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________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन 523 ही बतलाया गया है परन्तु उस स्तुतिको पढनेसे शिलिगका विस्फोट होकर उसमेंसे वीरभगवान की प्रतिमाका प्रादुर्भूत होना किसी ग्रन्थमे भी प्रकट नहीं किया गया-विविधतीथंकल्पका कर्ता मादिनाथकी और प्रबन्धकोषका कर्ता पार्श्वनाथकी प्रतिमाका प्रकट होना बतलाता है। और यह एक अमंगत-मी बात जान पड़नी है कि स्तृति तो किमी तीर्यकरकी की जाय और उन करने हए प्रतिमा किमी दूमरे हो नीर्थकरको प्रकट होवे / इस तरह भी उपलब्ध द्वात्रिशिकामोंमें उक्त 14 द्वात्रिनिका, जो स्तुतिविषय तथा वीरकी स्तुतिम मम्बन्ध नही रम्बनीं, प्रवन्धर्वागत द्वात्रिगि. कामोंमें परिगणित नहीं की जा सकती। पोर इमलिए 60 मुम्बलालजी तथा पं० चरदामजीका प्रम्नावनामें यह लिम्बना कि 'प्रातमें दिवाकर (मिद्धमेन) के जीवनवनान्नमें म्यात्मक बनीमियों (दात्रिनिकायों) को ही स्थान देने की जरूरत मालूम हाई प्रोर इनके माथमें मम्कन भाषा तया पा-मम्यामे ममानना रखने वाली परन्तु म्लन्यात्मक नहीं प्रेमी दुमरी धनी बनीमियाँ इनके जीवनवमानमें तयारमक नपि हीद बिन हो गई और पीछे किगीने हम हकीकत को देवा तथा खोना ही नही कि हो जाने वाली बनीय अथवा उपलब्ध सोम वनामियोमे कितनी पोर योन स्तृतिकर है प्रोर कोन कोन स्तुतिका नहीं है. पोर :म नगद सभी प्राघरा प्राचार्योको रोमी माटी भूल के शिकार बतलाना कम भी जोर लगने वाली बात मालूम नहीं होनो / मे उपलब्ध कापा मगन विटलाने या प्रयन्नमात्र ही कहा जा सकता है, जो निगमार हान म गनिन प्रतीत नहीं होना / द्वात्रिमिकामांकी हम मार्ग दान-पान परमे निम्न बा पालन होती है -- 1. द्वात्रिमिकाएं जिम कमने सपो हे उमी क्रमम निमित नहीं हुई है। 2. उपसम्म त्रिशिकाएं एक ही मित्रसेनके द्वाग निर्मित हई मालूम नहीं होती। 3. न्यायावतारकी गणना प्रायोसिम्बित द्वात्रिशिकामोंमें नही को जा सकती।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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