________________ 522 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश मागे "इत्यादि' लिखा गया है / और फिर 'न्यायावतारमूवं च' इत्यादि श्लोकद्वारा 32 कृतियोंकी और सूचना की गई है. जिनमेमे एक न्यायावतारसूत्र, दूसरी श्रीवीरस्तुति और 30 बत्तीस-तीस श्लोकोंवाली दूसरी स्तुतियां है। प्रबन्धचिन्तामसिके अनुसार स्तुतिका प्रारम्भ "प्रशान्त दशेनं यस्य मवेभूनाऽभयप्रदम् / मांगल्यं च प्रशस्तं च शिवस्तेन विभाव्यते // " इस इलोकसे होता है, जिसके अनन्तर "इति द्वाविशददात्रिशिका कृता' लिखकर यह सूचित किया गया है कि वह दारिशद्वात्रिशिका स्तुनिका प्रथम श्लोक है। इस श्लोक तथा उक्त चारों इलाकोंगेसे किसी भी प्रस्तृत द्वात्रिशिकानोंका प्रारम्भ नही होता है, न ये इलोक किमी द्वात्रिविका में पाये जाते है और न इनके साहित्यका उपलब्ध प्रथम 20 द्वात्रिशिकाग्रीक साहित्यके साथ कोई मेल ही खाता है। मी हालतमें इन दोनों प्रबन्धों नया लिखित पद्यप्रबन्ध उल्लेम्बित द्वात्रिमिका स्तुतिया उपलब्ध त्रिमिकामा भिन्न कोई दूसरी ही होनी चाहिये। प्रभावकचरितके उन्लेम्बपरमे इसका ग्रा भी ममर्थन होना है; कोंकि उममे 'श्रीवीरस्तति' के बाद जिन 3. दात्रशिकानों को प्रत्या: स्तुती:' लिखा है वे धीवोरमे भिग्न दूमर हो नायकदिकी स्तुनियां जान पड़ती है और इमलिये उपलब्ध द्वात्रिमिकाप्राक प्रथम पर द्वात्रिशिकापञ्चकमें उनका समावेश नहीं किया जा सकता. भिमकी प्रोर द्वाविधिका श्रीवीगभगवानमे ही मम्बन्ध रखती है। उक्त नीनी प्रबन्धाक वाद बने इस विविधतीथंकल्प पोर प्रबन्धकोप ( चविशनिबन्ध) में न प्रारम्भ 'स्वयंभुवं भूतमहननेत्र' इत्यादि पथमे होता है. जो उपलप दापशिकानोंके प्रथम ग्रपका प्रथम पद्य है, हम देकर "न्यादि श्रीबीरदाधिःद्वात्रिशिका कृता" ऐसा लिखा है। यह 13 प्रबन्धगिगत त्रिशिराप्रोमा सम्बन्ध उपलब्ध द्वात्रिंगकामोंके माय जोड़ने के लिये बादको अपनाया गया मालूम होता है; क्योंकि एक नो पूर्व रचित प्रबन्धोंमे इसका कोई समर्थन नही होता, और उक्त तीनों प्रबन्धोंमे हमका स्पष्ट विरोध पाया जाता है। दूसरे, इन दोनों अन्यों में द्वात्रिंशद्वात्रिशिकाको एकमात्र श्रीवीरमे सम्बन्धित किया गया है और उसका विषय भी "देवं स्तोतुमुपचक्रमे" मन्दोंके द्वारा 'स्तृति'