________________ सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन "श्रुत्वेति पुनरासीनः शिवलिंगस्य स प्रभुः। उदाजह स्तुतिश्लोकान् तारस्वरकरम्तदा / / 138 / / -प्रभावकचरित तत: पद्मासनेन भूत्वा द्वात्रिशद्वात्रिशिकाभिदेवं स्तुतिमुपचक्रमे।" -विविधतीर्थकल्ल, प्रबन्धकोश परन्तु उपलब्ध 21 द्वात्रिनिकायों में स्तुतिपरक द्वाविशिकाएँ केवल सान ही है, जिनमें भी एक राजाकी स्तुति होनम देवताविषयक स्तुतियोंकी कोटिसे निकल जाती है और इस तरह छह द्वात्रिशिकाणे ही ऐमी रह जाती है जिनका श्रीवीरवदमानकी स्तुतिम सम्बन्ध है और जो उस अवसरपर उच्चरित कही जा सकती है-१४ द्वात्रिशकाए न तो स्तुति विषयक है, न उक्त प्रमगके योग्य है और इसलिये उनकी गणना उन द्वात्रिशिकाग्रीमे नहीं की जा मकती जिनकी रचना अथवा उच्चारणा सिद्धसेनन गिलिगके मामने बैठकर की थी। यहाँ इतना भोर भी जान लेना चाहिये कि प्रभावकारतके अनुसार स्तुतिका प्रारम्भ "प्रकागिनं स्वयं केन यथा सम्यग्जगत्यय / ' इत्यादि इलाकाम हुमा है. जिनमेंमे "नया हि" गन्दके माथ चार लोकोंको उद्धृत करके उनके + चागलोकग प्रकार हैंप्रकाशित वय केन यथा मम्यजगत्त्रयम् / ममम्मे नी नाय ! वग्नीयाधिस्तथा / / 136 / / विग्रोनयति वा लोक यधको पि निगाकरः / / समृगन: ममनोऽपि तथा कि तार कागगा: / / 140 / / डायपि पाविदोष इनि मद्धम् / भानामंगबर: कम्य नाम नालोकहेनवः / / 141 / / नो वादनमुलूकस्य प्रकृस्या क्लिष्टचेतसः / स्वमा पपि तमम्त्वेन भामन्ते भास्वतः करा: / / 142 / / लिखित पचप्रबन्धमे भी ये ही चारों श्लोक 'तस्मागयस्य तेरणं पारदा जिसपुई इत्यादि पके मनन्तर 'यषा' शम्द के साथ दिये है। -(म. प्र. पृ० 54 टि०५८)