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________________ 524 जेनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश 4. द्वात्रिंशिकामोंकी पसंख्यामें जो घट-बढ़ पाई जाती है वह रचनाके बाद हुई है और उसमें कुछ ऐसी घट-बढ़ भी शामिल है जो कि किमीके द्वारा जान बूझकर अपने किसी प्रयोजनके लिये की गई हो। ऐसी द्वात्रिशिकामोंका पूर्णरूप प्रभी प्रनिश्चित है / __5. उपलब्ध द्वात्रिशिकामोंका प्रबन्धोंमें वगित द्वात्रिगिकामोंके साथ, जो मब स्तुत्यात्मक है और प्राय: एक ही स्तुतिग्रन्थ 'द्वाविवात्रिशिका' की अंग जान पड़ती है, सम्बन्ध ठीक नहीं बैठता। दोनों एक दुमरेमे भिन्न तथा भिन्नकतुं क प्रतीत होती है। ऐमी हालतमे किमी द्वात्रिशिकाका कोई वाक्य यदि कही उद्धत मिलता है तो उसे उमी द्वात्रिशिका तथा उमफे कर्ना तक ही मीमित मममता चाहिये, शेष द्वात्रियिकापोमेमे किमी दूमरी द्वात्रिशिकाके विषय के माथ उसे जोडकर उसपर से कोई दूसरी बात उम वस. तक फनित न की जानी चाहिये जब तक कि यह माबित न कर दिया जाय कि वह मर्गशिका भी उसी द्वात्रिशिकाकारकी कृति है / अस्तु / अब देखना यह है कि इन द्वात्रिमिकाप्रो और न्यायावतार में कौन-सी ग्वना सन्मतिमूत्रके कर्ता मिद्धमेन प्राचार्य की कृति है प्रथवा हो सकती है ? इस विषयमें पं० मुखलालजी और प. बेचरदामजीने प्रपनी प्रम्नावनामें यह प्रतिपादन किया है कि * 1 वी द्वात्रिशिकाको छोडकर शेष 20 द्वात्रिशिकाएं न्यायावतार और मम्मनि ये सब एक ही मिद्धमेनकी कृतियां है पोर ये मिद्धसेन वे है जो उक्त श्वेताम्बरीय प्रबन्धोंके अनमार वृद्धवादीके शिष्य थे और 'दिवाकर' नामके माथ प्रमिति को प्राप्त है। दूसरे श्वेताम्बर विहानोका बिना किसी जांच-पड़तालके अनुमग्ण करने वाले कितने ही जनेतर विद्वानोंकी भी ऐमी ही मान्यता है और यह मान्यता ही उम मारी भूल-भ्रानिका मूल है जिसके कारण सिद्धमेन-विषयक जो भी परिचय-लेख प्रन तक लिखे गये थे सब प्राय: खिचड़ी बने हुए है. कितनी ही गलतफहमियोंको फैला रहे है और उनके द्वारा सिटमेनके समयादिकका ठीक निर्णय नहीं हो पाता। इमी मान्यताको लेकर विद्ववर पं० सुखलालजीकी स्थिति सिद्ध मेनके समय-सम्बन्ध
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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