद्धि मम दिसतु // 1 // अन्यका अन्तिम भाग इस प्रकार है: पणमह जिणवरवसहं गणहरयसह तहेव गुण[ ] सह / दहण परिसवसह (?) जरियसह धम्ममुत्पाउगवसई -8|| Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ arwarNi ranirwhy . तिलोयपण्णसी और यतिवृषम चुरिणसरूवं पत्थं करणसरूवपमाण होदिक (1) जंत। असहस्सपमाणं तिलोयपएणत्तिणामाए || 6-76 || . एवं माइरियपरंपरागए तिलोयपण्णत्तीए सिद्धलोयसरूवणिरूवणपण्णत णाम णयमो महाहियारो सम्मत्तो / मग्गप्पमावणटुं पवयण-मत्तिप्पचोदिदेण मया / मणिद गंथप्पवरं मोहंतु बहुमुदाइरिया | E-80 // तिलोयपएणत्तो सम्मत्ता / / इसमें तीन गाथाएं हैं, जिनमें पहली गाथा ग्रन्थक मन्तमंगलको लिये हुए है और उसमें ग्रन्धकार नियुषमाचार्यने 'जदिवसह' पदके द्वारा, श्लेषरूपये अपना नाम भी सूचित किया है / इसका दूमग पोर तोमरा चरण कुछ अशुद्ध जान पड़ते है। दूसरे चरण में 'गुग्ण' के अनन्नर 'हर' और होना चाहिये-देहली की प्रनिमें भी अटिन अंगके संकेतपूर्वक उसे हाशियेपर दिया है, जिससे यह उन गुणधगचायंका भी वाचक हो जाता है जिनके 'कसायपाहुड' मिटान्न प्रत्यपर यनिवृषभने चम्गिमूत्रोंकी रचना की है और उस 'हर' शब्दके संयोगमे 'पार्यागीनि छदके लक्षणानुरूप दूसरे चरणमें भी 20 मात्राएं हो जाती है जैमी कि वे चनुथं चरण में पाई जाती है। तीसरे चरणका पाठ 10 नाथूरामजी प्रेमीने पहले यही 'द गण परिमवमहं'प्रकट किया था, जो देहलोकी प्रतिमें भी पाया जाना है और उसका संस्कृतका 'दृष्ट्वा परिषवृषभ' दिया था, जिसका अर्थ होता है - परिणाम घंष्ठ परिपद ( सभा) को देखकर / परन्तु परिस' का पर्व कोषौ परिषद नही मिलता किन्तु ‘म्पर्श' उपलब्ध होता है, परिषदका वाचक परिमा' शब्द स्त्रीलिग है। शायद यह देखकर अथवा दूसरे किसी कारण वा, जिसकी कोई सूचना नहीं की गई, हाल में उन्होंने .श्लेषरूपसे नाम-मूचनक पति अनेक ग्रन्थो में पाई जानी है। देखो, मोम्मटमार, नीतिवाक्यामृत पौर प्रभाचन्द्रादिक ग्रन्थ / देखो, जनहितेषी भाग 13 अंक 12 10 528 / +देखो, 'पाइमसहमहम्णव'कोश / Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ww.mmmm 588 जनसाहित्य और इतिहासपर विराद प्रकाश 'दुरण य रिसिवसहं पाठ दिया है , जिसका अर्थ होता है-'ऋषियों में श्रेष्ठ ऋषिको देखकर' / परन्तु 'जदिवसह की मौजूदगी में 'रिसिवसह पद कोई खास विशेषता रखता हुमा मालूम नहीं होता-ऋषि, मुनि यति जैसे शब्द प्राय:समान प्रर्यके वाचक है-पौर इसलिये वह व्ययं पड़ता है। प्रस्तु,इस पिछले पाठको लेकर पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीने उसके स्थानपर 'द्र गण परिसवसह पाठ सुझाया है और उसका अर्थ 'माग्रन्थोंमें श्रेष्ठकों, देखकर भूचित किया है। परन्तु 'परिस' का अर्थ कोषमें 'मा' उपलब्ध नहीं होता किन्तु 'मशं' (बवासीर) नामका रोगविशेष पाया जाता है, मापके लिये 'पारिस' शन्दका प्रयोग होता है। यदि 'परिस' का प्रथं पाप भी मान लिया जाय अथवा 'प' के स्थान पर कल्पना किये गए 'प्र' के लोपपूर्वक इम चरणको 'दट्टणारिसवसहं' ऐसा रूप देकर (जिसकी उपलब्धि कहींसे नही होती) संधिके विश्लेषण-द्वारा इसमेंसे पार्षका वाचक 'मारिस' शब्द निकाल लिया जावे,फिर भी इस चरणमें 'द रण' पद सबसे अधिक खटकनेवाली चीज मालूम होता है. जिमपर अभी तक किसीकी भी दृष्टि गई मालूम नहीं होती / क्योंकि हम पदकी मौजूदगीमें गायाके पर्थकी ठीक संगति नहीं बैठती-उममें प्रयुक्त हमा 'पगणमह' (प्रग्गाम कगे) कियापद कुछ बाधा उत्पन्न करता है और उसमे प्रथं मुव्यवस्थित प्रथया मुशवलित नहीं हो पाता / ग्रन्थकारने यदि 'दाग' ( दृष्टवा) पदको अपने विषयमें प्रयुक्त किया है तो दूसग क्रियापद भी अपने ही विषयका होना चाहिये था मर्थात् वृषभ या ऋषिवषम पादिको देखकर मैंने यह कार्य किया या मे प्रणामादि प्रमुक कार्य करता हूं ऐसा कुछ बतलाना चाहिये था, जिसकी गाथापरसे उपलब्धि नहीं होती। और यदि यह पद दूसरोंमे सम्बन्ध रखता है-उन्हींकी प्रेरणाके लिये प्रयुक्त हुना है तो 'दटटा' और 'पगम, दोनों क्रियापदोंके लिये गाथामें अलग अलग कर्मपदोंकी संगति विठलानी चाहिये, जो नहीं बंटती। गाथाके वसहान्त पदोंमेंसे एकका वाच्य तो देखनेकी ही वस्तु हो और दूसरेका 6 देखो, जनसाहित्य और इतिहास पृ०६ / * देखो, जनसिद्धान्तभास्कर भाग 11 किरण 1, 1080 / * देखो, 'पाइप्रसमहष्णव' कोश / Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिलोयपश्याची और विषम वाच्य प्रणामकी वस्तु, यह बात संदर्भपरसे कुछ संगत मासूम नहीं होती। और इसलिये 'द रण' पदका अस्तित्व यहाँ बहुत ही मापत्तिके योग्य जान पड़ता है। मेरी रायमें यह सीसरा परण 'बदुरण परिसवसह' के स्थानपर 'दुइ परीसह. विसही होना चाहिये / इससे गाया अपंकी सब संगति ठीक बैठ जाती है। यह माथा जयषवमाके १०वें अधिकारमें बतौर मंगलाचरणकं अपनाई गई है, वही इसका तीसरा चरण 'दुसहपरीमहबिसहं' दिया है। परिवहकं साथ दुसह (दुःसह) और दुठठ ( दुष्ट) दोनों शब्द एक ही प्रर्यके वाचक है-दोनोंका मामय परीपहको बहुत दुरी तथा असह्य बतलानंका है / लेखकोंकी कृपासे 'दुसह की अपेक्षा 'दुट' के 'दटतण' होजानेको अधिक संभावना है. इसीमे यहाँ 'दुट' पाठ मुझाया गया है, वैमे 'दुसह पाठ भी ठीक है। यहां इतना और भी जान मेना चाहिये कि जयभवनामे इस गाथाके दूसरे चरणमें गुणवसह' के स्थानपर 'पुणहरवमह पाठ ही दिया है. पोर इस तरह इस गायाके दोनों चरणोंमें जो ममती और दि मुझाई गई है उसकी पुष्टि भले प्रकार हो जाती है। दूसरी गाया इस क्लिोयरातोका परिमागा प्राठ हजार श्लोक-जितना बत गया है। साथ ही एक महत्वकी बात और मूचित की है और वह यह कि पाठ हजारका परिमाण गितार प्रयंका पोर करगणस्वरूपका जितना परिमाण है उसके बगबर है। इसमें दो बाते फलित होती हैं-एक तो यह कि सुधगचाय के कमायपाड प्रत्यार यनिवृषभने जो चरिणमूत्र रचे हैं वे इस सबसे पहले रचे जा चुके हैं। दूमगे यह कि कररणस्वर' नामका भी कोई मंच पतिवृषभ के दाग ना गया है, जो अभी तक उपलब्ध नहीं हुपा / वह भी इस ग्रन्धसे पहले बन पापा / बहन मम्भव है कि वह गन्ध उन करणसूत्रोंका ही ममूह हो ओ गणितम् कहलाते हैं और जिनका कितना हो उल्लेख पिनोक-प्रशसि, गोम्मटमार, त्रिलोकसार और धवला-जैसे ग्रन्थों में पाया जाता है। णिमूत्रोंकी-जिन्हें वृत्तिमूत्र भी कहते हैं-मस्या चुकि छह हजार स्लोक-परिमाम्म है प्रतः 'करणस्वरूप' ग्रंपकी संख्या दो हजार श्लोक. परिमाण समझनी चाहिये: तभी दोनों की संख्या मिलकर पाठ हजारका परिमाल इस संपका बंठना है। तीसरी गापामें यह निवेदन किया गया है कि यह प्रवचनर्मातसे प्रेरित होकर मार्गकी प्रभावनाके लिये रखा गया है, इसमें Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 560 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश कहीं कोई भूल हुई हो तो बहुश्रुत मावार्य उसका संशोधन करें। (क) ग्रन्थकार यतिवृषभ और उनका समय ग्रंथमें रचना-काल नहीं दिया और न ग्रंथकारने अपना कोई परिचय ही दिया है-उक्त दूसरी गायापरसे इतना ही ध्वनित होता है कि वे धर्मसूत्रके पाठकोंमें श्रेष्ठ थे और इसलिये ग्रंथकार तथा ग्रंथके समय-सम्बन्धादिमें निश्चितरूपसे कुछ कहना सहज नहीं है / चरिणसूत्रोंको देखने से मालूम होता है कि यतिवृषभ एक अच्छे प्रौढ सूत्रकार ये भोर प्रस्तुत ग्रन्थ जैनशास्त्रों के विषयगे उनके मच्छ विस्तृत अध्ययनको व्यक्त करता है / उनके सामने 'लोकविनिश्चय' 'मगाइणी' (संग्रहणी ? ) पौर 'लोकविभाग (प्राकृत) जैसे कितने ही ऐम प्राचीन ग्रन्थ भी मौजूद थे जो प्राज अपनेको उपलब्ध नहीं है और जिनका उन्होंने अपने इस ग्रन्थमें उल्लेख किया है। उनका यह ग्रन्थ प्रायः प्राचीन ग्रंथोंके माधारपर ही लिखा गया है इसीसे उन्होंने ग्रन्थकी पीठिकाके अन्त में प्रय-रचने की प्रतिज्ञा करते हुए उमके विषयको 'प्रारिय-प्ररणुकमाया (गा० 86) बनलाया है और महाधिकारोंके मंघि-वाक्यों में प्रयुक हा 'पायरियपरंपरागत पदके द्वारा भी उसी बातको पुष्ट किया है। पोर इस तरह यह घोषित किया है कि इस प्रन्यका मून विषय उनका स्वचि-विरचिन नहीं है, किन्तु प्राचार्यपरम्पगके पाधारको लिये हुए है। रही उपलब्ध करणमूत्रोंको बान. वे यदि प्रापके उम करगावरूप' ग्रंथके ही अंग है, जिसकी अधिक मम्भावना है, तब तो कहना ही क्या है? वे सब आपके उस विषयके पाण्डिन्य पोर प्रापकी बद्धिती खूबी तथा उसकी मूक्ष्मताके अच्छे परिचायक है। ___ जयधवलाकी प्रादिमें मगलाचरण करते हुए श्री बीरमेनाचायने यनिवृषमका जो स्मरण किया है वह इस प्रकार है: जो अाजमम्बु-सीमो अंतेवासी विणागहथिस्स / सो वितिसुत्त-कत्ता अवसही में वर देउ / / 8 / / इसमें यतिवृषभको, कमायपाहुउपर लिखे गए उन वृत्ति (परिण) मूबोंका कर्ता बतलाते हुए जिन्हें मायमें लेकर ही जयपवना टोमा लिली गई है, प्रायमंक्षुका शिष्य और नागहस्तिका प्रन्तेवामी बतलाया है, और इमसे यतिवषमके दो गुरुभोंके नाम सामने पाते हैं, जिनके विषय में जलापरसे इतना और जाना जाता Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .:. तिलोथपण्णी और पतिवृषम .. 11 है कि श्रीगुणधराचार्यने कसायपार अपरनाम पेजदोसपाहुडका उपसंहार (संक्षेप) करके जो सूत्रगाथाएँ रची थी वे इन दोनोंको प्राचार्यपरम्परासे प्रास हुई थीं और ये उनके प्रर्यके भले प्रकार जानकार थे, इनसे समीचीन अर्थको सुनकर ही यतिवृषभने, प्रवचन-वात्सल्यमसे प्रेरित होकर उन सत्र-गाथानोंपर चरिणसूत्रोंकी रचना की है। ये दोनों जैनपरम्पराके प्राचीन प्राचार्यों में है और इन्हें दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंने माना है-श्वेताम्बर-सम्प्रदायमें प्रार्यमंक्षको पार्यमंगु नाममे उल्लेखित किया है, मंगु और मध एकार्थक है। धवना -जयपवलामें इन दोनों प्राचार्यों को क्षमाश्रमण' और 'महावाचक' भी लिखा है। जो उनकी महत्ताके द्योतक है इन दोनों प्राचार्योंके सिद्धान्त-विषयक उपदेशोंमें कही कही कुछ मूक्ष्म मनभेद भी रहा है जो वीरसेनको उनके ग्रंथों अथवा गुरुपरम्परामे ज्ञान था. और इसलिये उन्होंने घवला और जयघवला टीकापोंमें उमका उल्लेख किया है। ऐसे जिम उपदेशको उन्होंने सर्वाचार्य __ + 'पुगो तेण युगहर-भडारण गागापवाद-पंचमपुब्व-दसमवत्यु-तदियकसायाहुरमहणव-पाएगा गयोच्छेदभागा वच्छल गरवमिकहियएण एवं पेज्जदोसपाहर मोलमपदमरम्मपरिमाग होतं प्रसिदिमदमेतगाहाहि उपसंहारिदं / पुरणो ताप्रो र मुनगाथा पो पाइरियपरंपराए पागच्छमाणाम्रो प्रजमखुगागहन्योरगं पताप्रो / पुमो नेसि दोहं नि पदपूले प्रसौदिसदगाहाणं गुरगहर महकमनविरिणग्गयाएमत्थं सम्म सोऊण जावमह-महारएरण पवयरणवच्छ नेण सुष्मिण सुतं ।'-अपपवला / कम्मादि ति परिण गोगद्दारे हि भण्णमाणे वे उवएसा होति / जहभणमुस्सटिीएं पमाणपत्वरणा कम्मदिदिपरूवग ति गागहत्यि-समासमणा भरगति / अग्नमंजु-समासमरणा पुरण कम्मट्टिदिरम्बेणे ति भरणंति / एवं दोहि उपएसेहि कम्मट्रिदिपरूवरणा कायव्वा / " "एत्य दुवे उपएसा........."महावाचपागमज्जमखुलवणारणमुबए मेरण मोगरिदे पाउगसमारणं गामा-गोदावेदणीमागां ठिदिसंतकम्म उदि। महावारयाणं गागहत्लि-खवणारणमुपएसेरण मोगे परिणामा-गोदरणीयाण दिदिसंतकम्म मतोमुहत्तपमाण होदि। , .. -षटी. 100 57 Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - 12 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश सम्मत, मयुसिम-सम्प्रदाय-क्रमसे चिरकालागत और शिष्यपरंपरा में प्रचलित तथा प्रशापित समझा है उसे 'पबाइज्जत' 'पकाइम्समारण', उपदेश बतलाया है मोर जो ऐसा नहीं उसे 'अपवाइज्जत' अथवा अपवाइनमाण' नाम दिया है। उल्लेिखित मत-भेदोंमें पायनागहस्तिके अधिकांश उपदेश 'पवाहत' और मार्यमंक्षके 'मपबाइज्जत' बतलाये गये है। इस तरह पतिवृषभ दोनोंका शिष्य. त्व प्राप्त करने के कारण उन सूक्ष्म मतभेदोंकी बातोंसे अवगत थे, यह सहज हीमें जाना जाता है। वीरसेनने यतिवृषभको एक बहुत प्रामाणिक भाचार्यके रूपमें उल्लेखिन किया है और एक प्रसंगपर रागद्वेष-मोहके प्रभावको उनकी बचन-प्रमाणतामें कारण बतलाया है। इन सब बातों से प्राचार्य यसियभका महत्त्व स्वत: ख्यापित हो जाता है। अब देखना यह है कि यतिवृषभ कब हुए है और कब उनकी यह निगोय. पणती बनी है, जिसके वाक्योंको धवनादिक में उड़न करते हुए अनेक स्थानों पर श्रीवीर मेनने उमे 'निलोयरातिसुन' मूबित किया है। यतिवपके गुरुषों में यदि किसीका भी समय मुनिश्चित होता तो इस विषयका कितना ही काम निकल जाना; परन्तु उनका भी ममय मुनिश्चित नही है। श्वेताम्बर पट्टावलियोंमेंसे 'कल्पमूत्रस्यविगवली' और 'पदावलीमागेदार' जगी कितनी ही प्राचीन तथा प्रधान पट्टालियों में नी प्रार्थमा पोर मायनामहस्तिका नाम ही नहीं है, किसी किसी पट्टावली में एकका नाम है तो दूसरेया नहीं और जिनमें दोनोंका नाम है उनमेंम काई दोनों के मध्य में एक पाचायका और कोई एकमे अधिक प्राचार्यों का नामानेस करती है। कोई कोई t"मम्वाइरिय-मम्मको चिरकानमयोनिमा मायकमेणागम्छमागी जा सिस्मारपराव पवाइजर सो पवारजनोधामो नि भण।। प्रपा प्रज मंखुभयवतारण मुवामो स्थाऽपवाहरबमाणो णाम / गणामहरिपबामणाणमुवामा पवाइज्जतो ति धेश्यो।-जयप. प्र.१०४३। "कुदो रणबदे ? एदम्हादो चेव जायसहाइरियमुहकमनविरिणग्गय पिणसुत्तादो। नुषिणमुत्तमम्णहा कि गण होदि ? ण, रागदोममोहाभाषण पमाणनमुवगय-जइससह-त्रयणस्स बसवतपिरोहादो।"-अयम. प्र.१०४६ Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपरणाची और यतिवृषभ पावली समयका निर्देश ही नहीं करती और जो करती है उनमें उन दोनोंके समयोंमें परस्पर अन्तर भी पाया जाता है-जैसे प्रार्थमंगुका समय तपागच्यपट्टावलीमें वीरनिर्वाणसे 467 वर्षपर और सिरिदुसमाकाल-समरणसंघथयं की प्रवचरिमें 450 पर बतलाया है / और दोनोंका एक समय तो किसी भी श्वे. पट्टावलीमे उपलब्ध नहीं होता बल्कि दोनोंमें 150 या 130 वर्षके करीबका अन्तराल पाया जाता है; जब कि दिगम्बर-गरम्पराका स्पष्ट उल्लेख दोनोको यतिवषमके गुरुरूपमे प्राय: समकालीन बताया है। ऐसी स्थिति में इवे० पट्टावलियोंको उक्त दोनों भाचार्योक ममयादिविषयमें विश्वासनीय नहीं कहा जा सकता। पोर इमलिए यतिवृषभादिक समयका प्रब गिलोय पणतीके उल्लेखोंपरसे अथवा उसके अन्तःपरीक्षणपरसे ही अनुसंधान करना होगा। तदनुमार ही नीचे उमका यन्न किया जाता है (1) तिलोयपणतीकं अनेक पद्योमे 'मंगादग्णी' तथा 'लांकविनिश्चय' ग्रंथके माथ 'लोकविभाग' नाम के प्रयका भी स्पष्ट उल्लेख पाया जाता है / यथा जलमिहरे विवस्वभी जलगिहिणी जायणा दसमहम्मा / एवं मंगारिणए लायविभाग विरिणहिट // 4 // लायविणिमछय-गथे लायविभागम्मि सम्वसिद्धाणं। श्रीगाहप परिमाणं भागद वि.चार महसमो॥ll यह 'लोकविभाग अन्य उम प्राकृत लोकविभाग ग्रन्थमे भिन्न मालूम नहीं होता, जिसे प्राचीन समय में मरनन्दी प्राचार्य ने लिखा ( रचा ) था, जो कांची राजा सिंहवर्माके राज्यके 20 वर्ष उम ममय जबकि उत्तराषाढ नक्षत्र में शनिश्चर, वृषराशि में वृहस्पति, उ नराफाल्गुनी नक्षत्रमे चन्द्रमा या. शुबल पक्ष या-शकसंवत् 380 में लिखकर पाणराष्ट्र के पाटलिक ग्राममें पूरा किया गया था भौर जिसका उल्लेख मिहमूर के उस सस्कृत लोकविभागकनिम्न पचों देखो, पट्टावलीसमुच्चय' / + सिंहमूपिणा' पदपरमे मिहमूर नामको उपलब्धि होती है --मिहमूरिकी नहीं, जिसके 'मूरि' पदको 'भावार्य पदका वाचक समभकर पं० नाथूरामजी Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 564 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश में पाया जाता है. जो कि सर्वनन्दीके लोकविभागको सामने रखकर ही भाषाके परिवर्तनद्वारा रचा गया हैवैश्वे स्थिते रविसुते वृषभे च जीवे,राजोत्तरेषु सितपक्षमुपेत्य चन्द्र / प्रामे च पाटलिकनामनि पाणराष्ट्र,शास्त्रं पुरा लिखितवान्मुनिसर्वनन्दी॥३ संवत्सरे तु द्वाविंशे काञ्चोश सिंहवर्मणः / अशीत्यप्रेशकाब्दानां सिद्धमेतच्छतत्रये // 4 // तिलोगपण्णतोकी उक्त दोनों गाथानों में जिन विशेष वर्णनोंका उल्लेख 'लोकविभाग' प्रादि ग्रन्थोंके भावारपर किया गया है वे सब संस्कृत लोकविभागमें भी पाये जाते है / और इससे यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है कि संस्कृत. का उपलब्ध लोकविभाग उक्त प्राकृत लोकविभागको सामने रखकर ही लिखा गया है। इस सम्बन्धमें एक बात और भी प्रकट कर देने की है और वह यह कि संस्कृत लोकविभागके अन्तमें उक्त दोनों पद्योंके बाद एक पद्य निम्न प्रकार दिया है पंचदशशतान्याहुः षटत्रिंशदाधिकानि वै। शास्त्रस्य संग्रहस्त्वेदं छंदसानुष्टुभेन च / / 5 / / . इसमें ग्रन्यकी संख्या 1536 श्लोक-परिमारण बतलाई है, जबकि उपलब्ध प्रेमीने ( 'जेन साहित्य पोर इतिहास पृ० 5 पर ) नामके अधूरेपनकी कल्पना की है और 'पूरा नाम शायद मिहनन्दि हो" ऐमा सुझाया है। छंरकी कठिनाईका हेतु कुछ भी ममी चीन मालूम नहीं होता; क्योंकि सिंहनन्दि और सिहसेन जैसे नामोंका वहाँ सहज ही समावेश किया जा सकता था। * "प्राचार्यवलिकागतं विरचितं तत्मिहमूरपिरणा। भाषायाः परिवर्तनेन निपुणः सम्मानितं साधुभिः / / " +"दर्शवैष सहस्राणि मूलोऽपि पथुर्मतः।" -प्रकरण 2 "अन्त्यकायप्रमाणात किञ्चित्संकुचितात्मकाः ॥"-प्रकरण 11 देखो, पाराके जैनसिद्धान्तभवनकी प्रति मोर उसारसे उतारी हुई वीरसेवामन्दिरकी प्रति / Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपएणसी और यतिवृषभ संस्कृत-लोकविभागमें वह 2030 के करीब जान पड़ती है। मालूम होता है कि यह 1536 की लोकसंख्या उसी पुराने प्राकृत लोकविभागकी है-यहाँ उसके संख्यासूचक पद्यका भी अनुवाद करके रख दिया है / इस संस्कृत ग्रन्थमें जो 500 श्लोक-जितना पाठ अधिक है वह प्रायः उन 'उक्तं च' पद्योंका परिमाण है जो इस अन्यमें दूसरे ग्रन्थोंसे उद्धृत करके रक्खे गये है-१०० से अधिक गाथाएँ तो तिलोयपणतीकी ही है, २००के करीब श्लोक भगवग्जिनसेनके मादिपुराणसे उठाकर रक्खे गये हैं और शेष ऊपरके पद्य तिलोयसार (त्रिलोकरार ) और जंबूदीवपणात्ती ( जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ) मादि अन्योंसे लिये गये हैं। इस तरह इस अन्य भाषाके परिवर्तन और दूसरे ग्रन्थोंसे कुछ पद्योंके 'उक्तं च' रूपमे उद्धरणके सिवाय सिंहसूरको प्राय: और कुछ भी कृति मालूम नहीं होती। बहुत संभव है कि 'उक्तं च' रूपसे जो यह पद्योंका संग्रह पाया जाता है वह स्वय सिंहसूर मुनिके द्वारा न किया गया हो, बल्कि बादको किसी दूसरे ही विद्वानके द्वारा अपने तथा दूसरोंके विशेष उपयोगके लिये किया गया हो; क्योंकि ऋषि सिंहसूर जब एक प्राकृत ग्रन्थका संस्कृत में-मात्र भाषाके परिवर्तन रूपसे ही-अनुवाद करने बैठे-व्याख्यान नहीं, तब उनके लिये यह सम्भावना बहुत ही कम जान पड़नी है कि वे दूसरे प्राकृतादि ग्रन्योंगरसे तुलनादिके लिये कुछ वाक्योंको स्वयं उद्धृत करके उन्हें ग्रन्यका अंग बनाए / यदि किसी तरह उन्हींके द्वारा यह उद्धरण-कार्य सिद्ध किया जा सके तो कहना होगा कि वे विक्रमकी ११वीं शताब्दीके अन्त में प्रथवा उसके बाद हुए है क्योंकि इसमें प्राचार्य नेमिचन्द्र के त्रिलोकसारकी गाथाएं भी 'उक्तं च त्रैलोक्यसारे जैसे वाक्यके साथ उद्धृत पाई जाती है। और इसलिये इस मारी परिस्थिति परमे यह कहने में कोई संकोच नहीं होता कि तिलोयपणतीमें जिस लोकविभागका उल्लेख है वह वही सर्वनन्दीका प्राकृत-लोकविभाग है जिसका उल्लेख ही नहीं किन्तु अनुवादितरूप संस्कृत लोकविभागमें पाया जाता है। चूकि उस लोकविभागका रचनाकाल शक सं० 380 (वि० स० 515 ) है मतः तिलोयपण्णत्तीके रचयिता यतिवृषभ शक सं०३८० के वाद हुए हैं. इसमें जरा भी सन्देह नहीं है। अब देखना यह है कि कितने Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 566 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश (2) तिलोयपण्णत्तीमें अनेक काल-गणनामोंके प्राधररपर 'चतुर्मुख' नामक कल्कि 1 की मृत्यु वीरनिर्वाणसे एक हजार वर्ष बाद बतलाई है, उसका राज्यकाल 42 वर्ष दिया है, उसके अत्याचारों तथा मारे जानेकी घटनामोंका उल्लेख किया है और मृत्युपर उसके पुत्र अजितंजयका दो वर्ष तक धर्मराज्य होना लिखा है / साथ ही, बादको धर्मको क्रमशः हानि बतलाकर और किसी राजाका उल्लेख नहीं किया है / इस प्रकारको कुछ गाथाएं निम्न प्रकार है, जो कि पालकादिके राज्यकाल 658 का उल्लेख करनेके बाद दी गई है: "तत्तो कक्की जादो इन्दसुदो तस्स चउमुहो णामो। सत्तरि-वरिसा श्राऊ विगुणिय-इगवीस-रज्जत्तो ||6|| आचारांगधरादो पणहत्तरि-जुत्त दुसय-वासेसु। वोलीणेसुबद्धो पट्टा कक्की स णरव इणो // 10 // " "अह को वि असुरदेो श्रोहीदो मुणिगणाण उवसगं ! णादूणं तकाकी मारेदि हु धम्मदीहि त्ति // 103 / / कक्किसुदो अजिदंजय-णामो रक्वदि णमदि तवरणे। तं स्वखदि असुरदेो धम्मे रज्ज करेज्जति // 14 // कलिक निःसन्देह ऐतिहामिक व्यक्ति हमा है, इस बातको इतिहासज्ञोंने भी मान्य किया है / डा० के० बी० पाठक उसे 'मिहिरकुल' नामका राजा बतलाते हैं और जैनकालगणनाके साथ उसकी संगति बिठलाते है, जो बहत अत्याचारी था और जिसका वर्णन चीनी यात्री हुएन्तसाङ्गने अपने यात्रावर्णनमें विस्तारके साथ किया है तथा राजतरंगिणीमें भी गिसकी दुटताका हाल दिया है। परन्तु डा० काशीप्रसाद (केपी) जायसवाल इस मिहिरकुलको पराजितकरनेवाले मालवाधिपति विष्णुयगोधर्माको ही हिन्दू पुराणों प्रादिके अनुसार 'कल्कि' बतलाते है, जिसका विजयस्तम्भ मन्दसौरमें स्थित है और वह ई० सन् 533-34 में स्थापित हमा था। (देखो, जैनहितपो भाग 13 अंक १२में जायसवालजीका 'कल्कि-प्रवतारकी ऐतिहासिकता' और पाठकजीका 'गुप्तरराजाओंका काल, मिहिरकुल और कल्कि' नामक लेख पृ. Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपएणती और यतिवृषभ तत्तो दो वे चासो सम्मं धम्मो पयदि जणाणं / कमसो दिवसे दिवसे कालमहप्पेण हाएदे // 10 // " इस घटनाचक्रपरसे यह साफ़ मालूम होता है कि तिलोयपण्णत्तीकी रचना कल्कि राजाकी मृत्युमे 10-12 वर्षसे अधिक बादकी नहीं है / यदि अधिक बादकी होती तो ग्रन्थपद्धतिको देखते हुए संभव नहीं था कि उसमें किसी दूसरे प्रधान राज्य अथवा राजाका उल्लेख न किया जाता / अस्तु, वीर-निरिण शकराजा अथवा शक संवत्से 605 वर्ष 5 महीने पहले हुमा है, जिसका उल्लेख तिलोयपण्णत्तीमें भी पाया जाता है / एक हजार वर्षमेंसे इस संख्याको घटानेपर 364 वर्ष 7 महीने अवशिष्ट रहते हैं। यही ( शक संवत 365) कल्किकी मृत्युका समय है / और इमलिये तिलोयपण्णत्तीका रचना-काल शक सं० 485 (वि० सं० 540 ) के करीबका जान पड़ता है जबकि लोकविभागको बने हुए 25 वर्षके करीब हो चुके थे, और यह प्रर्मा लोकविभागकी प्रसिद्धि तथा यतिवृषभ तक उम की पहुँचके लिये पर्याप्त है / (ख) यतिवृषभ और कुन्दकुन्दके समय-सम्बन्धमें प्रेमीजीके मतकी आलोचना ये यतिवषभ कुन्दकुन्दाचार्यमे 200 वर्ष भी अधिक समय बाद हा है. इम बातको मिद्ध करने लिये मैंने 'श्रीकुन्दकुन्द और यतिवृषभमे पूर्ववर्ती कौन ?' नामका एक लेख प्राजमे कोई 6 वर्ष पहले लिखा था / उसमें, * रिणवाणे वीरजिणे छन्वास-सदेमु पंच-वरसेमु / परण-मासेसु गदेस संजादो सग-गिनो ग्रहवा ।।-तिलोयपण्णत्ती पण-छस्सय वरगं परणमामजुदं गमिय वीरणिवुइदो। सगराजो तो कक्को नदुणवनियमहियसगमास ॥-त्रिलोकसार वीरनिर्वाण और शकसंवतकी विशेष जानकारीके लिये, लेखककी 'भगवान् महावीर और उनका समय' नामकी पुस्तक देखनी चाहिये। * देखो, भनेकान्त वर्ष 2, नवम्बर सन् 1938 की किरण नं. 1 Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 18 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश इन्द्रनन्दि श्रुतावतारके कुछ गलत तथा भ्रान्त उल्लेखोंपरसे बनी हई पौर श्रीधर-श्रुतावतारके उसमे भी अधिक गलत एवं मापत्तिके योग्य उल्लेखोंपरसे पुष्ट हुई कुछ विद्वानोंकी गलत धारणाको स्पष्ट करते हुए, मैने सुहृवर पं० नाथूरामजी प्रेमीको उन युक्तियोंपर विचार किया था जिनके प्राधारपर वे कुन्दकुन्दको यतिवृषभके बादका विद्वान् बतलाते हैं। उनमेंसे एक युक्ति तो इन्द्रनन्दि-श्रुतावतारपर ही अपना प्राधार रखती है। दूसरी प्रवचनसारकी 'एस सुरासुर' नामकी प्राद्य मंगल-गाथामे सम्बन्धित है, जो तियोयपण्णात्तीके अन्तिम अधिकार में भी पाई जाती है और जिसे प्रेमीजीने तिलोयपण्णत्तीपरमे ही प्रवचनसारमें लीगई लिखा था, और तीसरी कुन्दकुन्दके नियममारकी निम्न गाथासे सम्बन्ध रखती है, जिसमें प्रयुक्त हुए 'लायविभागेम' पदमें प्रेमीजी सर्वनन्दीके 'लोकविभाग' ग्रन्थका उल्लेख समझते है और चूंकि उसकी रचना शक सं० 380 में हुई है प्रतः कुन्दकुन्दाचार्यको शक सं० 380 (वि० सं० 515) के बादका विद्वान् ठहराते हैं च उनसभेदा भणिदा तेरिच्छा मुरगणा च उभेदा / एदेसि वित्थारं लोयविभागेसु णादव्यं // 17 // _ 'एम मुरासुर' नामकी गाथाको कुन्दकुन्दकी सिद्ध करने के लिये मैने जो युक्तियां दी थी उनपरसे प्रेमी जीका विचार अपनी दूसरी युक्तिके सम्बन्धमे तो बदल गया है, ऐसा उनके 'जनसाहित्य और इतिहास' नामक ग्रन्थ के प्रथम लेख 'लोकविभाग प्रोर तिनीयपमानि' परम जाना जाता है। उसमें उन्होंने उक्त गाथाको स्थितिको प्रवचनमारमें मुदृढ स्वीकार किया है, उसके प्रभाव में प्रवचनसारको दूसरी गाथा 'सेमे पुरण तित्ययरे' को लटकती हुई माना है और तिलोयपण्ण तीके अन्तिम प्रधिकारके अन्त में पाई जानेवाली कुन्युनाथमे वर्द्धमानत की स्तुति-विषयक 8 गाथानोंके सम्बन्ध में, जिनमें उक्त गाथा भी शामिल है, लिखा है कि-"बहुत संभव है कि ये सब गाथाएँ मूलग्रन्थकी न हों, पीछेसे किसीने जोड़ दी हों और उनमें प्रवचनमारकी उक्त गाथा प्रा गई हो।' दूसरी युक्तिके संबन्धमें मैंने यह बतलाया था कि इन्द्रनन्दि- तावतारके Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपएणत्ती और यतिवृषभ 566 जिस उल्लेखा परसे कुन्दकुन्द (पानन्दी) को यतिवृषभके बादका विद्वान समझा जाता है उसका अभिप्राय 'द्विविध-सिद्धान्त के उल्लेखद्वारा यदि कसायपाहुड (कषायप्राभूत)को उसकी टीकामों-सहित कुन्दकुन्द तक पहुँचाना है तो वह जरूर गलत है और किसी ग़लत सूचना अथवा ग़लतफहमीका परिणाम है। क्योंकि कुन्दकुन्द यतिवृषभसे बहुत पहले हुए है, जिसके कुछ प्रमाण भी दिये थे। साथ ही, यह भी बतलाया था कि यद्यपि इन्द्रनन्दीने यह लिखाहै कि गुणधर और धरसेन प्राचार्यो की गुरु-परम्पराका पूर्वाधारक्रम, उनके वंशका कथन करनेवाले शास्त्रों नथा मुनिजनोंका उस समय प्रभाव होने से, उन्हें मालूम नहीं है; परन्तु दोनों सिद्धान्त ग्रन्योके अवतारका जो कथन दिया है वह भी उन ग्रंथों तथा उनकी टीकानोंको स्वयं देखकर लिखा गया मालूम नहीं होता --सुना-मनाया जान पड़ता है। यही वह है जो उन्होंने प्रार्यमा और नागहस्तिको गुणधराचार्यका साक्षात् शिष्य घोषित कर दिया और लिख दिया है कि गुणधराचार्यने कमायपाहुडकी मूत्रगाथानों को रचकर उन्हें स्वयं ही उनकी व्याख्या करके प्रायमच और नागहस्तिको पढ़ाया था जबकि उनकी टीका जयधवलामें स्पष्ट लिखा है कि 'गुग्ण धराचार्यको उक्त मूत्रगाथाएं प्राचार्यपरम्परामे चली प्राती हुई प्रायमच पोर नागहस्तिको प्राप्त हुई थी-गुणधराचार्यमे उन्हें उनका मोधा (direct) प्रादान-प्रदान नहीं हुप्रा था। जैमा कि "गाथा-वण्चारण सूत्र कपमहन कपायाख्यप्राभनमेव गुणधर-यतिवपभाचारगणाचार्य: / / 156 / / एव द्विविधा द्रव्य-भाव-पुस्तकगन: ममागच्छत् / गुरुपरिपाटया ज्ञात: मिद्धान्तः कोण्डकुन्दपुरे // 16 // श्रीपयनन्दिो-मुनिना, सोऽपि द्वादशसहमपरिमागा:। अन्य-परिकम-कर्ता षट्खण्डाऽऽद्यत्रिखडस्य" // 16 // * 'गुण घर-घरमेनान्वयगुर्गे: पूर्वापरक्रमोऽस्माभि नं ज्ञायते तदन्वय-कपकाऽऽगम-मुनिजनाभावात् / / 150 / / + एवं गाथासूत्राणि पंचदशमहाधिकाराणि / प्रविरव्य व्यावस्यो स नागहस्त्यार्यमंक्षुभ्याम् ||154 // Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 600 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश उसके निम्न अंशसे प्रकट है "पुणो ताओ सुत्तगाहाओ आइरिय-परम्पराए आगच्छमाणाश्रो अज्जमखु-णागहत्थी पत्ताश्रो।" भोर इसलिये इन्द्रनन्दिश्रुतावतारके उक्त कथनकी सत्यतापर कोई भरोसा अथवा विश्वास नहीं किया जा सकता / परन्तु मेरी इन मब बातोंपर प्रेमीजी. ने कोई खास ध्यान दिया मालूम नहीं होता और इसी लिये वे अपने उक्त ग्रन्थगत लेखमें प्रार्यमंक्षु और नागहस्तिको गुणधगचार्यका माक्षात शिश्य मानकर ही चले हैं और इम मानकर चलने में उन्हें यह भी खयाल नही हुमा कि जो इन्द्रनन्दी गुरगघराचार्यके पूर्वाऽपर-प्रन्वयगुरुग्रोंके विषयमें एक जगह अपनी अनभिजना व्यक्त करते हैं वे ही दूसरी जगह उनकी कुछ गिप्य परम्पगका उल्लेख करके अपर ( बादको दोनेवाले ) गुरुपोंके विषयमें अपनी अभिज्ञता जतला रहे हैं, और इस तरह उनके इन दोनों कथनोंमें परम्पर भारी विरोध है / और न कि यतिवषम प्रार्यमंच और नागहस्निके शिष्य थे इमलिये प्रेमीजीने उन्हें गुग्गधगचार्यका ममकालीन अथवा 20-25 वर्ष बादका ही विद्वान, मूचित किया है. पौर माथ ही यह प्रनिरादन किया है. कि 'कुन्दकुन्द ( पधनन्दि ) को दोनों सिद्धान्तोंका जो जान प्राप्त हा उममें यतिवपकी चगिका अन्तर्भाव भले ही न हो फिर भी जिम द्वितीय मिदान कपायाभतको कुन्दकुन्दने प्राप्त किया है उसके कर्ता गुगणधर जब यनिषभ के समकालीन प्रयवा 20-25 वर्ष पहले हम थे नव कुन्दकुन्द भी यतिवृषभ के ममगामयिक बल्कि कुछ पीछे के ही होंगे; क्योंकि उन्हें. दोनों सिद्धान्तों का ज्ञान गुमारिपाटीमें प्रास हुना था। अर्थात् एक दो गुरु उनमे पहले के और मानने होंगे / ' और अन्त में इन्द्रनन्दि-प्रतावतारपर अपना प्राधार व्यक करने और उनके विषय में पानी श्रद्धाको कुछ ढीली करते हुए यहां तक लिम्ब दिया है.--"गर यह कि इन्द्रनन्दिक श्रतावतारके अनुमार पद्मनन्दि (कुन्दकुन्द) का समय यतिवपममे बहन पहले नहीं जा सकता। अब यह बात दूसरी है कि इ नन्दिने जो इनिहाम दिया है,वही गलत हो पौर या ये पअनन्दि कुन्दकुन्दके बादके दूसरे ही प्राचार्य हों और जिस तरह कुन्दकुन्द कोण्डकुण्डपुरके थे उसी तरह पचनन्दि भी कोण्डकुण्डपुरके हों।" Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिले यपएणती और यतिवृषभ बाद जब प्रेमीजीको जयधवलाका वह कथन पूरा मिल गया जिसका एक अंश 'पुरणो तामो' से प्रारम्भ करके मैंने अपने उक्त लेखमें दिया था और जो अधिकांशमें ऊपर उद्धृत किया गया है तब ग्रन्थ छप चुकनेपर उसके परिशिष्टमें मापने उम कथनको देते हुए स्पष्ट सूचित किया है कि "नागहस्ति और आर्यमंक्षु गुग्णधरके साक्षात् शिष्य नहीं थे।" परन्तु इस सत्यको स्वीकार करनेपर उनकी उस दूमरी युक्तिका क्या रहेगा, इस विषयमें कोई सूचना नहीं की, जब कि करनी चाहिये थी। स्पष्ट है कि उनकी इस दूसग युक्निमें तब कोई सार नही रहता और कुन्दकुन्द, द्विविधसिदान्तमें चूणिका अन्तर्भाव न होनेसे, पनिवृषभमे बहुत पहलेके विद्वान भी हो मकते है / अब रही प्रेमीजीकी नीमरी युक्तिकी बात, उमके विषयमें मैने अपने उक्त लेबमे यह बतलाया था कि नियममारकी उम गाथामें प्रयुक्त हुए 'लोयविभागेम' पदका अभिप्राय मर्वनन्दी के उक्त लोकविभागमे नहीं है और न हो मकता है; बल्कि बहवचनान्न पद होने से वह 'लोकविभाग' नामके किसी एक प्रन्यविशेषका भी वाचक नहीं है / वह तो लाकविभाग-विषयक कथन-वाले अनेक ग्रयो अथवा प्रकरणों के मकेनको लिए हुए जान पड़ता है और उसमें खुद कुन्दकुन्दके 'लोयपार'-'मंठागा पाह' जैसे ग्रन्य तथा दूसरे 'लोकानुयोग' अथवा लोकाउलीक के विभागको लिये हुए करगानुयोग-सम्बन्धी ग्रन्थ भी मामिल किये जा सकते है / और दलिये 'लोयविभागेम' इस पदका जो अर्थ कई शताब्दियो पीछे के टीकाकार पराप्रभने 'लोकविभागभिधानपरमागमे ऐसा एकवननात किया है. वह टोक नहीं है / साथ ही यह बतलाया था कि उपलब्ध लोकविभाग, जो कि ('उन च' वाक्यों को छोड़कर) सर्वनन्दीके प्राकृत लोकविभागका ही पनुवादिन मस्कृतरूप है, नियंचोंके उन चौदह भेदोंके विस्तार कथनका कोई पता भी नही, जिसका उल्लेख नियमसारकी उक्त गाथामे किया गया है / और इसमें मेरा उक्त कथन अथवा स्पष्टीकरण और भी मेरे इम विवेचनसे, जो 'जैनजगत' वर्ष 8 अंक के एक पूर्ववर्ती लेख में प्रथमतः प्रकट हुपा था, हा० ए० एन० उपाध्ये एम० ए० ने प्रवचनसारकी प्रस्तावना (पृ० 22, 23) में अपनी पूर्ण सहमति व्यक्त की है। Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 602 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश ज्यादा पुष्ट होता है / इसके सिवाय, दो प्रमाण ऐसे उपस्थित किये थे, जिनकी मौजूदगीमें कुन्दकुन्दका समय शक सं० 380 (वि० सं० 515) के बादका किसी तरह भी नही हो सकता / उनमें एक प्रमाण मकसके ताम्रपत्रका था, जो शक० सं० 388 का उत्कीर्ण है और जिसमें देशीगणान्तर्गत कुन्दकुन्दके अन्वय (वंश) में होनेवाले गुरण चन्द्रादि छह भाचार्योका गुरु-शिष्यक्रमसे उल्लेख है / और दूसरा प्रमाण स्वयं कुन्दकुन्दके बोधपाहडको 'सदवियारो हो' नामकी गाथाका था, जिसमें कुन्दकुन्दने अपने को भद्रबाहुका शिष्य मूचित किया है। प्रथम प्रमाणको उपस्थित करते हुए मैने बतलाया था कि 'यदि मोटे रूपसे गुणचन्द्रादि छह प्राचार्योका समय 150 वर्ष ही कल्पना किया जाय, जो उस समयकी आयुकायादिकको स्थितिको देखते हुए अधिक नही कहा जा सकता, तो कुन्दकुन्दके वंशमें होनेवाले गुणचन्द्रका समय शकसंवत् 238 (वि सं० 373) के लगभग ठहरता है / और च कि गुणचन्द्राचार्य कुन्दकुन्दके माक्षात् शिष्य या प्रशिष्य नहीं थे बल्कि कुन्दकुन्द के प्रत्यय ( वंग ) में हुए है और अन्वयके प्रतिष्ठित होने के लिये कमसे कम 50 वर्षका समय मान लेना कोई बड़ी बात नहीं है। ऐसी हालतमे कुन्दकुन्दका पिछला समय उक्त ताम्रपत्रपरमे 200 (150 + 50 ) वर्ष पूर्वका तो महज ही में हो जाता है। और इमलिये कहना होगा कि कुन्दकुन्दाचार्य यतिवृषभमे 200 वर्ष में भी अधिक पहने हुए है। और दूसरे प्रमारणमें गाथाको उपस्थित करते हुए लिखा था कि इस गाथामें बतलाया है कि जिनेन्द्रने-भगवान् महावीरने-प्रर्थ रूपमे जो कथन किया है वह भाषासूत्रों में गन्दविकारको प्राप्त हुपा है-प्रनेक प्रकारके गन्दोमे गूथा गया हैभद्रबाहुके मुझ मिप्यने उन भाषामूबों परमे उसको उमी म्पमें जाना है और ( जानकर ) कथन किया है।' इसमे गोधपाहुरके कर्ता कुन्दकुन्दाचार्य भद्रबाह के शिष्य मालूम होते हैं / और ये भद्रबाहु श्रुतकेवलीसे भिन्न द्वितीय भद्रबाह जान पड़ते हैं, जिन्हें प्राचीन ग्रन्थकारोंने 'प्राचाराङ्ग' नामक प्रथम अंगके धारियोंमें * सद्दवियारो हमो भासामुसु जंजिणे कहियं / सो तह कहियं णायं सीसेरण य भद्दवाहस्म / / 61 // Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपरणती और यतिवृषभ 603 तुतीय विद्वान् मूचित किया है और जिनका समय जैन कालगणनामोंके 1 मनुसार वीरनिरिण-संवत् 612 पर्थात् वि० सं० 142 (भद्रबाह द्वि०के समाप्तिकाल ) से पहले भले ही हो; परन्तु पीछेका मालूम नहीं होता। क्योंकि श्रुतकेवली भद्रबाहुके समयमें जिन-कथित श्रुतमें ऐसा कोई विकार उपस्थित नहीं हुमा था, जिसे गाथामें 'मदवियारो हुप्रो भासासुतं मु जं जिरणे कहियं' इन शब्दोंद्वारा सूचित किया गया है-वह भविच्छिन्न चला पाया था। परन्तु दूसरे भद्रबाहुके समयमें वह स्थिति नहीं रही थी-कितना ही शुनज्ञान लुप्त हो चुका था और जो अवशिष्ट था वह अनेक भाषा-सूत्रोंमें परिवर्तित हो गया था। और इसलिये कुन्दकुन्दका समय विक्रपकी दूसरी शताब्दी तो हो सकता है परन्तु तीसरी या तीसरी शतान्दिके बादका वह किसी तरह भी नहीं बनता।' परन्तु मेरे इम सब विवेचनको प्रेमीजी की बद्धमूल हुई धारणाने कबूल नहीं किया, पोर इमलिये वे अपने उक्त ग्रन्यगत लेखमें मर्कराके ताम्रपत्रको कुन्दकुन्दके स्वनिर्धारित समय (गक म० 38 के बाद ) के मानने में सबसे बड़ी बाघा' स्वीकार करते हए और यह बतलाते हुए भी कि "नब कुन्दकुन्दको यति. वृषभके बाद मानना प्रमगन हो जाता है / " लिखते है "पर इसका समाधान एक तरहगे हो सकता है और वह यह कि कोण्डकुन्दान्वयका प्रथं हमें कुन्दकुन्दकी वंशपरम्परा न करके कोण्डकुन्दपुर नामक स्थानमे निकली हुई परम्पग करना चाहिये / जमे श्रीपुर स्थानकी परम्परा श्रीपरान्वय, प्रगलकी परगनान्वय, फितरको कितूरान्वर, मथुराकी माथुरान्वय प्रादि / " परन्तु अपने इस मंभावित समाधानकी कल्पनाके समर्थनमें पापने एक भी प्रमाण उपस्थित नहीं किया, जिससे यह मालूम होता कि श्रीपुरान्वयकी तरह कुन्दकुन्दपुरान्वयका भो कही उल्नेख पाया है अथवा यह मालूम होता कि जहाँ पपनन्दि अपरनाम कुन्दकुन्दका उल्लेख पाया है वहाँ उसके पूर्व कुन्दकुन्दान्वय जैन कालगणनामोंका विशेष जानने के लिये देखो लेखकद्वारा लिखित 'स्वामी समन्तभद्र' ( इतिहास ) का 'गमय निर्णय' प्रकरण पृ० 183 से तथा 'भ० महावीर पोर उनका समय' नामक पुस्तक पृ० 31 से / Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश का भी उल्लेख पाया है और उसी कुन्दकुन्दान्वयमें उन पयनन्दि-कुन्दकुन्दको बतलाया है, जिससे ताम्रपत्रके 'कुन्दकुन्दान्वय' का अर्थ "न्दकुमपुरान्वय' कर लिया जाता / बिना समर्थनके कोरी कल्पनासे काम नहीं चल सकता / वास्तव में कुन्दकुन्दपुरके नामसे किसी अन्वयके प्रतिष्ठित अथवा प्रचलित होनेका जनमाहित्यमें कहीं कोई उल्लेख नहीं पाया जाता / प्रन्युत इमके, कुन्दकुन्दाचार्यके मन्वयके प्रतिष्ठित और प्रचलित होनेके सैकड़ों उदाहरण शिलालेखों तथा ग्रन्थप्रशस्तियोंमें उपलब्ध होते हैं और वह देशादिके भेदमे 'इंगनेश्वर प्रादि अनेक शाखाओं (बलियों ) में विभक्त रहा है / और जहाँ कहीं प्रकुन्दकुदके पूर्वकी गुरुपरम्पराका कुछ उल्लेख देखने में प्राता है वहां उन्हें गौतम गग्गधरकी मन्नतिमे प्रथवा श्रुतकेवली भद्रबाहुके शिष्य चन्द्रगुप्तके अन्त्रय ( वंश ) में बनलाया है / जिनका कोण्डकुन्दपुरके साथ कोई सम्बन्ध भी नहीं है / श्रीकुन्दकुन्द मूलमंय (नन्दिसघ भी जिसका नामान्तर है ) के अग्रणी गगी थे और देशीगरणका उनके अन्वयसे खाम सम्बन्ध रहा है, ऐमा अंगणवेल्गोलके 55 (66) नम्बरके शिलालेखके निम्नवाक्योमे जाना जाता है "श्रीमतों वर्द्धमानस्य बद्धमानम्य शामने / श्रीकोएडकुन्द नामाऽभून्मलमंघाप्रणी गगी // 3 // तस्याऽन्वयऽजनि ख्याते.......देशिक गणे। गुणी देवेन्द्र सैद्धान्तदेवा देवेन्द्र-बन्दिनः / / / / " और इमलिये मर्कराके ताम्रपत्रम देशीगणक माथ जो कुन्दकुन्दायका उल्लेख है वह श्रीकुन्दकुन्दाचार्य के अन्वयका ही उल्लेख है. कुन्दकुन्दपुगन्वयका नहीं / और इससे प्रेमीजीकी उक्त कल्पनामे कुछ भी मार मालूम नहीं होता। इसके सिवाय. प्रेमीकीने बोधपाहा-गाथा-सम्बन्धी मेरे दूमरे प्रमाणका कोई (r) मिरिमूलमंव-देमियगणा-पुन्थयगच्छ-कोंडकुदागं / परमण-इंगलेमर-बलिम्मि जादाम मुरिणपहारगरम / -भावत्रिभंगी 118, परमागममार 226 देखो, श्रवणबेलगोलके शिलालेख नं. 40, 42, 43, 4, 50, 108 Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपएनत्ती और यतिवृषभ 605 विरोध नहीं किया, जिससे वह स्वीकृत जान पड़ता है अथवा उसका विरोध मशक्य प्रतीत होता है। दोनों ही अवस्थानोंमें कौण्डकुन्दपुरान्वयकी उक्त कल्पनासे क्या नतीजा? क्या वह कुन्दकुन्दके समय-सम्बन्धी अपनी धारणाको, प्रबलतर बाधाके उपस्थित होनेपर भी, जीवित रखने प्रादिके उद्देश्यसे की गई है? कुछ समझ नहीं पाता !! नियमसारको उक्त गाथामें प्रयुक्त हुए 'लोयविभागेसु' पदको लेकर मैने को उपयुक्त दो मापत्तियां की थीं उनका भी कोई समुचित समाधान प्रेमीजीने नहीं किया है / उन्होंने अपने उक्त मूल लेखमें तो प्रायः इतना ही कहकर छोड़ दिया है कि "बहुवचनका प्रयोग इसलिये भी इष्ट हो सकता है कि लोक-विभागके अनेक विभागों या अध्यायों में उक्त भेद देखने चाहिये।" परन्तु ग्रन्थकार कुन्द. कुन्दाचार्यका यदि ऐमा अभिप्राय होता तो वे 'लोयविभाग-विभागेमु' ऐमा पद रखते, तभी उक्त प्राशय घटित हो सकता था; परन्तु ऐसा नहीं है, और इस लिये प्रस्तुत पदके विभागेमु' पदका प्राशय यदि ग्रन्थके विभागों या अध्यायोंका लिया जाना है तो ग्रन्थका नाम 'लोक' रह जाता है-'लोकविभाग' नहीं और उममे प्रेमीजीकी मारी युक्ति ही लौट जानी है जो 'लोकविभाग' ग्रन्थके उल्लेखको मानकर की गई है / इमपर प्रेमीजीका उस समय ध्यान गया मालूम नहीं होता। हाँ, बादको किमी ममय उन्हें अपने इस समाधानकी नि.सारताका ध्यान माया जरूर जान पड़ता है और उसके फलस्वरूप उन्होंने परिशिष्टमें समाधानकी एक नई दृष्टिका प्राविष्कार किया है और वह इस प्रकार है "लोपविभागेमु गाद व्व' पाठ पर जो यह प्रापत्ति की गई है कि वह बहुवचनान्न पद है, इसलिये किमी लोकविभागनामक एक अन्य के लिये प्रयुक्त नहीं हो सकता. तो इसका एक समाधान यह हो सकता है कि पाठको 'लोयविभागे सुरणादव्यं' इस प्रकार पढ़ना चाहिये, 'मु' को 'गादच' के साथ मिला देनसे एकवचनान्त 'लोयविभागे' ही रह जायगा और अगली क्रिया 'सुग्गाद' ( सुज्ञातव्यं ) हो जायगी। पद्मप्रभने भी शायद इसी लिये उमका अर्थ 'लोकविभागाभिधानपरमागमे किया है।" इसपर में इतना ही निवेदन करना चाहता हूँ कि प्रथम तो मूलका पाठ बब 'सोयविभागेमु गायब' इस रूपमें स्पष्ट मिल रहा है और टीकामें उसकी Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 606 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश संस्कृत छाया जो 'लोकविभामेसु ज्ञातब्ब'- दी है उससे वह पुष्ट हो रहा है तथा टीकाकार पचप्रभने क्रियापदके साथ 'सु'का 'सम्यक' प्रादि कोई मर्ष ध्यक्त भी नहीं किया-मात्र विशेषणरहित 'दृष्टव्यः' पदके द्वारा उसका अर्थ ध्यक्त किया है, तब मूलके पाठकी, अपने किसी प्रयोजनके लिये अन्यथा कल्पना करना ठीक नहीं है / दूसरे, यह समाधान तभी कुछ कारगर हो सकता है जब पहले मर्कराके ताम्रपत्र भोर बोधपाहुडकी गाथा-सम्बन्धी उन दोनों प्रमाणोंका निरसन कर दिया जाय जिनका ऊपर उल्लेख हुमा है; क्योंकि उनका निरमन अथवा प्रतिवाद न हो सकनेकी हालत में जब कुन्दकुन्दका समय उन प्रमाणों परसे विक्रमकी दूसरी शताब्दी प्रथवा उससे पहलेका निश्चित होता है तब 'लोयविभागे पदकी कल्पना करके उसमें शक सं० 380 मात् विक्रम. की छठी शताब्दी में बने हुए लोकविभाग अन्यके उल्लेखकी कल्पना करना कुछ भी अर्थ नहीं रखता। इसके सिवाय, मैंने जो यह आपत्ति को थी, कि नियमसारकी उक्त गाथाके अनुसार प्रस्तुत लोकविभागमे तिर्यचोंके 14 भेदोंका विस्तारके साथ कोई वर्णन उपलब्ध नहीं है, उसका भले प्रकार प्रतिवाद होना चाहिये अर्थात् लोकविभागमें उस कथा के अस्तित्वको स्पष्ट करके बतलाना चाहिये, जिससे लोकवि भागे' पदका वाच्य प्रस्तुत लोकविभाग समझा जा सके; परन्तु प्रेमीजीने दम बातका कोई ठीक समाधान न करके उसे टालना चाहा है / इमोसे परिशिष्टमे मापने यह लिखा है कि "लोकविभागमें चतुर्गतजीव-भेदोंका या तियंचों और देवोंके चौदह मोर चार मंदाका विस्तार नहीं है. यह कहना भी विचारणीय है / उसके छटे प्रध्यायका नाम हो * मूलमें 'एदेसि विस्थार' पदोंके अनन्तर 'नोविभागेमु गादव' पदोंका प्रयोग है। चूंकि प्राकृतमें 'वित्थार' शन्द नमक लिगमें भी प्रयुक्त होता है इसीसे वित्थारं' पदके साथ 'रणाद' क्रियाका प्रयोग हमा है। परन्तु सस्कृती 'विस्तार' शब्द पुलिंग माना गया है अत: टीका संस्कृत छाया एतथा विस्तार: लोकविभागेसु भातव्यः' दी गई है, और इसलिये 'जातव्यः' क्रियापद ठीक है। प्रेमीजीने ऊपर जो 'मुन्नातव्यं रूप दिया है उसपरमे उसे गलत म समझ लेना चाहिये। Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 67 - तिलोयपणती और यतिवृषभ 'तियंक लोकविभाग' है और चतुर्विध देवोंका वर्णन भी है।" परन्तु “यह कहना" शब्दोंके द्वारा जिस वाक्यको मेरा वाक्य बतलाया गया है उसे मैंने कब और कहां कहा है ? मेरी प्रापत्ति तो तियंचोंके 14 भेदों के विस्तार कथन तक ही सीमित है और वह ग्रंथको देखकर ही की गई है, फिर उतने अंशों में ही मेरे कथनको न रखकर अतिरिक्त कथनके साथ उसे 'विचारणीय' प्रकट करना तथा ग्रंथमें तिर्यक्लोकविभाग' नामका भी एक मध्याय है ऐसी बात कहना, यह सब टलाने के सिवाय और कुछ भी अर्थ रखता हुमा मालूम नहीं होता / मैं पूछता हूँ क्या ग्रंथमें 'तियंक लोकविभाग' नामका छठा अध्याय होनेसे ही उसका यह अर्थ हो जाता है कि 'उसमें तियंचोंके 14 भेदोंका विस्तारके साथ वर्णन है ? यदि नहीं तो ऐसे समाधानसे क्या नतीजा? पौर वह टलानेकी बात नहीं तो और क्या है ? जान पड़ना है प्रेमीजी अपने उक्त समापनकी गहगई को समझते थेजानते थे कि वह मर एक प्रकारको खानापूरी ही है-और शायद यह भी अनुभव करने थे कि संस्कृत लोकविभागमें तिर्यचोंके 14 भेदोंका विस्तार नहीं है, और इसलिये उन्होंने परिशिष्टमें ही, एक कदम आगे, समाधानका एक दूसरा रूप अस्नियार किया है जो सब कल्पमात्मक, सन्देहात्मक एवं अनिर्णयात्मक है-और वह इस प्रकार है : "ऐसा मालूम होता है कि मवनन्दिका प्राकृत लोकविभाग बड़ा होगा। सिंहसरिने उसका संक्षेप किया है / 'व्याख्यास्यामि ममामेन' पदमे वे इस बातको स्पष्ट करते हैं। इसके मिवाय प्रागे 'शास्त्रस्य संग्रहस्त्विद' से भी यही ध्वनित होता है--संग्रहका भी एक. प्रथं संक्षेप होता है। जैसे गोम्मटसंगहमुन प्रादि / इसलिये यदि मस्कृत लोकविभागमें तियंचोंके 14 भेदोंका विस्तार नहीं, तो इससे यह भी तो कहा जा सकता है कि वह मूल प्राकृत ग्रन्थमें रहा होगा, सस्कृतमें संक्षेप करनेके कारण नही लिखा गया।" __इस समाधानके द्वारा प्रेमीजीने, संस्कृत लोकविभागमें तिथंचोंके 14 भेदोंका विस्तार कथन न होनेकी हालत में, अपने बचाव की प्रोर नियमसारकी उक्त गापामें सर्वनन्दीके लोकविभाग-विषयक उल्लेखको अपनी धारणाको बनाये रखने तथा दूसरों पर लादे रखनेकी एक सूरत निकाली है। परन्तु Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 608 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश प्रेमीजी जब स्वयं अपने लेख में लिखते है कि "उपलब्ध 'लोकविभाग' जो कि संस्कृतमें है बहुत प्राचीन नहीं है / प्राचीनतासे उसका, इतना ही सम्बन्ध है कि वह एक बहुत पुराने शक संवत् 380 के बने हुए ग्रन्थसे अनुवाद किया गया है" और इस तरह संस्कृतलोकविभागको सर्वनन्दीके प्राकृत लोकविभागका अनुवादित रूप स्वीकार करते है / और यह बात में अपने लेख में पहले भी बतला चुका हूँ कि संस्कृत लोकविभागके अन्तमें ग्रन्थकी श्लोकसंख्याका ही सूचक जो पद्य है और जिसमें श्लोकसंख्याका परिमारण 1536 दिया है वह प्राकृत लोकविभागकी संख्याका ही सूचक है और उसीके पद्यका अनुवादित रूप है; अन्यथा उपलब्ध लोकविभागकी इलोकसंख्या 2030 के करीब पाई जाती है और उसमें जो 500 श्लोक-जितना पाठ प्रधिक है वह प्रायः उन 'उक्त च' पद्योंका परिमारण है जो दूसरे गन्यापरसे किसी तरह उद्धृत होकर रषखे गये है / तब किम आधारपर उक्न प्राकृत लोकविभागको 'बडा' बतलाया जाता है ? और किम माधार पर यह कल्पना की जाती है कि व्यारूपाम्यामि समाप्तेन' इस वाक्य के द्वारा सिंहमूरि स्वयं अपने ग्रंथ-निर्माण की प्रतिज्ञा कर रहे हैं और वह मर्वनन्दीको प्रथ-निर्माण-प्रतिज्ञाका अनुवादित रूप नहीं है ? इसी तरह 'शास्त्रम्य मंग्रहाम्वद' यह वाक्य भी सर्वनन्दीके वाक्यका अनुवादित रूप नहीं है ? जब सिंहमूरि स्वतन्त्र रूपमे किसी ग्रन्थका निर्माण प्रयवा संग्रह नहीं कर रहे है और न किमी प्रन्यकी व्याम्या ही कर रहे हैं कि एक प्राचीन ग्रंथका भाषाके परिवनंन द्वाग (भाषाया: परिवर्तनेन) अनुवाद मात्र कर रहे है तब उनके द्वारा 'व्याभ्यास्यामि ममामेन' मा प्रतिजा-वाक्य नही बन सकता और न इलोकसंख्याका साथ देता हुमा 'शास्त्रस्य मनहरिम्वर' वाक्य ही बन सकता है / इमसे दोनों वाक्य मूलकार सवनन्दीक ही वाक्यों. के अनुवादितरूप जान पड़ते है / मिहमूरका इम ग्रन्यकी रचनामे केवल इतना ही सम्बन्ध है कि वे भाषाके परिवर्तन-द्वारा इसके रचयिता हैविषयके संकलनादिद्वारा नहीं -जैसाकि उन्होंने पन्तके चार पद्योंमेमे प्रथम पद्यमें सूचित किया है और ऐसा ही उनकी ग्रन्थ-प्रकृतिपरसे जाना जाता है। मालूम होता है प्रेमीजीने इन सब बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया और वे वैसे ही अपनी किसी धुन अथवा धारणाके पीछे युक्तियोंको तोड़-मरोड़ कर Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपएणती और यतिवृषभ अपने पनूकूल बनानेके प्रयत्नमें समाधानकरने बैठ गये हैं। ऊपरके इस सब विवेचनपरसे स्पष्ट है कि प्रेमीजीके इस कथन के पीछे कोई युक्तिबल नहीं है कि कुन्दकुन्द यतिवृषभके बाद अथवा सम-सामयिक हुए है। उनका जो खास प्राधार मार्यमंक्षु प्रौर नागहस्तिका गुणधराचार्यके साक्षात् शिष्य होना था वह स्थिर नहीं रह मका-प्राय: उसीको मूलाधार मानकर और नियममारकी उन गाथामें सर्वनन्दीके लोकविभागकी प्राशा लगाकर वे दूसरे प्रमाणों को खींच-तान-द्वारा अपने महायक बनाना चाहते थे, और वह कार्य भी नहीं हो सका / प्रत्युत इमके. ऊपर जो प्रमाण दिये गये है उनपरमे यह भले प्रकार फलित होना है कि कुन्दकुन्दका ममय विक्रमको दूसरी शनाम्दी तक तो हो सकता है-उसके बादका नहीं. और इसलिये छठी शताब्दी में होनेवाले यतिवृषभ उनसे कई शताब्दी बाद हुए है। (ग) नई विचार-धारा और उसको जाँच अब तिलोयपण्यात्ती' के सम्बन्ध में एक नई विचार-धाराको सामने रखकर उमपर विचार एवं जाँचका कार्य किया जाता है / यह विचार-धारा पं० फूलचन्दजी शास्त्रीने अपने 'वर्ततान तिलोयपष्पत्ति और उसके रचना. काल मादिका विचार' नामक लेख में प्रस्तुत की है, जो जैन सिद्धान्तभास्करके ११वें भागको पहली किरणमें प्रकाशित हमा है। गास्त्रीजीके विचारानुमार वामान निलोयपष्माती विक्रमकी हवीं शताब्दी अथवा शक सं० 738 (वि. सं. 873 ) से पहले की बनी हुई नही है और उसके कर्ता भी यतिवृषभ नही है। अपने इस विचारके ममर्थन में मापने जो प्रमाग्ग प्रस्तुत किये हैं उनका सार निम्न प्रकार है। इस मारको देने में इस बातका खास खयाल रक्खा गया है कि जहां तक भी हो सके शास्त्रीजीका युक्तिवाद अधिकसे अधिक उन्हीके पादोंमें रहे: (1) 'वर्तमानमें लोकको उत्तर और दक्षिण मे जो सर्वत्र सात राजु मानने है उसकी स्थापना धवलाके कर्ता वीरसेन स्वामीने की है-वीरमेनस्वामीसे पहले वैमी मान्यता नहीं थी। वीरसेनस्वामीके समय तक जंन प्राचार्य उपमालोकसे पांच द्रव्योंके प्राचारभूत लोकको भिन्न मानते थे। जैसा कि Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश राजवातिकके निम्न दो उल्लेखोंसे प्रकट है-- "अधः लोकमूले दिग्विदिक्षु विष्कम्भः सप्तरजवः, तिर्यग्लोके रज्जुरेका, ब्रह्मलोके पंच, पुनर्लोकाग्रे रज्जुरेका। मध्यलोकादधा रज्जुमवगाह्य शकेरान्ते अष्टास्वपि विविदितु विष्कम्भः रज्जुरेका रजिवाश्च षट् सप्तभागाः।" -(प्र० 1 सू० 20 टीका) "ततोऽसंख्यान वएडानपनोयासंख्येयमेकं भागं बुद्धया विरलीकृत्य एकैकस्मिन् पनाङ्गुलं दत्या परस्परेण गुणिता जगच्छे रणी सापरया जगछ एया अभ्यस्ता प्रतरलोकः / स एवापरया जगच्छ ण्या सवर्गितो घनलोकः / " -(प्र० 30 मू० 38 टीका) इनमें से प्रथम उल्लेम्व परमे लोक पाठो दिशामों में समान परिमाणको लिये हुए होने से गोल हुमा और उसका परिमाण भी उपमालोकके प्रमाणानुसार 343 घनराजु नहीं बैठना. जब कि वीरमेनका लोक चौकोर है. वह पूर्व-पश्चिम दिशामें ही उक्त क्रममे घटना है दक्षिण-उत्तर दिशामें नहीं--- इन दोनों दिशामों में वह सर्वत्र सान राजु बना रहना है / पोर इमलिये उसका परिमाण उपमालोकके अनुसार ही 343 घनगजु बैठना है और वह प्रमाग में पेश की हुई निम्न दो माथागोरमे, उक्त प्राकार के साथ भने प्रकार फलिन होता है: "मुहतलसमासश्रद्धं तुमसंघगुणं गुग्णं च बंधेगा / घगगणि जाणेमो वतासणसंठिए खेती / / मूलं मझेग गुगां मुहजहिदद्धमुम्मेधकदिगुणिदं / घणगणि जाणेमो मुइंगमंठाणवेशम्मि // 2 // " -धवला, क्षेत्रानुयोगद्वार पृ. 20) राजतिककं दूसरे उल्लेखपरमे उपमानोकका परिमाण 343 धनराजुको फलित होता है; क्योंकि अगश्रेणीका प्रमाण . रा है और ना धन 34 होता है। यह उपमालोक है परन्तु इस परमे पाप द्रव्योंके प्राधारभूत मोकका प्राकार माठों दिशामों में उक्त क्रममे घटना-बनता हमा 'गोल' फलित नहीं होता। Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपरणती और यतिवृषभ "वीरसेनस्वामीके सामने राजवातिक मादिमें बसलाये गए प्राकारके विरुद्ध लोकके आकार को सिद्ध करने के लिए केवल उपयुक्त दो गाथाएं ही थीं। इन्हींके पाधारसे वे लोकके प्राकारको भिन्न प्रकारमे सिद्ध कर सके' सषा यह भी कहने में समर्थ हए कि 'जिन ग्रन्यों में लोकका प्रमाण पधोलोकके मूल में सातराजु, मध्यलोकके पास एक राजु, ब्रह्मस्वर्गके पास पांच राजु और लोकाग्रमें एक राजु बसलाया है वह वहां पूर्व और पश्चिम दिशाको अपेक्षासे बतलाया है / उत्तर और दक्षिण दिशाकी पोरसे नहीं। इन दोनों दिशामों की अपेक्षा तो लोकका प्रमाण सर्वत्र सात राजु है / यद्यपि इसका विधानस करणानुयोगके ग्रंथों में नहीं है तो भी वहा निषेध भो नहीं है प्रतः लोकको उत्तर और दक्षिण में सर्वत्र मान राजु मानना चाहिये। वर्तमान तिलोयपणतीमें निम्न तीन गाथाएँ भिन्न स्थलोंपर पाई जाती है, जो वीरसेनस्वामीक उम मनका अनुसरण करती है जिसे उन्होने 'मुइतलसमाम' इत्यादि गाथामी घोर युक्तिपरमे स्थिर किया है: ''जगढियणपमारगालायायासा स पंचद व्यरिती। एस प्रणतागंनलायायासम्म बहुमम || सयला एसय लाश्री णिम्पएणा सढिविंदमारणेगा / तिरियप्पा रणादवा हट्टिमज्झिम उभंगा // 15 // " संदिपमाणायामं भागेमु दक्विगुत्तरेमु पुढे / पुव्यावरेसु वामं भूमिमुहे सन एक्क पचेका // 146 / / " इन पांच गोंगे ठाम लोकाकाको जगश्रेणीके पनप्रमाण बतलाया है। माय हो, "कोकका प्रमाण दक्षिण-उतर दिशामें सर्वत्र जाश्रेणो जितना अर्थात् सात राहु और पूर्व-पश्चिमदिशामें प्रयोलोकके पाम मान राजु. मध्यलोकके पाम एक राजु ब्रह्म नोकके पास पांच राजु पौर लोकाप्र में एक राजु है" ऐसा + ण प तयाण गाहाग मह विरोहो, पत्य वि दोमु रिमामु चबिहविभन्मणादो / ' धवला, क्षेत्रानुयोगद्वार पृ. 21 / ण व सत्तरगहल्लं करणालियोगमुत्त-विरुवं, तत्य विधिपडिसेषाभावादो। -धवला, क्षेत्रानुयोगार पृ०.२२ / Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 612 जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश सूचित किग है। इसके सिवाय, तितोरण तीका पहला महाधिकार सामान्य. लोक, अधोलोक व ऊबलोकके विविध प्रकारसे निकाले गए घनफलों से भरा पड़ा है जिससे वीरसेन स्वामी की मान्यताकी ही पुष्टि होती है। तिलोयपण्णतीका यह अंश यदि वीरसेनस्वामीके सामने मौजूद होता तो "वे इसका प्रमारणरूपसे उल्लेख नहीं करते यह कभी सम्भव नहीं था।" चूकि वीरसेनने तिलोयपण्णत्तीकी उक्त गाथाएं प्रथका दूसरा अंश धवलामें अपने विचारके अवसरपर प्रमाणरूपसे उपस्थित नहीं किया प्रतः उनके सामने जो तिलोयपणती थी मौर जिसके अनेक प्रमाण उन्होंने धवलामें उद्धत किये है वह वर्तमान निलोयपष्णत्ती नहीं थी-इससे निन्न दूसरी ही तिलोय पणा ती होनी चाहिये, यह निश्चित होता है। (2) "तिलोग्पष्ण तो मे पहने अधिकारकी ७वी गाथामे लेकर ८७वी गाथा नक 81 गाथाओं में मंगल मादि छह मधिकारोंका वर्णन है / यह पूराका पूग वर्णन संतपरूवणाकी धवलाटीकामें पाये हुए वर्णनसे मिलता हुपा है। ये छह अधिकार निलोयपण्णत्तीमें अन्य त्रसे सग्रह किये गये है इस बातका उल्लेख स्वय तिलोयपण्णतीकारने पहले अधिकारको ८५वी गाथा - में किया है तथा धव. लामें इन छह अधिकारोंका वर्णन करते समय जितनी गायाएं या श्लोक उद्धृत किये गये हैं वे सब अन्यत्रमे लिये गये हैं निलीयपनीमे नहीं. इससे मालूम होता है कि सिलोयपण्णतिकार के मामने धवला अवश्य रही है।" (दोनों ग्रन्थोंके कुछ ममान उद्धरणोंकि अनन्तर ) "इसी प्रकार के पनामों उद्धरण दिये जा सकते है जिनमे यह जाना जा सकता है कि एक अन्य लिखते समय दूसरा ग्रन्थ अवश्य सामने रहा है। यहाँ पाठक एक विशेषता पोर देखेंगे कि धवलामें जो गाथा या इलोक अन्यत्र उदधृत है तिलोयपातिमें वे भी मूलमें शामिल कर लिये गए है। इससे तो यही ज्ञात होता है कि तिलोयपात्ति लिखते समय लेखकके सामने धवला अवश्य रही है।" (3) "ज्ञानं प्रमाणमात्मा:' इत्यादि इलोक इन( भट्टाकलंकदेव ) को देखो, तिलोयपष्णति के पहले अधिकारकी गाथाएं 215 से 251 नक। * "मंगलपछि बरसारिणय विविहगंथजुत्तीहि / " Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलायपरणत्ती और यतिवृषभ मौलिक कृति है जो लघीयस्त्रयके छठे अध्याय में पाया है। तिलोयपष्मणत्तिकारने इसे भी नहीं छोड़ा / लघीयस्त्रयमें जहाँ यह श्लोक पाया है वहाँसे इसके अलग कर देने पर प्रकरण ही अधूरा रह जाता है। पर तिलोयपष्णत्तिमें इसके परिवर्तित रूपकी स्थिति ऐमे स्थल पर है कि यदि वहाँसे उसे अलग भी कर दिया जाय तो भी प्रकरणकी एकरूपता बनी रहती है। वीरसेनस्वामीने धवलामें उक्त श्लोकको उद्धृत किया है / तिलोयपण्यत्तिको देखने से ऐसा मालूम होता है कि तिलोयपत्तिकारने इमे लघीयस्त्रयसे न लेकर घवलासे ही लिया है; क्योंकि धवलामें इसके साथ जो एक दूसरा श्लोक उद्धृत है उसे भी उसी क्रमसे तिलोय. पण्यत्तिकारने प्रपना लिया है। इसमे भी यही प्रतीत होता है कि तिलोयपण्णात्तिकी रचना धवलाके बाद हुई है।" (4) "धवला द्रव्यप्रमाणानुयोगद्वारके पृष्ठ 36 में तिलोयपण्यत्तिका एक गाषांश उद्घन किया है जो निम्न प्रकार है __'दुगुणदुगुणी दुवग्गो णिरंतरा तिरियलोगो' त्ति / वर्तमान तिलोयपण्पत्तिमे इसकी पर्याप्त खोज की, किन्तु उसमें यह नहीं मिला / हाँ, इस प्रकारकी एक गाथा स्पर्गानुयोगमे वीरसेनस्वामीने अवश्य उद्धृत की है, जो इस प्रकार है 'चनाइच्चगह हिं चेवं रणक्खत्तताररूवहिं। दुगुण दुगुणेहि णीरतरहि दुबग्गी तिरियलोगो // " किन्तु वहाँ यह नहीं बतलाया कि कहाँकी है / मालूम पड़ता है कि इसीका उक्त गावांश परिवर्तित रूप है / यदि यह अनुमान टीक है. तो कहना होगा कि तिलोयपण्यत्ति पूरी गाया इस प्रकार रही होगी / जो कुछ भी हो, पर इतना मन है कि वर्तमान तिलोयपणाति उसमे भिन्न है।" (5) "तिलोयपणास में यत्र तत्र गद्य भाग भी पाया जाता है। इसका बहुत कुछ अंश धवलामें माये हए इस विषयके पद्य भागसे मिलता हुमा है। अत: यह शंका होना म्वाभाविक है कि इस मागका पूर्ववर्ती लेखक कौन रहा होगा। इस शंकाके दूर करने के लिये हम एक ऐसा गांश उपस्थित करते है जिससे इसका निर्णय करने में बड़ी र.हायता मिलती है। वह इस Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 614 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश : एसा तप्पारोगासंखेजलवाहियजयूदीवछेवणयसहिददीवसायररूपमेत्तरज्जुच्छेदपमाणपरिक्खाविही ण अण्णाइरिभोवएसपरंपराणुसारिणी केवल तु तिलोयपण्णत्तिसुत्ताणुमारिजोदिसियदेवभागहारपदुप्पाइदसुत्तावलंबिजुत्तिबलेण पयदगच्छसाहणट्टमम्देहि परूविदा।' यह गद्यांग धवला स्पर्शानुयोगद्वार पृ० 157 का है / तिलोयपण्यत्तिमें यह उसी प्रकार पाया जाता है / अन्तर केवल इतना है कि वहाँ 'अम्हेहि' के स्थानमें 'एसा परूवरणा पाठ है / पर विचार करने से यह पाठ प्रशुद्ध प्रतीत होता है; क्योंकि 'एस।' पद गयके प्रारम्भमें ही पाया हैप्रत: पुन: उसी पदके देनेकी मावश्यकता नहीं रहती। परिवखाविही' यह पद विशेष्य है; मतः पावणा' पद भी निष्फल हो जाता है। ____ "(गद्यांशका भाव देने के अनन्तर ) इस गद्यभागमे यह स्पष्ट हो जाता है कि उक्त गद्यभागमें एक गजुके जितने अचंछन बतलाये है वे तिलोयपणनिमें नहीं बतलाये गये है किन्तु निनोयपणत्तिमें जो ज्योतिथी देवोंके भागहारका कथन करनेवाला मूत्र है उसके बलमे मिद किये गए है / अब यदि यह गवभाग तिनोयपण्णनिका होता तो उमी में गिलोयपातिमनारामारि पद देने की पौर उसीके किमी एक मूत्रके बलपर गजुको चालू मान्यतासे मंख्यात अधिक प्रर्धछेद सिद्ध करने की क्या प्रावश्यकता थी। इसमें स्पष्ट मालूम होता है कि यह गद्यभाग घवलासे तिलोयपानिमें लिया गया है। नहीं तो दोरमेन स्वामी और देकर 'हमने यह परीक्षाविधि कही है' यह न कहने / कोई भी मनुष्य अपनी युक्तिको ही अपनी कहता है। उक्त गचभागमें पाया हमा 'प्रम्हेहि पद साफ बतला रहा है कि यह युति वीरसेनस्वामीकी है। इस प्रकार इस मबभागसे भी यही सिद्ध होता है कि वर्तमान तिमोयपप्णनिकी रचना धवलाके पनन्तर इन पांचों प्रमाणोंको देकर शास्त्रीजी ने बताया है कि 'धमाकी समाप्ति कि शक संवत् 738 में हुई थी इसलिये वर्तमान तिलोयपण्यति उससे पहले. भी बनी हुई नहीं है पोर कि त्रिलोकमार इसी सिलोपपत्तीके पापारपर बना हुआ है और उसके रचयिता नमिवन्द्र सि० पक्रवर्ती गक संबत 1.. Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . तलोयपएणती और यतिवृषभ लगभग हुए है इसलिये यह अन्य शक सं० 600 के बादका बना हुमा नहीं है, फलतः इस तिलोयपण्यत्तिकी रचना शक सं० 738 से लेकर 600 के मध्य में हुई है। अत: इसके कर्ता यतिवृषभ किसी भी हालतमें नहीं हो सकते।" इसके रचयिता सम्भवत: वीरसेनके शिष्य जिनसेन है-वे ही होने चाहिये; क्योंकि एक तो वीरसेन स्वामीके माहित्य-कार्यमे वे अच्छी तरह परिचित थे। तथा उनके शेष कार्यको इन्होंने पूरा भी किया है। सम्भव है उन शेष कार्योमें उस समयकी पावश्यकतानुसार तिलोयरमात्तिका संकलन भी एक कार्य हो / दूसरे बीरसेनस्वामीने प्राचीन माहिस्यके संकलन, संशोधन और सम्पादनको जो दिशा निश्चित् की पी वर्तमान निलोयपष्मात्तिका संकलन भी उसी के अनुसार हुमा है। तथा सम्पादनको इस दिशामे परिचित जिनमेन ही थे। इसके मिवाय 'जय. धवनाके जिस भागके लेखक प्राचार्य जिनमेन है उसकी एक गाथा ( 'पणमह जिग्गवरवमहं' नामको ) कुछ परिवर्तनके माथ निलोय मात्तिके अन्तमें पाई जाती है, और इससे तथा उक्त गद्य में 'प्रम्हेहि पदके न होने के कारण वीरमेन म्वामी वर्तमान तिलाय पणानिके कां मालूम नहीं होते। उनके मामने जो तिलायाभगति थी वह मभवतः यतिवृषभानायकी रही होगी। वर्तमान तिलोयपतिके अन्नमें पाई जाने वाली उक्त गाथा ( 'पणामह जिण वरवमह' ) में जो मौलिक परिवर्तन दिखाई देना है वह कुछ प्रथं प्रवग रखता है और उमपरमे, मुझाए हए 'परिम वमह' पाटके अनुसार, यह अनुमानित होता एवं सूचना मिलती है कि वर्तमान निलायपातिक पहले एक दूसरी तिलोयपण्णानि पार्षअन्य के रूपमें थी, जिसके कर्ता यनिवपम म्पविर थे और उसे देखकर इस तिलायरातिकी रचना की गई है।' शाम्बीजीके उक्त प्रमाणों तथा निष्कर्षोंके सम्बन्धमे प्रबमें अपनी विचारणा एवं जांच प्रस्तुत करता है और उसमें शास्त्रीजीके प्रमाणों को कम से लेता है (1) प्रथम प्रमाणोंको प्रस्तुत करते हा शास्त्रीजीने जो कुछ कहा है उसपरसे इतना ही फलित होता है कि 'वर्तमान तिलोयपणाति वीरमेन स्वामी के बाकी बनी हुई है और उस तिलोयपणतिसे मिट है जो बीरसेन स्थामा के सामने मौजूद थी। क्योंकि इसमें लोकके उत्तरद-क्षिणमें सर्वत्र सात गरकी उस मान्यताको अपनाया गया है और उसीका अनुसरण करते हुए Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 616 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश घनफलोंको निकाला गया है जिसके संस्थापक वीरसेन है। पोर वीरसेन इस मान्यताके संस्थापक इसलिये है कि उनसे पहले इस मान्यताका कोई अस्तित्व नहीं था, उनके समय तक सभी जैनाचार्य 343 पनराजुवाले उपमालोक ('परिमाणलोक) से पांच द्रव्योंके प्राधारभूतलोकको भिन्न मानते थे। यदि वर्तमान तिलोयपण्णति वीरसेनके सामने मौजूद होती अथवा जो तिलोयपाति वीरमेनके सामने मौजूद थी उसमें उक्त मान्यताका कोई उल्लेख अथवा संसूचन होता तो यह प्रसभव था कि वीरसेनस्वामी उसका प्रमारणरूपसे उल्लेख न करते / उल्लेख न करनेसे ही दोनोंका प्रभाव जाना जाता है।' अब देखना यह है कि क्या वीरसेन सचमुच ही उक्त मान्यताके संस्थापक है और उन्होंने कही अपनेको उसका संस्थापक या माविष्कारक प्रकट किया है। जिस धवला टोकाका शास्त्रीजीने उल्लेख किया है उसके उस स्थलको देख जानेसे वैसा कुछ भी प्रतीत नही होता / वहाँ वीरसेनने, क्षेत्रानुगम अनुयोगद्वारके 'प्रोपेण मिच्छादिठ्ठी केवडि खेते, सबलोगे' इस द्वितीयसूत्र में स्थित 'लोगे' पदको व्याख्या करते हुए बतलाया है कि यहाँ 'लोक'से सात राजु घनरूप (343 धनराजु प्रमाण ) लोक प्रहरण करना चाहिए, क्योंकि यहां क्षेत्र प्रमाणाधिकारमें पल्प, सागर, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुन, जगश्रेणी, लोक. प्रतर और लोक ऐसे पाठ प्रमाण कमसे माने गए हैं / इससे यहां प्रमाणलोककाही ग्रहण है -जो कि सात राजुप्रमाण जगणीका पनम्प होना है / इसपर किसीने शंका की कि यदि ऐसा लोक ग्रहण किया जाता है तो फिर पांच द्रव्योंके आधारभूत माकागका ग्रहण नही बनता; क्योंकि उसमें सात राजु के घनरूप क्षेत्रका प्रभाव है / यदि उसका क्षेत्र भी मातराडके धनरूप माना जाता है तो 'हेट्ठा मज्झे उवरि', 'लोगों प्रकिट्टमो बलु' पोर 'लायरस विक्खंभो च उप्पयारो' ये तीन मूत्र-गागा, मप्रमाणताको प्रात होती है। इस शंकाका परिहार (ममाधान) करते हए वीरमेनस्वामीने पुनः बनलाया है कि यहाँ 'लोगे' पदमें पंचद्रव्योंके माधाररूप प्राकानका ही पहरण है, अन्य का नहीं। क्योंकि 'लोगपूरणगो केवली केटि से, सम्बनोगे (नोकपूरण समुद्घातको प्राप्त केवली कितने क्षेत्रमें रहता है ? सर्वलोकमें रहता है) ऐसा सूत्रवचन पाया जाता है। यदि लोक सात राजु के पनप्रमाण नहीं है तो यह Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विलोयपएणती और यतिवृषभ कहना चाहिये कि लोकपूरण समुद्घातको प्रास हुमा केवली लोकके संख्यातवं भागमें रहता है। पौर शंकाकार जिनका अनुयायी है उन दूसरे प्राचार्योके द्वारा प्ररूपित मृदंगाकार लोकके प्रमारणको दृष्टिसे लोकपूरणसमुद्धात-गत केवलीका लोकके संस्थातव भाग में रहना प्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि गणना करनेपर मृदंगाकार लोकका प्रमाण घनलोकके संख्यातवें भाग ही उपलब्ध होता है। इसके अनन्तर गणित द्वारा घनलोकके संख्यात भागको सिद्ध घोषित करके, वीरसेनस्वामीने इतना प्रोर बतलाया है कि 'इस पंचद्रव्योंके प्राधाररूप प्राकाशसे अतिरिक्त दूसरा सात राजु घनप्रमाण लोकसंज्ञक कोई क्षेत्र नहीं है, जिससे प्रमाणलोक (उपमालोक) छह द्रव्योंके समुदायरूप लोकसे भिन्न होवे / मोर न लोकाकाश तथा प्रलोकाकाश दोनोंमें स्थित सातराजु घनमात्र माकाण-प्रदेशोंकी प्रमारणरूपमे स्वीकृत 'घनलोक' संज्ञा है। ऐसी संज्ञा स्वीकार करनेपर लोकसंज्ञाके यादृच्छिापने का प्रसंग पाता है और तब संपूर्ण पाकाश, जगधेगी, जगप्रतर और धनलोक जैसी संज्ञामोंके यादृच्छिकपनेका प्रमंग उपस्थित होगा (पोर इसमे सारी व्यवस्था ही बिगड़ जायगी)। इसके मिवाय. प्रमाणलोक पौर षटद्रव्यों के समुदायरूप लोकको भिन्न माननेपर प्रतरगत केवलीके क्षेत्रका निरूपण करते हुए यह जो कहा गया है कि वह केवली लोकके प्रसंख्यात भागसे न्यून सर्वलोकमे रहता है पोर लोकके प्रसंख्यातवें भागमे न्यून सबंलोकका प्रमाण अवलोकके कुछ कम तीसरे भागमे अधिक दो ऊवं लोक प्रमाण है.' वह नहीं बनता। पोर इसलिये दोनों लोकोंकी एकता सिद्ध होती है। प्रतः प्रमाणलोक (उपमालोक) प्राकाश प्रदेशोंकी गणनाकी अपेक्षा छह द्रव्योके समुदायरूप लोकके समान है, ऐसा स्वीकार करना चाहिये। इसके बाद यह शंका होने पर कि किस प्रकार पिण्ड(धन) रूप किया गया लोक सात राजुके धनप्रमारण होता है ? वीरसेनस्वामीने उत्तरमें बतलाया * 'पदरगदो केवलो केटि देते, लोगे प्रसंले गदिमागणे / उडढलोगेण दुवे उड्डयोगा उड्ढलोगन्स तिभागेण येसूणेण सादिरेगा।" Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 618 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश है कि लोक संपूर्ण माकाशके मध्यभागमें स्थित है', चौदह राजु मायामवाला है दोनों दिशामोंके अर्थात् पूर्व और पश्चिम दिशाके मूल, अर्घभाग, त्रिचतु. भर्भाग मोर चरम भागमें क्रमसे सात, एक, पांच पोर एक राजु विस्तारवाला है, तथा सर्वत्र सात राजु मोटा है, वृद्धि और हानिके द्वारा उसके दोनों प्रान्सभाग स्थित है, चौदह राजु लम्बी एकराजुके वर्गप्रमाण मुखवाली लोकनाली उसके गर्भ में है, ऐसा यह पिण्डरूप किया गया लोक सात राजुके धन प्रमारण मर्थात् 74747%D343 राजु होता है। यदि लोकको ऐसा नहीं माना जाता है तो प्रतर-समुद्घातगत केवलीके क्षेत्रके साधनार्थ जो 'मुहतलसमास प्रद' मोर 'मूलं मज्भेण गुरण' नामकी दो गाथाएं कही गई हैं वे निरर्थक हो जायेंगी; क्योंकि उनमें कहा गया घनफल लोकको अन्य प्रकारमे माननेपर संभव नहीं है। साथ ही, यह भी बतलाया है कि 'इस (उपर्युक प्राकार वाले) नोकका शंकाकारके द्वारा प्रस्तुत की गई प्रथम गाथा ( 'हेट्ठा माझे उरि वेत्तामनझल्लरीमुइंगरिणमो') के साथ विरोध नहीं है, क्योंकि एक दिशामें लोक वेत्रासन और मृदंगके प्राकार दिखाई देता है, और ऐमा नहीं कि उसमें झल्लरीका प्राकार न हो; क्योंकि मध्यलोक में स्वयंभूरमग ममुद्रसे परिक्षिप्त तथा चारों पोरमे असंख्यात योजन विस्तारवाला प्रोध एक लाख योजन मोटाई वाला यह मध्यवर्ती देश चन्द्रमण्डलकी तरह झालरीके ममान दिखाई देता है / और दृष्टान्त पर्वथा दान्तिके ममान होता भी नहीं, अन्यथा दोनोक ही प्रभावका प्रसंग पाजायगा। ऐमा भी नहीं कि (द्वितीय मूत्र-गाथामें बतलाया हुपा) तालवृक्षके समान माकार इममें प्रसंभव हो, क्योंकि एक दिशा से देखने पर तालवृक्षके समान प्राकार दिखाई देता है। पौर तीमरी गाथा ('लोयस्स विक्खंभो चउप्पयारो') के साथ भी विरोध नहीं है। क्योंकि यहाँ पर भी पूर्व और पश्चिम इन दोनों दिशानों में गायोक्त चारों ही प्रकार के विष्कम्भ दिखाई देते है। सात राजुकी मोटाई करणानुयोग मूरके विरुद्ध नहीं है; क्योंकि उक्त सूत्रमें उसकी यदि विधि नहीं है तो प्रतिष भी नहीं है -विधि और प्रतिषेध दोनोंका प्रभाव है। और इसलिये लोकको उपयुक्त प्रकारका ही ग्रहण करना चाहिये / ' यह सब धवलाका वह कथन है जो शास्त्रीजीके प्रथम प्रमाणका भून Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनोयपण्णी और यतिवृषभ माधार है और जिसमें राजवातिकका कोई उल्लेख भी नहीं है / इसमें कहीं भी न तो यह निविष्ट है और न इमपरसे फलित ही होता है कि वीरसेनस्वामी लोकके उत्तर-दक्षिणमें सर्वत्र सात राजु मोटाईवाली मान्यताके संस्थापक हैंउनसे पहले दूसरा कोई भी प्राचार्य इस मान्यताको माननेवाला नहीं था अथवा नहीं हुप्रा है / प्रत्युन इसके यह साफ़ जाना जाता है कि वीरसेनने कुछ लोगोंकी गलतीका समाधानमात्र किया है-स्वयं कोई नई स्थापना नहीं की। इसी तरह यह भी फलित नहीं होता कि वीरमेन के सामने 'मुहतलसमासप्रद' और 'मून मज्झरण गुगणं' नामकी दो गाथानोंके सिवायदूसरा कोई भी प्रमाण उक्त मान्यताको स्पष्ट करने के लिए नहीं था। क्योंकि प्रकरणको देखते हुए मरणाइरियपरूविदमुदिंगायारलोगस्म पदमें प्रयुक्त हुए 'अण्णाइरिय'(पन्याचार्य)गन्दमे उन दूसरे प्राचार्यों का ही ग्रहण किया जा सकता है जिनके मतका शंकाकार अनुयायी था अथवा जिनके उपदेशको पाकर शकाकार उक्त शंका करनेके लिये प्रस्तुत हुमा था, न कि उन प्राचार्यों का जिनके अनुयायी स्वय वीरसेन थे और जिनके अनुमार कयन करने की अपनी प्रवृत्तिका वीरसेनने जगह जगह उल्लेख किया है। इम क्षेत्रानुगम अनुयोगद्वारके मंगलाचरणमें भी वे खेतमन जहोवएस पयामेमो' इम वाक्यके द्वारा यथोपदेश (पूर्वाचार्योंके उपदेशानुमार) क्षेत्रमूत्रको प्रकाशित करने की प्रतिज्ञा कर रहे हैं। दूसरे जिन दो गाथानों को वीरमेनने उपस्थित किया है उनमे जब उक्त मान्यता फलिन एवं स्पष्ट होती है तब वीरसेनको उक्त मान्यताका मंस्थापक कसे कहा जा सकता है ?-बहनो उक्त गाथायोंसे भी पहलेको स्पष्ट पानी जाती है। और इससे निलीयपणतीको वीरसेनसे बादकी बनी हुई कहने में यो प्रधान कारण था वह स्थिर नहीं रहता। तीसरे, वीरमेनने 'मुहतलसमासप' मादि उक्त दोनों गाथाएं शंकाकरको लक्ष्य करके ही प्रस्तुत की है और वे सम्भवत: उसी अन्य अथवा शंशाकारके द्वारा मान्य ग्रन्थकी जान पड़ती है जिसपरसे तीन मूरगायाए शंकाकारने उपस्थित की थी; इसीसे वीरसेनने उन्हें लोकका दूसरा प्राकार मानने पर निरर्थक बतलाया है। और इस तरह शंकाकारके द्वारा मान्य प्रन्यके वाक्यों परसे ही उमे निरुतर कर दिया है। और अन्तर्षे जा उसने 'करणानुयोगसूत्र' के विरोधकी कुछ बात उठाई है अर्थात ऐसा संकेत किया है कि उस प्रथमें सात राजुकी मोटाईकी कोई स्पष्ट विधि नहीं है Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 620 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश तो वीरसेनने साफ उत्तर दे दिया है कि वहां उसकी विधि नहीं तो निषेध भी नहीं है-विधि और निषेध दोनोंके प्रभावसे विरोधके लिये कोई अवकाश नहीं रहता। इस विवक्षित 'करणानुयोगसूत्र'का अर्थ करणानुयोग-विषयके समस्त ग्रन्थ तथा प्रकरण ममझ लेना युक्तियुक्त नहीं है / वह 'लोकानुयोग'की तरह, जिसका उल्लेख सर्वार्थसिद्धि और लोकविभागमें भी पाया जाता है (r), एक जुदा ही ग्रन्थ होना चाहिये / ऐसी स्थितिमें वीरसेनके सामने लोकके स्वरूप सम्बन्ध में अपने मान्य ग्रन्थोंके अनेक प्रमाण मौजूद होते हुए भी उन्हें उपस्थित (पेश) करने की ज़रूरत नहीं थी पोर न किसीके लिये यह लाजिमी है कि जितने प्रमाण उसके पास हों वह उन सबको ही उपस्थित करे-वह जिन्हें प्रसंगानुसार उपयुक्त प्रौर जरूरी समझता है उन्हींको उपस्थित करता है और एक ही भाशयके यदि अनेक प्रमाण हों तो उनमें चाहे जिसको अथवा अधिक प्राचीनको उपस्थित कर देना काफी होता है / उदारणके लिये 'मुहतलसमास पद' नामकी गाथासे मिलती जुलती और उसी प्राशयकी एक गाथा तिलोयपणणसीमें निम्न प्रकार पाई जाती है मुहभूमिसमासद्धिय गुणिदं तुगेन तह य धेण / घणगणिदं णादव्वं वेत्तासण-सण्णिा खेते॥१६|| इस गाथाको उपस्थित न करके यदि वीरमेनने 'महतलसमासमट' नामकी उक्त गाथाको उपस्थित किया जो शंकाकारके मान्य मूत्रमन्यकी थी तो उन्होंने वह प्रसंगानुमार उचित ही किया, और उसपरसे यह नहीं कहा जा सकता कि वीरसेनके सामने तिलोयपण्णात्तिकी यह गाथा नहीं थी, होती तो उसे जरूर पेश करते / क्योंकि शंकाकार मूलसूत्रोंके व्याख्यानादि-रूप में स्वतंत्ररूपसे प्रस्तुत किये गए तिलोयपण्णती-जैसे अन्योंको माननेवाला मालूम नहीं होता-माननेवाला होता तो वैसी शंका ही न करता-, वह तो कुछ प्राचीन मूलमूत्रोका पभराती जान पड़ता है और उन्हींपरसे सब कुछ फलित करना चाहता है। उसे वीरसेनने मूलसूत्रोंकी कुछ दृष्टि बतलाई है और उसके द्वारा पेश की हुई सूत्रमाणामोंकी * "इतरो विशेषो लोकानुयोगत: वेदितव्यः" ( ३-२)-सर्वार्थसिद्धि "बिन्दुमात्रमिदं शेष ग्राह्य लोकानुयोगत:" (7-68) -लोकविभाग Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपएणत्ती और यतिवृषभ अपने कथनके साथ संगति बिठलाई है। और इस लिये अपने द्वारा सविशेषरूप. से मान्य ग्रन्थोंके प्रमाणोंको उपस्थित करनेका वहाँ प्रसंग ही नहीं था। उनके माधारपर तो वे अपना सारा विवेचन अथवा व्याख्यान लिख ही रहे हैं। पब में निलोयपण्णत्तीसे भिन्न दो ऐसे प्राचीन प्रमाणोंको भी पेश कर देना चाहता हूँ जिनसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि वीरसेनको धवला कृतिसे पूर्व (अथवा शक मं० 738 से पहले ) छह द्रव्योंका प्राधारभून लोक, जो अध: ऊर्ध्व तथा मध्यभागमें क्रमश: वेत्रासन, मृदंग तथा झल्लरीके सदृश प्राकृतिको लिये हुए है अथवा डेढ मृदंग-जमे प्राकारवाला है उसे चौकोर (चतुरस्रक) माना है। उसके मूल, मध्य, ब्रह्मान्त और लोकान्त में जो क्रमश: सात, एक, पांच, तथा एक राजुका विस्तार बतलाया गया है वह पूर्व मोर पश्चिम दिशाकी अपेमासे है, दक्षिण तथा उत्तर दिशाकी अपेक्षामे सर्वत्र सात राजुका प्रमाण माना गया है और इमी लोकको मात राजुके धनप्रमाण निर्दिष्ट किया है:(अ) कालः पश्चास्तिकायाश्च स प्रपचा इहाऽखिलाः / लोक्यंते यन तेनाऽयं लोक इत्यभिलप्यते / / 4-5 // वेत्रासन-मृदंगोरु-मल्लरा-सदशाऽऽकतिः / अधश्चाय च तियक च यथायोगमिति विधा / / 4.6 // मुजोधमधाभागे नभ्याचे मुरजी यथा। प्राकारतम्य लोसम्य किन्वेष चतुगलकः / / 1.7 / / ये हरिवंशपुराण के वाक्य है. जो गक मं० 705 (वि० म०८४० ) में बनकर समाप्त हुपा है। इसमें उक्त प्राकृतियाले यह द्रव्योके प्राधारभूत लोकको चौकोर (चतुरमक) बतलाया है-गोल नही, जिसे लम्बा चौकोर समझना चाहिये। (भा) मत्तेमकुपंचाक्का मृले माझे तहेव वंभत / लायते रज्जुनी पुश्वावरदो य विस्थारो।। 518 // दक्षिण-उत्तरद। पुण सत्त वि रज वेदि मध्यस्थ / उठ्ढा च उदस रज्जू सत्त विजू घण। लाया॥११॥ ये स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी गाथाएँ है, जो एक बात प्राचीन ग्रन्थ है और बीरसेनसे कई शताब्दी पहलेका बना हुआ है। इनमें लोकके पूर्व-पश्चिम भोर Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 622 , जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश उत्तर-दक्षिणके राजुपोंका उक्त प्रमाण बहुत ही स्पष्ट शब्दों में दिया हमा है पौर लोकको चौदह राजु ऊंचा तथा सात राजुके धनमै ( 343 राजु) भी बतलाया है। ___ इन प्रमाणोंके सिवाय, जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिमें दो गाथाएं निम्न प्रकारले पाई जाती है पनिछम-पुन्वादिसाए विक्वंभो होह तम्स लोगम्स / सत्तेग-पंच-एया मूलादो होति रज्जूणि // 4.16 / / दक्खिण-उत्तरदो पुण विक्खंभो हाडासत रज्जूणि / चदुसु वि दिसासु भागे उदसरज्जूणि उत्तुंग।।। 4.17 / / इनमें लोककी पूर्व-पश्चिम और उत्तर-दक्षिण चौडाई-मोटाई तथा ऊँचाईका परिमारण स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाको गाथानोंके अनुरूप ही दिया है / जम्बू. द्वीपप्रज्ञप्ति एक प्राचीन ग्रंय है और उन पद्यनन्दी प्राचार्य की कृति है जो बलनन्दिके शिष्य तथा वीरनन्दीके शिष्य थे और प्रागमोपदेशक महासत्व श्रीविजय भी जिनके गुरु थे / श्रीविजयगुरुम सुपरिशुद्ध पागमको मुनकर तथा जिनवचनविनिर्गन अमृभूत पदको धारण करके उन्हीके माहारम्य अथवा प्रमादम उन्होंने यह ग्रंथ उन श्रीनन्दी मुनिके निमिन रचा है जो माघनन्दी मुनीक गिप्य अथवा प्रशिष्य (मकन बन्द | मिप्यके शिष्य) ये ऐमा प्रन्यकी प्रशस्तिपग्मे जाना जाता है। बहन सम्भव है कि ये श्रीविजय वे ही हों जिनका सूमस नाम 'अपराजितमूरि' था. जिन्होंने श्रीननी मणिको प्रेरणाको पाकर भगवनीपाराधनापर "विजयादया' नामकी टीका लिखी है और जो बललेवमूरिके शिष्य तया चन्द्रनन्दी के प्रशिष्य थे। प्रोर यह भी सम्भव है कि उनके प्रगुर बन्दनन्दी वे ही हों जिनको एक शिष्यपरम्पराका उल्वेख श्रीपुरुषके दानपत्र अथवा 'भागमंगल ताम्रपत्र में पाया जाना है, जो श्रीपुरके जिनालयके लिये बक स० 668 (वि० सं० 833) में लिखा गया है और जिसमें चन्द्रनन्दीकं एक शिष्य कुमार सकलचन्द्र-शिष्यके नामोल्लेखवाली गाथा भामेरकी वि० सं० 1518 की प्राचीन प्रतिमें नहीं है, पदकी कुछ प्रतियों में है। इसीसे श्रीनन्दीके माषनन्दीक प्रशिष्य होनेकी कल्पना की गई है। Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपण्णत्तो पोर यतिवृषभ 623 नन्दीके शिष्य कीर्तिमन्दीके और कीतिनन्दीके शिप्य विमलचन्द्रका उल्लेख है। पौर इससे चन्द्रनन्दीका समय शक संवत् 638 से कुछ पहलेका ही जान पड़ता है। यदि यह कल्पना ठीक हो तो श्रीविजय का समय शक सवत् 658 के लगभग प्रारम्भ होता है और तब जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिका समय शक सं. 670 अर्थात वि० सं० 805 के पास-पासका होना चाहिए / ऐसी स्थितिमें जम्बूद्वीपप्रजातिकी रचना भी धवलासे पहलेको-कोई 68 वर्ष पूर्वकी-ठहरती है। ऐसी हालत में शास्त्रीजीका यह लिखना कि "वीरसेनस्वामीके सामने राजवार्तिक मादिमें बतलाए गये भाकारके विरुद्ध लोकके प्राकारको सिद्ध करनेके लिये केवल उपयुक्त दो गाथाए ही थी / इन्हीके प्राधारपर वे लोकके प्राकार. को भिन्न प्रकारसे सिद्ध कर मकै तथा यह भी कहनेमें समर्थ हए ............... इत्यादि' न्यायसंगत मालूम नहीं होता / और न इस प्राधारपर तिलोयपण्यत्तिको वीरसेनसे बादकी बनी हुई अथवा उनके मतका अनुसरण करने वाली बतलाना ही न्यायसंसगत अथवा युक्ति-युक्त कहा जा सकता है / वीरमेनके सामने तो सम विषयके न मालूम कितने ग्रंथ पे जिनके प्राधारपर उन्होंने अपने व्याख्यानादिको उमी तरह सृष्टि की है जिस तरह कि मकला पोर विद्यानन्दादिने अपने गजवातिक, श्लोकवातिकादि ग्रंथों में प्रनंक विषयोका वर्णन और विवेचन बहनमें ग्रंथों के नामल्नेखक विना भी किया है। (2) द्वितीय प्रमाणको उपस्थित करते हुए शास्त्री जीने यह बतलाया है कि तिलोयपशालिके प्रथम अधिकारकी ७वी गाथासे लेकर 87 वी गाथा तक 81 गाथानों में मंगलादि छह अधिकारोंका जो वर्णन है वह पूराका पूरा वरगंन संतपस्वरणाकी पवला टीकामे भाए हुए वर्णनमे मिलना-जुलता है।' मोर माथ ही इस साहश्य परसे यह भी फलित करके बनलाया है कि "एक पंथ लिखते समय दूसरा ग्रंथ प्रवश्य सामने रहा है।" परन्तु धवलाकारके मामने निलोयपत्ति नहीं रही, घवला में उन सह अधिकारोंका वर्णन करते हुए जो गाथाएँ या श्लोक उद्धृत किये गये है वे सब भन्यत्रसे किये गये है तिलोयपणपत्तिसे नहीं, इतना ही नहीं बल्कि धवलामें जो गाथाए या श्लोक अन्यत्रो उदभूत है उन्हें भी सिलोयपातिके मूल में शामिल कर लिया है इस विको सिद्ध करनेके लिये कोई भी प्रमाण उपस्थित नहीं किया गया। Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 624 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश जान पड़ता है पहले भ्रान्त प्रमाण परसे बनी हुई ग़लत धारणाके प्राधारपर हो यह सब कुछ बिना हेतुके ही कह दिया गया हैं !! मन्यथा शास्त्रीजी कमसे कम एक प्रमाण तो ऐसा उपस्थित करते जिससे यह जाना जाता कि धवलाका प्रमुक उद्धरण अमुक ग्रन्थके नामोल्लेख-पूर्वक मन्यत्रसे उद्धृत किया गया है और उसे तिलोयपण्णत्तिका अंग बना लिया गया है। ऐसे किसी प्रमाणके प्रभावमें प्रस्तुत प्रमाण परसे अभीष्टको कोई सिटि नहीं हो सकती और इसलिये वह निरर्थक ठहरता है। क्योंकि वाक्योंकी शान्दिक या माथिक समानता परसे तो यह भी कहा जा सकता है कि धवलाकारके सामने तिलोयपण्यत्ति रही है, बल्कि ऐसा कहना, तिलोयात्तिके व्यवस्थित मौलिक कथन और धवलाकारके कथनकी व्याख्या-शैलीको देखते हुए. अधिक उपयुक्त जान पड़ता है। रही यह बात कि तिलोयपण तिकी ८५वी गाथामें विविध-ग्रंथ-युक्तियोके द्वारा मंगलादिक छह अधिकारोंके व्याख्यामका उल्लेख है तो उसमें यह कहां फलित होता है कि उन विविध ग्रन्थोंमें धवाला भी शामिल है अथवा धवलापरमे ही इन अधिकारोंका संग्रह किया गया है?-खामकर ऐसी हालतमे जबकि धवलाकार स्वयं 'मंगलग्गिमित्त हेऊ' नामकी एक भिन्न गाथाको कहीम उद्धृत करके यह बतला रहे है कि 'इम गाथामें मगनादिक छह बातोका व्याख्यान करने के पश्चात् प्राचार्य के लिये शास्त्रका ( मूलमयका ) व्याख्यान करनेकी जो बात कही गई है वह प्राचार्य-परम्परामे चला पाया न्याय है, उमे हृदय में धारण करके और पूर्वाचार्यों के प्राचार (व्यवहार)का अनुसरण करना रत्नत्रयका हेतु है ऐमा समझकर, पुष्पदन्त प्राचार्य मगलारिक छह अधिकारीका सकारण प्ररूपण करनेके लिये मंगलमूत्र कहते है / क्योंकि इससे स्पष्ट है. कि मंगलादिक छह अधिकारोंक कथनकी परिपाटी बहुत प्राचीन है --उनके + "मंगलपदिछक्क वक्खागि य विविहगंपत्तीहि / ' * 'इदि रणायमाइरिय-परम्परागयं मरोणावहरिय पुवाइरियायागरगुसरण-तिरयग हे उनि पुप्फदंताइरियो मंगलादीणं छपण सकारणाग पावगट्ठ सुत्तमाह।" Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपएणती और यतिवृषभ 625 विधानादिका श्रेय धवलाको प्राप्त नहीं है। और इसलिये तिलोयपण्यत्तिकारने यदि इस विषयमें पुरातन प्राचार्योकी कृतियों अनुसरण किया है तो वह न्याय ही है, परन्तु उतने मात्रसे उसे धवलाका अनुसरण नहीं कहा जा सकता, धवलाका अनुसरण कहने के लिये पहले यह सिद्ध करना होगा कि धवला तिलोयरणतिस पूर्वको कृति है, और यह सिद्ध नहीं है। प्रत्युत इसके, यह स्वयं धवलाके उल्लेखोंसे ही सिद्ध है कि धवलाकारके सामने तिलोयपण्णति थी, जिसके विषयमें दूसरी तिलोयपत्ति होने की तो कल्पना की जाती है परन्तु यह नहीं कहा जाता और न कहा जा सकता है कि उसमें मंगलादिक छह अधिकारोंका वह मब वर्णन नहीं था जो वर्तमान तिलोयपण्ण तिमें पाया जाता है तब धवलाकारकं द्वारा तिलोयपण्णात्तिके अनुसरण को बात ही अधिक संभव मोर युक्तियुक्त जान पड़नी है। ऐसी स्थितिमें शास्त्रीजीका यह दूसरा प्रमाण वस्तुन: कोई प्रमाण ही नहीं है पोर न स्वतन्त्र युक्ति के रूप में उसका कोई मूल्य जान पड़ता है। (3) तीसरी प्रमागा अथवा युक्तिवाद प्रस्तुत करते हुए शास्त्रीजीने जो कुछ कहा है उसे पतते समय ऐमा मालूम होता है कि 'तिलोयपण्यत्तिमें धवला. पर मे बन दो संस्कृत श्लोकोंको कुछ परिवर्तनके माथ अपना लिया गया है जिन्हें धवलामें कहींसे उद्घत किया गया था और जिनमेंसे एक श्लोक प्रकलंकदेवके लषीवस्त्रयका 'ज्ञानं प्रमारणमात्मादे.' नाम का है। परन्तु दोनों गन्थोंको जब खोलकर देखने है तो मालूम होता है कि तिलोयपण्यत्तिकारने धवलोदघृत उन दोनों मंस्कृत श्लोकोंको अपने ग्रंथका अंग नहीं बनाया-वहाँ प्रकरण के माय कोई संस्कृतश्लोक है ही नहीं, दो गाथाएं हैं जो मौलिक रूपमेंस्थित है पौर प्रकरणके साथ संगत है। इसी तरह लघीयस्त्रयवाला पर धवला. में उसी पसे उदत नहीं जिस रूपमें कि वह लघीयस्त्रयमें पाया जाता हैउसका प्रथम चरण 'झानं प्रमाणमात्मादे: के स्थान पर 'मानं प्रमाण मिस्याहुः' के रूपमे उपलम्ब है। मोर दूसरे चरणमें 'इष्यते' को जगह उच्यते' कियापद है / ऐसी हालतमें शास्त्रीजीका यह कहना कि " 'मामं प्रमारणमात्मादे:' - इत्यादि श्लोक मद्रासंकदेवकी मौलिक कृति है तिलोवपण्यत्तिकारनं इसे भो नहीं छोड़ा" कुछ संगत मामूम महीं होता / प्रस्तु; यहां दोनों अन्योंके दोनों Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 626 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश प्रकृत पदोंको उद्धृत किया जाता है, जिससे पाठक उनके विषयके विचारको भले प्रकार हृदयङ्गम कर सकें, जो ण पमाणणयहिं णिक्खेवेणं णिरक्वदे. अत्थं / तस्साऽजुत्तं जुत्तं जुत्तमजुत्तं च (व) पडिहादि / / 2 / / णाणं होदि पमाणं णा वि णादुम्स हिंदयभावत्यो / णिक्खेवो वि उवाओं जुत्तीए अस्थपडिगहणं // 8 // -तिलोयपमा ती प्रमाण-नय-निदंपैोऽर्थो नाऽभिसमीक्ष्यते / युक्त चाऽयुक्तयद् भाति तस्याऽयुक्त च युक्तयन् // 10 // ज्ञानं प्रमाणमित्याहुरूपायो न्यास उच्यते / नयो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽर्थपरिग्रहः // 11 // __-धवला 1, 1, 10 16, 17, तियोयपण्णी की पहली गाथामें यह बतलाया है कि 'जो प्रमाण, नय पौर निक्षेपके द्वारा प्रयंका निरीक्षणा नहीं करना है उसको प्रयुक्त (पदार्थ) युक्तकी तरह और यक्त (पदार्थ) प्रयुक्त की नरह प्रतिभामित होता है।' और दूसरी गाधाम प्रमाग, नय और निक्षेपका उद्देशानुमार क्रमश: लक्षण दिया है और अन्त में बतलाया है कि यह मब युनिमे अर्थका परिग्रहा है। प्रतः ये दोनों गाथाएँ परसर मगत है / और इन्हें ग्रन्थमे अलग कर देने पर अगली 'इय रसायं प्रवहारिय पाइरियपरम्पगगय मगामा' (इस प्रकार प्राचार्य परम्परामे चले प्राये हुए न्यायको हृदयमे धारण करके ) नाम की गाथा 6 असंगत तथा खटकनवाली हो जाती है / इमलिये ये तीनों ही माथाए तिलायाम्पत्तीकी अंगभूत है। धवला (संतपस्वरगा) में उक्त दोमें इलोकोको देते हए उन्हें उक्त च' नहीं लिखा और न किमी म्वास ग्रंथके वाक्य ही प्रयट किया है। वे इसप्रश्न इस गापाका नम्बर 84 है। शास्त्रीजीने जो इसका न० 88 भूचित किया है वह किसी . गलतीका परिणाम जान पड़ता है। Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपएणत्ती और यतिवृषभ के उत्तर में दिए गए हैं कि "एत्य किमट्ठ रणयपरूवरणमिदि" ?-यहाँ नय का प्ररूपण किस लिये किया गया है ?-पोर इस लिए वे धवलाकारके द्वारा निर्मित अथवा उद्धृत भी हो सकते है / उद्धृत होनेकी हालतमें यह प्रश्न पैदा होता है कि वे एक स्थानसे उद्धृत किये गए है या दो स्थानोंसे ? यदि एक स्थानसे उद्धृत किए गए हैं तो वे लघीयस्त्रयसे उद्धृत नहीं किये गए, यह सुनिश्चित है; क्योंकि लधीयस्त्रयमें पहला श्लोक नहीं है। और यदि दो स्थानोंमे उद्धृत किये गये है तो यह बात कुछ बनती हुई मालूम नहीं होती; क्योंकि दूसरा श्लोक अपने पूर्व में ऐसे इलोककी अपेक्षा रखता है जिसमें उद्देशादि किमी भी रूपमें प्रमाग, नय प्रौर निक्षेपका उल्लेख हो-लघीयस्त्रयमें भी 'ज्ञानं प्रमागामास्मादे:' श्लोकके पूर्वमें एक ऐसा इलोक पाया जाता है जिसमें प्रमाग, नय और निक्षेपका उल्लेम्व है और उनके आगमानुसार कथनकी प्रतिज्ञा की गई है, (प्रमाग-नय-निक्षेपानभिधाम्ये यथागन')-और उसके लिये पहला श्लोक संगत जान पड़ता है / अन्यथा, उसके विषयमे यह बतलाना होगा कि वह दूसरे कोनमे अन्यका म्वतन्त्र वाक्य है। दोनों गाथामोंभोर श्लोकोंकी तुलना करनेम तो मा मालूम होता है कि दोनों श्लोक उक्त गाथानों परमे अनुवाद मे निर्मित हरा है / दूसरी गाथामे प्रमाण, नय पोर निक्षेपका उसी क्रममे लक्षण-निर्देश किया गया है, जिम क्रममे उनका उल्लेख प्रथम गाथामें हुपा है। परन्तु अनुवादके छन्द (श्लोक) में शायद वह बात नहीं बन सकी इसी मे उममें प्रमागाके बाद निक्षेपका और फिर नयका लक्षण दिया गया है। इसमें रिलीयपनीको उक्त गाथामों की मौलिकताका पता चलता है पौरांगा जान पड़ता है कि उन्हीं परमे उक्त श्लोक अनुवादरूपमें निमित हुए है ---भले ही यह अनुवाद स्वयं घबलाकारके द्वारा निर्मित हुपा हो या उनमे पहले किमी दूमके द्वारा। यदि धवलाकारको प्रथम श्लोक कहींसे स्वतन्त्ररूपमें उपलब्ध होता तो वे प्रदनके उत्तरमें उमीको उधत करदेना काफी समझते-दूसरे लघीयस्त्रय-जम गंधमे दूसरे दलोकको उदधृत करके साथमें जोड़ने की जरूरत नही थी क्योंकि प्रश्नका उत्तर उम एक ही श्लोकसे हो जाता है / दूमरे हलोकका साथमें होना इस बातको सूचित करता है कि एक साथ पाई जानेवाली दोनों गाथामोके अनुवादरूपमें ये श्लोक प्रस्तुत किये गये Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 628 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश है-चाहे वे किसीके भी द्वारा प्रस्तुत किए गए हों। यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि धवलाकारने तिलोयपष्णसीकी उक्त दोनों गापामोंको ही उद्धृत क्यों न कर दिया, उन्हें श्लोकमें अनुवादित करके या उनके अनुवादको रखनेकी क्या जरूरत थी? इसके उसमें मैं सिर्फ इतना ही कह देना चाहता हूँ कि यह सब धवलाकार वीरसेनकी रुचिकी बात है, वे पनेक प्राकृत-वाक्योंको संस्कृतमें पोर संस्कृत-वाक्योंको प्राकृतमें अनुवादित करके रखते हुए भी देखे जाते है। इसी तरह अन्य ग्रंथोंके गयको पदमें मोर पसको गद्यमें परिवर्तित करके अपनी टीकाका अंग बनाते हुए भी पाये जाते है। चुनिचे तिलोयपण्णतीकी भी अनेक गाथानोंको उन्होंने संस्कृत में अनुवादित करके रक्खा है, जैसे कि मंगलकी निरुक्तिपरक माथाएं, जिन्हें शास्त्रीजीने अपने द्वितीय प्रमाणमें, समानताकी तुलना करते हुए उदत किया है। और इसलिये यदि ये उनके द्वारा ही अनुवादित होकर सखे गये है तो इसमें मापत्तिको कोई बात नहीं है / इमे उनकी अपनी शैली और पसन्द मादिको बात समझना चाहिए। अब देखना यह है कि शास्त्रीजीने 'शानं प्रमाणमायादे इत्यादि श्लोकको जो प्रकलंकदेवकी मौलिक कृति' बतलाया है उसके लिये उनके पास गया पाधार है ? कोई भी प्राधार उन्होंने व्यक्त नहीं किया: तब क्या भकलंकके ग्रन्थमें पाया जाना ही प्रकलंकको मौलिक कृति होने का प्रमाण है ? यदि ऐमा है तो राजवातिको पूज्यपादकी समिति के जिन वाक्योंको वानिकादिक म्पमें बिना किमो सूचनाके अपनाया गया है अथवा न्यायविनिश्चियमें समन्तभद्रक 'मूक्ष्मान्तरितदूरा:' जैसे वाक्योंको अपनाया गया है उन मबको भी प्रकल कदेवकी मौलिक हति' कहना होगा। यदि नहीं, तो फिर उक्त इलोकोंको अकलंकदेवकी मोनिक कृति बतलाना निहंतुक व्हरेगा। प्रत्युत इसके, प्रकलकदेव कि यतिवृषभके बाद हुए है अत: यतिवृषभको निलोयपण्णतोका अनुसरण उनके लिये न्यायपात है और उसका समावेश उनके द्वारा पूर्वपमें प्रयुक्त हुए 'क्यागमं पदसे हो जाता है क्योंकि तिलोयपणसी भी एक पागम ग्रंथ है जैसा कि पापा न.८५, 86, ८७में प्रयुक्त हए उसके विशेषणोंसे जाना पाता है, पबलाकारने भी बह जगह उसे 'मूक' लिखा है पौर प्रमाणम्पमें Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ hurururviveNauhuri तिलोयपरणती और यतिवृषभ 326 उपस्थित किया है / एक जगह वे किसी व्याख्यानको व्याख्यानाभास बतलाते हुए तिलोयपण्यत्तिसूत्रके कथनको मी प्रमाणमें पेश करते है और फिर लिखते है कि सूत्रके विरुद्ध व्याख्यान नहीं होता है जो सूत्रविरुद्ध हो उसे व्याख्यानाभास समझना चाहिये-नहीं तो प्रतिप्रसग दोष पाएगा। __ इस तरह यह तीसरा प्रमाण प्रसिद्ध ठहरता है। तिलोपण्णत्तिकारने चकि धवलाके किसी भी पद्यको नहीं अपनाया प्रत: पद्योंको अपनानेके प्राधारपर तिलोयपण्यत्तीको धवलाके बादकी रचना बतलाना युक्तियुक्त नहीं है। (4) चौथे प्रमाणरूपमें शास्त्रीजीका इतना ही कहना है कि 'दुगरगदुगुणी दुवग्गो रिणरंतरो तिरियलोगो' नामका जो वाक्य धवलाकारने द्रव्यप्रमाणानुयोगद्वार ( पृष्ठ 36) में तिनोयपणातीके नामसे उद्धृत किया है वह वर्तमान तिलोक्पण्यातीमें पर्याप्त खोज करने पर भी नहीं मिला. इसलिये यह तिलोयपासी उप तिलोयपण्रपत्तीमे भिन्न है जो धवलाकारके सामने थी ! परन्तु यह मालूम नहीं होसका कि शास्त्रीजीको पर्याप्त खोजका क्या रूप रहा है / क्या उन्होंने भारतवर्ष के विभिन्न स्थानोंपर पाई जानेवाली तिलोयपण्णत्तीकी समस्त प्रतियां पूर्णरूपसे देख गली है ? यदि नहीं देखी है और जहां तक मैं जानता हूं समस्त प्रतियां नहीं देखी है,तब वे अपनी खोजको 'पर्याप्त खोज कसे कहते है? वह तो बहुत कुछ अपर्याप्त है। क्या दो प्रतियोंमें उक्त वाक्यके न मिलनेसे ही यह नतीजा निकाला जा सकता है कि वह वाक्य किसी प्रतिमें नहीं है? नहीं निकाला जा सकता / इसका एक ताजा उदाहरण गोम्मटसार-कर्मकाण्ड (प्रथम अधिकार) के वे प्राकृत गद्यमूत्र है जो गोम्मटसारको पचासों प्रतियोंमें नही पाये जाते; परन्तु मूडबिद्रीकी एक प्राचीन ताडपत्रीय कन्नड प्रतिमें उपलब्ध हो रहे हैं और जिनका उस्लेख मैंने अपने गोम्मटमार-विषयक निबन्धमें 1 किया है / इ.के सिवाय, तिलोयपाति-जैसे बड़े ग्रन्थमें लेखकोंके प्रमादसे दो चार गाथापोंका छूट जाना कोई बड़ी बात नहीं है / पुरातन-बनवाक्य-सूचीके अवसरपर मेरे " वक्खागाभासमिदि दो यदे ? जोइसिय-भागहारमुनादो चदाइच्च दिपमारणपरुषय-तिलोतपण्णतिसुतादो च / ण च मुत्तविरुद्धं वखाणंहोइ, माइपसंगादो।" -धवला 1,2.4, पृष्ठ 36 // 1 यह निबन्ध दूसरे भागमें छपेगा। Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 630 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश सामने तिलोयपण्मतीकी चार प्रतियां रहीं है-एक बनारसके स्याद्वादमहाविद्यालयकी,दूसरी देहलीके नया मन्दिरकी,तीसरी मागराके मोतीकटरा-मन्दिर की और चौथी सहारनपुरके ला. प्रद्युम्नकुमारजीके मन्दिरकी। इन प्रतियोंमें, जिनमें बनारसकी प्रति बहुत ही अशुद्ध एवं त्रुटिपूर्ण जान पड़ी, कितनी ही गाथाए ऐसी देखनेको मिलीं जो एक प्रतिमें है तो दूसरीमें नहीं है, इसोसे जो गाथा किसी एक प्रतिमें ही बढी हुई मिली उसका सूचीमें उस प्रतिके साथ सूचन किया गया है / ऐसी भी गाथाएं देखने में प्राई जिनमें किसीका पूवाध एक प्रतिमें है तो उत्तरार्ध नहीं. और उत्तरार्ध है तो पूर्वाध नहीं / मोर ऐसा तो बहुधा देखनेमें पाया कि कितनी ही गाथानोंको बिना नम्बर डाले रनिंगरूप में लिख दिया है, जिससे वे सामान्यावलोकनके प्रवमरपर ग्रंथका गग्रभाग जान पड़ती है। किसी किसी स्थलपर गाथापोंके छूटनेकी साफ सूचना भी की गई है; जैसे कि चीये महाधिकारको रणवरण उदिमहस्सागि' इम गाथा नं०२२१३के मनन्तर प्रागरा और सहारनपुरकी प्रतियों में दम गाथाओंके छूटनेको मूचना की गई है और वह कथन-क्रमको देखते हुए ठीक जान पड़ती है-दूमरी प्रतियोंपरमे उनको पूर्ति नहीं हो मकी / क्या प्राश्चर्य है जो ऐमी छूटी अथवा त्रुटित हुई गाथानों मेंका ही उक्त वाक्य हो / ग्रन्थ-प्रतियों को ऐसी स्थिनिमें दो चार प्रतियों को देख. कर ही अपनी खोजको पर्याप्त खोज बननाना और उसके प्राधारपर उक्त नतीजा निकाल बैठना किसी तरह भी न्यायमंगत नही कहा जा सकता। और इमलिये शास्त्रीजीका यह चतुर्थ प्रमारग भी उनके इष्टको सिद्ध करने के लिये समर्थ नहीं है / (5) अब रहा शास्त्रीजीका अन्तिम प्रमागा, जो प्रथम प्रमाण की तरह उनकी गलत धारणाका मुख्य आधार बना हुपा है / इसमे जिस गधाशकी भोर संकेत किया गया है और जिसे कुछ पगुद्ध भी बतलाया गया है वह क्या स्वयं तिलोतपणातिकारके द्वारा धवनापरमे 'मम्हेहि पदके स्थानपर एसा परवरणा'पाठका परिवर्तन करके उद्धन किया गया है प्रथवाकिसी सरहपर सिलोय. पणती प्रक्षित हमा है ? इसपर शास्त्रीश्रीने गम्भीरता के साथ विचार करना शायद मावश्यक नहीं समझा और इसीसे कोई विचार प्रस्तुत नहीं किया; जब कि इस विषयपर सास तौरपर विचार करनेकी उहरत थी पोर तभी कोई Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपएणती और यतिवृषभ निर्णय देमा था-वे वैसे ही उस गद्यांशको तिलोयपण्णत्तीका मूल अंग मान बैठे हैं, और इसीसे गाशमें उल्लिखित तिलोयपण्णत्तीको वर्तमान तिलोयपणतीसे भिन्न दूसरी तिलोयपण्णत्तो कहनेके लिये प्रस्तुत हो गये है। इतना ही नहीं, बल्कि तिलोयपणतीमें जो यत्र तत्र दूसरे गद्यांश पाये जाते हैं उनका अधिकांश भाग भी धवलापरसे उद्धत है, ऐमा मुझाने का संकेत भी कर रहे हैं। परन्तु वस्तुस्थिति ऐमी नहीं है। जान पड़ता है ऐमा कहते और सुझाते हुए शास्त्रीजीको यह प्यान नहीं पाया कि जिन प्राचार्य जिनसेनको वे वर्तमान तिलोयपात्तीका कर्ता बतलाते हैं वे क्या उनको दृष्टिमें इतने असावधान अथवा अयोग्य थे कि जो 'प्रम्हहि पदके स्थानपर 'एमा परूवरणा' पाठका परिवर्तन करके रखते और ऐमा करने में उन साधारण मोटी भलों एवं बुटियोंको भी न ममझ पाते जिन्हें शास्त्रीजी बनला रहे हैं ? और ऐमा करके जिनसेनको अपने गुरु वीरसेनको कृषिका लोप करने की भी क्या जरूरत थी ? वे तो बराबर अपने गुरुका कीर्तन मोर उनकी कृतिके माय उनका नामोल्लेम्वकरने हुए देखे जाते है। चुनांचे बीरसेन जब जयघवलाको प्रधूरा छोड गये और उसके उत्तराधको जिनमेनने पूरा किया तो दे प्रशस्निमें स्पष्ट गब्दों द्वारा यह मूचित करते हैं कि 'गुमने पूर्वाधमे जो भूरि वक्तव्य प्रकट किया था-पागे कयनके योग्य बहुत विषयका ममूचन किया था. उमे (तथा तत्सम्बन्धी नोटम प्रादिको) देखकर यह प्रवक्तव्यरूप उत्तरार्थ पूरा किया गया है: गुरुगणाऽर्थेऽग्रिमे भूरिवनव्य मंप्रकाशिने / तन्निरीक्ष्याऽल्पवक्तव्यः पश्चाधम्तेन पूरितः / / 36 // परन्तु वर्तमान निलोयपानी में नो वीरमेनका कहीं नामोल्लेख भी नहीं है-~-ग्रन्यके मंगलाचरण तकमे भी उनका मरण नहीं किया गया। यदि वीरमेनके मंकेन प्रथवा प्रादेशादिके अनुसार जिनमनके द्वाग वर्तमान तिलोयपरतीका सकलनादि कार्य हुपा होता तो वे अन्यक मादि या अन्नमें किसी न किसी रूपसे उसकी सूचना जरूर करते तथा अपने गुरुका नाम भी उसमें जरूर प्रकट करते / भोर यदि कोई दूसरी तिलोयपात्ती उनकी तिलोयपणत्तीका भाषार होती तो वे अपनी पति और परिगतिके अनुसार उसका और उसके रचयिताका स्मरण भी प्रत्यको मादिमें उसी तरह करते जिस तरह कि महा Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 632 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकास पुराणकी प्रादिमें 'कविपरमेश्वर' और उनके 'वागर्थसंग्रह' पुराणका किया है, जो कि उनके महापुराणका मूलाधार रहा है / परन्तु वर्तमान तिलोयपण्णत्तीमें ऐसा कुछ भी नहीं है, और इसलिये उसे उक्त जिनसेनकी कृति बतलाना और उन्हींके द्वारा उक्त गद्यांशका उद्धृत किया जाना प्रतिपादित करना किसी तरह भी युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। दूसरे भी किसी विद्वान् भाचार्यके साथ, जिन्हें वर्तमान तिलोयपण्णतीका कर्ता बतलाया जाय, उक्त भूलभरे गवांशके उद्धरणकी बात संगत नहीं बैठती; क्योंकि तिलोयपण्णत्तीकी मौलिक रचना इतनी प्रौढ मोर सुव्यवस्थित है कि उसमें मूलकार-द्वारा ऐसे सदोष उद्धरणको कल्पना नहीं की जा सकती। और इसलिये उक्त गद्यांश बादको किसीके द्वारा धवला मादि परमे प्रक्षित किया हुमा जान पड़ता है। पौर भी कुछ गवांश ऐसे हो सकते है जो धवलापरसे प्रक्षित किये गये हों; परन्तु जिन गद्यांशोंकी तरफ शास्त्रीजीने फुटनोटमें संकेत किया है वे तिलोयपणतीमें धवलापरमे उद्धृत किये गये मालूम नहीं होते; बल्कि धवलामें तिलोयपष्णत्तीपरमे उद्धृत हुए जान पड़ते है। क्योंकि तिलोयपष्णत्तीमे गद्यांशोंके पहले जो एक प्रतिशात्मक गाथा पाई जाती है वह इस प्रकार है वादवरुद्धक्खेत्ते विदफलं तह य अटुपुढवाए। सुद्धायासविदीर्ण लवमेत्तं वत्तहस्सामी / / 282 // इसमें वातवलयोंसे अवरुद्ध क्षेत्रों, पाठ पृथिवियों और शुद्ध पाकाशभूमियोंका घनफल बतलानेकी प्रतिज्ञा की गई है और उस घनफलका 'लवमेत ( लवमात्र ) विशेषगके द्वारा बहुत मंक्षेपमें ही कहने की सूचना की गई है। तदनुसार तीनों घनफलोंका क्रमशः गरमें कथन किया गया है और यह कथन तिलोयपम्पत्तिकारको जहाँ विस्तारसे कपन करनेकी इच्छा अथवा भावश्यकता हुई है वहां उन्होंने बंसी सूचना कर दी है। साकि प्रथम अधिकारमें लोकके भाकारादिका संक्षेपसे वर्णन करनेके अनन्तर 'विस्पराबोहत्वं बोन्छ वाणाबियप्पे बि (74)' इस वाक्यके द्वारा विस्तारमषिवाले प्रतिपादोंको लक्ष्य करके उन्होंने विस्तारसे कथनकी प्रतिज्ञा की है। Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपरणती और यतिवृषभ 66 मुद्रित प्रतिमें पृष्ठ 43 से 50 तक पाया जाता है / धवला (पृ०५१ से 55) में इम कथनका पहला भाग संपहि ( सपदि ) से लेकर 'जगपदरं होदि' तक प्रायः ज्योंका त्यों उपलब्ध है परन्तु शंष भाग, जो पाठ पृथिवियों मादिके घनफलमे सम्बन्ध रखता है, उपलब्ध नहीं है / और इससे वह तिलोयपण्णतीपरसे उद्धत जान पड़ता है-खासकर उस हालतमें जब कि धवलाकारके सामने तिलोयपण्णत्ती मौजूद थी और उन्होंने अनेक विवादग्रस्त स्थलोंपर उसके वाक्योंको बड़े गौरवके साथ प्रमाणमें उपस्थित किया है तथा उमके कितने ही दूसरे वाक्योंको भी विना नामोल्लेखके उद्धृत किया है और अनुवादित करके भी रक्खा है। ऐसी स्थितिमें तिलोयपम्पत्तोमें पाये जानेवाले गद्यांशोंके विषयमें यह कल्पना करना कि 'वे धवलापरसे उद्धृत किये गये हैं' समुचित नही है भोर न शास्त्रीजीके द्वारा प्रस्तुत किये गये गद्यांशसे इस विषयमें कोई सहायता मिलती है; क्योंकि उस गद्यांशका तिलोयपण्यतिकारके द्वारा उद्धत किया जाना सिद्ध नहीं है-वह वादको किसीके द्वारा प्रक्षिप्त हुमा जान पड़ता है। प्रब में यह बतलाना चाहता है कि यह इतना ही गद्यांश प्रक्षित नहीं है बल्कि इसके पूर्वका "पत्तो चंदाण सपरिवाराणमायणविहारणं वत्तइस्सामो" से लेकर 'एदम्हादो चेव मुत्तादो'तकका अंश.और उत्तरवर्ती'तदो रण एन्थ इटमित्थमेवेति' मे लेकर 'तं चंदं 1655361 / " तकका अंश, जो 'चंदस्स सदसहस्सं' नामकी गाथाके पूर्ववर्ती है, वह मब प्रक्षित है / और इसका प्रबलप्रमाण मूलग्रन्यपरसे ही उपलब्ध होता है / मूलग्रन्थमें मातवें महाधिकारका प्रारम्भ करते हुए पहली गाथामें मंगलाचरण और ज्योतिर्लोकप्रज्ञप्तिके कथनकी प्रतिज्ञा करनेके अनन्तर उत्तरवर्ती तीन गायामोंमें ज्योतिषियोंके निवासक्षेत्र प्रादि 17 महाधिकारोंके नाम दिये है जो इस 'ज्योतिलोकप्राप्ति' नामक महाधिकारके अंग है / वे तीनों गाथाएं इस प्रकार हैं: जोइसिय-णिवासखिदी भेदो संस्खा सहेव विष्णासो। परिमाणं चरचारो अचरसरूवाणि आऊ य // 2 // पाहारो उस्सासो उच्छहो मोहिणाणसत्तोत्री। जीवाणं उपची मरणाई एक्कसमयम्मि // 3 // Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 634 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश पाउगबंधणभावं दसणगहणस्स कारणं विविहं / गुणठाणादि-पवएणणमहियारा सत्तरसिमाए॥४॥ इन गाथाभोंके बाद निवासक्षेत्र, भेद, संख्या, विन्यास, परिमाण. चरचार, प्रचरस्वरूप और मायु नामके माठ अधिकारोंका क्रमशः वर्णन दिया है-शेष अधिकारोंके विषय में लिख दिया है कि उनका वर्णन भावनलोकके वर्णनके समान कहना चाहिये ( 'भावरणलोए य्व वत्तव्वं' )-और जिस अधिकारका वर्णन जहाँ समाप्त हुआ है वहाँ उसकी सूचना कर दी है। सूचनाके वे वाक्य इस प्रकार है:___"णिवासखे सम्मत्तं / मेदो सम्मत्तो। संस्खा सम्मत्ता। विरणासं सम्मत्तं / परिमाणं सम्मत्तं / एवं चरगहाणं चारो सम्मत्ता एवं अचरजोइसगणपरूवणा सम्मत्ता। ऊ सम्मत्ता।" प्रवर ज्योतिषगरणको प्ररूपणाविषयक ७वे अधिकारको समाप्तिके बाद ही 'एत्तो चंदाग' से लेकर 'तं चेदं 165.5361' तकका बह सब गद्यांश है, जिमको ऊपर सूचना की गई है। 'मायु' अधिकार के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है / प्रायुका अधिकार उक्त गद्यांगके अनन्तर 'चंदस्स मदमहस्म' इम गाथा प्रारम्भ होता है और अगली गाथापर समाप्त हो जाता है। ऐसी हालतमें उक्त गद्यांश मूल ग्रन्थके साथ सम्बद्ध न होकर साफ तौरमे प्रक्षिप्त जान पड़ना है। उसका मादिका भाग 'एत्तो चंदाग' से लेकर 'तदो ग एल्य सम्पदायविरोधी कायन्चो नि' तक तो धवला-प्रपम खडके स्पर्शनानुयोगहारमें, थोड़ेसे शब्दभेदक साथ प्राय: ज्योंका त्यों पाया जाता है और इसलिये यह उमपरमे उद्धृत हो सकता है परन्तु अन्नका भाग--.देरण विहारोग परुविनगर विलिय भव पडि चत्तारि स्वागिण दादुरण प्रमगोपगमत्थे' के अनन्तरका-धवलाके अगले गद्यांशके साथ कोई मेल नहीं खाना, और इसलिये वह वहाँले उद्धृत न होकर अन्यत्रमे लिया गया है। और यह भी हो सकता है कि यह सारा ही गद्याग घवलासे न लिया जाकर किसी दूसरे ही ग्रन्थपरमे, जो इस समय अपने मामने नहीं है और जिसमें प्रादि अन्तके दोनों भागोंका समावेश होलिया गया हो और तिलोयपन्णत्तीमें किसी के द्वारा अपने उपयोगादिकके लिये हाशियेपर नोट किया गया हो और जो बादको अन्य कापीके समय किसी तरह प्रक्षित हो गया हो / Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलोयपएणती और यतिवृषभ इस गांशमें ज्योतिष-देवोंके जिस भागहार सूत्रका उल्लेख है वह वर्तमान तिलोयपष्णत्तीके इस महाधिकारमें पाया जाता है। उसपरसे फलितार्थ होनेवाले व्याख्यानादिकी चर्चाको किसीने यहाँपर अपनाया है, ऐसा जान पड़ता है। इसके सिवय, एक बात यहाँ और भी प्रकट कर देनेकी है और वह यह कि जिस वर्तमान तिलोयपणतीको शास्त्रीजी मूलानुमार पाठहजार श्लोकपरिमारण बतलाते है वह उपलब्ध प्रतियोंपरसे उतने ही श्लोकपरिमारण मालूम नहीं होती, बल्कि उमका परिमारग एक हजार श्लोक-जितना बढ़ा हुमा है और उससे यह साफ जाना जाता है, कि मूलमें उतना अंश बादको प्रक्षिप्त हुमा है। और इस लिए उक्त गद्यांशको, जो अपनी स्थितिपरसे प्रक्षिप्त होनेका गण मन्देह उत्पन्न कर रहा है और जो ऊपरके विवेचनपरसे मूलकारकी कृति मालूम नहीं होता, प्रक्षिप्त कहना कुछ भी अनुचित नहीं है। ऐसे ही प्रक्षिप्त अंशोंमे, जिनम कितने ही 'पाठान्तर' वाले अंश भी शामिल जान पड़ते हैं, ग्रन्थ के परिमाण में वृद्धि हो रही है। और यह निविवाद है कि कुछ प्रक्षिप्त अंशोंके कारण किमी ग्रंथको दूसरा ग्रंय नहीं कहा जा सकता। प्रतः शास्त्रीजीने उक्त गद्यांशमें तिलोयपानीका नामोल्लेख देख कर जो यह कल्पना करली है कि वर्तमान तिलोपणती उम तिलोयपारीसे भिन्न है जो धवलाकारके मामने थी' वह ठीक नही है / इस तरह गास्त्रीजीके पांचों प्रमाणोंमे कोई भी प्रमाग यह सिद्ध करने के लिए ममर्थन नहीं है कि वर्तमान तिलोयपणणतो प्राचार्य वोरमेनके बादकी बनी हुई है अथवा उम तिलोयपण्यानोम भिन्न है जिसका वीरसेन अपनी धवला टीकामें उल्लेख कर रहे है / और तब यह कपना करना तो अनिसाहसकी बात है कि 'बीरसेनके शिष्य जिनमेन इसके रचयिता हैं. जिनकी स्वतन्त्र रचना-पद्धतिके माथ इसका कोई मेल भी नहीं खाता / प्रत्युत इसके, ऊपरके संपूर्ण विवेचन एवं ऊहापोहपरमे स्पष्ट है कि 'यह गिलोयपण्णत्ती यतिवृषभाचार्यकी कृति है, धवला मे कई शताब्दी पूर्वको रचना है और वही चीज है जिसका वीरसेनस्वामी प्रपनी धवलामें उद्धरण, अनुवाद तथा प्राशयग्रहणादिके रूपमें स्वतंत्रतापूर्वक उपयोग करते रहे है। शास्त्रीजीने प्रथको मन्तिम मंगल गाया 'बटूरण' पदको ठोक मानकर उसके मागे जो 'भरिसवसह' पाठ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 636 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश की कल्पना की है और उसके द्वारा यह सुझानेका यत्न किया है कि इस तिलोयपण्णत्तीसे पहले यतिवषमका तिलोयपण्णत्ती नामका कोई पार्षग्रन्थ था जिसे देखकर यह तिलोयपष्पत्ती रची गई है और उसकी सूचना इस गाथामें 'दटू ण परिसवसह' वाक्यके द्वारा की गई है, वह भी युक्तियुक्त नहीं है; क्योंकि इस पाठ और उसके प्रकृत प्रर्थकी सगति गाथाके साथ नहीं बैठती, जिसका स्पष्टीकरण इस निबन्धके प्रारम्भमें किया जा चुका है। और इसलिये शास्त्रीजीका यह लिखना कि "इस तिलोयपण्णत्तोका संकलन सक संवत् 738 (वि० सं०८७३ ) से पहलेका किसी भी हालत में नहीं है" तपा "इसके कर्ता यतिवृषभ किसी भी हालत में नहीं हो सकते" उनके प्रतिसाहसका घोतक है / वह पूर्णत: बाधित है और उसे किसी तरह भी युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता। Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्द एकताके भ्रमका प्रचार बहत वर्ष हए जब महद र पं०नायूरामजी प्रेमीने 'स्याद्वाद-विद्यापति विद्यानन्दि' नामका एक लेख लिखा था और उसे हवें वर्षके जनहितेषी अंक न. में प्रकाशित किया था। यह लेख प्राय: तात्या नेमिनाथ पांगलके मराठी लेखके प्राधार पर, उसे कुछ संशोधित परिवर्तित और परिवर्तित कर के, लिखा गया बा। और उममें यह सिद्ध किया गया था कि 'पात्रकेसरी' और 'विद्यानन्द' दोनों एक ही व्यक्ति है। जिन प्रमारणोंसे यह सिद्ध किया गया था उनकी सत्यता पर विश्वास करते हुए, उस वक्त के प्राय: सभी विद्वान यह मानते आ रहे है कि ये दोनों एक ही व्यक्तिके नामान्तर है--भिन्न नाम है। चुनाच उस वक्तसे भासपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, प्रष्टसहस्री, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, युक्त्यनुगासनटीका, पात्रकेमरिस्तोत्र, श्रीपुरपाश्वनाथस्तोत्र प्रादि जो भी अन्य विद्यानन्द या पात्रकेसरीके नामसे प्रकाशित हुए हैं और जिनके माथमें विद्वानों-द्वारा उनके कर्ताका परिचर दिया गया है उन सबमें पात्रकेसरी और विद्यानन्दको एक घोषित किया गया है-बहुतोंमें प्रेमीजीके लेखका सारांश अथवा संस्कृत अनुवाद तक दिया गया है। डा० शतीशचन्द्र विद्याभूषण -जैसे प्रजन विद्वानोंने भी, बिना किसी विशेष ऊहापोहके, अपने ग्रन्थोंमें दोनोंकी एकताको स्वीकार किया है। इस तरह पर यह विषय विद्वत्समाजमें रूढ-सा हो गया है भोर एक निश्चित विषय समझा जाता है। परन्तु खोज करनेपर मालूम हुमा कि, ऐसा समझना नितान्त भ्रम है। और इसलिये पाज इस भ्रमको स्पष्ट करनेके लिये ही यह लेख सिता बाता है। Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश प्रमाण-पंचक सबसे पहले मैं अपने पाठकोंको उन प्रमाणों-अथवा, हेतुओं-का परिचय करा देना चाहता हूँ जो प्रेमीजीने अपने उक्त लेख में दिये है और वे इस प्रकार हैं: "विद्यानन्दका नाम पात्रकेसरी भी है। बहुतसे लोगोंका खयाल है कि पात्रकेसरी नामके कोई दूसरे विद्वान् हो गये है; परन्तु नीचे लिखे प्रमाणोंसे विद्यानन्दि और पात्रकेसरी एक ही मालूम होते है 1. ' सम्यक्तप्रकाश' नामक अन्यमें एक जगह लिखा है कि "तथा इलोकवार्तिके विद्यानन्द्यपरनाम पात्रकेसरिस्वामिना यदुक्तं तव लिख्यते -'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं / न तु सम्यग्दर्शनशब्दनिर्वचनसामदेिव सम्यग्दर्शनस्वरूपनिणंयादशेषतहिप्रतिपत्तिनिवृत्तेः सिद्धत्वातदर्थे तल्लक्षरणवचनं न युक्तिमदेवेति कस्यचिदारेका तामपाकरोनि' / " इसमें श्लोकवातिकके कर्ता विद्यानन्दिको ही पात्रकेमरी बतलाया है। 2. श्रवणबेलगोलके पं० ब्रह्ममूरि गाम्बीके ग्रंथसंग्रहमें जो प्रादिपुराणकी ताडपत्रोंपर लिखित प्रति है उसको टिप्पणीमे पांत्रकेसरीका नामान्तर विद्यानन्दि लिखा है। 3. ब्रह्ममिदनकृत कथाकोपमें जो पात्रकेमरीकी कथा लिखी है उसके विषयमें परम्परागत यही वयाल चला पाता है कि वह विद्यानन्दिकी हो कथा है / 4. वादिचन्दमूरिने अपने ज्ञानसूर्योदय नाटकके चौथे अंकम 'प्रशती' नामक स्त्रीपात्र में 'पुरुद' के प्रति कहलवाया है कि "देव, ततोऽहमुतालिनहृदया श्रीमापात्रकेशग्मुिम्बकमनं गता तेन साक्षात्कतसकलस्यादाभिप्राय लालिता पालिताष्टसहस्रीनया पुष्टि नीता। देव, स यदि नापालयिष्यत् तदा कयं त्वामद्राक्षम् ?" अर्थात्-(जब मैंने एकान्तवादियोप स्याद्वादका स्वरूप कहा, तब वे क्रुद्ध होकर कहने लगे-'इसे पकड़ो ! मारो! जाने न पाये !') "तब हे देव, मैंने भवभीत होकर श्रीमत्तात्रकेसरीके मुखकमलमें प्रवेश किया। वे सम्पूर्णस्यावादके Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्द अभिप्रायोंको अच्छी तरहसे जाननेवाले थे, इसलिये उन्होंने मेरा अच्छी तरह लालन-पालन किया और मष्टसहस्रीके द्वारा मुझे पुष्टि प्रदान की / हे देव,वे(पात्र. केसरी) यदि मुझे न पालते तो आज मैं तुम्हें कैसे देखती ?" इसका अभिप्राय यह है कि प्रकलदेवका बनाया हुमा जो 'अष्टशती' नामक ग्रन्थ है, उसे पढ़कर जनेतर विद्वान् ऋद्ध होगये और वे उसपर प्राक्रमण करनेको तय्यार हुए / यह देखकर पात्रकेसरी स्वामीने 'प्रष्टसहस्री' नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ रचकर उसके अभिप्रायोंकी पुष्टि की। इससे मालूम होता है कि अष्टसहस्रीके बनानेवाले विद्यानन्दि ही पात्रकेसरी हैं। 5. प्रागे जो हूमचका शिलालेख उद्धृत किया गया है, उसके अन्तिम वाक्यसे भी स्पष्ट होता है कि विद्यानन्दि और पात्रकेसरी एक ही थे। ____इन पांच प्रमाग्गोंसे मेरी समझ में यह बात निस्सन्देह हो जाती है कि पात्रकेसरी पोर विद्यानन्दि दोनो एक ही है।" प्रमाणोंकी जाँच इनमेसे तीसरे नम्बरका प्रमाण तो वास्तवमें कोई प्रमाण नही है; क्योंकि इममे कथाकोशान्तर्गत पात्रकेसरीकी जिस कथाका उल्लेख किया गया है उसमें विद्यानन्दकी कहीं गन्ध तक भी नहीं पाई जाती-और तो क्या, विद्यानन्दके नामसे प्रसिद्ध होनेवाले ढेरके ढेर ग्रन्धोमेसे किसी अन्थका नाम भी पात्रकेसरीको कृति रूपसे उसमें उल्लेखित नहीं मिलता; बल्कि पात्रकेसरीकी कृतिरूपसे 'जिनेन्द्रगुगामस्तुति' नाम के एक ग्रन्थका उल्लेख पाया जाता है / मोर यह ग्रन्थ ही 'पात्रकेसरिस्तोत्र' (पात्रकेसरीका रचा हुप्रा स्तोत्र ) कहलाता हैविद्यानन्दस्तोत्र नहीं। इस स्तोत्रका प्रारम्भ जिनेन्द्रगुणसंस्तुति:' पदस होता है-जिनेन्द्र के गुणोंको ही इसमें स्तुति भी है और इसलिये भक्तामर तथा * यया:-कृतोऽयमविध्वसो जिनेन्द्रगुणसस्तुतिः / . सस्तवः परमानन्दात्समस्तमुखदायकः // जिनेन्द्र पुरणसंस्तुतिस्तव मनागपि प्रस्तुता। भवखिलकर्मणा प्रतये परं कारगम् // Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 640 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश स्वयंभूस्तोत्रादिकी तरह यही इसका वास्तविक तथा सार्थक नाम जान पड़ता दूसरे प्रमाणमें जिस टिप्पणीका उल्लेख है वह प्रादिपुराणके निम्न वाक्य में प्रयुक्त हुए 'पात्रकेसरिणां' पद पर जान पड़ती है, क्योंकि अन्यत्र प्रादिपुराणमें पात्रतेसरीका कोई उल्लेख नहीं मिलता: भट्टाफलंक-श्रीपाल-पात्रकेसरिणां गुणाः / विदुषां हृदयारूढा हारायन्तेऽतिनिर्मलाः / / + यह ग्रन्थ मणिकचन्दग्रन्थमालामें एक साधारण टीकाके साथ प्रकाशित हुआ है, जिसके कर्ता प्रादिका कुछ पता नहीं। टीकाके शुरूमें मंगलाचरण के तौरपर एक श्लोक रक्खा हुमा है जिसमें 'वृहत्पंचनमस्कारपदं वित्रियतेधुना' यह एक प्रतिज्ञावाक्य है और इससे ऐसा ध्वनित होता है मानों मूल अन्यका नाम 'वृहतपंचनमस्कार' है और इस टोकामें उसीके पदोंकी विवृत्ति की गई है। चुनॉचे पं० बाथूरामजी प्रेमीने अपने प्रन्यपरिचयमें ऐसा लिख भी दिया है / परन्तु ग्रन्थके संदर्भको देखते हुए यह नाम उसके लिये किसी तरह भी उपयुक्त मालूम नहीं होता / द्रव्यसंग्रहको ब्रह्मदेवकृत-टीकामें एक स्थानपर बारह हजार श्लोकसंख्यावाले 'पंचनमस्कार' ग्रन्थका उल्लेख मिलता है और उसमे लघु सिद्धचक्र, वृहत् सिद्ध चक्र, जैसे कितने ही पाठोंका मंग्रह बतलाया है। हो सकना है कि 'वृहतपंचनमस्कार नामका या तो वही मंग्रह हो पौर या उममे भी बड़ा कोई दूसरा संग्रह तय्यार हमा हो और उसमें पात्रकेमरिस्तोत्रको भी संग्रहीत किया हो। और उसीकी वृत्ति परसे पावकेसरिस्तोत्रको उतारते हुए उसकी वृत्तिका मंगलाचरण इस स्तोत्रकी वृतिके ऊपर दे दिया गया हो / अथवा इसके दिये जाने में कोई दूसरी ही गड़बड़ हुई हो। पग्नु कुछ भी हो, टीकाका यह मगलपद क्षेपक' जान पड़ता है। और इसलिये इससे स्तोत्रक नामपर कोई असर नहीं पड़ता / साप ही, इस संस्करणके अन्त में दिये हए समातिसूचक गद्य. में जो 'विद्यानन्दि'का नाम लगाया गया है बह संशोधक महाशयको कृषि जान पड़ती है। Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थामी पात्रकेसरी और विद्यानन्द 641 [इसमें लिखा है कि 'भट्टाकलक, श्रीपाल और पात्रकेसरीके प्रतिनिर्मल गुरण विद्वानोके हृदयपर हारको तरहसे प्रारूढ है।] परन्तु इस टिप्पणीकी बाबत यह नहीं बतलाया गया कि, वह कौनसे प्राचार्य अथवा विज्ञानकी की हुई है ? कब की गई है ? अन्यत्र भी प्रादिपुरासकी वह समूची टिप्पणी मिलती है या कि नहीं? और यदि मिलती है तो उसमें भी प्रकृत पदको वह टिप्पर मौजूद है या कि नहीं ? प्रयवा जिम ग्रंथप्रति पर टिप्पणी है वह कबकी लिखी हुई है? और वह टिप्पणी उसी ग्रन्थलिपिका अंग है या बादको की हुई मालूम होती है ? बिना इन सब बातोंका स्पष्टीकरण किये और यह बतलाए कि वह टिप्पणी अधिक प्राचीन है -कममे कम 'सम्यक्त्वप्रकाश' और 'ज्ञानसूर्योदय नाटक' की रचनासे पहले की है-प्रथवा किसी मान्य अधिकारी पुरुष-द्वारा की गई है, इम प्रमारणका कोई खास महत्त्व और वजन मालूम नहीं होता / हो सकता है कि टिप्पणी बहुत कुछ अाधुनिक हो और वह किसी स्वाध्यायप्रेमीने दलकयापर विश्वास करके या सम्यक्त्वप्रकाशादिकको देख कर ही लगा दी हो। पांचवां प्रमाण एक शिलालेख पर प्राधार रखता है और उस लेखकी जोवमे वह बिल्कुल निर्मूल जान पड़ता है। मालूम होता है प्रेमीजीके (अथवा तात्या नेमिनाथ पांगलके मी) सामने यह पूरा शिलालेख कभी प्राप्त नहीं हुमा, उन्हें उसके कुछ खंडोंका सारगिमात्र मिला है और इमोलिये उन्हें इस प्रमाणको प्रस्तुत करने तथा शिलालेखके प्राधारपर अपने लेखमें विद्यानन्दका कुछ विशेष परिचय देने में भारी धोखा हुप्रा है / प्रस्तु; इस प्रमारणमे प्रेमोजीन शिलालेखक जिम अन्तिम वाक्यकी पोर इशारा किया है उसे यहां दे देने मात्रसे ही काम नहीं च नेगा. पाठकों के समझनेके लिये अनुवादरूपमें प्रस्तुत किये हए प्रेमीजीके उस पूरे शिलालेख को ही यही दे देना उचित जान पड़ता है और वह इस प्रकार है "विद्यानन्दस्वामीने नजराज पट्टणके राजा नंजकी सभामें जाकर नन्दनमल्लि भट्टसे विचार करके उसका पराभव किया / ....."शतवेन्द्र राजाको सभामें एक काम्पके प्रभावसे समस्त श्रोतामोंको चकित कर दिया। ......शाबमल्लि रागाकी सभा पराजित किये हुए वादियों पर विद्यामन्दिने क्षमा की।......... Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 642 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश सलूवदेव राजाकी सभामें परवादियोंके मतोंको असत्य सिद्ध करके जैनमतकी प्रभावना की। .......बिलगीके राजा नरसिंहको सभामें जनमतका प्रभाव प्रकट किया। कारकल नगरीके भैरवाचार्यको राजसभामें विद्यानन्दिने जनमतका प्रभाव दिखलाकर उसका प्रसार किया / .........."बिदरीके भव्यजनोंको विद्यानन्दिने अपने धर्मज्ञानसेसम्यक्त्वकी प्राप्ति करा दी......."जिस नरसिंहराजके पुत्र कृष्णराजके दरबारमें हजारों राजा नम्र होते थे उस राजदरबारमें जाकर हे विद्यानन्द, तुमने जैनमतका उद्योत किया और परवादियोंका पराभव किया। ....... कोप्पन तण अन्य तीर्थस्थलोंमें विपुल धन खर्च कराके तुमने धर्मप्रभावना की / बेलगुलके जनसंघको सुवर्णवस्त्रादि दिलाकर मण्डित किया / "..." गेरसोपाके समीपके प्रदेशके मुनिसंघको अपना शिष्य बनाकर उसे विभूषित किया / जनशासनका तथा महावीर, गौतम, भद्रबाहु, विशाखाचार्य, उमास्वामी, समन्तभद्र, अकलंकका विजय हो / प्रकललंकने समन्तभद्रके देवागम पर भाष्य लिखा। प्रम्समीमांसा ग्रंथको समझाकर बतलानेवाले विद्यानन्दिको नमोस्तु / श्लोकवातिकालकारके कर्ता, कविचडामणि, ताकिसिंह. विद्वान् यति विद्यानन्द जयवन्त हों। ..."गिरिनिकट निवास करनेवाले मोक्षन्छु ध्यानी मुनि पात्रकेसरी ही हो गये........" (शिलालेख नं०४६ ) अनुवादरूपमें प्रस्तुत इम शिलालेखके अन्तिम वाक्यमे भी, यद्यपि, यह नहीं पाया जाता कि विद्यानन्द मोर पात्रकेमरी दोनों एक ही व्यक्ति थे क्योंकि न तो इसमें ऐमा लिखा है और न और सब कथन प्रकले विद्यानन्दसे ही मबन्ध रखता है बल्कि गौतम, भद्रबाहू, समन्तभद्र पोर पकनकादिक प्राचार्योका भी इसमें उल्लेख है और तदनुसार पात्रकेसरीका भी एक उल्लेख है / गौतम, भद्रबाहु और समन्तभद्रादिक यदि विद्यानन्दके नामान्तर नहीं है तो पात्रकेसरीको ही उनका नामान्तर क्यों समझा जाय? फिर भी मै इस लेख-विषयको कुछ और भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ। यह गिलालेख कनडी और सस्कृत भाषाका एक बहुत बड़ा शिलालेख है-उक्त अनुवादरूपम पाठक जितना देख रहे है उतना ही नहीं है। इसका पूर्वभाग कनडी और उत्तरमाग संस्कृत है पौर यह संस्कृतभाग ही इसमें बड़ा है। पहले कमड़ी भागमें वादिविद्यानन्दका उल्लेख है और मन राजसमापों प्रादिका उल्लेख है जहाँ Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी पात्रकेसरी और विधानंद पर उनके द्वारा कोई कोई महत्वका कार्य हुमा है। यह भाग १७पद्योंमें है। ऊपर जो अनुवाद दिया है उसमें 'जैनशासन से प्रारम्भ होनेवाले अन्तिम पांच वाक्योंको छोड़कर शेष भाग इसी कनडी भागसे सम्बन्ध रखता है और उसमें पहले तीन पड़ों तथा पांचवें, पाठवें और दसवें पद्यका कोई अनुवाद नहीं है, जिससे अन्य वृत्तान्तके अतिरिक्त श्रीरंगनगरको गजसमा, गुरु नृपालको राजसमा मोरें नगरी राज्यकी राजसमाका भी हाल रह गया है और शेष पद्योंका जो अनु वाद या प्राशय दिया गया है वह बहुत कुछ अधूरा ही नहीं किन्तु कहीं कहीं पर ग़लत भी है, जिसका एक उदाहरण गेरसोप्पे-सम्बन्धी पद्यका अनुवाद है। इस पद्यमें कहा गया है कि 'हे विद्यानन्द, मापने मेरमोप्पेमें योगागम-विषयक वादमें प्रवृत्त मुनिगणकी पालना-अथवा सहायता के कार्यको प्रेमके साथ, बतौर एक गुरुके अपने हाथ में लिया है और (इस तरह) अपनेको प्रतिष्ठित किया है। इस परमे पाठक यह महजमें ही अनुभव कर सकते है कि ऊपरका 'गेरसोप्पा'से प्रारम्भ होने वाला अनुवाद कितना गलत पोर भ्रामक है / प्रस्तु; शिलालेखके इस कनडीभागमें जिन राजानोंका उल्लेख है और संस्कृतभागमें भी संगिराज, पद्यानन्दन कृाग देव. सालुव कृष्णदेव, विरूपाक्षराय, साल्वमल्लिराय, अच्युराय. विद्यानगरीके विजयश्रीकृष्णराय प्रादि जिन राजापोंका विचार नम्द सया उनके शिष्यों के सम्बन्धमें उल्लेख है वे मब शककी 15 वी अथवा. विक्रम और ईमाको प्राय: 16 वी शताब्दी में हुए है और इमलिये उनकी सभामों; में प्रसिद्ध होनेवाले ये वादिविद्यानन्द महोदय वे विद्यानन्दस्वामी नहीं है जो श्लोकवानिकादि अन्योंके प्रसिद्ध रचयिता है। और यह बात इस शिलालेखके लेखक तथा विद्यानन्दक प्रशिष्य प्रौर बन्धु मुनिवदमान-द्वारा रचित 'दश भक्त्यादिशास्त्र' में भी पाई जाती है, जिसमे इन सब पद्योंका ही नहीं किन्तु संस्कृत भागके भी बहुतमे पोंका उल्लेख करते हुए विद्यानन्दका मृत्युका समय शक सं० 1463 दिया है / यथा शाके यनिहम्परा(रमा)विधचंद्रकालते मंवत्मरे शारे यह अन्य पाराके जैनसिद्धान्तभवन से देखनेको मिला, जिसके लिये अध्यक्ष महाशय विमेष धन्यवाद के पात्र है। " Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 644 , जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश शुद्ध श्रावणभाककृतान्तधरणीतुम्मैत्रमेषे रवौ। कर्कस्थे सगुरो जिनस्मरणतो वादीन्द्रवृन्दार्चिती विद्यानन्दमुनीश्वरः स गतवान् स्वर्ग चिदानन्दकः // ऐसी हालतमें यह स्पष्ट है कि एक विद्वानकी कीतियोंको दूसरे विद्वान्के साथ जोड़ देने में प्रेमीजी मादिको भारी भ्रम तथा धोखा हुआ है और उन्हें अब उसे मालूम करके तथा यह देखकर कि ग़लतीका बहुत कुछ प्रचार हो गया है पर उसके लिये खेद होगा। प्रस्तु; अब शिलालेखके संस्कृत भागको लीजिये, जिसका प्रारम्भ निम्न पद्योंसे होता है वीरश्रीवरदेवराजकृत्सत्कल्याणपूजोत्सयो विद्यानंदमहोदयकानलयः श्रीसंगिराजार्चितः / पद्मानन्दन-कृष्णदेव-वनुतः श्रीवर्द्धमानो जिनः पायात्सालुव-कृष्णदेवनृपति श्रीशोऽर्द्धनारीश्वरः।। श्रीमत्परमगंभीरस्यावादामोघलांछनम् / जोयात् त्रलोक्यनाथस्म शासन जिनशासनम् // इन पचोंके बाद क्रमश: बर्द्धमानजिन, भद्रबाहु, उमास्वाति, सिद्धान्तकीति, भकलंक, श्लोकवातिक प्रादि ग्रन्थों के कर्ता विद्यानन्दस्वामी, मारिणक्यनन्दी. प्रमाचन्द्र,पूज्यपाद, होम्सलराजगुरु वर्द्धमान,वामपूज्य और श्रीपाल नामक गुरुपो. का स्तवन करते हुए 'पात्रकेसरी' का स्तोत्र निम्न प्रकारसे दिया है. - भूभृत्पादानुवर्ती सन् राजसंवापराड मुखः / संयतोऽपि च मोक्षार्थी भात्यसो पात्रमरी / / [ इससे मालूम होता है कि 'पात्रकेसरी' पहले किसी राजाको सेवामें थे मौर उस गजसेवासे पराङ्मुख होकर-उमे छोड कर-ही वे मोक्षार्थी मनि बने है और उन्होंने भूभृत्पाद, नुवर्ती होना--सपस्याके लिये गिरिचरणको शरण में रहना-ही उत्तम समझा है, और इसीसे प्राप सुशोभित हुए है।] ___ इस स्तोत्रके बाद चामुण्डराय-द्वारा पूजित नेमिचन्द्र, माघवचन्द्र, जयकीति, बिनचन्द्र, इंद्रनन्दी, बसन्तकीति, विमालकीति, सुभकीति, पचनन्दी, माषनन्दी, सिंहनन्दी, चन्द्रप्रम, वसुनन्दी, मेषचन्द्र, बीरनन्दी, धनंजय.वादिराज पोर Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " : स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्द धर्मभूषणका सवन देते अथवा इनसे किसी किसीका उल्लेख मात्र करते हुए फिर उन्हीं वादिविद्यानन्दका शिष्य-प्रशिष्यादि-सहित वर्णन भोर स्तवन दिया है. जिनका पहले कनडीमागर्मे तया संस्कृतभागके पहले पक्ष में उल्लेख है-उन्हें ही 'बुधेशमवन-व्याख्यान' का कर्ता लिखा है-और अन्तमें निम्न पद्य-द्वारा इस सब कपनको 'गुरुभननि' का वर्णन सूचित किया है- वर्द्धमानमुनीन्द्रेण विद्यानन्दायबन्धुना। . देवेन्द्रकीर्तिमहिता लिखिता गुरुमन्ततिः // शिलालेखके इस परिचयमे पाठक सहजमें ही यह समझ सकते हैं कि 'पात्रकेसरी' विद्यानन्दस्वामीका कोई नामान्तर नहीं है, वे गुरुमंन्ततिमें एक पृयक ही प्राचार्य हर है-दोनों विद्यानन्दोंके मध्यमें उनका नाम कितने ही प्राचार्यो अन्तरसे दिया हुप्रा है और इसलिए इस शिलालेखके प्राधारपर प्रेमीजीका उन्हें तथा विद्यानन्दस्वामीको एक ही व्यक्ति प्रतिपादन करना भ्रममात्र है --- उन्हें जरूर इस विषयमें दूमोंके अपरीक्षित कथन पर विश्वास कर नेनेके कारण धोखा हुपा है। प्रब रहे दो प्रमागा, पहला और चौथा। चौया प्रमाण विक्रमकी १७वीं शताब्दी (मं० 1648) में बने हुए एक नाटक-ग्रंथ के कल्पित पात्रोंकी बातचीन पर माधार रखता है. जिसे मब पोरमे मामंजस्यकी जांच किये बिना कोई बाम ऐतिहामिक महत्व नहीं दिया जा सकता। नाटकों तया उपन्यासोंमें प्रयोजनादिवा कितनी ही बातें इधरकी उधर हो जाती है. उनका प्रधान ला इतिहास नहीं होता किन्तु किमी बहानेग-कितनी ही कल्पना करके--- किपी विषयको प्रतिपादन करना या उसे दमगेंके गले उतारना होता है। मोर इसलिए उनकी निहासिकता पर महमा कोई विश्वास नहीं किया जा सकता / उनके पात्रों अथवा पात्रनामों को ऐतिहासिकता तो कभी कभी बहुत दूर की बात हो जाती है. बहतमे नाम तो उनमें यों ही कल्पित किये हए (फ़र्जी) होते है- कोई ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं होते-पोर कितने ही उयक्तियों का काम उनके प्रमनी नामोंमे प्रकट न करके कल्पित नामोंसे ही प्रकट किया जाता है / इम जानमूर्योदय नाटकका भी ऐसा ही हाल है। इसमें 'महशती' के मुख से जो वाक्य कहलाये गए है उनमें नित्यादि परपक्षों के Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .646 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश संडनात्मक वाक्य 'प्रष्टशती' के नहीं किन्तु 'माप्तमीमांसा' के वाक्य है, जिस को 'देवागम' भी कहते हैं। मोर इस देवागम-स्तोत्रकी बाबत ही यह कथा प्रसिद्ध है कि इसके प्रभावसे पात्रकेसरी विद्वान अजैनसे जन हए थे-समन्तभद्र-भारतीस्तोत्र' में भी 'पात्रकेसरिप्रभावसिद्धकारिणी स्तुबे वाक्यके द्वारा इसी बात को सूचित किया गया है / पात्रकेसरीको 'प्रष्टशती' की प्राति हुई थी और वे उसकी प्राप्तिके पहलेसे ही संपूर्ण स्याद्वादके अभिप्रायोंको मच्छी तरहसे जाननेवाले थे, नाटकके -म कथनकी कहीमे भी कोई सिद्धि तथा पुष्टि नहीं होती पोर न मष्टसहस्रीमे हो उमके कर्ताका नाम अथवा नामान्तर पात्रकेसरी दिया है / जान पडता है नाटकके कर्ता भट्टारक वादिचन्द्रको अष्टशतीका प्रष्टसहस्रीके द्वारा पुष्ट होना दिखलाना था और उसके लिये उन्होंने वैसे ही उसके पुष्टकर्तारूप 'पात्रकेसरी' नामकी कल्पना कर डाली है / मोर इसलिये उसपर कोई विशेष जोर नहीं दिया जा सकता और न इतने परसे ही उसे ऐतिहासिक सत्य माना जा सकता है / ____ हाँ, पहले प्रमारणमें 'सम्यक्त्वप्रकाश' नामक ग्रन्थको जो पंक्तियां उद्धृत की गई है उनसे विद्यानन्द और पात्रकेसरीका एक होना जरूर प्रकट होता है। और इस लिए इस प्रमागाचकमें परीक्षा करने पर यही एक ग्रन्थ रह जाता है जिसके प्राधारपर प्रकृत-विषयके सम्बन्धमें कुछ जोर दिया जा सकता है / यह ग्रन्थ मेरे सामने नहीं है-प्रेमीजीको लिखने पर भी वह मुझे प्राप्त नही हो मका और न यदो मालूम हो म है कि वह किमका बनाया हमा है और कब बना है। प्रेमीजी लिखते है-'मन्यवत्वप्रकाशके विषय में कुछ भी नहीं जानता हूं / (मेग) वह लेख मुख्यत: पांगलके मगठी लेखके आधारमे लिखा गया था; और उन्होंने शायद के० बी० पाठके अंग्रेजी लेखक प्राधारमे लिखा होगा, ऐमा मेरा अनुमान है / '' प्रम्न डाक्टर शतोश्चन्द्र विद्याभूषणने भी, अपनी इंडियन लांजिककी हिस्टगेम, के. बी. पाठकके अंग्रेजी लेखके आधार पर 'सम्यक्त्वप्रकाश के इस प्रमाणका उल्लेख किया _ 'जैनग्रन्थावलो' में मालूम होता है कि इस नामका एक अन्य दक्कन कालेज पूनाकी लायग्रे रीमें मौजूद है / संभव है कि वह यही प्रकृत ग्रन्थ हो / और के० बी० पाठक महाशयने इसी ग्रन्थप्रति परमे उल्लेख किया हो। Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्द है, और इससे ऐमा मालूम होता है कि शायद के०बी० पाठक महाशयने ही इस प्रमाणको पहले उपस्थित किया है / परन्तु पहले चाहे जिसने उपस्थित किया हो, किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि यह ग्रन्थ अपने उक्त वाक्यकी लेखन-शैली परसे बहुत कुछ प्राधुनिक जान पड़ता है-प्राश्चर्य नही जो वह उक्त 'ज्ञानसूर्योदय' नाटकसे भी अर्वाचीन हो-पोर मुझे इस कहनेमे जरा भी सकोच नही होता कि यदि इस ग्रन्थके कर्ताने "श्लोकवार्तिक विद्यानन्द्यपरनामपात्रकेसरिस्वामिना यदुक्तं तच्च लिख्यते' यह वाक्य इमी रूपम दिया है तो उसे इसके द्वारा विद्यानन्द और पात्रकेसरीस्वामीको एक व्यक्ति प्रतिपादन करने में जरूर भ्रम हुप्रा है अयवा उमके समझनेकी किमी गलतीका हो परिणाम है; क्योंकि वास्तवमें पात्रकेसरीस्वामी और विद्यानन्द दोनोंका एक व्यक्तित्व सिद्ध नही होता-प्राचीन उल्लेखों अथवा घटनासमूह परमे वे दो भिन्न प्राचार्य जान पड़ते हैं / और यह बात ऊपरके इस मंपूर्ण परीक्षण तथा विवेचनको ध्यान में रखते हुए नीचे दिये म्पष्टीकरणमे पाठकोंको और स्पष्ट हो जायगी:दोनोंकी भिन्नताका स्पष्टीकरण (1) विद्यानन्दस्वामीने स्वरचित श्लोकवानिकादि किसी भी ग्रन्थमें अपना नाम या नामान्तर पात्रकेसरी नहीं दिया, किन्तु जिन तिम प्रकारमे 'विद्यानन्द' का ही उल्लेख किया है / “विद्यानन्द' के अतिरिक्त यदि उन्होंने कहीपर किमी तरहम अपना कोई उपनाम, उपाधि या विशेषण मूचित किया है तो वह 'सत्यवाक्याधिष' या 'मत्यवाक्य' है, जैसा कि निम्न अवतरणों से जान पड़ता हैविद्यानन्दबुधैरलंकृतमिदं श्रीसत्यवाक्याधिपः / -युक्त्यनुशामनटीका मत्यवाक्याधिपाः शश्य द्विद्यानन्दाः जिनेश्वराः -प्रमाणपरीक्षा विद्यानन्दः स्वशक्तया कथमपि कथिन सत्यवाक्यार्थसिद्धय / / -प्राप्तपरीक्षा Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 648 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश (2) विद्यानन्दके बाद होनेवाले प्रभाचन्द्र और वादिराज-जैसे प्राचीन प्राचार्योने भी 'विद्यानन्द' नामसे ही आपका उल्नेख किया है। यथाविद्यानन्द-समन्तभद्रगुणतो नित्यं मनोनन्दनम् --प्रमेयकमलमातंण्ड ऋजुमूत्रं स्फुरद्रत्नं विद्यानन्दस्य विम्मयः / शृण्वतामप्यलंकारं दीतिरंगेष रङ्गति / / / -पार्वनाथचरित (3) शिलालेखोंमे भी 'विद्यानन्द' नाममे ही प्रापका उल्लेख मिलता है और यह कहीं मुचित नहीं किया कि विद्यानन्दका ही नाम पात्रकमरी है। प्रत्युत इसके, हुमचाके उक्त गिलालेख में जिमका परिचय ऊपर दिया जा चुका है. दोनोको अलग अलग गुरु मूचित किया है / उममे भट्टाकलं कके बाद विद्यानन्दकी स्तुतिके तीन पद्म दिये है और उनमें प्रापकी कृतियोंका-प्रासमीमांसालंकृति ( अष्टमहम्री ), प्रमाणपरीक्षा. प्राप्तपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, विद्यानन्दमहोदय और लोकवातिकालकारका-उल्लेग्य करते हुए मवंत्र प्रापको विद्यानन्द नामगे ही उल्लेखित किया है / यथा--- अलंचकार यम्मावमाप्रमीमांमितं मतं / स्वामिविद्यादिनन्दाय नमम्नम्मे महात्मने / यः प्रमाणाप्रपत्रागा परीक्षाः कृतवान्नुमः / विद्यानन्दस्वामिनं च विद्यानन्दमहोदय / / विद्यानन्दम्वामी विचितवानलोकवार्तिकालंकारं / जयनि कविविबुधतार्किकचूडामगिरमल गुगानिलयः / / (8) विद्यानन्दकी कृतिपमे जो अन्य प्रसिद्ध है उनमेंमे किमीका भी उल्लेम्व पात्रकेमरी के नामके माथ प्राचीन माहित्यमे न. पाया जाता पोर न पात्रकेमगेको कृतिम्ग प्रसिद्ध होनेवाले ग्रन्थों का उल्लेम विद्यानन्द के नाम के साथ ही पाया जाता है। यह दुर्ग वान है कि प्राज-कल के कुछ प्रकारक प्रथवा मंशोधक महाशय दोनाकी एकनाके भ्रमवश एकका नाम दूसरे के माथ जोड़ देवें / अस्तु; पाकमरीकी कृतिरूपसे सिर्फ दो ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्द / 64 एक 'जिनेन्द्रगुणसंस्तुति' का, जिसे 'पात्रकेसरिस्तोत्र' भी कहते हैं और जो छप चुका है, और दूसरा 'विलक्षणकदर्थन' का, जो अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ। इम 'त्रिलक्षणकदर्थन' के साथ ही पात्रकेसरीकी खाम प्रसिद्धि है / वौद्धोंके द्वारा प्रतिपादित अनुमान-विषयक हेतुके विरूपात्मक लक्षणका विस्तारके साथ खंडन करना ही इस ग्रन्थका अभिप्रेत है। श्रवणबेलगोलके 'मल्लिषेण प्रशास्ति' नामक शिलालेख ( नं०५४/६७ ) में, जो कि शक मं० 1050 का लिम्वा हया है, 'विलक्षणकदर्थन' के उल्लेखपूर्वक ही पात्रकेसरीकी स्तुति की गई है। यथा-~ महिमा मपात्रकेसरिगुरोः परं भवति यम्य भक्त थामीत् / पद्मावती महाया त्रिलक्षण-कदथनं कतुं म / / म बतलाया है कि उन 'पात्रकेमग गुरुका बडा माहात्म्य है जिनकी भक्ति के वश होकर पद्मावती देवीने 'विलक्षणकदर्थन' की कृतिमें उनकी सहायता की थी' / कहा जाता है कि पद्मावती के प्रमादमे ग्रापको नीचे लिम्वे इलोकको प्राप्ति हुई थी और उसको पाकर ही ग्राप बौद्धोक अनुमान-विषयक हेतुलक्षणका खाटन करने के लिये ममयं हुए थे..... अन्यथानुपपन्नत्यं यत्र नत्र यंग किम / नान्यथानुपपन्नत्यं यत्र तत्र त्रया किम / / कथाकोग-वगिात पाकमगकी कथा में भी यह लोक दिया है गोर बा तसे न्याय-मिद्धान्तादि-विषयक अन्योमे यह उद्धन पाया जाता है / इम इलाककी भी पात्रके मर्गक नामक माथ खाम मिद्धि है और यही अापके विलक्षणकदर्थन' ग्रन्धका मूल मन्त्र जान परना है। यहाँ. पाठको को यह जान कर प्रापचयं होगा कि प्रेमीजी अपने उक्त लेखमे इस ग्रन्थको मत्ता ही नकार करते हैं और लिखते है कि वास्तव में 'त्रिलगणक दर्थन' कोई ग्रन्थ नहीं है / पद्मावतीने 'अन्यथानुपपन्नत्व' प्रादि दलोक लिख कर पात्र मर्गक जिस अनुमानादि-विषयक विलक्षणके भ्रमको निराकरण किया था, उसी का यहां (मल्लिपा प्रशस्तिमे) उल्लेख है।'' परन्तु प्रापका यह लिखना ठीक नही है; क्योंकि यह ग्रन्थ ११वी शताब्दी के विद्वान् वादिराजमूरि-जैसे प्राचीन प्राचार्योंके सामने मौजूद था और उन्होंने 'न्यायविनिश्चयालकार में Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vi 650 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश पात्रकेसरीके नामके साथ उसका स्पष्ट उल्लेख किया है और अमुक कपनका उस शास्त्रमें विस्तारके साथ प्रतिपादन होना बतलाकर उसके देखने की प्रेरणा की है। जैसा कि उनके निम्न वाक्यसे प्रकट है- / "त्रिलक्षणकदर्थने या शास्त्र विस्तरेण श्रीपात्रकेसरिम्वामिना प्रतिपादनादित्यलमभिनिवेशेन / " (5) वादिराजसरिने, 'न्यायविनिश्चयालंकार' नामक अपने भाष्य में 'अन्यथानुपपन्नत्वं' नामके उक्त श्लोकको नीचे लिखे वाक्यके साथ उद्धृत किया ___"तदेवं पक्षधर्मत्वादिमन्तरेणाप्यन्यथानुपपत्तिबलन हेतोर्गमकत्वं तत्र तत्र स्थाने प्रतिपाद्यभेदं स्वबुद्धिपरिकल्पितमपि तुपरागमसिद्ध मित्युपदर्शयितुकामः भगवत्सीमंधरस्वामितीर्थकरदेवसमवसरणाद्गणधरदेवप्रसादापादितं देव्या पद्मावत्या यदानीय पात्रकेसरिस्वामिने समर्पितमन्यथानुपपत्तिवार्तिकं तदाह-" और इसके द्वारा इतना विशेष प्रौर मूचित किया है कि उक्त इनोक पद्मावती देवीने सीमंधरस्वामी तीयंकरके समवसरण में जाकर गणधरदेवके प्रसाद से प्रास किया था और वह 'अन्यथानुपपत्ति' नामक हेतुलक्षणका वार्तिक है / प्रस्तु; यह श्लोक पात्रकेसरीको पद्मावतीदेवीने स्वयं दिया हो या गणघरदेवके पाससे लाकर दिया हो अथवा अपने इष्ट देवताका ध्यान करने पर पात्रकेसरीजीको स्वतः ही सूझ पहा हो ( कुछ भी हो ), किन्तु इस प्रकारके उल्लेखोंसे यह निःसन्देह जान पड़ता है कि लोकमें इस इलोकके प्राद्य प्रकाशक पात्रकेसरी स्वामी हुए है / और इसलिये यह पद्य उन्हीं के नामसे प्रसिद्ध है। विद्यानन्दस्वामीने प्रमाणपरीक्षा और श्लोकवार्तिक नामक अपने दो ग्रंयोमें 'तथोक्त", 'तथाह च' शब्दोंके माय पात्रकेमरीके उक्त श्लोकको उद्धृत किया है / और इससे यह जाना जाता है कि पात्रमरी स्वामी विद्यानन्दमे भिन्न ही नहीं किन्तु उनसे पहले हुए है / (6) 'तत्त्वसंग्रह' नामका एक प्राचीन गौद्धग्रन्थ, पजिका सहित, बड़ोदाकी 'गायकवाड-पोरियंटल-सिरीज' में प्रकाशित हुमा है / यह मूल पंप प्राचार्य 'शान्तरक्षित'का बनाया हुमा है और इसकी पंजिकाके कर्ता उनके शिष्य 'कमल Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्द शील प्राचार्य है। इस ग्रन्थमें पात्रकेसरी स्वामीके मतका उल्लेख उन्हींके वाक्यों-द्वारा निम्न प्रकारसे किया गया है: "अन्यथेत्यादिना पात्रस्वामिमतमाशातेअन्यथानुपपनत्वे ननु दृष्टा सुदेतुता / नासति त्र्यंशकस्यापि तस्मात्क्लीवस्त्रिलक्षणः // 1364 / / अन्यथानुपपन्नत्वं यस्यासौ हेतुरिष्यते। एकलक्षणकः सोऽर्थश्चतुलक्षणको न वा / / 1665 / / यथा लोके त्रिपुत्रः सन्नै कपुत्रक उच्यते। तस्यैकस्य सुपुत्रत्वात्तथेहापि च दृश्यताम् // 1366 // अधिनाभावसम्बन्धस्त्रिरूपेषु न जातुचित् / अन्यथाऽसंभवकाङ्गतुष्वेकोपलभ्यते // 1637 / / अन्यथानुपपनत्वं यम्य तम्यैव हेतुता। दृष्टान्तौ द्वावपि स्तां वा मा वा तो हि न कारणम् // 1368 अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम / नान्यथानुपपनत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् / / 1366 / / मश्यामस्तस्य पुत्रत्वाद् दृष्टाः श्यामा यथेतरे। इति विलक्षणों हेतुने निश्चित्यै प्रवर्तते / / 1370 / / तत्रैकल क्षणो हेतु प्टान्तद्वयवर्जितः / कथंचिदुपलभ्यत्वाद् भावाभावौ सदात्मको / / 1371 / / चन्द्रत्वेनापदिष्टत्वान्नाचन्द्रः शशलांछनः / इति द्विलक्षणों हेतुरयं चापर उच्यते // 1372 / / पतत्कीटकृतयं मे वेदनेत्यवसीयते / तत्कीटकमंम्पर्शप्रतिलब्धोदयत्वतः / / 1373 / / चक्षु रूपग्रहे कार्य सदाऽतिशयशक्तिमत् / तस्मिन्यापार्यमानिन्यायति वा तस्य दर्शनात् // 1374 / / * यह पात्रकेसरीका वही प्रसिद्ध श्लोक है। Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 652 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश कथंचिदसदात्मानो यदि वाऽऽत्मघटादयः / कथंचिदपलभ्यत्वाखरसम्बंधिगवत् // 1375 / / कथंचन सदात्मानः शशगादयोपि च / कथंचिदुपलभ्यत्वाद्यथैवात्मघटादयः / / 1376 / / त्वदीयो वापि तत्रास्ति वेश्मनीत्यवगम्यते / भावत्कपितृशब्दस्य श्रवणादिह सद्मनि // 1377 / / अन्यथानुपपत्यैव शब्ददीपादिवस्तुषु / अपक्षधर्मभावेऽपि दृष्टा ज्ञापकताऽपि च / / 1378 / / तेनैकलनगो हेतुः प्राधान्याद् गमकोस्तु नः / पक्षधर्मादिभिन्त्वन्यैः किं व्यर्थः परिकल्पितः / / 1376 || इन वाक्योंका विषय प्राय: त्रिरूपात्मक हेतुलक्षण का कदर्थन करना है, और इससे ये पात्रकेसरीके 'त्रिलक्षणकदर्थन' ग्रंथमे ही उद्धत किये गये जान पड़ते हैं / अस्तुः शान्तरक्षितका समय ई० मन् 705 मे 162 तक और कमलशीलका 713 मे 763 तक पाया जाता है / ये दोनों प्राचार्य विद्यानन्दमे पहले हुए हैं। क्योंकि विद्यानन्द प्राय: 6 वीं शताब्दी के विद्वान् है / और इम लिये इनके ग्रंथमें पात्रकेसगे स्वामी और उनके वाक्यों का उल्लेख होनेमे यह स्पष्ट जाना जाता है कि पात्रमरी स्वामी विद्यानन्दमे बहुत पहले हो गये हैं / - देखो,श्रीयुत वी० भट्टाचार्यद्वारा लिम्बित ग्रन्थ की भूमिका {Foreword) | ये दोनों प्राचार्य नालन्दाके विश्वविद्यालय में अध्यापक रहे हैं और वहीम ययावसर तिब्बतके राजा द्वाग निमंत्रित होकर निवन भी गये हैं। निबनके राजा Khri-sron-deutsan ( सिम्रोन्दे उत्मन् ) ने शान्तक्षितकी महायतामे ई० मन् 746 में एक विहार ( मठ ) अपने यहाँ निर्माण किया था। प्रोर कमलशीलने 'महायानहोशंग' नामक चीनी साधुको पगम्त नथा निर्वासित कर के अपने गुरु पद्मसम्भव और शान्तरक्षितके धार्मिक विचारोंकी निब्बतमें रक्षा की थी; ऐसा डा० शतीश्चन्द्र विद्याभूषगाकी हिस्टरी अाफ़ विमिडियावल स्कूल आफ इन्डियन लाजिक' में जाना जाता है। Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्द 653 (7) प्रकलंकदेवके ग्रन्थोंके प्रधान टोकाकार श्रीअनन्तवीर्यने प्राचार्य बिनका प्राविर्भाव प्रकलंकदेवके अन्तिम जीवन में प्रथवा उनमे कुछ ही वर्षों बाद हमा जान पड़ता है और जिनकी उक्तियोंके प्रति प्रमाचन्द्राचायंने अपने 'न्यायकुमुदचन्द्रोदय' में बड़े ही महत्त्व तथा कृतज्ञताका भाव प्रकट किया है. अकलंकदेवकृत "सिद्धि विनिश्चय' ग्रन्थको टीका कि 'हेतुलक्षण सिद्धि'नामक छठे प्रस्तावमें पाषकेसरी स्वामी, उनके विलक्षगणकदर्थन' अथ और उनके 'अन्यथानुपपन्नत्व' नामके उस प्रसिद्ध श्लोकका उल्लेख करते हुए, जो महत्त्वकी चर्चा तथा सूचना की है वह इस प्रकार है: ननु सदापं तदनस्तदुपरि ज्ञानमदोषायनि चंदवाह-'अमलालीढ' अमलेगणघरप्रभृतिभिरालोढमास्वादितं न हि ते सदोषमालिहन्त्यमलत्वहानेः / कम्य तदित्यत्राह-स्वामिनः' पात्रमरिण : इत्येके / कुत एतत्तेन तद्विषयत्रिलक्षणकदथनमुत्तरमाप्य यतः कृतमिति चेत् नन्वेवं ( तह) मीमन्धरभट्टारकस्याशेपार्थसाक्षात्कारिणस्तीथकरस्य स्यात्तेन हि प्रथमं 'अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयण किं / नान्यथानुपन्नत्वं यत्र तत्रत्रयण किं.' इत्यतत्कृतं / कथामदभवगम्यत इति चेन पात्रकेसरिणा विलक्षणक्दथनं कृतामांतव.थमदगम्यत इति, समानमा. चार्यप्रसिद्धरित्यपि समानमुभरत्र कथा च महती मुप्रसिद्धा तस्य तत्कृतत्वे प्रमाणप्रामाण्य तत्प्रिसिद्धी कः ममाश्यामः / तदर्थ करणात्तम्यति चेत्तर्हि सर्व शास्त्रं तदविधेयं चात व शिष्याणामेव न तत्कृतमिति व्यपदिश्यत + सिद्धि विनिश्चय' ग्रथकी खोज होने पर हालमे यह उसकी सोलहसवरह हजार इलोकपरिमागा टीका गृजरात-पुरातत्त्व-मन्दिर महमदाबादको प्रास हुई है और मुझे गतवर्ष वही पर इसके पन्ने पलटनेका सौभाग्य प्राप्त हमा है। यह टीका बड़े महत्वकी है परन्तु यह जानकर खंद हुमा कि इसमें मूलसूत्र पूरे नहीं दिये-प्राद्याक्षरोंकी सूचना रूपमे पाये जाते हैं / मूल ग्रन्यकी खोज होने की बहुत बड़ी जरूरत है / क्या ही अच्छा हो यदि कोई समयं जिनवाणी-भक्त इसका मूल-सहित उद्धार करा कर अपनी जिनवाणी-भक्तिका सच्चा परि. चब देखें। Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 654 जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश पात्रकेसरिणोऽपि वा न भवेत्तेनाप्यन्यायं तत्करणास्तेनाप्यन्यार्थमिति न कस्यचित्स्यायेन तद्विषयप्रबंधकरणात्पात्रकेसरिणस्तदिति चिन्तित मूलसूत्रकारेण कस्यचिद्व्यपदेशाभावप्रसंगान। तस्मात्साकल्येनसाक्षास्कृत्योपदिशत एवायं भगवतस्तीर्थकरस्य हेतुरिति निश्चीयते एतच्चामलालीढत्वे कारणमुक्तं / - यह सारी चर्चा वास्तवमें प्रकलंकदेवके मूलसूत्र ( कारिका ) में प्रयुक्त हुए 'अमलालीढं और स्वामिनः' ऐसे दो पदोंकी टीका है। और इससे ऐसा जान पड़ता है कि, प्रकलङ्कदेवने हेतुके 'प्रन्यथानुपपत्येकलक्षण' का 'प्रमलालीढ' विशेषरण देकर उसे अमलों (निर्दोषों)-गरणधगदिकों द्वारा प्रास्वादित बतलाया है और साथ ही 'स्वामिनः' पदके द्वारा प्रतिपादित किया है कि वह 'स्वामिकृत' है। इसपर टीकाकारने यह चर्चा की है कि-यहाँ 'स्वामी' शन्दसे कुछ विद्वान् लोग पात्रकेसरी स्वामीका अभिप्राय लेने है-उस हेतुलक्षणको पात्रकेसरिकृत बतलाते हैं-और उसका हेतु यह देते हैं कि पात्रकेमरीने चकि हेतुविषयक विलक्षणकदर्थन' नामके उत्तरभाष्यकी रचना की है इसीमे यह हेतुलक्षण उन्हींका है / यदि ऐमा ही है-ऐसा हो हेतुप्रयोग है-तब तो वह प्रशेष विषयको साक्षात् करनेवाले मीमंधरस्वामि-नीर्थकर-कृत होना चाहिय; क्योंकि उन्होंने ही पहले अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किं / नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किं' इस वाक्यकी मृष्टि की है। यदि यह कहा जाय कि सीमंधरस्वामीन ऐमा किया इसके जानने का क्या साधन है ? तो फिर पात्र. केमरीने विलक्षणका कदर्थन किया इसके जानने का भी क्या साधन है ? यदि इसे प्राचार्यपरम्परामे प्रसिद्ध माना जाय तो सीमंधर स्वामीका कर्तृत्व भी उक्त श्लोकके विषयमें प्राचार्यपरम्परामे प्रसिद्ध है / दोनों मोर कथा समानरूपसे इसके कर्तृत्वविषयमें मुप्रसिद्ध है / यदि यह कहा जाय कि मीमंधर स्वामीने चकि पात्रकेसरीके लिये इमको मष्टि की है इसलिये यह पात्रकमरिकृत है तब तो सर्वशास्त्रसमूह तीर्थकरके द्वारा प्रविधय ठहरेगा और इमलिये यह कहमा होगा कि वह शिष्योंका किया हुप्रा ही है, सीर्थकरकृत नहीं है / एमी हालत पात्रकेसरीका कर्तृत्व भी नहीं रहेगा; क्योंकि उन्होने दूमोंके लिये इसकी रचना की। और इसी तरह दूसरोंने और दूसरोंके लिये रचना की; तब किसीका भी Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी पात्रकेसरी ओर विद्यानन्द 655 AAN कर्तृत्व इस विषय में नहीं ठहरेगा। इससे तद्विषयक प्रबन्धकी रचनाके कारण यह पात्रकेसरिकृत है, इसपर मूलसूत्रकारने-श्रीमकलंकदेवने-विचार किया है और इसलिये ( वास्तवमें तो) पूर्ण रूपसे साक्षात् करके उपदेश देनेवाले तीर्थकर भगवानका ही यह हेतु निश्चित होता है और यही अमलालीढत्वमें कारण कहा गया है।' ___इस पुरातन-चर्चा परसे कई बातें स्पष्ट जाती जाती हैं-एक तो यह कि अनन्तवीर्य प्राचार्य के समयमें पात्रकेसरी स्वामी एक बहुत प्राचीन प्राचार्य समझे जाते थे, इतने प्राचीन कि उनको कथा प्राचार्य-परम्पराको कथा होगई थी; दूसरे यह कि, 'विलक्षणकदर्थन' नामका उनका कोई अन्य जरूर था; तीसरे यह कि, 'अन्यथानुपपन्नत्वं नामके उक्त श्लोकको पात्र केमरीकी कृति समझनेवाले तथा सोमंधरस्वामीको कृति बतलानेवाले दोनों हो उस समय मौजूद थे और जो सीमधरस्वामीकी कृति बतलाते थे वे भी उसका अवतार पात्रकेसरीके लिये समझते थे; चौथे यह कि मूलसूत्रकार श्रीप्रकलंकदेवके सामने भी पात्र. केमरिविषयक यह सब लोकस्थिति मौजूद थी और उन्होंने उसपर विचार किया था और उस विमारका ही यह परिणाम है जो उन्होंने सीमंधर या पात्रकेसरी दोनों ने किमी एक का नाम न देकर दोनोंके लिये समानरूपसे व्यवहत होनेवाले 'स्वामिन्' शब्दका प्रयोग किया है / ऐसी हालतमें पात्रकेसरी स्वामी विद्यानन्दमे भिन्न व्यक्ति थे और वे उनसे बहुत पहले हो गए है इस विषय में सन्देहको कोई अवकाश नही रहना; बल्कि साथ ही यह भी मालूम हो जाता है कि पात्रकेसरी उन प्रकलं कदेवसे भी पहले हुए हैं जिनको मष्टशतीको लेकर विद्यानन्दने अष्टसहस्री लिखी है। (8) बेनूर ताल्लुकेके शिनालेस्व नं० 17 में भी पात्रकेसरीका उल्लेख है। यह शिलालेख रामानुजाचार्य-मन्दिरके प्रहातेके अन्दर सौम्यनायकी-मन्दिरके छनके एक पत्थरपर उत्कीरगं है और शक मवत 1056 का लिखा हुपा है / इसमें समन्तभद्रम्वामोके बाद पाषकेसरीका होना लिखा है और उन्हें समन्तभद्रके द्रमिलसंघका प्रसर मूचित किया है। साथ ही, यह प्रकट किया है कि पात्र देखो, 'एपिप्रेफिका कर्णाटिका' जिल्द 5 भाग १ला। Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 656 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश केसरीके बाद क्रमशः वक्रग्रीव, वजनन्दी, सुमति भट्टारक, ( देव ) और समयदीपक प्रकलंक नामके प्रधान प्राचार्य हुए है / यथा__ "तत् ... त्थेर्थमं सहस्रगुणं माडि समन्तभद्रस्यामिगलु सन्दर अवरि बलिक नदीय श्रीमदमिलसंघाप्रेसरर् अप्पपात्रकेमरि-स्वामि गलिं वक्रग्रीवाभिरिन्द् अनन्तरं / __ यस्य दि.........."न् कीर्तिम्त्रैलोक्यमप्यगात् / .......येव भात्येको वनन्दी गुणाग्रणी: / / अरि बलिक सुमति-भट्टारकर अवरिं बलिक समयदीपक रम् उन्मोलित-दोष-क"रजनीचर बलं उद्बोधितं भव्यकमलम प्राय्त् ऊजितम् अकलंक-प्रमाण-तपन स्फु...... | . इससे पात्रकेसरीको प्राचीनताका कितना ही पता चलता है और इस बातफा और भी ममर्थन होता है कि वे प्रकलकदेवम पहले ही नहीं किन्न बहुत पहले हुए है। प्रकल कदेव विक्ररकी ७वी-८वो शताब्दीके विद्वान् है. वे बौद्धताकिक 'धर्मकीति और मीमांसक विद्वान् 'कुमारिल के प्राय: समकालीन थे और विक्रम संवत् 700 मे भापका बौद्धों के साथ महान् वाद हप्रा था. जिसका उल्लेख 'अकलकचरित के निम्न वाक्य में पाया जाता है.. विक्रमाक-शकादाय-शतसम-प्रमाजुपि / कालऽकलंक-यतिना योद्धादा महानभूत् / / और वज्रनन्दी विक्रमकी छठी शताब्दी में हुए हैं। उन्होंने वि०म० ५२६में 'द्राविड' सघकी स्थापना की है. ऐमा देवमनके 'दर्शनमार' ग्रन्थ से जाना जाता है। इसे पात्रकसरोका मग्य छठी शताब्दीमे पहले पांचवी या चौथी शताब्दी के करीब जान पड़ता है। जब कि विद्या- न्दका ममय प्रायः / वी शताब्दीका ही है। प्रतः इस संपूर्ण परीक्षण, विवेचन प्रोर स्पष्टीकरण परमे यह बिल्कुल स्प हो जाता है कि स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्द दा भिन्न प्राचार्य हुए है . दोनोंका व्यक्तित्व भिन्न है, ग्रन्थसमूह भिन्न है और समय भी भिन्न है और इनि Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Paraman .. स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्द 'सम्यक्त्वप्रकाश' के लेखकने यदि बोनोंको एक लिख दिया है तो वह उसकी स्पष्ट भूल है / पात्रकेसरी स्वामी विद्यानन्दसे कई शताब्दी पहले हुए है। वे ब्राह्मणकुलमें उत्पन्न हुए थे, राज्य में किसी अच्छे पद पर प्रतिष्ठित थे मोर एक बहुत बड़े प्रजन विद्वान् थे / स्वामी समन्तभद्रके 'देवागम' स्तोत्रको सुनकर पापकी श्रद्धा पलट गई थी, माप जैनधर्म में दीक्षित हो गये थे पौर राज-सेवाको भी छोड़ कर जैनमुनि बन गये थे। मापका माचार पवित्र और ज्ञान निर्मल था। इसीसे भगवज्जिनसेनाचाय-जैसे प्राचार्योंने मापकी स्तुति की है और प्रापके प्रतिनिर्मल गुणोंको विद्वानोंके हृदय पर हारको तरहसे प्रारूढ बतलाया है / मापने नहीं मालूम और कितने ग्रन्थोंकी रचना की है / पात्रकेसरिस्तोत्र प्रादि परसे प्रापके ग्रंथ बड़े महत्त्वके मालूम होते हैं। उनका पठन-पाठन उठ जानेसे ही वे लुप्त हो गये है / उनकी ज़रूर खोज होनी चाहिए / 'विलक्षणकदर्थन' ग्रंथ ११वीं शताब्दी में मौजूद था, खोज करने पर वह जैनमहारोंमे नहीं तो बौद्धशास्त्रभंडारोंसे-तिब्बत, चीन, जापान, लंकादिकके बोदविहारोंसे-अथवा पश्चिमी लायरियोंसे जरूर मिल जायगा / जैन समाजमें अपने प्राचीन साहित्यके उद्धारका कुछ भी उल्लेखनीय प्रयत्न नहीं हो रहा है-खाली जिनवाणीकी भक्ति के रीते-फीके गीत गाए जाते है --पोर इसोमे नियोंका सारा इतिहास अन्धकारमें पड़ा हुमा है / और उसके विषयमें सैकड़ों ग़लतफहमियों फैली हुई है / जिनके हृदय पर साहित्य और इतिहासकी इस दुर्दशाको देख-मुनकर चोट पहुंचती है और जो जिनवाणीके सच्चे भक्त, पूर्वाचार्योंके सच्चे उपासक मथवा समाजके सच्चे शुभचिन्तक है उनका इस समय यह खास कर्तव्य है कि वे साहित्य और इतिहास दोनोके उद्धारके लिये खास तौरसे अग्रसर हों, उद्धार-कार्यको व्यवस्थित रूसमें चलाएं और उसमें सहायता पहुंचानेके लिये अपनी शक्तिभर कोई भी बात उठा न रखें। पायसरीकी कबाके अतिरिक्त विद्यामन्दिकृत' सुदर्शनचरित्र' के निम्न साक्यसे भी यह मालूम होता है कि पात्रकेसरी ब्राह्मणकुनमें उत्पन्न हुए थेविप्रशासपीः परिः पवित्रः पात्रकेसरी / समीकविमादाजसेवनकमपुरतः॥' Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 658 जैनसाहित्य और इतिहासरर विशद प्रकाश ... A NA . (द्वितीय लेख) - अनेकान्तके प्रथम वर्षको दितीय किरणमें 16 दिसम्बर सन् 1926 को मैंने 'स्वामी पात्रकेसरी पौर विद्यानन्द' नामका एक लेख लिखा था, जिसमें पात्रकेसरी और विद्यानन्दकी एकता-विषयक उस भ्रमको दूर करनेका प्रयत्न किया गया था जो विद्वानोंमें उस समय फैला हुआ था और उसके द्वारा यह स्पष्ट किया गया था कि स्वामी-पात्रकेसरी पोर विद्यानन्द दो भिन्न प्राचार्य हुए है-दोनोंका व्यक्तित्व भिन्न है, ग्रन्थसमूह भिन्न है और समय भी भिन्न है। पात्रकेसरी विक्रमकी ७वीं शताब्दीके विद्वान् भाचार्य प्रकलङ्कदेवसे भी पहले हुए हैप्रकलंकके ग्रन्थों में उनके वाक्यादिका उल्लेख है-पोर उनके तथा विद्यानन्दके मध्य में कई शताब्दियोंका अन्तर है / हर्षका विषय है कि मेरा वह लेख विद्वानोंको पसन्द माया पौर तबसे बराबर विद्वानोंका उक्त भ्रम दूर होता चला जा रहा है / भनेक विद्वान् मेरे उस लेखको प्रमाणमें पेश करते हुए भी देखे जाते हैं / ___ मेरे उस लेखमें दोनोंकी एकता-विषयक जिन पांच प्रमाणों की जांच की गई थी और जिन्हें नि:मार व्यक्त किया गया था उनमें एक प्रमाण 'सम्यक्त्वप्रकाश' ग्रन्थका भी निम्न प्रकार था "सम्यक्त्वप्रकाश नामक ग्रन्थमें एक जगह लिखा है कि'तथा श्लोकवार्तिके विद्यानन्दिअपरनामपात्रकेसरिम्वाममिना यदुक्तं तच्च लिख्यते-तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शन / न तु सम्यग्दर्शनशब्दनिर्वचनसामर्थ्यादेव सम्यग्दर्शनस्वरूपनिणयादशेषतद्विपतिपत्तिनिवृत्तः सिद्धत्वात्तदर्थे तल्लक्षणवचनं न युक्तिमदेवेति कस्यचिदारेका तामपाकरोति।' इसमें श्लोकवातिकके कर्ता विद्यानन्दिको ही पात्रकसरी बतलाया है।" यह प्रमाण सबसे पहले डाक्टर के० बी० पाठको अपने ‘भर्तृहरि पौर हासमें प्रकाशित 'न्यायकुमुदचन्द्रकी प्रस्तावनामें पं० कंमाशचन्द्रशास्त्री भी लिखते है- "इस गमतफ़हमीको दूर करने के लिये, अनेकान्त वर्ष 1 1076 पर मुसि स्वामीपासरी और विद्यानन्द शीर्षक निवम्ब देखना चाहिये" . . Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी पात्रकेसरी धीर विद्यानन्द 654 कुमारिल' नामके उस लेख में उपस्थित किया था जो सन् 1862 में रायल एशियाटिक सोसाइटी बम्बई ब्रांचके जनल (J. B. B. R. A. S. For 1892 PP. 222,223)में प्रकाशित हुप्रा था। इसके साथमें दो प्रमाण पोर भी उपस्थित किये थे-एक प्रादिपुराणकी टिप्पणीवाला और दूसरा ज्ञान. सूर्योदय नाटकमें 'प्रष्टशती' नामक बोपात्रमे पुरुषके प्रति कहलाये हए वाक्यवाला, जो मेरे उक्त लेखमें क्रमश: नं० 2, 4 पर दर्ज है। डा. शतीश्चन्द्र विद्याभूषणने, अपनी इण्डियन लांजिककी हिस्टरीमें, के. बी. पाठकके दूसरे दो प्रमाणोंकी प्रवगणना करते हुए और उन्हें कोई महत्त्व न देते हुए, सम्यक्त्वप्रकाशबाले प्रमाणको ही पाठकजीके उक्त लेखके हवालेसे अपनाया था पोर उसीके प्राधारपर, बिना किमी विशेष ऊहापोहक, पात्रकेमरी और विद्यानन्दको एक व्यक्ति प्रतिपादित किया था। मोर इसलिये ब्रह्मनं मिदत्तके कथाकोश तथा हम बाबाले मिलानेखके शेष दो प्रमागोंको, पाठक महाशयकं न समझकर तात्या नेमिनाथ पांगलके समझने चाहिय, जिन्हें प०नाथूरामजी प्रेमोने अपने 'स्याद्वादविद्यापनि विद्यानन्दि' नामकं उम लेखमे अपनाया था जिसकी मैंने अपने उस लेखमें पालामना की थी। अम्न् / उक्त लेख लिखते समय मेरे सामने 'सम्यक्त्वप्रकाश' ग्रन्थ नही था-प्रयत्न करनेपर भी में उमे उस समय तक प्राप्त नहीं कर सका था-पोर इसलिये दूसरे मा प्रमाणोंगी पालोचना करके उन्हें नि:सार प्रतिपादन करनेके बाद मैंने सम्यक्त्वप्रकाशके "श्लोकवानिके विद्यानन्दिअपरनामपात्रकेसरिम्वामिना यद तरचलिरूपते" इस प्रस्तावना-वाक्यकी कथनशैली परमें इतना ही अनुमान किया था कि वह ग्रन्थ बहुत कुछ माधुनिक जान पड़ता है, और दूसरे स्पष्ट प्रमाणोकी रोशनी में यह स्थिर किया था कि उसके लेखकको दोनों पाचा. योकी एकनाके प्रतिपादन करनेमे जरूर भ्रम हमा है अथवा वह उसके समझनेको किसी गलतीका परिणाम है। कुछ प्रसे बाद मित्रवर प्रोफेसर ए० एन० उपाध्यायनी कोल्हापुरके मत्प्रयत्नले 'सम्यक्रवप्रकाश' की वह नं. 777 की पूनवाली मूल प्रति ही मुझे देखने के लिये मिल गई, जिसका पाठक महाशयने अपने उस मन् 1812 वाले लेखमें उल्लेख किया था। इसके लिये में उपाध्यायजीका बार तोरसे पामारी ई पोर वे विशेष धन्यवापापात्र हैन .. Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 660 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश अन्यप्रतिको देखने पोर परीक्षा करनेसे मुझे मालूम हो गया कि इस बन्यके सम्बन्धमें जो अनुमान किया गया था वह बिल्कुल ठीक है-यह अन्य अनुमानसे भी कहीं अधिक माधुनिक है और जरा भी प्रमाणमें पेश किये जानेके योग्य नहीं है। इसी बातको स्पष्ट करनेके लिये माज में इस ग्रन्यकी परीक्षा एवं परिचयको अपने पाठकोंके सामने रखता हूँ। सम्यक्त्वप्रकाश-पराधा यह ग्रन्थ एक छोटासा संग्रह ग्रन्थ है, जिसकी पत्र-संख्या 37 है-३७वें पत्रका कुछ पहला पृष्ठ तथा दूसरा पृष्ठ पूरा खाली है-पौर जो प्राय: प्रत्येक 10 पर पंक्तियों तथा प्रत्येक पक्तिमें 45 के करीब प्रक्षरोंको लिये हुए है / ग्रन्थपर लेखक अथवा संग्रहकारका कोई नाम नहीं है पोर न लिखनेका कोई सन् संवतादिक ही दिया है। परन्तु ग्रन्थ प्रायः उमीका लिखा हुमा अथवा लिखाया हमा जान पड़ता है जिसने संग्रह किया है भोर 60-70 वर्षसे अधिक समय पहलेका लिखा हुमा मालूम नहीं होना / लायब्ररीके निटपर Comes Fronm Surat शब्दोंके द्वारा सूरतसे पाया हुप्रा लिखा है और इसने हकनकालिज. लायब्ररीके सन् 1875-76 के संग्रहमें स्पान पाया है। इसमें मंगलाचरणादि-विषयक पद्योंके बाद "तत्त्वार्थानं सम्यग्दर्शनमितिसूत्रं // 1 // " ऐसा लिखकर इम मुत्रकी व्याख्यादिके रूपमें सम्यग्दर्शनके विषयपर क्रमश: सर्वासिति, राजगतिक. श्लोकवातिक, दर्शनपाड. मूत्रपाहुह, चारित्रपाहड, भावपाहुड, मोक्षपाहा. संचास्तिकाय, समयसार पोर बहद मादिपुरणके कुछ वाक्योंका संग्रह किया गया है। वार्तिकोंको उनके माध्यसहित, दर्शनपाइडको सम्पूर्ण 36 गाथाम्रोको (जिनमे मंगलाचरणकी गाण भी शामिल है ! ) उनकी याया सहित, शेप पाहुगेकी कुछ कुछ गाथामोंको बायासहित, पंचास्तिकाय और समयसारकी कतिपय गायापोंको छाया तथा अमुचन्द्राचार्यकी टीकासहित उद्धृत किया गया है। इन ग्रन्थ-वाक्योंको उद्धृत करते हुए जो प्रस्तावनावाक्य दिये गये है और उमरणके पनन्तर जो समातिसूचक वाक्य लिये है अन्हें बतायामाचरणादिके 3-4 पोंको छोड़कर इस सबमें अन्धकाका प्रमोर नहीं है। Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्द अन्धकारकी इस निधी पूजी और उसके उद्घत करनेके ढंग प्रादिको देखनेसे साफ मासूम होता है कि वह एक बहुत थोड़ी सी समझ-बूझका साधारण पारमी पा, संस्कृतादिका उसे यथेष्ट दोष नहीं था और न अन्य-रचनाकी कोई ठीक कसा हो वह जानता था। तब नहीं मालूम किस प्रकारकी वासना अथवा प्रेरखासे प्रेरित होकर वह इस ग्रन्यके लिखने में प्रवृत्त हुमा है !! प्रस्तु; पाठकोंको इस विषयका स्पष्ट अनुभव करानेके लिये ग्रन्थकारकी इस निजी पूजी प्रादिका कुछ दिग्दर्शन कराया जाता है (1) अन्यका मंगलाचरण तथा प्रतिज्ञावाक्योंको लिये हुए प्रारंभिक अंश इस प्रकार है "ॐनमः सिद्धेभ्यः / / अथ सम्यक्त्वप्रकाश लिख्यते / / प्रणम्य परमं देवं परमानंद विधायकं / सम्यक्त्वलक्षणं वक्ष्ये पूर्वाचार्यकृतं शुभम् // 11 // मोक्षमार्गे जिनरुक्त प्रथमं दर्शनं हिनं / तहिना सर्वधर्मेषु चरित निष्फल भवेत् / / 2 / / तस्मादर्शनशुद्धयर्थ लक्ष्यलक्षणसंयुतं / सम्यक्त्वप्रकाशकं ग्रंथं करोमि हितकारकम् // 3 // युग्मम् // तस्वार्थाधिगमे सूत्र पूर्व दर्शनलक्षणं / मोक्षमार्गे समुहिष्ट तदहं चात्र लिख्यते // 4 // " न. 3 के श्लोकको अंक तीनतक काली स्याहीमे काट रक्खा है परन्तु 'पुग्मम्' को नही काटा है ! 'युग्मम्' पदका प्रयोग पहले ही व्यपं-सा पा तीसरे श्लोककं निकल जानेपर वह मोर भी व्यर्थ हो गया है क्योंकि प्रथम दो श्लोकोंके साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं बैठता, वे दोनों अपने अपने विषय में स्वतंत्र है-दोनों मिलकर एक वाक्य नहीं बनाते--इसलिये 'युग्मम्' का यहां न काटा जाना चिन्तनीय है ! हो सकता है प्रकारको किसी तरह पर तीसरा श्लोक मशुद्ध जान पड़ा हो. जो वास्तवमै प्रशुद्ध है भी; क्योंकि उसके तीसरे चरणमें की जगह ए पक्षर है और पांचवां प्रक्षर लघु न होकर गुरु पड़ा है जो बंदकी रष्टिसे ठीक नहीं; और इस लिये उसने इसे निकाल दिया हो पौर 'युग्मम्' पद का निकालना यह भूल गया हो ! यह भी है कि . Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 662 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश प्राशयके कई प्रतिज्ञावाक्य हो जानेके कारण उसे इस श्लोकका रखना उचित न जंचा हो, वह इसके स्थानपर कोई दूसरा ही, श्लोक रखना चाहता हो और इसीसे उसने 'युग्मम्' तथा चौथे श्लोकके अंक '4' को कायम रक्सा हो, परन्तु बादकी किसी परिस्थितिके फेरमें पड़कर वह उस श्लोकको बना न सका हो / परन्तु कुछ भी हो, ग्रन्थकी इस स्थितिपरसे इतनी सूचना जरूर मिलती है कि यह ग्रंथप्रति स्ययं ग्रन्थकारकी लिखी हुई अथवा लिखाई हुई है / 'अथ सम्यक्त्वप्रकाश लिख्यते' इस वाक्यमें 'सम्यक्त्वप्रकाश' विभक्तिसे शून्य प्रयुक्त हुमा है जो एक मोटी व्याकरण-सम्बन्धी प्रशुद्धि है। कहा जा सकता है कि यह कापी किसी दूसरेने लिखी होगी और वही सम्यक्त्वप्रकाशके पागे विसर्ग( : लगाना भूल गया होगा / परन्तु जब मागे रचनासम्बन्धी अनेक मोटी मोटी अशुद्धियोंको देखा जाता है तब यह कहनेका साहम नहीं होता / उदाहरणके लिये चौथे श्लोकमें प्रयुक्त हुए 'तदहं चात्र लिख्यते' वाक्यको ही लीजिए, जो ग्रंथकारकी अच्छी खासी प्रगताका द्योतक है मोर इस बातको स्पष्ट बतला रहा है कि उसका संस्कृत व्याकरण-सम्बन्धी ज्ञान कितना तुच्छ था। इम वाक्यका अर्थ होता है 'वह (दर्शनलक्षण) में यहा लिखा जाता है' जब कि होना चाहिये था यह कि वह दर्शनलक्षण मेरे द्वारा यहाँ लिखा जाता है' अथवा 'मैं उसे यहाँ लिखना है।' पोर इसलिये यह वाक्यप्रयोग बेहूदा जान पड़ता है / इसमें 'तदहं की जगह 'तन्मया' होना चाहिये था-'अहं' के साथ 'लिख्यते' का प्रयोग नहीं बनता, 'लिस्वामि' का प्रयोग बन सकता है। जान पड़ता है ग्रन्थकार लिख्यते' और 'लिखामि' के भेदको भी ठीक नहीं समझता था। (2) इसी प्रकारकी प्रज्ञता और बेहदगी उसके निम्न प्रस्तावनावाक्यमे भी पाई जाती है, जो 'तत्त्वार्थ-श्रद्धानं सम्यग्दर्शन' मूत्र पर इनोकवानिकके 21 वार्तिकोंको भाष्यसहित उद्धृत करनेके बाद "इति श्लोकवानिके // 3 // " लिखकर अगले कथनकी सूचनारूपसे दिया गया है: * वे प्रतिज्ञा-वाक्य इस प्रकार है-१ सम्यक्त्वलक्षणं वक्ष्ये, 2 सम्यवत्व- . प्रकाशकं ग्रन्थं करोमि, 3 तदहं चात्र लिख्यते / Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...: स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्द 663 “अथ अष्टपाहुरमध्ये दर्शनपाहुडे कुन्दकुन्दस्वामिना सम्यक्त्वरूपं प्रतिपादयति // " इसमें तृतीयान्त 'स्वामिना' पदके साथ 'प्रतिपादयति' का प्रयोग नहीं बनता-वह व्याकरणकी दृष्टिमे महा अशुद्ध है---उसका प्रयोग प्रथमान्त 'स्वामी' पदके साथ होना चाहिये था। ___ यहां पर इतना और भी जान लेना चाहिये कि दर्शनपाहडकी पूरी 36 गाथापोंको छाया-सहित उद्धृत करते हुए, 26 वी गाथाके स्थान पर उस की छाया और छायाके स्थान पर गाथा उद्धृत की गई है / और पांचवों गाथाकी खायाके अनन्तर "अस्मिन द्वौ रणं शनं तत्प्राकृते अव्ययं वाक्यानंकारार्थे वर्तते" यह किमी टीकाका अंश भी यों ही उद्धृत कर दिया गया है; जब कि दूसरी गायानों के साथ उनकी टीकाका कोई अंश नहीं है / मोक्ष. पाहुडको चार गाथानोंको छायासहिन उद्धत करनेके बाद "इति मोक्षपाहुडे" लिखकर मोक्षपाहुडके कपनको ममाप्त किया गया है। इसके बाद पन्थकारको फिर कुछ बयान पाया और उमने 'तथा' शब्द लिखकर 6 गाथाएं और भी छायामहित उद्धृत की है और उनके प्रनन्तर 'इति मोक्षपाहुड' यह समाप्तिमूचक वाक्य पुनः दिया है। इसमें ग्रंथकारके उर्धन करने के ढंग मोर उसको असावधानीका कितना ही पता चलता है। (3) अब उत्पन करने में उमकी अमान-सम्बन्धी योग्यता और समझने के भी कुछ नमूने नीजिए : (क) इलोकवातिको द्वितीय मूत्रके प्रथम दो वानिकोंका जो भाष्य दिया है उसका एग्रंश इस प्रकार है "न अनेण्यवाद्धातूनां दशः श्रद्धानार्थत्वगतः / कथमने कम्मिमर्थे संभवत्यपि अशानाथस्यैव गतिरिति चन् ,प्रकरणविशेषात् / मोक्षकारणत्वं हि प्रकृतं तस्यार्थश्रद्धानस्य युज्यते नालोचनादेरातरस्य / " प्रन्पकारने, उक्त वातिकोके भाष्यको उद्धृत करते हुए, इस मंशको निम्न माया प्रायः श्रुतसागरको धापासे मिलती-जुलती है-कही-कहीं साधारणसा कुछ भेद है। Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 664 जैनसाहित्य और शतिहासपर विशद प्रकाश प्रकारम उद्धृत किया है, जो पर्वके सम्बन्धादिकी दृष्टिसे बड़ा ही बेडेगा जान पड़ता है "नानेकार्थत्वाद्धातूनां दृशे भद्धानार्थश्रद्धानस्य युस्पञ्चसे नालोचनादेरर्थातरस्य / " हो सकता है कि जिस ग्रन्थप्रतिपरसे उदरण-कार्य किया गया हो उसमें लेखककी प्रसावधानीसे यह अंश इसी प्रशुद्ध रूपमें लिखा हो; परन्तु फिर भी इससे इतना तो स्पष्ट है कि संग्रहकारमें इतनी भी योग्यता नहीं थी कि वह ऐमे वाक्यके अधूरेपन और बेढंगेपनको समझ सके / होती तो वह उक्त वाक्यको इस रूपमें कदापि उद्धृत न करता। (ब) श्रीजिनसेन-प्रणीत प्रादिपुराणका एक श्लोक इस प्रकार है शमादर्शनमोहस्य सम्यक्त्वादानमादितः / / जन्तोरनादिमिथ्यात्वकलंककलिलात्मनः // 117 // इसमें अनादि-मिथ्याष्टिजीवके प्रथम सम्यक्त्वका ग्रहण दर्शनमोहके उपशमसे बतलाया है / 'सम्यक्त्वप्रकाश में, इसश्लोकको प्रादिपुराणके दूसरे श्लोकोंके साथ उद्धृत करते हुए, इसके "शमादर्शनमोहस्य" चरणके स्थानपर 'सम्यकदर्शनमोहस्य' पाठ दिया है, जिससे उक्त श्लोक घेढंगा तथा बे-मानीसा होगया है और इस बातको मूचित करता है कि संग्रहकार उसके इस बेगेपन तथा बे-मानीपनको ठीक समझ नहीं सका है। (ग) ग्रंथमें "इति मोक्षपाहडे // " के बाद “अथ पंचास्तिकायनामग्रंथे कुन्दकुन्दाचार्यः (?) मोक्षमागे-प्रपंचसूचिका चूलिका वर्णिता सा लिख्यते।' इस प्रस्तावना-वाक्य के साथ पंचाम्तिकायकी 16 मायाए सम्कृतखाया तथा टीकासहित उद्धृत की है और उनपर गाया नम्बर 162 से 178 तक डाले है, जब कि वे 180 तक होने चाहिये थे। 171 और 172 नम्बर दोबार गलतीमे पड़ गये है अथवा जिम ग्रंथप्रतिपरमे नकल की गई है उसमें ऐसे ही गलत नम्बर पड़े होंगे और मंग्रहकार ऐमी मोटी गलतीको भी 'नक़लराचे -प्रकल'की लोकोक्तिके अनुसार महमूस नहीं कर सका! प्रस्तु: इन गाथानों मेंसे 168, 166 नम्बरकी दो गाथानोंको छोड़ कर शेष गाथाएं वे ही है जो बम्बई रायचन्द्र जनशास्त्रमालामें दो संस्कृत टीकानों और एक हिन्दी टीकाके Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्द साप प्रकाशित 'पचास्तिकाय' में क्रमश: नं. 154 से 170 तक पाई जाती है / 168 और 166 नम्बरवाली गाथाएं वास्तवमें पंचास्तिकायके 'नवपदार्थाधिकार' की गाथाएँ है पोर उसमें नम्बर 106, 107 पर दर्ज है। उन्हें 'मोक्षमार्गप्रपंचसूचिका चुलिका' अधिकारकी बतलाना सरासर गलती है / परन्तु इन ग़लतीयों तथा नासमझियोंको छोड़िये और इन दोनों गाथामोंकी टीकापर ध्यान दीजिये। 166 (107) नम्बरवाली 'सम्मतं सहहण.' गाथा टीकामें तो "सुगम" लिख दिया हे; जब कि अमृतचन्द्राचार्यने उसकी बड़ी अच्छी टीका दे रक्खी है और उसे 'सुगम' पदके योग्य नहीं समझा है / और 168 (106 )नम्बरवाली गापाकी जो टीका दी है वह गाथा-सहित इस प्रकार है सम्मत्तं णाणजुई चारित्तं रागदोसपरिहोणं / मोक्खस्स हवदि मग्गो भव्याणं लद्धबुद्धीद्धणं / / टोका-"पूर्वमुद्दिष्टं तत्स्ववपरप्रत्ययपर्यायाश्रितं भिन्नसाध्यसाधनभावं व्यवहारनयमाश्रित्य प्ररूपितम् / न चैतद्विप्रतिषिद्धं निश्चयव्यवहारयोः साध्यसाधनभावत्वात सुवर्ण-सुवर्णपाषाणवत / अत एवाभयनयायत्ता पारमेश्वरी तीर्थप्रवर्तनेति // " ___ यह टीका उक्त गाथाकी टीका नहीं है और न हो सकती है, इसे गोड़ी भी समझबूझ तथा संस्कृतका जान रखनेवाला व्यक्ति समझ सकता है / तब ये महत्त्वकी असम्बद्ध पंक्तियां यहां कहांसे माई ? इस रहस्यको जानने के लिये पाटक जरूर उत्सुक होंगे प्रत: उसे नीचे प्रकट किया जाता है श्रीप्रमनचन्द्राचार्यने 'चरियं चरदि सगं सं' इस गाथा नं. 156 की टीकाके अनन्तर अगली गाथाकी प्रस्तावनाको स्पष्ट करनेके लिये “यत्त" शब्द से प्रारम्भ करके उक्त टीकांकित सब पंक्तियां दी है, तदनन्तर 'निश्चयमोक्षमागसाधनभावेन पूर्वोरिष्टव्यवहारमोक्षमार्गोऽयम्" इस प्रस्तावनावाक्यके + देखो,बम्बईकी वि० संवत् १९७२की छपी हुई उक्त प्रति. पृष्ठ 168,166 *बम्बईकी पूर्वोल्लखित प्रतिमें प्रथम चरणका रूप "सम्त नगारगजुत्त" दिया है और संस्कृत टीकाएँ भी उसीके अनुरूप पाई जाती है। Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश साय अगली गाथा नं० 160 दी है, और इस तरह उक्त पंक्तियोंके द्वारा पूर्वोहिष्ट-पूर्ववर्ती नवपदार्थाधिकारमें 'सम्मत्तं' प्रादि दो गाथामोंके द्वारा कहे हुए -~-व्यवहारमोक्षमार्गकी पर्यायदृष्टिको स्पष्ट करते हुए उसे सर्वथा निषिद्ध नहीं ठहराया है। बल्कि निश्चय-व्यवहारनयमें साध्य-साधन-भावको व्यक्त करते हुए दोनों नयोंके प्राश्रित पारमेश्वरी तीर्थप्रवर्तनाका होना स्थिर किया है। इससे उक्त पक्तियां दूसरी गाथाके साथ सम्बन्ध रखती है और वहीं पर सुसंगत है। सम्यक्त्वप्रकाशके विधाताने “यत्त" शब्दको तो उक्त गाथा 156 ( 167 ) की टीकाके अन्तमें रहने दिया है, जो उक्त पंक्तियोंके बिना वहां लड्रामा जान पड़ता है ! और उन पंक्तियोंको यों ही बीचमें घुसेड़ी हुई अपनी उक्त गाथा नं. 168 (106) की टीकाके रूपमें धर दिया है !! ऐसा करते हुए उसे यह समझ ही नहीं पड़ा कि इसमें पाए हुए "पूर्वमुद्दिष्टं" पदोंका सम्बन्ध पहलेके कोनमे कथनके साथ लगाया जायगा !! और न यह ही जान पड़ा कि इन पक्तियोंका इस गाथाकी टीका तथा विषयके साथ क्या वास्ता है !!! इस तरह यह स्पष्ट है कि प्रत्यकारको उद्धृत करनेकी भी कोई अच्छी तमोज नहीं थी पौर वह विषयको ठीक नही समझता था। (घ) पंचास्तिकायको उक्त गाथानों प्रादिको उद्धृत करने के बाद “इति पंचास्तिकायेषु" ( ! ) यह समाप्तिसूचक वाक्य दकर ग्रन्थमें "अथ समयसारे यदुक्तं तल्लिख्यते' इस प्रस्तावना अथवा प्रतिज्ञा-वाक्यके साथ समयसारकी 11 गाथाए न० 228 से 238 नक, मंस्कृतछाया और अमृतचन्द्राचार्यकी यात्मख्याति टीकाके माथ, उदधृत की गई है। ये गाया वे ही है जो रायचन्द्रजेन ग्रंथमालामें प्रकाशित समयसारमें क्रमशः नं० 206 से 236 तक पाई जाती है। प्रात्मख्यातिमें 224 से 227 तक चार गाथानोंको टीका एक साथ दी है और उसके बाद कलशरूपसे दो पद्य दिये है। सम्यक्त्वप्रकाशके लेखकने इनमेंसे प्रथम दो गाथानोंको तो उद्धृत ही नहीं किया, दूसरी दो गाथानोंको अलग अलग उद्धृत किया है, और ऐसा करते हुए गाथा नं० 228 ( 226 ) के नोचे वह सब टीका दे दी है जो 228, 226 ( 226, 227 ) दोनों गाथानोंकी थी ! सायमें "त्यक्त येन फल" नामका एक कलशपद्य भी दे दिया है और दूसरे "सम्यग्दृष्टय एव" नामके कलशपचको Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 667 म्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्द दूसरी गाथा नं०२२६ (२२७)को टीकाके रूपमें रख दिया है !! इस विडम्बनासे ग्रन्थकारकी महामूर्खता पाई जाती है और इस कहने में जरा भी संकोच नहीं होता कि वह कोई पागल-सा सनकी मनुष्य था, उसे अपने घरकी कुछ भी समझ-बूझ नहीं थी पोर न इस बातका ही पता था कि ग्रंथरचना किसे कहते है। इस तरह सम्यक् वप्रकाश ग्रंथ एक बहुत ही प्राधुनिक नया अप्रामाणिक ग्रन्थ है। उसमें पात्रकेसरी तथा विद्यानन्दको जो एक व्यक्ति प्रकट किया गया है वह यों ही सुना-मनाया प्रथवा किसी दन्तकथाके प्राधार पर प्रवनम्बित है / मोर इसलिये उसे रंचमात्र भी कोई महत्त्व नहीं दिया जा सकता और न किसी प्रमागा में पेश ही किया जासकता है। खेद है कि डाक्टर के० बी० पाठकने बिना जांच-पडतालके ही ऐसे प्राधुनिक,प्रप्रामाणिक तथा नगण्य ग्रन्थको प्रमारणमें पेश करके लोकमें भारी भ्रमका सर्जन किया है !! यह उनकी उस भारी असावपानीका ज्वलन्त दृष्टान्त है, जो उनके पदको शोभा नहीं देता / वास्तवमै पाठकमहाशयके जिस एक भ्रमने बहुतमे भ्रमोंको जन्म दिया-बहुतोंको भूलके चक्करमें डाला, जो उनकी अनेक भूलोंका माधार-स्तम्भ है और जिसने उनके प्रकलं. कादि-विषयक दूसरे भी कितने ही निर्णयोंको सदोष बनाया है वह उनका म्वामी पात्रकमरी पोर विद्यानन्दको, बिना किसी गहरे अनुमन्धानके, एक मान लेना है। _मुझे यह देखकर दुःख होता है कि प्राज डाक्टर माहब इस समागमे मौजूद नही है / यदि होते तो वजार अपने भ्रमका सशोधन कर डालते और अपने निर्णयको बदल देते / मैंने अपने पूर्वलेखकी कापी उनके पास भिजवादी थी। सम्भवत: वह उन्हें उनकी रमणावस्थामे मिली यो पोर इमोसे उन्हें उस पर अपने विचार प्रकट करने का प्रवमर नही मिन सका था। Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदम्बवंशीय राजाओंके तीन ताम्रपत्र इस लेख-द्वारा कदम्ब-राजामोंके तीन ताम्रपत्र पाठकोंके सामने रखे जाते है, जो कि ऐतिहासिकदृष्टिसे बहुत कुछ पुराने और बड़े महत्वके है। ये तीनों ताम्रपत्र, कुछ पर्सा हुप्रा. देवगिरि तालुका करजघी (जि.धारवाड़ )का तालाब खोदते समय मिले थे और इन्हें मिस्टर काशीनाथ त्रिम्बक तेलंग, एम० ए०, एलएल० बी० ने, रायल एशियाटिक सोसायटीको बम्बईशाखाके जनल नं० 34 की १२वीं जिल्दमें, अपने अनुसंधानोंके साथ प्रकाशित कराया था। इनमेस पहला पत्र (Plate ) समकोण तीन पत्रों ( Rectangular sheets) से, दूसरा चार पत्रोंसे और तीसरा तीन पत्रोंसे बना हमा है। प्रर्थात् ये तीनों दानपत्र, जिनमें जैनसंस्थानोंको दान दिया गया है, क्रमशः तावके तीन, चार भोर तीन पत्रोंपर खुदे हुए है। परन्तु प्रत्येक दानपत्रके पहले मोर अन्तिम पत्र. का बाहिरी भाग खाली है और भीतरी पत्र दोनों प्रोग्मे खुदे हुए है। इस तरह दानपत्रोंको पृष्ठसंख्या कमशः 4, 6 पोर 4 है / प्रत्येक दानपत्रके पत्रोंमें एक एक मामूली छल्ला ( Ring ) मुराबमें होकर पडा हुमा है जिसके द्वारा वे पत्र नत्थी किये गये हैं। शुरूनोंपर मुहर मालूम होती है, परन्तु वह पब मुशकिलसे पढ़ी जाती है। उक्त जनलमें इन तीनों दानपत्रोंके प्रत्येक पृष्ठका फोटू भी दिया है और उस परमे ये पत्र गुप्त-राजाओंकी लिपिमें लिखे हुए मालूम होते है। मिस्टर काशीनाथजी, अपने अनुसंधानविषयक नोटसमें, लिखते है कि "कृष्णवर्मा, जिसका उल्लेख यहाँ तीसरे दानपत्रमें है, वही कृष्णवर्मा मासूम होता है जिसका उल्लेख चेरा ( chera) के वानपत्रों में पाया जाता है। क्योंकि उन पत्रों में जिस प्रकार कृष्णवर्माको महाराजा पोर अश्वमेधका कर्ता लिखा Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदम्बवंशीय राजाओंके तीन ताम्रपत्र 666 है उसी प्रकार उक्त तीसरे दानपत्रमें भी लिखा है / चेरा दानपत्रोंके कृष्णवर्माका समय ईसवी सन् 466 के लगभग निश्चित है। इसलिये यह तीसरा दानपत्र मी उसी समयके लगभगका होना चाहिये / शेष दोनों दानपत्र इससे पहलेके हैया पीछेके, यह पूरी तोरसे नहीं कहा जासकता / संभवत: इनका समय ईसाकी पांचवीं शताब्दी के लगभग है।" इसके सिवाय मापने अपने अनुसंधानके अन्तमें ये पंक्तियां दी हैं: Wc may now sum up the result of our investigations. We find, then, that there were two branches of the Kadamba family, one of which may be described as Goa branch, and the other as the Vanvasi branch. It is just possible that there was some connection between the two branches, but we have not at present the materials for settling the question. We find, too, that the princes mentioned in our plates bclong to thc Vanvasi branch, and that there is not sufficient ground for refering them to a different division from the Vanvasi Kadainbas enumerated in Sir W. Elliot's paper. We find, further, that these princes appear from their recorded granis to have been independent sovercigns, and not under subordination to the Chalukya kings, as thcir successors were, and that they flourished, in all probability, before the fifth century after Christ. Lastly we find that there is great reason for belicving that these carly Kadambas were of the Jain persuation, as we find some of the latter Kadambas to have been from their recorded grants. इन पंक्तियों के द्वारा, काशीनापजोने अपने अनुसंधानका नतीजा निकाला है, भोर बह इस प्रकार है: Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 670 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश 'हमें ऐसा निश्चित हुपा है कि कदम्बवंशकी दो शाखाएँ थीं, जिनमें से एकको 'गोरा' शाखा और दूसरीको 'वनवासी शाखाके तौरपर निरूपण किया जा सकता है। यह बिल्कुल सम्भव है कि इन दोनों शाखामोंके मायमें कुछ सम्बन्ध था, परन्तु इस समय उस विषयका निर्णय करने के लिये हमारे पास सामग्री नहीं है। हमारा यह भी निश्चय है कि जिन राजापोंका हमारे इन पत्रोंमें उल्लेख है वे 'वनवासी' शाखाके थे, और यह कि उन्हें सर डबल्यू एलियटके पत्रमें गिनाये गये वनवासी कदम्बोंसे एक भिन्न विभागमें स्थापित करने की कोई काफ़ी वजह नहीं है / इसके सिवाय, हमारा निर्णय यह है कि ये राजा अपने पत्रारूढ दानोंसे स्वतंत्र सम्राट मालूम होते है, न कि चालुक्य राजापोंके मातहत (प्रधिकाराधीन), जैसा कि उनके उत्तराधिकारी थे। और यह कि वे, सम्पूर्ण सम्मावनामोंको ध्यानमें लेने पर भी ईसाके बाद पांचवीं शताब्दीमे पहले हुए जान पड़ते हैं / अन्त में हमारी यह तजवीज है कि यहां इस बातके विश्वास करनेकी बहत बड़ी वजह है कि ये प्राचीन कदम्ब जनमतानुयायी थे, जैसा कि हम कुछ बादके कदम्बोंको उनके दानपत्रों परसे पाते हैं।' इन तीनों दानपत्रोंको बहुतमी शब्दरचना परस्पर कुछ ऐमो मिलती-जुलती है कि जिससे एक दूसरेको देखकर लिखा गया है, यह कहनों कुछ भी संकोर नहीं होता / परन्तु सबसे पहले कोनसा पत्र लिखा गया है, यह प्रभी निश्चित नहीं हो सका / सम्भव है कि ये पत्र इमी क्रममे निम्बे गये हों जिस क्रमसे इनपर प्रकाशनके समय नम्बर डाले गये है। तीनो पत्रोंमें 'स्वामिमहासन' और 'मातृगण' का उल्लेख पाया जाता है जिनके पनुध्यानपूर्वक कदम्ब-राजा भिपिक्त होते थे। जान पड़ता है 'स्वामिमहामेन' कदम्ब वंशके कोई कुलगुरु थे। इमीसे राज्याभिषेकादिकके समयमें उनका बराबर स्मरण किया जाता था। परन्तु स्वामिमहामेन कब हुए हैं और उनका विशेष परिचय क्या है, ये सब बातें अभी अंधकाराच्छन्न है / मातृगणसे अभिप्राय उन स्वर्गीय मातामोंके समूहका मालूम होता है जिनकी संख्या कुछ लोग सात, कुछ पाठक और कुछ यथा:-"ब्राह्मी माहेश्वरी चैव कोमारी वैष्णवी था / माहेंद्री चैव वाराही चामुग सप्तमातरः . . ... Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदम्बवंशीय राजाओंके तीन ताम्रपत्र 601 इससे भी अधिक मानते है / जान पड़ता है कदम्बवंशके राजघराने में इन देवियोंकी भी बहुत बड़ी मान्यता थी। जिन कदम्ब राजाओंकी मोरसे ये दानपत्र लिखे गये है वे सभी 'मानव्यस' गोत्रके थे, ऐसा तीनों पत्रोंमें उल्लेख है। साथ ही, पहले दो पत्रों में उन्हें हारितीपुत्र भी लिखा है। परन्तु 'हारिती'इन कदम्बवंशी राजाओंकी साक्षात् माता मालूम नहीं होती, बल्कि उनके घरानेकी कोई प्रसिद्ध मोर पूजनीया स्त्री जान पड़ती है जिसके पुत्रके तौरपर ये सभी कदम्ब पुकारे जाते थे, जैसा कि प्राजकल बुजे के सेठोंको 'रानीवाले' कहते है। अब में इस समुच्चय कथनके अनन्तर प्रत्येक दानपत्रका कुछ विशद परिचय अथवा सारांश देकर मूलपत्रोंको ज्योंका त्यों उद्धृत करता हूँ। पत्र नम्बर १--यह पत्र 'श्रीशांतिवर्मा' के पुत्र महाराज श्री 'मृगेश्वरवर्मा' की तरफसे लिखा है, जिसे पत्रमे काकुस्था (स्था )न्वयी प्रकट किया है, और इससे ये कदम्बराजा, भारतके सुप्रसिद्ध वंशोंकी दृष्टिम, सूर्यवंशी अथवा इक्ष्वाकुवंशी थे, ऐमा मालूम होता है। यह पत्र उक्त मृगेश्वरवर्माके राज्यके तीसरे वर्ष, पौष - ( ? ) नामक संवत्सर मे, कार्तिक कृष्णा दशमीको, जब कि उत्तगभाद्रपद नक्षत्र था, लिखा गया है / इसके द्वारा अभिषेक, उपलेपन, पूजन, भग्नमस्कार ( मरम्मत) और महिमा (प्रभावना ) इन कामोंके लिये कुछ भूमि, जिसका परिमाण दिया है, अरहंत देवके निमित्त दान की गई है। भूमिकी तफमीलमे एक निवनभूमि वालिस पुष्पोंके लिये निर्दिष्ट की गई है / ग्रामका नाम कुछ स्पष्ट नहीं हुपा, 'वहत्परलूरे ऐसा पाठ पढ़ा जाता है / पन्तमें लिखा है कि जो कोई लोभ या मधर्म मे इस दानका अपहरण करेगा वह पंच महा पापोंसे युक्त होगा मोर जो इमको रक्षा करेगा वह इम दानके पुण्यफलका भागी होगा। साथ ही इसके ममर्थन में चार श्लोक भी 'उक्त च' रूपसे दिये "माझी माहेश्वरी बडी वाराही बंधावी नथा। कौमारी चैव चामडा चचिकेत्यष्टमातरः // देखो, वामन शिवराम पाटेको 'संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी'। - * साठ संवत्सरों में इस नामका कोई संवत्सर नहीं है। संभव है कि यह किसीका पर्याय नाम हो या उस समय दूसरे नामोंके भी संवत्सर प्रचलित हों। Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 672 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश है. जिनमें से एक श्लोकमें यह बतलाया है कि जो अपनी का दूसरेकी सान की हुई भूमिका अपहरण करता है वह साठ हजार वर्षतक नरकमें पकाया जाता है, मर्थात कष्ट भोगता है। और दूसरेमें यह सूचित किया है कि स्वयं दान देना मासान है परन्तु मन्यके दानार्थका पालन करना कठिन है, अत: दानकी अपेक्षा दानका अनुपालन श्रेष्ठ है। इन 'उक्त च' श्लोकोंके बाद इस पत्र लेखकका नाम "दानकीर्ति भोजक" दिया है और उसे परम धार्मिक प्रकट किया है। इस पत्रके शुरूमें महंतकी स्तुतिविषयक एक सुन्दर पर भी दिया हमा है जो दूसरे पत्रोंके शुरूमें नहीं है, परन्तु तीसरे पत्रके बिल्कुल पन्तमे जरासे परिवर्तन के साथ जरूर पाया जाता है। पत्र नं. २-यह दानपत्र कदम्बोंके धर्म महाराज श्रीविजयशिवमृगेश वर्मा' की तरफमे लिखा गया है और इसके लेखक है 'नरवर' नामके मना. पति / लिखे जाने का समय चतुर्थ संवत्सर वर्षाः (ऋतु) का पाठवा पक्ष मौर पूर्णमासी तिथि है / इस पत्रके द्वारा 'कालवङ्ग' नामके ग्रामको तीन भागोमे विभाजित करके इस तरह पर दान दिया है कि पहला एक भाग तो पहंच्छाला परम पुलस्याननिवासी भगवान् महंनमहाजिनेन्द्र देवनाके लिये, दुमरा भाग प्रहंत्रोक्त सदर्माचरणमें तत्पर श्वेताम्बा महाश्रमणसंघके उपभोग के लिये और तीसरा भाग निग्रन्थ अर्थात दिगम्बर महाश्रमणमंधक उपभोगक लिये। साथ ही, देवभागके सम्बन्ध यह विधान किया है कि वह धान्य, देवपूजा, बलि, चरु, देवकर्म, कर, भग्नक्रिया प्रवर्तनादि अर्थोपभोग के लिये है और यह सब न्यायलब्ध है / अन्त में इस दानके अभिरक्षकको वही दान के फलका भागी और विनाशकको पंच महापापोंसे युक्त होना बतलाया है. जैसा कि नं. 1 के पत्रमें उल्लेख किया गया है। परन्तु यही उन चार उक्त' श्लोकोंमेंसे सिर्फ पहलेका एक इलोक दिया है जिसका यह अर्थ होता है किवीको सगरादि बहुनसे राजामोंने मांगा है, जिम समय जिस जिसको भूमि होती है उससमय उसी उसीको फल लगता है।' इस पत्र में चतुर्थ सवत्सरके उल्लेबसे प्यपि ऐसा भ्रम होता है कि यह दानपत्र भी उन्हीं मृगेश्वरवर्माका है जिनका उल्लेख पहले मम्बरके पत्रमें है अर्थात् जिन्होंने पत्र में विवाया था और को उनके राज्यके मीसरे वर्षमें मिला गया था, परन्तु एकको 'मीमृगेश्वर Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --- -- --harmir... कदम्बवंशीय राजाओंके तीन ताम्रपत्र वर्मा' और 'श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा' इन दोनों नामोंमें परस्पर बहुत बड़ा अन्तर है। दूसरे, पहले नम्बरके पत्रमें 'मात्मनः राज्यस्य तृतीये वर्षे पौष संवत्सरे' इत्यादि पदोंके द्वारा जैसा स्पष्ट उल्लेख किया गया है वैसा इस पत्र में नहीं है, इस पत्रके समय-निर्देशका ढंग बिल्कुल उससे विलक्षण है / 'संवत्सरः चतुषः, वर्षापक्ष: अष्टमः, तिथि: पौर्णमासी,' इस कथनमें 'चतुर्थ' संभवतः 60 सवत्सरोंमेसे चौथे नम्बरके 'प्रमोद' नामक संवत्सरका द्योतक मालूम होता है। तीसरे, पत्र नं. 1 में दानारने बड़े गौरवके साथ अनेक विशेषगोंसे युक्त जो अपने 'काकुत्स्थान्वय' का उल्लेख किया है और साथ ही अपने पिता का नाम भी दिया है, वे दोनों बाने इस पत्र में नही है जिनके, एक ही दातार होने की हालतमें, छोड़े जाने की कोई वजह मालूम नहीं होती। चौथे, दम पत्र प्रहन्तकी स्तुतिविषयक मगलाचरण भी नहीं है, जमा कि प्रथम पत्रमें पाया जाता है। इन सब बानास ये दोनों पत्र एक ही राजाके पत्र मालूम नहीं होते / इस पत्र न 2 मे विजयशिवमृगेशवमकि जो विशेषण दिये है उनसे यह भी पाया जाता है कि 'यह राजा उभय-लोककी दृष्टि से प्रिय और हितकर ऐसे भनेक शास्त्रोकं अर्थ नया तत्त्वविनानके विवेचन में बड़ा ही उदारमति या, नविनय में कुशल था और ऊचे दर्जे के बुद्धि, धैर्य, वीर्य तथा त्यागसे युक्त था / इमने व्यायामकी भूमियोंमे यथावत् परिश्रम किया था, अपने भुजबल तथा पराक्रममे किसी बड़े भारी मंग्राम में विपुल ऐश्वर्य की प्राप्ति की थी, यह देव, द्विज, गुरु पोर साधुजनोंको निन्य ही गो, भूमि, हिरण्य, रायन (शय्या). पाच्छादन (वस्त्र) अन्नादि अनेक प्रकारका दान दिया करता था; इसका महाविमा विद्वानो, महदो पौर म्व जनोंक द्वारा सामान्य रूपसे उपभुक्त होता था; पोर यह पादिकालके राजा ( संभवतः भरतचक्रवर्ती ) के वृत्तानुसारी धर्मका महाराजा था।' दिगम्बर मोर वेताम्बर दोनों ही मंप्रदायोंके जैनमाघुपोंको यह राजा ममानदृष्टिमे देखता था. यह बात इस दानपत्रमे बहुत ही स्पष्ट है। पत्र न ३-यह दानपत्र काम्बोंके धर्ममहाराज श्रीकृष्णवर्माके प्रियपत्र 'देवया ' नामके युवराजकी तरफमे लिखा गया है और इसके द्वारा 'विपवेत' के ऊपरका कुम क्षेत्र प्रहन्त भगवान्के चैत्यालयको मरम्मत, शोर महिमा Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 674 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश के लिये 'यापनीय' संघको दान किया गया है / पत्रके अन्तमें इस दानको अपहरण करनेवालेके वास्ते वही कसम दो है अथवा वही विधान किया है जैसा कि पहले नम्बरके पत्रसबंधमें ऊपर बतलाया गया है। 'उक्त' पद्य भी वे ही चारों कुछ क्रमभंगके साथ दिये हुए हैं। और उनके बाद दो पक्षों में इस दानका फिरसे खुलासा दिया है, जिसमें देववर्माको रणप्रिय, दयामृतमुखास्वादनसे पवित्र, पुण्य गुणोंका इच्छुक और एक वीर प्रकट किया है। अन्तमें महन्तकी स्तुतिविषयक प्रायः वही पद्य है जो पहले नम्बरके पत्रके शुरूमें दिया है। इस पत्र में श्रीकृष्ण वर्माको 'मश्वमेध यज्ञका कर्ता और शरदऋतुके निर्मल प्राकाशमें उदित हए चन्द्रमाके समान एक छत्रका धारक. अर्थात् एक छत्र पृथ्वीका राज्य करनेवाला लिखा है। मूल (Text) सिद्धम् जयन्य हस्त्रिलोकेग: सर्वभूतहिते रतः गगारिहरोनन्नोनन्तज्ञानहगीश्वरः स्वस्ति विजयवैजनत्या स्वामिमहासेनमातृगणानुद्धचाताभिपिकानां मानव्यसगोत्राण हारितिपुत्रागां अङ्गिरसा प्रतिकृतम्बाध्यायचर्चकाना सद्धम्मसदम्यानां कदम्बानां अनेकजन्मान्तरोपार्जिनविपुलपुण्यम्कंधः आहबार्जितपरमरुचिरहढसत्वः : विशुद्धान्वयप्रकल्यानेकपुरुषपरम्परागते जगप्रदीपभूते महन्त्यदितादित काकुस्थान्वये श्रीशान्तिवम्मतनयः श्रोमृगशवरवा प्रात्मनः राज्यस्य तृतीय वर्षे पोषसंवत्सरे कार्तिकमासे बहुल पक्षे दशम्यां तिथौ उत्तराभाद्रपद नक्षत्र वृहत्परलूरे (?) त्रिदशमुकुट परिधृष्टचारचरणेभ्यः ॐ परमाद वेभ्यः संमार्जनापनेपनाभ्यच्चनभग्नसंस्कारमहिमायं प्रामापरदिग्विमागसीमाभ्यन्तरे राजमानेन चत्वारिंशनि + मूलमें ऐसा ही है, यह 'वैजयन्त्या' होना चाहिये। * इनपत्रोंमें यह एक खास बात है कि जहाँ विस्वाक्षरोंका इतना अधिक प्रयोग किया गया है वहां 'सत्व' और 'तत्व' में 'त' प्रक्षरको दित्व नहीं किया गया है। मूलमें ऐसा ही है। Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदम्ब-बंशीय राजाओंके तीन ताम्रपत्र वर्त्तनं कृष्णभूमिक्षेत्रं चत्वारिक्षेत्र-भिवत्तनं च चैत्यालयस्य बहिः / एक निवर्तनं पुष्पार्थ देवकुलस्याङ्गनश्च एकनिवर्तनमेव सर्वपरिहारयुक्त दत्तवान् महाराजः लोभादधर्माद्वा योस्याभिहर्ता स पचमहापातकसंयुक्तोभवति योस्याभिरक्षिता स तत्पुण्यफलभाग्भवति उक्तश्च बहुभिर्वसुधा भुक्ता राजमिस्सगरादिभिःयस्य यस्य यदा भूमिस्तस्यतस्य तदा फलं. स्वदत्ता परदत्तां वा यो हरेत वसुन्धरां षष्ठिवर्षसहस्राणि नरके पच्यते तु स: अद्विदल त्रिभिभुक्तं सद्भिश्च परिपालितं एतानि न निवर्तते पूर्वराजकृतानि च स्वन्दातु सुमहच्छक्यं दुःस्त्रमन्यार्थपालनं दानं वा पालनं वति दानाच्छे योनुपालनं परमधार्मिकेण दामकीर्तिभाजकन लिखितयं पट्टिका इति सिद्धि सिद्धम् // विजयवंजयन्याम् स्वामिमहासनमातृगणानुद्धचाताभिपितम्य मानव्यसगोत्रस्य हारितोपुत्रस्य प्रतिकृतचर्चापारस्य विबुधप्रतिविम्बानां कदम्यानां धर्ममहाराजस्य श्रीविजयशिवमृगेशवर्मणः वि. जगायुरारोग्यश्वयंप्रवर्द्धनकर: संवत्सरः चतुर्थः वर्षापक्षः अष्टम तिथि: पोरणमामी अनयानुया अनेकजन्मान्तरोपाजिनविपुलपुए यस्कंधः सुविशुद्धपितृमातृवंशः उभयलोकप्रियहितकरानेकशास्त्राय॑तत्वविज्ञानविवरच( ? )ने विनिविविशालोदारमति: हस्त्यश्वारोहणप्रहरणादिषु व्यायामिकीपु भूमिपु गथावत्कृत श्रम: दक्षो दक्षिणः नयविनयकुशलः अनेकाहबाजितपरमरहसन्यः उदात्तबुद्धिधैर्व्यवीयत्यागसम्पन्न: सुमहति समरमाटे स्वभुमवलपराक्रमावाप्रविपुलेश्वर्यः सम्यकप्रजापालनपरः स्वजनकुमुदवनप्रबोधनशशा: देवद्विजगुरुसाधुननेभ्यः गोभूमिहिरण्यरायनाकछादनानादि अनेकनिधदाननित्यः विद्वन्सुहृत्स्वजनसामान्योप : व्याकरणकी दृष्टिस यह वाक्य बिल्कुल शुद्ध मालूम नहीं होता। * यह पद मिस्टर फलोटके विमानेखन. 5 में मनुका ठहराया गया है। पाम तौरपर बह ग्यासका माना जाता है। Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 676 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश भुज्यमानमहाविभवः आदिकालराजवृत्तानुसारी धर्ममहाराजः कद. म्बानां श्रीविजयशिवमृगेशवा कालवजमाम त्रिधा विभज्य दत्तवान अत्र पूर्वमहच्छालापरमपुष्कलस्थाननिवासिभ्यः भगवदहन्महाजिनेन्द्रदेवताभ्य एकोभागः द्वितीयोहत्प्रोक्तसद्धर्मकरणापरम्यश्वेतपटमहाश्रमणसंघोपभोगाय तृतीयो निर्ग्रन्थमहाश्रमणसंघापभोगायेति पत्र देवभाग धान्यदेवपूजाबलिचरुदेवकम्मकरभग्नक्रियाप्रवत्तनाचार्योपभोगाय एतदेवं भ्यायलब्ध देवभोगसमयेन योभिरक्षति सतत्फलभाग्भवति यो विनाशयेत्स पंचमहापातकसंयुक्तो भवति उक्तञ्च बहुभिर्वसुधाभुक्ता राजभिस्सगरादिभिः यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदाफलं नरवरसेनापतिना लिखिता विजयत्रिपर्वते स्वामिमहासेनमातगणानुद्ध याताभिषितम्य मानव्यसगोत्रस्य प्रतिकृतम्याध्यायचा * पारगम्य आदिकालराजर्षियिम्बानां आश्रितजनाम्बानां कदम्यानां धर्ममहाराजस्य अश्वमेधयाजिनः समराजितविपुलैश्वर्य्यस्य मामन्तराजविशेषरत्नमुनागजिनाकम्पदायानु. भूतस्य (?) शरदमलनमम्युदितशशिमदशैकातपत्रय धर्ममहाराजस्य श्रीकृष्णवर्मण: वियतनयो देववर्मायुवराज: स्वपुण्यफलाभिकांक्षया विलोकभूतहितदेशिनः धर्मप्रवर्तनम्य अहंतः भगवतः चैत्याल यम्य भग्नसंस्कारार्चनमहिमार्थ यापनीयसले भ्यः सिद्धकंदारे राजमानेन द्वादश निवर्तनानि क्षेत्रं दत्तवान् योस्य अपहर्ता स पंचमहापातकसयुक्तो भवति योस्यामिरक्षिता (!) स पुण्यफलमश्नुते वक्त च बहुभिर्वसुधा भुक्ता यह बात एक बार सवंदाके लिये बतला देनेकी है कि इन प्रतिलिपियों में विसर्ग उस चिह्नके स्थानमें लिखा गया है जो कंट्यवरों [sulturals] से पहले विसर्गकी जगह प्रयुक्त हुमा है। * मूलमें ऐसा ही है। शुद्ध पाठ 'चर्चा' होना चाहिये। * यह प्रक्षर 'स' मूममें नहीं है, जो निःसन्देह खोदनेसे रह गया है। मूलमें यह 'रविता' सा मालूम होता है। Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदम्बवंशीय राजाओंके तीन ताम्रपत्र राजभिस्सगरादिमिः यस्य यस्य यदाभूमिस्तस्य तस्य तथा (?) फलं अद्वित्तं त्रिमियुक्तं सद्रिश्च परिपालितं एतानि न निवर्तन्ते पूर्वराजकृतानि च स्वं दातु सुमहच्छक्यं दु (?):ख (म) न्यायपालनं दानं वा पालन वेति दानान्छ योनुपालनं स्वदत्तां परदत्तां वा यो हरेत वसुन्धरां षष्ठिवर्षसहस्राणि नरके पच्यते तु सः श्रीकृष्णनृपपुत्रेणकदम्बकुलकेतुना रणप्रियेण देवेन दत्ता भू ( ? ) मिस्त्रिपवते दयामृतसुखास्वादपूतपुण्यगुणेप्सुना देववर्मकवीरेण दना जैनाय भूरियं जयत्यहस्त्रिलोकेशः सर्वभूतहितकरः रागाधरिहरोनन्नानन्तज्ञानहगीश्वरः ___ इन तीनों दानपत्रापरसे निम्नलिखित ऐतिहासिक व्यक्तियोंका पता चलता है: 1. स्वामिमहासन-गुरु / 2. हारिती--मुख्य पोर प्रसिद्ध स्त्री / 3. शान्तिवर्मा-राजा। 4. मृगेश्वरवर्मा-राजा। 5. विजयशिवमृगेशवर्मा-महाराजा / 6. कृष्णवर्मा-महाराजा / 7. टेववर्मा-युवराज / 8. दामकीतिभोजकः / 6. नरवर - मेनापति / इन व्यक्तियोंके सम्बन्धमें यदि किमी विद्वान् भाईको. दूसरे पत्रों, शिलालेखों अथवा ग्रन्थप्रशस्तियों प्रादि परमे, कुछ विशेष हाल मालूम हो तो वे कृपाकर उसमे मूचित करनेका कर उठाये, जिसमे एक कमबद्ध जैन इतिहास तय्यार करने में कुछ सहायता मिले। Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 आर्य और म्लेच्छ श्रीगृद्धपिच्छाचार्य उमास्वातिने, अपने तत्त्वार्थाधिगममूत्र ग्रन्थमें, सब मनु-गोंको दो भागोंमें बांटा है-एक 'मार्य' और दूसरा 'म्लेच्छ'; जैसा कि उनके निम्न दो सूत्रोंसे प्रकट है:"प्राड मानुषोत्तरान्मनुष्याः / " "आर्या म्लेच्छाश्च / 103 / / परन्तु 'पाय' किसे कहते हैं और 'म्लेच्छ' किसे ?-दोनोंका पथक पपक क्या लक्षण है ? ऐसा कुछ भी नहीं बतलाया / मूलमूत्र इस विषयमें मौन है। हाँ, श्वेताम्बरोंके यहाँ तत्त्वार्थमूत्र पर एक भाप्य है,जिसे स्वोपडभाष्य कहा जाता है-अर्थात् स्वयं उमास्वातिकृत बतलाया जाता है। यद्यपि उस भाष्यका म्बोपसमाष्य होना अभी बहुत कुछ विवादापन है, फिर भी यदि थोड़ी देरके लिएविषयको पागे सरकानेके वास्ते-यह मान लिया जाय कि वह उमास्वाति-कृत ही है, तब देखना चाहिये कि उसमें भी 'पाय' और 'म्लेच्छ का कोई स्पष्ट लक्षण दिया है या कि नही / देखनसे मालूम होता है कि दोनोंको पूरी और ठीक पहचान बतलानेवाला वैसा कोई लभण उसमें भी नहीं है, मात्र भेदपरक कुछ स्वरूप जरूर दिया हमा है पोर वह सब इस प्रकार है:___ "द्विविधा मनुष्या भवन्ति / भार्या म्लिशश्च / तत्रार्या षड्विधाः क्षेत्राय:जात्यार्या कुलार्या:शिल्पार्याः कर्माया:भापार्या इति / तत्र क्षेत्रार्याः श्वेताम्बरोंके यहाँ 'म्लेच्छाश्च' के स्थानपर 'लिशदव' पाठ भी उपलब होता है, जिससे कोई अर्थ भेद नहीं होता। Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 676 आर्य और म्लेच्छ पञ्चदशसु कर्मभूमिषु जाताः / तद्यथा / भरतेष्वर्धषड्विंशतिषु जमपदेषु जाताः शेषेषु च चक्रवर्तिविजयेषु / जात्यार्या इक्ष्वाकवो विदेहा हरयोऽम्बष्ठाः ज्ञाताः कुरवा वुवुनाला उग्रा मांगा राजन्या इत्येवमादयः / कुलार्याः कुलकराश्चक्रवर्तिनी बलदेवा वासुदेवा ये चान्ये मातृतीयादापछामादासतमाद्वा कुलकरेभ्यो वा विशुद्धान्वयप्रकृतयः / कार्या यमनयाजनाध्ययनाध्यापनप्रयोगकृषिलिपि-वाणिज्यगोनिपोषणवृत्तयः / शिल्पार्यास्तन्तुवायकुलालनापिततुनवारदेवटादयोऽल्पसायद्या अगर्हिताजीयाः / भापार्या नाम ये शिष्टभाषानियतवर्ण लोक-रूढस्पष्टशब्दं पञ्चविधानामप्यार्याणां संव्यवहार भाषन्ते / ___ अतो विपरीता मिलशः / त गया / हिमवतश्चतमप विदिक्षु त्रीणियोजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्म चतमणां मनुष्यविजातीनां चत्त्वारोऽन्तरद्वीपा भवन्ति त्रियोजनशतविष्कम्भायामा / तद्यथा / एकोलकाणामाभाषकाणां लाङ्गलिकानां वैषाणिकानामिति / चत्वारियोजनशतान्यव गाह्य चतुर्योजनशतायामविष्कम्भा एवान्तरद्वीपाः / तदाथा। हयकर्णानां गजकर्णानां गोकर्णानां शष्कुलोकनामिति / पञ्चशतान्यवगाह्य पञ्च. योजनशतायामविष्कम्मा एवान्तरद्वीपाः / तगथा / गजमुखाना व्याघ्रमुखानामादर्शमुखाना गोमुखानामिति / षड्योजनशतान्यवगाह्य तावदायामविष्कम्मा एवान्तरद्वीपाः / तद्यथा। अश्वमुखानां हस्तिमुखाना सिंहमुखानां व्याप्रमुखानामिति / सप्रयोजनशतान्यबगाह्म तावदायामयिकम्मा एवान्तरद्वीपाः / तगया / पश्वकर्णसिंहकर्णहस्तिकर्णकर्णप्रापरणनामानः / अष्टो योजनशतान्यवगाह्माष्टयोजनशतायामविष्कम्भा एवान्तरतीपाः / यथा / उल्कामुखवियुजिम्हमेषमुलविद्युहन्तनामानः।। नवयोगनरावायवगाहा नवयोजनवायामविष्कम्भा एकातरखी मक Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 680 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश न्ति / तद्यथा। घनदन्तगूढदन्तविशिष्टदन्तशुद्धदन्तनामानः / / एकोहकाणामेकोरुकद्वीपः / एवं शेषाणामपि स्वनामभिस्तुल्यनामानो वेदितव्याः / / शिखरिणोऽप्येवमेवेत्येवं पटपञ्चाशदिति // " ___ इस भाप्यमें मनुष्योंके प्रार्य और म्लेच्छ ऐसे दो भेद करके मार्योके क्षेत्रादिको दृष्टिसे छह भेद किए है -प्रर्थात् पंद्रह कर्मभूमियों ( 5 भरत, 5 ऐरावत मोर 5 विदेहक्षेत्रों) मे उत्पन्न होनेवालोंको 'क्षेत्रायं; इक्ष्वाकु, विदेह, हरि, अम्बष्ट. ज्ञात, कुरु, बुनाल, उग्र, भोग, राजन्य इत्यादि वंशवालों को 'जात्यार्य ; कुलकर-चक्रवति-बलदेव-वासुदेवोंको तथा तीसरे पांचवें प्रथवा सातवें कुलकरसे प्रारम्भ कर के कुलकरोंसे उत्पन्न होनेवाले दूसरे भी विशुटान्वय-प्रकृतिवालोंको 'कुलायं'; यजन, याजन, मध्ययन, प्रध्यापन, प्रयोग, कृषि, लिपि, वाणिज्य और योनिपोषणमे माजीविका करनेवालोको 'कर्माय'; अल्पसावद्यकर्म तथा अनिन्दित माजीविका करने वाले बुनकरों. कुम्हारों, नाइयों, दजियो प्रोर देवटों ( artisans = बढई प्रादि दूसरे कारीगरों) को शिल्पकार्य: पौर शिष्ट पुरुपोंकी भाषामोंके नियनवरोका, लोकरून स्पष्ट शब्दोंका नया उक्त क्षेत्रादि पंच प्रकार के मार्योके मध्यवहारका भले प्रकार उच्चारण भाषण करनेवालोंको 'भाषायं' बतलाया है। साथ ही, क्षेत्रायंका कुछ स्पष्टीकरण करते हुए उदाहरणरूपमे यह भी बतलाया है कि भरतक्षेत्रोंके साईपचीस मानें पच्चीस जनपदोंमें और शंप जनपदोमेसे उन जनपदोंमें जहाँ तक चक्रवर्तीकी विजय पहुंचती है, उत्पन्न होनेवालोंको क्षेत्राम' समझता चाहिए / भोर इससे यह कथन ऐरावत तथा विदेहक्षेत्रों के साथ भी लागू होता है-१५ कर्मभूमियोंमें उनका भी प्रहरण है, उनके भी 251, 25 / / प्रायंजनपदों और शेष म्लेच्छक्षेत्रोंके उन जनपदोमें उत्पन्न होनेवालोंको क्षेत्राय' समझना चाहिए, यहाँ तक चक्रवर्तीकी विजय पहचती है। ___ इस तरह मायोका स्वरूप देकर, इससे विपरीत लक्षणवाने सब मनुष्योको 'म्लेच्छ' बतलाया है और उदाहरणमें अन्तरद्वीपज मनुष्योंका कुछ विस्तार. के साथ उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट है कि जो लोग उन दूरवर्ती कुखबचं. बुचे प्रदेशोंमें रहते हैं जहाँ चकतर्तीकी विनय नहीं पहुंच पाती अथवा पती Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बार्य और म्लेच्छ 681 की सेना विजयके लिए नहीं जाती है तथा जिनमें जात्यार्य, कुलायं, कर्मार्य, शिल्पयंपोर भाषार्यके भी कोई लक्षण नहीं है वे ही सब 'म्लेच्छ' है। ___ भाष्यविनिर्दिष्ट इस लक्षणमे, यद्यपि, प्राजकलकी जानी हुई पथ्वीके सभी मनुष्य क्षेत्रादि किसी-न-किसी दृष्टि से 'माय' ही ठहरते है-गक-यवनादि भी म्लेच्छ नहीं रहते--परन्तु माथ ही भोगभूमिया-हैमवत मादि प्रकर्मभूमिक्षेत्रोंमें उत्पन्न होनेवाले-मनुष्य 'म्लेच्छ' हो जाते है; क्योंकि उनमें उक्त छह प्रकारके पार्योका कोई लक्षण घटित नहीं होता। इसीमे श्वे० विद्वान पं० सुखलालजीने मो. तस्वार्थमूत्रकी अपनी गुजराती टीकामें, म्लेच्छके उक्त लक्षण पर निम्न फुटनोट देते हुए उन्हें 'म्लेच्छ ही लिखा है "प्रा व्याख्या प्रमाणे हैमवत प्रादि त्रीश भोगभूमिप्रोमां अर्थात् प्रकर्म भूमिप्रोमां रहनारा म्लेच्छो ज छ / " परावणा (प्रज्ञापना) आदि श्वेताम्बरीय प्रागम-सिद्धान्त-ग्रन्थोंमें मनुष्यके सम्मृच्छिम और गर्भव्युत्कान्तिक ऐसे दो भेद करके गर्भव्युत्क्रान्तिकके तीन भेद किये हैकमभमक. प्रकमभमक, अन्तरद्वीपज और इस तरह मनुष्योंके मुख्य चार भेद बतलाए हैं। इन चारों भेदोंका समावेश प्राय और म्लेच्छ नामके उक्त दोनों भेदों में होना चाहिये था क्योंकि सब मनुष्यों को इन दो मेदोंमें गंटा गया है। परन्तु उक्त स्वरूपकयनपरमे सम्मूच्छिम मनुष्योंको-जो कि अंगुलके असंख्यातवें भाग अवगाहनाके धारक, प्रमंजी, अपर्याप्तक प्रोर मन्तमुहनको प्रायुवाने होते है-न नो 'पाय' ही कह सकते है पोर न म्लेच्छ ही; क्योंकि क्षेत्रकी दृष्टिसे यदि वे मायं क्षेत्रवति-मनुष्यों के मल-मूत्रादिक प्रशुचित स्थानोमें उत्पन्न होते है तो म्लेच्छ क्षेत्रति-मनुष्योके मल-मूत्रादिकमें भी उत्पन्न होते है और इसी तरह प्रकर्मभमक तण अन्तरद्वीपज मनुष्योंके मल-मूत्रादिकमें भी वे उत्पन्न होते है / - मणुस्सा दुबिहा पणता तं जहा-समुच्छिममरणुस्सा य / ...." गम्भवतियमगुस्सा तिविहा पण्णता, तं जहा-कम्ममूमगा, प्रकम्मभूमगा, अन्तरदीवगा।" -प्रज्ञापना सूत्र 36, जीवाभिगमेऽपि देखो. प्रनापना सत्र नं. 36 का वह अंश जो "गन्भवतियमरगुस्सा य" के बाद से कि संमुश्चिम-मगुस्सा!" से प्रारम्भ होता है। Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 682 जैनसाहित्य और इतिहासपरविशद प्रकाश ___ इसके सिवाय, उक्तस्वरूप-कथन-द्वारा यद्यपि अकर्मभूमक (भोगभूमिया) मनुष्योंको म्लेच्छोंमें शामिलकर दिया गया है, जिससे भोगममियोंकी सन्तान कुलकरादिक भी म्लेच्छ ठहरते हैं, और कुलार्य तथा जात्यार्यकी कोई ठीक व्यवस्था नहीं रहती। परन्तु श्वे० प्रागम ग्रन्थ (जीवाभिगम तथा प्रजापना-जैसे ग्रन्थ) उन्हें म्लेच्छ नहीं बतलाते-प्रन्तीपजों तकको उनमें म्लेच्छ नहीं लिखा; बल्कि मार्य मोर म्लेच्छ ये दो भेद कर्मभूमिज मनुष्योंके ही किये हैं-सब मनुष्योंके नहीं; जैसा कि प्रज्ञापना-मूत्र नं. 37 के निम्न मंशसे प्रकट है: से कि कम्मभूमगा? कम्मभूगा पण्णरसविहा पएणता, तं जहापंचर्हि भरहेहिं पंचहि एरावहिं पंचहि महाविदेहेहि; ते समासो दुविहा पएणत्ता, तं जहा-आयरिया य मिलिक्खू य / " __ ऐसी हालतमें उक्त भाष्य कितना अपर्याप्त, कितना अधूरा, कितना विपरीत और कितना सिद्धान्तागमके विरुद्ध है उसे बतलानेकी जरूरत नहीं-सहृदय विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते हैं / उसकी ऐसी मोटी मोटी त्रुटियां ही उमे स्वोपशभाष्य माननसे इनकार कराती हैं और स्वोपजभाष्य माननेवालोंकी ऐसी उक्तियों पर विश्वास नहीं होने देती कि 'वाचकमुख्य उमाबातिके लिए मूत्रका उल्लंघन करके कथन करना असम्भव है / ' प्रस्तु। अब प्रज्ञापनमूत्रको लीजिए, जिसमें कर्मभूमिज मनुष्यों के ही प्रार्य पौर मरेछ ऐसे दो भेद किए हैं। इसमें भी प्रार्य तथा म्लेच्छ का कोई विशद एवं व्यावनंक लक्षण नहीं दिया। मार्योके तो ऋद्धिप्राप्त प्रतिप्राप्त ऐसे दो मूलभेद करके ऋदि. प्राप्तोंके छह भेद किये है-अरहंत, चक्रवर्ती, बलदेव,वामुदेव,वारा विद्याधर | और प्रनृद्धिप्राप्त पार्यों के नव भेद बतलाए है, जिनमें छह भेद तो क्षेत्रार्य प्रादि वे ही हैं जो उक्त तत्वार्थाषिगममाप्यमें दिए हैं, शेष तीन भेद भानार्य, दर्शनार्य और चारित्रार्य हैं, जिनके कुछ भेद-प्रभेदोका भी कपन किया है। साथ ही, * जीवाभिगममें भी यही पाठ प्राय: ज्यों का त्यों पाया जाता है-- 'मिलिकबू' की जगह 'मिलेच्छा' जैसा पाठभेद दिया है। + “नापि वाचकमुख्याः सूत्रोल्लंघनेनाभिदधत्यसंभाव्य-मानत्वात् / " -सिरसेन्गलिटीका, 10 267 Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्य और म्लेच्छ म्लेच्छ-विषयक प्रश्न ( से कि तं मिलिक्खू ?) का उत्तर देते हुए इतना ही "मिलल प्रणेगविहा पएणत्ता, तं जहा-सगा जवणा चिलाया सबर-बब्बर-मुरुडोड-मडग-णिएणग-पकणिया कुलक्ख-गोंड-सिंहलपारसगोधा कोंच-अम्बड-इदमिल-चिल्लल-पुलिंद-हारोस-दोववोकारणगन्धा हारवा पहिलय-अमलरोम-पासपउसा मलया य वंधुया य सूलिकोंकण-गमेय पल्लव-मालव-मग्गर प्राभासिश्रा कणवीर-ल्हसिय-खसा खासिय गोदूर-मोढ डोंबिल गल प्रोस पात्रोस ककेय अक्खाग हणरोमग-हुणरोमगमरमस्य चिलाय वियवासी य एवमाइ, खेत्तमिलिक्खू / ' ___ इसमें "म्लेच्छ अनेक प्रकारके ," ऐसा लिख कर गक, यवन, (यूनान ) किरात, शबर, बबर, मुरुण्ड, मोड ( उडीसा ), भटक, रिणमणग, पक्करिणय, कुलक्ष, गोंड, सिंहन (लंका), फारम, (ईरान), गोध, कोंच मादि देश-विशेषनिवासियों को 'म्लेच्छ' बतलाया है। टीकाकार मलयगिरि मूरिने भो इनका कोई विशेष परिचय नहीं दिया-सिर्फ इतना ही लिख दिया है कि म्लेच्छोंकी यह भनेक प्रकारता शक-यवन-चिलात-शबर-बबंगदि देशभेदके कारण है। शकदेश निवासियोंको 'शक' यवनदेश-निवासियोंको 'यवन' समझना, इसी तरह सर्वत्र लगालेना पोर इन देशोंका परिचय लोकमे-लोकशास्त्रोंके आधार पर प्राप्त करना इन देशों में कितने ही तो हिन्दुस्तानके भीतरके प्रदेश है, कुछ हिमालय पादिके पहाड़ी मुकाम है पोर कुछ मरहही इलाके है। इन देशोंके सभी निवासियोंको म्लेच्छ कहना म्लेच्छस्यका कोई ठीक परिचायक नहीं है क्योंकि इन देशों में प्रापं लोग भी बसते हैं-प्रर्थात् एसे जन भी निवास करते हैं जो मंत्र, जाति तथा कुमकी दृष्टिको छोड़ देने पर भी कर्मको दृष्टिमे, शिल्पको तम्यानेकवियत्वं शक-यवन-चिलात-गवर-वरादिदेशभेदात, तथा चाह- जहा सगा, इत्यादि, शकदेशनिवासिनः शका, यवनदेशनिवासिनो यवनाः एवं, नबरममी नानादेशाः मोकतो विज्ञयाः।" Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 684 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश दृष्टिसे, भाषाको दृष्टिसे प्रार्य है तथा मतिज्ञान-श्रतज्ञानकी दृष्टिसे और सरायदर्शनकी दृष्टिसे भी प्रार्य हैं, उदाहरणके लिये मालवा, उड़ीसा, लंका पोर कोंकण प्रादि प्रदेशोंको ले सकते हैं जहाँ उक्त दृष्टियोंको लिये हुए प्रगणित प्रायं बसते हैं। हो सकता है कि किसी समय किसी दृष्टिविशेषके कारण इन देशोंके निवासियोंको म्लेच्छ कहा गया हो; परन्तु ऐसी दृष्टि सदा स्थिर रहनेवाली नहीं होती / आज तो फिजी जैसे टापुमोंके निवासी भी, जो बिल्कुल जंगली तथा असभ्य थे और मनुष्यों तक को मारकर खा जाते थे, पार्य पुरुषोंके संसर्ग एवं सत्प्रयत्नके द्वारा अच्छे सभ्य, शिक्षित तथा कर्मादिक दृष्टिसे मार्य बन गये हैं; वहां कितने ही स्कूल तथा विद्यालय जारी हो गये हैं और खेती दस्तकारी तथा व्यापारादिके कार्य होने लगे है। मोर इसलिये यह नहीं कहा जा सकता है कि फिजी देशके निवासी म्लेच्छ होते है / इसी तरह दूसरे देशके निवासियोंको भी जिन की अवस्था माज बदल गई है म्लेच्छ नहीं कहा जा सकता / जो म्लेच्छ हजारों वर्षोंसे प्रार्योके सम्पर्कमें मा रहे हों और पार्योंके कर्म कर रहे हों उन्हें म्लेच्छ कहना तो मार्योंके उक्त लक्षण अथवा स्वरूपको सदोष बतलाना है। प्रत: वर्तमानमें उक्त देशनिवासियों तथा उन्ही जमे दूसरे देशनिवासियोंको भी, जिनका उल्लेख एवमाइ' शब्दोंके भीतर सनि हित है, म्लेच्छ कहना समुचित प्रतीन नहीं होता पोर न वह म्लेच्छत्वका कोई पूरा परिचायक अथवा लक्षण ही हो सकता है। श्रीमलयगिरिमूरिने उक्त प्रज्ञापनासूत्रको टीकामे लिखा है "म्लेच्छा अव्यक्तभाषाममाचारा:," "शिष्टासम्मतसकलव्यवहारा म्लेच्छा.।" प्रर्यात-म्लेच्छ वे हैं जो अव्यक्त भाषा बोलते है-ऐसी अस्पष्ट भाषा बोलते हैं जो अपनी समझमें न पावे। अथवा शिष्ट (सम्य) पुरुष जिन भावादिकके व्यवहारोंको नहीं मानते उनका व्यवहार करनेवाले सब म्लेच्छ है। ये लक्षण भी ठीक मालूम नहीं होते; क्योंकि प्रथम तो जो भाषा मार्योक लिये अव्यक्त हो वही उक्त भाषाभाषी भनार्योक लिए व्यक्त होती है तथा Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्य और म्लेच्छ प्राोंके लिए जो भाषा व्यक्त हो वह अनार्यों के लिए अव्यक्त होती है और इस तरह मनायं लोग परस्परमें अव्यक्त भाषा न बोलनेके कारण मार्य हो जावेगे तथा प्रायं लोग ऐसी भाषा बोलने के कारण जो अनार्योंके लिए अव्यक्त है-उनकी समझमें नहीं भाती-म्लेच्छ ठहरेंगे। दूसरे, परस्परके सहवास मौर अभ्यासके द्वारा जब एक वर्ग दूसरे वर्गकी मापासे परिचित हो जावेगा तो इतने परसे ही जो लोग पहले म्लेच्छ समझे जाते थे वे म्लेच्छ नहीं रहेंगेशक-यवनादिक भी म्लेच्छत्वकी कोटिने निकल जाएंगे, प्रार्य हो जावेगे। इस के सिवाय, ऐसे भी कुछ देश है जहाँके प्रायोकी बोली-भापा दूसरे देशके प्रायं लोग नहीं समझते है, जैसे कन्नड-तामील-तेलगु भाषाम्रोको इधर यू०पी० तथा पंजाबके लोग नहीं समझते / प्रत: इधरको दृष्टिसे कन्नड-तामील-तेलग भाषामोंके बोलनेवालों तया उन भाषामोंमें जैन ग्रंथोंकी रचना करनेवालोको भी लेच्छ कहना पड़ेगा और यो परम्परमे बहन ही व्याघात उपस्थित होगान म्लेच्छन्वका ही कोई ठोक निर्णय एवं व्यवहार बन सकेगा मोर न पायं. त्वका ही। रही शिष्ट-मम्मत-भाषादिकके व्यवहारोंकी बात, जब केवली भगवानकी वाणीको अठारह महाभाषामों तथा मातसो लघु भाषामोंमे अनुवादित किया जाता है तब ये प्रचलित मन भाषाएं तो शिष्ट-सम्मत-भाषाए' ही मममी जायेंगी, जिनमें अरबी, फामों, लेटिन, जर्मनी, अंग्रेजी, फ्रांसीसी, चीनी और जापानी प्रादि मभी प्रधान प्रधान विदेशी भापानोका समावेश हो जाता है। इनसे भिन्न तथा बाहर दूसरी और कौनमी भाषा रह जाती है जिसे म्लेच्छोकी भाषा कहा जाय ? बाकी दूसरे शिष्ट-मम्मत-व्यवहागेकी बात भी ऐसी ही है-कुछ व्यवहार ऐसे है जिन्हें हिन्दुस्तानी प्रमभ्य समझते है और कुछ व्यवहार एमे है जिन्हें विदेशी लोग प्रसभ्य बतलाते है और उनके कारण हिन्दुस्तानियोको 'प्रमभ्य'-प्रशिष्ट एवं Uncivilized समझते हैं। साथ ही. कुछ व्यवहार हिन्दुस्तानियोंके ऐसे भी है जो दूसरे हिन्दुस्तानियोंकी दृष्टिमें असम्म है और इसी तरह कुछ विदेशियोंके व्यवहार दूसरे विदेशियोंकी दृष्टिमें भी ममम्य है। इस तरह शिष्टपुरुषों नया शिष्टसम्मत व्यवहारोंकी बात विवादा. पन्न होनेके कारण इतना कह देने मात्रसे ही पार्य पौर म्लेच्छको कोई Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 686 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश व्यावृत्ति नहीं होती-ठीक पहचान नहीं बनती। और इसलिये उक्त सब लक्षण सदोष जान पड़ते हैं। अब दिगम्बर ग्रन्थोंको भी लीजिए / तत्त्वार्थसूत्रपर दिगम्बरोंकी सबसे प्रधान टीकाए सर्वार्थ सिद्धि, राजवातिक तथा श्लोकवातिक है। इनमेंसे किसीमें भी म्लेच्छका कोई लक्षण नहीं दिया-मात्र म्लेच्छोंके अन्तरदीपज और कमभूमिज ऐसे दो भेद बतलाकर अन्तरद्वीपजोंका कुछ पता बतलाया है और कमभूमिज म्लेच्छोंके विषयमें इतना ही लिख दिया है कि 'कर्मभूमिजा: शकयवनशबरपुलिन्दादयः' (सर्वा०, राज.)-प्रर्थात् शक, यवन, शबर पोर पुलिन्दादिक लोगोंको कर्मभूमिजम्लेच्छ समझना चाहिए। इलोकवातिकमे थोड़ामा विशेष किया है-प्रथात् यवनादिकको म्लेच्छ बतलानेके भनिरिक्त उन लोगोंको भी म्लेच्छ बतला दिया है जो यवनादिकके प्राचारका पालन करते हों / यषा कर्मभूमिभवा म्लेच्छाः प्रसिद्धा यवनादयः / भ्युः परे च तदाचारपालना बहुधा जनाः / / परन्तु यह नहीं बतलाया कि यवनादिकका वह कौनमा प्राचार-व्यवहार है जिसे लक्ष्य करके ही किमी समय उन्हें 'म्लेच्छ' नाम दिया गया है, जिससे यह पता चल मकता कि वह प्राचार इम ममय भी उनमें भवशिष्ट है या कि नहीं और दूसरे प्रार्य कहलानेवाले मनुष्यों में तो वह नहीं पाया जाना ! हो,इसमे इतना प्रामास जरूर मिलता है कि जिन कमभूमिजोंको म्लेच्छ नाम दिया गया है वह उनके किसी प्राचारभेदके कारण ही दिया गया है-देशभेदके कारण नहीं। ऐसी हालतमें उस प्राचार-विशेषका स्पष्टीकरण होना और भी ज्यादा जरूरी था, तभी प्रार्य-म्लेच्छकी कुछ व्यावृति अथवा ठीक पहचान बन सकती थी। परन्तु ऐसा नहीं किया गया, और इसलिए प्रार्य-लेकी समस्या ज्यों की त्यों खड़ी रहती है-यह मासूम नहीं होता कि निश्चितरूपसे किसे 'माय' कहा जावं और किसे 'लेच्छ! श्लोकवातिकमें श्रीविद्यानन्दाचार्यने इतना और भी लिखा है "सच्चोत्रोदयादेरार्याः, नीनोत्रोदयादेष म्याः / " . Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्य और म्लेच्छ mutam parammarn... -m m -arunama मर्थात्-उच्चगोत्रके उदयादिक कारणसे प्रायं होते हैं और जो नीचगोत्रके उदय मादिको लिये हुए होते हैं उन्हें म्लेच्छ समझना चाहिये। यह परिभाषा भी मार्यम्लेच्छकी कोई व्यावर्तक नहीं है। क्योंकि उच्चनीचगोत्रका उदय तो पतिसूक्ष्म है-वह प्रस्थोंके ज्ञानगोचर नहीं, उसके माधारपर कोई व्यवहार चल नहीं सकता-पोर 'मादि' शब्दका कोई वाच्य बतलाया नहीं गया, जिसमे दूसरे व्यावतंक कारणोंका कुछ बोध हो सकता। शेष रही मार्योकी बात, पायमात्रका कोई खास व्यावतंक लक्षण भी इन ग्रन्थों में नहीं है-पार्योंके ऋद्धिप्राप्त अनृद्धिप्रास ऐसे दो भेद करके ऋद्धिप्राप्तोंके मान नथा पाठ और भनृद्धि प्राप्तोंके क्षेत्रायं, जान्यायं, कर्माय, चारित्रार्य, दर्शनार्य ऐसे पांच भेद किये गये है। राजवातिकमें इन भेदोंका कुछ विस्तारके साथ वर्णन जरूर दिया है। परन्तु क्षेत्रायं तथा जात्यायंके विषयको बहुत कुछ गोल. मोल कर दिया है-"क्षेत्रायो: काशीकौशलादिषु जाताः / इक्ष्वाकुजातिभाजादिकुलए जाना जात्यायोः" इतना ही लिखकर छोड़ दिया है ! मोर कर्मायके मावद्य कर्माय. प्रल्यमावद्यकार्य, अमावद्यकर्यि मे तीन भेद करके उनका जो स्वर दिया है, उसमें दोनोंकी पहचानमें उस प्रकारकी वह सब गडवर प्रायः ज्याको त्यो उपस्थित हो जाती है, जो उक्त भाष्य तथा प्रजापनामूत्रके कथनपर में उत्पन्न होती है। जब अमि, मपि, कृषि, विद्या, गिल्प और वापिगमम भाजीविका करनेवाले, श्रावकका कोई व्रत धारण करनेवाले और मुनि होनेवाले (प्लेच्छ भी मुनि हो सकते है ) सभी 'प्रायं' होते है तब सक-यवनादिकको म्लेच्छ कहने पर काफी भापति खड़ी होजाती है भोर मार्यम्नेस्यकी ठीक व्यावति होने नही पाती। हाँ, सर्वार्थ मिद्धि तथा राजवातिकमें गुणगुणवद्भिर्वा अर्यन्त इत्यार्याः' ऐसी मायंकी निक्ति मोर दी है और राजवातिको पर्यन्ते' का अर्थ 'सेव्यन्ते' भी दिया है। यद्यपि यह मायं शब्दकी निरुक्ति है-लक्षण नहीं / फिर भी इसके द्वारा इतना प्रकट किया गया है कि जो गुणोंके द्वारा तथा युरिणयोंके देखो, जयपवलाका वह प्रमाण जो भगवान महावीर मौर उनका समय' शीपंक निबन्धके 8 22 परके फुटनोटमें दिया गया है। Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 688 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश द्वारा सेवा किए जाएँ, प्राप्त हों वा अपनाए जायें वे सब 'पार्य' है। और इस तरह गुरणीजन तथा गुणीजन जिन्हें अपनालें वे प्रगुरणी भी सब मार्य ठहरते हैं। शक-यवनादिकोंमें भी काफी गुणीजन होते है-बड़े-बड़े विद्वान्, राजा तथा राजसत्ता चलानेवाले मन्त्री प्रादिक भी होते है-वे सब भायं ठहरेंगे। और जिन गुणहीनों तथा मनक्षर म्लेच्छोंको प्रादिपुराणके निम्न वाक्यनुसार कुल. शुद्धि मादिके द्वारा प्रायं लोग अपनालेगे, वे भी प्रार्य होजावेंगे-- स्वदेशेऽनक्षरम्लेच्छान प्रजाबाधाविधायिनः / कुलशुद्धिप्रदानायैः स्वसाकुर्यादुपक्रमैः // इससे मार्य-म्लेच्छ की समस्या मुलझने के बजाय और भी ज्यादा उलझ जाती है। अतः विद्वानोंम निवेदन है कि वे इस समस्याको हल करने का पूरा प्रयत्न करें-इस बातको खोज निकालें कि वास्तवमें मायं किसे कहते हैं पौर म्लेच्छ,' किसे ? दोनोंका व्यावतंक लक्षण जनसाहित्यपरमे क्या ठीक बैठता है ? जिनमें सब गड़बड़ मिटकर सहज ही मबको प्रायं पोर म्लेच्छ का परिज्ञान हो सके। Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका समय-निर्णय दिगम्बर जैनसमाजमें स्वामी समन्तभद्रका समय माम तौरपर विक्रमकी दूसरी शताब्दी माना जाता है। एक 'पट्टावली' में शक सं०६० (वि० सं० 165) का जो उनके विषयमें उल्लेख है वह किसी घटना-विशेषकी दृष्टिको लिये हए जान पड़ता है। उनका जीवन-काल अधिकांगमें उससे पहले तथा कुछ बादको भी रहा हो सकता है। श्वेताम्बर जनसमाजने भी ममन्तभद्रको अपनाया है और अपनी पट्टावलियों में उन्हें 'मामन्तभद्र' नामसे उल्लेखित करते हए उनके ममयका पट्टाचार्य-रूपमें प्रारम्भ वीरनिर्वाग्ग-संवत् 643 (वि० सं० 173) मे हुप्रा बतलाया है। माय हो. यह भी उल्लेखित किया है कि उनके पट्टशिष्यने वीरनि० म० 665 (वि० सं० 225 ) में एक प्रतिष्ठा कराई है, जिममे उनके समयकी उतरावधि विक्रमकी तीमरी शनाब्दीके प्रथमचरण तक पहुँन जाती है / इमसे समय-मम्बन्धी दोनों मम्प्रदायोंका कथन मिल जाता है और प्राय: एक ही ठहरता है। उक्त जैन पदावली-मान्य शक सं०६० (ई० सं० 138 ) वाले ममयको डाक्टर प्रार० जी० भाण्डारकरने अपनी 'मी हिस्टरी माफ़ डेक्कन में, मिस्टर लेविम राइमने अपनी 'इम्किाशंस ऐट श्रवणबेलगोल' नामक पुस्तकको प्रस्तावना नया 'काटक-गब्दानशामन की भूमिका में, मेमर्स मारल एण्ड एम.. जी० नमहानायने अपने 'कनाटक कविरिते' प्रथमे प्रोर मिस्टर एडवर्ड पो. + यह पट्टावली हस्तलिखित संस्कृत ग्रंथों के अनुसन्धान-विषयक डा. भाण्डारकरकी सन् 1883.84 की अंग्रेजी रिपोटंके पृष्ट 320 पर प्रकाशित हुई है। कुछ पट्टावलियोंमें यह समय वीर नि० स० 565 अर्थात् वि. सवत् 125 दिया है जो किसी गलतीका परिणाम है और मुनिकल्याणविजयने अपने द्वारा सम्पादित 'तपागच्छ-पट्टावली में उसके सुधारकी सूचना भी की है। (r) देखो, मुनिकल्याणविजय द्वारा सम्भावित 'तपागच्छ-पट्टावली पृ०७६.८१६.. Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 660 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश राइसने अपनो 'हिस्टरी प्राफ़ कनडीज लिटरेचर'में मान्य किया है / और भी अनेक ऐतिहासिक विद्वानोंने समन्तभद्रके इस समयको मान्यता प्रदान की है। अब देखना यह है कि इस समयका समर्थन शिलालेखादि दूसरे कुछ साधनों या माधारोंसे भी होता है या कि नही और ठीक समय क्या कुछ निश्चित होता है / नीचे इसी विषयको प्रदर्शित एवं विवेचित किया जाता है: मिस्टर लेविस राइसने, समन्तभद्रको ईसाकी पहली या दूसरो शताब्दी. का विद्वान अनुमान करते हुए, जहाँ उसकी पुष्टिमें उक्त पट्टावलीको देखनेकी प्रेरणा की है वहा श्रवणबेल्गोलके शिलालेख न० 54(67) को भी प्रमाणमें उपस्थित किया है, जिसमे मल्लिपणप्रशस्तिका उत्कीर्ण करते हुए मन्तभद्रका स्मरण सिंहनन्दीसे पहले किया गया है। शिलालेखकी स्थिनिको देखते हए उन्होंने इम पूर्व-स्मरणको इस बातके लिये अत्यन्त स्वाभाविक समान माना है कि समन्तभद्र सिंहनन्दीसे अधिक या कम समय पहले हए है। उक्त निहनन्दी मुनि गंगराज्य ( गंगवाडि ) की स्थापनामे सविशेषरूपसे कारणीभूत एव सहायक थे, गंगवंशके प्रथम राजा कोंगामा वर्माके गुरु थे. और इसलिकोपकराजाकूल (तामिल क्रानिकल) मादिसे को णि वर्माका जो समय ईसाकी दूसरी शताब्दीका मन्तिम भाग (A. D. 188) पाया जाता है वही सिंहनन्दीका अस्तित्व-समय है ऐमा मानकर उनके द्वारा समन्तभदका मस्तित्वकाल ईसाकी पहली या दूसरी शताब्दी भनुमान किया गया है। श्रवणाबेलगोलके शिलालेखोंकी उक्त पुस्तकको सन् 1886 में प्रकाशित करने के बाद राइस साहबको कोंगुरिगवर्माका एक शिलाम्ब मिला, जो शक संवत् 25 (वि. सं० 160, ई० सन् 103) का लिखा हुप्रा है और जिसे उन्होंने. मन् 1864 में, नजनगूड़ ताल्लुके (मैमूर)के शिलालेखोंमें न0 110 पर प्रकाशित कगया है. (E.C. III) / उममे कोंगुरिणवर्माका स्पष्ट समय ईसाकी दूसरी ताब्दी का प्रारम्भिक अथवा पूर्वभाग पाया जाता है, और इसलिये उनके मतानुसार * इस शिलालेखका प्राय प्रश निम्न प्रकार है"स्वरित श्रीमत्कोंगुणिवर्मधर्म महाधिराजप्रथमगंगस्य दत्तं शकवर्षगतेषु पंचवि. शक्ति 25 नेय शुभकिनुसंवत्सरमु फाल्गुनशुउपचमी शनि रोहिरिण " Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . समन्तभद्रका समय-निणय यही समय सिंहनन्दीका होनेमे समन्तभद्रका समय निश्चित रूपसे ईसाकी पहली शताबी ठहरता है-दूसरी नहीं। . श्रवणबेल्गोलके उक्त शिलालेखमें, जो शक संवत् 1050 का लिखा हुमा है, यद्यपि 'ततः' या 'तदन्वय' जैसे शब्दोंके प्रयोगद्वारा ऐसी कोई सूचना नहीं की गई जिसमे यह निश्चितरूपमें कहा जासके कि उसमें पूर्ववर्ती प्राचार्यों प्रथव! ग्ररुवोंका स्मरण कालक्रमकी दृष्टिसे किया गया है परन्त उससे पूर्ववर्ती शाकमवत् 66 के लिखे हुए दो शिलालेखों और उत्तरवर्ती शक संक 1066 के लिखे एक शिलालेखमे समन्तभद्रके बाद जो उन मिहनधी प्राचार्यका उल्लेख है वह रूपमे यह बतला रहा है कि गंग राज्य के संस्थापक प्राचार्य मिहनन्दी स्वामी ममन्तभद्र के बाद हुए है / ये तीनों शिलालेख शिमोगा जिलेके नगरनाल्नुके में हुमत्र म्यानमे प्राप्त हुए हैं, क्रमश: नं. 35, 36, 37 को लिये हा है और एपिग्रंकिका काटिकाकी पाठवीं जिल्दमें प्रकाशित हुए है / यहाँ उनके प्रस्तुत विषयसे मम्बन्ध रखने वाले प्रशों को उद्धृत किया जाता है, जो कनडी भाषा में है / इनमेसे 36 श्री. 37 नम्बरके शिलालेखों प्रस्तुत अंश प्राय: समान है इमोसे 363 शिलालेखसे ३७वेमें जहा कहीं कुछ भेद है उसे वकटमे नम्बर 7 के साथ दे दिया गया है ....... भद्रवाहस्वामीगलिन्द इतकलिकालवर्तनेयिं गणमेनं पुद्विद् अवर अन्यगक्रमदि कलिकालगणधरु शास्त्रकर्तुगलुम एनिसिद समन्तभद्रवामांगल अचशिप्यमंतान शिवकट चाच.य्यर प्रवर्ति वरदत्ताचाप्यर प्रवरि तत्वार्थसूत्रकतुगल एनिम्द् िभायंदेवर प्रति | गगराज्यम माडिद सिंहनन्द्या चायर अवरिन्द् एकसधि-मुमतिभट्टारकर अवर.... . 35) ___ ....... अनकेलिगल निमिद (एनिय३७ ) भद्रबाहम्बामिगल गलंग३७) मोदलागि पलम्बर (हनम्बर 7) प्राचाय्यर पोदिम्बलियं ममन्नभद्रस्यामिगल उर्मायसिहर वरप्रन्ययोल / अनन्रं 37) गंगराज्यमं माडिद मिहनन्याचार प्रवरि.........।" (नं. 36,53) 353 शिलालेख में यह उल्लेख है कि भववाहस्वामीके बाद यहां कलिकालका प्रवेश हुमा-उसका वर्सना भाराम हुमा, नणमंद उत्पन्न हुमा पोर Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 662 . जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश उनके वश-क्रममें समन्तभद्रस्वामी उदयको प्रारा हुए, जो 'कलिकालगणधर' मोर 'शास्त्रकार' थे, समन्तभद्रकी शिष्य-सन्तानमें सबसे पहले 'शिवकोटि' प्राचार्य हए, उनके बाद वरदत्ताचार्य, फिर तत्वार्थ सूत्र के कर्ता 'मायंदेव, प्रार्यदेवके पश्चात् गंगराजका निर्माण करनेवाले 'सिंहनन्दी' प्राचार्य, भोर सिंहनन्दीके पश्चात् एकसन्धि-सुमति भट्टारक हुए / और 363-373 शिलालेखोंमें समन्तभद्र के बाद सिंहनन्दीका उल्लेख करते हुए सिंहनन्दीका समन्तभद्रकी वंशपरम्परामें होना लिखा है, जो वंशपरम्परा वही है जिसका ३५वें शिलालेखमें शिवकोटि, वरदत्त पोर मायंदेव नामक प्राचार्योके रूप में उल्लेख है। इन तीनों या चारों शिलालेखोंमे भिन्न दूसरा कोई भी शिलालेख ऐसा उपलब्ध नहीं है जिसमें समन्तभद्र और मिहनन्दी दोनोंका नाम देने हए उक्त सिंहनन्दीको समन्तभद्रमे पहलेका विद्वान् मूवित किया हो या कम-मेंकम समन्तभद्रमे पहले सिहनन्दीके नामका ही उल्लेख किया हो। ऐसी हालतमे मिस्टर लेविस राइस साहबके उस अनुमानका समर्थन होता है जिसे उन्होंने केवल 'मल्लिपणप्रशास्ति' नामक शिलालेख (नं. 54 ) में इन विद्वानों के मागे पीछे नामोल्लेख को देखकर ही लगाया था। इन वादको मिले हा शिला. लेखोंमें 'श्रवरि', 'अवर अन्वयदाल' पोर 'अवर अनन्तर' शन्दोंके प्रयागद्वारा इस बातकी स्पष्ट घोषणा की गई है कि मिहनन्दी प्राचार्य ममन्तभद्राचार्यके बाद हए है / अतः ये मिहनन्दी गंगवाके प्रथम गजा कोगुरिणवमांक समकालीन थे, इन्होंने गगवकी स्थापनामे खास भाग लिया है, जिसका उल्लेख तीनों शिलालेखोंमें "गंगराज्यमं मानि" इस विशेषण-पदक द्वारा किया गया मल्लिपरण-प्रशस्तिमें प्रायंदेवको ‘राधान-कर्ता' लिखा है और यहाँ 'तत्त्वार्थसूत्र-कर्ता।' इससे 'राधान्त' और 'तत्त्वार्थ मूत्र'दोनों एक ही पन्धक नाम मालूम होते हैं और वह गृध्रपिच्छाचायं उमास्वामीके तत्त्वार्थ मूवमे भिन्न जान पड़ता है। श्रवणबेलगोलका उक्त ५४वां मिलाने सन् 1886 में प्रकाशित हप्रा पा और नगरताल्लुकके उक्त तीनों शिलालेख सन् 1904 में प्रकाशित हुए है। सन् 1886 में लेविस राइस साहबके सामने मौजूद नहीं थे। Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका समय-निर्णय 663 है, जिसका अर्थ लेविस राइसने who made the Gang kingdom दिया है-अर्थात् यह बतलाया है कि जिन्होंने गंगराज्यका निर्माण किया' (वे सिंहनन्दी प्राचार्य)। सिंहनन्दीने गंगराजको स्थापनामें क्या सहायता की थी, इसका कितना ही उल्लेख अनेक शिलालेखोंमें पाया जाता है, जिसे यहां पर उद्धृत करनेकी जरूरत मालूम नहीं होती-श्रवणबेल्गोलका वह ५४(६७)वाँ शिलालेख भी सिंहनन्दी और उनके छात्र ( कोंगुरिणवर्मा ) के साथ घटितघटनाको कुछ सूचनाको लिये हए है। यहाँपर मैं इतना और भी प्रकट कर चाहता देना हूं कि सन् 1925 (वि० सं० 1982) में मणिकचन्द जैनग्रन्थमालासे प्रकाशित रत्नकरण्डप्रावकाचारकी प्रस्तावनाके 'समय-निरणय' प्रकरण में (पृ.११७) मैंने श्री लेविस राइस माहबके उक्त अनुमान पर इम प्राशयको प्रापनि की थी कि उक्त शिलालेख में 'तत:' या 'नमन्वय' प्रादि शब्दोके दाग सिंहनन्दीका समन्तभद्रके बादमें होना ही नही भूचित किया बल्कि कुछ गुरुवोका स्मरण भी क्रमरहित प्रागे पीछे पाया जाता है. जिसमे शिलालेख कालक्रममे म्मरण या क्रमोल्लेखकी प्रकृतिका मालूम नहीं होता, और इसके लिए उदाहरणम्पमें पात्र सरोका श्रीप्रकलंकदेव भोर श्रीवद्धं देवने : पूर्व म्मरण किया जाना मूचित किया था। मेरी यह भापति स्वामी पत्रकेमरी और उन श्रीविद्यानन्दको एक मानकर की गई थी जो कि अष्टमहमी प्रादि ग्रन्थोंके कर्ता है, और उनके इस एकव्यक्तित्वके लिये 'सम्यक्त्वप्रकाश' ग्रन्थ तथा वादिचन्दमूरिका 'ज्ञानमूर्योदय' नाटक पोर जनहितपी' भा६. प्रक, 10436 - 440 को देखनेकी प्रेरणा की गई थी। क्योकि उस समय प्राय: इन्ही प्राधागेपर समाजमे दोनोंका व्यक्तिस्व एक माना जाता था, जो कि एक भारी भ्रम था / परन्तु बादको मैने 'स्वामी पात्रोसरी और विद्यानन्द' नामक अपने खोजपूर्ण निमन्धके दो लेखों यथा:-योऽमी पातिमाल द्विपद्धल-शिला-म्तम्भावली-खण्डन ध्यानामि: पटुरहंतो भगवतस्मोऽस्य प्रसादीकृतः / मात्रम्यापम मिहनन्दि-मुनिना नो चेकय वा शिला. स्तम्भोराज्य-रमागमाध्व-परिधस्तेनासिखण्डोधन: // 6 Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 664 जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश द्वारा * इस फैले हुए भ्रमको दूर करते हुए यह स्पष्ट करके बतला दिया कि स्वामी पात्रकेसरी और विद्यानन्दका व्यक्तित्व ही नहीं, किन्तु अन्यसमूह पौर समय भी भिन्न है-पात्रकेसरी विद्यानन्दसे कई शताब्दी पहले हुए है। प्रकलंकदेवसे भी कोई दो शताब्दी पहलेके विद्वान है, और इसलिये उनका अस्तित्व श्रीवद्धदेवसे भी पहले का है / और इसीसे प्रब, जब कि सम्यक्त्वप्रकाश-जैसे ग्रन्थकी पोल खुल चुकी है, मैंने उक्त तीनों शिलालेखोंकी मौजूदगीको लेकर यह प्रतिपादा किया है कि उनसे श्री राइस साहबके अनुमानका समर्थन हाता है, वह ठीक पाया गया और इसीसे उसपर की गई अपनी आपत्तिको मैने कभीका वापिस ले लिया है। जब स्वय कोंगुरिणवर्माका एक प्राचीन शिलालेख शक संवत् 25 का * उपलब्ध है और उससे मालूम होता है कि कोंगुरिगवर्मा वि. सं. 160 ( ई० मन् 103) मे राज्यासन पर प्रारूढ थे तब प्राय: यही समय उनके गुरु एवं राज्यके प्रतिष्ठापक सिंहनन्दी प्राचार्य का समझना चाहिये, और इसलिये कहना चाहिये कि सिंहनन्दीकी गुरु-परम्परामें स्थित स्वामी समन्तभद्राचार्य अवश्य ही वि०. मंवत् 160 से पहले हुए है; परन्तु कितने पहले, यह अभी अप्रकट है। फिर भी पूर्वीवर्ती होने पर कम से कम 30 वर्ष पहले तो ममन्न. भद्रका होना मान ही लिया जा सकता है; क्योंकि 35 वे शिलालेख में सिंहनन्दीसे पहले प्रायदेव, वरदत्त और शिवकोटि नामके तीन प्राचार्टीका और भी उल्लेख पाया जाता है, जो समन्तभद्रकी शिष्यमन्तानमें हुए है और जिनके लिये 10-10 वर्षका प्रोसन ममय मान लेना कुछ अधिक नहीं है। इसमें ममन्तभद्र निश्चितम्पमे विक्रमकी प्राय. दूसरी शताब्दीके पूर्वाधं के विद्वान् ठहरने हैं / और यह भी हो सकता है कि उनका पस्तित्वकाल उत्तरार्ध में भी वि० मा 165 (शक मा 6.) तक चलता रहा हो; क्योकि उस समयको स्थितिका ऐमा बोध होता है कि जब कोई मुनि प्राचार्य पदके योग्य होता था तभी उसको प्राचार्यपद दे दिया जाता था और इस तरह एक प्राचार्यके समयमें उनके कई * ये दोनों लेख इस निबन्धसग्रहमे अन्यत्र पृ० 637 म 667 तक प्रकाशित हो रहे हैं। Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका समय-निर्णय शिष्य भी प्राचार्य हो जाते थे और पृषक रूपसे अनेक मुनि संघोंका शासन करते थे; अथवा कोई कोई प्राचार्य अपने जीवनकालमें ही प्राचार्य-पदको छोड़ देते थे और संघका शामन अपने किसी योग्य शिष्यके सुपुर्द करके स्वयं उपाध्याय या साधु परमेष्ठीका जीवन व्यतीत करते थे। ऐसी स्थिनिमें उक्त तीनों प्राचार्य समन्त भद्रके जीवन-कालमें भी उनकी सन्तानके रूपमे हो सकते है। शिलालेखोंमें प्रयुक्त प्रवरि शब्द 'ततः' वा 'तदनन्तर' जैसे अर्थका वाचक है और उसके द्वारा एकको दूसरे से बादका जो विद्वान सूचित किया गया है उसका अभिप्राय केवल एकके मरण और दूसरेके जन्मसे नहीं बल्कि शिप्यत्वग्रहण तथा पाचार्य-पदको प्रति प्रादिकी दृष्टिको लिये हुए भी होता है और इस लिये उम भन्द-प्रयोगसे उक्त तीनों प्राचार्योका ममन्तभद्रके जीवन-कालमें होना बाधित नहीं ठहरता। प्रत्युत इसके, समन्तभद्र के ममयका जो एक उल्लेख शक संवत् ६०(वि.सं.१९५)का-संभवत:उनके निधनका-मिलता है उसकी सगति भी ठीक बंट जाती है / स्वामी समन्तभद्र जिनशामनके एक बहुत बड़े प्रचारक पौर प्रमारक हुए है, उन्होंने अपने ममयमे श्रीवीर जिनके शासनकी हज़ार गुगली वृद्धि की है. मा एक शिलालेख में उल्लेख है, अपने मिशनको सफल बनाने के लिये उनके द्वारा अनेक गियोंको अनेक विषयोंमें खाम तौर सुशिक्षित करके उन्हें अपने जीवनकालमें ही शामन-प्रचार के कार्य में लगाया जाना बहुत कुछ स्वाभाविक है, और इममे सिंहनन्दी जसे धर्म-प्रचारकी मनोवृत्ति के उदारमना प्राचार्यके अस्तित्वकी सभावना समन्तभद्रक जीवनकालमें ही अधिक जान पड़ती है / प्रस्तु। आरके इन मब प्रमाग्गों एवं विवेचनकी भगनी में यह बात प्रसन्दिग्धरूपमे स्पष्ट हो जाती है कि स्वामी ममन्नभद्र विक्रमकी दूमरी शताब्दीके विद्वान थे-भले हो वे इस शताब्दीक उत्तराध में भी रहे हो या न रहे हों। और हम लिये जिन विद्वानोने उनका समय विक्रम या ईमाकी तीसरी शताब्दीमे भी बादका अनुमान किया है यह सब भ्रम-मूलक है। डाक्टर केसील पाठकने अपने एक लेबमें ममन्तभद्रके समयका अनुमान ईमाकी पाठवी शताम्दीका पूर्वाधं किया था, जिसका युक्ति-पुरम्स र निराकरण 'समन्तभद्रषा समय मौर स० के० बी० पाठक' नामक निबन्ध (नं. 18 ) में विस्तार के साथ Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 666 जैनसाहित्य और इतिहासपरविशद प्रकाश किया जा चुका है और उसमें उनके सभी हेतुप्रों को प्रसिद्धादि दोषों से दूषित सिद्ध करके नि:सार ठहराया गया है (पृ० 267-322) / डाक्टर सतीशचन्द विद्याभूषणने,प्रपनी 'हिस्टरी माफ़ दि मिडियावल स्कूल माफ़ इन्डियन लॉजिक' में, यह अनुमान प्रकट किया था कि समन्तभद्र ईसवी सन् 600 के लगभग हुए हैं। परन्तु मापके इस अनुमानका क्या प्राधार है अथवा किन युक्तियोंके बलपर प्राप ऐमा नुमान करने के लिये बाध्य हुए हैं यह कुछ भी सूचित नहीं किया / हाँ, इससे पहले इतना जरूर सूचित किया है कि समन्तभद्रका उल्लेख हिन्दू तत्त्ववेत्ता 'कुमारिल ने भी किया है और उसके लिये डा० भाण्डारकरको सस्कृत ग्रन्थोंके अनुसन्धान विषयक उस रिपोर्टके पृ० 118 को देखने की प्रेरणा की है जिसका उल्लेख इस लेखके शुरू में एक फुटनोट-द्वारा किया जा चुका है / साथ ही, यह प्रकट किया है कि 'कुमाग्लि' बौद्ध तार्किक विद्वान् 'धर्मकीति'का समकालीन था पोर उसका जीवन काल प्राम तौर पर ईमाकी ७वी शताब्दी (६३५मे 650) माना गया है। शायद इतने परसे ही-कुमारिलके ग्रन्थमें समन्तभद्रका उल्लेख मिल जाने मात्रमे हीमापने समन्तभद्रको कुमारिलमे कुछ ही पहल का अथवा प्राय: समकालीन विद्वान् मान लिया है, जो किसी तरह भी युक्ति-मगत प्रतीत नहीं होना / कुमारिलने अपने श्लोक्वातिकमें, प्रकलंकदेवके 'प्रगती' ग्रन्थपर, उसके 'प्राज्ञाप्रधानाहि...' इत्यादि वाक्योंको लेकर कुछ कटाक्ष किये है , जिमसे प्रकलंकके अष्टशती' ग्रन्थका कुमारिलके मामने मौजूद होना पाया जाता है। और यह अष्टशती ग्रंथ समन्नभद्रके "देवागम' म्तोत्रका भाष्य है, जो ममन्तममे कई शताब्दी बादका बना हुप्रा है। इसमे विद्याभपात्रीक अनुमानको नि:सारना सहज ही व्यक्त हो जाती है। इन दोनों विद्वानोंके अनुमानोंके सिवाय पं० मुम्बलालजीका, 'भानबिन्दु' की परिचयात्मक प्रस्तावनामे, समन्तभद्रकी मिना किसी हेतुके हो पूज्यपाद (विक्रम छटी शताब्दी)का उत्तरवर्ती बतलाना और भी अधिक निःसारताको लिये हए है-वे पूज्यपादके 'जैनेन्द्र' व्याकरणमें 'चतुश्यं समन्तभद्रम्य' पौर दखा, प्रोफेसर के. बी. पाठकका दिगम्बर जैन साहित्यम कुमारिल. का स्थान' नामक निबन्ध / Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका समय-निर्णय 'वेत्तेः सिद्धसेनस्य' इस दो सूत्रोंके द्वारा समन्तभद्र और सिद्धसेनके उल्लेखको जानते-मानते हुए भी सिद्धसेनको तो एक मूत्रके प्राधार पर पूज्यपादका पूर्ववर्ती बतला देते है परन्तु दूसरे सूत्रके प्रति गज-निमीलन-जसा व्यवहार करके उसे देखते हुए भी अनदेखा कर जाते हैं और समन्तभद्रको यों ही चलती कलमसे पूज्यपादको उत्तरवर्ती कह डालते है ! साथ ही, इस बातको भी भुला जाते है कि सन्मतिकी प्रस्तावनामें वे पूज्यपादको समन्तभद्रका उत्तरवर्ती बतला माए है और यह लिम्ब पाए है कि 'स्तुतिकाररूपमें प्रसिद्ध इन दोनों प्राचार्योंका उल्लेख पूज्यपादने अपने व्याकरण के उक्त मूत्रोमे किया है उनका कोई भी प्रकारका प्रभाव पृज्यपादकी कृतियों पर होना चाहिये, जो कि उनके उक्त उत्तरवर्ती कथन के विरुद्ध पडता है। उनके इम उत्तरवर्ती कथनका विशेष ऊहापोह nवं उमकी निःसारताका व्यक्तीकरण 'मन्मनिमूत्र और मिद्ध सेन' नामक निबन्धके 'मिद्धमेनका ममयादिक' प्रकरण ( पृ० 5.43-566 ) में किया गया है और उसमें तथा सिद्धमेनका मम्प्रदाय और गुणकीर्तन' नामक प्रकरण(पृ० 5.66-585 ) में यह भी स्पष्ट करके बतलाया गया है कि ममन्तभद्र न्यायावतार पोर मन्मतिमूयक कर्मा सिद्ध सेनोंसे ही नहीं, किन्तु प्रथमादि बिशिकाओके का सिद्धगेनों में भी पहले हुए हैं। 'स्वयम्भूस्तुति' नामकी प्रथमदाविधिकामे मिद्धमेनने 'अनन मवेशपरीक्षणक्षमास्त्वयि प्रमादान यमामा: ग्यिता: जैम वाक्योके दाग सर्वज्ञपरीक्षकके रूपमें स्वयं ममन्तभद्रका म्मरण किया है घोर अन्तिम पद्यमे तव गुणकथाका वयमपि' जैसे वाक्योंका मायमे प्रयोग करके वीरम्नुनिक रचने में ममन्तभद्र के अनुकरण की साफ सूचना भी की है-लिखा है कि इस सर्वज्ञ-बारको परीक्षा करके हम भी मापकी गुगणकया करने में उत्मक हए है। समयका अन्यथा प्रतिपादन करने वाले विद्वानोंके भनुमानादिककी ऐसी स्थिति में समनभद्रका विकमकी दूसरी अथवा ईमाकी पहली शताब्दीका समय और भी पधिक निर्णीत और निविवाद हो जाता है। दिल्ली, मंगसिर शुक्ला पंचमी स. 2012 Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 1. काव्यचित्रोंका सोदाहरण परिचय समन्तभद्रकी स्तुतिविद्या (ले०२०) से सम्बद्ध काव्य-चित्रों के कुछ उदा. हरण अपने-अपने काव्यके साथ यहाँ दिये जाते हैं, जिसमे उनके विषयका यथेष्ट परिज्ञान हो सके / साथमें चित्रोंका ठोक परिचय प्राप्त करने के लिये जरूरी मूचनाएँ भी दी जा रही है / इन सबको देने से पहले चित्रालङ्कार-सम्बन्धी कतिपय सामान्य नियमोंका उल्लेख कर देना प्रावश्यक है, जिसमे किमी प्रकारके भ्रमको प्रयवा चित्रभङ्गकी कल्पनाको कही कोई अवकाश न रहे(१) "नाऽनुम्वार-विसर्गौ च चित्रभङ्गायसंमतौ।" 'अनुस्वार पौर विसर्गका अन्नर होने में चित्राऽलङ्कार भग नहीं होता।' (2) “यमकादी भवेदैक्यं डलो रखो वालथा।' 'यमकादि अलङ्कारोंमें इ-ल, र ल और व-बमें प्रभेद होना है।' (3) यमकादि चित्रालङ्कारोंमें अन्य प्रभेदोंकी तरह कहीं कहीं श- पोर न-ग में भी प्रभेद होता है; जमा कि निम्न मग्रह इलोकमे जाना जाता है "यमकादी भवदेक्यं डलयो रल योर्वयोः / शपयान गयोश्चान्त मविसर्गाऽविसर्गयोः। मबिन्दुकाऽबिन्दुकोः म्यादभेद-प्रकल्पनम् / / " (1) मुरजबन्धः श्रीमज्जिनपदाच्याशं प्रतिपद्यागसां जये / कामस्थानप्रदानेशं स्तुति विद्यां प्रसाधये // 1 // XXXXXXXX / Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १-काव्यचित्रोंका सोदाहरण परिचय 6 ये मामान्य मुग्जबन्धके दो चित्र है। इनमें पूर्वाध के विषमसंख्यांक (1, 3, 5, 7, 6, 11, 13, 15) प्रक्षगेको उत्तराध के ममसंख्याङ्क ( 2, 4, 6, 8, 10, 12, 14, 16) प्रक्षगेंक माथ क्रमश: मिलाकर पढ़नस श्लोकका पूर्वार्ध पोर उत्तरार्ध के विषमसरूयाङ्क अक्षरोंको पूर्वाधक सम संख्या प्रक्षरोंके साथ क्रमश: मिलाकर पढन में उत्तराधं बन जाता है। इस प्रकार के अन्य श्लोक अन्यमे निम्नप्रकार है 2, 6, 7, 8, 6, 21, 30, 31.32. 33, 34, 35, 36, 40, 41, 42, 45, 46,58. 26, 60, 61,62, 63, 65, 67. 68, 66. 70, 71, 73. 74, 75, 76, 77. 78, 80, 82, 66, 101, 102, 103, 104, 185 / (6) अर्धभ्रम-गृढपश्चाई: धिया ये श्रित येताा यानुपायान्वराननाः / येपापा यानपारा ये श्रियायानाननन्वन // 3 // - धि या ये नि त ये ता | / 2. या नु 3 ये : पा 4] वि या पा पा या या या ता न्य त न रा पा त न ता रा ये / न्व : त - -- - - - - ---- - - - - - - 5 Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 700 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश इसी प्रकार 4, 18, 19, 20, 21, 27, 36, 43, 44, 56, 60, 62, श्लोकोंको जानना। (3) गतप्रत्यागतादः भासते विभुतास्तोना ना स्तोता भुवि ते सभाः / याः श्रिताः स्तुत गीत्या नु नुत्या गीतस्तुताः श्रिया // 10 // |भास ते विभुता तो! ना याः श्रिताः स्तुत गी! त्या नु इस कोष्टकमें स्थित श्लोकके प्रथम-तृतीय चरणोंको उलटा पढ़नसे क्रमश: द्वितीय-चतुर्थ चरण बन जाते है। इसी प्रकार के दलोक नं० 83, 88, 65 है। (4) गर्भ महादिशि चकाक्षरश्चतुरक्षरश्चक्रश्लोकः नन्धनन्तद्धयनन्तन नन्तनम्तभिनन्दन / नन्दनर्द्धिरनम्रो न नभ्री नष्टोभिनन्दा न ||2|| Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १-काव्यचित्रोंका सोदाहरण परिचय 701 यह श्लोकके प्रथमाक्षरको गर्भ में रखकर बनाया हुमा चार प्रक्षरोंवाला वह चक्रवृत्त है जिसकी चार महादिशामोंमें स्थित चारों प्रारोंके अन्तमें भी वही अक्षर पड़ता है / अन्त और उपान्त्यके अक्षर दो दो बार पढ़े जाते हैं / 23, 24 नम्बरके श्लोक भी ऐसे ही चक्रवृत्त है / (5) चक्रश्लोकः वरगोरतनुन्देव वन्दे नु त्वाक्षयार्जव / वर्जयाति त्वमार्याव व मानोरुगौरव // 26 // एवं 53, 54 श्लोको यह श्लोकके प्रथमाक्षरको गर्भ में रखकर बनाया दृपा चार मारोंवाला पक्रयत्त है। इसके प्रथमादि कोई कोई रक्षा चक्र एक बार लिखे जाकर भी भनेक बार पढ़ने में माते है / 53 54 नम्बरके श्लोक भी ऐसे ही चळवृत्त है: Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 782 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश (6) अनन्तरपाद-मुरजवन्धः अभिषिक्तः सुरैलोकैस्त्रिभिभक्तः परैर्न कैः / / वासुपूज्य मयीशेशस्त्वं सुपूज्यः कयीदृशः / / 8 / / म मि इस चित्रमें श्लोकका एक चरणा अपने उत्तरवर्ती चरणके साथ मुरजबन्धको लिये हुए है / ऐसे दूसरे श्लोक नं. 64, 66. 100 पर स्थित है। (7) यथेकाक्षगन्तरित-मुरजबन्धः क्रमतामक्रम क्षेमं धीमतामय॑मश्रमम् / * श्रीमद्विमलमर्चेमं वामकामं नम तमम् // 50 // - - - मुरजबन्धके इस चित्रमें ऊपरके चित्रसे यह विशेषता है कि इसमें अपना इष्ट प्रक्षर (म) एक एक अक्षरके अन्तरसे परके चारों ही परणोंमें बराबर Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 03 परिशिष्ट १-काव्यचित्रोंका सोदाहरण परिचय प्रयुक्त हुमा जान पड़ता है / इस प्रकारके दूसरे श्लोक 86 प्रौर 61 है। (8) अनुलोमप्रतिलोमेकश्लोकः नतपाल महाराज गीत्यानुत ममाक्षर / रक्ष मामतनुयागी जराहा मलपातन / / 57 / / न त पाल/Hler |N [ज | ar | तु त म मास र इस कोष्ठकमें स्थित पूर्वाधंका उल्टा पढ़ने में उत्तरा बन जाता है / इसी प्रकार श्लोक नं 0 66, 68 भी अनुलोम-प्रतिलोम क्रमको लिये हुए है। (E) बहुक्रियापद-द्वितीयपादमध्य-यमकाऽतानुभ्यम्जनाऽवर्णस्वर गूढद्वितीयपाद-सर्वतोभद्रः पारावाररवारापारा क्षमाक्ष क्षमाक्षरा / वामानाममनामावारने मद्धद्धमत्तर ||4|| पा रा वा र र वा रा पा |रा क्ष मा क्ष क्ष मा क्ष रा |वा मा ना म म ना मा वा बा मा ना म म ना मा वा रान मा भ भ मा क्षरा पाग वा र र वा रापा इस कोष्ठकमें ऊपरका लोक चारों पोरसे पढ़ा जाता है। Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 704 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश ' (10) गतप्रत्यागतपाद-पादाभ्यास यमकश्लोकः वीरावारर वारावी वररोहरोरव / / वीरावाररवारावी वारिवारिरि वारि वा // 8 // इस कोष्टकमें स्थित प्रत्येक चरणोंके पूर्वाधको उल्टा पढ़ने से उसका उत्तरार्ध बन जाता है। यह श्लोक दो पक्षरों (व, वी रावा र) से बना है। इसी प्रकारके श्लोक नं० 63, 64 है। वा रि वा | रि (11) अनुलोम-प्रतिलोम-श्लोकयुगलम् रक्ष माक्षर वामेश शमी चारुरुचानुतः / भा विभीनशनाजारुनम्रन विजरामय / / 86 / / क्षमा क्षार वा मे शशम) anचा रु/चा/नुत: ---- मोवि का नाम ना जानन विनिमय मा इस कोष्ठकमें स्थित श्लोकको उल्टा पड़नसे नीचे लिखा 87 वा इलोक बन जाता है: यमराज विनम्रन रुनानाशन भी विभो। तनु चारुरुचामीश शमवारक्ष माक्षर / / 7 // यमराज विन lalala laleler न तनु चारु रुचामी शश मेवात इस कोष्ठकमें स्थित श्लोकको उल्टा पढ़नेसे पूर्वका 86 वा श्लोक बन जाता है। इसीसे श्लोकका यह जोड़ा अनुलोम-प्रतिलोम कहलाता है। Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परि० १-काव्य चित्रोंका सोदाहरण परिचय 705 (12) इष्टपादवलय-प्रथमचतुर्थसप्तम वलयकाक्षर-चक्रवृत्तम् नष्टाहान मलोन शासनगुरो नम्र जनं पानिन नष्टम्लान सुमान पावन रिपूनप्यालुनन्मासन / नत्येकेन रुजोन सजनपत नन्दननन्तावन नन्दन्हानविहीनधामनयनो न: स्तात्पुनन्सजिन ||11 / / मा इस चक्रवत्तक गम में जो प्रक्षर है वही छहों आरोके प्रथमचतथं पोर समय बलयमें भी स्थित है, प्रम: 16 नार लिम्बा जाकर 28 वार पहा जाता है। 112 वो पच भी मारी। Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 706 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश (13) कवि-काव्य-नामगर्भ-चक्रवृत्तम् गत्वैकस्तुतमेव वासमधुना तं येच्युतं स्वीशते यन्नन्यैति सुशर्म पूर्णमधिको शान्ति अजित्वाध्यना / यद्भक्त्या शमिताकृशाघमरुज तिष्ठेजनः स्वालये ये मद्भोगकठायतीव गजते ते मे जिनाः सुश्रिये // 116 / / KET" A सा ta म T बा Rel म इस चक्रवृत्त के बाहरमे 7 वे वलयमें 'शान्तिवर्मकृतं' और चौथे वलयमे 'जिनस्तुतिशत' पदोंकी उपलब्धि होती है, जो कवि और काव्यके नामको लिये हए है / कवि और काव्यके नाम विना इस प्रकार के दूसरे चक्रवृत्त 118, 113, 114, 115 नं० के हैं। Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 स्वयम्भू-स्तवन-छन्द सूची 213 निबन्धसे सम्बद्ध स्वयम्भूस्तोत्रके स्लवन-क्रमसे छन्दोंके नाम और लक्षण निम्न प्रकार है-एक स्तवनके पद्य यदि एकमे अधिक छन्दोंमें है तो उन पद्योंके कमाङ्ग छन्द-नामके पूर्वमें दे दिये गये है / और जिस छन्दका लक्षण एक बार किसी स्तवनमें प्राचुका है उसकी सूचना उपयुक्त' शब्द के साथ उम स्तवननम्बरको ब्रेकिट के भीतर देकर की गई है :-- 1. वंशम्थ-प्रत्येक चरणमें जगण, तगरग, जगण, रगणके क्रमको लिये हुए द्वादशाक्षर (5,7) वृत्तका नाम 'वास्थ' है। 2. उपजाति--इन्द्रवजा और उपेन्द्रवजाके चरण-मिश्रण में बना हुग्रा छन्द उपजाति' कहलाता है / 3. 1.5 इन्द्रवना.२ उपेन्द्रवत्रा, 3,5 उपजाति-प्रनिचरगा तगरण,तगरण, जगरण और ग्रन्तम दो गुरुके क्रमको निय हा एकादशवर्णात्मक वृतको 'इन्द्रवना' कहते हैं और यदि चरणारम्भमें गुरु के स्थान पर लघुप्रक्षर (जगरण) हो तो वही 'उपेन्द्रवज्ञा' हो जाता है / दानों के मिश्रणसे बना 'उपजाति'। 4. वंशम्थ---उपयुंक्त (1) 5. 1-4 उपजाति, 5 उपेन्द्रवज्रा- क (2), (3) 5-8, उपजाति--उपयुक (2) 10. वशम्थ--उपयुक्त (1) 11. 5.4,5 उपजाति, 2, 3 उपेन्द्रवना-उपयुक्त (2) उपर्युक्त (3) 10. 1,3,4 उपजाति. 2, उपेन्द्रवम्रा. 5 इन्दरम्रा-उपयुक्त (2), (3) 13-14. वंशस्थ---उपयुक्त (1) 15. रथ द्धता-रगण,नगगा रगण गीर लघु-गुरु क्रमको लिये हुए एकादश वर्णात्मक-चरण-वृत्तका नाम 'रथाद्धता' है। 16. उपजाति-उपयुक्त (2) Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 708 जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश 17. वसन्ततिलका-तगण,भगण,जगण, जगणपोर मन्तमें दो गुरुके क्रमको लिये हुए चतुर्दश-वर्णात्मक(८,६) चरणावृत्त का नाम 'वसन्ततिलका है। 18. 1,18 पथ्यावक्त्रअनुष्टुप-मनुष्टुपके प्रत्येक चरणमें पाठ अक्षर होते है, जिनमें ५वा लघु, ६ठा गुरु और ७वां अक्षर समचरणों (2,4) में लघु तथा विषमचरणों (1,3) में गुरु होताहै / और जिसके समचरणोंमें चार अक्षरोंके बाद 'जगण'हो उसे 'पथ्यावक्त्र-मनुष्टुप्' कहते है। 16, 20 सुभद्रिकामालती-मिश्र-यमक-नगरण, नगण, रगण और लघ-गुरुके क्रमको लिये हुए एकादशवरात्मक चरणवृत्तका नाम 'सुभद्रिका' है और नगगग, जगण, जगरण, रगण के क्रमको लिये हुए द्वादशाक्षरात्मक चरणवृत्तका नाम 'मालती' है। इन दोनोंके चरण-मिश्रण बना हुमा छन्द 'सुभद्रिका-मालनी-मिश्र-यमक' कहा जाता है। 16. वानवामिका-जिमके प्रत्येक चरगामें 16 मात्राएँ और उनमें वी तथा १२वी मात्रा लघु हों उसे 'वानवामिका' रन्द कहते हैं। 20. वेतालाय--जिसके प्रथम तृतीय (विपन / नरगों में 18 और द्वितीय, चतुर्थ : मम) चरगामें 16 मात्रा होनी: नया विम चरणोम 6 माय'. मोके और ममच गणों में 8 मावापोक बाद मग: गगा तथा लघ- गुः होते है उसे वैनानी यवन कहत है। 21, शिखरिगी-- प्रत्येक चरगम यगरग, मगराग, नगगा. मगगा, भगगग प्रोः नघ-गुरुके भ्रमको लिये हा मतदा (6.11) वर्गात्मक वनका नाम 'शिखरिणी' है। 22. उगता-जिमके प्रथम चरण में क्रमश: सगग्ग , जागा. मगग पोर लघ. द्वितीय चरणमें नगगा, मगण, जगगा और गुरु, तृतीय वरमा भगण, नगगण, जगरण और लघु गुरु तथा चौथे चरण में मगग, जगगा. सगण, जगण पोर गुरु हों उसे 'उद्गता' वन कहते है। 23. वंशस्थ-- उपर्युक्त (1) 24. आर्यागीति (स्कन्धक)-जिमके विषमचरणोंमे 12-12 और मम. Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परि०२-अहरसम्बोधन-पदावली चरणों में 20-20 मात्राएं होती है उसे 'पार्यामीति' प्रषवा 'स्कन्धका वृत्त कहते है। गण-लक्षण-पाठगणोंमेंसे जिसके प्रादिमें गुरु वह 'भगण,' जिमके मध्यमें गुरु वह 'जगरण', जिसके अन्तमें गुरु वह 'सगरण,' जिसके मादिमें लघु वह 'यगरण', जिसके मध्यमें लघु वह 'रगण, जिसके अन्तमें लघु वह 'तगण' जिसके तीनों वर्ण गुरु वह 'मगरण' पौर जिसके तीनों वर्ण लघ वह 'नगण' कहलाता है / लघु एकमात्रिक और गुरु द्विमात्रिक होता है / 3. अर्हत्सम्बोधन पदावली म्वामी ममन्तभटने अपने स्वयम्भूस्तोत्रमें तीर्थङ्कर महन्तोंके लिये जिन विशेषणादोंका प्रयोग किया है उनका एक संग्रह स्तवन-क्रममे 'समन्न भद्रका म्वयम्भस्तोत्र' नामक निबन्ध (२१)में दिया गया है पोर उमके देने में यह दृष्टि व्यक्त की गई है कि उसमे अहंम्वरूपपर अच्छा प्रकाश पडता है और वह नय. विवक्षाके माथ प्रथंपर दृष्टि रम्बने हुए उन(विशेषणपदों)का पाठ करनेपर सहज ही प्रवगत हो जाता है / यहाँपर उन मम्बोधन-पदोका स्तोत्र-क्रमस एकत्र संग्रह दिया जाता है जिनमे स्वामीजी अपने इष्ट प्रहन्तदवों को पुकारते थे और जिन्हें म्वामीजीने अपने स्वयम्भू,देवागम, युक्त्यनृगासन पोर स्तुनिविद्या नामके चार उपलब्ध स्तोत्रोंमें प्रयुक्त किया है / इम्मे भी ग्रह नम्वरूपपर अच्छा प्रकाश पड़ता है और यह नय-विवक्षाके माथ प्रथंपर दृष्टि रखते हुए पाठ करनेपर और भी मामने प्राजाता है / माथ ही,इममे पाठकोंको ममन्नभद्रको चितवत्ति और रचनाचातुरीका कितना ही नया एवं विशेष अनुभव भी प्राप्त हो मकेगा / स्तुतिविद्याके अधिकांश सम्बोधनपद तो बड़े ही विचित्र, अनूटे,गम्भीर तथा प्रथंगौरवको लिये हुए जान पड़ते है और वे सब मंस्कृत भाषापर समन्तभद्रके एकाधिपत्यके सूचक है। उनके प्रथंका कितना ही प्राभास पाठकोंको स्तुतिविधाके उस अनुगद परमे हो सकेगा जो वीरसेवा-मन्दिरसे प्रकाशित हुपा है। शेष सम्बोधनपदों का प्रचं सहज ही बोधगम्य है। एक स्तोत्र में जो सम्बोधनपद एकसे अधिक बार प्रयुक्त हुए हरें उस स्तोत्रमें प्रथम प्रयोगके स्थानपर ही पचाके साथ ग्रहण Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 510 जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश किया गया है और अन्यत्र प्रयोगकी सूचना से कटके भीतर प्रद्याहोंको दकर की गई है / स्तुतिविद्याके सम्बोधनपदोंको स्तवनक्रमसे ( स्तवनका नम्बर परेग्राफ़के शुरूमे ही देते हुए) रक्खा गया है और उनके स्थानकी मूचना पद्याखों-द्वारा पद्यसम्बन्धी सम्बोधनपदोंके अन्त मे तथा ब्र कटके भीतर उन्हें देकर की गई है। 1. स्वयम्भूमें प्रयुक्त पद-नाथ 14 ( 25, 57, 75, 66, 126), प्रार्य 15 ( 48, 68), प्रभो 20 (6), मुविधे 41, अनघ 46, जिन 50 (112, 114 137.141), शीतल 58. मुनीन्द्र 56 (85), महामुने 70 धीर 74 (60, 64 ), जिन वृप 75, अजिन 104, वरद 105, कृतमदनिग्रह 112, यते 11:, धीमन् 11 :, भगवन् 115, बीर 136. मुनीश्वर 138, मुमुक्षुकामद 141, देव 143 / . 2. देवागममें प्रयुक्त पद-नाच .. मुनीन्द्र 20 / 3. यक्गनशामन में प्रयुक्त पद--- जन - (.:. 35. : 4.5.2...) वीर 33, जिननाग 84. मुने छ ! 5. निविद्या प्रयत्न सम्बोधनपद- . (1) ननपीनामन. अमक. सुमन:. ऋषभ ; ग्रायं (26.85, 5.4. 8. 12); तुन 10, ई ड्य, महारवे ?: अनालितमोतोते. नतीनत: 13: येयायावाययेयाय, नानाननाननानन, अमम (63), अमिताततीनिती नित: 14: महिमाय, पद्म वामहिनायने 15 / (2) मदक्षर, अजर ( 83, 112), अजित, प्रभो (27) 16; मदक्षगजराजित, प्रभोदय, नान्नमोह ? / (3) वामेश (86, 86,68), एकाच्यं, शंभत्र 16: जिन ( 23, 61, 62), अविभ्रम 20 / (4) अनमः, अभिनन्दन ( 22, 23, 24) 21, नन्नन्द नन्त, इन ( 24. 25, 75, 86, 88, 61, 108, 111) 23; नन्दनस्वर 24 // (5) सुमते, दातः (66) 25; देव (28, 63), प्रक्षयार्जब, बर्य (54, Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ramirmino n -~ ~-~ uran परि०३-अर्हत्सम्ध व पदावली 711 18, 110), अमानोरुगोरव 26 / (6) अपापापदमेयश्रीपादपन, पद्मप्रभ, मतिप्रद 27; विभो (86, 87 ), जेय (75, 65), ततामित 28 () एकस्वभाव 35; गशिप्रभ 36 / (8) अज (84, 86, 86 ) 35; नायक, मनजर 38; अव्याधे,पुष्पदन्त, स्ववत्पते 36: धीर (63) 80 / (10) भूतनेत्र. पते 41 / / (11) तीर्थादे 43: अपगग (48). महिनावार्य 86; श्रेयन्, विदार्यमहित ममृत्मत्र जब 431 (1) वामाज्य 8 / (23) अनन: / 108) 52; नयमानरम, अमान (63), ग्रार्यातिनामन' उरो, परिमाय / (18) वर्गभ, अतिन-दा, बना, अनन्त, दानव, वद. (118), प्रतिननार्यान, नानगाभार्गव 55; नन्नामृत (1-6), उत. अनन्त 55 / (2.) अबाध. दमन, मन, धर्मप्रभ गाधन. अनागः, धर्म. शर्मतमप्रद 56; नरपाल, महागज, गीत्यानल मकर ( 85...6. 86.11.). मलपातन 57 नाथ देवदव 6: यर (c) उदार :: ईडिन, भगो: 64 / (16) बनाइय ; अधिपत 70, बुध देव 71: माताहीन 52, स्वसमान, भाममान, अनघ / (17) पनिज 81: ननयात. विदामाम, दाविनयातन, रजमामन्त, प्रसन्नमस 83; पारावाररवार, समान, वामानाममन, ऋद्ध (108) 84 / (18) बीगवार, अर. वरर, वीर 85; चारुचानुत. मनशन (31), उरुनम्र, विजरामय 86; यमराज, विनम्र न, जोनाशन, चारुरुचामीश 87; स्वयं, स्वयमाय, प्रायस्वमायन, इमराज, ऋनवाद, नदेवातंजरामद 88; रक्षार पदर, भूर 86 Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 712 - जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश * 20) हानिहीन, अनन्त (111). ज्ञानस्थानस्थ. मानतनन्दन 61; पावन, भजितगोतेजः, वर, नानावत, प्रक्षते, नानाश्चर्य, सुवीतागः, पुनिसुव्रत 62 / (21) नमे, मनामनमन:, नामनमन: 63; नः, दयाभ, ऋतवागोच, गोबार्तभयार्दन, अनुनुत, नतामित 65; स्वय, मेध्य, श्रिया नुतयाश्रित, दान्तेश, शुदघाऽमेय, स्वभीत 66 / (22) सद्यशः, अमेय, रुगुरो, यमेश, उद्यतसतानुत 68 / (23) ममतातीत, उत्तममतामृत, ततामितमते, तातमत, प्रतीतमृते, अमित 100 / (24) कामदेव. क्षमाजेय, श्रीमते, वर्द्धमानाय, नमोन (104) 103, श्रीम 104; सुरानत 107; वर्द्धमान, श्रेय 108; नानानन्तनुतान्त, तान्तितनिनुत, नुन्नान्त, नूतीनेन, नितान्ततानितनुते, नूतीनेन नितान्ततानितनुते, निनूत, नुतानन 106; वन्दारुप्रवलाजवंजवभयप्रध्वंमिगोप्राभव, वदिष्णो, विलसद्गुग्गार्गव, जगनिर्वाणहेतो, शिव, वन्दीभूतसमस्त देव, प्राजकदक्षस्तव. एकवन्ध. प्रभव 110; नष्टाज्ञान, मलोन, शासनगुरो, नष्टग्लान, मुमान, पावन, भासन,नत्येकेन, झजोन, सज्जनपते, अवन, सज्जिन 111; रम्य, अपारगुण, पर, मुरवररच्यं, श्रीधर रत्यून, परतिदूर, भामुर. अयं, उत्तरीश्वर, शरण्य, प्राधीर, मुधीर, विद्वर, गुरी 112; तेज:पते 114 / Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाऽनुक्रमणी कलङ्क 326, 464, 465, 473, अजितसेनाचार्य 165, 168, 357, 474,475, 527, 530, 555, पाजतंजय 582. 641, 642, 644, अटक (पजाब) अकलंक्यन्यत्रय 324. 326. 327. अनगारधर्मामृत 328 मनन्तवीर्य 465, 581,582, 653, प्रकलंकचरित 541, 545, 656 अनुनगेपपाददशांग 464, 467 प्रकलकदेव 68. 160, 175. 182, मनुप्रेक्षा कातिकेय) 462 183, 187, 207, 227.253, अनुोगद्वारसूत्र 256, 260, 273, 274, 275. 278, 27, 286, 264 300, अनेकान्त (मासिक) 45. 46, 47, 307, 308, 306, 318, 321, 101, 125, 245, 253,346, 470,475, 502, 541,544, 352, 446, 466, 468.472, 545 561, 565, 568,581, 613, 625.628, 636.653. 473, 474. 475.483, 487, 654, 655, 656,658, 663, 558, 577, 567.658 अनेकान्तजयपताका 166, 266, पग्निभून 62 268 310. 506 पग्निराज 464 अन्तर्दीपज 680, 681 प्रत्युतराय 643 अन्ध्रदेश प्रजातशत्रु भन्ययोग-व्यवच्छेद-द्वात्रिशिका 282 पणित (तीर्थकर) पपराजित प्रजित (ब्रह्म) 165 अभयचन्द्र अजितनाव 73 अभयचन्द्र (सिद्धान्तचक्रवर्ती) 280 Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 714 जैनसाहित्य और इनिहामपर विशद प्रकाश अभयचन्द्र (सूरि) 280 अष्टपाहुड अभयचन्द्र (सैद्धान्तिक) 281 अष्टशनी 183, 256, 260, 273, अभयदेव 551 275, 264, 300, 307,362, अभयदेवमूरि 504, 517, 526. 470, 530,561, 638, 636, 545, 584 645. 646, 656, 666 अभयमुरि 281 अष्टमहम्री 153, 187, 188, 186. अभिनव-धर्मभूगण 160. 198.206, 253 256 अममरित्र 260, 285, 286 287.86, अमरकोग अमितगनि 305, 324, 326, 327. 470. अमितगति ( प्राचार्य) 33. 34, 343. 33.636.646.663 अमृतचन्द्र 106.4.8 अप्रमहरी-शिवगा अमन चन्द्रमरि 505.13 अपमहनी-विषमपद नापयंटाका 52 हामृनचन्द्राचार्य 61.660. 665, अमङ्ग ग्रानागङ्ग (मत्र) 6.6.2. अमोघवर्ष ग्रानागङ्ग-ग्युिक्ति : अम्बट (वंश) प्राचार्य-भक्ति अथ्यपाय मानार-नि प्रमंगलान्वय प्रावारमार अनी टिम्टगे प्राफ़ इंडिया 157 ग्रा-मम्यानि (ममयमार-टीका) ::: प्रात्मानन्दप्रकाश 551.558 अर्ली हिस्टरी ग्राफ़ डेक्कन प्रात्मानुगामन अहमूत्रवृत्ति मात्माराम (उपाध्याय) 128, 134 अहंद्वनी মাৰিব अहंन्मुनि 574 प्रादिपुगरण 164, 165, 241. 486 अलकारचिन्तामणि 153, 165 565, 5.65, 638, 640, 641, 168, 357, 568 656, 664, अविनीत (गंगवंशी राजा) 556 भादिपुराण (वहत) 660 486 Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ in.., . . नामाजुक्रमणी 715 546 मानन्दपल्ली (मानन्दमठ) 270 प्रायभंगु 571, 563 मानन्दविक्रम 40 मार्यमित्रनन्दि 485 प्राप्तपरीक्षा 186, 287, 260, प्रायंरक्षित 261, 263, 324, 325. 327, प्रार्यवत्र 637, 647 648 पाईप्रवचन 281 प्राप्तमीमामा (देवागम) 151. 11. ग्रावश्यक-चूणि 587 182. 165.205, 258, 062. प्रावश्यक टीका (हारिभद्रीया) 5.47 253. 283. 284. 285 86. अावश्यक-नियुक्ति 76.546, 556. 26.261.92264.2. __ अावश्यकसूत्र-टीका 20 126.:..:08 331.3.2, प्राणावर (प.) 1. 2. 168, 88 246. 263, 486. 4-3, 38. 85.43, 0 8.886, 464 8. 13.1265:.. दहानायं १.ना प्रामभामा पनि प्रमहनी) : 48. हनियन एण्टीक्री मङ्ग (नीनी यात्री ) 551. 55.2 पार. जी.नमिहानायं 6 इन्द्रदिन (गर) 570, 571 524, पार. जी. भापारकर ! भागधनाकथाका 166.12.., इन्द्रनन्दि (नन्दी) 80, 81 86 इन्द्रनन्दितावतार 82, 84.86. मायंखपुट (8) 571 88. 066. 275, 76. माजिनान्दगगी 485 प्रार्यदेव 275, 661, 662,664 इन्द्रनन्दी 278, 317, 566. 6.44 भायंदेव(नागार्जुन-प्रधान शिष्य) 376 इन्द्रदन प्रार्थनामहरिन 592 इन्द्रपुर (बंगाल) भार्यमा 87, 560, 562, 566, इन्द्रभूति (गौतम) 6, 14, 61, 62, 91, 194, 362 754 Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 716 जैनसाहित्य और इतिहामपर विशट प्रकाश 76 226 इन्द्रसेन 574 उरगपुर 152 इन्स्कि प्रशंन्स ऐट् श्रवणबेलगोल 160, उरंयूर (उरगपुर) 152. 158 173, 276, 563, 686 ऊर्जयन्तगिरि 101 उन ( वंश: 6.0 ऋजुकूला (नदी) 5, 4, 57,58,61 उग्रादित्याचार्य 241, 514 ऋषभ (तीर्थकर) 78 उच्चारणाचार्य 88 ऋषभदेव उज्जय(यि नी 38, 174 570, एकविंशतिस्थानप्रकरण 514 571, 575, 583, 585 एकसंधिसुमतिभट्टारक 661, 692 उड़ (उड़ीसा) 174. 241 एकान्तखण्डन 266 313. 315, उत्तराध्ययन (सूत्र) 321, 582 उत्तराध्ययन-नियुक्ति 546 एकीमाव (स्तोत्र) उदायो (राजा) 38 ए० चक्रवर्ती (प्रो०) उद्योतकर 301 एडवई पी० राइस 686 उद्योतनमूरि 553 ए.एन.उपाध्ये 45,65, 315, 465 उपसग्गहर-स्तोत्र 546, 547500, 601. 656 उपालिमुत्त (मज्झिमनिकायगत) 42 एनल्स प्राफ़ दि भाण्डारकर मो० उपासकाध्ययन ( रत्नकरण्ड) 471, रिसर्च इन्स्टिटयूट 267, 558 483. एपिग्रेफिका कर्नाटिका 107, 166, उमास्वाति 102 105,108. 121, 186 655, 661 125, 156, 271, 275, एलाचार्य 105, 150 276, 277, 278.283, 288, ए. शान्तिराज 286, 261,264, 265, 467. एस. बी. बेंकटेश्वर 500, 556, कटुसंघ (काष्टामघ ) उमास्वाति (गृध्रपिच्छाचार्य) 323, कथाकोष (प्रभाचन्द्रकृत) 466 326 कदम्ब ( वग) 153, 6.70, 671 उमास्वाति (वाचक) 117 कनकामर (मुनि) उमास्वाति (वाचकमुख्य) 682 कमलशील 650, 652 उमास्वामी 106, 642, 692 करकंडचरिउ 568 33 Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाऽनुक्रमणी 717 152 करहाटक 174, 236, 241 कालवण (ग्राम) करहाट (कराड) 172 कालिकाचार्य 546 कर्णाटक-कविचरिते 162, 163, कालिदास (कवि) 281,686 काबेरी (नदी) 152 कर्णाटक-शब्दानुशासन 174, 275 काव्यानुशासन 563, 686 काशी 48 कर्णामृतपुराण 515 काशीनाथ त्रिम्बकतेलंग 668, 666, कर्मप्रकृतिप्राभूत 266, 276, 283, काशीप्रसाद ( के० पी० ) जायसवाल कर्मप्राभूत-टीका 266 . 278 काश्यप कलापा भरमापा (50) 15. 288 कांची 158, 222, 225, 228, कल्कि 226, 230.231.234, 237, कल्पमूत्र-स्थ विरावली 566 562 563 कल्याणकारक (वंद्यक ग्रन्थ) 41.514 कांचीपुर (कांजीवरम्) 173, 241 कल्याणमन्दिर (स्नोत्र) 58. 515. कांजीवरम (कांची) 158 516, 51.7. 26.558. 571 कित्तगन्वय 603 कल्यागविजय (मुनि) 46,47. 48. 68. 564, 565. 69 कुन्दकुन्द (पयनन्दि)८६, 103.121, कविपरमेश्वर कमायपाहट ( कायप्राभृन ) 86. 518. 166, 600.6.2 88.266,56.585.586, कुन्दकन्द वापी 663 560.511600 कुन्दन्दाचार्य 86.6.66. 102, कंसाचार्य 108. 150, 326, 330, 480, काकुत्स्थवर्मा 504, 556, 576. 568, 602, काकुत्स्थान्वय कातिकेय (मुनि) 463. 464 कुन्दकुन्दान्वय 603, 604 कार्तिकेयानुप्रेक्षा 463, 466 कुमारनन्दी। 500, 622 कानकमूरि 570 कुमारसेन कुण्डपुर Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ maram 553 718 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश कुमारस्वामी 500 कोण्डकुन्दपुर 86, 603, 604 कुमारिल (मीमांसक विद्वान्) 300, कोण्डकुन्दपुरान्वय 605 302, 321, 656, 666 कौण्डिन्य ( गोत्र, कुमुदचन्द्र (प्राचार्य) 515, 516 कौशाम्बी 174 कुवलयमाला क्रियाकलाप कूरिणक (अजातशत्रु) 38. 36 क्रौंचराज 464 कृष्णदेव 643 क्षत्रियकुण्ड कृष्णराजप्रभु क्षुल्लकबंध कृष्णराज (नरसिंहपुत्र) 642 खपुट्टाचार्य कृष्णराज तृतीय ( मुम्मडिकृष्णराज खिस्रोन्दे उत्सन् ( तिब्बतका राजा ) प्रोडेयर) 652 कृष्णवर्मा 66. गद्यकथाकोश के 0 बी० पाठक 267, 324, 566, गंचिन्तामरिण 646,687,658, 656,667, गद्यप्रबन्धकथावली गर्दभिल्ल (राजा) के० भुजवली शास्त्री गगदेव केशववर्गी गंगवंदा केशवमेन (मूरि) 515 गम्नि महाभाष्य 271. 25, केशी 274, 276. 277, 276. 276. कैलाशचन्द्र शास्त्री 283, 288.286. 206. 260 कोट्याचार्य 263, 264 कोण्डकुन्द गिग्निगर (जूनागढ़) कोण्डकुन्दपुर कोण्डकुन्दाचार्य ____86, 150 गुग्णचन्द्राचार्य कोप्पन गुराघर 88, 596 कोशल (देश) 222 गुणधराचार्य 87,587, 586, कोंगुणिवर्मा 660, 66 5 61, 566, 600, 606 कोण्डकुन्दान्वय 60 गुणमद्र 600 गुणचन्द्र Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाऽनुक्रमही गुगरल 514 चन्द्रनन्दी गुणवर्म 277 चन्द्रपुर 231 चन्द्रप्रभ गुरुगुणषट्त्रिंशिका गुर्वावली 66, 566, 567, 568 चन्द्रप्रभचरित गृध्रपिच्छाचार्य (उमास्वाति) 102, चन्द्रप्रभसूरि 105, 107, 108, 150, 156, चन्द्रवरदाई 164, 260, 662, 678 चन्नरायपट्टण (तालुका) गेरुसोप्पे 150, 643 चरक गोमा (कदन्ववंशशाखा) 670 चर्चासमाधान गोतम ( गोत्र ) चहप्रद्यांत 38 गोम्मटमंगहमुत्त चामराजनगर गोम्मटमार 280, 587, 586 चामुण्ड राय 276, 463, 483,644 गोम्मटमार कर्मकाण्ड 626 चारित्तपार 62.660 गोवर्द्धन चारित्र-भक्ति गोशालक (मंखलोपुत्र) चाम्पीति 164 गोनम. 60, 82.642 चाहमान चण्डमहासेन 34 गौतम (गणधर) चरिणमूत्र 88, 586, 560. 561 गौतमम्वामी चेटक (गजा) गौरीशंकर हीराचन्द्रजी प्रोझा 81 चेलना (गनी) चण्डव्याकरण 66 छेदमूत्र चतुरविजय (मुनि) 547. 565 जगन्नाथ चतुर्मुख (कल्कि) जटामिहनन्दी (माचार्य) चतुवितिसधान 376 जम्बूद्वीपप्राप्ति चन्द्रगुप्त ( सम्राट ) 36, 36, 40 जम्बूद्विजय (मुनि) 551. 554 42,173 जम्बूस्वामो 81,87 चन्द्रगुस (मुनि) 156 जम्बूस्वामिचरित चन्द्रगुप्त (भद्रबाटुशिष्य) 604 जयकाति चन्द्रनगर जयचन्द्र 4 . 360 av Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 720 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश जयचन्द्रराय 261 जिनसेन 207, 251, 252, 361, जयनन्दी 486, 488 631, 635, 504, 565,567, जयनन्दि-टिप्पण 460582, 565, 64 जयघवल 8,81, 87.68 जिनसेनाचार्य 27, 88. 164,165, जयधवला 568, 586, 560, 561, 161, 162, 241, 253, 261 513, 601, 631, 687 567. 657 जयन्तभट्ट 553 जिनसेनाचार्य (पुत्राटसंघीय) 264. जयपाल जयबाहु 82 जिनस्तुतिशतक (स्तुतिविद्या) 200, जयसेन ( समयसार-टीकाकार ) 81, 203, 341 जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदय 156, 168, जयसेनाचार्य 64, 61, 266, 505 . 166. 272 277 जवाहरलाल शास्त्री 283 जिनेन्द्रगुणा मंस्तुति 636, 646 जबूटीवपणती 565 जियालाल (ज्योतिषरत्न) 51 जाल चाटियर 36, 37, 36, 46 जीन कल्पचणि 502. 514 जिनकाल (महावीरनिर्वागण) 35 जीवमिद्धि 160, 264. 361 जिनचन्द्र जोवस्थान जिनदासपाश्वनाथ फडकुले 153.16 // जीवाभिगम जम्भवा (ग्राम) 8. 5. 5.7, 58 जिनपालित 85 जैन गजट (हिन्दी) जिनप्रभरि 515 जनगजट (अंग्रेजी) जिनभद्रगणी 546 जनग्रन्या प्रशस्तिमंग्रह 366 जिनभद्रक्षमाश्रमण 530. 544, जैन ग्रन्यावली 118, 116, 265 545, 546 जिनविजय 202, 206, 261, जैन जगत 558, 601 266, 545, 553, 582 जनसंहिताशास्त्र जिनशतक 281. 256, 345, 356 जनसाहित्य और इतिहाम 47,248 जिनशनकालंकार 263, 341 534, 354, 588, 564, 568 Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..... 21 नामाऽनुक्रमणी जनसाहित्यको संक्षिप्त इतिहास 118, तस्वरत्नप्रदीपिका (तत्वार्थतात्पर्यवृत्ति) 582 जैनसाहित्यसंशोधक तत्त्वसंग्रह 301, 304, 540, 650 जनसिवान्तभवन (पांग) 152,276, तत्त्वानुशासन 265, 266, 267, 262, 264, 268, 356, 564. 310 जैन सिद्धान्तभास्कर 100,107.160, तत्त्वार्यभाष्य : 276, 463 324, 327, 588, 566, 606 तपागच्छ-पट्टावली 564, 565, 570 जैनहितैषी 107,154, 261, 265, 571, 563, 689 266, 587. 637, 663 तपागच्छ-पट्टावलीसूत्रवृत्ति . 570 जैनाचार्योका शासनभेद 476 तात्यानेमिनाथपांगल 641, 656 जैनेन्द्रव्याकरण 245. 268, 266, तित्थोगालि पश्न्नय . 53, 316, 320, 466, 546, 666 तिस्थोगालिप्रकीर्णक ... 547 जैसलमेर-भण्डार 545 तिरुमकूडलुनरसीपुर .. 161 175 जोहन्दु ( योगीन्दु) 465,466 तिलोयपण्णती 30. 65,82,87 शात (कुल-वंश) 101, 686, 562, 563, 564, ज्ञातखंड (वन) 565, 566, 597,568, 606, मानार्णव 611, 612, 613, 614, 615, भानबिन्दु 525, 526, 530, 531, 620, 621,623, 624, 625, 533, 534, 557, 66 626, 627, 628, 626, 630, मानसूर्योदयनाटक 641, 645, 647 631,632, 633, 635, 636, 656, 663 तिलोयसार (विलोकसार) 565 मानेश्वर तुम्बूलूराचार्य 275 टी. ए. गोपीनाथराव विपर्वत 673 टोडरमल ठक (पंजाब) . 172, विलक्षणकदर्षन 540. .646, 65., 173 652, 653, 654. 657 पात (नात) बंश ... 2 शिखोकप्रति 31, 52, 53, 586, Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www . 43 42 25... जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश. त्रिलोकसार 26, 27, 29, 30, दामोदर (कवि) 31, 47, 46, 50, 55, 586, दावणगेरे (ताल्लुका) 4. 595, 567,614 ' दिगम्बरमहाश्रमण संघ 672 पिलोकसार' .. 4. दिग्नाग 301,.302, 308, 612, त्रिलोकसारटीका 27 313, 536, 541. 542 विला (महावीरमाता) दिवाकरयति 554 विषष्टिलक्षणपुराण . दीघनिकाय विष्ठिशलाकामहापुराण दीपवंश विशिकाविझसिकारिका 306 दुविनीत राजा) 556 पोस्सामिथुदि दुलीचन्द (बाबा) 354 दक्षिणमपुरा 33 देवगिरि ( तालुकाकरजधी) 668 दयापाल 465 देवनन्दी (पूज्यपाद ) 245, 250, दरबारीलाल (कोठिया) 323, 431, 266 316, 323, 462, 465, 576, 581 432, 463 देवगिरणी दर्शन (दसण ) पाहुर 660, 663 देववर्मा (कृष्णवर्मा पुत्रका)६७३,३७४ दर्शनविषय दर्शनसार 34, 86. 560 देवसेनगणी वखसुख मालवरिणया . 548 देवसेनसूरि दशपुर (मन्दसौर) 174, 231 देवसेमाचार्य 89 . 237, देवागम (भातमीमांसा 168, 201 दशपुरनगर 241 - 185, 193.226, 245, 247, दलमति 248, 250, 251. 255. 258, दशमत्यादिशास्त्र 231,272, 273, 274, 278, दसवैकालिकटीका(विजयोन्या) 488 . 263, 286, 214, 265, 358, दशाबूणि 561 356, 361, 406, 414. 462, पशाश्रुतस्कत्व 146 463, 511, 556, 565 वंसरणपाहर 2 देवागम-वृत्ति (वसुनन्याचापकत ) 'दामकीतिमोजक . . . . .172 102, 258, 285, 351, 570 Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाऽनुकमणी 522 नक्षत्राचार्य देवागमस्तोत्र 646 धर्मसेन देशीगण 160, 602, 604 धर्मादित्य .... . दौर्बल जिनदाम शास्त्री 151 धोत्तर | बोद्धाचार्य) 538, 553 ट्रेमिल ( द्वाविर) ____85 धवल (सिद्धान्त ) 8, 25, 53, 63 मिलसंघ 161, 655 धवला (टीका) 81,87,88 568, द्रविडदेश 158 586, 606, 611, 613, 614, द्रविडसंघ 33. 560, 656 621, 623, 624, 626,626, द्रव्यसंग्रह 256, 281, 64. 632, 633, 634. 635 / / द्वात्रिसद् द्वात्रिशिका 515, 517 धारा (नगरी) .. 34 518, 522, 523, 526, 573 तिषण द्वात्रिशिका 526 527,534, 562, धोलपुर 34, 174 घ बसेन द्वात्रिशिकापचक द्वात्रिशिका-स्तुति 572 नगरताल्लुका 105, 226, 274, এষা নয় 550 275. 692 दिसधान 376 नन्दराजा दपायक . 288, 286 नन्दवश অন্যাল 33 नन्दिगण धनक्य (कवि) 314, 644 नन्दिमित्र धनजय नाममाला 466,501 नन्दियड (वट) 33 परमेन . F3, 88. 59 नन्दिसंघ धरसेन भद्वार 83, 85 नन्दितप-पट्टावली धरसेनापरा 92, 4 नन्दोवृत्ति 530, 431, 545 धर्मकीति (बौविद्वान )298 300 नन्दीसूत्र 531 301,306,312115 320,530 नन्दीसूत्र-पट्टावली 566 536, 540, 542, 543, 552, नमोवाहन (नरवाहन) नयबा 513. 151, 554, 536 / धर्मभूषण (पाचार्य) 283,645 नयनन्छ .. 227 25, 54 दस-पावली Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 22 514 660 . 3 / .724 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश . नरवर (सेनापति) 672 निर्वाणभक्ति / नरसिंह (राजा) . नियरिण नरसिंह . 356 निश्चयाविशिका 532,533, 534, नरसिंहवर्मन 535, 536. 537 नरसिंहवर्मन (द्वितीय) 226 नीतिवाक्यामृत 587 नरसिंह महाकवि 354 नीतिमार नरसिंहाचार एम० ए० नीतिसारपुराण नरेन्द्र सेनाचार्य 161, 261, 463 नृपाल (गुरु) नर्मदाशंकर मेहताशंकर 308 नेमिचन्द्र नंजनगुडताल्लुके नेमिचन्द्र (वसुनन्दिगुरु) 227 नाइल्ल नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती 26 नागचन्द्र 150 नैमिदत 234 238, 236, 244. नागराज 254, 656 163, 165 नागराज (कवि) 362 नेमिदन-कपाको 468.638 नागरीप्रचारिणीपत्रिका 41 नमिसागर (वर्गी) 222, 224 नागसेन 81, 265, 310 न्यायकुमुदचन्द्र (लघीयस्त्रयटोका ) नागहस्ति 87, 560, 566, 600, 66. 70, 324, 325, 327, 601 328, 553, 658 नागाचार्य ग्यायकुमुदचन्द्रोदय 653 नागार्जुन 304, 306. 308 न्यायदीपिका 168, 203 नाथूराम प्रेमी 45, 47,100, 112, न्यायप्रवेश 301, 307, 308, 536 233, 245, 267 354, 568, न्यायबिन्दु 301,538, 536, 552 637, 640 न्यायमंजरी नालन्दाविश्वविद्यालय 652 न्यायवार्तिक नाहड न्यायवातिकटीका 301 निगंठनातपुत . 42, 43 न्यायविनिश्वय नियमसार 61, 246, 266, 556, न्यायविनिश्चयविवरण 315, 318, '. 568, 601, 607, 606 465, 541 .. . Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 705 174 नामाऽनुक्रमणी न्यायविनिश्चयालंकार 646, 650 / पन्नालाल ( साहित्याचार्य) 357 न्यायावतार 246, 314, 504, पम्प-रामायण 514, 515, 517, 518, 522, परमागमसार 523. 524, 525, 526, 527, परमात्मप्रकाश 496, 466 528, 533, 534, 535, 537, परमेश्वरवर्मन 226 538, 536, 540, 542, 543 परिशिष्टपर्व 38,547 552, 558, 556, 563, 5.66, परीक्षामुख 311 584, 585, 667 पल्लव (वंश) 153 पश्यरणमार (प्रवचनसार) पट्टावली 35. 82, 66,103, 105, 275 प नगुम(परमेष्ठि)भक्ति 67 689 पंचवस्तु पदावलीसमुच्चय 5.70, 571, 563 पमिद्धान्तिका 547 पट्टावलीमागेद्धार 571. 562 १चमेलउर पड़वस्तिभडार ( मूडविद्रा) 268 पाइअलच्छीनाममाला 33, 34 पष्षणवरणा 681 पाइप्रमद्दमहष्णवकोश पतञ्जलि (ऋषि) 587,588 313 पाटलिक (ग्राम) 563 पत्र परीक्षा 186, 637, 648 पाटलिपुत्र (पटनानगर) 172, 173, पपरित 481, 574 पपरित-टिप्पण 488 पप्रान्दी (कुन्दकुन्दाचार्य) 86. पाठकजी (के. बी. पाठक ) 316, 103, 150, 156.604, 622, पारगराष्ट्र 563 पाणनीय व्याकरण 320 पद्मप्रभ(मलधारिदेव) 61,246,266, पाण्डुस्वामी 82 568, 601 पप्रानन्दन 643 पादलिसाचार्य 546,574 पपावती पात्रकेसरी 164, 300,302, 307, पप्रावती देवी 321, 322, 637,638, 639, पन्नालाल (वाकलीवाल) 247, 354 640, 641, 642, 644, 645, 224 Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 726 जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश 646. 648, 646, 65... 652 पुष्यास्रव बम्पू . 654, 655, 656, 658, पुरातन-जनवाक्य-सूची 626 पुराणमार 489 पात्रकेसरी स्वामी 414 538, 540. पुरुषार्थसिद्धयुपाय 406,414, 516 543, 556, 647, 651 657 पुष्पदन्त(माचार्य) 266,275,624 पात्रकेमरिम्नोत्र 637, 640.646, पुष्पदन्त कवि 488 657 पुष्पदन्तपुराण , 85, 86 पालक पुष्यमित्र 38 पावापुर 10, 37 पूज्यणद ( देवनन्दी ) 220. 284. पार्श्वनाथ 31. 23, 74, 76, 76 266 213 314. 315, 316, पार्श्वनाथ-गेह (मन्दिर) 34 316, 320, 321, 326, 327, पार्श्वनाथनरित 162, 163. 168, 328, 329. 330, 336. 338, 245, 248, 252, 462. 463, 336, 406, 436, 465, 474, 465 467, 505, 561, 582 475, 866, 546, 554, 555, पाश्वनायतीर्थकर 556, 557, 558, 556, 565, पार्श्वनाथ द्वात्रिशिका (कल्याणमन्दिर 628, 644, 666, 667 स्तोत्र) 516, 515 पूज्यपादाचार्य 2, 66, 72.62, पाश्वनाथ स्वामी 78 16.110, 268, 286, 321 पिटर्मन साहब 265, 514 पृथ्वीराजरास पी० एल० वैद्य 504, 517, 552 वदोसपाहड (कषायप्राभूत) 86. पुण्ड्डू (पुण्ड्रवर्धननगर) 241 87, 561 पुनमगर (बंगालका उत्तरदेश) 174, पेनुगोण्डे प्रकरणपंचशती 107 पुण्डे न्दुनगर (पुषवर्धन) 231 प्रक्रियासंग्रह 280, 182 पुष्पोड़ 174 प्रमापनासूत्र 78, 138, 682, 687 पुष्यराज ____313 प्रतापकीति 568 पुष्यविजय ( श्वे. मुनि) 54, प्रा.म्नकुमार 630 547, 565, 574 प्रयम्नसूरि . و وہ Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम ऽनक्रमगी 727 बायकोश चनुर्विशति-प्रबन्ध) 515, प्रयास्तपाद 300 521 प्रशस्तिसंग्रह E8 प्रकाचिन्तामणि प्राकृतटीका(भगवतीमाराधनाकी)४८८ प्रमाचन्द्र 61.66, 67 150, 234, 460 247, 246, 251 254, 300, प्राकृत पट्टावली 306. 312, 321, 437, 587, प्राकृत व्याकरण 267 प्रियकारिणी (महाबोर माता) 1 प्रमाचन्द्राचार्य 73. 202, 248, प्रेमीजी (पं० नाथूराम) 248, 250 246. 358, 360, 466,471, 254, 257, 601, 604, 605, 472. 475, 476, 552, 653 606. 607, 641, 645 / / प्रभावन्द्र ( भट्टारक) 244 प्रोन्टुची 541,542 प्रभाचन्द्रसूरि 515 प्रोफेसरसाहब ( हीरालाल ) 433, प्रभावकचरित 238, 236. 515, 434. 435, 462 464, 466, 517, 518, 520,521, 522, 468, 472. 473, 474, 482, 526. 552 प्रोष्ठिल 81 प्रमाणकलिका 266 फाहियान प्रमाण-पदार्थ फूलवन्द शास्त्री 140, 588, 606 प्रमाणपरीक्षा 186, 647, 648, बन्धस्वामित्वविचय बम्बई गजेटियर प्रमाणविनिश्चय 298, 304 बलनन्दि 622 प्रमाणविहेलना बलमित्र प्रमाणसमुच्यय 301, 302, 308, बलाकपिच्छ (गच्छ) 167 536 वल्लभीपुर प्रमालक्ष्म (प्रमालक्षरण) 584 बारसमणुवेक्सा 62, 466 प्रमेयकमलमार्तण्ड 247, 248, 254, बालचन्द्र 281, 288 310, 311, 312, 324, 648 बालचन्द्रदेव 61, 622 प्रवचनसार 60, 330, 504, 598 बालचन्द्रमुनि 108, 111 प्रवचनसारोदारकी वृत्ति 541 बिलगी 642 171 308 35 Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धदेव 728 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश बी० भट्टाचार्य 652.: भद्रबाहुश्रुतकेवली 76, 63, 156, 546, 547, 602 बुद्धनिर्वाण 32, 40, 41, 42 भद्रवाहसहिता 246, 547 बुद्धिल्ल 81 भंदबाहस्वामी 80, 661 बुद्धिसागराचार्य 585 बृहत्पचनमस्कार 640 भर्तृहरि 266, 300, 302, 306, बृहायड्दर्शनसमुच्चय 514 311, 312, 313, 551, 552, बृहतस्वयंभूस्तोत्र 658 बेचरदास 501, 503, 504, 515, माइल्लका 516, 516. 524, 575, 582 भानुमित्र बेल्लूरताल्लुके 186, 243. 655 भारतचम्पू 484 बेल्गुलजनमंत्र 642 भारतीयविद्या 525, 548, 564, बोधपाहुड 62, 602, 606 576 ब्रह्मदेव 234, 640 भावत्रिभंगी 604 भगवती प्राराधना 275 484, 485 भावपाहुड 63, 466, 660 487, 414, 465, 496, 622 भावप्रकाश 213 भगवती पाराधनाटीका (संस्कृत)४६० भावविजयगरणी प्राकृत 460 भावसंग्रह भगवती सूत्र 42 भावार्थदीपिका 486, 487 भट्टाचार्य (कुमारिल ) 266, 300 भीमलिंग (शिवालय) 222, 225 भद्रबाहु 81, 186, 602, 603, भुजंगसुधाकर 150 642, 644 भूधरजनशतक भद्रबाहु (द्वितीय) 63, 472 भूतबली 85,86, 275, 556, भद्रबाह (नियुक्तिकार)५४६,५४७, भोज (राजा) 555, 565, भोज (वंश) 680 भद्रबाहु ( अष्टांगमहा निमित्त ज्ञाता भोजदेव 248 मक्खलिपुत्त गोशाल भदाहुचरित्र 275 मगध Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ X0 नामाऽनुक्रमणी 726 मझिमनिकाय (बोद्ध ग्रथ) 41 28, 31, 60, 63, 67, 73, मरणुवक हन्ली (ग्राम) 174, 212, 81, 642 / 222, 238 महावीर-द्वात्रिशिका 518 मदुग 158 महावीर-पट्टपरम्परा मध्यमा (नगरा) 56, 60, 61 महावीर शक मन्दप्रबोधिका 280 महामेन (उद्यान) मन्दसौर 596 महिमा (नगरी) मर्करा महिमानगड (ग्राम जिला सतारा) 82 मलयगिरि ( टीकाकार)७८, 202, म . महेन्द्रकुमार (न्यायाचार्य) 324,325, 683,684 326.326, 553 मलयगिरिमूरि 531 महेन्द्रवमन् 226 मल्लवादी (श्वे०) 505,506, 546, मगराजकवि 550, 551. 552, 553, 566 माघनन्दी 281, 5, 622, 6444 584, माणिकचन्द (मेट) 271 मल्लिभूषण (भट्टारक) 228 मारिणक्यनन्दी 644 मल्लिगप्रस्ति 158, 166, 224, माथुरान्वय 236, 580, 646, 660, 662 माधवचन्द्र मल्लिपंगणमूरि 282 माधवचन्द्र-विद्यदेव 282 महाकम्मपडि-पाडु मान त्र्यम (गोत्र) महाकमप्रकृति प्राभून मायिदाबोलु महाकाल-प्रामाद मालव (मालवा) 241 महाकाल-मन्दिर मालव (देश) 172 महापुगरण 632 मिहिरकुल(राजा) महाबंध मीमांमाश्लोकवार्तिक महायानहाशग 652 मुज (राजा) महावा 42 मनिचन्द्र महावी भगवान) 1, 5, 7, 15, मूलसघ 90, 104, 156 14. 15, 16, 23, 24, 26, मूलसंघ (नन्दिसंघ) 604 226 300 Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 730 जैनसाहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश मूलाचार 67, 71, 73, 76, 78, युक्त्यनुशासन 182 184, 188, 76,68, 66, 466 160, 201, 262, 267, मूलाराषना-दर्पण 486, 487,488, 264, 265, 267, 268, 486,484 301. 304, 331, 332, सुगेशवर्मा 156 334, 336, 356, 361,381, मृगेश्वरवर्मा ( कदम्बराजा ) 671 360, 406, 416, 421, 422, मेषचन्द्र 644 423, 427, 426, 467, मेरुतुगाचार्य 27, 36, 515 478, 561, 564, 565 मंत्रेय युक्त्यनुशामनटोका 264, 637,647 मोक्खपाहुड 63, 436, 660 युक्त्यनुशामनषष्ठिका(युक्तिषष्ठिका) मोक्षपाहुड 304 मोहनलाल, दलीचन्द देशाई 582 युगप्रधानप्रबन्ध 570 मौर्यवंश 38 योगदेव 680 योगसार यतिवृषम 101, 560, 561, 562, योगाचार्य-भमिशास्त्र . 142 563, 565, 567, 518, 680, योगाचार्यभमिशास्त्र और प्रक६०६, 615, 628 रणार्यवाचा (ग्रन्थ) यतिवृषभाचार्य 65, 88, 587, योगि(अनगार)-भक्ति 615, 635 गंगानगर यशस्तिनक रघवंश यशोदा रलकरण्ड 193 यज्ञोपरवरित 164, 275. 471 रत्नकरण्डफ 211, 336, 33, वशीबाह 338, 408, 416, 433, 434 यशोभद्र 467, 475, 480,481, 482, यशोविजय (उपाध्याय) 506, 526, 558 535 रत्नकरण्डउपामकाध्ययन 264 यापनीयसंब 674 रत्नकरण्डश्रावकाचार (समीचीनयुतिषष्टिका कारिका 304 धर्मशास्त्र)१५०,२४३,२४५,२४६, म्लेच्छ 8 Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 नामाऽनुकाणी 248, 246, 250, 254, 255, रामानुजाचार्य 186 257, 285, 331, 431, रामनुजाचार्य-मन्दिर 432, 435, 462, 470,483, राहुल सांकृत्यायन 552, 553 512, 533 गेहेडक (स्थामविशेष ) रलमाला 206, 431, 476, 582 लक्ष्मणमेन 574 रलसिंह ( श्वेताम्बराचार्य) 117, लक्ष्मीधर 266, 316, 118 लक्ष्मीभद्र 582 रलसिंहमूरि 131 लक्ष्मीसेन (प्राचर्क) 277 रत्नशेखर लक्ष्मीमेन मठ 315 रत्नसूरि (श्वे०) लघीयस्त्रय 280, 613, 625, 627 रयागसार लघु ममन्तभद्र 182, 246, 247, रविषग्णाचार्य 481,574 575 285, 260, 263 राजगृह (ही) , 61, 63, 66 लंकावतारसूत्र 303, 306, 320 राजतरंगिणी लाम्बुरा राजन्य (वंश) 680 लालाराम (50) 355 राजमल (बरजात्या) 11. लिगपाहुड 14 राजवार्तिक 276.280.286,582, 610,611.616. 628,660, लेत्रिम गइस 173. 224. 563, 6.86, 687 686. 660, 662 राजशेम्बर 515 लोकनाथ (शास्त्री) 268 राजाबलीकर्ष 158, 173. 174. लोकमान्य तिलक 212, 218. 224,225, 226, लोकविनिश्चय 560, 563 235, 238, 236. 240 लोकविभाग (प्राकृत) 590. 593 . राजेन्द्रमौलि 103 564, 565. 567,568, 601, 605, 608 रावान्तमुत्र 275 रामप्रमाद (शास्त्री) 326 लोकविभाग (संस्कृत ) 564, 595, रामसेन (माचार्य) 265.257, 310 607. 608, 620 रामस्वामी प्रायंगर 162,176 लोहज्ज (लोहार्य) 174 87 Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 732 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश लोहाचार्य 81, 82, 86. 88 वादन्याय 552 वक्रग्रीव 105, 150, 656 वादिचन्द्र (भट्टारक) , 646 वजनन्दी 560 656 वादिचन्द्रमूरि 638, 663 वट्टकेर ( प्राचार्य-स्वामी ) 67, 66, वादिदेवसूरि 563. 572 76, 88, 66, 101 वादिराज 164, 162, 163, 198, बहकेरि 100 318, 462-465, 467, 470, वड्डमाण (भट्टारक) 62, 63. 87 471, 505, 561, 582, 644 वर्गणा (पागमविशेष) 76 वादिगजसूरि 245, 248-251, वनवासी (कदम्ब-वंश-शाखा, 670 254, 274. 646, 650 वरगांव 33 वादीमिह 166. 466 वरदत्त (प्राचार्य) 661. 662, 664 वायुभूति . वरांगचरित 165. 360 वाराणमी (काशी) 174.175, 228 वराहमिहर 546, 547 230.01.236. 237, 236 बदमान (जिन-देव-स्वामी) 2, 38, 241 194, 227, 644 वामुपूज्य (गुरु) वधमानसूरि विक्रमकाल . 40, 54 वसन्तकीर्ति 644 विक्रम-प्रबन्ध वसुनन्दि-वृत्ति 290, 63, 463 विक्रमगज (जा) 35.36, 17, 50, वसुनन्दी ( सैद्धान्तिक-प्राचार्य ) 67, 52. 55 66. 152, 203 226 251, विक्रम गय 258, 256, 260, 263. 2073, विक्रम (शकाल) विक्रम-सवत् 28, 32.33, 34, 35 274, 355, 356, 644 36, 37. 41, 54 / वसुबन्धु (प्राचार्य) 303, 305. विक्रमादित्य (गर्दभल्लपुत्र) 38 वाक्यपदीय 311, 312. 313.551 विक्रमादित्य राजा 570 571 वागर्थसंग्रह-पुराण 632 विकान्तकौरव (नाटक) 156, 199 बाग्भट 360 225, 226, 253, 272, 274, वाचस्पतिमित्र 301 275, 288 165 Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाऽनुक्रमणी विचारश्रेणी (स्थविरावली) 37, 36 206, 253, 256, 260, 2621 267, 273, 274, 276, 261, विजयश्रीकृष्णराय 302, 416, 421, 424, 427, विजयसिंहसूरि 426, 686 विजयमेन 81 विद्यानन्दि 637-640, 642. 658 विजयाचार्य 81, 460 विद्याभूषण विजयानन्दमूरीश्वरजन्मशताब्दि- विनीतदेव 552,553 स्मारक ग्रंथ 547 विपुलगिरि 8, 25, 61. 62. 63, विजयादया(भगवतीमाराधना टीका) 65. 87 487, 488, 622 विबुध श्रीधर 278 विदिशा वैदिश ( दशार्ग देशको विरूपाक्षराय राजधानी) विविधतीर्थकल्प 516, 521. 523 173 विदेह (वा) विशास्त्राचार्य 81 642 विदेह ( देश) সিগালীনি 644 विदेहक्षेत्र विशेषणवती 530, 551, 554, विद्यानगरी 556 विद्यानन्द 207.227. 287, 288 विशेषावश्यकभाष्य 544. 545, 260.65, 300, 306. 211 546 310. 216, 321.::4:28, विषमपदनात्पर्यटीका 461, 465, 870 176, 834. विषम पदतात्पर्यवृत्ति (अष्टमहम्री४७५८८०, 486, 2565. टीका) 46.247 64.642.645. 685, 648. विषमपदव्याख्या (जीतकल्परिण६५२,६५८. 667. 66, 664 टीका) 502 विद्यानन्द-महादय 186.648 विपारहार 423 विद्यानन्दस्तोत्र वियोग्र-ग्रह-शमन-विधि विद्यानन्दस्वामी 107. 321, 641, विष्णु विष्णुगोप (राजा) विद्यानन्दाचार्य 182, 188, 198, विष्णुयशेधर्मा (मालवाधिपति) 586 43 514 Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 734 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश विहार 6 शक-सवत् 28, 29, 32, 36, 38 विसेंट ए स्मिथ 157, 228, 226 48, 46 वीरकवि शकारि वीरजिनस्तोत्र (युक्तयनुशासन) 356, शाकटायन (जैन) 266, 320 421, 422 शाकटायनव्याकरण वीरनन्दी (प्राचार्य ) 66, 161 शाकसंवत्सर 261, 644 शाक्यपुत्र वीर-निर्वाण-संवत् 26, 32, 35, शान्तरक्षित (बौद्ध विद्वान् ) 540 36. 44, 46, 47, 48 553, 650, 652 वीरसेन (प्राचार्य ) 27, 53, 87 शान्तिगज ( शास्त्री) 163, 222 513. 568,590, 592. 621, शान्तिवर्मा (कदम्बराजा) 71 628, 631, 635 शान्तिवर्मा ( ममन्तभद्र ) 154, 156 नीरसेन स्वामी 606, 611. 612, शान्त्याचार्य 6.13. 616, 617. 66 शान्तिवाहन ( गजा ) 4351, 52, वीरिका (कृष्णादाम-माता) : दुवुनाल (वंश) 680 शास्त्रवामिमुच्चय 53 वृति (चरिंग) सूत्र शिमोगा(नगर) वृद्ध वादिप्रबन्ध 506, 570, 5:1 शिवकुमार (कुन्दकुन्दाचायंशिष्य) 230 वेण्या (नदी) 3 गिवकोटि (राजा) 22....5 वेण्यातट 26.207.08 110. वेदना (मागम-खण्ड-विशेष) 86 36.466 वैदिशा (भिलमा) 13. 241 शिवकोटि (तत्त्वार्थमूत्र-टाकाकार ) वैभार (पर्वत) 8 .06.206, 582. 662, 6.. वैशाली व्याख्याप्रज्ञप्ति 136 शिवकाटि ( रत्नमालाकार ) 1 शककाल 28, 53, 58 शिवजीलाल शकराज(जा)२७. 28, 30.32,26, शिवदव (लिच्छवि) शिवभूति 546 Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामाऽनुक्रमणी 5 . 227 622 शिवमार (गगराजा) 230 श्रीनन्दी शिवमृगेशवर्मा (कदम्ब राजा) 230 श्रीपाल 640, 6.44 शिवश्री (माघ्र) 230 श्रीपालचरित्र 228 शिवस्कन्दवर्मा ( पल्लवराजा ) 226 श्रीपुर 230 श्रीपुर-पार्श्वनाथ-स्तोत्र 637 शिवस्कन्दवर्मा ( कदम्बराजा) 230 श्रीपुरान्वय 603 शिवस्कन्धशातफरिण (मांध्र) 230 श्रीविजय (प्रपराजितसूरि) 487 शिवायन 223, 238, 236 श्रीविजयगुरु 622 शिवायं (शिवकोटि) 485, 465 श्रीपुरुष शीलपाहुड 14 श्रीवदंदेव 663, 664 शुभकीति 644 श्रीविजय शिवमृगेशवर्मा (कदम्वराजा), शुभचन्द्र 471, 463, 466 7 2, 673 शुभचन्द्राचायं 107, 163, 164, श्रुतभक्ति 185, 163 श्रुतमुनि 281 अवरणबेल्गोल 51, 86, 105, श्रुतसागर 166. 288, 286, 663 151, 156, 166, 167, 204, श्रतमागरमूरि 64, 108 225. 236, 281, 316, 638 श्रुतसागरी (टीका) 288 646, 682, 663 श्रुतावतार श्रवणबेलगोल-शिलालेख 472, 556. श्रेणिक (राजा बिम्बमार) 6, 38, बीकठ (भिवकोटि पुत्र) 223 श्लोकवातिक 107, 186, 168, श्रीकृष्णर्मा 673,674 200, 276, 280, 260, 261 श्रीचन्द्र 486.488 306, 312, 322, 474, 638 श्रीचन्द्र-टिप्पण 643, 644, 647, 650, 658 धीचन्द्र मूरि 660, 662, 663, 686, 666 श्रीधर श्लोकवातिकालंकार 64% श्रीधर-श्रुनावतार 598 श्वेताम्बरपट्टावनी 482,563, 574, बीनन्दिगणों (मुनि) 592 Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 336 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश श्वेताम्बर महाश्रमणसंघ 672 146, 150, 157-160, 161, षटखण्डागम 86, 135. 250, 266 164, 167--166. 174 178, 181-183, 187, 163, 194, षट्दर्शनसमुच्चय 514, 553 201.-206, 214, 215,218, षट्प्राभृतटीका 166 216, 221--225, 227.231, सकलचन्द 622 233, 235--236, 241, 243. सतीशचन्द्र ( डाक्टर ) 246, 304, 247, 250, 252, 255, 258, 308, 311 265-267, 270, 271, सतीशचन्द्र विद्याभूपण 666 273-276. 27-280. 284, सत्यवाक्याधिप 647 286, 286, 261- 300, ३०२सत्यशासनपरीक्षा 186 304, 307-310. 313, सत्साघुस्मरणमंगलपाठ 165, 242, 315-320, 323, 326, 243, 466, 565 327, 330, 331, 334, सदामुख (पं०) 486.487 335, 346, 655. 356, सन्मति 2, 3, 43, 513 361--363, 339.381. 383, सन्मतितकं ( टीका ) 516, 557. 385.387, 386, 06, 806, 411, 414, 416, 424, 128, सन्मतितकं प्रकरग 501,525, 526 431. 435, 462-- 466,871, 564 476, 882, 511, 516.527, सन्मति-प्रस्तावना 530, 566, 568, 556, 556, सन्मानिसागर 465 564, 567, 568, 581, 242, सन्मतिमूत्र 467, 5.01,515, 513. 655. 686, 66...66 525-526, 530. 532, समन्तभद्र (नन्दिगगा-दर्शगगा) 160 533, 535, 57, 5.43, समन्तभद्र (मपद-तात्यान. 554, 555, 556, 560. ___कता) 65. 566, 568, 5.66, 573, समन्तभद्र भारती 341. .. 362 5.75, 577, 576, 581, 667 समन्तभद्र-मारती-स्तोत्र 165, 260, -समन्तभद्र ( स्वामी प्राचार्य) 3 645 Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 686 643 म नामाऽनुक्रमणी 737 समन्तभद्र-महाभाष्य . . 263 संगाइणी (संग्रहणी) 560, 563 समन्तभद्र-स्तोत्र . 358 संगिराज (राजा) 643 . समन्तभद्रान्वय . 277 संजय (मुनि) समयसार 60, 266, 400, 505, संस्कृत पाराधना 486 576, 660 सागत्यपट्ट समराइच्चकहा 53 सागारधर्मामृत 198, 463 समरादित्य सागारधर्मामृतटीका 256 समाधितंत्र 64, 215, 216, 220, सामगामसुत्त(मज्झिमनिकाय) 42.43 437, 462, 466 सामन्तभद्र समाधिशतक 340 सामन्तभद्रमहाभाष्य 281282 समीचीनधर्मशास्त्र (रत्नकरण्ड) 264 सारसंग्रह 326 35.6, 418, 433. 434, 476 सालुवकृपादेव (राजा) समुदगुस 226 साल्वमल्लिराय (राजा) 643 सम्यक्त्वप्रकाश 638, 641, 646. साहसतुंग (राष्ट्रकूट राजा 657, 658-661, 664, 666, दन्तिदुर्ग) 663, 664 साहित्यसंशोधक सर डब्ल्यू एलियर 670 सिद्धचक्र (लघु) सरस्वतीगच्छ 104 सिद्धचक्र (वृहत्) सबं गुप्तगणी 485 सिद्धभक्ति ___65, 406 सर्वदर्श रसग्रह 300 सिद्धय्य (विद्वान्) 106 सर्वनन्दी ( भाचार्य ) 563, 564, सिदर्षि (न्यायावतार-टीकाकार)५१७, 568, 607, 608 606 536, 558 सर्वार्षसिदि 66, 110,111. 125, सिरसेन 116. 127, 131, 147, 246, 286, 286, 261, 323 266, 314-317, 513, 514, 325, 327. 330-336. 4.73 517. 527, 526, 531, 534, 474, 475, 555, 558, 620 537, 543-545, 548, 554 628, 660, 686 555, 560-563, 565-570 सर्वार्थसिदि-टीका 573, 667 284 Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 738 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश - 1 m 1. स सिद्धसेनगणी 127-126, 141, 327, 326, 330, 336,501. 144, 581 504, 515-517, 516, 520, सिद्धसेन दिवाकर 238, 515, 517 525, 526, 526-531, 533, 525. 531, 542, 546. 554, 541' 545, 548.550, 551, 564 570, 571, 572, 574, 554, 557, 560, 563-565, 575 571, 573, 575, 576, 582, सिद्धसेनाचार्य 520, 531, 532, 681, 666 538, 543, 544, 551,556, सुतपाहा 566, 567, 575, 577,582 मुदर्शनचरित्र (विद्यानन्दिकृत) 657 सिदहेमशन्दानुशासन 202 सुधर्मस्वामी सिद्धान्तकोति 644 सुन्दरमूरि শিৱাহা 275 सुभद्र सिद्धान्तसारसंग्रह 161, 463 सुभाषितरतमन्दाह सिदार्थ (राजा) मुमति (सन्मति देव) 505 सिवायंदेव मूत्रगड सिद्धिप्रिय (स्तोत्र) सेनगण (सघ) . सिडिविनिश्चय 502 मेनगणकी पट्टावली 1:0, 225, सिद्धिविनिश्चय-टीका 317, 581 566, 575 सिद्धिश्रेयसमुदय (शवस्तव) 514 सोमदेवमूरि सिन्धु (देश) 172, 21 मोमिना सिंहनन्दि(यो)५६४,६४४,६६०-६६४ सोदन्ति सिंहवर्मन् (बोड) 226 सौराष्ट्र (देश) 35, 106 सिंहक्मा सोयंपुर (सूरत) सिंहविष्णु स्टडीज इन माउथ इडियन जैनिज्म सिंहसूर 563, 565 608 156. 158. 162, 176 सीमधरस्वामी 86, 654, 655 सतिविया (जिनशतक) 152, 162, मुखलाल (श्वे० विद्वान्) 113, 116, 263, 264, 340, 345, 346, 125, 127, 130, 324,325, 355, 356. 359.404, 565 563 86 Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 73 / 572 467 नामाऽनुक्रमणी स्थानांग (सूत्र) 134 हरिवर्मा 156 स्याद्वादमंजरी . 282 हरिवंशपुराणं 27, 30, 31, 191, स्याद्वादलाकर 264. 361, 504, 567,581, स्वयम्भूस्तुति(प्रथमा द्वात्रिशिका) 667 582, 621 स्वयम्भूस्तोत्र (समन्तभद्रस्तोत्र) 153, हरिषेण-कयाकोश 196, 202, 203, 205. 211, हमनकोबी 538, 536 212, 217 220 241, 242, हस्तिमल्ल (कवि) 253, 272, 262, 331. 332, 335 345, 274, 276 .. 358. 360, 361, 376, 422, हारितीपुत्र 478, 516, 527, 560, 562 हिन्दतत्त्वज्ञाननो इतिहास 308 563-565, 640 हिस्टरी प्राफ़ कनडीज लिटरेचर 162, म्वामिकानिक्य 46, 76, 412, 171 177, 660. हिस्टरी ग्राफ़ मिडियावल स्कूल स्वामिकानिकेयानुप्रेक्षा 621, 622 आफ इडियन लाजिक 285,304, स्वामिकुमार 62, 466, 500 306, 308, 652, 666 स्वामिमहासेन 670 होरालाल (प्रोफेसर) 250, 431 स्वामीसमन्तभद्र (इतिहास)५५८,६०३ हुएनत्साङ्ग (चीनी यात्री) 171, 566 हनुमचरित 165 हमच ग्राम) / हरिवंश 680 हेगडदेवन कोट हरिभद्र (श्वे० प्राचार्य ) 116,127, हेतुचक्रडमरू 308 हेमचन्द्र (श्वे० प्राचार्य) 38,36, 40, हरिभद्रमूरि 166. 266, 298, 42, 118, 202, 256, 276, 310, 513,514, 545, 551, 282, 572 553, 566, 572, 573, 575, होय्यमल-राजगुरु 504 222 Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ م س लेखकको कुछ अन्य विशिष्ट कृतियाँ 1 पंथ-परीक्षा (प्रथम भाग)-उमास्वामिश्रावकाचार, कुन्दकुन्दश्रावकाचार पोर जिनसेन-त्रिवर्णाचारकी परीक्षाएं / " (द्वितीय भाग- भद्रबाहु-संहिताको परीक्षा। " (तृतीय भाग )-सोमसेन-त्रिवर्णाचार, धर्मपरीक्षा (श्वे.) __ पूज्यपाद-उपासकाचार, अकलंक-प्रतिष्ठापाठकी परीक्षाएं / 4 " (चतुर्थ भाग)- सूर्यप्रकाश-परीक्षा / 5 जिनपूजाधिकार-मीमांसा-पूजाधिकार-विषयक विवेचनात्मक निबन्ध / 6 उपासनातत्त्व-उपासना-विषयक सिद्धान्तोंका प्रतिपादक प्रबन्ध / विवाह-समरश्य-विवाहका सप्रमाण मामिक पोर तात्विक विवेचन / 8 विवाहक्षेत्र-प्रकाश-विवाहके विशाल क्षेत्रका सप्रमाण निरूपण। / जैनाचार्योका शासन-भेद-नाचार्योके मत-भेदोंका सप्रमाण दिग्दर्शन / 10 स्वयंभूस्तोत्र-नूतन पद्धतिसे लिखित विशिष्ट हिन्दी अनुवाद / 11 युक्त्यनुशासन-नई शैलीमे निमित सर्व प्रथम हिन्दी टीका / 12 समीचीन-धर्मशास्त्र-गम्भीर विवेचनादिके साथ निमित हिन्दी भाष्य विस्तृत प्रस्तावना-सहित / 13 प्रमाचन्द्रका.तस्वार्थसूत्र-गुलनात्मक मुबोष हिन्दी व्याख्यादिक / 14 पुरातन जैनवाक्य सूची-६४ प्राकृतमं योंकी विशाल पचानुक्रमणी। 15 सत्माधुस्मरण-मंगलपाठ-२१ पानायक 13. पुण्यस्मरणमानुवाद / 16 अनेकान्तरसलहरी-दुर्गम प्रनकान्तवादको मुगम जी / १७.हम दुखी क्यों ?--दुलके कारणोंका मयुक्तिक प्ररूपण। 58 समन्तमविचारदीपिका-समन्तभद्रके कुछ विशिष्ट मन्तव्योपर प्रकाश / 16 महावीरका सबोदय तीये-महावीरके सर्वहितकारी तोयंका निरूपण। 20 सेवाधर्म-लोकसेवाकी धर्मरूपमें पपूर्व व्याया। 21 परिप्रहका प्रायश्चित-परिग्रहको पाप मिडकर उमका प्रायश्चित विधान / 22 मिद्धिसोपान-मापूज्यपादकी मिद भक्तिका विकसित हिन्दी पचानुवाद 23 मेरी द्रव्यपूजा-नोंमें प्रचलित द्रव्यपूजा पर नया प्रकाश पचमय / 24 बाहबनि-जिनपुमा-गोम्मटेश्वर बाहबलीके चरितमे परिपूर्ण पचरचना। 25 महावीर-जिनपूजा-महावीर-जीवन-बागी-मारदीपिका पूर्व पूजा / 26 वीर-पुष्पाचन-'मेरी भावना प्रादि अनेक काव्यकृतियों का संपह /